Tuesday, 4 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 3: हम तो मर मर के जीते हैं




जयशंकर गुप्त


जैसलमेर से बाहर उत्तर पश्चिम की ओर निकलते ही कंकरीली-रेतीली झाड़ियों से भरे मैदान दूर दूर तक दिखाई देते हैं. सड़क सीमा संगठन द्वारा बनाई सड़क सीधे जैसलमेर से 130 किमी दूर पाकिस्तान सीमा के पास स्थित तनोट तक जाती है. कहीं कहीं सड़क पर रेत भर जाने से कठिनाई होती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर बड़े बड़े दैत्याकार पंखों वाले मोटे खंभों की कतार दिखती है. ये खंभे यहां बड़े पैमाने पर पवन ऊर्जा (विंड एनर्जी) के उत्पादन में लगी कंपनियों सुजलान एनर्जी और एनरकान के हैं. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े काम हो रहे हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे तकरीबन 500 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है. पवन ऊर्जा के उत्पादन में लगी कंपनियों की मानें तो अगर स्थापित क्षमता का संपूर्ण उपयोग हो जाए तो पूरे देश का बिजली संकट इससे दूर हो सकता है. कहीं-कहीं सौर ऊर्जा के संयंत्र भी दिखते हैं.

सड़क किनारे झोंपड़े में लू से बचाव और चाय की तैयारी में चरवाहे 

थोड़ा और आगे सोनु गांव के पास लाइम स्टोन की खदानें एवं लाइम स्टोन क्रशर दिखते हैं. बताते हैं कि यहां उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर मिलते हैं जिनका इस्तेमाल इस्पात कारखानों में होता है. जैसलमेर में बड़े पैमाने पर जिप्सम की खदानें भी हैं. कुछ जगहों पर तेल के भंडार भी मिले हैं. रामगढ़ के पास रिफाइनरी भी बन रही है. जैसलमेर और तनोट से समान (65 किमी) दूरी पर स्थित रामगढ़ कस्बेनुमा ग्राम पंचायत है जो आसपास के ग्रामीण इलाकों के लिए हर तरह की सुविधों की आपूर्ति का केंद्र और बाजार भी है. रामगढ़ के थोड़ा आगे बढ़ने पर पानी से भरी नहर मिलती है जिसके चलते आसपास के इलाकों में हरियाली और खेत भी नजर आते हैं. लेकिन उससे 25-30 किमी और आगे रणाऊ की ढाणी तक एक बार फिर रेतीले बंजर में कीकर, खेजरी और जाल घास के अलावा कुछ नहीं दिखता. रास्ते में एक जगह फूस के झोंपड़े में कुछ लोग बैठे हैं. पता चला कि आसपास के गांवों के चरवाहे हैं. मवेशी तो मैदान में चर रहे या पेड़ों, घास के झुरमुटों में छांह खोज रहे हैं जबकि चरवाहे इसी तरह के झोंपड़ों में बैठे आराम कर रहे होते हैं. कई बार ये लोग रात को भी यहीं कहीं सो जाते हैं. झोंपड़े में कुल तीन लोग हैं और साथ में भेड़ का एक मेमना भी. लकड़ी सुलगाकर चाय बन रही है.

 रणाऊ में बेकार खड़ा पवन ऊर्जा का खंभा 
गे दूर से ही रणाऊ गांव नजर आता है जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नजर नहीं आता. सड़क से 300-350 मीटर दूर बसे सोलंकी राजपूतों के इस गांव में प्रवेश करते समय हमारी गाड़ी रेतीले रास्ते में फंस गई. ड्राइवर के लाख जतन करने पर भी रेत में धंसे कार के पहिए आगे-पीछे होने का नाम न लें. तपती रेत पर पैदल ही गांव में जाना पड़ा. रेत पर बसे गांव में एक महिला घर में भर गई रेत निकाल कर बाहर रख रही थी. पूछने पर बताती है कि यह तो आए दिन की बात है. जब भी तेज हवा या आंधी चलती है घरों में रेत भर जाती है. कुछ महिलाएं गांव से नीचे सड़क के पास टैंक से सिर पर घड़ों में पानी भरकर ला रही हैं. पता चला कि ट्यूबवेल में खराबी के कारण सात आठ दिन तक पानी नहीं आया था. रघुनाथ सिंह बताते हैं कि पानी के बिना बड़ी मुश्किल हुई थी. काफी अनुनय-विनय के बाद सीमा सुरक्षा बल के लोगों ने कुछ पानी दिया था. वह बताते हैं कि 70-80 घरों की इस ढाणी को आयल इंडिया ने गोद लिया है. ट्यूबवेल भी उसी ने लगाया है. उसके सौजन्य से कुछ साल पहले पवन ऊर्जा का एक खंभा भी गड़ा था लेकिन उससे बिजली आज तक नहीं मिली. बेकार खड़ा है. गांव में स्कूल है जहां आठवीं तक की पढ़ाई होती है. आसपास कोई अस्पताल नहीं है. न ही कोई डाक्टर-कंपाउंडर या एएनएम कभी इधर का रुख करता है.

