Wednesday, 3 February 2021

In Dhaka, Bangladesh


 बांग्लादेश की राजधानी ढाका में


ढाका के हजरत शाह जलाल
हवाई अड्डे पर वीआइपी लाउंज के बाहर
जयशंकर गुप्त

     
    सत्तर के शुरुआती दशक में जिन नेताओं को हम दीवानगी की हद तक चाहते थे, उनमें से एक बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की सरजमीं, बांग्लादेश की राजधानी ढाका जाने का आमंत्रण किसी मनचाही मगर अनपेक्षित मुराद के पूरी होने से कम नहीं था. बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के निमंत्रण पर भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति चंद्रमौलि के. प्रसाद के नेतृत्व में 17 फरवरी 2019 को पांच दिनों की यात्रा पर वहां जानेवाले प्रेस परिषद के छह सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल में मुझे भी शामिल किया गया. मन में उत्साह, उमंग के साथ कुछ सवाल भी उमड़-घुमड़ रहे थे. अन्य सदस्यों में थे हमारे मित्र और परिषद के सदस्य छायाकांत नायक, सैयद रजा रिजवी, सुषमा यादव और प्रेस परिषद की सचिव अनुपमा भटनागर. यह वही समय था, जब (14 फरवरी 2019) जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में सीआरपीएफ के काफिले पर आरडीएक्स बमों और आत्मघाती आतंकवादी से लदी एक कार के हमले में हमारे 40 जवान शहीद हो गए थे.

    बांग्लादेश और इसके नायक शेख मुजीबुर्रहमान के बारे में जानने की ललक छात्र-युवाकाल से ही रही. सत्तर के दशक के शुरुआती वर्षों, 1972-73 में समाजवादी नेता जार्ज फर्नांडिस अक्सर पूर्वी उत्तर प्रदेश में और हमारे अविभाजित आजमगढ़ (अभी मऊ जनपद) के मधुबन में आते और अपनी सभाओं में बांग्लादेश के अस्तित्व में आने और उसके लिए शेख मुजीब के संघर्ष का नाम लेकर पूर्वांचल के लोगों को भी अपने पिछड़ेपन के विरुद्ध संघर्ष-बगावत के लिए प्रेरित करते थे. पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीब और उनके साथियों के सुदीर्घ संघर्ष और नतीजे के रूप में 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश के रूप में एक नये स्वतंत्र और संप्रभु देश के उदय से जुड़ी गाथाएं हमारे किशोर-युवा विद्रोही मन को बहुत भाती और प्रभावित-प्रेरित करती थीं. इस कड़ी में 15 अगस्त 1975 की अल्ल सुबह उनके अपने निवास पर उनकी अपनी ही सेना के बागी अधिकारियों-जवानों के द्वारा शेख मुजीब और उनके परिवार के भी अधिकतर सदस्यों सहित कुल 20 लोगों की नृशंस हत्या विचलित मन में तमाम तरह के सवाल खड़े करती थी कि बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े नायक की हत्या महज चार साल के भीतर ही क्यों कर दी गई.

बांग्लादेश का संक्षिप्त इतिहास-भूगोल


    दक्षिण एशिया में स्थित बांग्लादेश की उत्तर, पूर्व और पश्चिमी सीमाएं भारत और दक्षिण पूर्व सीमा म्यांमार से मिलती है. इसके दक्षिण में बंगाल की खाड़ी है. सिलिगुड़ी कारिडोर इसे नेपाल और भूटान से और सिक्किम चीन से पृथक करता है. बांग्लादेश की सीमाएं भारत के पूर्वोत्तर के राज्यों-पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, मिजोरम और त्रिपुरा के साथ लगती हैं. आबादी (तकरीबन 16 करोड़, 2017 में) के हिसाब से यह दुनिया का आठवां लेकिन क्षेत्रफल (144,000 वर्ग किमी) के हिसाब से 94वां देश कहा जाता है. क्षेत्रफल कम और आबादी ज्यादा होने के कारण इसे विश्व की सबसे घनी आबादीवाला देश भी कहा जा जाता है. भारत की आजादी से पहले यह अविभाजित भारत और भारत की आजादी और उसके साथ ही धार्मिक आधार पर हुए भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा रहा.

    जब 1947 में भारत स्वतंत्र हुआ और धर्म के आधार पर हिंदू बहुल भारत और मुस्लिम बहुल पाकिस्तान के रूप में देश के दो टुकड़े हुए, बंगाल भी दो हिस्सों में बंट गया. इसका हिंदू बहुल इलाका भारत के साथ रहा और पश्चिम बंगाल के नाम से जाना गया तथा मुस्लिम बहुल इलाका पूर्वी बंगाल पाकिस्तान का हिस्सा बना जो बाद में पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना गया. हालांकि पाकिस्तान के साथ तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की कोई सीमा नहीं लगती थी. खानपान, रहन सहन, भाषा और संस्कृति के मामले में भी पाकिस्तान के साथ इसका कोई मेल नहीं था. और फिर पाकिस्तान के शासकों का पूर्वी पाकिस्तान के प्रति सौतेला, उपेक्षा और अपमान का व्यवहार! शायद यह भी कुछ कारण थे कि आगे चलकर धर्म भी पाकिस्तान को एकजुट नहीं रख सका.

पाकिस्तान विभाजन और बांग्लादेश का उदय    


    पाकिस्तान विभाजन का का पूर्वाभास भारत में समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया को बहुत पहले हो गया था. शायद इसीलिए भारत-पाक महासंघ की बात करते समय उन्होंने साफ भविष्यवाणी की थी कि भौगोलिक दूरी और सांस्कृतिक रूप से कदापि भिन्न होने के कारण पाकिस्तान का विभाजन अवश्यंभवी है. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान एकजुट नहीं रह सकते. भौगोलिक दूरी, आर्थिक विषमता, सांस्कृतिक एवं भाषाई विभिन्नता के चलते पूर्वी पाकिस्तान में असंतोष जनाक्रोश का रूप लेता गया. इसमें देश की सत्ता और सेना पर काबिज पश्चिमी पाकिस्तान के हुक्मरानों के पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षा, अपमान और दमन के व्यवहार ने आग में घी का काम किया. बाद में भाषा के साथ बंगाली राष्ट्रवाद और आत्मनिर्णय पर लोकतंत्र समर्थक आंदोलन और फिर ‘मुक्ति युद्ध’ और इसी क्रम में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद अंततः 1971 में एक नये स्वतंत्र और संप्रभु राष्ट्र के रूप में बांग्लादेश का उदय हुआ. बांग्लादेश संभवतः दुनिया का एकमात्र देश है जो भाषा और जातीयता (राष्ट्रीयता) के आधार पर बनाया गया था.
    
 प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेदः बांग्लादेश में धर्म के आधार
पर भेदभाव नहीं
    बांग्लादेश की कुल आबादी का 98 प्रतिशत बांग्लाभाषी हैं. तकरीबन 90 फीसदी मुस्लिम और उसमें भी अधिकतर सुन्नी मुसलमानों की आबादी के साथ प्रमुख या कहें राजकीय धर्म इस्लाम है लेकिन यहां धर्म के आधार पर नागरिकों के बीच भेदभाव नहीं होता. सभी नागरिकों को अपनी पसंद और आस्था के अनुरूप धर्म चुनने, मानने और उसके अनुरूप आचरण करने का अधिकार है. प्रधानमंत्री और शेख मुजीबुर्रहमान की पुत्री शेख हसीना वाजेद ने कहा भी है, "बांग्लादेश के निर्माण में सभी धर्मों के लोगों ने अपना खून बहाया है. सभी लोग बराबरी के साथ इस मुल्क में रहेंगे. धर्म के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं किया जाएगा." यहां तकरीबन 9 फीसदी हिंदू, बौद्ध और ईसाई भी हैं. यहां ईद और मोहर्रम के साथ ही दुर्गा पूजा, काली पूजा, बुद्ध पूर्णिमा और क्रिसमस भी धूमधाम से मनाया जाता है. नजरुल जयंती के साथ ही रवींद्र जयंती के समारोह भी धूमधाम से मनाए जाते हैं. बांग्लादेश ने क्रांतिकारी, राष्ट्रवादी कवि काजी नजरुल इस्लाम को राष्ट्रीय कवि घोषित किया है. लेकिन बांग्लादेश का राष्ट्रीय गीत, ‘आमार सोनार बांग्ला’ गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का ही लिखा हुआ है. 

    स्वाधीनता के बाद बांग्लादेश के कुछ प्रारंभिक वर्ष राजनैतिक उथल-पुतल और अस्थिरता के थे, देश में 13 शासक बदले गए और चार सैन्य बगावतें भी हुईं. मौजूदा गण प्रजातंत्री बांग्लादेश (पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ बांग्लादेश) में भारत की तरह ही संसदीय शासन प्रणाली है जिसमें राष्ट्रपति संवैधानिक प्रधान होता है, जबकि प्रधानमंत्री देश का प्रशासनिक प्रमुख होता है. राष्ट्रपति को हर पांच साल बाद चुना जाता है जबकि हर पांच साल पर ही प्रत्यक्ष मतदान द्वारा चुनी जानेवाली जातीय (राष्ट्रीय) संसद में बहुमत प्राप्त दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री पद पर नियुक्ति की जाती है. बांग्लादेश आज दुनिया की तेजी से उभरती विकासोन्मुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक है. 

राजधानी ढाका में प्रवास


    बांग्लादेश की राजधानी ढाका बूरी या कहें बूढ़ी गंगा नदी के तट पर स्थित देश का सबसे बड़ा शहर है. राजधानी होने के अलावा यह बांग्लादेश का औद्यौगिक, वाणिज्यिक, प्रशासनिक और सांस्कृतिक केंद्र भी है. अभी यहां पर धान, गन्ना और चाय का व्यापार होता है. ढाका की आबादी तकरीबन 1.1 करोड़ है जो इसे आबादी के हिसाब से दुनिया के ग्यारहवें सबसे बड़े शहर का दर्जा भी दिलाता है. ढाका का अपना इतिहास रहा है. मुगल सल्तनत के दौरान 17वीं सदी में ढाका को जहांगीर नगर के नाम से भी जाना जाता था, तब यहां न सिर्फ प्रादेशिक राजधानी हुआ करती थी बल्कि यहां पर निर्मित होने वाले मलमल के व्यापार में इस शहर की पूरी दुनिया में धाक थी. इसे पूरब का वेनिस भी कहा जाता था. यहां के मलमल से बनी मसलिन साड़ी अंगूठी से निकल जाती थी. अंग्रेजों ने यहां के मलमल उद्योग को तहस-नहस कर दिया. हालांकि आधुनिक ढाका का निर्माण एवं विकास उन्नीसवीं सदी में ब्रिटिश शासन के दौरान ही हुआ और जल्द ही यह कोलकाता के बाद पूरे बंगाल का दूसरा सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण शहर बन गया. भारत विभाजन के बाद 1947 में ढाका पूर्वी पाकिस्तान की प्रशासनिक राजधानी बना तथा बांग्लादेश के स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अस्तित्व में आने पर यह देश की राष्ट्रीय राजधानी घोषित हुआ. इसे दुनिया में मस्जिदों के शहर और रिक्शों की राजधानी के नाम से भी जाना जाता है.

ढाका में हजरत शाह जलाल हवाई अड्डे पर वीआईपी लाउंज के बाहर 
प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के सदस्य सैयद रजा रिजवी,
सचिव अनुपमा भटनागर और सुषमा यादव के साथ
     बहरहाल, 17 फरवरी, रविवार की शाम को हम दिल्ली से कोलकाता हुए बांग्लादेश की राजधानी ढाका पहुंच गए थे. हालांकि यात्रा में सरकारी एयरलाइंस एयर इंडिया से ही यात्रा करने की औपचारिक मजबूरी के कारण छह-सात घंटे का समय लग गया. एयर इंडिया की सीधी उड़ान नहीं होने के कारण हम पहले कोलकाता और फिर कोलकाता से ढाका आए जबकि कई निजी एयरलाइनों की सीधी उड़ान तकरीबन तीन घंटे में पूरी हो जाती है. कीमत भी कुछ कम ही लगती है. हमारे साथी छायाकांत नायक का टिकट कुछ कारणों से निजी एयरलाइन से हुआ इसलिए वह तकरीबन हमारे समय ही निकल कर हमसे घंटों पहले ढाका पहुंच गए थे. रास्ते में ‘महाराजा’ यानी एयर इंडिया का आतिथ्य उनकी आर्थिक सेहत के अनुरूप ही था. मांसाहारी यात्रियों के लिए कुछ और निराशा हुई. विमान में केवल शाकाहारी नाश्ता-भोजन ही उपलब्ध था. कोलकाता हवाई अड्डे पर अगली उड़ान की प्रतीक्षा और 70 रु. में आधा लीटर पानी अखर गया. हवाई अड्डों पर खाद्य और पेय पदार्थों की कीमतें सचमुच बेलगाम हैं.

    ढाका में सूफी संत हजरत शाह जलाल के नाम पर बने ढाका हवाई अड्डे पर हम 17 फरवरी की देर शाम को पहुंचे थे. वहां वीआइपी एराइवल के साथ लगे वीआइपी लॉंज में बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस अध्यक्ष जस्टिस (रिटायर्ड) मोहम्मद मोमताजुद्दीन और उनके सहयोगी पहले से ही स्वागत में तैयार मिले. मोमताजुद्दीन साहेब, उनकी पत्नी, रिश्तेदार हम लोगों के ढाका प्रवास के दौरान लगातार साथ रहे. यहां तक कि लौटते समय भी वह अपनी उम्र और थकावट की परवाह किए बगैर एयरपोर्ट तक छोड़ने आए. ऐसा आतिथ्य कम ही देखने को मिलता है. बांग्लादेश प्रेस काउंसिल का मेहमान होने और इसके चेयरमैन के साथ होने के कारण भी हमें नया पल्टन स्थित अपने ठहरने के लिए निर्धारित ‘होटल विक्ट्री पैलेस’ तक पहुंचने में अपेक्षा से अधिक समय नहीं लगा. होटल ठीक लगा, जहां इंटरनेट और वाय फाय की सुविधा भी बेहतर थी. इसी होटल में वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष अली हेंसरिली, नेपाल प्रेस काउंसिल के कार्यवाहक अध्यक्ष किशोर श्रेष्ठ, श्रीलंका प्रेस काउंसिल के तत्कालीन अध्यक्ष कोग्गाला वेल्लाला बांडुला और भूटान की प्रेस काउंसिल के प्रतिनिधि भी ठहरे थे.

      
 बाएं से भारतीय प्रेस परिषद की सदस्य सुषमा यादव, सी के नायक, अध्यक्ष
 सी के प्रसाद, श्रीलंका प्रेस परिषद के अध्यक्ष 
के डब्ल्यू बांडुला, वर्ल्ड एसोसिएशन
ऑफ प्रेस काउंसिल 
के अध्यक्ष अली हेंसरिली और एस आर रिजवी के साथ


 
    बांग्लादेश अगले साल 5जी एरा में पहुंचने की बात कर रहा है. हमारे पास जियो और एयरटेल के दोनों ही सिमकार्ड प्री पेड हैं. इसलिए निर्भरता वायफाय पर ही रही, वह भी तब, जब हम थके-हारे होटल में पहुंचते. एयरटेल पर इन कमिंग फोन आ रहे थे. गलती से हमने एक कॉल रिसीव कर ली. बमुश्किल दो-ढाई मिनट की बात हुई लेकिन 70 रु. कट गए. उसके बाद तो हम सावधान हो गए. ढाका पहुंचने पर प्रेस परिषद की सचिव अनुपमा जी के पति की तबीयत अचानक बिगड़ जाने की सूचना मिलने पर अगली सुबह ही वह वापस दिल्ली लौट गईं. उनके पति स्वस्थ और सकुशल हैं.

