भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं रुझान और संकेतजयशंकर गुप्त
दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों के लिए मतदान कल संपन्न हो गए। तमाम टीवी चैनलों के द्वारा कराए गये ओपिनियन पोल्स की तरह एक्जिट पोल्स के रुझान भी यही बता रहे हैं कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी लगातार तीसरी बार और भारी बहुमत से दूसरी बार सरकार बनाने जा रहे हैं। हालांकि हमारे लिए ओपिनियन पोल्स और एक्जिट पोल्स की विश्वसनीयता हमेशा से संदिग्ध रही है। उनमें से कुछ के रुझान जब शत प्रतिशत या थोड़ा कम अधिक सच साबित हुए तब भी और जब पूरी तरह से गलत हुए तब भी। हमारे लिए ओपिनियन पोल्स और एक्जिट पोल्स मनोरंजन का साधन अधिक लगते हैं।
हमने दिसंबर 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के समय भी तमाम ओपीनियन और एक्जिट पोल्स को खारिज करते हुए सार्वजनिक तौर पर, एक टीवी चैनल पर वरिष्ठ पत्रकारों, संपादकों के साथ चुनावी चर्चा में कहा था कि 'आप' को 30 से कम सीटें नहीं मिलेंगी। तब हमारी बात कोई मानने को तैयार न था। आप के खाते में तब सीटें आई थीं 29।
2015 के विधानसभा चुनाव में भी शुरू से हमारा मानना रहा कि 'आप' को स्पष्ट बहुमत मिल जाएगा, लेकिन जब अरविंद केजरीवाल के बारे में प्रधानमंत्री मोदी जी और उनकी पार्टी के बड़े हो गए बौने नेताओं के मुंह से 'सुभाषित' झरने लगे, बौखलाहट में भाजपा की चुनावी राजनीति के चाणक्य और खासतौर से लोकसभा चुनाव में भाजपा की जीत के सूत्रधार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने मतदान से दो दिन पहले अपना रणनीतिक ज्ञान बांटा कि विदेश में जमा कालाधन लाकर प्रत्येक भारतीय के बैंक खाते में 15 लाख रु. जमा करने का वादा चुनावी जुमला भर था और यह भी कि दिल्ली का यह चुनाव प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज पर रेफरेंडम नहीं माना जाना चाहिए, हमने कहना शुरू किया कि 'आप' को 50 से अधिक सीटें मिल सकती हैं,शं पता नहीं सीटों का आंकड़ा कहां जाकर फिट बैठेगा। नतीजे आए तो आप के खाते में 67 सीटें आईं और भाजपा को तीन सीटों तथा कांग्रेस को शून्य पर संतोष करना पड़ा था।
इस बार के सभी ओपिनियन और एक्जिट पोल्स के रुझान एक बात पर एक राय रहे हैं कि दिल्ली में केजरीवाल फिर प्रचंड बहुमत से सरकार बना रहे हैं और भाजपा की नफरत के आधार पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और चुनाव में साम दाम दंड भेद का इस्तेमाल कर तकरीबन 22 साल बाद दिल्ली में सत्तारूढ़ होने की रणनीति कारगर होते नहीं दिख रही। किसी ने भी भाजपा को 'आप' पर बढ़त अथवा बहुमत के पास पहुंचने के रुझान भी नहीं बताए हैं। ऐसे में कोई करिश्मा, करामात ही अमित शाह से लेकर मनोज तिवारी के 45 से अधिक सीटें जीतने के दावे को सच साबित कर सकते हैं।
दिल्ली के चुनावी नतीजे 11 फरवरी को सामने आएंगे। संभव है कि वास्तविक नतीजे एक्जिट पोल्स के रुझानों को गलत साबित कर दें। मतदान से दो तीन दिन पहले कच्ची, झुग्गी बस्तियों में भाजपा नेताओं, सांसदों की 'सक्रियता' और हिन्दू-मुसलमान के बीच सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति भाजपा को सत्तारूढ़ बनाने या सत्ता के मुहाने तक पहुंचाने में कारगर साबित हो जाए। और यह भी संभव है कि दिल्ली में 'आप' की एक बार फिर राजनीतिक सुनामी ही देखने को मिले। हर हाल में भाजपा और कांग्रेस को भी आत्म चिंतन, मंथन कर अपनी चुनावी रणनीति पर पुनर्विचार करने का समय आ गया लगता है। कांग्रेस के लिए अभी भी अपने बूते दिल्ली में सत्ता बहुत दूर हो गई लगती है। इस बार तो लगता है कि कांग्रेस के उम्मीदवार भले ही मैदान में डटे रहे हों, अधिकतर सीटों पर भाजपा विरोधी मतों का विभाजन रोकने की अलिखित या अघोषित रणनीति के तहत कांग्रेस ढीली पड़ी ही दिखी।
इस बार फिर शुरू से ही लग रहा था कि केजरीवाल के 'काम बोलता है' के मुकाबले मोदी, शाह जी की शिगूफे-जुमलेबाजी टिकनेवाली नहीं है। केजरीवाल के आम जन को दिखने और आकर्षित करने वाले कामों की काट करने, उन्हें काम और विकास के मामले में घेरने और अपने ( केंद्र सरकार, दिल्ली पुलिस, डीडीए, भाजपा के वर्चस्ववाले तीनों नगर निगमों, नई दिल्ली नगरपालिका और सात सांसदों) के कामों, उपलब्धियों को जनता के सामने तुलनात्मक ढंग से रखने के बजाय भाजपा नेतृत्व और उसके रणनीतिकारों ने चुनाव को हिन्दू-मुसलमान के बीच नफरत की दीवार को चौड़ी कर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करवाने पर जोर दिया। सीएए और एनआरसी के विरोध में शाहीनबाग और देश के विभिन्न हिस्सों में भारतीय संविधान, गांधी और अंबेडकर की तस्वीरों, तिरंगे और राष्ट्रगान के साथ शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे लोगों की बात सुनने, उनकी समस्या, आशंकाओं का समाधान करने अथवा समाधान का आश्वासन देने के बजाय सरकार और भाजपा ने उनके दमन-उत्पीड़न के साथ ही उन्हें 'देश द्रोही', गद्दार साबित कर उनके विरुद्ध चुनाव लड़ने की रणनीति अपनाई। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ ही उनके तमाम नेताओं, मंत्रियों, सांसदों और मुख्यमंत्रियों ने इसी रणनीति के तहत सांप्रदायिकता के जहर बुझे नारे और भाषणों को अपने चुनाव अभियान का आधार बनाया। एक आधी, अधूरी दिल्ली सरकार पर काबिज होने के लिए साम-दाम, दंड-भेद की रणनीति पर अमल करते हुए भाजपा और बचे खुचे 'राजग' की पूरी राजनीतिक ताकत दिल्ली में झोंक दी, खुद को चुनावी रणनीति का आधुनिक 'चाणक्य' के रूप में प्रचारित करनेवाले गृहमंत्री अमित शाह स्वयं गली-गली घूमते हुए वोट मांगते और पर्चे बांटते नजर आए। बड़े नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों ने गली-मोहल्लों मे चुनावी रैलियां, सभाएं और रोड शो किए। प्रधानमंत्री मोदी ने भी दो चुनावी रैलियों को संबोधित किया। मतदान के दो-तीन दिन पहले आलाकमान ने अपने सांसदों से अपनी चुनावी रातें, गरीबों की कच्ची, झुग्गी बस्तियों में गुजारने का फरमान जारी किया।
हमेशा अपने जहरीले बयानों के कारण विवादित सुर्खियों में रहनेवाले एक केंद्रीय मंत्री भारी नकदी के साथ दूर दराज के रिठाला पहुंच गये। आप समर्थकों ने उन्हें एक जौहरी की दुकान में कैमरे में कैद कर उन पर पैसे बांटने के आरोप लगाए। कायदे से चुनाव प्रचार बंद हो जाने के बाद किसी बाहरी व्यक्ति को, चाहे वह केंद्रीय मंत्री ही क्यों न हो, किसी चुनाव क्षेत्र में घूमने की इजाजत नहीं होती। लेकिन मंत्री जी मतदान की पूर्व संध्या पर रिठाला के बुद्ध विहार पहुंच गये। उन्होंने वहां एक जौहरी की दुकान से अंगूठी खरीदने की बात की है। बिल भी पेश किया है। गोया, बेगूसराय, पटना अथवा दिल्ली के कनाट प्लेस, चांदनी चौक, करोलबाग या फिर और महत्वपूर्ण इलाकों में बड़े नामी गिरामी जौहरियों की दुकान पर उनकी पसंदीदा अंगूठी नहीं मिल सकती थी। उन्होंने बिल का नकद भुगतान कर प्रधानमंत्री के डिजिटल इंडिया को भी अंगूठा ही दिखाया।
बहरहाल, ओपिनियन और एक्जिट पोल्स के रुझानों से ऐसा नहीं लगता कि दिल्ली में भाजपा की चुनावी रणनीति कारगर हुई। हालांकि उसके नेतृत्व और रणनीतिकारों को हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावी नतीजों और उसके बाद के चुनावी परिदृश्य से सबक लेना चाहिए था क्योंकि इन राज्यों में सावरकर को भारत रत्न देने, जम्मू कश्मीर से संविधान की धारा 370 को हटाने, राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले, और फिर सीएए और एनआरसी जैसे भावनात्मक मुद्दों को भुनाने का अपेक्षित राजनीतिक लाभ भाजपा को नहीं मिला। दिल्ली में एक्जिट पोल्स के रुझान भी यही बता रहे हैं कि जन सरोकारों, महंगाई, बेरोजगारी, महिलाओं के साथ जुल्म ज्यादती, भ्रष्टाचार, लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के बजाय आप अगर हिन्दुत्व, हिन्दू-मुसलमान, भारत-पाकिस्तान के भावनात्मक मुद्दों को उछालकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीतिक रणनीति में ही उलझे रहे तो आनेवाले दिनों में आपके लिए संकेत अच्छे नहीं कहे जा सकते। इसी साल आपको बिहार विधानसभा और फिर आगे पश्चिम बंगाल, असम और तमिलनाडु विधानसभाओं के चुनावों का सामना भी करना पड़ेगा!
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Sunday, 9 February 2020
Tuesday, 14 May 2019
प्रधानमंत्री जी, ये मीटू - मीटू क्या है !