 रेत के उपर बने घरों के सामने बात करती कमला देवी-
हम तो मर मर के जीते हैं
भी हमारी बात चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी महिला कमला देवी सामने आती हैं और हमारा ही इंटरव्यू लेना शुरू कर देती हैं. बाद में कहती हैं, इस तरह के पूछने वाले बहुतेरे आते हैं लेकिन कुछ करते नहीं. लौटने के बाद सब भूल जाते हैं. आप भी भूल जाओगे. हमारी परेशानी ऐसे ही रहेगी. वह कहती हैं, ‘‘हम लोग तो यहां मर-मर के जीते हैं. गर्मी में गर्मी और लू सताती है. बरसात में मिट्टी-गोबर के घर गिरने लग जाते हैं. सर्दियों में ठंड सताती है. सर्दियों में रेत एकदम से ठंडी हो जाती और कई बार तापमान शून्य तक पहुंच जाता है. वह बताती हैं कि सिरदर्द की टिकिया से लेकर बुखार और डिलीवरी तक के लिए रामगढ़ जाना या फिर डाक्टर को फोन करके बुलाना पड़ता है. इस सड़क पर केवल एक बस चलती है. सुबह तनोट से रामगढ़ होकर जैसलमेर जाती है और फिर शाम को वही बस लौटती है. बाकी समय के लिए रामगढ़ से फोन करके टैक्सी बुलानी पड़ती है जो इमरजेंसी में एक हजार रु. भाड़ा लेता है. कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. यहां लैंड लाइन नहीं. मोबाइल फोन की सुविधा भी नहीं के बराबर है. बीएसएनएल का टावर तनोट में है लेकिन कनेक्टिविटी नहीं. ऊपर टीले पर जाने और मौसम साफ होने पर ही बातचीत हो पाती है. राशन से लेकर सब्जी या कोई अन्य सामान रामगढ़ से ही मंगाना पड़ता है. पूरा गांव जीविका के लिए पशुपालन पर ही निर्भर करता है. लेकिन इस गांव में बच्चों में पढ़ने की ललक दिखती है.

गाय दूध रही एक महिला
णाऊ से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक रास्ता गुर्दूवाला गांव की तरफ जाता है. तीन किमी के रास्ते में सेना के दस्ते और रेतीली पहाड़ियों पर उनके बंकर भी नजर आते हैं. गुर्दूवाला रेत के टीले पर बसा राजपूतों का गांव है. नीचे प्राइमरी स्कूल के पास खेल रहे बच्चों में स्वरूप सिंह भी है जो सातवीं में पढ़ने के लिए सोनु जाकर रहता है. वह नंगे पावं तपती रेत में दौड़कर गांव वालों को बुलाकर लाता है. सभी लोग स्कूल में जमा होते हैं. एक और युवक भूर सिंह 70 किमी दूर अपनी बहन के गांव हावुर (पूनमनगर) में जाकर दसवीं की पढ़ाई कर रहा है. छुट्टियों में गांव आया है. वह बताता है कि गांव तक सड़क है लेकिन बस नहीं आती. पानी के लिए जल दाय विभाग का ट्यूबवेल है जिसे चलाने की जिम्मेदारी गांव के ही दो युवकों पर है. सरकारी कर्मचारी कभी नहीं आता. इन्हें अपने वेतन से कुछ रु. देकर काम करवाता है. भूर सिंह बताता है कि गांव में रेत उड़ते रहती है. जवान लोग तो मवेशियों के साथ बाहर निकल जाते हैं. रात को जंगल में ही रह जाते, रोटियां सेंकते और बकरी के दूध में मिलाकर पी जाते हैं. कई बार आटे में रेत भी मिल जाती है. ये लोग भी रणाऊ  के लोगों की तरह ही यहां चार पीढियों से रह रहे हैं. गर्मी से बचाव के लिए क्या करते हैं? पूछने पर भूर सिंह बताता है कि भोगोलिक परिस्थितियां सब कुछ सहने के लायक बना देती हैं. लोग अपनी आवश्यकताओं को उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से ढाल लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में जो पानी मिलता है वह खारा, नमकीन होता है. उसमें फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन गांव के लोग उसी का इस्तेमाल नहाने और पीने के लिए भी करते हैं. जिनके पास पैसे हैं वे मीठा पानी खरीदकरमंगाते हैं. गांव के बुजुर्ग कर्ण सिंह इस बात से खफा हैं कि अभी तक गुर्दूवाला को राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिल सका है. हर छोटे बड़े काम के लिए रामगढ़ या जैसलमेर के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सरकारी योजनाओं का उन्हें पता भी नहीं लगता, लाभ मिलना तो दूर बात है. किसी भी स्कूल में यहां मिड डे मील जैसी योजना का अता-पता नहीं.