ढाका में ट्रैफिक जाम 


        
ढाका की सड़कों पर रिक्शाें का जाल 
ढाका में मौसम दिल्ली के मुकाबले खुशगवार लगा. बताया गया था कि यहां मच्छरों की बहुतायत है. इसका आभास कोलकाता हवाई अड्डे और ‘महाराजा’ के सानिध्य में भी हो गया था. लेकिन ढाका में हम जहां, नया पल्टन इलाके के होटल विक्ट्री में ठहराए गए अथवा जहां-जहां गए या कहें ले जाए गए, ऐसा कम ही देखने को मिला. ट्रैफिक की समस्या जरूर अपेक्षा से भी अधिक भयावह लगी. सड़कों पर जाम की समस्या यहां आम रहती है. कारण, रोजगार का सबसे बड़ा केंद्र होने के कारण यहां बढ़ती आबादी और उसी अनुपात में बढ़ती गाड़ियां भी हैं. पब्लिक ट्रांस्पोर्ट के रूप में सरकारी बसों की संख्या अपेक्षाकृत कम होने के कारण लोगों को निजी वाहनों, कार, मोटरसाइकिल, स्कूटर, टैक्सी, आटो रिक्शा और पांव रिक्शा पर निर्भर करना पड़ता है. ढाका में तकरीबन सात लाख रिक्शा चलते हैं जिनका व्यस्त इलाकों में भी सड़क के बड़े हिस्से पर कब्जा सा रहता है. ट्रैफिक जाम का आलम यह कि व्यस्त समय में दो-तीन किमी की यात्रा के लिए भी दो-तीन घंटे का समय लग सकता है. यह अनुभव नये ढाका का है, पुराने ढाका में तो भीड़ और ट्रैफिक जाम की स्थिति और भी विकट बताई जाती है. (कार्यक्रमों की व्यस्तता के कारण हम पुराना ढाका नहीं जा सके. ढाकेश्वरी मंदिर देखने की मुराद भी पूरी नहीं हो सकी. कहते हैं कि ढाकेश्वरी देवी के नाम पर ही इस शहर का नाम ढाका पड़ा था). रेल गाड़ी और जहाज पकड़ने के लिए पर्याप्त से भी कुछ ज्यादा ही समय लेकर निकलना पड़ता है. कुशल और अनुभवी ड्राइवरों के कारण समय में कुछ बचत हो सकती है. हमारे साथ ऐसा ही रहा. बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के ड्राइवरों की मेहरबानी से हम तकरीबन सभी जगह, कार्यक्रमों में समय पर पहुंच सके.


    लेकिन ढाका की सड़कों पर एक अनोखी बात दिखी. एक भी मोटरसाइकिल, स्कूटर सवार ऐसा नहीं दिखा जिसके सिर पर हैलमेट न हो. हालांकि पीछे बैठी सवारियों के साथ यह बात अनिवार्य रूप से नहीं दिखी. ढाका में ट्रैफिक जाम की समस्या से निजात के लिए मेट्रो रेल परियोजना पर तेजी से काम हो रहा है. लेकिन अगर यह काम कुछ साल और पहले हो गया होता तो कुछ और बात होती. ढाका में अभी भी इस काम के पूरा होने में कुछ और साल लग सकते हैं. फ्लाईओवर और अंडरपास भी पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं.

 निज भाषा का आग्रह


     
होटल ‘इंटरकांटिनेंटल’ के ‘रूपसी बांग्ला ग्रैंड बाल रूम’ में
बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के पदक (पुरस्कार) प्रदान अनुष्ठान में पदक
प्रदान करते राष्ट्रपति मोहम्मद अब्दुल हामिद, सूचना मंत्री डा. हसन महमूद
 
बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस (रिटायर्ड) मोहम्मद मोमताजुद्दीन 
    अगले दिन, 18 फरवरी, सोमवार को होटल विक्ट्री में सुबह के नाश्ते और दोपहर के भोजन के बीच हम पड़ोस की बाजार-दुकानों में विंडो शापिंग कर आए. दोपहर के भोजन के बाद हम लोग मिंटो रोड पर विशाल और हरियाली से भरपूर रमन्ना पार्क के बगल में स्थित पांच सितारा होटल ‘इंटरकांटिनेंटल’ के ‘रूपसी बांग्ला ग्रैंड बाल रूम’ में बांग्लादेश प्रेस डे (बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के गठन का फैसला 14 फरवरी, 1974 को बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश की संसद में ‘बांग्लादेश प्रेस काउंसिल ऐक्ट’ को पारित करवाकर किया था. इसने अगस्त 1979 में विधिवत काम करना शुरू किया था. लेकिन हर साल यहां 14 फरवरी को ही ‘नेशनल प्रेस डे’ के रूप में मनाया जाता है. इस बार किसी कारणवश प्रेस डे का कार्यक्रम 18 फरवरी को आयोजित किया जा रहा था.) के अवसर पर बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के पदक (पुरस्कार) प्रदान अनुष्ठान में शामिल होने गए. कार्यक्रम में अंग्रेजी, उर्दू अथवा किसी अन्य भाषा के स्वर और शब्द सुनने को नहीं मिलने से बांग्लादेश के प्रति मन में सम्मान कुछ और बढ़ गया. कार्यक्रम में भारत, नेपाल, श्रीलंका, भूटान और साइप्रस से भी वहां की प्रेस परिषदों के प्रतिनिधि, वर्ल्ड एसोसिएशन ऑफ प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष समेत कुछ अन्य विदेशी मेहमान भी थे लेकिन मुख्य अतिथि, बांग्लादेश के राष्ट्रपति मोहम्मद अब्दुल हामिद से लेकर केंद्र सरकार के मंत्रियों, सांसदों, नौकरशाहों और बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष जस्टिस (रिटायर्ड) मोहम्मद मोमताजुद्दीन ने भी अपने भाषण विशुद्ध रूप से बांग्ला भाषा में ही किया. 

    निज भाषा के प्रति इस तरह का अनुराग, आग्रह और स्वाभिमान मन को सुकून दे रहा था तो किसी कोने में शर्मिंदगी का एहसास भी करा रहा था. हमारे यहां तो हिंदी अथवा स्थानीय भाषा जानने-बोलनेवालों के बीच भी हिंदी अथवा स्थानीय भाषा में बोलना हेय और अंग्रेजी बोलना ‘हैसियत और विद्वता’ का प्रतीक समझा जाता है. बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के कार्यक्रम में एक बात ने और प्रभावित किया. शुरुआत में राष्ट्रगान की धुन बजने के बाद मौलवी ने कुरान की आयत और पंडित ने गीता के एक श्लोक के जरिए सुभाषित सुनाया तो पादरी ने बाइबल और बौद्ध भिक्षु ने बुद्ध त्रिपिटक से संदेश सुनाए. इसे बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता के जीवंत उदाहरण के रूप में भी देख सकते हैं.

    भाषा आंदोलन और बांग्लादेश का निर्माण  


    बांग्लादेश में अपनी बांग्ला भाषा के प्रति प्रेम और आग्रह का एक ऐतिहासिक कारण भी है. अंग्रेजों से आजादी और भारत विभाजन से पहले और कुछ साल बाद 1955 तक पूर्वी बंगाल और उसके बाद पूर्वी पाकिस्तान बन गए आज के बांग्लादेश के उदय के पीछे दोनों पाकिस्तान के बीच की भौगोलिक दूरी, पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों के पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षा और अपमान के व्यवहार के साथ ही इसकी भाषा, संस्कृति से जुड़े सवाल भी थे. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच लगभग 1600 किलोमीटर (1000 मील) की भौगोलिक दूरी थी और दोनों के बीच भारत था. दोनों को जोड़नेवाला एक ही तत्व धर्म (इस्लाम) था जबकि बोली, भाषा, खानपान, पहनावा, रहन-सहन और रीति-रिवाज सब एक दूसरे से जुदा थे. सही मायने में पाकिस्तान के ये दोनों हिस्से मन से कभी जुड़ नहीं पाए. सत्ता के सूत्र लगातार पश्चिम पाकिस्तान के हाथ में ही रहे. पूर्वी पाकिस्तान ने खुद को बेगाना, उपेक्षित और तिरस्कृत ही पाया. पूर्वी पाकिस्तान के लोगों में यह भावना घर करने लगी कि पश्चिमी पाकिस्तान के लोग उन्हें अपने उपनिवेश की तरह समझते हैं. 

    शुरुआती टकराव 1947 के अंत में पूर्वी बंगाल में भी अनिवार्य रूप से उर्दू को देश की भाषा यानी राजभाषा के रूप में थोपने की कोशिश को लेकर हुआ. तत्कालीन पूर्वी बंगाल के लोग बांग्ला को भी राजभाषा के रूप में मान्यता देने की मांग करने लगे. 25 फरवरी 1948 को इस आशय का एक प्रस्ताव भी पाकिस्तान की संविधानसभा में रखा गया था लेकिन उसे नकार दिया गया. तत्कालीन प्रधानमंत्री लियाकत अली ने इस मांग की खिल्ली उड़ाई थी. इसका जबरदस्त विरोध 1948 में 19 से 28 मार्च तक की पाकिस्तान के ‘कायदे आजम’ मोहम्मद अली जिन्ना की पूर्वी बंगाल की यात्रा के दौरान बंद, विरोध प्रदर्शनों के रूप में देखने को मिला. लेकिन इस सबसे बेपरवाह जिन्ना ने कहा कि पाकिस्तान की एक ही राजभाषा, उर्दू होगी. बांग्ला भाषा को मान्यता देने की मांग को उन्होंने क्षेत्रीयतावादी करार दिया. लेकिन बांग्ला भाषा को मान्यता देने की यही मांग आगे चलकर पूर्वी बंगाल या कहें पूर्वी पाकिस्तान को पूरी स्वायत्तता देने की मांग के साथ शुरू हुए जनांदोलन के रूप में बदलती गई. इस मांग के तहत केवल रक्षा, वैदेशिक और मौद्रिक नीति निर्धारण संबंधी मामले ही केंद्र सरकार के पास रहने देने की बात थी.

  
संसद के चुनाव में स्पष्ट बहुमत के बावजूद शेख मुजीब को 
सत्ता के बदले जेल मिली
    इसमें आखिरी कारक के रूप में दिसंबर 1970 में हुआ पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेंबली (संसद) का का चुनाव निर्णायक साबित हुआ. इस आम चुनाव में पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीब की अवामी लीग ने जबर्दस्त जीत ( कुल 162 में से 160 सीटें) हासिल की. इस तरह से उसे 300 सदस्यों की पाकिस्तान की संसद में 160 सीटों के साथ स्पष्ट बहुमत भी हासिल हुआ लेकिन बजाए उन्हें (एक बंगाली को)  प्रधानमंत्री बनाने के उन्हें जेल में डाल दिया गया. और यहीं से पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के निर्माण की नींव मजबूत हुई. शेख मुजीबुर्रहमान ने कहा कि पूर्वी पाकिस्तान के लोगों का जनादेश अलग बांग्लादेश के लिए है. लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों ने भाषा, खानपान, रहन-सहन, गीत-संगीत, भूगोल और संस्कृति के मामले में भी पश्चिमी पाकिस्तान के मुकाबले भारतीय पश्चिम बंगाल के ज्यादा करीब पूर्वी बंगाल के लोगों की अपेक्षा और आकांक्षाओं को सुनने-समझने और उसे गंभीरता से लेने के बजाए उनके दमन-उत्पीड़न का रास्ता अपनाया. 1971 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल याह्या खान ने पूर्वी पाकिस्तान में फैले असंतोष और आक्रोश को दूर करने की जिम्मेदारी जनरल टिक्का खान को दी थी. लेकिन उनके द्वारा दमन और दबाव के जरिए समस्या के समाधान की कोशिशों से स्थिति सुधरने और संभलने के बजाए  पूरी तरह बिगड़ती गई.

     
सात मार्च 1971 को ढाका के रमना रेसकोर्स मैदान में
शेख मुजीब का ऐतिहासिक भाषण
    सात  मार्च 1971 को शेख मुजीबुर्रहमान ने ढाका के ऐतिहासिक रमना रेस कोर्स मैदान में दस लाख से अधिक लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश बनाने के लिए सर्वस्व निछावर करने का आह्वान किया था. 25 मार्च 1971 को पाकिस्तान के इस हिस्से में सेना और पुलिस की अगुआई में जबर्दस्त नरसंहार हुआ. इससे न सिर्फ आम लोगों बल्कि पाकिस्तानी सेना में काम कर रहे पूर्वी बंगाल के लोगों में भी जबर्दस्त रोष हुआ और उन्होंने अलग मुक्ति वाहिनी बना ली. शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में मुक्ति संघर्ष की कमान संभाले लोगों ने 26 मार्च को पूर्वी पाकिस्तान के पाकिस्तान से अलग होने और नये बांग्लादेश के निर्माण की घोषणा कर दी थी (26 मार्च को बांग्लादेश के राष्ट्रीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाया जाता है). 

    इसके बाद पाकिस्तानी फौज का निरपराध, शस्त्र विहीन लोगों पर अत्याचार और बढ़ने लगा. इसके चलते लोगों का पूर्वी पाकिस्तान से पलायन आरंभ हो गया जिसके कारण भारत ने यूरोप अमेरिका तहित अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से लगातार अपील की कि पूर्वी पाकिस्तान की स्थिति सुधारी जाए, लेकिन किसी देश ने ध्यान नहीं दिया और जब वहां के विस्थापित लगातार भारत आते रहे तो अप्रैल 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुक्ति वाहिनी को समर्थन देकर, बांग्लादेश की आजादी में सहायता करने का निर्णय लिया. बांग्लादेश सरकार के मुताबिक इस दौरान करीब 30 लाख लोग मारे गए. जेलें भर गईं, औरतों के साथ बड़े पैमाने पर सामूहिक बलात्कार हुए, तकरीबन एक करोड़ लोग भारत में शरणार्थी बने. 

    
भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने
आत्मसमर्पण पत्र पर हस्ताक्षर करते 
पाकिस्तान
की सेना के जनरल ए के नियाजी 
    पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के मुक्ति संघर्ष को भारत के खुला समर्थन से कुपित पाकिस्तान की वायुसेना ने 3-4 दिसंबर को अमृतसर सहित 9 सैन्य ठिकानों पर हमले किए.उसके बाद तो दोनों देशों के बीच युद्ध ही छिड़ गया. इस तकरीबन 12-13 दिनों के युद्ध के बाद पाकिस्तान न सिर्फ बुरी तरह पराजित हुआ, 16 दिसंबर को उसके जनरल ए के नियाजी के साथ पाकिस्तान की सेना, वायु सेना और नौ सेना के 93 हजार अधिकारियों-सैनिकों ने ढाका में भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्म समर्पण कर दिया था. पाकिस्तान को इस युद्ध की कीमत पाकिस्तान के विभाजन और एक नये, स्वतंत्र और संप्रभु देश के रूप में बांग्लादेश के निर्माण के रूप में चुकानी पड़ी.

    
बांग्लादेश प्रेस काउंसिल कार्यालय में विचार विमर्श
    बहरहाल, होटल ‘इंटरकांटिनेंटल’ में बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के कार्यक्रम के बाद हम लोग तोपखाना रोड पर सेगुन पार्क इलाके में स्थित बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के मुख्यालय में गए. औपचारिक स्वागत, मेल-मुलाकात के बाद हम लोग रात के भोजन के लिए ऐतिहासिक और संभ्रांत ‘ढाका क्लब’ में पहुंचे. वहां पहले से ही कुछ वरिष्ठ पत्रकार, राजनेता, बौद्धिक जमा थे. चारों तरफ से ढाका विश्वविद्यालय, बांग्लादेश नेशनल म्युजियम, रेडियो बांग्लादेश, रमना पार्क और सुहरावर्दी उद्यान से घिरे ढाका क्लब की स्थापना 1911 में अंग्रेजों ने कलकत्ता के ‘रायल बंगाल क्लब’ की तर्ज पर किया था. क्लब में भोजन इसकी ख्याति के अनुरूप ही था लेकिन स्थानीय मेहमानों की बहुतायत के कारण उसके साथ मदिरा की व्यवस्था नहीं थी.    
     
ढाका क्लब में बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के रात्रिभोज में
स्थानीय बौद्धिक जगत के साथ विचार-विमर्श
    बांग्लादेश में अधिसंख्य आबादी मुस्लिम होने के कारण वैसे भी मदिरा सेवन पर रोक है. बातचीत के क्रम में हमने एक वरिष्ठ पत्रकार से पुलवामा हमले के बारे में पूछ लिया. उनका जवाब चौंकानेवाला था. उन्होंने कहा कि यह आप लोगों (भारत-पाकिस्तान) का मसला है. हमारे लोगों के पास करने को और भी बड़े बहुत से काम हैं. हमें अपनी जीडीपी बढ़ाने की चिंता है. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि आज बांग्लादेश की जीडीपी ते जी से बढ़ रही है. उसके टाका की कीमत भारतीय रुपए को छूने जा रही है जबकि पाकिस्तान उससे काफी पिछड़ रहा है. 

    बंग बंधु मेमोरियल म्युजियम में  


  
बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान की तस्वीर पर
श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए
     
19 फरवरी की सुबह हम लोग ढाका के धनमंडी इलाके में रोड नंबर 32 पर स्थित कोठी नंबर 677 पर गए. यह कोठी अपने साथ बांग्लादेश के आधुनिक इतिहास के कुछ बेहद महत्वपूर्ण पन्ने भी समेटे हुए है. बांग्लादेश के जनक या कहें, राष्ट्रपिता, बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान झील किनारे बनी इस कोठी में ही रहते थे. वह पैदा तो हुए थे फरीदपुर जिले में गोपालगंज तालुका के तुंगीपाड़ा गांव में (उन्हें दफ्नाया भी उनके पैतृक गांव में ही गया था) लेकिन एक अक्टूबर 1961 को सपरिवार यहां इस कोठी में रहने आ गए थे. यहीं रहकर उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व और सैन्य शासकों के खिलाफ संघर्ष का संचालन किया था जो आगे चलकर ‘मुक्ति संग्राम’ और फिर बांग्लादेश के नाम से नए राष्ट्र के उदय के रूप में बदल गया था. दिसंबर 1971 में बांग्लादेश के बनने और उसके बाद सत्तारूढ़ होने पर भी शेख मुजीब राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री के लिए बने नए सरकारी आवास में जाने के बजाय इसी कोठी में रहते थे. यहीं उनसे मिलने देश- विदेश के नेता, नौकरशाह और राजनयिक आते थे. 