संदर्भ अलग है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते 3 मई को राजस्थान के सीकर में एक चुनावी रैली में कांग्रेस पर जिस ‘मी टू मी टू’ का जिक्र किया, उसका संदर्भ पूर्व विदेश राज्य मंत्री एम जे अकबर के ‘मी टू’ से सर्वथा अलग है. अकबर पर संपादक रहते उनकी कुछ सहकर्मियों ने यौन शोषण का आरोप लगाया था. लेकिन बात बेबात तुकबंदी भिड़ाने के अभ्यस्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीकर में ‘मी टू मी टू’ के जरिए कांग्रेस के यूपीए शासन में छह सर्जिकल स्ट्राइक करने लेकिन उसका कभी ढिंढोरा नहीं पीटने के दावे की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि कांग्रेस अब सर्जिकल स्ट्राइक पर ‘मी टू मी टू’ कर रही है जबकि उसके शासन में हुए सर्जिकल स्ट्राइक कागजी थे. क्योंकि कांग्रेस की स्ट्राइक के बारे में न सेना, ना देश और ना ही पाकिस्तान को ही पता चला.
दरअसल, एक दिन पहले प्रधानमंत्री मोदी ने पुलवामा, उरी, पठानकोट आतंकी हमले के मास्टर माइंड आतंकी सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने का श्रेय लेते हुए इसे अपनी सरकार का सर्जिकल स्ट्राइक नंबर 3 घोषित किया था. इसी के जवाब में कांग्रेस ने कहा था कि यूपीए शासन में भी सेना ने छह बार सर्जिकल स्ट्राइक की थी. लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए इसका कभी ढिंढोरा नहीं पीटा था. कांग्रेस के छह सर्जिकल स्ट्राइक्स की ताईद मोदी सरकार के पहले सर्जिकल स्ट्राइक के हीरो रहे लेफ्टिनेंट जनरल डी एस हुड्डा ने भी की है.
मसूद अजहर, वैश्विक आतंकवादी |
आतंकी सरगना मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र के द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित किए जाने के लिए भारत सरकार और खासतौर से भारतीय राजनय, संयुक्त राष्ट्र में भारत के राजदूत सैयद अकबरुद्दीन बधाई और सराहना के हकदार हैं. लेकिन क्या वाकई मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करना प्रधानमंत्री जी के शब्दों में ‘सर्जिकल स्ट्राइक 3’ है! संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की सैंक्शन (प्रतिबंध लगानेवाली) समिति के प्रस्ताव को देखें तो माजरा कुछ और ही नजर आता है. मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित करने के पुराने प्रस्तावों पर चीन वीटो लगाते रहा लेकिन इस बार जब प्रस्ताव को संशोधित करके पेश किया गया तब जाकर चीन उस पर से अपना वीटो हटाने को राजी हुआ. इसके अलावे भारत के साथ चीन का जो कूटनीतिक आदान प्रदान हुआ, सो अलग है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के संशोधित प्रस्ताव में जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों और खासतौर से 14 फरवरी को पुलवामा में हुए आतंकी हमले में मसूद अजहर और उसके आतंकी संगठन जैश ए मोहम्मद की सहभागिता का जिक्र ही नहीं है. गौरतलब है कि इस हमले में हमारे सीमा सुरक्षा बल के 40 जवान शहीद हो गए थे. इसकी जिम्मेदारी जैश ए मोहम्मद के खूंखार आतंकी सरगना मसूद अजहर और उसके संगठन ने ली थी. लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का संशोधित प्रस्ताव कहता है, ‘‘मसूद अजहर के अलकायदा और तालिबान के साथ जुड़ा होने के साथ ही अफगानिस्तान में पश्चिमी ताकतों से लड़ने के लिए लड़ाकों की भर्ती का आह्वान करने के लिए उसे ‘वैश्विक आतंकवादी’ घोषित किया जाता है.’’ इस प्रस्ताव के बारे में अमेरिकी सीएनएन (केबल न्यूज नेटवर्क) की रिपोर्ट का अंश देखें,
"Azhar was sanctioned for his association with terror organizations such as Al-Qaeda and for "participating in the financing, planning, facilitating, preparing, or perpetrating of acts or activities" associated with JeM, the ISIL (Da'esh) and Al-Qaida Sanctions Committee said in a statement. Azhar's alleged association with the bombing in February, an attack on the Indian parliament in 2001 and other incidents in the Kashmir valley have not been listed in the statement."
कंधार में मसूद अजहर को आतंकवादियों के सुपुर्द करते तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह |
इसके बावजूद अगर प्रधानमंत्री मोदी अपनी पीठ थप थपाना चाहें तो उन्हें कौन रोक सकता है. लेकिन अगर यह प्रस्ताव सर्जिकल स्ट्राइक नंबर 3 है तो फिर जनवरी 2001 के पहले सप्ताह में मसूद अजहर और उसके साथ दो अन्य खूंखार आतंकवादियों को भारत की जेल से निकालकर तत्कालीन विदेश मंत्री जसवंत सिंह की देख रेख में भारी माल असबाब के साथ ससम्मान विमान में ले जाकर अफगानिस्तान के कंधार में उसके आतंकवादी साथियों को सौंपना क्या था! और फिर यूपीए सरकार के जमाने में हुए सैन्य आपरेशनों को कागजी बताकर कांग्रेस का उपहास करने वाले प्रधानमंत्री मोदी जी को यह बात याद है कि 26 नवंबर 2008 को मुंबई पर आतंकी हमले के मास्टर माइंड, लश्करे तैयबा के मुखिया हाफिज सईद को 14 दिन के भीतर, 10 दिसंबर 2008 को मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा इसी संयुक्त राष्ट्र की
सुरक्षा परिषद से अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी घोषित करवाया था. मोदी जी उसे कौन सा सर्जिकल स्ट्राइक नंबर कहेंगे!
हाफिज सईद, वैश्विक आतंकवादी |
हालांकि हाफिज सईद का वैश्विक आतंकी घोषित होने के बावजूद बाल भी बांका नहीं हुआ. वह अब भी बड़े ठाठ के साथ पाकिस्तान में अपने प्रतिबंधत संगठन ‘लश्करे तैयबा’ का नाम बदल कर ‘जमात उद् दावा’ और उसके चैरिटी विंग फलह ए इंसानियत फाउंडेशन के नाम से सक्रिय रहते हुए आतंकी गतिविधियां संचाालित करते रहा है. पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान ने ‘जमात उद् दावा’ और ‘फलह ए इंसानियत फाउंडेशन’ पर भी प्रतिबंध लागू कर दिया है. सुरक्षा विशेषज्ञ कहते हैं कि इन खूंखार आतंकी सरगनाओं के विरुद्ध पश्चिमी देशों और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को खुश करने के लिए दिखावे के तौर पर पाकिस्तान चाहे कुछ भी कहे, करे, असल में वह इन्हें पालता पोसता और इनका भारत में आतंकी गतिविधियों को संचालित करने के मामले में इस्तेमाल करता है.
सुरक्षा विशेषज्ञों के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी को बात बेबात अपनी ‘उपलब्धियों’, वैश्विक नेताओं के साथ अपने बेहद करीबी, तू के संबोधनवाले रिश्तों का इस्तेमाल कर इन दोनों आतंकवादी सरगनाओं को भारत लाकर उन पर मुकदमा चलवाना और उन्हें उनके किए की सजा दिलवानी चाहिए थी. और हां, उस दाऊद इब्राहिम कास्कर का क्या हुआ! 12 मार्च 1993 को मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों का वह मास्टर माइंड, तस्कर सम्राट, आतंकी सरगना भी तो पाकिस्तान में ही जड़ जमाए बैठा है. मोदी जी को अपनी घर में घुसकर मारने की नीति उसके मामले में शिथिल क्यों पड़ गई. वह तो न जाने कब से उसे वापस लाकर उसके किए की सजा दिलाने की बात करते आ रहे (इधर आप उसकी चर्चा कुछ कम करने लगे हैं) थे. क्या हुआ, कोई समस्या, दबाव!
मेदी जी लोकसभा चुनाव के लिए अपने प्रचार अभियान के दौरान लगातार कह रहे हैं कि उनके पांच वर्षों के शासन में देश में कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ और महाराष्ट्र को नक्सल मुक्त कर दिया गया है. तो फिर उरी, पठानकोट एयरबेस और अभी पुलवामा में हुए आतंकवादी हमलांे और अभी चंद रोज पहले महाराष्ट्र के गढचिरोली जिले में नक्सलियों द्वारा हमारे हमारे 16 जवानों को सड़क पर आइईडी ब्लास्ट के जरिए मौत के घाट उतार दिए जाने को क्या कहेंगे! उरी, पठानकोट, पुलवामा में आतंकी हमलों, सीमा पर लगातार युद्ध विराम के उल्लंघन, गढ़चिरोली तथा, दंडकारण्य एवं देश के अन्य इलाकों में आए दिन नक्सली हमलों में शहीद होनेवाले हमारे जवानों के शव लगातार उनके घर पहुंचते रहने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी अगर यह कहते हैं कि उनके ही हाथों में देश सुरक्षित है! तो इस पर हंसी नहीं रोना ही आ सकता है.
इतिहास-भूगोल का प्रधानमंत्री मोदी का ‘विलक्षण ज्ञान’ (Factual blunders in Prime Minister Modi Speeches)
इतिहास-भूगोल का प्रधानमंत्री मोदी का ‘विलक्षण ज्ञान’
जयशंकर गुप्त
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राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त |
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कमलनाथ, मुख्यमंत्री म.प्र. |
इसी दिन राजस्थान में एक चुनावी सभा में प्रधानमंत्री मोदी जी ने चुरु को पाकिस्तान की सीमा पर स्थित बता दिया. राजस्थान के लोग भी प्रधानमंत्री के ‘इतिहास-भूगोल ज्ञान’ पर हंस रहे हैं. एक सप्ताह पहले महाराष्ट्र के लातूर की एक चुनावी सभा में मोदी जी ने कहा, ‘‘कांग्रेस वालों ने बाला साहेब ठाकरे की नागरिकता को छीन लिया था. उनके मतदान करने का अधिकार छीन लिया था..’’
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शिवसेना संस्थापक स्व. बाल ठाकरे |
सच यह है कि शिव सेना के संस्थापक स्व. बाल ठाकरे के चुनाव लड़ने और वोट देने पर प्रतिबंध कांग्रेस की सरकार ने नहीं लगाया था बल्कि देश के राष्ट्रपति के रेफर करने पर चुनाव आयोग ने बाल ठाकरे के लिए यह सजा तय की थी और उस दौरान देश में कांग्रेस की नहीं बल्कि भाजपा की सरकार थी और भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे.