माता तनोट राय का मंदिर

 तनोट की देवी का मंदिर
गुर्दूवाला से हम तनोट की तरफ बढ़ते हैं. ग्रामीणों की मदद से कार सड़क पर पहुंच जाती है. तनोट भी एक छोटी सी बस्ती है, दलित मेघवालों की. तनोट की ख्याति 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण हुई थी. पाकिस्तानी फौज यहां लोंगेवाला होते हुए अंदर तनोट तक आ गई थी. सीमा सुरक्षा बल के लोगों का कहना है कि कम संख्या में मौजूद भारतीय जवान घिर गए थे. तभी वहां प्रकट सी हुई किसी महिला (देवी) ने उनसे मंदिर की ओट में आ जाने को कहा था. बताते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों ने वहां तकरीबन तीन हजार बम गोले बरसाए. 450 गोले मंदिर के पास भी गिरे लेकिन किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ. बहुत सारे गोले तो फटे ही नहीं. उन्हें मंदिर प्रांगण में ही सहेजकर रख गया है. इसी तरह 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी लोंगेवाला पोस्ट तक घुस आई थी लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और भारतीय सेना ने उन्हें मारते, वापस
 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय मंदिर के पास गिराए 
पाकिस्तानी गोले जो फूट नहीं सके थे.
मंदिर में अन्य स्मृति चिह्नों, तस्वीरों के साथ उन्हें भी 
सहेजकर रखा गया है

खदेड़ते हुए उनके टैंक व गाड़ियां कब्जे में ले लिया था. इसे भी सेना और सीमा सुरक्षा बल के लोग देवी के चमत्कार से ही जोड़कर देखते हैं. बताते हैं कि उस समय वहां पोस्ट पर रहे जवान और अफसर साल में एक बार जरूर तनोट की देवी का दर्शन करने यहां आते हैं. अब तो वहां सीमा सुरक्षा बल की देख रेख और प्रबंधन में भव्य मंदिर, धर्मशाला और कार्यालय भी खुल गए हैं. देश भर से श्रद्धालुओं का यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है.

नोट से लौटते समय हम लोंगेवाला पोस्ट होकर रामगढ़ आते हैं. लोंगेवाला में उस विजय स्तंभ और भारतीय सैनिकों द्वारा कब्जा किए गए पाकिस्तानी टैंक को देखते हैं. रास्ते में जगह-जगह मुख्य नहर से जोड़ने के नाम पर बनाई गई पक्की नालियां दिखती हैं जो जगह-जगह से टूटी-फटी हैं और सरकारी कामों की गुणवत्ता का बयान करती हैं. नहर का पानी अभी तक इन इलाकों में नहीं पहुंचा है और ना ही आजाद भारत के विकास की कोई किरण. जाहिर सी बात है कि जैसलमेर में दूर दराज के अनेक सीमावर्ती गांव अभी भी पिछड़ेपन का भूगोल बने हैं. चाहे गर्मी हो अथवा सर्दी और बरसात, उन्हें तो मर-मर के ही जीना पड़ता है.


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

इस लेख यात्रा वृतांत एवं ब्लॉग पर प्रकाशित अन्य लेखों पर प्रतिक्रिया jaishankargupta@gmail.com पर भी दी जा सकती हैं.