    लेकिन उनका और उनके परिवार के सदस्यों का दुखद अंत भी इसी कोठी में हुआ था. 15 अगस्त 1975 की अल्ल सुबह या कहें काली सुबह (सूर्योदय से पहले) बांग्लादेश की सेना की दो हथियारबंद टुकड़ियों के साथ बागी अफसरों ने यहां धावा बोलकर न सिर्फ अपने राष्ट्रपति शेख मुजीब, उनकी पत्नी, तीन बेटों, दो बेटों की बहुओं, शेख मुजीब के भाई और उनके निवास पर काम करनेवाले लोगों के सहित कुल 20 लोगों को बल्कि पूरे मकान को ही गोलियों से छलनी कर दिया था. यहां तक कि उनके सबसे छोटे बेटे, दस वर्षीय रसेल को भी हमलावरों ने बख्शा नहीं था. उसके यह कहने पर कि उसे अपनी मां के पास जाना है, बर्बर-आतताई सैनिकों ने उसे उसकी मां की गोलियों से छलनी लाश के पास ले जाकर गोलियों से भून दिया था.

    
बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमाल संग्रहालय के बाहर
    इस अप्रत्याशित हमले में मुजीब परिवार का कोई पुरुष सदस्य नहीं बचा था. उनकी दो बेटियां-शेख हसीना और शेख रेहाना संयोगवश इसलिए बच गई थीं क्योंकि घटना के समय दोनों जर्मनी में थीं. अपने पिता की हत्या के बाद शेख हसीना हिन्दुस्तान रहने लगी थीं. वहीं से उन्होंने बांग्लादेश के नए शासकों के खिलाफ अभियान चलाया. 1981 में वह बांग्लादेश लौटीं और शेख मुजीब की उत्तराधिकारी के बतौर सर्वसम्मति से उनकी पार्टी, अवामी लीग की अध्यक्ष चुन ली गईं. बाद में वह संसद में विपक्ष की नेता और फिर देश की प्रधानमंत्री भी बनीं. आज वह अपने चौथे कार्यकाल के लिए बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं. इस कोठी में बने बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान मेमोरियल म्यूजियम में उनसे जुड़ी स्मृतियों को हमने नम आंखों से देखा. 32 नंबर रोड की इस कोठी में पहुंचकर उनसे जुड़े लम्हों, स्मृतियों को देखने-जानने, उनकी प्रतिमा के सामने सजदा करने की मुराद पूरी हुई. उनके प्रति श्रद्धा और आकर्षण और बढ़ गया. 
    
बंग बंधु शेख मुजीबुर्रहमान मेमोरियल म्युजियम के बाहर
    शेख मुजीब और उनसे जुड़ी स्मृतियों को यहां बहुत ही करीने के साथ उनके मूल रूप में ही सहेज कर रखने की कोशिश की गई है. बगल की छह मंजिला कोठी को भी लेकर संग्रहालय का हिस्सा बना लिया गया है. उनके जीवन, रहन-सहन, मुक्ति संग्राम से जुड़ी यादें देखकर लगा कि किन परिस्थितियों में शेख मुजीब एक नए राष्ट्र के संस्थापक, राष्ट्रपिता और बंगबंधु बने थे. वहीं दूसरी तरफ दीवालों, फर्श और कपड़े-किताबों तक को छलनी कर गई गोलियों से लगा कि उनके कातिलों के मन में उनके विरुद्ध कितना गुस्सा था. हालांकि उनकी हत्या एक बड़े राजनीतिक और सैन्य षडयंत्र का हिस्सा थी जिसमें कभी उनके करीबी और सरकार में मंत्री लेकिन yxiपाकिस्तान परस्त रहे खोंदकार मुश्ताक अहमद जैसे नेता और जियाउर्रहमान जैसे सैन्य अधिकारी भी शामिल थे. इन लोगों ने शेख मुजीब पर भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के आरोप प्रचारित करवाए थे. शेख मुजीब की हत्या के तुरंत बाद खोंदकार मुश्ताक अहमद बांग्लादेश के राष्ट्रपति और जनरल जियाउर्रहमान सेनाध्यक्ष बन बैठे. लेकिन कुछ महीने बाद मुश्ताक अहमद को भी अपदस्थ कर जियाउर्रहमान राष्ट्रपति बन गए थे. इस दौरान ढाका और बांग्लादेश में शेख मुजीब के करीबी लोगों को जेल में या फिर बाहर बेरहमी से कत्ल किया गया. हालांकि बाद में शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना वाजेद की सत्ता में वापसी के बाद कातिलों को भी चुन-चुनकर उनके किए की सजा मिली. 

मुजीब की हत्या से डर गई थीं इंदिरा गांधी !


  
शेख मुजीब के परिवार के साथ इंदिरा गांधी
    जिस समय बंग बंधु, बांग्लादेश के तत्कालीन राष्ट्रपति शेख मुजीबुर्रहमान की कोठी पर उन्हें, उनके परिवार के लोगों और करीबी सहयोगियों को बेरहमी से कत्ल किया गया, हम भारत में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा थोपे गए आपातकाल के विरुद्ध अपने पिता, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता सेनानी विष्णुदेव तथा अन्य तमाम विपक्षी नेताओं-कार्यकर्ताओं के साथ आजमगढ़ के जनपद कारागार में भारत रक्षा कानून के तहत निरुद्ध थे. जेल में उनकी हत्या को लेकर तमाम तरह की चर्चाएं होती थीं. यह भी सुनने को मिलता था कि अपने आखिरी दिनों में शासन-प्रशासन में परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरने लगे शेख मुजीब ने तानाशाही की ओर कदम बढ़ाने शुरू कर दिए थे. 1975 की शुरुआत में ही उन्होंने बांग्लादेश के संविधान में कई संशोधन भी करवा लिए थे जो उनके एकाधिकारवादी शासन को ताकत प्रदान करते थे. इस संविधान संशोधन के जरिए ही 25 जनवरी 1975 को वह देश के राष्ट्रपति बन गए थे. लेकिन उनके सरकारी आवास पर उनके ही लोगों के द्वारा अंजाम दिए गए इस नृशंस हत्याकांड की वजह इतनी भर थी या उसके पीछे कोई गहरी साजिश भी थी. उनकी हत्या को लेकर आजमगढ़ की जेल में इस तरह की भी चर्चाएं होती थीं कि उनके ही नक्शेकदम पर चल रहीं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी संभव है कि मुजीब की हत्या से किसी तरह की प्रेरणा लें. लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.

    हालांकि, बाद में उनके करीबी रहे लोगों के रहस्योद्घाटनों से पता चलता है कि श्रीमती गांधी शेख मुजीब की हत्या के बाद काफी काफी डर और सहम सी गई थीं. 15 अगस्त को लालकिले से अपने उद्बोधन में उन्होंने इसका जिक्र तक नहीं किया और न ही शेख मुजीब को श्रद्धांजलि ही अर्पित की. उनकी निजी मित्र पुपुल जयकर ने इंदिरा गांधी की जीवन कथा में लिखा है, “उस दिन शाम को जब मैं प्रधानमंत्री के आवास पर गई तो मुझे वे कुछ सहमी हुई प्रतीत हुईं. उन्होंने आशंका जताते हुए कहा कि मुजीब के बाद अब मुझे भी मार डाला जाएगा. मुझे हर किसी पर संदेह हो रहा है. मैं किस पर यकीन करूं. उन्होंने जयकर से पूछा राजीव का बेटा राहुल भी उसी उम्र का है जिस उम्र का मुजीब का बेटा रसेल था, जिसे मार डाला गया. कल राहुल को भी कत्ल किया जा सकता है. वे लोग मुझे और मेरे परिवार को खत्म कर देंगे !" 

सूचना मंत्री से मुलाकात


  
बांग्लादेश के सूचना मंत्री हसन महमूद के साथ
विभिन्न देशों की प्रेस परिषदों के प्रिनिधियों की मुलाकात
     
बहरहाल, बंग बंधु, शेख मुजीबुर्रहमान राष्ट्रीय संग्रहालय से निकलते समय तानाशाही और कट्टरपंथ के विरुद्ध संघर्ष का हमारा संकल्प कुछ और मजबूत हुआ. वहां से सुबह के 11.30 बजे हम लोग ढाका के अब्दुल गनी रोड पर स्थित बांग्लादेश केंद्रीय सचिवालय गए. वहां हमारी मुलाकात शेख हसीना सरकार के सूचना मंत्री डा. हसन महमूद के साथ हुई. चिटगांव से सांसद हसन महमूद अवामी लीग के प्रभावशाली नेताओं और कुशल वक्ताओं में गिने जाते हैं. एक दिन पहले हम इंटरकांटिनेंटल होटल में आयोजित ‘बांग्लादेश प्रेस डे’ के समारोह में उनकी तकरीर सुन चुके थे. उन्होंने वर्ल्ड प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष, भारत, नेपाल, श्रीलंका, भूटान से आए संबद्ध देशों की प्रेस परिषदों के अध्यक्ष-प्रतिनिधियों के साथ ही बांग्लादेश की स्थानीय मीडिया के प्रतिनिधियों से भी बात की और शेख हसीना सरकार द्वारा मीडिया और मीडिया कर्मियों की भलाई और बेहतरी के लिए किए गए कार्यों की फेहरिश्त गिनाते हुए समझाने की कोशिश की कि बांग्लादेश में मीडिया को कितनी आजादी है. हालांकि एक स्थानीय महिला पत्रकार ने कुछ उदाहरणों से उनके दावे पर सवाल भी खड़े किए. 

    दोपहर का भोजन हमारा बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के कार्यालय में ही हुआ. बाद में वहीं ‘फ्रीडम ऑफ प्रेस-चैलेंजेज इन डिजिटल एरा’ पर विचार-विमर्श हुआ. वक्ताओं ने संबद्ध देशों में मीडिया की स्थिति और प्रेस काउंसिल की भूमिका के बारे में अपने विचार व्यक्त किए. शाम को आयोजकों ने प्रेस काउंसिल के सभागार में ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों के तहत भावपूर्ण नृत्य और संगीत के कार्यक्रम आयोजित किए. रात के भोजन के लिए हम लोग धनमंडी इलाके में ही एक मशहूर ‘हैंगआउट रेस्तरां’ में गए. वहां खाना वाकई स्वादिष्ट ओर लाजवाब था.

    
बांग्लादेश नेशनल म्यूजियम में सामने झुक कर कुछ देखते हुए 
बांग्लादेश प्रेस काउंसिल के सचिव शाह आलम,
हमारे बगल में एस आर रिजवी तथा श्रीलंका प्रेस काउंसिल के प्रतिनिधि
20 फरवरी की सुबह दस बजे हम लोग शाहबाग रोड पर स्थित बांग्लादेश नेशनल म्यूजियम में गए. 1913 में बने इस म्यूजियम का नाम उस समय ढाका म्यूजियम था. बांग्लादेश के उदय के वर्षों बाद, 17 नवंबर 1983 को इसे बांग्लादेश नेशनल म्यूजियम का नाम दिया गया. इस तीन-चार मंजिला संग्रहालय में प्रागैतिहासिक काल से लेकर बांग्लादेश के आधुनिक इतिहास, भूगोल, संस्कृति से संबंधित पुरातात्विक महत्व की वस्तुएं, तस्वीरें, दस्तावेज सहेज कर रखे गए हैं. दूसरी मंजिल पर, 1952 के भाषा आंदोलन, बांग्लादेश के निर्माण की सचित्र संघर्ष गाथा और दमन के औजार से लेकर मुक्ति संघर्ष के नायकों की तस्वीरें, मुक्ति संघर्ष से संबंधित समाचार और तस्वीरों के साथ उस समय के देशी-विदेशी अखबारों के पन्ने आदि करीने से सजाकर रखे गए हैं. यहां साल में तकरीबन डेढ़ करोड़ दर्शक आते हैं जिनमें से तकरीबन एक करोड़ 20 लाख विदेशी दर्शक होते हैं. 

 बासुंधरा सिटी मॉल में    

    
    बांग्लादेश नेशनल म्यूजियम में देखने-सुनने को बहुत कुछ था लेकिन इसी दिन रात में हमें वापसी के लिए कोलकाता की उड़ान पकड़नी थी और उससे पहले दोपहर का भोजन करना था और उसके बाद ढाका में सबसे बड़े मॉल, ‘बासुंधरा सिटी’ भी जाना था. इसे ध्यान में रखते हुए ही हम लोगों ने सुबह ही होटल से चेकआउट कर लिया था. दोपहर का भोजन हमारा धन मंडी इलाके में रसेल स्क्वाएर पर स्थित युनिकैफे रेस्तरां में हुआ जो अपने बांग्लादेशी व्यंजनों के लिए मशहूर है. युनिकैफे में लंच के बाद हम लोग बासुंधरा सिटी गए.

    
बासुंधरा सिटी शापिंग सेंटर (तस्वीर इंटरनेट से)
    ढाका के पंथापथ में कंवर बाजार के पास स्थित 19 मंजिला ‘बासुंधरा सिटी मॉल’ को बांग्लादेश का दूसरा सबसे बड़ा मॉल भी कहा जाता है. 17,763 वर्ग मीटर यानी 191,200 वर्ग फुट क्षेत्रफल में फैले इस मॉल के बारे में कहते हैं कि ऐसा कोई सामान नहीं है जो यहां उपलब्ध नहीं हो. बताया गया कि यहां रोजाना 50 हजार से अधिक लोग आते हैं. इस मॉल में 2,325 खुदरा स्टोर और कैफेटेरिया के लिए जगह है. इसमें एक बड़ा भूमिगत जिम, एक स्टॉर सिनेप्लेक्स सिनेमा, पेंटहाउस फूड कोर्ट, आइस स्केटिंग रिंक, थीम पार्क, फिटनेस क्लब और स्विमिंग पूल भी है. पूरी तरह से वातानुकूलित इस शॉपिंग मॉल के 19वीं मंजिल पर इसके मालिक बासुंधरा समूह का कॉर्पोरेट कार्यालय भी शामिल है. इस मॉल को तेजी से उभरते आधुनिक ढाका शहर का प्रतीक भी कहा जाता है.

     बासुंधरा सिटी मॉल में हम लोग दो-तीन घंटे रहे. कुछ खरीदारी भी की. हम इसके बेसमेंट में स्थित ‘मुस्तफा मार्ट’ भी गए. इसका एक विशेष कारण भी था. मुस्तफा मार्ट दरअसल, सिंगापुर में स्थित मुस्तफा सेंटर नामक अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला से जुड़ा है. इसके कर्ता धर्ता हमारे आजमगढ़ के मोहम्मद मुस्तफा बताए जाते हैं. उनके बारे में प्रसिद्ध है कि सिंगापुर में उनके मॉल में जानेवाले भारतीयों, उत्तर प्रदेशी और खासतौर से पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों का बहुत खयाल रखते थे. अगर पता चल जाए कि आप आजमगढ़ से हैं तो उनकी खातिरदारी बढ़ जाती और बिना किसी उपहार के वह वापस नहीं जाने देते थे. अब तो शायद सिंगापुर में भी उनके आर्थिक साम्राज्य की बागडोर उनके बच्चों, नई पीढ़ी के हाथ में है. ढाका के बासुंधरा सिटी में भी उनका विशाल मेगा मार्ट है लेकिन वहां सामानों के दाम भी इस मॉल के हिसाब से ही हैं. हम लोग दो-ढ़ाई घंटे बासुंधरा सिटी में रहे. पूरा मॉल देखने-घूमने में शायद पूरा एक दिन भी कम ही पड़ता और फिर हमें शाम के समय, जब सरकारी दफ्तर बंद होते हैं, ढाका के अत्यंत व्यस्त ट्रैफिक के बीच से गुजरते हुए अपनी उड़ान पकड़ने के लिए हवाई अड्डे भी पहुंचना था, लिहाजा हम लोग कुछ जल्दी ही वहां से निकल लिए.
 