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नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री |
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चाणक्य और चंद्रगुप्त |
मोदी जी ने एक बार कहा कि प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामा प्रसाद मुखर्जी गुजरात की मिट्टी में पैदा सपूत थे जो लंदन में रहकर क्रांतिकारियों का सहयोग करते थे. वहां वह स्वामी विवेकानंद और स्वामी दयानंद सरस्वती के संपर्क में रहते, उनसे परामर्श करते थे. उन्होंने इच्छा जताई थी कि मरने के बाद उनकी अस्थियां आजाद भारत के गुजरात में प्रवाहित की जाएं.
सच यह है कि जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी पश्चिम बंगाल में कोलकाता के थे और उनका निधन आजाद भारत में जम्मू-कश्मीर की एक जेल में हुआ था और फिर जब डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक साल के थे तो स्वामी विवेकानंद का निधन हो गया था. दयानंद सरस्वती का निधन तो मुखर्जी के जन्म से काफी पहले हो चुका था. दरअसल, मोदी जी प्रसिद्ध क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा के बारे में बोलना चाह रहे थे, जो गुजरात के थे लेकिन मोदी जी उनकी जगह बार बार श्यामा प्रसाद मुखर्जी का नाम ले रहे थे.
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डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और स्वामी विवेकानंद |
प्रधानमंत्री मोदी ने एक प्रमुख हिंदी दैनिक को दिए एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में कहा कि ‘‘सरदार पटेल की अंत्येष्टि में नेहरू शामिल नहीं हुए थे.’’ लेकिन पटेल की अंत्येष्टि के मौके की तस्वीरें बताती हैं कि उनकी शव यात्रा में नेहरू सरदार पटेल के बेटी-बेटे के साथ चल रहे थे.
मोदी जी ने उत्तर प्रदेश के मगहर में राज्य के मुख्यमंत्री और गुरु गोरक्षनाथ पीठ के पीठाधीश्वर आदित्यनाथ के साथ मंच साझा करते हुए कहा, ‘‘संत कबीर, गुरु गोरखनाथ और गुरु नानकदेव एक साथ यहीं मगहर में बैठकर आध्यात्मिक विमर्श करते थे.’’ सच यह है कि तीनों संत महात्माओं के कालखंड में भारी अंतर है. गुरु गोरक्षनाथ 11हवीं शताब्दी के प्रारंभ में, संत कबीर 15हवीं शताब्दी तथा गुरुनानक देव 15 अप्रैल 1469 से लेकर 22 सितंबर 1539 तक थे.
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आदित्यनाथ, संत कबीर, गुरु नानकदेव |
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अटल बिहारी वाजपेयी और सीताराम केसरी |
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इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो |
9 मई, 2018 को कर्नाटक के बीदर में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार कर रहे मोदी जी ने कहा, ‘‘कांग्रेस का कोई नेता फांसी से पहले देश की आजादी के लिए लड़ रहे शहीद भगत सिंह और उनके साथियों से जेल की काल कोठरी में मिलने नहीं गया था. अब लोग भ्रष्टाचारियों से मिलने जेल में जा रहे हैं.’’
इस झूठ का खुलासा 10 अगस्त 1929 के ट्रिब्यून अखबार की एक कतरन से हुआ जिसमें जवाहरलाल नेहरू के बयान के अनुसार वह 9 अगस्त 1929 को लाहौर सेंट्रल जेल में गए थे और भगत सिंह और उनके साथियों से मिले थे जो उस समय भूख हड़ताल पर थे.
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जवाहरलाल नेहरू |
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नरेंद्र मोदी |
पिछले साल 3 मई को कर्नाटक विधानसभा के चुनाव के समय चुनावी रैली में मोदी जी ने कहा कि ‘‘कर्नाटक बहादुरी का पर्याय माना जाता है, लेकिन कांग्रेस सरकार ने फील्ड मार्शल के एम करियप्पा और जनरल थिमय्या के साथ कैसा बर्ताव किया?’’
उन्होंने कहा, ‘‘1948 में जनरल थिमैया के नेतृत्व में भारत ने पाकिस्तान से युद्ध जीता लेकिन उस पराक्रम के बाद कश्मीर को बचाने वाले जनरल थिमैया का तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू और रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन ने बार-बार अपमान किया जिसके बाद उन्हें अपने सम्मान की खातिर अपने पद से इस्तीफा देना पड़ा था.’’ सच यह है कि वी कृष्ण मेनन अप्रैल 1957 से लेकर अक्टूबर, 1962 तक देश के रक्षा मंत्री थे. वहीं जनरल थिमय्या मई, 1957 से मई 1961 तक ही सेनाध्यक्ष थे.
जनरल करियप्पा के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘1962 के भारत-चीन युद्ध में फील्ड मार्शल करियप्पा का रोल इतिहास की तारीखों में दर्ज है. उनके साथ कांग्रेस की सरकारों ने कैसा व्यवहार किया था.’’
सच यह है कि जनरल करियप्पा 1953 में ही रिटायर हो गये थे. 1949 में नेहरू सरकार ने उन्हें सेना का कमांडर इन चीफ बनाया था. 1986 में राजीव गांधी की सरकार ने उन्हें फील्ड मार्शल का रैंक प्रदान किया था.
मई, 2019 के दूसरे सप्ताह में प्रधान मंत्री मोदी ने एक खबरिया चैनल (न्यूज नेशन) के अपने प्रिय पात्र पत्रकार दीपक चौरसिया को दिए गए ट्रांस्क्रिप्टड इंटरव्यू में चौंकानेवाला दावा किया कि उन्होंने 1987-88 में डिज़िटल कैमरे से आडवाणी जी के किसी कार्यक्रम की रंगीन फोटो खींच email से भेजा था। हमारे महा ज्ञानी प्रधानमंत्री को कौन समझाए कि email का प्रचलन ही भारत में 90 के दशक में में शुरु हुआ. फिर आपने 1987-88 में ही ईमेल भेज दिया और फिर, उस समय डिजिटल कैमरा भी कहां था!
यह सब और इससे भी ज्यादा ऐतिहासिक, भौगोलिक ज्ञान के ‘सच’ हमारे प्रधानमंत्री जी के मुखारविंद से आए दिन निकलते रहे हैं. लेकिन कभी भी उन्हें अपने इस ‘विलक्षण ज्ञान’ पर मलाल नहीं रहा और न ही उन्होंने अपने इस तरह के ’ज्ञान’ के सार्वजनिक प्रदर्शन पर कभी अफसोस ही जाहिर किया. आनेवाली पीढ़ियां देश के इसी तरह के ‘इतिहास, भूगोल के ज्ञान’ को अर्जित करेंगी!
Wednesday, 6 February 2019
खामोशी से चले गए समाजवादी राजनीति के अथक योद्धा
जयशंकर गुप्त
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अलविदा जॉर्ज |
बहुआयामी व्यक्तित्ववाले, दर्जन भर भाषाओं के जानकार जार्ज फर्नांडिस के साथ हमारा जुड़ाव सत्तर के शुरुआती दशक में हुआ था जब वह सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे और हम समाजवादी युवजन सभा के एक कार्यकर्ता के बतौर सार्वजनिक जीवन में प्रवेश कर रहे थे. हमारे पिता, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता सेनानी, पूर्व विधायक स्व. विष्णुदेव उनके करीबी मित्र और सहयोगी थे. मधुबन, आजमगढ़ और मऊनाथभंजन में कई बार आए जार्ज फर्नांडिस ने हमारे यहां छोटी-बड़ी बहुतेरी सभाओं को संबोधित किया था. उस समय शेख मुजीबुर्रहमान के संघर्ष और बांग्लादेश के उदय का हवाला देकर वह पूर्वी उत्तर प्रदेश के पिछड़ेपन के विरुद्ध विद्रोह संगठित करने की बातें करते थे. बाद के वर्षों में एक पत्रकार के रूप में भी हमारा उनसे गहरा जुड़ाव रहा. हमने 1980 में नई दिल्ली के 26 तुगलक क्रीसेंट स्थित उनके निवास पर रहकर फीचर एजेंसी, ‘लेबर प्रेस सर्विस’ का काम किया था. आपातकाल के दौरान, जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमारी गिरफ्तारी भी उनके साप्ताहिक प्रतिपक्ष के साथ ही हुई थी जिसे प्रतिबंधित कर दिया गया था. बाद के वर्षों में भी प्रतिपक्ष और उसके अंग्रेजी संस्करण ‘दि अदर साइड’ का प्रकाशन उन्होंने करवाया था.
अस्सी के दशक के मध्य में रविवार के संवाददाता के रूप में बिहार प्रवास के दौरान भी हमारा उनसे लगातार जुड़ाव रहा. उनके साथ कई बार बिहार और खासतौर से भागलपुर,बांका, पूर्णिया और अररिया की कार यात्राएं की. एक बार तो भागलपुर के रास्ते में वह खुद भी अपने मित्र सुभाष तनेजा की मारुति ओमनी चलाने लगे.रास्ते में गड्ढा आ जाने पर उन्होंने ऐसा जोर का ब्रेक मारा कि गाड़ी उल्टी दिशा में घूम गई. हमने उनसे हाथ जोड़ कर कहा कि यह बंबई नहीं बिहार की सड़क है. आप रहने दें, गाड़ी सुभाष को ही चलाने दें. वह जोर से हंसे थे और ड्राइविंग सीट पर सुभाष का बिठा दिया था.
मुंबई और जार्ज
जॉर्ज फर्नांडिस बंबई के मजदूर आंदोलन में पचास-साठ के दशक में ही बड़ा नाम बन चुके थे. निगम पार्षद और विधायक भी चुने गए थे लेकिन देश-विदेश में उनकी ख्याति उस समय, 1967 में हुई थी जब वह बंबई के बेताज बादशाह कहे जानेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सदोबा कानोजी पाटिल को हराकर लोकसभा में पहुंचे थे. तब अखबारों ने उन्हें ‘जार्ज दि जाइंट किलर’ कहा था.
