याद करो कुर्बानी
स्वाधीनता संग्राम
में पूर्वी उत्तर प्रदेश
आजमगढ़, मधुबन का
अमिट योगदान
जयशंकर गुप्त
भारत के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम और करो या मरो के नारे के साथ अगस्त क्रांति के नाम से पूरी दुनिया में
चर्चित 'भारत छोड़ो' जनांदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश और
खासतौर से आजमगढ़ जिले का और उसमें भी मधुबन (अभी मऊ जिले में) इलाके का योगदान अभूतपूर्व
रहा है. 1857 की गदर या कहें विद्रोह अथवा देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी आजमगढ़
के लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गदर के नायकों
में से एक, फैजाबाद के मौलवी अहमद शाह का आजमगढ़ में बहुत
प्रभाव था. अतरौलिया के राजा बेनी माधव, इरादत जहान और उनके
बेटे मुजफ्फर जहान और हीरा पट्टी के ठाकुर परगन सिंह ने आजादी के इस पहले युद्ध
में उनकी मदद की. तीन जून 1857 को रात 10 बजे, आजमगढ़ को
स्वतंत्र घोषित कर बंधु सिंह के नेतृत्व में भारतीय ध्वज फहराया गया. प्रशासन का
प्रबंधन ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह द्वारा संभाला गया था. इन नेताओं के अलावा, सरायमीर के मीर मंसब अली, मोहब्बतपुर के जगबंधन सिंह,
रमाक दास, मोतीलाल अहीर, कुंजन सिंह, भैरव सिंह, रामगुलाम
सिंह और कई अन्य लोगों ने भारत को औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्त करने के अपने
प्रयासों को जारी रखा.
बताते हैं कि 1857 में मधुबन अंचल में बिहार से स्वाधीनता संग्राम के महान
सेनानी बाबू कुंवर सिंह भी आए थे. स्थानीय लोगों ने बढ़-चढ़ कर उनका साथ दिया था. लेकिन इसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा. चंदेल ज़मींदारों की सात कोस की ज़मींदारी
छीनकर उस अंग्रेज महिला को दे दी गयी जिसका पति इस आन्दोलन में मारा गया था. वीर कुंवर
सिंह का साथ देने के आरोप में गांव के हरख सिंह, हुलास सिंह एवं बिहारी सिंह को
बंदी बनाकर उन्हें सरेआम फांसी देने का हुक्म हुआ. बिहारी सिंह तो चकमा देकर भाग निकले
लेकिन अन्य दो वीर सपूतों-हरख सिंह व हुलास सिंह को ग्राम दुबारी के बाग में नीम
के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई थी.
इस घटना की समूचे क्षेत्र में प्रतिक्रिया हुई. दोहरीघाट, परदहां, अमिला, सूरजपुर आदि गांवों के लोगों ने
माल गुजारी देनी बंद कर दी. इस दौरान स्वाधीनता की लड़ाई को संगठित स्वरूप देने का
प्रयास किया जनपद के परदहा विकास खण्ड के ठाकुर जालिम सिंह ने. उन्होंने पृथ्वीपाल
सिंह, राजा
बेनी प्रसाद, इरादत जहां, मुहम्मद जहां, परगट सिंह आदि के साथ घूम-घूम
कर स्वाधीनता की अलख जगायी. बाद में 03 जून,1857 को अपने सहयोगी सेनानियों के
साथ जालिम सिंह ने आज़मगढ़ कलेक्ट्ररी कचहरी पर कब्जा कर उसे अंग्रेजों से मुक्त
करा दिया. 22 दिनों तक आज़मगढ़ स्वतंत्र रहा. 26 जून को दोहरीघाट में रह रहे नील
गोदाम के मालिक बेनीबुल्स ने बाहर से आयी अंग्रेजी फौज और अपनी कूटनीति से पुनः इस
जिले पर कब्जा कर लिया और शुरू किया क्रूर दमन का सिलसिला. क्रांतिकारियों को
सरेआम गोली से उड़ा देना, सार्वजनिक
स्थानों पर फांसी और क्रूर यातनाएं आम बात हो गयी थीं.
इसके
बावजूद आजादी के दीवानों का अदम्य उत्साह कम नहीं हुआ और न ही उन्होंने संघर्ष की मशाल
को मद्धिम होने दिया.