दिल्ली वापसी


    20 फरवरी की शाम लौटते समय हमें हवाई अड्डे तक पहुंचने में दो घंटे से कुछ ज्यादा ही समय लग गया. वह तो अच्छा रहा कि हम लोग सुबह ही होटल से चेक आउट कर गए थे अन्यथा वापस होटल जाकर समय पर हवाई अड्डे पर पहुंच पाना असंभव ही था. इसके बावजूद अगर कुशल ड्राइवर टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से होकर मुख्य मार्ग पर नहीं पहुंच जाते, मेजबानों की तरफ से वीआईपी प्रोटोकोल व्यवस्था नहीं होती और भारतीय उच्चायोग के अधिकारी मदद के लिए पहले से ही हवाई अड्डे के वीआईपी लांज में मौजूद नहीं रहते तो विमान पकड़ना हमारे लिए मुश्किल ही था. दौड़ते-भागते हम किसी तरह उड़ान तक पहुंच सके. हम रात के 10.30 बजे कोलकाता के नेताजी सुभाषचंद्र बोस अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे. उसके बाद शायद एयर इंडिया की कोई सीधी उड़ान दिल्ली के लिए नहीं थी, हमें 20-21 फरवरी की रात और सुबह के कुछ घंटे कोलकाता में साल्ट लेक के पास वीआईपी मार्ग पर स्थित एक होटल में गुजारने पड़े. 21 फरवरी की सुबह सात बजे हम लोगों को कोलकाता से दिल्ली के लिए एयर इंडिया की उड़ान पकड़नी थी. इसलिए जल्दी ही उठकर तैयार भी होना था. सवा दो घंटे बाद हम अपने दिल्ली शहर में पहुंच गए.

नोटः अगली कड़ी  में आप थाईइलैंड में पटाया, फुकेट और  बैंकाक की हमारी  एक पर्यटक के तौर पर हुई निजी यात्रा से जुड़े अनुभवों और संस्मरणों के बारे में पढ़ेंगे. यह हमारे विदेश भ्रमण से जुड़े संस्मरणों की श्रृंखला की संभवतः अंतिम कड़ी होगी.






Monday, 25 January 2021

डोकलाम विवाद के साए में चीन यात्रा (अंतिम कड़ी)


चीन रेडियो इंटरनेशनल में


जयशंकर गुप्त


    
चीन रेडियो इंटरनेशनल के हिंदी सेवा विभाग में साक्षात्कार
    चीन के विदेश मंत्रालय में तकरीबन डेढ़ घंटे की बातचीत के बाद हम लोग होटल नोवोटेल लौट गए. दोपहर के भोजन के बाद हमारा अगला पड़ाव चीन रेडियो इंटरनेशनल का मुख्यालय था. शिजिंगशान जिले के बाबोशान इलाके में शिजिंगशान रोड पर स्थित राजकीय स्वामित्ववाले ‘चीन रेडियो इंटरनेशनल’ (सीआरआई) के मुख्यालय में इसके दक्षिण एशिया सेंटर के निदेशक सुन जिंगली, हिंदी सर्विस के निदेशक यांग यिफेंग और दिल्ली में चीनी दूतावास के साथ जुड़े रहे निउ बेइडोंग आदि अधिकारियों ने हमारा स्वागत बहुत ही गर्मजोशी के साथ किया.

चीन रेडियो इंटरनेशनल मुख्यालय
    हिंदी सर्विस के निदेशक यांग यिफेंग ने बताया कि चीन रेडियो इंटरनेशनल का उद्देश्य चीन को शेष विश्व से और शेष विश्व को चीन से परिचित कराना, वैश्विक मामलों की रिपोर्ट करना और चीन के लोगों और दुनिया के अन्य हिस्सों के लोगों के बीच आपसी समझ और मित्रता को बढ़ावा देना है. इसकी स्थापना 3 दिसंबर, 1941 को रेडियो पेकिंग के रूप में हुई थी. बाद में, 1983 में, इसे रेडियो बीजिंग और 1993 के बाद से इसे चीन रेडियो इंटरनेशनल कहा जाने लगा. इसमें 32 विदेशी संवाददाता ब्यूरो और 6 मुख्य क्षेत्रीय ब्यूरो हैं. यहां प्रत्येक दिन 2,700 घंटे से अधिक प्रोग्रामिंग (अंग्रेजी में 24 घंटे), समाचार, राजनीति, अर्थव्यवस्था, समाज, संस्कृति, विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर कार्यक्रमों के प्रसारण करते हैं. इसकी विदेशी रिपोर्टिंग में 65 भाषाएं शामिल हैं. हम हिंदी प्रसारण सेवा प्रभाग में भी गये. यहां हिंदी प्रसारण सेवा की शुरुआत 15 मार्च 1959 को हुई थी. बांग्ला, तमिल सहित अन्य भारतीय भाषाओं के समाचार, कार्यक्रम भी यहां से बनते और प्रसारित होते हैं. चीन रेडियो इंटरनेशनल की शानदार बहुमंजिला इमारत में बारहवीं मंजिल पर दक्षिण एशिया केंद्र के कार्यालय के साथ ही हिंदी सेवा का कार्यालय भी है. वहां कार्यरत, मूल रूप से उत्तराखंड के नैनीताल के निवासी, दिल्ली में अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका एवं अन्य कई मीडिया संस्थानों से जुड़े रहे वरिष्ठ पत्रकार अनिल पांडेय मिल गये. वह हमें पहले से नाम से जानते थे. फेसबुक पर मित्रता भी थी. चीन प्रवास के दौरान पहली बार वहां रह रहे किसी भारतीय के साथ अपनी भाषा में आत्मीय बातचीत बहुत ही सुखद लगी. अनिल बहुत अच्छे पत्रकार होने के साथ ही बहुत सहृदय इन्सान भी हैं. उन्होंने चीन रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा के लिए हमारा साक्षात्कार भी किया जिसमें हमारी चीन यात्रा से जुड़े अनुभवों के साथ ही भारत और चीन के बीच जनता के स्तर पर संबंधों आदि के बारे में हमने चर्चा की. हिंदी सेवा में एक रिपोर्टर झु जिंगलिंग भी मिले. हमें हिंदी सेवा के बारे में एक लीफलेट भी दिया जिस पर चीनी और हिंदी भाषा में भी चीन रेडियो इंटरनेशनल का स्लोगन लिखा है, ‘चीन दूर नहीं, कानों के पास है.’ वहां कार्यरत चीनी पुरुष और महिला अधिकारियों से हिंदी में बातें करना बहुत अच्छा लग रहा था. चीन रेडियो इंटरनेशनल के अधिकारी हमें इसके विभिन्न विभागों में ले गये. वहां कार्यरत अन्य देशों के पत्रकारों, रेडियो प्रसारण से संबंधित अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी से भी परिचय कराया. उनकी कैफेटेरिया में हम लोगों ने हल्का नाश्ता लिया और कॉफी भी पी. हम लोग वहां तकरीबन दो घंटे तक रहे. 

एसीजेए के मुख्यालय में


    
एसीजेए का मुख्यालय भवन (तस्वीर विकी पीडिया)
    चीन रेडियो इंटरनेशनल के मुख्यालय से निकल कर शाम को छह बजे हम लोग डोंगचेंग जिले में झुशिकोउ ईस्ट स्ट्रीट पर स्थित अपने मेजबान ‘आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन’ (एसीजेए) के मुख्यालय में गये. रास्ते में हमारे साथ चल रहे चीनी मित्र रोंग ने, जो हमारे लिए दुभाषिए और गाइड का काम भी कर रहे थे, चीन की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी ‘सिन हुआ’ की बिल्डिंग भी दिखाई. लेकिन वहां जाने का हमारा कार्यक्रम नहीं था. रास्ते में ही हमारे मित्रों ने बीजिंग इंटरनेशनल होटल भी दिखाया जहां पिछली चीन यात्रा में भारत से गये पत्रकारों को ठहराया गया था. तकरीबन एक घंटे की यात्रा के बाद हम लोग अखिल चीन पत्रकार संघ यानी आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन (एसीजेए) के मुख्यालय में थे. एसीजेए राष्ट्रीय स्तर पर प्रेस-पत्रकारों का राष्ट्रीय ‘गैर-सरकारी’ संगठन है, जो सभी प्रांतों, स्वायत्त क्षेत्रों और नगर पालिकाओं के पत्रकार संघों और पत्रकारिता शिक्षा और शोध से जुड़े प्रमुख संगठनों को मिलाकर बना है. कहने के लिए यह गैर सरकारी संगठन है लेकिन इसका काम और संगठन चीन सरकार और चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी की प्रचार और पत्रकार संपर्क शाखा के रूप में ही जाना जाता है. इसका गठन 8 नवंबर 1937 को चीन की सबसे अधिक आबादीवाले शहर शंघाई में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के बैनर तले ही हुआ था.

एसीजेए मुख्यालय में मनोज जोशी, संदीप दीक्षित और
एसीजेए की एक पदाधिकारी के साथ
    एसीजेए का ध्येय वाक्य है, ‘सरकार और देशी-विदेशी पत्रकारों के बीच सेतु की भूमिका.’ यह पत्रकारों के वैध अधिकारों और हितों की सुरक्षा के लिए भी काम करता है और पत्रकारों को आत्म-अनुशासन और पेशेवर नैतिकता की शिक्षा भी प्रदान करता है. मीडिया टु मीडिया संवाद कार्यक्रम के तहत एसीजेए ने अब तक, दुनिया भर में 100 से अधिक देशों के मीडिया संगठनों- संस्थानों के पत्रकारों के साथ संवाद का आदान-प्रदान और सहकारी संबंध स्थापित किए हैं. यह विदेशी प्रेस-,मीडिया संस्थानों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय आदान-प्रदान को प्रायोजित करता है, विदेश में चीनी प्रेस प्रतिनिधिमंडल भेजता है और विदेशी पत्रकारों की चीन यात्रा करवाता है.

 
नई दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एसीजेए की
कार्यकारी सचिव वांग दोंग मेइ का पुष्पगुच्छ से स्वागत

    हमारी चीन यात्रा के तकरीबन दो साल बाद अप्रैल, 2019 के अंतिम सप्ताह में ऑल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन का एक प्रतिनिधिमंडल उनकी कार्यकारी सचिव वांग दोंग मेइ के नेतृत्व में यहां दिल्ली में भी आया. हमने यहां फॉरेन करेस्पांडेंट्स क्लब में और फिर अपने प्रेस एसोसिएशन की तरफ से प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में उनका स्वागत किया. विचारों का आदान प्रदान भी हुआ. एसीजेए के प्रतिनिधिमंडल में वांग दोंग मेइ के अलावा चीन के प्रतिष्ठित अंग्रेजी दैनिक 'चाइना डेली' के उप प्रधान संपादक कांग बिंग, बीजिंग डेली ग्रुप के प्रधान संपादक वु यिलिन, ऑल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन के अंतरराष्ट्रीय लाइजन डिपार्टमेंट के झांग येलियांग तथा चीन रेडियो इंचरनेशनल के दिल्ली स्थित संवाददाता लियाओ जियांग भी थे.   

 साथ चल रहे श्री रोंग, संदीप दीक्षित, मनोज जोशी, एसीजेए की 
कार्यकारी सचिव वांग दोंग मेइ के साथ हम
  
    एसीजेए की बहुमंजिला इमारत में हमारा स्वागत इसके अंतरराष्ट्रीय संपर्क विभाग के निदेशक रोंग चांगहाई, और कार्यकारी सचिव एवं वरिष्ठ संपादक वांग दोंग मेइ ने किया. मेइ इससे पहले चीन रेडियो इंटरनेशनल में उप महानिदेशक थीं. औपचारिक परिचय के क्रम में हमने अपने प्रेस एसोसिएशन और इसकी भूमिका के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी. दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक संबंधों और संदर्भों का वास्ता देकर हम लोगों ने कहा कि इन संबंधों में किन्हीं कारणों से पैदा हो रही कड़वाहट को दूर करने की जिम्मेदारी दोनों देशों की मीडिया पर भी है. हमने उनसे एसीजेए के संगठन और इसकी गतिविधियों, आमदनी के श्रोतोंआदि के बारे में भी जानकारी ली. पता चला कि एसीजेए में तकरीबन एक सौ वैतनिक कर्मचारी काम करते हैं. 

नई दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एसीजेए के प्रतिनिधियों
और प्रेस एसोसिएशन के साथियों के साथ
 
अनौपचारिक चर्चाओं के बाद हमारे लिए एसीजेए ने अपने मुख्यालय में ही ‘बैंक्वेट डिनर’ भी आयोजित किया था. बैंक्वेट डिनर या लंच के तहत चीन में एक गोलाकार टेबुल पर भोजन सामग्री (आर्डर के हिसाब से) सजी होती है. टेबुल घूमते रहती है. आपके पास आने पर आप अपने पसंद की सामग्री कांटे अथवा 'चाप स्टिक्स' से उठाकर अपनी प्लेट में रख लेते हैं. चाइनीज लोग और हमारे कुछ मित्र भी चाप स्टिक्स से ही अपना भोजन प्लेट में रखते और दो उंगलियों में फंसी चाप स्टिक्स के सहयोग से ही भोजन करते थे लेकिन हमारे लिए यह असुविधाजनक था. खाने की बात तो दूर, हम घूमती टेबुल पर से कुछ उठाते इससे पहले ही वह डिश आगे बढ़ जाती. इसे भांप कर बगल में बैठे चीनी अथवा हमारे भारतीय मित्र भी सहयोग कर देते और हमारी प्लेट में भी पसंद की भोजन सामग्री रख दी जाती. खाते तो हम अपने हिसाब से ही थे. 

    
 'थिंक टैंक', चीन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान (सीआईआईएस) 
    अगली यानी 9 अगस्त की सुबह 9 बजे हमारा बेजिंग शहर में ही ताऊतिआओ ताईजिचियांग स्थित आर्थिक एवं अंतरराष्ट्रीय मामलों पर चीन के ‘थिंक टैंक’ कहे जानेवाले चीन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान या 'चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज' (सीआईआईएस) के अधिकारियों, शोध कर्ताओं से मिलने का कार्यक्रम था. सीधे चीन के विदेश मंत्रालय द्वारा प्रशासित सीआईआईएस मुख्य रूप से वैश्विक राजनीति और अर्थशास्त्र से जुड़े मुद्दों पर केंद्रित शोध-अध्ययन केंद्र है. यह विभिन्न और खासतौर से अंतरराष्ट्रीय संबंधों-विवादों, विश्व अर्थ व्यवस्था से जुड़े मामलों पर चीन सरकार के लिए अल्पकालिक और दीर्घकालिक नीति निर्धारण के साथ ही सरकार के निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी सहयोग-योगदान करता है. इसमें शोधकर्ता मुख्य रूप से वरिष्ठ राजनयिक और अंतरराष्ट्रीय संबंधों तथा आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ-विद्वान होते हैं. इसका गठन 1956 में 'इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस ऑफ द चाइनीज एकेडमी ऑफ साइंसेज' के रूप में हुआ था. बाद में इसका नाम 'इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल रिलेशंस' और दिसंबर 1986 में 'चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज' (चीन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान) हुआ. यहां तकरीबन एक सौ कर्मचारी-अधिकारी और शोध सहायक कार्यरत हैं. इसका अपना भव्य भवन है जिसमें एक बड़ा पुस्तकालय भी है जिसमें तकरीबन 2 लाख 60 हजार पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएं तथा अंतरराष्ट्रीय संबंधों और आर्थिक विषयों पर तमाम शोध पत्र और दस्तावेज उपलब्ध हैं.

    सीआईआईएस के मीटिंग रूम में हमारी मुलाकात इसके वाइस प्रेसीडेंट, सीनियर रिसर्च फेलो रोंग यिंग, एसोसिएट रिसर्च फेलो लैन जियांक्स और असिस्टेंट रिसर्च फेलो निंग शेंगनेन के साथ ही कुछ अन्य अधिकारियों से करवाई गई. सीआईआईएस और उस कमरे का महत्व समझाते हुए बताया गया कि इसी कमरे में दिसंबर 1988 में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मई 1989 में सोवियत रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के बहुचर्चित महासचिव मिखाइल गोर्बाच्योव के साथ चीन में माओत्से तुंग के निधन के बाद सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता देंग शियाओ पिंग के साथ बातचीत हुई था. रांग यिंग ने कहा कि चीन और भारत मौजूदा वैश्विक परिदृश्य में एक साथ समानांतर ढंग से विकसित हो रही अर्थव्यवस्थाएं हैं. हमें अपनी समस्याओं और विवादों को आपस में ही सुलझाना होगा. इसमें किसी तीसरे देश की भूमिका नहीं होनी चाहिए. उनका इशारा संभवतः अमेरिका की ओर था जिसके साथ भारत की बढ़ती करीबी चीन को बेचैन कर रही थी. उन्होंने भी डोकलाम विवाद का जिक्र करते हुए कहा कि भारत और भूटान को छोड़कर बाकी देशों के साथ चीन के समझौते हो जाने के कारण सीमा विवाद हल हो चुके हैं. भारत और भूटान के साथ सीमा विवाद के समाधान के लिए किसी तरह के मेकेनिज्म की आवश्यकता बताने पर उनका कहना था कि मैकेनिज्म की नहीं ‘पोलिटिकल विज्डम’ की कमी है. 