बंबई वह मंगलोर, आज के मंगलुरु में अपना घर परिवार छोड़, भाग कर पहुंचे थे. उनका जन्म मंगलोर में 3 जून 1930 को हुआ. उनकी मां एलीस मार्था फर्नांडिस किंग जॉर्ज पंचम की प्रशंसक थीं, जिनका जन्म भी 3 जून को ही हुआ था, इस कारण उन्होंने इनका नाम जॉर्ज रखा था. मंगलोर के एलॉयसिस स्कूल से बारहवीं की पढ़ाई के बाद परिवार की रूढ़िवादी परंपरा के चलते बड़ा पुत्र के नाते उन्हें धर्म की शिक्षा के लिए बंगलोर, आज के बंगलुरु में सेंट पीटर सेमिनेरी भेज दिया गया. 16 वर्ष की उम्र में उन्हें 1946-1948 तक रोमन कैथोलिक पादरी का प्रशिक्षण दिया गया. लेकिन चर्च में गैर बराबरी के माहौल से खिन्न होकर वह वहां से भाग खड़े हुए. और फिर नौकरी की तलाश में बम्बई, आज की मुंबई पहुंच गए. शुरुआती जीवन बहुत ही कष्टकर रहा. रेस्तरां में वेटर के काम से लेकर फुटपाथ पर सोने की जिंदगी का अनुभव उन्हें हासिल हुआ. इसका जिक्र करते हुए एक बार उन्होंने बताया था कि वह चौपाटी के फुटपाथ पर सोया करते थे, कई बार पुलिसवाला उन्हें उठा कर वहां से जाने को कहता था. बाद में उन्हें एक अखबार में प्रूफ रीडर की नौकरी मिल गई. आगे चलकर उनका संपर्क अनुभवी समाजवादी, ट्रेड यूनियन नेता पी डीमेलो और फिर समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया से हुआ, जिनका उनके जीवन पर बड़ा प्रभाव रहा. बाद में वह समाजवादी ट्रेड यूनियन आंदोलन और फिर समाजवादी राजनीति की मुख्य धारा से भी जुड़ते गए. मुंबई में उन्होंने एक एक कर म्युनिस्पिल मजदूर यूनियन, हाॅकर्स यूनियन, टैक्सीमेंस यूनियन और फिर बेस्ट कर्मचारी यूनियन आदि छोटी बड़ी मजदूर यूनियनों पर कब्जा जमाते हुए एक तरह से उस समय बंबई के मजदूर आंदोलन में स्थापित श्रीपाद अमृत डांगे और एस वाय कोल्हटकर जैसे स्थापित कम्युनिस्ट नेताओं को बेदखल कर अपना वर्चस्व कायम किया. उन्होंने मजदूरों और खासतौर से टैक्सीवालों की ऋण समस्या के समाधान के लिए 1968 में ‘बाम्बे लेबर कोआपरेटिव बैंक’ की स्थापना कर संघर्ष के साथ रचना का पुट भी जोड़ा जो अभी ‘न्यू इंडिया कोआपरेटिव बैंक लि. के नाम से सक्रिय है.
समाजवादी राजनीति में डा. लोहिया के कट्टर अनुयायियों में मधु लिमये और जार्ज फर्नांडिस की जोड़ी बहुत मशहूर रही. सन 1967 के आम चुनाव में बम्बई दक्षिण संसदीय सीट से संसोपा के उम्मीदवार के रूप में कांग्रेस के उस दौर के प्रसिद्ध और अजेय कहे जानेवाले नेता एस के पाटिल को परास्त कर सुर्खियों में आए जार्ज 1971 का चुनाव हार गए. बाद में वह सोशलिस्ट पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और फिर ऑल इंडिया रेलवेमेंस फेडरेशन का अध्यक्ष भी चुने गए. उन्होंने 1974 में लाखों कामगारों के साथ ऐतिहासिक रेल हड़ताल करवाई, इस कारण जार्ज समेत हजारों आंदोलनकारियों को जेल में डाल दिया गया. वह हड़ताल तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सरकारी दमन और कुछ अंदरूनी भितरघातियों की दगाबाजी के कारण टूट गई थी.
जार्ज और प्रतिपक्ष
इसी दौरान उन्होंने प्रतिपक्ष के नाम से साप्ताहिक अखबार भी निकाला जो उस समय सड़क से लेकर संसदीय प्रतिरोध का मुखपत्र बन गया. प्रतिपक्ष की ख्याति और चर्चा 1974 में उस समय संसद और उसके बाहर भी जोर शोर से हुई थी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में आयात लाइसेंस घोटाला हुआ था. 8 सितंबर, 1974 के अंक में ‘प्रतिपक्ष’ के मुख्य पृष्ठ का शीर्षक था ‘संसद या चोरों और दलालों का अड्डा?’ एक जगह संसद को ‘वेश्यालय’ भी लिखा गया था. इस धमाकेदार स्टोरी और उसके 'अपमानजनक शीर्षक' को लेकर लोकसभा में सत्ता पक्ष ने नहीं बल्कि विपक्ष के पीलू मोदी और राज्यसभा में लालकृष्ण आडवाणी ने प्रतिपक्ष के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया. लोकसभा में पांच दिन तक इस बात को लेकर सत्ता और विपक्ष में घमासान होता रहा कि प्रतिपक्ष के खिलाफ मामले को विशेषाधिकार समिति को भेजा जाए या नहीं. इसके पीछे विरोधी दलों की रणनीति आयात लाइसेंस घोटाले को एक बार फिर से चर्चा का विषय बनाने और सरकार को घेरने की थी. लेकिन तभी किसी ने इंदिरा गांधी को विपक्ष की इस चाल के बारे में बता दिया. फिर क्या था, पहले प्रतिपक्ष के विरुद्ध आग बबूला कांग्रेसी सांसद लोकसभाध्यक्ष गुरुदयाल सिंह ढिल्लों से गुजारिश करने लगे कि प्रतिपक्ष के खिलाफ मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए. अंततः पत्रिका के खिलाफ मामला न तो विशेषाधिकार समिति को भेजा गया और न ही लाइसेंस घोटाले को उसकी तार्किक परिणति तक पहुंचाया जा सका. लेकिन पूरा देश जान गया कि लाइसेंस घोटाले को किस तरह सर्वोच्च स्तर से दबा दिया गया. उक्त घोटाले में बिहार से कांग्रेस के एक सांसद तुलमोहन राम और एक अन्य पूर्व सांसद को सजा देकर इसकी इति मान ली गई.
आपातकाल और डायनामाइट कांड
इंदिरा गांधी (दायीं ओर) और इमरजेंसी की प्रतीक बन गई जॉर्ज के हाथों की हथकडियां |
जार्ज फर्नांडिस बिहार आंदोलन में भी खूब सक्रिय रहे. जब देश में आपातकाल लगा, वह भूमिगत हो गए. उन्होंने समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर, लाड़ली मोहन निगम, सीजीके रेड्डी, पत्रकार के. विक्रम राव एवं कुछ अन्य सहयोगियों को साथ लेकर आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत संघर्ष किया, यह बताने के लिए कि इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध प्रतिरोध पूरी तरह मरा नहीं बल्कि जिंदा है. उन्होंने लोकतंत्र की रक्षा के लिए एक हद तक हिंसा को भी जायज माना, बशर्ते उसमें किसी की जान नहीं जाए. बाद में वह कलकत्ता, आज के कोलकाता में गिरफ्तार हुए. उनके करीबी मित्रों की मानें तो उन्हें मार डालने की योजना थी लेकिन कलकत्ता में उनके मेजबान, चौरंगी पर स्थित सेंट कैथेड्रल चर्च के पादरी विजयन ने कोलकाता में ब्रिटिश और जर्मन उच्चायोग में उनकी गिरफ्तारी की सूचना कर दी. नतीजतन ब्रिटिश प्रधान मंत्री जेम्स कैलेघन, जर्मन चांसलर विली ब्रांट, आस्ट्रिया के चांसलर ब्रूनो क्राइस्की तथा नार्वे के प्रधानमंत्री ओडवार नोर्डी आदि सोशलिस्ट इंटरनेशनल के नेताओं ने एक साथ इंदिरा गांधी को उनके मास्को प्रवास के दौरान फोन पर आगाह किया कि यदि जार्ज का एनकाउंटर हुआ तो परिणाम गम्भीर होंगे. इस तरह जार्ज बच गये और तिहाड़ जेल में रखे गये.
उन पर और उनके दो दर्जन सहयोगियों पर ‘बड़ौदा डायनामाइट कांड’ के रूप में सशस्त्र विद्रोह और राजद्रोह का मुकदमा शुरु हुआ. जेल में उन्हें और उनके करीबी मित्रों, सहयोगियों को कठोर यातनाएं दी गईं. उनसे पहले गिरफ्तार उनके भाई लारेंस और सहयोगी-मित्र,अभिनेत्री स्नेहलता रेड्डी की जेल में इस कदर पिटाई और यातना हुई कि लारेंस के पैर की हड्डी टूट गई जबकि स्नेहलता रेड्डी की तो जान ही चली गई. बड़ौदा डायनामाइट कांड का मुकदमा मार्च 1977 में आपातकाल हटने और जनता पार्टी के सत्तारूढ़ होने, जेल में रहते हुए ही जार्ज फर्नांडिस के बिहार के मुजफ्फरपुर से प्रचंड मतों से लोकसभा का चुनाव जीतने और केंद्र सरकार में मंत्री बनने से ठीक पहले ही बंद हुआ.
बिहार बना कर्मभूमि
जेल में रहते हुए भी मुजफ्फरपुर से लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद से ही जार्ज का मुंबई और महाराष्ट्र की राजनीति, मजदूर आंदोलन से जुड़ाव कुछ कम होता गया और बिहार से बढ़ता गया. जनता पार्टी की सरकार में उद्योग मंत्री रहते उन्होंने कोका कोला और आई बीएम जैसी मल्टीनेशनल कंपनियों को देश से बाहर करने जैसे कुछ अच्छे कार्य किए.मुजफ्फरपुर में कांटी थर्मल पावर स्टेशन की स्थापना करवाई. भारत वैगन का राष्ट्रीयकरण करवाया. लेकिन बाद में वह सत्तारूढ़ राजनीति का अंग होते गए और यह कह कर अपना पिंड छुड़ाने लगे कि ‘‘मैं किसी समाजवादी सरकार का मंत्री नहीं हूं.’’ एक समय ऐसा भी आया जब उन्होंने दोहरी सदस्यता के सवाल पर संघ और जनसंघ का विरोधी होने के बावजूद मोरारजी देसाई की सरकार के एक मंत्री के रूप में लोकसभा में उनकी सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार का जमकर बचाव किया और अगले ही दिन सरकार से अलग हो मधुलिमये, राजनारायण, कर्पूरी ठाकुर जैसे पुराने समाजवादी साथियों की कतार में शामिल हो चौधरी चरण सिंह के साथ हो गये. ऐसा उन्होंने मधुलिमये के नैतिक दबाव में किया था जिसका जिक्र उन्होंने मुझसे एक लंबे साक्षात्कार में किया था जो 11 जनवरी 1998 के हिन्दुस्तान अखबार में प्रकाशित हुआ था.