अगस्त क्रांतिःअंग्रेजों
भारत छोड़ो
आठ अगस्त,1942 को बंबई
के गवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस महासमिति की बैठक में महात्मा गांधी के
अंग्रेजों ‘भारत छोड़ो’ और
'करो या मरो' के आह्वान के बाद अहिंसक क्रांति
की ज्वाला पूरे देश में धधक उठी थी. नौ अगस्त को बंबई में कांग्रेस कार्य समिति की
बैठक के बाद महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और
कार्य समिति के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गये. कुछ भूमिगत हो गए थे. गांधी जी के
आह्वान और नेताओं की गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. आम
जनता सड़कों पर आ गई. यह मान लिया गया कि भारतीय स्वतंत्रता के लिए यह निर्णायक
लड़ाई है. देश भर के छात्र-युवा, किसान, मजदूर, कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए सविनय
अवज्ञा आंदोलन में शामिल होकर जगह-जगह इलाके की स्वतंत्रता और खुद मुख्तारी की
घोषणा करने लगे. इसे अगस्त क्रांति आंदोलन का नाम दिया गया. इस आंदोलन की बागडोर
मुख्य रूप से भूमिगत हो गए कांग्रेस के डा. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, हजारीबाग जेल से भागे जयप्रकाश
नारायण और रामनंदन मिश्र, अरुणा आसफ अली, उषा मेहता, यूसुफ मेहर अली, अशोक मेहता, श्रीधर
महादेव जोशी और जीजी पारिख सरीखे, कांग्रेस समाजवादी युवा
नेताओं ने संभाल ली थी. अरुणा आसफ अली ने 9 अगस्त को सबसे पहले गवालिया टैंक मैदान
में तिरंगा फहराया था. डा. लोहिया ने उषा मेहता एवं कुछ अन्य सहयोगियों के साथ
भूमिगत रेडियो की व्यवस्था भी कायम कर ली थी. खुद को राष्ट्रवादी, हिंदुत्ववादी
कहनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसंवक संघ, हिन्दू महा सभा के साथ ही मुस्लिम लीग भी इस जनांदोलन
से अलग रहे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने ही कारणों से अगस्त क्रांति आंदोलन
से दूरी बना ली थी. आरएसएस के लोगों की इस आंदोलन में भूमिका को लेकर पूछे गये एक
सवाल के जवाब में गुरु जी के नाम से चर्चित इसके तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव
गोलवलकर ने कहा था कि अभी हमें अंग्रेजों के बजाय अपने अंदरूनी
शत्रुओं-कम्युनिस्टों और अल्पसंख्यकों से लड़ना है. उस समय बंगाल में मुस्लिम लीग
के साथ सरकार साझा कर रहे हिन्दू महासभा के नेता, फजलुल हक की सरकार में वित्त
मंत्री डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो अंग्रेज सरकार को पत्र लिखकर भारत छोड़ो
आंदोलन और आंदोलनकारियों से सख्ती से निबटने के सुझाव भी दिए थे. गौरतलब है कि उस सरकार के
प्रधानमंत्री फजलुल हक ने ही उससे पहले 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में
मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने का प्रस्ताव पेश किया था.
बहरहाल, अंग्रेजों
ने भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया. भारी दमन चक्र चला. ऐसा माना जाता है
कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का आखिरी सबसे बड़ा और निर्णायक जनांदोलन था, जिसमें
सभी भारतवासियों ने जाति, धर्म और ऊंच-नीच का भेद मिटाकर एक साथ बड़े पैमाने पर एकजुट
होकर भाग लिया था. कई जगह समानांतर सरकारें भी बनाकर खुद मुख्तारी भी घोषित की गई.
सुलग उठा पूर्वी उत्तर प्रदेश
जब पूरे देश में क्रांति और जनांदोलन की ज्वाला धधक रही हो, पूर्वी उत्तर प्रदेश की वीर वसुंधरा खामोश कैसे रह सकती थी. बनारस, गाजीपुर, बागी बलिया और आजमगढ़ के शहरी ही नहीं ग्रामीण इलाकों में भी अंग्रेजी राज के प्रति असंतोष, आक्रोश और जनांदोलन का ज्वार चरम पर था. भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के साथ पूरा आजमगढ़ जिला जन कार्रवाइयों की जद में आ गया था. सभी औपनिवेशिक प्रतीक और खासतौर से संचार माध्यम और पुलिस थाने आंदोलनकारियों के निशाने पर थे. थाना, पोस्ट आफिस, तहसील पर कब्जाकर तिरंगा फहराया जाने लगा. टेलीफोन के तार काट कर संचार प्रणाली को बाधित कर संबद्ध इलाके और जिले को शेष भारत से काट देने की कोशिश की गई.