    डोकलाम को लेकर बने गतिरोध के बारे में उन्होंने भी 1890 के ब्रिटिश साम्राज्य और चीन के बीच ‘ऐंग्लो-चाइना कन्वेंशन’ का जिक्र करते हुए कहा कि विवादित क्षेत्र चीन की सीमा के भीतर है. भारत के सैनिकों ने वहां घुसपैठ और सड़क निर्माण रोककर गलत किया है. हमारे साथी वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी ने कहा कि यह तय होना बाकी है कि पहले तिराहा का निर्धारण हो या सीमा का. चीन के विदेश मंत्रालय का मानना है कि तिराहा पहले तय हो. जोशी ने कहा कि 1890 के कथित कन्वेंशन पर आधारित कोई नक्शा नहीं है. तीनों देशों के सर्वेयर्स मौके पर जाकर सर्वे कर कोई सर्वमान्य समझौता कर सकते हैं. इस पर सीआईआईएस के एक अधिकारी ने कहा कि “भारत पहली बार तिराहा का सवाल उठा रहा है. हम तो अचंभित हैं कि 100-150 साल बाद पूछा जा रहा है कि 1890 के कन्वेंशन के बाद नक्शे में इसका उल्लेख क्यों नहीं है ! संदीप दीक्षित ने कहा कि भारत और चीन के साथ तीनों जगहों-डेमचोक, चुमार और अब डोकलाम-पर विवाद की जड़ में सड़क निर्माण ही है. नरम-गरम बातचीत के बीच गरमागरम ग्रीन टी की चुस्कियां भी चलती थीं. एक खूबसूरत युवती हमारी टेबल्स पर चाय की पत्ती के साथ गरम पानी भरे चीनी मिट्टी के बरतन के खाली होने पर उसे बीच-बीच में गरम पानी से भरती जाती थी. 
    
    बातचीत के क्रम में हमने कहा कि यकीनन चीन और भारत के कट्टरपंथियों के अलावा कुछ और लोग भी पर्दे के पीछे से विश्व में सबसे अधिक आबादीवाले दोनों देशों और उभरती अर्थव्यवस्थाओं को आपसी विवाद में उलझाकर अपना उल्लू सीधा करने में लगे हो सकते हैं. लेकिन इससे बचने की जिम्मेदारी दोनों ही देशों की है. भारत और चीन को भी ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए कि किसी और को अपना उल्लू सीधा करने का मौका मिल सके. चीनी मीडिया खासतौर से इसके अंग्रेजी अखबारों ‘ग्लोबल टाइम्स’ आदि में चीन के थिंक टैंक के लोगों के भारत और भारतीय सैनिकों के विरोध में उत्तेजक लेख का उल्लेख करते हुए मनोज जोशी ने कहा कि मीडिया के जरिए धमकियां देने के बजाय चीन और भारत सरकार को आपस में बातचीत कर मुद्दे का ठोस समाधान निकालना चाहिए.

    डोकलाम विवाद पर चीन के मीडिया और खासतौर से सरकारी ग्लोबल टाइम्स में प्रकाशित लेख की बानगी भी देखिए. डोकलाम विवाद का हल शांतिपूर्ण बातचीत के जरिए निकालने की तिब्बती धर्मगुरु, शांति के लिए नोबल पुरस्कार विजेता दलाई लामा की सलाह के मद्देनजर ग्लोबल टाइम्स में छपे एक लेख में कहा गया, “जब तक चीन की सेना भारतीय सैनिकों को धक्के देकर डोकलाम से बाहर नहीं निकाल देती, दलाई लामा अपना यह शांति का संदेश संभालकर रखें.--दलाई लामा भारत में निर्वासित जीवन जी रहे हैं और भारत की दया पर वहां रह रहे हैं.” लेख में दलाई लामा को कायर बताते हुए यह भी दावा किया गया कि चीन की सेना किसी भी समय डोकलाम में तैनात भारतीय सैनिकों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है. इसी जोखिम को देखते हुए अब भारत बातचीत की अहमियत पर जोर दे रहा है. लेख में कहा गया है कि डोकलाम चीन का भूभाग है और भारतीय सैनिकों को यहां से बिना शर्त पीछे हटना ही एकमात्र उपाय है.

    ग्लोबल टाइम्स के अनुसार चूंकि भारत के हाथ में और कुछ नहीं है इसलिए वह दलाई लामा का कार्ड खेल रहा है. चीन के भूभाग में घुसने और वहां बने रहने की सजा का खतरा भारत पर मंडरा रहा है, इसलिए नई दिल्ली ने अपना मनोबल बढ़ाने के लिए दलाई लामा को इस्तेमाल किया है. एक अन्य लेख में ग्लोबल टाइम्स ने भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री अरुण जेटली के बयान पर आपत्ति जताते हुए कहा कि इस तरह के बयानों से दोनों देशों के बीच संघर्ष की आशंका बढ़ जाती है. जेटली ने कहा था कि भारत ने 1962 की जंग से सबक लेते हुए खुद को किसी भी तरह की चुनौती से निपटने के लिए तैयार रखा है. ग्लोबल टाइम्स के अनुसार जेटली के इस बयान के द्वारा भारत ने यह दिखाने की कोशिश की है कि उसे खुद पर और अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है. और वह चीन की सीमा के अंदर ठहरकर यह देखने का इंतजार कर सकता है कि पीएलए का अगला कदम क्या होगा! अगर सच में भारत के अंदर इतनी हिम्मत होती तो वह यह नहीं कहता कि चीन और भारत, दोनों पक्षों की सेनाएं एक साथ पीछे हट जाएं.

    ग्लोबल टाइम्स ने लिखा कि चीन भारतीय सेना के पीछे हटने की शर्त नहीं मानेगा. लेख की मानें तो यह गतिरोध केवल दो ही तरीके से खत्म हो सकता है. या तो भारतीय सेना डोकलाम से निकल जाए या फिर चीन सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर उन्हें वहां से निकाल दे. लेख में कहा गया है कि ऐसा होने से पहले चीन भारत को यह मौका दे रहा है कि वह बीजिंग की शक्ति का ठीक ठाक अंदाजा लगा ले. लेख में बार-बार चीन की सैन्य शक्ति का जिक्र कर भारत को धमकाने की कोशिश की गई.

   इस तरह के उत्तेजक लेखों का उल्लेख करने पर सीआईआईएस के लोगों ने कहा कि डोकलाम में भारतीय सैनिकों के बने रहने को लेकर चीन के लोगों में हताशा और आक्रोश बढ़ रहा है. उसी की अभिव्यक्ति यहां के मीडिया में प्रकाशित हो रहे लेखों में देखने को मिल रही है. भूटान एक स्वतंत्र और सार्वभौम देश है. भारत ने स्वयं संयुक्त राष्ट्र में इसकी सदस्यता का प्रस्ताव किया था. तो फिर भारत उसके नाम पर डोकलाम में दखल क्यों दे रहा है. भारत का डोकलाम में चीन के द्वारा सड़क निर्माण को अपनी सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा बताना सबसे खराब बहाना कहा जा सकता है. उसे अपनी गलती सुधारने के लिए अपने सैनिकों को तत्काल डोकलाम से वापस बुला लेना चाहिए. डोकलाम विवाद के सामने आने के बाद से ही चीन न सिर्फ चाइनीज मीडिया बल्कि अंतरराष्ट्रीय मीडिया के जरिए अपना पक्ष लाने के प्रयासों में जुटा था. लेकिन बीजिंग में हम लोगों की मौजूदगी के बावजूद भारतीय दूतावास के लोगों ने हमसे किसी तरह के संपर्क-संवाद की जरूरत नहीं समझी. स्थानीय पत्रकारों के अनुसार आमतौर पर भारतीय दूतावास के लोग इन मामलों पर कम ही बोलते हैं. डरते हैं कि कहीं कुछ मुंह से निकल गया और 'दिल्ली' को रास नहीं आया तो उनका राजनयिक भविष्य बाधित हो सकता है.
    
चाइना डेली के प्रवेश द्वार के पास
    बहरहाल, चीन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में तकरीबन डेढ़ घंटे की बातचीत के बाद हम लोगों का अगला पड़ाव चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार विभाग के स्वामित्ववाले अंग्रेजी दैनिक ‘चाइना डेली’ के चाओयांग जिले में ह्इक्सिन स्ट्रीट (ईस्ट) के मुख्यालय में था. इस अखबार का प्रकाशन एक जून 1981 से शुरू हुआ था. आज यह चीन के सबसे अधिक प्रसार संख्या वाले अंग्रेजी का अखबार है. इसके दर्जन भर देशी विदेशी दैनिक और साप्ताहिक संस्करण भी प्रकाशित होते हैं. इसके उपग्रह संस्करण अमेरिका, हांग कांग और यूरोप से भी प्रकाशित होते हैं. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के स्वामित्व में प्रकाशित होने के बावजूद इस अखबार को अन्य अखबारों की तुलना में अपेक्षाकृत ‘लिबरल’ कहा जाता है. इस पर संपादकीय नियंत्रण चीन के स्टेट काउंसिल इन्फार्मेशन आफिस (एससीआइओ) का बताया जाता है जिसका गठन 1991 में प्रोपोगेंडा विभाग के तहत किया गया था.
 
      चाइना डेली के उप प्रधान संपादक (डिप्टी एडिटर इन चीफ) सुन शांगवु ने हमें अत्याधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी से सज्जित अखबार के विभिन्न विभागों में ले जाकर घुमाया. संपादकीय सहकर्मियों का परिचय करवाते हुए उनसे हमारा परिचय करवाया. यह पूछने पर कि वह क्या कभी डोकलाम गए हैं. उन्होंने कह कि डोकलाम जाने का अवसर उन्हें नहीं मिला है. वहां के वीडियो फुटेज का ऐक्सेस भी नहीं है. उन्होंने बताया कि चीन भी फेक न्यूज की बीमारी से पूरी तरह से मुक्त नहीं है. एक दिन पहले चीन कुछ इलाकों में आए भूकंप को लेकर देर रात तक जान माल को लेकर तमाम तरह की अफवाहनुमा सूचनाएं-खबरें खासतौर पर सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर तैरती रहीं, जिनका खंडन वे लोग आधिकारिक सूचनाओं के आधार पर अपने फेसबुक और स्ट्रॉबेरि नेटवर्क के जरिए करते रहे. चाइना डेली के फेसबुक और स्ट्रॉबेरी नेटवर्क के साथ उस समय क्रमशः 21 लाख और 7 लाख लोग जुड़े थे. गौरतलब है कि 8 अगस्त की रात में चीन के दक्षिण पश्चिमी सिचुआन प्रांत में रिक्टर स्केल पर 7 तीव्रता का भूकंप आया था जिसमें कई लोग मारे गए और तकरीबन 300 लोग घायल हो गए थे.

चाइना डेली के संपादकीय
विभाग में स्केच-कार्टून पर काम
    चाइना डेली के मुख्यालय में हम लोग तकरीबन एक घंटे रहे. लौटकर होटल आए और दोपहर के भोजन के बाद दोपहर में एक बार फिर ‘आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन’ के मुख्यालय में गए. वहां भारत-चीन मीडिया संवाद के नाम पर पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) के तीन रक्षा विशेषज्ञों से बातचीत का कार्यक्रम था. श्रोता दरअसल, स्थानीय मीडिया या कहें एसीजेए के लोग थे. डोकलाम गतिरोध के बारे में उनकी बातें लगभग रटी-रटाई थीं जिन्हें हम लोग पहले दिन से ही सुनने के आदी से हो चुके थे. रक्षा मंत्रालय के तहत आफिस फार इंटरनेशनल मिलिटरी कोऑपरेशन में सीनियर कर्नल झोउ बो ने बातचीत के क्रम में डोकलाम विवाद के शुरू होने पर मनोज जोशी के ‘दि वायर’ में छपे एक लेख को उद्धृत करते हुए कहा कि श्री जोशी भी मानते हैं कि डोकलाम भारत का हिस्सा नहीं है. श्री जोशी ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा कि वह उनके पास उस समय उपलब्ध अधूरी जानकारी पर आधारित उनकी शुरुआती प्रतिक्रिया थी. उनके डोकलाम पर विस्तार से अपना पक्ष रखने पर कर्नल बो ने कहा कि आप तो 180 डिग्री का टर्न ले रहे हैं.

    बातचीत में 'सेंटर आन चाइना-अमेरिका डिफेंस रिलेशंस एकेडमी' ऑफ मिलिटरी साइंस के निदेशक झाओ शियाओझुओ ने कहा, “अगर चीन भी अपने मित्र पाकिस्तान की सीमा का इस्तेमाल करते हुए भारतीय सीमा के भीतर घुस जाए तो ! आप अपने सुरक्षा कारणों के बहाने से हमारे देश की सीमा के भीतर हमें सड़क बनाने से नहीं रोक सकते. हम पाकिस्तान में या कश्मीर में आतंकवाद का समर्थन तो नहीं कर रहे. हमें अफसोस है कि भारत के तत्कालीन रक्षा मंत्री (जार्ज फर्नांडिस) ने 1998 में अपने परमाणु विस्फोट का औचित्य साबित करने के लिए कहा था कि भारत ऐसा चीन के कारण कर रहा है.” उन्होंने कहा कि आपके संबंध श्रीलंका से खराब होंगे, आपकी समस्या नेपाल से होगी, भूटान से होगी तो क्या करेंगे !

    हमने वहां मीडिया की भूमिका के बारे में हिंदी में अपनी बात एक शेर के साथ कही कि “इस वक्त वहां कौन धुआं देखने जाए, अखबार में पढ़ लेंगे कहां आग लगी थी.” हमने कहा कि अखबारों और मीडिया के लोगों पर लोगों का इस हद तक भरोसा रहता है लेकिन मीडिया अपनी भूमिका इसके अनुरूप निभा रहा है या निभाने में सक्षम है भी कि नहीं, इसके बारे में आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है. हमने अपनी चीन यात्रा के दौरान विदेश मंत्रालय के अधिकारियों, रक्षा विशेषज्ञों, रणनीतिकारों की तरफ से डोकलाम गतिरोध पर घुमा-फिराकर उठाए जा रहे सवालों का जिक्र करते हुए कहा कि हम इन सवालों के जवाब दे पाने में सक्षम नहीं हैं. इनके बेहतर जवाब भारत सरकार और उसके प्रवक्ता ही दे सकते हैं. हम लोग भारत सरकार के प्रवक्ता नहीं बल्कि स्वतंत्र पत्रकार हैं. हम आपकी बातें सुनते समझते हैं और बिना किसी तरह के किंतु परंतु के उन्हें प्रकाशित-प्रसारित भी करते हैं. यहां भी हम अपनी समझ के मुताबिक ही अपनी बातें रखते है. लेकिन यही बात हमने यहां चाइनीज मीडिया के साथ नहीं देखी. आप डोकलाम पर बड़े-बड़े समाचार, लेख और संपादकीय प्रकाशित करते हैं लेकिन उसमें भारत सरकार का पक्ष नहीं के बराबर रहता है. हमने उन्हें बताया कि भारत की चिंता भारतीय सीमाओं के चारों तरफ चीन की बढ़ रही घेराबंदी को लेकर भी है. चीन एक तरफ तो भारत से दोस्ती की बात करता है, सरकारी स्तर पर तमाम बड़े-बड़े आयात-निर्यात, ठेके भी हो रहे हैं, आप कह रहे हैं कि चीन पाकिस्तान और कश्मीर में आतंकवाद का समर्थन नहीं करता लेकिन दूसरी तरफ जैश ए मोहम्मद के दुर्दांत आतंकवादी मसूद अजहर पर जब संयुक्त राष्ट्र में प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव आता है तो चीन उसके विरोध में अपना वीटो लगा देता है. चीन ने भारत और पाकिस्तान के बीच विवादित पीओके (पाक अधिकृत कश्मीर) में चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा बनाना शुरू किया है. सवाल तो हम भी कर सकते हैं. इस पर चीन के रक्षा विशेषज्ञ ने कहा कि मुतमईन रहिए, चीन भारत की घेराबंदी नहीं करेगा. इसके पास करने के लिए और भी बहुत कुछ है. एक बात देखने में आई की औपचारिक बातचीत में चीन के सैन्य विशेषज्ञ-अधिकारी जितना कठोर और आक्रामक नजर आते थे. अनौपचारिक बातचीत में बहुत ही सहज और मिलनसार थे. बाद में एक अधिकारी ने हमारे मित्र से बातचीत में माना कि भौगोलिक स्थिति को देखते हुए डोकलाम में भारत मजबूत स्थिति में है.