Monday, 3 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 2: सम के पास सूर्यास्त का सौंदर्य

सम के पास रेत के टीबों पर सूर्यास्त का सौंदर्य और ऊँट की सवारी 
जैसलमेर रेलवे स्टेशन पर दिन के 12 बजे रेल गाड़ी से बाहर निकलते ही शहर में मौसम का मिजाज समझ में आने लगता है. मटमैली रेतीली धूल से ढके आसमान से लगता था कि अंगारे बरस रहे हैं. दिन का तापमान 46-47 डिग्री सेल्यिस को छूने को बेकरार था (कभी-कभी तो यहां तापमान 50 के पार भी पहुंच जाता है.शहर में कर्फ्यू जैसा सन्नाटा पसरा है. स्टेशन से यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में लगे आटो रिक्शा और टैक्सियों के अलावा सड़कों पर बहुत कम वाहन दिखते हैं. बाजार में भी चहल-पहल गायब है. शाम को हम जैसलमेर से 45 किमी दूर सम के लिए रवाना होते हैं. सम के पास रेत के टीबों या कहें टीलों (सैंड ड्यून्स) से सूर्यास्त के सौंदर्य का नजारा बेहद मनमोहक लगता है. इसे देखने के लिए देश और दुनिया भर से हजारों पर्यटक यहां खिंचे चले आते हैं. लेकिन गर्मी के दिनों में पर्यटकों की आमद कम हो जाती है. सम के पास सड़क से अक्सर स्थान बदलते रहते रेत के टीबों तक जाने के लिए ऊंट की सवारी करनी पड़ती है. तपती धरती-रेत और आग के गोले बरसाते आसमान के बावजूद कुछ देसी-विदेशी पर्यटक  ऊंटों पर सवार होकर रेत के टीबों तक पहुंचते हैं. शाम शुरू होने के साथ ही रेत की गरमी भी कम होनी शुरू हो जाती है. रात दस-ग्यारह बजे तक रेत ठंडी होने लगती है. मौसम का मिजाज भी बदल जाता है. दिन की तपिश सुहानी ठंड में बदल जाती है. आधी रात होने तक तो कंबल-रजाई ओढ़ने की नौबत आ जाती है.

 म के पास सूर्यास्त तकरीबन 7.40 बजे होता है लेकिन आसमान में उस दिन छाई रेतीली धूल के कारण सूर्य देवता सूर्यास्त से कुछ मिनट पहले ही आंखों से ओझल हो गए. कुछ लोग वापस लौटते हैं तो कुछ मौज मस्ती के मूड में रेत पर लोटते-पोटते, खेलते नजर आते हैं. यहां की रेत शरीर और कपड़ों से चिपकती नहीं है. जानकार लोग बताते हैं कि एक जमाने में रेत के टीबों का क्षेत्रफल और उनकी ऊंचाई काफी अधिक होती थी लेकिन अब बदलते पर्यावरण, जिले में नहर आदि से बढ़ रही हरियाली आदि के कारण भी रेत के टीबों की ऊंचाई और क्षेत्रफल कम होते जा रहा है.