आजमगढ़ में जनांदोलन कितना
प्रबल था, इसे तत्कालीन जिला कलेक्टर आर. एच. निबलेट के इन शब्दों से भी
समझ सकते हैं, “हर जगह परेशानी थी; लेकिन
मुख्यतः जिले के पूर्वी हिस्से में समस्या अधिक थी. मधुबन और तरवा के पुलिस हलकों
में नागरिक प्रशासन पूरी तरह से बाधित था और पुलिस अपने मुख्यालय की सीमाओं से
बाहर कार्य नहीं कर सकती थी.”
9 अगस्त, 1942 को,
आजमगढ़ में जिला कांग्रेस कार्यालय को जब्त कर लिया गया था. कई
गिरफ्तारियां की गई थीं, जिला कांग्रेस के अध्यक्ष सीता राम
अस्थाना और सच्चिदानंद पांडे को भी हिरासत में ले लिया गया. कांग्रेस के कई नेता
और सक्रिय सदस्य गिरफ्तारी से बचने के लिए गांवों में चले गए. 10 अगस्त को
कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी की ख़बरों से भड़क उठी जनता ने जगह-जगह हड़तालें
आयोजित कीं और जुलूस निकालकर अंग्रेजी राज के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त की. शिबली
जॉर्ज इंटरमीडिएट कॉलेज को छोड़कर सभी शैक्षणिक संस्थानों ने हड़ताल में भाग लिया.
इस दिन कप्तानगंज के उमा शंकर मिश्रा, नेवादा के कृष्ण माधव
लाल और आजमगढ़ के लल्लन प्रसाद वर्मा को गिरफ्तार किया गया. इन गिरफ्तारियों ने जिले
में तनावपूर्ण स्थिति पैदा कर दी और वे नेता जिन पर पुलिस को संदेह नहीं था और जो
अभी तक गुप्त रूप से आंदोलन में सक्रिय थे, उन्होंने समन्वित
कार्रवाई के लिए लोगों को तैयार करना शुरू किया. जुलूस और प्रदर्शन 11 अगस्त को भी
जारी रहा. सीता राम अस्थाना की रिहाई के लिए प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए कई
छात्र जेल के गेट के सामने धरना देकर बैठ गए. 11 अगस्त की शाम तक, जिले के एक बड़े कांग्रेसी नेता, अलगू राय शास्त्री
बंबई में कांग्रेस महाधिवेशन में भाग लेकर अपने गृह नगर अमिला (अभी मऊ जिले में)
लौट आए थे. उन्होंने कुछ छात्र नेताओं से मुलाकात की और उन्हें कांग्रेस के
कार्यक्रम के बारे में बताया. इससे पहले कि कोई कार्य-योजना चाक-चौबंद हो पाती,
12 अगस्त को काशी विद्यापीठ से चंद्रशेखर अस्थाना आजमगढ़ पहुंचे. वह
अपने साथ एक पुस्तिका की प्रतियां लेकर आए, जिसमें गांधी जी
के 'करो या मरो’ की सीमाएं बताई गई थीं. हालांकि वह बातें
अलगू राय शास्त्री ने पहले ही समझा दी थी. भारत छोड़ो आंदोलन के लिए निर्देश
स्पष्ट थे;
1. सभा और जुलूस आयोजित
करना प्रांत के कार्यकर्ताओं-निवासियों का सर्वोपरि कर्तव्य है. पोस्टर-पर्चों के
जरिए कांग्रेस के कार्यक्रम को जनता तक प्रसारित करना चाहिए.
2. सरकारी मशीनरी को पंगु
बनाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए.
3. एक निश्चित समय और तिथि
पर प्रत्येक प्रांत को अपनी स्वतंत्रता, खुद मुख्तारी की घोषणा करनी चाहिए.