रेड थिएटर में ‘लीजेंड ऑफ कुंग फू’


        
रेड थिएटर के प्रवेश द्वार पर
आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन
के मुख्यालय से निकलने के बाद शाम को हम लोग डोंगचेंग जिले में ही शिंगफु स्ट्रीट पर स्थित ‘रेड थिएटर’ गए. वहां शाम को सात बजे से ‘चाइना हीवेन क्रिएशन इंटरनेशनल परफॉर्मिंग आर्ट्स कंपनी लिमिटेड’ के कलाकारों द्वारा प्रस्तुत ‘द लीजेंड ऑफ कुंग फू’, शो देखना अपने आप में एक कभी न भुलाए जा सकनेवाला अनुभव था. 15 जुलाई 2004 को पहली बार इस नृत्य नाटिका का प्रदर्शन रेड थियेटर में आयोजित किया गया था. तबसे तकरीबन हर रात पारंपरिक मार्शल आर्ट और आधुनिक थिएटर के मिश्रण के रूप में यह कुंगफू शो होता है जिसमें चीन के सर्वश्रेष्ठ कुंग फू पेशेवरों, कलाकारों के अभिनय, आधुनिक नृत्य और कलाबाजी के साथ ही फ्यूजन देखते ही बन रहा था. एक सुंदर कहानी पर आधारित आश्चर्यजनक कुंग फू कौशल, उत्तम बैले और संगीत पेश करते हुए कलाकार आपको लगातार मंच की तरफ टक टकी लगाकर देखने के लिए बांधे रखते हैं. स्थानीय लोगों, देशी, विदेशी पर्यटकों और कुंग फू प्रेमियों के लिए यह एक पसंदीदा कार्यक्रम बताया गया. बाहरी लोगों को कहानी समझ में आ सके, इसलिए अंग्रेजी में उपशीर्षक भी दिखाए जाते हैं.
 
रेड थिएटर में रिसेप्शन के पास
      दि लीजेंड ऑफ कुंगफू की कहानी एक युवा लड़के के बारे में बताती है जो कुंग फू मास्टर बनने का सपना देखता है और दिव्य आत्मज्ञान प्राप्त करता है. वह एक मॉंक का रास्ता अपनाता है जिसमें उसे अपने भीतर के भय पर काबू पाने और कुंग फू का सच्चा गुरु बनने के लिए इस दुनिया और अपने स्वयं के दिमाग में भी कई तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है.

बंदरगाह शहर झानझियांग में


लीजेंड आफ कुंग फू का एक दृश्य
    अगले दिन, 10 अगस्त को हम लोगों को दक्षिण चीन सागर के तट पर स्थित गुआंगडांग प्रांत के बंदरगाह शहर झानजियां के लिए निकलना था. सुबह के 5-20 बजे ही हमें हवाईअड्डे के लिए निकलना पड़ा. बीजिंग से 2174 किमी दूर झानजियांग के लिए एयर चाइना की उड़ान (सीए1861) सुबह के सवा सात बजे की थी. तकरीबन चार घंटे बाद हम लोग झानजियांग शहर में थे. हवाई अड्डे से सीधे हम लोग होटल नानजियांग गए जहां हमारे ठहरने का इंतजाम था. समुद्र किनारे बसे होने के कारण तकरीबन 70 लाख की आबादीवाले झानजियांग शहर का मौसम और तापमान बदला हुआ था. बीजिंग की अपेक्षा यहां गरमी और उमस ज्यादा थी. 

झानझियांग हवाई अड्डे पर विमान से बाहर निकलने के बाद
    होटल ठीक था. बीजिंग के होटल नोवोटेल की तरह ही यहां भी मुफ्त वाई फाई की इंटरनेट सुविधा थी. चीन में तकरीबन 90 प्रतिशत लोग इंटरनेट की सेवा का इस्तेमाल करते हैं. तमाम बड़े होटलों, रेस्तराओं और दफ्तरों में भी वाई फाई की सुविधा उपलब्ध रहती है लेकिन वहां गूगल और उससे जुड़े सोशल मीडिया के जी मेल, ट्विटर, यू ट्यूब, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि ऐप्स, सेवाएं वहां या तो ब्लाक हैं या सेंसर्ड थे. हालांकि ‘वी पी एन’ यानी वर्चुअल प्राइवेट नेटवर्क के जरिए काम बन सकता था लेकिन स्पीड बहुत कम होती थी. देश-घर से टेलीफोन से बातचीत भी ‘वी चैट’ के जरिए ही संभव हो पाती थी. दोपहर का भोजन होटल में ही करने के बाद हम लोग दक्षिण चीन सागर में पीएलए एन (नेवी) के दक्षिण सागर बेड़े ‘साउथ सी फ्लीट’ पर निकल गए. बताया गया कि भारतीय पत्रकारों के किसी दल को यहां पहली बार लाया गया है. 

पी एल ए के दक्षिण सागर बेड़े पर


  
पीएलएएन के दक्षिण सागर बेड़े पर इसके युद्धपोत यूलिन के पास  
तस्वीर लेने के लिए निर्धारित जगह पर 
संदीप दीक्षित और हम
    दिसंबर 1947 में स्थापित चीन के इस दक्षिण सागर बेड़े पर आपदा प्रबंधन से लेकर देश की समुद्री सीमाओं की सुरक्षा का दायित्व भी है. इसके पास 300 नौसेनिक जहाज 200 सुपर क्राफ्ट्स के साथ ही ‘पोलिटिकल वर्क डिपार्टमेंट’ भी है. कोस्टल डिफेंस डिपार्टमेंट में पोलिटिकल वर्क ! पूछने पर बताया गया कि पोलिटिकल वर्क का मतलब विचारधारा के प्रशिक्षण से है. चीनी नौसेना में 20 हजार अधिकारियों सहित कुल करीब 70 हजार नौसैनिक बताए गए.

    दक्षिण सागर बेड़े यानी ‘साउथ सी फ्लीट’ (एसएसएफ) के डिप्टी चीफ ऑफ जनरल ऑफिस में कैप्टन लियांग तियानजुन चीन ने अपने युद्धपोत (इसका रंग रोगन भी ताजा ताजा ही हुआ था. पेंट की गंध आ रही थी) ‘युलिन’ पर हमारा स्वागत करते हुए हमें उसके बाहर-भीतर घुमाया. उसमें तैनात तमाम हथियारों, फाइटर जेट्स, सबमरीन्स और मीडियम रेंज मिसाइलों की जानकारी भी दी. उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि पहली बार यहां आए भारतीय मीडिया के लोग दोनों देशों के बीच दोस्ती और भाईचारा बढ़ाने में सहायक साबित होंगे. उन्होंने कहा कि चीन हिंद महासागर में भारतीय नेवी इंडियन नेवी से दोस्ती करना चाहता है. हिंद महासागर में चीन की नौसेना की बढ़ती मौजूदगी पर भारत के द्वारा उठाए जा रहे सवालों पर उन्होंने कहा, “हिंद महासागर बहुत बड़ा और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए साझा स्थान है. मुझे लगता है कि भारत और चीन को इसकी सुरक्षा के लिए साथ आना चाहिए.” 

पीटीआई के अनिल के जोसेफ के साथ बीच में
पीठ पीछे किए तस्वीर लेने में मशगूल जे के ए वर्मा
    गौरतलब है कि चीन ने हिंद महासागर में ‘होर्न ऑफ अफ्रीका’ के जिबूती में पहली बार नौसैन्य अड्डा स्थापित किया है. विदेशी समुद्र क्षेत्र में चीन के पहले नौसैनिक अड्डे का बचाव करते हुए कैप्टेन तियानजुन ने कहा कि इससे उस क्षेत्र में समुद्री डकैती रोकने, संयुक्त राष्ट्र के शांति रक्षा अभियान चलाने और मानवीय राहत पहुंचाने वाले अभियानों को सहयोग मिलेगा. जिबूती नौसैनिक अड्डा चीन के नौसैनिकों के लिए आराम करने का स्थान भी बनेगा. हालांकि विशेषज्ञों की राय में चीन के बढ़ते आर्थिक और राजनीतिक दबदबे के बीच सैन्य अड्डा बनाना वैश्विक पहुंच बढ़ाने की पीएलए (एन) की महात्वाकांक्षा का हिस्सा हो सकता है. उन्होंने कहा कि चीन की सेना हमेशा डिफेंसिव नेचर की रही है. हमारा रुख रक्षात्मक है ना कि आक्रामक. हम किसी देश की सीमाओं में घुसपैठ नहीं करते लेकिन किसी दूसरे देश को अपने इलाके में घुसपैठ की इजाजत भी नहीं दे सकते. वह यह बताने या कहें परोक्ष रूप से धमकाने से भी नहीं चूके कि 'हमारे युद्धपोत और उस पर तैनात बड़े हथियार सिर्फ खिलौना भर नहीं हैं.' 

    उन्होंने बताया कि पीएलएएन के दक्षिण सागर बेड़े पर संसाधन संपन्न दक्षिण चीन सागर की सुरक्षा और इसके इर्द गिर्द होनेवाली गतिविधियों पर नजर रखने की जिम्मेदारी भी है. यहां फिलीपींस और वियतनाम जैसे देशों के साथ चीन का समुद्री विवाद चल रहा है. चीन संपूर्ण दक्षिण चीन सागर पर अपना दावा करता है और वर्तमान में इस क्षेत्र में कई कृत्रिम द्वीपों का निर्माण कर रहा है ताकि उन्हें नियंत्रित किया जा सके क्योंकि दुनिया के आधे से अधिक वार्षिक कार्गो बेड़े इसी समुद्री रास्ते से गुजरते हैं. दक्षिण चीन सागर में पीएलएएन के सामने खासतौर से अमेरिकी नौसेना से पेश आने वाली चुनौतियों के बारे में पूछे जाने पर युलिन के कमांडिंग अधिकारी कैप्टन हू लुयांग ने कहा कि अमेरिकी नौसेना के अंतरराष्ट्रीय जल क्षेत्र में गश्त करने में कोई हर्ज नहीं है. लेकिन अगर वे चीनी समुद्री क्षेत्रों में अतिक्रमण करते हैं, तो  'हम इसे बर्दाश्त नहीं करेंगे.' 

    चीन और भारत के बीच डोकलाम विवाद के चरम पर होने के समय भारतीय मीडिया को यहां आमंत्रित करने के लिए किसी खास मकसद और संदर्भ से इनकार करते हुए उन्होंने कहा कि यह विभिन्न देशों की मीडिया के साथ नियमित संवाद का हिस्सा भर है. पीएलए एन के दक्षिण सागर बेड़े में उनके युद्धपोत युलिन पर हम लोग करीब पांच बजे तक रहे फिर लौटकर होटल नानजियांग में आ गए. 

    
झान झियांग की उमस भरी गर्मी में 
पसीने से लथपथ संदीप दीक्षित के साथ
  झानझियांग में गरमी और उमस किस कदर थी, इसका एहसास मुझे और खासतौर से संदीप दीक्षित को शाम को और रात को भी होटल के आसपास के इलाकों में टहलते हुए हुआ. हम लोग समुद्र तट की ओर भी गए थे. संदीप तो पसीने से लथपथ हो गए थे. रात का खाना होटल में ही था. अगली सुबह जल्दी ही हम लोग, इस ताकीद के साथ कि दोपहर सवा चार बजे की उड़ान से हम लोगों को बीजिंग लौटना भी है, ग्वांगडांग ओसीएन यूनिवर्सिटी के लेइकियांग यूनेस्को ग्लोबल जियो पार्क देखने गए. ज्वालामुखी विस्फोटों के अवशेषों के पठारों से निर्मित इस हरे भरे यूनेस्को संरक्षित जियो (भौगोलिक) पार्क के पूर्वी गेट से प्रवेश कर हम लोग अंदर गए. हरे भरे जंगलनुमा इस पार्क के बीच में गोलाकार खूबसूरत झील के बैटरी से चलनेवाली टैक्सी से चक्कर लगाते हुए हम लोग एक जगह रुके. वहां से हम और संदीप पैदल सीढ़ियां चढ़ते हुए ऊपर एक बौद्ध मंदिर तक गए. काफी मनमोहक दृश्य था. हालांकि वहां भी सीढ़ियां चढ़ते-उतरते संदीप के पसीने निकल आए. झील में एक जगह हमने रंग बिरंगी मछलियों के झुंड को तैरते, इठलाते, अठखेलियां करते देखा. बताया गया कि पूरे जियो पार्क को देखने के लिए आधे दिन से अधिक का समय लग सकता है. यह सुबह के आठ बजे खुलता और शाम के छह बजे बंद होता है. लेकिन हमें बीजिंग लौटने के लिए अपनी उड़ान की फिक्र थी. लिहाजा तकरीबन एक-डेढ़ घंटे का समय वहां बिताकर हम लोग लौट आए. दोपहर का भोजन रास्ते में ही था. 


 लेइकियांग यूनेस्को ग्लोबल जियो पार्क के पूर्वी गेट पर संदीप दीक्षित के साथ
    झानजियांग से बीजिंग के लिए एयर चाइना की उड़ान संख्या सीए 1878 दोपहर में 4.15 बजे टेक आफ करनेवाली थी. हम लोग उसके अनुरूप दिन में दो बजे ही हवाई अड्डे पर पहुंच गए थे. लेकिन शाम के 7.30 बजे तक विमान का अता पता नहीं था. उड़ान रात के 9 बजे तक ही संभव हो सकी. तब तक, तकरीबन सात घंटे हम लोग हवाई अड्डे पर ही विमान का इंतजार करते रहे. पहले से पता होता तो हम कुछ और समय लेइकियांग जियो पार्क में बिता सकते थे. यहां हवाई अड्डा प्राधिकरण या विमान कंपनी उड़ान में देरी होने पर भी अपने यात्रियों को नाश्ता-भोजन नहीं कराती. किसी ने पानी तक के लिए भी नहीं पूछा. रात के 12.30 बजे हम लोग बीजिंग के कैपिटल इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर पहुंचे. लेकिन वहां भी हम लोग विमान के उतरने के बाद डेढ़ घंटे तक विमान में ही बैठे रहे. विमान चंद कदम आगे बढ़ता और फिर रुक जाता. विमान में कोई यह बताने को तैयार नहीं था कि समस्या क्या है. बाद में पता चला कि पिछली रात आए तूफान के कारण हवाई अड्डे के रनवे, ग्राउंड पर सब कुछ अस्त व्यस्त सा हो गया था. सुबह के दो बजे ही हम लोग विमान से बाहर निकल सके. होटल, कमरे में पहुंचते-पहुंचते सुबह के चार बज गए. उसी दिन, शनिवार, 12 अगस्त की रात 8-50 बजे हमें दिल्ली वापसी के लिए चाइना एयर की उड़ान में सवार होने के लिए शाम को छह बजे तक हवाई अड्डे पर पहुंचना था. दिन का कार्यक्रम हमारे लिए स्थानीय भ्रमण और लोकल शापिंग सेंटर होते हुए शाम छह बजे तक हवाई अड्डे पर पहुंचने का पहले से ही निर्धारित था. 

झानझियांग हवाई अड्डे पर
    लेकिन रात को या कहें, 12 अगस्त की सुबह हमारा सोना ही चार बजे के बाद हुआ था, आंख भी देर से ही खुली. लिहाजा सामान की पैकिंग और होटल छोड़ने की औपचारिकताएं आदि पूरी करते हुए निकलने में काफी समय लग गया. हम ज्यादा कुछ घूम नहीं पाए और डोंगचेंग जिले में तियानतन पार्क के सामने तियानतन रोड पर स्थित मशहूर शापिंग सेंटर, पर्ल मार्केट या कहें हांगकियाओ मार्केट में गए. कहने के लिए तो यह पर्ल (मोती) मार्केट है लेकिन इस 4500 वर्ग मीटर में फैली आठ मंजिला मार्केट में सी फूड, घड़ियां, डिजिटल एवं इलेक्ट्रानिक्स के सामान, कपड़े, सिल्क, बैग्स, फल फूल आदि सब कुछ उपलब्ध थे. खाने पीने के लिए कई अच्छे रेस्तरां भी हैं. हमने दोपहर का भोजन यहीं लिया. यह मार्केट दुनिया भर से आनेवाले पर्यटकों-खरीदारों के साथ ही स्थानीय लोगों के लिए भी बहुत पसंदीदा जगह है. पता चला कि सुबह दस बजे से शाम के 7.30 बजे तक खुली रहने वाली इस मार्केट में साल में तकरीबन दस लाख पर्यटक, खरीददार आते हैं. यहां तीन मंजिलों पर विश्व प्रसिद्ध मोतियों और जेवरात की दुकानें हैं. यहां मिलने वाले मोतियों की गुणवत्ता से प्रभावित ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्ग्रेट थैचर यहां तीन बार आ चुकी हैं.

 पर्ल मार्केट या कहें हांगकियाओ मार्केट


    
हमें बता दिया गया था कि वहां दिल्ली के पालिका बाजार की तरह ही कीमतों पर भारी मोल-तोल (बार्गेनिंग) होती है. चीनी सामानों की विश्वसनीयता को लेकर मन में वैसे ही सवाल रहते हैं. हम लोगों ने विंडो शापिंग ही ज्यादा की. कीमत और जेब के अनुरूप थोड़ी बहुत खरीद भी हुई. थोड़ी देर बाद हम लोग हवाई अड्डे पर पहुंच गए जहां से रात के 8.50 बजे हम लोग एयर चाइना की उड़ान संख्या सीए947 पर दिल्ली के लिए रवाना हुए. तकरीबन 6 घंटे की यात्रा वैसे ही रही जैसी दिल्ली से बीजिंग की एयर चाइना की उड़ान थी. 