1980 का लोकसभा चुनाव भी उन्होंने लोकदल के टिकट पर मुजफ्फरपुर से ही लड़ा और जीता. लेकिन 1984 में न जाने क्यों, शायद कर्पूरी ठाकुर से अलगाव हो जाने के कारण वह बिहार छोड़कर अपने गृह प्रांत कर्नाटक में बेंगलुरु उत्तरी से चुनाव लड़ने चले गए जहां कांग्रेस के कद्दावर नेता, केंद्रीय मंत्री सी के जाफर शरीफ के मुकाबले कम मतों से हार गए. बाद में वह फिर बिहार लौटे और बांका संसदीय उप चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर सिंह के विरुद्ध चुनाव लड़े. उस उप चुनाव में जबरदस्त धांधली और बूथ कैप्चरिंग हुई थी जिससे उनके समर्थकों का मानना था कि जार्ज को जबरन हरा दिया गया. हमने उस समय साप्ताहिक ‘रविवार’ में ‘चंद्रशेखर सिंह की जाली जीत’ शीर्षक से आमुख कथा लिखी थी. कुछ ही समय बाद, चंद्रशेखर सिंह के निधन के बाद बांका में फिर उपचुनाव हुआ जिसमें उसी धांधली और बूथ कैप्चरिंग के जरिए उनकी विधवा मनोरमा सिंह चुनाव जीत गई थीं. मुझे याद है कि उस उपचुनाव की रिपोर्टिंग और ‘बूथ कैप्चरिंग’ की फोटोग्राफी करते समय जसीडीह के पास एक बूथ पर हमारी पिटाई भी हो गई थी. हमारे साथ समाजवादी चंद्रभूषण दुबे और मानवाधिकार कार्यकर्ता किशोरी दास को भी पीटा गया था.
जनता दल, समता पार्टी और राजग की राजनीति!
1989 और 1991 में भी एक बार फिर वह जनता दल के उम्मीदवार के रूप में मुजफ्फरपुर से ही लोकसभा का चुनाव लड़े और जीते. वह वीपी सिंह की सरकार में रेल मंत्री भी बने. रेल मंत्री के रूप में उन्होंने देश को कोंकण रेल और बिहार को छितौनी बगहा पुल दिया. लेकिन बाद के दिनों में जनता दल की राजनीति में पुराने सहयोगियों-शरद यादव, लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार की तिकड़ी के द्वारा हासिए पर धकेल दिए जाने से वह बहुत दुखी और कुपित थे. इस तिकड़ी ने 1993 में उन्हें जनता दल संसदीय दल के चुनाव में शरद यादव के हाथों हरवा दिया. उस समय जार्ज फर्नांडिस के पास एक विकल्प तो अपने समाजवादी सखा मधुलिमये की तरह सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेने का भी था लेकिन वह एक जुझारू मजदूर-जन नेता थे. उन्होंने इसका राजनीतिक जवाब देने की ठान ली. इस क्रम में उनका लालू विरोध बढ़ता गया.
इस बीच नीतीश कुमार भी इस तिकड़ी से बाहर हो गए. उनके और कुछ अन्य साथियों के दबाव में उन्होंने 1994 में पहले जनता दल (जार्ज) और फिर समता पार्टी का गठन किया. लेकिन 1995 के बिहार विधानसभा के चुनाव में बुरी तरह हार जाने के बाद नीतीश कुमार और साथियों के दबाव में उन्होंने समता पार्टी और भाजपा का गठबंधन मंजूर किया. उसके बाद तो वह उसी गैर कांग्रेसवाद के सबसे बड़े पैरोकार और प्रवक्ता ही बन गए जिसके प्रस्ताव के लिए कभी 1963 में कलकत्ता में सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलन में उन्होंने अपने नेता डा. लोहिया की भी कड़ी मुखालफत करते हुए कहा था, ‘‘इस प्रस्ताव के चलते हम लोग जिस रास्ते पर जाएंगे, वहां से अपना मुंह काला करके लौटेंगे.’’ बाद में डा. लोहिया के इसे अल्पकालिक रणनीति के बतौर मान लेने के नैतिक दबाव और प्रस्ताव के पक्ष में दो बार भाषण करने के बाद ही वह प्रस्ताव मंजूर हो सका था.
बहरहाल, 1998-99 में समता पार्टी केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ भाजपानीत राजग की सरकार में सहयोगी बनी. फर्नांडिस उसमें रक्षा मंत्री तथा राजग के संयोजक और नीतीश कुमार रेल मंत्री बने थे. रक्षामंत्री के रूप में जार्ज ने कई अच्छे कार्य किए. अपने नए चुनाव क्षेत्र नालंदा को आयुध कारखाना दिया तो पोखरण का परमाणु विस्फोट उनके रक्षामंत्री रहते ही हुआ. करगिल युद्ध भी उनके रक्षामंत्री रहते ही हुआ जिसमें पाकिस्तानी घुसपैठी सैनिकों को खदेड़ने में हमारी सेना कामयाब रही. सियाचिन ग्लेशियर की दुरुह बर्फीली पहाड़ियों पर तैनात सैनिकों की दशा-दुर्दशा जानने के लिए वहां जानेवाले वह पहले रक्षामंत्री थे. वे वहां 18 बार गए. उसके बाद ही उन्होंने कहा था कि दिल्ली के साउथ ब्लाक में बैठनेवाले सैन्य अधिकारियों-बाबुओं को भी सियाचिन भेजा जाना चाहिए ताकि वे वहां रह कर सैनिकों के विकट जीवन और उनकी समस्याओं का एहसास और समाधान भी कर सकें. हालांकि बार बार सियाचिन जाते रहने के कारण भी वह अलजाइमर (स्मृतिलोप) की चपेट में आ गए जो उन्हें पिछले एक दशक से सार्वजनिक जीवन से दूर रहने और फिर उनकी मौत का कारण भी बना.
अपने राजनीतिक जीवन के उत्तरार्ध में जार्ज कई तरह के विवादों से भी घिरे. परिवार में भी उथलपुथल हुई. मित्र जया जेटली के बढ़ते दखल के कारण पत्नी लैला कबीर घर छोड़कर चली गईं और तभी लौटीं जब जार्ज शारीरिक और मानसिक रूप से भी अशक्त से हो गए थे. लैला देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और फिर लालबहादुर शास्त्री की सरकार में शिक्षा मंत्री रहे शिक्षाविद स्व. हुमायुं कबीर की बेटी हैं. इससे पहले रक्षामंत्री रहते जार्ज पर ‘तहलका टेप कांड’ और ‘ताबूत घोटाला कांड’ में संलिप्तता के आरोप भी लगे जिसके चलते उन्होंने रक्षामंत्री के पद से त्यागपत्र भी दे दिया. हालांकि उनके विरुद्ध कोई आरोप सिद्ध नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट से उन्हें क्लीन चिट भी मिल गई थी.
सरकार के मंत्री और राजग का संयोजक रहते वह वाजपेयी सरकार के संकटमोचक भी रहे. उनके करीबी दावा करते हैं कि उनके दबाव में ही भाजपा 1998 से लेकर 2004 तक ‘अयोध्या विवाद’, ‘कामन सिविल कोड’ और कश्मीर से संविधान की धारा 370 को हटाने से संबंधित अपने विवादित मुद्दों को ‘कोल्ड स्टोरेज’ में रखने को राजी हो गई थी. लेकिन सरकार के संकटमोचन के क्रम में उन्होंने गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का अनावश्यक बचाव भी किया. इसी तरह से उन्होंने उड़ीसा में पादरी ग्राहम स्टेंस और उनके दो बच्चों को जिंदा जला देने की घटना में संघ का बचाव किया जिसके चलते उनकी बड़े पैमाने पर न सिफ विरोधियों बल्कि समर्थकों के बीच भी किरकिरी हुई. ऐसा उन्होंने गठबंधन राजनीति की मजबूरी के कारण किया या फिर किसी और कारण से, इसका खुलासा उन्होंने कभी नहीं किया.
सादगी और सुरक्षा
केंद्र सरकार में संचार, उद्योग, रेल और रक्षामंत्री रहते और उससे पहले भी उनकी सादगी और निडरता में कभी कमी नहीं देखी गई. रक्षामंत्री रहते कई बार वह कृष्ण मेनन मार्ग के बंगले से अपने मंत्रालय और संसद भवन भी पैदल ही चले जाते थे. अपने निजी कार्य, यहां तक कि अपने दो जोड़ी खादी के कपड़े धोने का काम भी वह खुद ही करते थे. सुरक्षा के नाम पर उन्होंने कभी कोई ताम-झाम नहीं किया. उनका बंगला हर समय सबके लिए खुला रहता था. मंत्री रहते भी उनके बंगले पर नेपाल, श्रीलंका, तिब्बत और म्यांमार के कथित विद्रोही, नेता डेरा जमाए रहते थे. सुरक्षा को लेकर पूछे गए सवाल के जवाब में एक बार उन्होंने कहा था कि जिसे अपनी जान को बहुत खतरा नजर आता हो उसे तिहाड़ जेल में चले जाना चाहिए क्योंकि सबसे सुरक्षित जगह तो जेल ही हो सकती है.
एक बार पी वी नरसिंह राव के प्रधानमंत्री रहते उनके गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण का बंगला जॉर्ज के बंगले के ठीक सामने पड़ता था. जब भी गृहमंत्री कहीं आते जाते, उनके सुरक्षाकर्मी जॉर्ज के बंगले का गेट बाहर से बंद कर जाते, क्योंकि जॉर्ज के घर कई तरह के लोगों का आना-जाना और ठहरना लगा रहता था. इनमें कश्मीर, पंजाब और उत्तर पूर्व के ‘उग्रवादी’ भी होते थे और नक्सली भी. ये सब अपनी समस्याएं लेकर जॉर्ज के पास आते-जाते थे. गृहमंत्री की सुरक्षा की चौकसी से जॉर्ज और उनके साथियों को दिन में बार-बार अपने ही घर मे कैद रहना पड़ता था. इससे तंग आकर एक दिन जार्ज ने खुद अपने बंगले का गेट उखाड़ फेंका और लोकसभा में जाकर कहा, “आखिर यह गृहमंत्री देश की आंतरिक सुरक्षा कैसे करेंगे जो अपने पड़ोसी सांसद से इतना डरते हैं कि घर आते-जाते उसे बाहर से कैद करवा देते हैं.”