4. स्वतंत्रता की घोषणा के
बाद परिस्थितियों के अनुसार प्रत्येक प्रांत में आवश्यक निर्देश जारी किए जाने
चाहिए.
5. कार्यक्रम को इसके
विभिन्न चरणों के माध्यम से लागू किया जाना चाहिए और सितंबर के अंत तक समाप्त किया
जाना चाहिए.
उपरोक्त निर्देशों के आलोक
में श्रीकृष्ण पाठशाला के छात्रावास में रात 12 बजे एक बैठक आयोजित की गई. बैठक
में अर्जुन सिंह,
शिवराम राय, अक्षयवर शास्त्री, फूलबदन सिंह, रामधन राम, रामअधार
और अन्य उपस्थित थे. सर्वसम्मति से तय हुआ कि तहसीलों और मंडलों में पूरे जिले में
एक साथ विद्रोह करने के लिए लोगों को तैयार करना चाहिए ताकि आजमगढ़ में ब्रिटिश
साम्राज्य की जड़ें और शाखाओं को एक बार में उखाड़ फेंका जा सके. बैठक में नेताओं
को अलग-अलग तहसीलों में जनांदोलन का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी तय कर रवाना कर
दिया गया. अर्जुन सिंह, राघवराम सिंह, रामधन
राम, बनारसी सोनार और शिव कुमार राय अपने छात्रों के समूह के
साथ उत्तर में सगड़ी तहसील की ओर चले गए. उनका उद्देश्य रौनापार और जियनपुर पुलिस
चौकी पर कब्जा करना था. उसके बाद उनका उद्देश्य डाकघर और तहसील कार्यालय पर कब्जा
करना था. रामधारी राय और गोविंद राय के साथ एक और समूह रानी की सराय के लिए रवाना
हुआ। मार्कंडेय सिंह के नेतृत्व में मुक्तिनाथ राय, अवधनाथ
सिंह, माताभीख सिंह, राम समर सिंह और
कुछ अन्य लोग पश्चिम की ओर चले गए. उनका उद्देश्य अतरौलिया क्षेत्र में डाकघरों को
नष्ट करने के बाद कंधरापुर, महराजगंज और अतरौलिया पुलिस
स्टेशन पर कब्जा करने का था.
हरि प्रसाद गुप्ता, श्यामरथी
सिंह और विंध्याचल सिंह के नेतृत्व में एक चौथे समूह ने मुहम्मदाबाद और खुरहट की
ओर कूच किया. लालगंज तहसील की जिम्मेदारी सूर्यवंश पुरी पर थी. अक्षयवर शास्त्री,
लाल सिंह और जगन्नाथ राय को घोसी की महत्वपूर्ण तहसील सौंपी गई थी जिसमें मधुबन
पुलिस थाना था.
शहरी क्षेत्रों में
जुलूस-प्रदर्शन और हड़ताल के रूप में जन कार्रवाई जारी रही लेकिन आजमगढ़ में
आंदोलन की एक दिलचस्प विशेषता यह थी कि जन कार्रवाई की बड़ी घटनाएं ग्रामीण
क्षेत्रों में अधिक हुईं.
मधुबन के शहीद, स्वतंत्रता
सेनानियों की याद में वहां शहीद इंटर कालेज मधुबन बना और आजादी के बाद 'शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले' की तर्ज पर
मधुबन, अस्पताल वाली बाग (अब बाग तो रहा नहीं) में हर साल 15
अगस्त को शहीद मेला लगता रहा. इसे संयोग मात्र भी कह सकते हैं कि 1975 में देश में
लागू आपातकाल के विरुद्ध दूसरी आजादी की लड़ाई के सिलसिले में 15 अगस्त 1975 को
पिता जी अपने दर्जनों समर्थकों के साथ इसी शहीद मेले में सभा-सत्याग्रह करते हुए
गिरफ्तार हुए थे.
इसके उलट मधुबन में थाने का घेराव कर वहां तिरंगा फहराने की कोशिश में जमा भीड़ अहिंसक थी और पुलिस ने निहत्थी भीड़ पर गोलियां बरसाई थीं जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी एक दर्जन से अधिक लोग मौके पर ही शहीद हो गये थे.
नोटः अगली कड़ी में मधुबन थाने पर जनता के घेराव, अहिंसक भीड़ पर पुलिस की गोलीबारी और साझी शहादत के बारे में विस्तार से.