सम के आगे अंधेरा है 

म सम से आगे बढ़ते हैं. रास्ते में पर्यटक मौसम में गुलजार रहने वाले बहुत सारे होटल, रिजार्ट, हट्स-स्विस टेंट्स वीरान नजर आते हैं. सूर्यास्त के बाद सम के आगे एक अजीबोगरीब अंधेरे से सामना होता है जो न सिर्फ इस इलाके में पिछड़ेपन के भूगोल और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित गांवों-ढाणियों के दर्शन कराता है, देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाता है. सबरों की ढाणी से पगडंडी रास्ते से होते हुए हम मेण़ुवों की ढाणी पहुंचते हैं. पूरा इलाका अंधकार में डूबा है. दूर दूर तक रोशनी का नामो निशां भी नहीं. कार की हेडलाइट्स देख कुछ लोग पास जमा हो जाते हैं. मिट्टी-पत्थरों से बनी दीवारों और एक खास तरह के फूस से बनी छत वाले छोटे से कमरे में 12-13 साल की बच्ची झिमा खान लकड़ी के चूल्हे में फूंक मारकर रोटियां सेंक रही है. एक अन्य कमरे से निकले प्यारे खान बताते हैं कि दस साल पहले गांव में बिजली के कुछ खंभे गाड़े गए थे लेकिन उनमें तार और बिजली कनेक्शन नहीं जोड़े जाने के कारण गांव में आज तक रोशनी नहीं आ सकी. बिजली नहीं तो पंखे-कूलर की बात बेमानी है. गर्मी का सामना कैसे करते हैं? प्यारे खान बताते हैं कि दिन में आमतौर पर घर से बाहर लोग, खासतौर से बूढ़े और बच्चे कम ही निकलते हैं. शरीर पर पानी भिंगोए कपड़े लपटते रहते हैं. ठंडा रखने के लिए मिट्टी के घड़ों-मटकों में पानी भरकर रखते हैं. पानी कम पीने की आदत बन गई है. गर्मी के दिनों में गाय का छाछ-मट्ठा, बकरी का दूध सबसे सुलभ और स्वास्थ्यकर पेय है. तकरीबन एक सौ घरों और 300 लोगों की इस बस्ती में पानी या तो 27 किमी दूर नहर से या फिर नौ किमी दूर सम से टैंकर में आता है. घर के पास बने टंका-सीमेंट की टंकी-में पानी जमा करते हैं. उसी से पानी पीते, नहाते और मवेशियों को भी पिलाते हैं. कुछ गांवों में ट्यूबवेल से पानी जीएलआर (ग्राउंड लेबल रिजर्वायर) में जमा होता है, उससे ग्रामीण घड़ों और पखालों-ऊंट की खाल से बने हौदों-में पानी भरकर घर के पास बनी टंकियों में जमा करते हैं. मिश्री खान बताते हैं कि सप्ताह में एक बार ही वे लोग नहा पाते हैं. पूरी बस्ती में शौचालय का कोई इंतजाम नहीं, लोग और महिलाएं भी खुले में ही शौच के लिए जाते हैं. गांव में एक भी पढ़ा-लिखा, साक्षर नहीं है. प्राइमरी स्कूल है लेकिन बकौल करमाली खान, टीचर कभी आते ही नहीं, पढ़ाई कैसे हो. वैसे, स्थानीय लोग बच्चों और खासतौर से बच्चियों को तालीम देने में ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आते. यही हाल बगल की मतुओं की बस्ती और सगरों की बस्ती का भी है. बीमार पड़ने पर नौ किमी दूर सम में स्थित प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर जाना पड़ता है या फिर जैसलमेर. मोबाइल फोन अधिकतर लोगों के पास हैं. लेकिन नेटवर्क कनेक्शन की और बिजली के अभाव में फोन को चार्ज करने की समस्या आम रहती है. इन गांवों में लोगों की जीविका का मुख्य साधन कैमल सफारी-ऊंट की सवारी-और मवेशी पालन होता है. लोग बड़े पैमाने पर गाय-भेड और बकरियां पालते हैं. इन इलाकों में भैंसें नहीं के बराबर दिखती हैं क्योंकि उन्हें पानी की अधिक दरकार होती है. बरसात के बाद ग्वार-बाजरा की खेती भी हो जाती है.

नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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तपती गर्मी में जैसलमेर 1: प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी

जयशंकर गुप्त

प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी  



'सोने का किला !'
पिछले सप्ताह राजस्थान के जैसलमेर जिले में जाना हुआ. जैसलमेर हम पहले भी जा चुके हैं लेकिन इस बार की बात कुछ और थी. ऐसे समय में जबकि दिन का तापमान तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, थार मरुस्थल वाले जैसलमेर की यात्रा! अटपटी सी बात लगती है. लेकिन चहुंओर मरुस्थल, रेत के टीबों (धोरों), कीकर (बबूल)- और खेजरी के सूखे-हरे दरख्तों, जालों और जहा-तहां भेड़-बकरियों, गायों के अलावे और कुछ भी नहीं दिखनेवाले जैसलमेर के भारत-पाकिस्तान सीमा से लगे ग्रामीण इलाकों में भी तो लोग जीते हैं. कैसे? यह जानना ही अपनी यात्रा का मकसद था.