राजनीति में सादगी, सहजता और निडरता की मिसाल रहे जार्ज फर्नांडिस के साथियों ने उनका इस्तेमाल तो किया लेकिन कभी उनके साथ न्याय नहीं किया. कइयों ने तो उनके साथ दगा भी किया. सक्रिय राजनीति के उनके अंतिम वर्षों में जिस तरह से उन्हें जनता दल (यू) के अध्यक्ष पद के लिए नीतीश कुमार और शरद यादव की जोड़ी ने हासिए पर धकेला, 2009 के आम चुनाव में उन्हें लोकसभा के टिकट से वंचित किया गया जिसके विरोध में वह स्वास्थ्य ठीक नहीं रहने के बावजूद निर्दलीय चुनाव लडे़ और हारे और फिर सहानुभूति का दिखावा करके उन्हें कुछ महीनों के लिए राज्यसभा में भेजा गया, यह सब उनके राजनीतिक जीवन के दुखद प्रसंग हैं जिनके बारे में एकाधबार उन्होंने हमसे साक्षात्कारों में चर्चा भी की और कहा कि कुछ लोग अपनी निरंकुश कार्यप्रणाली के रास्ते में उन्हें बाधक समझने लगे हैं. इन प्रसंगों का भी उनकी सेहत पर बहुत बुरा असर हुआ. रोग शैया पर उनकी दुरावस्था देख कर बहुत बुरा लगता था. कभी कभी लगता कि इस जीवन से तो उनकी मुक्ति ही बेहतर है हालंकि उनकी भौतिक उपस्थिति भी उनके समाजवादी साथियों-कार्यकर्ताओं, दुनिया और खासतौर से दक्षिण एशिया में एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देनेवाले संगठनों-मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए बड़ा सम्बल और भरोसा थी कि जार्ज अभी जिंदा है. उनके निधन से आज समाजवादी आंदोलन की वह पीढ़ी समाप्त सी हो गयी जिसने राजनीति में ‘सिविल नाफरमानी’ को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर गरीब, शोषित, पीड़ित, किसानों, मजदूरों और सर्वहारा वर्ग के हक के लिए सतत संघर्ष किया. अब ऐसा कोई नहीं दिखता.
Thursday, 24 January 2019
यूपी बनेगा 2019 के चुनावी महाभारत का ‘कुरुक्षेत्र’ !
कांग्रेस के लिए प्रियंका साबित होंगी संजीवनी !
जयशंकर गुप्त
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कम करके आंकना गलत होगा. वह वहां सबको चौंका सकते हैं. वाकई, कांग्रेसजनों की लंबे अरसे से चली आ रही मांग के मद्देनजर अपनी बहन प्रियंका -गांधी-वाड्रा को कांग्रेस में महासचिव के रूप में पूर्वी उत्तर प्रदेश और एक अन्य महासचिव के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार देकर उन्होंने चौंकानेवाला राजनीतिक फैसला किया है. उन्होंने साफ किया है कि यूपी में अब वह बैकफुट पर नहीं बल्कि फ्रंट फुटपर खेलेंगे. कयास उनके चचेरे भाई भाजपा सांसद वरुण गांधी के भी साथ आने के लगते रहे हैं.
जाहिर सी बात है कि राहुल 2019 में सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनावी महाभारत में उत्तर प्रदेश की निर्णायक भूमिका को बखूबी समझ रहे हैं क्योंकि हस्तिनापुर की सत्ता के लिए कौरव और पांडवों के बीच का महाभारत अगर कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था तो 2019 में इंद्रप्रस्थ यानी दिल्ली की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए होनेवाले चुनावी महाभारत का फैसला लोकसभा में अस्सी सीटोंवाले उत्तर प्रदेश में ही होने की संभावना है. प्रधानमंत्री पद के तीन-चार घोषित दावेदारों-नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मायावती, मुलायम सिंह यादव के इसी राज्य से चुनाव लड़ने की संभावना है.
इस लिहाज से भी तमाम दलों और गठबंधनों के बीच समीकरण बनने और बिगड़ने लगे हैं. कांग्रेस को बाहर रखकर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने आपस में राजनीतिक गठजोड़ कर लोकसभा की अस्सी सीटों का बंटवारा आपस में कर लिया है. रालोद के लिए तीन-चार सीटें छोड़ने की बात है जबकि रायबरेली और अमेठी की दो सीटें कांग्रेस-सोनिया गांधी या प्रियंका तथा राहुल गांधी के लिए छोड़ी गई हैं. यूपी की राजनीति में हासिए पर धकेल दिए जाने की कोशिशों के एहसास से परेशान कांग्रेस ने भी साफ कर दिया है कि वह तकरीबन 25 करोड़ की आबादी के हिसाब से भी इस सबसे बड़े प्रदेश (अगर उत्तर प्रदेश स्वतंत्र राष्ट्र होता तो दुनिया का सबसे बड़ा पांचवां देश होता) में सभी सीटों पर अपने बूते अकेले चुनाव लड़ेगी.
हालांकि इससे पहले कांग्रेस देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन के बारे में बातें करती रही थी. लेकिन इसके लिए उसने कोई ठोस पहल नहीं की. विपक्ष की एकजुटता के नाम पर सम्मेलन, रैलियां और रात्रिभोज तो हुए लेकिन सीटों के तालमेल के लिए कभी आमने सामने बैठकर कोई बात नहीं हुई. इसकी एक वजह तो यह भी रही कि यूपी में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बेहद खराब परफार्मेंंस के मद्देनजर सपा-बसपा उसके लिए उसकी मर्जी के मुताबिक अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थीं और फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता के बाद कांग्रेस नेताओं का मनोबल और उत्साह कुछ ज्यादा ही बढ़ गया लगता है. इन तीन प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव में भी सपा और बसपा के प्रति कांग्रेस का रुख उपेक्षा और उदासीनता का ही था. इसके बावजूद राजस्थान और मध्यप्रदेश में जरूरत पड़ने पर सपा-बसपा ने कांग्रेस की सरकारें बनवाने में सहयोग किया लेकिन उनका आभार जताने और सरकार में प्रतिनिधित्व देने के बजाय कांग्रेस के नेताओं ने उनकी राजनीतिक हैसियत पर तंज भी कसा. सपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बाद बुरी तरह मुंह की खाने के बाद वैसे भी अखिलेश यादव के प्रति राहुल गांधी का रवैया उदासीन और उपेक्षा का ही रहा. और फिर राहुल गांधी ने पिछले दिनों कहा भी कि भाजपा और नरेंद्र मोदी को हराने के लिए उनकी पार्टी सहयोगी दलों के साथ उन्हीं राज्यों में गठबंधन करेगी जहां वह कमजोर है. जहां मजबूत है या पहले नंबर पर है, वहां अकेले चुनाव लड़ेगी.
दरअसल, कांग्रेस को मिलनसार, मेहनती और न सिर्फ कांग्रेसजनों बल्कि आम लोगों के साथ भी सीधा संवाद कायम करने में सक्षम हाजिरजवाब प्रियंका के रूप में राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई लगती है. कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता इससे बेहद उत्साहित हैं. बदले राजनीतिक परिदृश्य और खासतौर से राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में शानदार वापसी, राहुल गांधी को चहुंओर मिल रहे जनसमर्थन और प्रियंका-ज्योतिरादित्य के भरोसे कांग्रेस को लगता है कि अकेले चुनाव लड़ने पर यूपी में वह 2009 में जीती 21 सीटों के आंकड़े को छू सकती है या फिर उससे तो अधिक सीटें वह जीत ही सकती है जितनी उसे सपा-बसपा गठबंधन देता. उसका फोकस अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, गैर जाटव दलित और कुर्मी, सहित गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों तथा मुसलमानों पर होगा. 2009 में इन तबकों के समर्थन से ही कांग्रेस राज्य में लोकसभा की 21 सीटें अपने बूते जीत सकी थी.
लेकिन उसके बाद केे चुनावों के आंकड़े कांग्रेस की इस सोच का समर्थन नहीं करते. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 7.5 फीसदी वोट ही मिले थे और केवल सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही रायबरेली और अमेठी से चुनाव जीत सके थे. इसके उम्मीदवार केवल छह सीटों-सहारनपुर, कानपुर, गाजियाबाद, कुशीनगर, बाराबंकी और लखनऊ में ही दूसरे नंबर पर थे. इनमें से भी कुशीनगर और सहारनपुर को छोड़ दें तो बाकी चार सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार दो लाख से लेकर साढ़े पांच लाख से अधिक मतों के अंतर से हारे थे. बाकियों में अधिकतर की जमानतें भी जब्त हो गई थीं. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बावजूद केवल 6.2 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस के सात उम्मीदवार ही जीत सके थे. हालांकि कांग्रेस के लोग अपनी सोच के समर्थन में कहते हैं कि 2009 में अकेले लड़ने पर वह 11.65 फीसदी वोट पाकर भी 21 सीटों पर जीत गई थी. लेकिन तब सपा और बसपा के अलग अलग लड़ने के कारण मत विभाजन का लाभ कांग्रेस को मिला था.
राहुल गांधी, प्रियंका और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस के यूपी में अलग चुनाव लड़ने पर एक संभावना तो यह भी बनती है कि उसके उम्मीदवार भाजपा के सवर्ण जनाधार में सेंध लगाकर उसे कमजोर कर सकते हैं लेकिन अगर उसे अन्य पिछड़ी जातियों, गैर जाटव दलितों और मुसलमानों के बड़े तबके का समर्थन भी मिला तो इसका नुकसान सपा-बसपा गठबंधन को और लाभ भाजपा को मिल सकता है. हालांकि भाजपा ने पिछला चुनाव गैर जाटव दलितों और गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों को लामबंद करने की रणनीति के तहत ही लड़कर सफलता पाई थी.