नोटः इस तरह से डोकलाम विवाद के साए में हमारी तकरीबन एक सप्ताह की चीन की राजधानी बीजिंग और दक्षिण चीन सागर के तट पर स्थित बंदरगाह शहर झानजियांग की तनाव भरी रोचक और रोमांचक यात्रा समाप्त हुई. हमारी यात्रा के समापन के 15-16 दिन बाद डोकलाम से भारत चीन के बीच बनी परस्पर सहमति के बाद दोनों देशों की सेनाओं की वापसी के साथ ही तकीबन ढाई महीनों तक चले गतिरोध की समाप्ति की घोषणा की गई. हालांकि चीन का विदेश मंत्रालय इस सवाल को टाल गया कि चीन वहां सड़क निर्माण जारी रखेगा या नहीं ! बाद में पता चला कि चीनी सेना कथित तौर पर सितंबर 2018 में डोकलाम के इलाके में लौट आई और जनवरी 2019 तक अन्य बुनियादी ढांचे के साथ ही  वहां सड़क निर्माण भी पूरा कर लिया था. 19 नवंबर 2020 को, एक चीनी सीजीटीएन न्यूज़ प्रोड्यूसर ने ट्वीट कर दावा किया कि चीन ने डोकलाम से लगभग 9 किमी और भूटान के क्षेत्र में लगभग 2 किमी दूर पंगडा नामक एक गांव का निर्माण किया है.

    हमारे यात्रा संस्मरणों की अगली कड़ी में आप फरवरी 2019 में हुई बांग्लादेश की राजधानी ढाका की यात्रा से जुड़े हमारे संस्मरण पढ़ सकेंगे.


Wednesday, 6 January 2021

डोकलाम विवाद के साए में चीन यात्रा

क्या है डोकलाम विवाद !


जयशंकर गुप्त


    
तस्वीर इंटरनेट से
    भारत में इसे डोकलाम, भूटान में डो काला, तिब्बत में झोगलम और चीन में डोंगलांग कहते हैं. यह उत्तर में चीन की चुंबी घाटी, पूर्व में भूटान की हा घाटी और पश्चिम में भारत के सिक्किम राज्य की नाथंग घाटी के बीच में स्थित पठार और घाटी वाला क्षेत्र है. इसे 1961 से भूटानी मानचित्रों में भूटान के हिस्से के रूप में चित्रित किया गया है, लेकिन चीन भी इस पर अपना दावा करता है. आज तक, भूटान और चीन के बीच कई दौर की सीमा वार्ताओं के बावजूद इस विवाद को हल नहीं किया जा जा का है. यह क्षेत्र तीनों देशों के लिए सामरिक महत्व का है. इसको लेकर ही जून-अगस्त, 2017 में दोनों देशों के बीच विवाद चरम पर पहुंच गया था. जैसा कि हम पिछली कड़ी में लिख चुके हैं, जिस समय हम लोग चीन यात्रा पर बीजिंग पहुंचे थे, चीन और भारत-भूटान के बीच भूटान की सीमा के भीतर डोकलाम के पास चीन के असैन्य, सड़क निर्माण और उसके विरोध में भारतीय सैन्य टुकड़ियों की उस क्षेत्र में बुलडोजरों के साथ पहुंचकर सड़क निर्माण को रोकने को लेकर विवाद चरम पर पहुंच गया था. दोनों देशों पर आशंकित युद्ध के अदृश्य बादल मंडराने लगे थे. 

    विवाद की शुरुआत भारत-भूटान और चीन के सीमावर्ती तिराहे (ट्राई जंक्शन) से लगे डोकलाम के पास जून 2017 में चीन के सड़क निर्माण को लेकर हुई थी. डोकलाम चीन के पश्चिम, सिक्किम (भारत) के पूर्व तथा भूटान के दक्षिण सीमा पर लगनेवाला तिराहा है. 16 जून को वहां चीन के सड़क निर्माण शुरू होने के दो दिन बाद, 18 जून को बुलडोजरों के साथ 270 भारतीय सैनिकों ने सीमा पारकर चीन को सड़क निर्माण से रोक दिया था. इसके बाद ही दोनों देशों की सेनाओं का वहां जमावड़ा शुरू हो गया था. भारत का दावा है कि भूटान की सीमा के भीतर डोकलाम का कुछ हिस्सा सिक्किम में भारत की सीमा से सटा हुआ है. भूटान और चीन, दोनों डोकलाम पर अपना दावा जताते हैं. चीन 1890 के ऐंग्लो-चाइना कन्वेंशन के हवाले डोकलाम पर अपना हक जताता है. भूटान और चीन के बीच किसी तरह का राजनयिक संबंध नहीं है जबकि उसे भारत से सैन्य-राजनयिक और आर्थिक सहयोग भी मिलता है. उसकी सीमाओं की सुऱक्षा भारत की जिम्मेदारी है. इसके मद्देनजर ही भारत ने भूटान की सीमा के भीतर चीन के सड़क निर्माण को रोकने की पहल की. 

    भारत डोकलाम क्षेत्र में चीन के सड़क निर्माण का विरोध इसलिए भी कर रहा था क्योंकि उसे आशंका थी कि इससे इलाके में यथास्थिति, भौगोलिक स्थिति और सुरक्षा समीकरण बदल सकते हैं. भारत को लगता था कि चीन ने इस सड़क को बना लिया तो देश के उत्तर पूर्वी राज्यों को देश से जोड़नेवाले इस 'चिकन नेक' कहे जानेवाले 20 किमी चौड़े पठारी इलाके, सिलीगुड़ी कारिडोर पर चीन को बढ़त हासिल हो जाएगी. लेकिन चीन भारत की आशंकाओं को निराधार करार देते हुए इस बात पर अड़ा था कि वह सड़क निर्माण अपनी सीमा के भीतर कर रहा है और भारत को उसे रोकने का कोई अधिकार नहीं है. भारत के सैनिकों ने चीन की सामा के भीतर घुसपैठ की है और उन्हें बिना शर्त वापस चले जाना चाहिए. 
वांगफुजिंग स्ट्रीट पर मॉल के सामने

    चीन यात्रा के दौरान, पहले दिन से ही हम जहां कहीं भी गए, चीन के सैन्य और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से लेकर उनके रणनीतिकारों और ‘थिंक टैंक’ से जुड़े लोगों ने भी नरम-गरम मीठी भाषा और कभी-कभी घुड़की-धमकी के अंदाज में भी हमें समझाने की कोशिश की कि डोकलाम क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की उपस्थिति गलत और असहनीय है. इलाके को अपना साबित करने और भूटान का हो तब भी, वहां अपने निर्माण कार्य को जायज करार देते हुए हमें यह समझाने की कोशिश की जाती रही कि भारत अगर उस क्षेत्र को खाली नहीं करता और इसके सैनिक वहां बने रहते हैं तो भारत को इसका 'खामियाजा' भुगतना पड़ सकता है.

नोवोटेल होटल से लगा 'टी कल्चर हाउस'

बीजिंग प्रवास 

    बीजिंग में हमारी पहली शाम नोवोटेल होटल और आसपास के इलाकों में घूमने-टहलने में ही बीती. होटल से सटे ‘टी कल्चर हाउस’ के सामने लॉन में हवा में टंगी केटली से निरंतर नीचे गिरता पानी (चाय) हमें बरबस अपनी ओर आकर्षित करता था. हम टी कल्चर हाउस के अंदर गए. वहां तमाम तरह की चाय पत्तियां, कुछ फुडीज भी बिक्री के लिए थीं. विभिन्न चाय पत्तियों से बनी चाय टेस्ट करने का आमंत्रण भी था. हमने वहां चाय की बहुत छोटी, डिस्पोजेबल प्यालियों में भी कई तरह की चाय की चुस्की लेकर उसका स्वाद भी जाना लेकिन कीमत बहुत ज्यादा होने के कारण खरीदने का साहस नहीं जुटा सके. शाम को हम पास के एक बड़े शापिंग माल में भी गये. माल के सामने की सड़क, वांगफुजिंग स्ट्रीट शाम को एक बाजार की शक्ल ले लेती है जिस पर परिवहन प्रतिबंधित हो जाता है. वहां सिर्फ पर्यटक और खरीदार ही नजर आते हैं. 

वांगफुजिंग स्ट्रीट का एक दृश्य

 साथ लगी गलियों में सड़क छाप फूड कोर्ट्स और रेस्तरां भी दिखते हैं जहां भोजन के रूप में सी फूड से लेकर सांप-बिच्छू के आइटम भी उपलब्ध थे. हम सुनते तो थे कि चीनी लोग सांप-बिच्छू भी खाते हैं. उन रेस्तराओं में जार में रखे, सांप-बिच्छू और उन्हें तल-पकाकर वहां बैठकर अथवा खड़े होकर लोगों को खाते हुए पहली बार ही देख रहे थे. 

    शापिंग मॉल के बाहर सड़क पर एक-दो संदिग्ध महिलाएं भी दिखीं जो इशारों से कुछ कहना चाहती थीं. पास जाने पर पता चला कि वह ‘काल गर्ल्स’ अथवा उनकी एजेंट थीं. नोवोटेल होटल के बाहर भी तकरीबन रोजाना बाहर निकलते समय इस तरह की एक-दो महिलाएं अक्सर दिख जातीं. एक बार जिज्ञासावश दरयाफ्त करने पर वह कुछ तस्वीरें और नंबर दिखाकर अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में बताने लगीं कि जो पसंद हो, आपके रूम में आ जाएगी. मना करने पर मुंह बिचकाकर आगे बढ़ जातीं. लेकिन दिखती तकरीबन रोजाना ही थीं. 

बीजिंग में सायकिल का प्रचलन


  
फुटपाथ पर मोबाइल ऐप
से जुड़ी सायकिलें
    बीजिंग और चीन के दूसरे बड़े शहरों में भी पिछले ढाई-तीन दशकों में शुरू हुए आर्थिक सुधारों, खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकरण के चलते मध्यम वर्ग तेजी से विकसित हुआ है. इसके साथ ही लोगों के बीच निजी वाहनों की मांग और चलन में भी वृद्धि हुई है. बीजिंग और अन्य बड़े शहरों में बढ़ रहे प्रदूषण और ट्रैफिक जॉम का एक बड़ा कारण सड़कों पर अचानक निजी वाहनों की बढ़ रही आमद को भी बताया गया. इससे निजात पाने के लिए यहां ऐप आधारित मोटर बाइक्स और सायकिलों का चलन तेजी से बढ़ा है. बीजिंग और झान झियांग में हमें जगह-जगह सड़कों पर बने सायकिल स्टैंड्स पर डिजिटल ताले में बंद सायकिलें दिखीं. हालांकि अब तो दिल्ली एवं देश के अन्य बड़े शहरों में हमारे यहां भी सायकिलों का चलन बढ़ा है. बताया गया कि बीजिंग में उस समय (2017 में) तकरीबन 40 लाख ऐप आधारित सायकिलें चलन में थीं.

    सायकिल स्टैंड्स पर लोग अपने मोबाइल फोन पर पहले से डाउनलोडेड ऐप पर क्यू आर कोड दिखाते और पसंद की सायकिल का ताला खुल जाता. और फिर लोग सायकिल लेकर अपने गंतव्य, घूमने-टहलने से लेकर मेट्रो स्टेशन, रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन से अपने घर-कार्यालय के लिए निकल जाते. गंतव्य पर ही वे लोग सायकिल छोड़ जाते. जीपीएस से जुड़ी होने के कारण संचालक कंपनी के लोग उन्हें उठवाकर करीब के सायकिल स्टैंड पर तालाबंद कर रख देते हैं. इसी तरह की प्रक्रिया मोबाइक्स के साथ भी होती है. दूर दराज से आनेवाले कर्मचारी मेट्रो, रेल और बस स्टेशनों से सायकिल लेकर ही अपने कार्यालय-घर आने-जाने को प्राथमिकता देते हैं. इस काम के लिए कई बड़ी कंपनियां भी बाजार में आ गई हैं. इससे न सिर्फ ट्रैफिक जॉम से निजात मिलती है, प्रदूषण भी कुछ कम होता है बल्कि सस्ती होने के कारण जेब पर असर भी कम पड़ता है. कुछ लोगों के लिए सायकिल चलाना फैशन भी बन गया है जबकि कुछ लोग स्वास्थ्य कारणों से भी सायकिलिंग करते नजर आए. उस समय सायकिल के प्रति घंटे के इस्तेमाल के लिए तकरीबन एक युवान या कहें आरएमबी (चीनी मुद्रा) यानी तकरीबन 9 रुपए 75 पैसे (2017 में) देने पड़ते हैं. सायकिल गायब होने, टूट फूट, ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन आदि पर जुर्माना या मुआवजा संबद्ध उपयोगकर्ता की जमानत राशि से काट लिया जाता है. पता चला की सायकिल के लिए 100 आरएमबी (तकरीबन 975 रु.) तथा मोबाइक्स के लिए 300 आरएमबी (तकरीबन 2925 रु.) मोबाइल फोन पर ऐप डाउनलोड करते समय ही जमा करवा लिए जाते हैं. लेकिन इससे मोबाइक कंपनियों की कमाई कैसे होती है, हमारे स्थानीय पत्रकार मित्र ने बताया कि कंपनियों को उपभोक्ताओं के साथ ही केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों से भी प्रदूषण कम करने और ट्रैफिक जाम से मुक्ति के नाम पर भी अच्छा खासा फंड मिलता है. 
वांगफुजिंग स्ट्रीट पर


 थर्ड गैरिसन मुख्यालय में


    अगले दिन, सात अगस्त की सुबह आठ बजे ही हम लोगों को बीजिंग के बाहर पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) के ‘थर्ड गैरिसन’ के लिए निकलना था, लिहाजा हमें होटल में सुबह के सात बजे ही पूरी तरह से तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर आ जाना पड़ा. इस बीच बीजिंग में टाइम्स ऑफ इंडिया के विशेष संवाददाता शैबालदास गुप्ता एवं पीटीआई के चीन संवाददाता के. जे. एम. वर्मा जी भी हमारे साथ जुड़ चुके थे. ये लोग लगातार हमारे साथ रहे. नाश्ता करने (होटल में हर तरह के नाश्ते का इंतजाम था. अंडे-मछली और सीफुड के साथ कुछ शाकाहार और ताजे-स्वादिष्ट फल भी भरपूर मिलते थे) के बाद हम लोग शहर से बाहर हरी-भरी पहाड़ियों के बीच पीएलए के थर्ड गैरिसन पहुंचे.

    राजधानी शहर बीजिंग की रक्षा-सुरक्षा के लिए जिम्मेदार पीएलए की ‘थर्ड गैरिसन’ के बारे में बताया गया कि गैरिसन पीएलए अधिकारियों और सैनिकों के सबसे पुराने और सबसे महत्वपूर्ण प्रशिक्षण केंद्रों में से एक है. गैरिसन में लगभग 11,000 सैनिक तैनात हैं. आपातकालीन निर्माण, आपदा प्रबंधन, ज्वाइंट एयर डिफेंस और सिविलियन डिजेस्टर रिलीफ से लेकर ऐसा कोई काम नहीं है जिसे ये लोग नहीं कर सकते. अप्रैल-जून, 1989 में तियानमेन चौक पर लोकतंत्र समर्थक छात्र-युवाओं की एक लाख से ऊपर की भीड़ से निबटने के नाम पर उनके दमन में थर्ड गैरिसन की भूमिका ‘महत्वपूर्ण’ थी. 

    तकरीबन 35 डिग्री तापमानवाली चिलचिलाती धूप में हम लोग एक वातानुकूलित हाल में बैठकर सामने लगे पारदर्शी सीसे से बाहर मैदान में थर्ड गैरिसन के जवानों के करतब, युद्ध कौशल, छोटे-बड़े आग्नेयास्त्रों से उनकी लक्ष्यभेदी निशानेबाजी देखते रहे. नजदीकी युद्ध में ‘शत्रु ताकतों’ पर कब्जा करना, आतंकवाद से मुकाबला करने और लेजर सिमुलेशन फोर्स-ऑन-फोर्स प्रशिक्षण शामिल थे. उनकी सटीक निशानेबाजी देख मुंह से बरबस ‘वाह’ निकल पड़ता था. हालांकि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के वरिष्ठ कर्नल ली ली ने स्पष्ट किया कि इस सैनिकों के इस युद्ध कौशल प्रदर्शन का डोंगलांग विवाद से कोई विशेष संदर्भ नहीं है जहां अब भी भारतीय सैनिक को बुलडोजर के साथ जमे हैं.

    बताया गया कि जिस हाल में हम बैठे थे, वहां विदेशी सैन्य प्रतिनिधिमंडलों के साथ कई महत्वपूर्ण बैठकें होती रही हैं. इसकी ताईद वहां दीवार पर लगी अतीत में हुई बैठकों की तस्वीरें भी कर रही थीं. इसमें कई तस्वीरें पाकिस्तान के सैन्य प्रतिनिधिमंडलों की पीएलए के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठकों की थीं. एक तस्वीर पीएलए के अधिकारियों के साथ भारतीय सैन्य प्रतिनिधिमंडल की भी थी जो संभवतः डोकलाम विवाद के सामने आने से तकरीबन दो महीने पहले की थी. साथ लगे थर्ड गैरिसन मुख्यालय भवन के विभिन्न कक्षों में हमें अत्याधुनिक सैन्य साज सामान, प्रौद्योगिकी उपकरण दिखाए गये.