शायद इसलिए भी सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन इससे ज्यादा परेशान नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की लहर के बावजूद सपा को 22 तथा बसपा को 19.6 फीसदी यानी कुल 41.6 फीसदी वोट मिले थे. हालांकि सपा के केवल पांच उम्मीदवार ही जीत सके थे जबकि बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका था. हालांकि 34 सीटों पर उसके और 31 सीटों पर सपा के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे. भाजपानीत गठबंधन को 43.30 फीसदी वोट मिले थे जबकि सीटें मिल गई थीं 73. इसी तरह से विधानसभा के चुनाव में भी सपा और बसपा को क्रमशः 21.8 तथा 22.2 फीसदी यानी कुल 44 फीसदी वोट मिले थे लेकिन अलग अलग लड़ने के कारण उन्हें सीटें केवल 47 और 19 ही मिल सकी थीं जबकि भाजपा गठबंधन 39.7 फीसदी मत लेेकर भी 325 सीटों पर कब्जा जमा सका था. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में रालोद को भी एक-डेढ़ फीसदी वोट मिले थे.
इन नतीजों के विश्लेषण के बाद सपा, बसपा और रालोद को इस बात का एहसास हुआ कि अगर वे साथ चुनाव लड़ें तो न सिर्फ लोकसभा की अधिकतम सीटों पर जीत सकते हैं बल्कि प्रदेश में भी वे अपनी सरकार बना सकते हैं क्योंकि मोदी-योगी और भाजपा लहर होने और अमित शाह के गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों की सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद दोनों चुनावों में सपा-बसपा और रालोद को मिले मत प्रतिशत को जोड़कर देखें तो भाजपा गठबंधन पर भारी पड़ते हैं. इसका प्रयोग करके ही उन्होंने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के त्यागपत्र से रिक्त गोरखपुर और फूलपुर के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना में हुए संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा को पटखनी दे दी थी. फूलपुर और गोरखपुर में कांग्रेस ने भी उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन मुकि जमानतें जब्त हो गयीं और उन्हें 20 हजार से भी कम मत मिले थे.
सपा-बसपा और रालोद के बीच गठबंधन की नींव उत्तर प्रदेश के इन तीन संसदीय उपचुनावों के साथ ही राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव के समय ही पड़ गई जब तीनों ने आपसी सहयोग किया. इससे पहले, 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तथाकथित राम लहर के बावजूद 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सपा और बसपा के बीच चुनावी गठबंधन हुआ था जिसके चलते उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा-बसपा की सरकार बनी थी. उस चुनाव में एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था, ‘‘मिले मुलायम, कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.’ उस चुनाव में 425 सदस्यों की विधानसभा में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 178 सीटें मिली थीं लेकिन कांग्रेस के 28 विधायकों के समर्थन से मुलायम सिंह की सरकार बनी थी. लेकिन सपा-बसपा गठबंधन का यह प्रयोग लंबा नहीं चल सका था. जून 1995 में लखनऊ के बदनाम ‘स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के बाद, जिसमें सपा के लोगों ने मायावती के साथ अभद्रता और धक्का मुक्की की थी, उसके बाद ही कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. और फिर राज्य में भाजपा के सहयोग से मायावती के नेतृत्व में सरकार बनी थी. हालांकि वह गठबंधन भी टिकाऊ नहीं रह सका था. लेकिन ‘लखनऊ गेस्ट हाउस कांड’ के बाद सपा और बसपा के बीच रिश्ते इतने कटु हो गए कि हालिया समझौतों से पहले दोनों दलों के नेता आपस में आंख मिलाने से भी कतराते थे. मायावती को पता था कि समाजवादी पार्टी के साथ ताजा गठबंधन के बाद यह सवाल जरूर उठेगा, शायद इसीलिए इस बार 12 जनवरी को सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा करते समय संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में टंगे बैनर पर कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के बजाय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया की तस्वीरें लगी थीं. मायावती ने इसका जिक्र भी किया कि किस तरह 1956 में डा. अंबेडकर और डा. लोहिया के बीच आपसी तालमेल बढ़ा था लेकिन दोनों दलों-भारतीय रिपब्लिकन पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय का औपचारिक फैसला होने से पहले ही डा. अंबेडकर का निधन हो गया था. उन्होंने उसी कड़ी में 1993 में हुए सपा-बसपा गठबंधन को भी देखते हुए इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे अप्रिय ‘लखनऊ स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के चलते वह गठबंधन टूट गया था. उन्होंने खुद ही साफ किया कि जनहित और देशहित के साथ ही सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में दोबारा आने से रोकने की गरज से ही उन्होंने जून 1995 के अप्रिय प्रकरण को भुलाकर यह गठबंधन किया है. उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का एक कारण यह भी बताया कि यूपी में कांग्रेस का बचा खुचा जनाधार या कहें वोट बसपा के उम्मीदवारों को स्थानांतरित नहीं हो पाता जबकि बसपा के वोट आसानी से उन्हें मिल जाते हैं. उन्होंने 1996 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस बसपा गठबंधन का उदाहरण भी दिया. इसके साथ उन्होंने 1993 के सपा -बसपा गठबंधन के हवाले से समझाने की कोशिश की कि सपा और बसपा के वोट एक दूसरे को स्थानांतरित हुए थे.कांग्रेस को अलग रख कर गठबंधन के पीछे त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में मायावती के मन में प्रधानमंत्री बन सकने की उम्मीद भी हो सकती है. हालांकि यह पूछे जाने पर कि क्या सपा मायावती की दावेदारी का समर्थन करेगी? अखिलेश यादव ने गोलमोल जवाब दिया, ‘‘इतना तय है कि अगला प्रधानमंत्री यूपी से ही होगा.’’ 2019 में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में सरकार बनाने के लिए किसको किसके समर्थन की जरूरत पड़ सकती है, यह अभी से कह पाना मुश्किल है. शायद इसलिए भी सपा-बसपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस भविष्य के सहयोग की संभावना को ध्यान में रखकर ही एक दूसरे के विरुद्ध ‘हमलावर’ होंगे. उनके निशाने पर भाजपा ही होगी.
बहरहाल, सपा-बसपा और रालोद के बीच चुनावी गठबंधन और फिर प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के कारण सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर बेचैनी और बौखलाहट बढ़ी है. यह बेचैनी प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ ंिसंह और वित मंत्री अरुण जेटली से लेकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ एवं अन्य कई नेताओं के भाषणों और बयानों में भी साफ दिख रही है. मोदी और शाह ने इसे अवसरवादी और भ्रष्ट नेताओं का सत्ता पाने के लिए गठबंधन तथा कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति का विस्तार करार दिया. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने को भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने तंज करते हुए कहा, ‘‘कांग्रेस ने मान लिया है कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं. नेहरू के बाद इंदिरा, उनके बाद राजीव. फिर सोनिया और राहुल और अब प्रियंका. कांग्रेस का इतिहास ही परिवारवाद का रहा है.’’ गठबंधन के बारे में अमित शाह ने कहा, ‘‘कल तक एक दूसरे की शक्ल नहीं देखनेवाले आज हार के डर से एक साथ आ गए हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अकेले मोदी को हरा पाना मुमकिन नहीं है. उन्होंने दावा किया, ‘‘यूपी में 73 से 74 होंगे, 72 नहीं’’
गौरतलब है कि पिछली बार उत्तर प्रदेश से मिली 73 सीटों के बूते ही भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हुई थी. स्वयं नरेंद्र मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से ही सांसद हैं. इसका लाभ भाजपा और उसके सहयोगी दलों को विधानसभा के चुनाव में 325 सीटें जीतने के रूप में मिला था. लेकिन समय बीतने और केंद्र तथा राज्य में भी भाजपानीत गठबंधन सरकार के विफल होते जाने, चुनाव पूर्व के वायदों के जुमला भर साबित होने, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के रफाएल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घोटाले में घिरते जाने, नोट बंदी, जीएसटी के कुप्रभावों, एससी एसटी ऐक्ट में संशोधन से सवर्णों, किसानों और बेरोजगार युवाओं की सरकार से नाराजगी आदि के कारण भाजपा का जनाधार इससे दूर छिटकने लगा है. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक जाने के बाद सहयोगी दल आंखें तरेरते हुए बिहार की तर्ज पर अपनी राजनीतिक सौदेबाजी मजबूत करने में लगे हैं. नतीजतन भाजपा अपने बिदक रहे सहयोगी दलों को साधने और बिखर रहे जनाधार को समेटने में जुट गई है. भाजपा नेतृत्व को लगता है कि आठ लाख रु. से कम आमदनीवाले सामान्य वर्ग-सवर्णों-के लिए दस फीसदी आरक्षण एवं आनेवाले दिनों में कुछ और जन लुभावन घोषणाओं तथा विपक्ष के नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में बदनाम एवं गिरफ्तार करवाकर अपने छीजते जनाधार को बचाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश में वह फिर एक बार गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर सकती है. हालांकि लगातार घट रही सरकारी नौकरियों के मद्देनजर चुनाव से ठीक पहले दस फीसदी आरक्षण के बेमानी साबित होने और इसके चलते दलितों-आदिवासियों और पिछड़ी जातियों में बढ़नेवाली आशंकित नाराजगी का खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ सकता है. पिछले पिछले विधानसभा चुनाव से सबक लेकर सपा और बसपा भी भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की काट कर सकते हैं.चुनाव के समय अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए बनाया जा रहा दबाव भी भाजपा को भारी पड़ सकता है.
Tuesday, 25 December 2018
संसदीय गतिरोध ( Parliamentry Disruptions) और हमारे राजनीतिक दल
संसद के सुचारु संचालन में किसकी रूचि है
जयशंकर गुप्त
संसद के देर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में प्रायः प्रत्येक दिन एक ही तरह के दृश्य नजर आ रहे हैं. एक तरफ विपक्ष और खासतौर से कांग्रेस के सांसद राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घपले की जांच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से करवाने की मांग को लेकर हल्ला-हंगामा कर रहे होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से राफेल खरीद के संबंध में अपने बयान के लिए माफी मांगने के नारे लगाते हैं. आसंदी के पास ही हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तापक्ष के ही सहयोगी अन्ना द्रमुक के सांसद कावेरी जल विवाद में तमिलनाडु के साथ ‘न्याय’ की मांग को लेकर हंगामा करते हैं. बीच बीच में तेलुगु देशम के सदस्य आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर हंगामा करते हैं. इस तरह के शोरगुल और हंगामे के बीच लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति या अन्य पीठासीन अधिकारी कुछ जरूरी संसदीय दस्तावेज सदन पटल पर रखवाते हैं, कुछ विधेयक भी विपक्ष की पर्दे के पीछे की ‘रजामंदी’ से बिना किसी चर्चा और बहस के पास कराए जाते हैं और फिर दोनों सदनों की कार्यवाही पहले टुकड़ों में और फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी जाती है.