    सीनियर कर्नल ली ली ने दावा किया, "डोंगलांग में भारतीय सैनिकों ने जो किया है वह चीनी क्षेत्र पर आक्रमण है. टकराव से बचने के लिए उन्हें तत्काल चीनी क्षेत्र से हट जाना चाहिए" एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “डोंगलांग में पीएलए क्या करेगी, यह भारतीय सैनिकों की कार्रवाई पर निर्भर करता है. हम उचित जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार हैं. हम चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी और केंद्रीय सैन्य आयोग (चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में 2.3 मिलियन मजबूत सेना के समग्र उच्च कमान) के आदेशों का पालन करेंगे." उन्होंने धमकी भरे अंदाज में कहा, "भारत को यह याद रखना चाहिए कि उसके पड़ोसी में सभी हमलावर दुश्मनों को हराने की क्षमता है." हमने उन्हें समझाने की कोशिश की कि भारत भी 1962 से काफी आगे निकल चुका है.

चीन के रक्षा मंत्रालय के सूचना केंद्र में


    बरहाल, हम लोग वहां तकरीबन दो घंटे तक रहे. वहां से लौटकर नोवोटेल होटल आए. दोपहर के भोजन के बाद दिन में दो बजे हमें चीन के रक्षा मंत्रालय के सूचना कार्यालय केंद्र ले जाया गया. इस बीच बीजिंग शहर का ट्रैफिक अपने सबाब पर था. कहीं-कहीं हल्के जाम भी देखने को मिले. प्रदूषण भी दिखने लगा था. ढाई बजे हमारी बैठक रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ सूचना अधिकारियों के साथ शुरू हुई. चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता, सीनियर कर्नल रेन गुओकियांग ने डोकलाम गतिरोध के बारे में भारतीय मीडिया के साथ संवाद को महत्वपूर्ण बताया. चीन द्वारा दो सप्ताह के भीतर डोकलाम से भारतीय सैनिकों को बाहर निकालने के लिए चीन के द्वारा एक ‘छोटे स्तर के सैन्य अभियान’ पर विचार करने से संबंधित चीन की सरकारी मीडिया (ग्लोबल टाइम्स) में चीन के थिंक टैंक के हवाले से हो रही बयानबाजी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इसके बारे में वह कुछ नहीं कह सकते. यह चीन सरकार का आधिकारिक रुख नहीं है. मीडिया और ‘थिंकटैंक’ की राय हो सकती है. चीन के आधिकारिक रुख जानने के लिए विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ताओं के बयान ही देखे जाने चाहिए. लेकिन उन्होंने दावा किया कि डोकलाम चीन का हिस्सा है. इस बात के ऐतिहासिक और कानूनी साक्ष्य भी चीन के पास हैं. हमें अपनी सीमा के भीतर सड़क निर्माण का वैधानिक अधिकार है. उन्होंने सड़क निर्माण रोकने के लिए 18 जून को भारतीय सैनिकों पर चीन की सीमा में घुसपैठ करने का आरोप लगाते हुए कहा कि भारत को डोकलाम पर 50 दिनों से बने गतिरोध को समाप्त करने के लिए अपने सैनिकों को अविलंब और बिना शर्त वहां से हटा लेना चाहिए. कर्नल रेन ने सवाल किया कि बीजिंग द्वारा नई दिल्ली को दो बार सूचित किए जाने के बाद भी भारत ने चीन द्वारा वहां सड़क बनाने की योजना पर चुप्पी क्यों बनाए रखी. उन्होंने कहा कि चीन ने 18 मई को और फिर 8 जून को भारत को सूचित किया था.

    उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान के हवाले से दावा किया कि चीन और भारत के दो शरीर लेकिन आत्मा एक है. चीन एक शांति प्रिय देश है. हमारे साथी संदीप दीक्षित के यह पूछने पर कि 127 वर्षों में नहीं तो अब इसी समय चीन को सिक्किम क्षेत्र में सड़क निर्माण की क्यों सूझी ! हमारे यह बताने पर कि चीन पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 50 अरब अमेरिकी डालर के सहयोग से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) बनाने, श्रीलंका में बंदरगाह आदि के निर्माण आदि के जरिए अपनी विस्तारवादी नीति पर अमल कर रहा है. डोकलाम क्षेत्र में उसके सड़क निर्माण को इस पृष्ठभूमि में भी देखा जा रहा है. प्रधानमंत्री मोदी का बयान अपनी जगह सही हो सकता है, लेकिन हमने उन्हें बताया कि भारत में जैश ए मोहम्मद के खूंखार आतंकवादी मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के विरुद्ध चीन के वीटो लगा देने को लेकर भारत में बहुत आक्रोश है. भारत में कट्टरपंथी ताकतें चीन के इस रुख का विरोध चीन निर्मित सामानों के बहिष्कार के नाम पर अपना गुस्सा उन छोटे-बड़े व्यापारियों-दुकानदारों के यहां तोड़ फोड़ कर निकालते हैं, जो चीन के सामान बेचते हैं.

    कर्नल रेन ने चीन पर विस्तारवादी देश होने के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि ‘यह हमारे जीन में नहीं है.’ उन्होंने कहा कि चीन की विदेश नीति समय और परिस्थिति के अनुरूप बनती है. चीन के बारे में यह बहुत बड़ी गलतफहमी, ‘स्ट्रैटेजिक मिसजजमेंट’ है. इसे साफ करने में दोनों देशों के मीडिया की भूमिका और भी बढ़ जाती है. चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता चीनी भाषा में बोल रहे थे, उसे हम तक समझाने के लिए चीन के ही दुभाषिया मेजर यु लियांग हमें अंग्रजी में और हम लोगों के द्वारा अंग्रेजी और हिंदी में (हम तो लगातार वहां अपनी बात हिंदी में ही करते थे जिसका अंग्रेजी अनुवाद हमारे मित्र संदीप दीक्षित बताते थे) कही बातों को चीनी भाषा में अनुवाद कर चीन के अधिकारियों को समझाते थे. रक्षा मंत्रालय के सूचना केंद्र से लौटने के बाद शाम को होटल नोवोटेल लौटने के बाद हम वांगफुजिंग स्ट्रीट पर बने मॉल और साथ लगे इलाकों में घूमते-फिरते रहे. मॉल में सामान तो काफी अच्छे लेकिन महंगे थे जो हमारी जेब की पहुंच के बाहर थे लेकिन देखने (विंडो शापिंग) पर तो कोई रोक नहीं थी.

    चीन के विदेश मंत्रालय में


  
चीन के विदेश मंत्रालय के सामने
    आठ
अगस्त की सुबह 7.30 बजे होटल में नाश्ता करने के बाद 8.20 बजे हम लोग चीन के विदेश मंत्रालय गए. वहां सुबह के 9 बजे से विदेश मंत्रालय में सीमा और समुद्री मामलों की उप महानिदेशक वांग वेनली से मुलाकात तय थी. वहां भी हमें डोकलाम पर चीन का वही राग सुनने को मिला, मीठी घुड़की के साथ. वांग वेन ली ने कहा कि डोकलाम क्षेत्र में डेरा डाले भारत के सैनिकों के भारतीय सीमा में वापस लौट जाने तक भारत के साथ किसी तरह की बातचीत संभव नहीं है, अन्यथा हमारे (चीन के) लोग सोचेंगे कि हमारी सरकार अपनी सीमाओं की सुऱक्षा कर पाने में अक्षम है. एक भी भारतीय सैनिक के एक दिन के लिए भी चीन की सीमा में बने रहना हमारी संप्रभुता और अखंडता का उल्लंघन माना जाएगा. वैसे, उन्होंने कहा कि 50 दिनों से राजनयिक चैनल्स तो खुले ही हुए हैं. लेकिन बातचीत केवल बातचीत जारी रखने के लिए तो नहीं हो सकती !

     हमारे वरिष्ठ पत्रकार मित्र संदीप दीक्षित के पूछने पर कि तिराहा के पास 127 साल बाद सड़क निर्माण जरूरी था क्या ! वांग वेनली ने कहा, “सड़क निर्माण चीन की सीमा के भीतर आवागमन सुगम बनाने के लिए हो रहा है. यह मिलिटरी इंस्टालेशन नहीं है, जबकि भारत तो अपनी सीमा के भीतर सड़क निर्माण और मिलिटरी इंस्टालेशंस भी कर रहा है. हम लोगों ने तो उसे कभी नहीं रोका !” उन्होंने कहा कि तिराहा एक बिंदु है, सीमा निर्धारण क्षेत्र नहीं. उन्होंने भारत और नेपाल के बीच कालापानी विवाद और कश्मीर का उल्लेख करते हुए कहा कि "हमें लगता है कि भारतीय पक्ष के लिए डोंगलांग (डोकलाम) के पास भारत-भूटान और चीन के त्रि-जंक्शन (तिराहा) को मुद्दा बनाना ठीक नहीं है. भारत में भी इस तरह के कई त्रि-जंक्शन (तिराहे) हैं. अगर हमारी सेना उसी बहाने का इस्तेमाल करते हुए चीन भारत और नेपाल के बीच के त्रि जंकशन, कालापानी में या भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर क्षेत्र में प्रवेश कर जाए तो ! भारत की प्रतिक्रिया तब क्या होगी!” यह पूछे जाने पर कि क्या चीन भारत के साथ एक और युद्ध की तैयारी कर रहा है ! वांग वेनली ने कहा, “मैं केवल यह कह सकती हूं कि पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) और चीन सरकार अपने सीमा क्षेत्र को खाली कराने के लिए कटिबद्ध है. अगर भारत गलत रास्ते पर जाने का फैसला करता है या फिर भी इस घटना को लेकर भ्रम में है, तो हमें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप किसी भी हद तक जाने का अधिकार है. 

चीन के विदेश मंत्रालय में सीमा और समुद्री मामलों की
 उप महानिदेशक वांग वेनली
 (बीच में) 
के साथ बाएं से संदीप दीक्षित
हम, मनोज जोशी, अनिल के जोसेफ और जे के एम वर्मा
  
   यह पहली बार था जब चीन के किसी आधिकारिक प्रवक्ता ने इस विवाद में नेपाल और कश्मीर मुद्दे को लाने की कोशिश की, हालांकि इस तरह की टिप्पणी इससे पहले सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ में चीन के थिंक टैंक से जुड़े एक विद्वान ने भी की थी. वांग वेनली ने विवादित क्षेत्र को चीन का करार देते हुए दावा किया कि भूटान ने भी माना है कि डोकलाम चीनी क्षेत्र के अंतर्गत है. उन्होंने कहा कि भूटान ने राजनयिक चैनलों के जरिए बीजिंग को अवगत कराया है कि गतिरोध (स्टैंड-ऑफ) का क्षेत्र उसका नहीं है. हालांकि इस दावे की पुष्टि के लिए उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया जो डोकलाम के बारे में भूटान की आधिकारिक प्रतिक्रिया से भिन्न हो. भूटान ने आधिकारिक तौर पर विज्ञप्ति जारी कर 16 जून को डोकलाम क्षेत्र में सड़क बनाने की चीन की कोशिश को द्विपक्षीय समझौते के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए चीन सरकार का विरोध किया था. लेकिन वेनली ने कहा कि भूटान के लोगों को यह बहुत अजीब लगता है कि भारतीय सीमा सुरक्षा बल के सैनिक चीन की धरती पर हैं." उन्होंने कहा कि उनकी इस बात का समर्थन भूटानी मीडिया और वहां के आधिकारिक ब्लॉगों ने भी किया है जिनके पास "अधिक ठोस जानकारी" है.

    मनोज जोशी के यह बताने पर कि भूटान सरकार की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि चीन उसकी सीमा में घुसकर सड़क निर्माण कर रहा है. भारत सरकार ने 28 जून की भूटान के विदेश मंत्रालय की विज्ञप्ति का हवाला देते हुए कहा था कि “भूटानी क्षेत्र के अंदर सड़क का निर्माण भूटान और चीन के बीच 1988 और 1998 के समझौतों का सीधा उल्लंघन है और दोनों देशों के बीच सीमा के सीमांकन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है. सुश्री वेनली ने कहा कि अगर एक पल के लिए मान भी लें कि विवादित इलाका भूटान की सीमा के भीतर है तो भी यह चीन और भूटान के बीच की बात है. भारत इसमें दखल क्यों दे रहा है. भूटान ने इसके लिए उससे सहयोग तो नहीं मांगा था. और फिर भारतीय सैनिक डोंगलांग के पास भूटान की सीमा से होकर नहीं बल्कि चीन सीमा को पार करके ही गए. उन्होंने कहा कि भूटान इस बात के प्रमाण देने में विफल रहा है कि डोकलाम उसकी सीमा के भीतर है. उन्होंने अपने दावे के समर्थन में कहा, “भूटान के मवेशी डोंगलांग क्षेत्र में चारा के लिए आते हैं. और इसके लिए हम लोग उनके पालकों से शुल्क लेते रहे हैं. उनसे वसूल किए जानेवाले टैक्स की रसीदें भी हमारे पास हैं.” (हालांकि हमारी बातचीत के दो दिन बाद ही 10 अगस्त को भूटान सरकार ने आधिकारिक तौर पर विज्ञप्ति जारी कर भूटान के हवाले से चीन के इस दावे को नकार दिया कि डोकलाम चीनी क्षेत्र के अंतर्गत है.)

    सुश्री वेनली ने बताया कि भारत और भूटान सहित 14 देशों की 22,000 किमी से अधिक लंबी सीमाएं चीन से लगती हैं. इनमें से 12 देशों के साथ चीन ने लगभग 20,000 किमी के सीमा विवाद को सुलझा लिया है. केवल भारत और भूटान को मिलाकर लगभग 2,000 किमी की सीमा विवाद का समाधान नहीं हो सका है. सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भूटान और चीन ने 1980 से लेकर अब तक 24 दौर की वार्ता की है जबकि भारत और चीन के बीच इसके लिए 19 दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. इस पर संदीप दीक्षित और पीटीआई के चीन संवाददाता श्री वर्मा ने उन्हें टोककर कहा कि आप भारत-चीन और भूटान के बीच 2000 किमी के सीमा विवाद के हल नहीं हो पाने की बात कर रही हैं लेकिन भारत सरकार का तो दावा है कि तीनों देशों के बीच 3000 किमी से अधिक को लेकर सीमा विवाद है. वर्मा ने कहा कि आप केवल चीन की पूर्वी सीमाओं की बात कर रही हैं, लद्दाख और अक्साईचीन की नहीं ! इस पर सुश्री वेनली ने कहा कि फिलहाल तो इसी क्षेत्र की बात हो रही है. अभी तक केवल सिक्किम से लगी सीमा ही निर्धारित है. उन्होंने बार बार ब्रिटिश साम्राज्य (भारत उसके अधीन था) और चीन के बीच 1890 में हुए द्विपक्षीय समझौते (कन्वेंशन) का हवाला देते हुए इस संबंध में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाओ एनलाई को लिखे पत्र और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का हवाला देते हुए हमें समझाने की कोशिश की कि डोकलाम चीन का है और भारत को वहां चीन के सड़क निर्माण को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. संदीप दीक्षित ने उनसे जानना चाहा कि क्या चाओ एनलाई ने नेहरू के पत्र को स्वीकार कर लिया था. इस पर सुश्री वेनली ने कहा कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमने उनके पत्र को स्वीकार कर लिया था या नहीं. बातचीत में बढ़ रही हल्की तल्खी के बीच श्री वर्मा ने पूछा, “तो क्या चीन भारत से युद्ध चाहता है.” हमने कहा कि मौजूदा परिस्थितियों में युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता और अगर आज दोनों देशों के बीच युद्ध होता है तो इसका खामियाजा दोनों ही देशों को और खासतौर से दोनों देशों की जनता को भुगतना पड़ सकता है. चीन को यह समझने की जरूरत है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है. उन्होंने कहा, “डोंगलांग में चीन के सैनिक क्या करेंगे, यह भारतीय सैनिकों पर निर्भर करेगा. हम जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार हैं.”

चीन रेडियो इंटरनेशनल के साथ साक्षात्कार
    नोट ः अगली कड़ी में चीन रेडियो इंटरनेशनल, अखिल चीन पत्रकार संघ, चीन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान तथा चीन के प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्र चाइना डेली के कार्यालयों में संवाद के साथ ही बीजिंग से तकरीबन दो-ढाई हजार किमी दूर चीन के गुआंगडांग प्रांत में दक्षिण चीन सागर के किनारे बसे बंदरगाह शहर झान झियांग की यात्रा से जुड़े रोचक और रोमांचक संस्मरण.