इस तरह 11 दिसंबर से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र के सात दिन सम्मानित सांसदों के शोर गुल, आसंदी के पास आकर किए जानेवाले हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ गये. और जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, अगले साल आठ जनवरी तक के लिए निर्धारित इस सत्र के बाकी दिनों में भी इसी तरह के दृश्य नजर आ सकते हैं. संसद का यह शीतकालीन सत्र राजधानी में ठंड के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद सदन के भीतर हल्ला हंगामे और नारेबाजी से पैदा हो रही राजनीतिक गरमी की भेंट चढ़ने के लिए अभिशप्त लग रहा है.
राफेल युद्धक विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार जिस तरह से घिरते नजर आ रही है, खासतौर से राफेल खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में सरकार की सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने के इरादे से की गई जालसाजी का खुलासा होने के बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने और इसकी जांच जेपीसी से करवाने से कम पर मानने के मूड में नहीं दिख रहे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे कहते भी हैं, ‘‘राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला सरकार के उस कथित दस्तावेज पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राफेल सौदे पर सीएजी की रिपोर्ट में खरीद प्रक्रिया में किसी तरह की गलती नहीं मानी गई और सीएजी रिपोर्ट को संसद और उसकी पीएसी यानी लोक लेखा समिति भी देख चुकी है. लेकिन सच तो यह है कि सीएजी ने अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट संसद अथवा इसकी पीएसी को दी ही नहीं है.’’ इस लिहाज से देखें तो सरकार का सीलबंद लिफाफे में दिए दस्तावेज में ‘स्पेलिंग मिस्टेक’ का तर्क भी बेमानी हो जाता है. वित मंत्री अरुण जेटली खुद कहते हैं, ‘‘राफेल की आडिट जांच सीएजी के पास लंबित है. उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं. जब सीएजी की रिपोर्ट आएगी तो उसे संसद की पीएसी को भेजा जाएगा. इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है.’’ सवाल एक ही है कि जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट अभी तक दी ही नही तो सुप्रीम कोर्ट में खरीद प्रक्रिया के बेदाग होने संबंधित दावे किस रिपोर्ट के आधार पर किए गए और किसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया. खरगे का मानना है कि इस मामले की जेपीसी जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी संभव है.
लेकिन यूपीए शासन के दौरान कथित कोयला घोटाले, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने ( पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा के नेतृत्व में हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था.) और उसके समर्थन में तर्क देनेवाले भाजपा के नेता अब राफेल खरीद की जेपीसी जांच को गैर जरूरी बताने के तमाम बहाने पेश करने में लगे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान सदन में हल्ला हंगामे को भी विपक्ष का महत्वपूर्ण संसदीय दायित्व परिभाषित करनेवाले जेटली अब जेपीसी की जांच को गैर जरूरी बता रहे हैं, ‘‘बोफोर्स तोप सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा. सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जांच जेपीसी ने की थी. जेपीसी के सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे होते हैं.’’ लेकिन इस ज्ञान के बावजूद जेटली, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष यूपीए शासन में कथित घोटालों की मांग पर क्यों जिद ठाने और संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने में लगा रहा? इस बात का जवाब भाजपा के नेताओं के पास अभी नहीं है. उनके ही तर्क को मान लें कि जेपीसी में सत्ता पक्ष का बहुमत होता है और उसके सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे रहते हैं तो सरकार राफेल की जेपीसी जांच से भाग क्यों रही है?
लेकिन इस बार तो एक और मजेदार दृश्य सामने आ रहा है जब सत्तारूढ़ दल खुद ही इस बात के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है कि संसद सुचारु ढंग से चले. शायद यह पहली बार है कि संसद चलाने के लिए गंभीर और सकारात्मक प्रयास करने के बजाय सत्तारूढ़ भाजपा अपने सदस्यों के हाथों में ‘राहुल गांधी माफी मांगें’ के प्लेकार्ड थमाकर और कभी अपने सहयोगी, क्षेत्रीय दलों के जरिए सदन में आसंदी के पास हल्ला हंगामा करवाकर दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने में लगी हुई है. एक तरफ संसदीय कार्य मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि सरकार राफेल पर भी चर्चा के लिए तैयार है, दूसरी तरफ जब मंगलवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट को कथित तौर पर गुमराह किए जाने पर चर्चा के लिए नोटिस दिया है, राज्यसभा के सभापति ने कहा कि यह मुद्दा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बुधवार, १९ दिसंबर को भी गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर ने कहा कि सरकार राफेल पर चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष का दबाव जेपीसी जांच की घोषणा और उसके कार्यस्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराए जाने के लिए ही है. जाहिर है कि सरकार इसके लिए आसानी से तैयार होनेवाली नहीं है क्योंकि विपक्ष का मानना है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा और विपक्ष के संसदीय अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते अपने गुजरात के विधायी अनुभवों को यहां भी दोहराना चाहते हैं. वहां दो तरह से विधानसभा के सत्र चलते थे. जब उन्हें कोई महत्वपूर्ण विधेयक पास कराने होते थे तो वह किसी न किसी बहाने विपक्ष के विधायकों को एक खास अवधि के लिए निलंबित करवा देते थे या फिर हल्ला हंगामे के बीच अपना विधायी कार्य संपन्न करवाते थे. कमोबेस वही तरीका प्रधानमंत्री बनने के बाद वह यहां संसद में भी अपनाना चाहते हैं. इसकी बानगी 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी नियम 374ए के तहत कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों को सदन से निष्कासित करने के रूप में पेश की थी. लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की तो फैसला वापस लेना पड़ा था. लेकिन उसके बाद उन्होंने दूसरा तरीका अपनाना शुरू कर दिया कि महत्वपूर्ण विधायी कार्य सदन में चल रहे हल्ला हंगामे के बीच ही निपटाए जाएं. ऐसे कई अवसर आए जबकि अध्यक्ष ने अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधेयक तो बिना चर्चा के ही पारित कराए जबकि कई बार अनेक महत्वपूर्ण विषयों मसलन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए वह इसलिए तैयार नहीं हुईं क्योंकि सदन व्यवस्थित नहीं था.
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ सांसद, लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों में से एक हुकुमदेव नारायण यादव विपक्ष के इस आरोप को गलत बताते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते हैं कि संसद सुचारु रूप से चले. वह कहते हैं, ‘‘मोदी जी जितना संसद में मौजूद रहते हैं, यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसका आधा समय भी संसद को नहीं देते थे.’’ लेकिन तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद सौगत राय के अनुसार ताजा प्रकरण में तो साफ है कि सरकार सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देना नहीं चाहती. संसदीय गतिरोध के चलते राफेल खरीद के साथ ही किसानों की समस्या-आत्महत्या, बेराजगारी, प्राकृतिक आपदा, संवैधानिक संस्थाओं के ‘ब्रेक डाउन’ आदि जन सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संसद में चर्चा नहीं हो पा रही. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद और विधानमंडलों में भी वास्तविक मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिल पाता. संसद और विधानमंडलों की कार्यअवधि भी लगातार कम होती जा रही है.’’
हुकुमदेव नारायण यादव के अनुसार, संसद की नियमावली के तहत सदन में चर्चा के कई प्रावधान हैं. लेकिन विपक्ष का उन प्रावधानों का उपयोग नहीं करना और अपनी मर्जी के मुताबिक बहस के नियम तय करने पर जोर देना सदन की कार्य संचालन नियमावली के विरुद्ध है. इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदार मानते हैं, ‘‘क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों के लिए संसद का दुरुपयोग करते हैं. ‘प्लेकार्ड’ के साथ हल्ला हंगामा करके वे अपने क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि वे संसद के भीतर अपने लोगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की यही मानसिकता है, उनकी दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होती है. यह समग्रता में राष्ट्र और राजनीति दोनों के लिए दुखद है.’’
बहरहाल, जिम्मेदार चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष और क्षेत्रीय दल, सच यही है कि संसद के दोनों सदनों का समय हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ रहा है. संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. सरकार अपने जवाबों से विपक्ष को संतुष्ट करने और अपनी उपलब्धियों को सामने लाने के प्रयास करती है. उसका संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लेकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिशें ही करते नजर आती हैं. मजेदार बात यह है कि आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है, विपक्ष में रहते उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और अधिकार मानता था.
पिछले दिनों विधायिकाओं के महत्व समझाते हुए उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु ने कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी शुक्रवार, 21 दिसंबर को सदन को बाधित करनेवाले सांसदों को नियंत्रित और अनुशासित करने की गरज से सदन की ‘रूल्स कमेटी’ की बैठक बुलाई. उन्होंने साफ किया कि वह नियम के विपरीत सदन की कार्यवाही नहीं चला सकती हैं. कमिटी ने आसंदी के पास आकर हल्ला हंगामा करनेवालों के स्वतः निलंबन का प्रस्ताव किया है.
विडंबना इसी बात की है की आज सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें स्कूली बच्चों से भी बदतर बताने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई के नियम उपाय तलाशने में लगी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू स्वयं यूपीए शासन के दौरान हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते और संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते थे. कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली का बयान काबिले गौर है, ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर इस सत्र में हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहरा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ लोकसभा में विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज से उस समय जब पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘संसद सत्र का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’. उस समय विपक्षी भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी तब इसमें जोड़ा था, ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया. मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ यही नहीं चार साल पहले विपक्ष में खडे़ भाजपा के नेता वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’
जाहिर है कि अब भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेताओं की भाषा बदली हुई है. लेकिन विपक्ष की भूमिका में आ गई कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भी अब अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत सरकार को घेरने में लगे हैं. राफेल युद्धक विमानों की खरीद मामले में सरकार को संसद के भीतर घेरने से लेकर विपक्ष की रणनीति इसे सड़कों पर ले जाने और 2019 के आम चुनाव में अन्य बातों के साथ ही इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की लगती है. जाहिर सी बात है कि दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है.
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