जैसलमेर की ख्याति यहां सुनहरे किले और खासतौर से यहां से 45 किमी दूर सम के पास रेत के टीबों से सूर्यास्त के मनमोहक सौंदर्य के नजारे के लिए ही रही है. जैसलमेर का किला सोने का नहीं बना है और न ही इसकी दीवारों पर सोने का रंग चढ़ा है. लेकिन यहां 25 किमी के दायरे में स्थित 20 फुट गहरी खदानों से निकलने वाले सुनहरे रंग के रेतीले पत्थरों (सैंड स्टोन्स) से बना होने के कारण दूर से, और खासतौर से चटखती धूप अथवा रात में बिजली की रोशनी में भी यह किला सोने की तरह दमकता है. और अब तो शहर में तथा जिले में भी अधिकतर इमारतों के भी इन्हीं पत्थरों से बनी होने के कारण जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाने लगा है. प्रख्यात फिल्मकार स्व. सत्यजित रे ने किले की इसी खूबी के कारण एक फिल्म बनाई थी, ‘सोनार किल्ला’ यानी सोने का किला. इन पत्थरों की खासियत अपेक्षाकृत कमजोर होने और धूप में सोने जैसे दमकने के साथ ही ईंट के मुकाबले सस्ते, गर्मी में अपेक्षाकृत ठंडे और सर्दियों में गरम होने की भी है. किले की एक खासियत और भी है. देश और दुनिया में भी यह शायद पहला किला है जहां भरी पूरी आबादी और बाजार भी है. इसलिए भी देश और विदेश से बड़े पैमाने पर पर्यटक यहां हर साल आते हैं. पर्यटकों का मौसम यहां जुलाई-अगस्त से लेकर मार्च-अप्रैल तक होता है. पाकिस्तान की सीमा से लगा होने के कारण जैसलमेर और आसपास की आबादी का बड़ा हिस्सा सीमा सुरक्षा बल, भारतीय सेना और वायुसेना के लोगों का है. एक तरह से देखें तो जैसलमेर की अर्थव्यवस्था मुख्यरूप से पर्यटकों और सेनाओं तथा सीमा सुरक्षा बल के जवानों-अफसरों पर ही टिकी है.

सड़क किनारे झोंपड़े में गर्मी से बचाव और चूल्हे पर पकती चाय 
हाल के वर्षों में जैसलमेर में कई तरह के बदलाव आए हैं. इंदिरा गांधी नहर के प्रवेश के कारण कई इलाकों में पानी पहुंचने लगा है. कहीं कहीं हरियाली भी दिखने लगी है. इसके चलते बरसात की मात्रा भी बढ़ी है,  (एक जमाने में बरसात यहां नहीं के बराबर होती थी. कहा तो यह भी जाता है कि एक बार गांव में बरसात हुई तो एक आठ-दस साल का बच्चा डर कर घर में घुस गया क्योंकि उसने कभी आसमान से पानी बरसते देखा ही नहीं था. इसी तरह से कुछ वर्षों पूर्व अचानक भारी बरसात के कारण जैसलमेर में आयी बाढ़ से डरकर लोग घरों में छिप गए थे), रेगिस्तान या कहें रेत के टीबे भी सिमटने लगे हैं. सैंड स्टोंस, लाइम स्टोन, जिप्सम जैसे खनिजों के कारण और फिर हाल के वर्षों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा के संयंत्रों के कारण और इन सबके अलावा अब दिल्ली से सीधी रेल सेवा जैसलमेर तक पहुंचने के कारण पर्यटकों की आमद लगातार बढ़ते जाने से यहां आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं. इससे पहले हवाई जहाज से अथवा रेलगाड़ी से भी जोधपुर और वहां से तकरीबन 300 किमी तक की जैसलमेर की दूरी टैक्सी, बस अथवा छोटी लाइन की छुकछुक रेलगाड़ी से तय करनी पड़ती थी.

लेकिन इन सारी गतिविधियों और विकास कार्यों का जैसे जिले के दूर दराज के, पाकिस्तान की सीमा से सटे गांवों-ढाणियों-बस्तियों में रहने वाले ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक सेहत पर खास असर नहीं पड़ा है. चरम को छूती गर्मी हो अथवा बरसात या फिर सर्दियों में हाड़ कंपाने और शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने वाली ठंड, दूर दराज के गांवों और ढाणियों में रहने वालों के लिए मुश्किलें बढ़ा देती है. गर्मी तो इन दिनों दिल्ली और  देश के अन्य हिस्सों में भी तकरीबन इसी हिसाब से पड़ रही है लेकिन अभाव की जिंदगी जैसलमेर के मरुस्थली इलाकों में गर्मी को और भी मारक बना देती है. दूर दूर तक आबादी का नामो निशां नहीं. चारों तरफ रेतीले बंजर में कीकर (बबूल),खेजरी और जाल की घासें. कहीं कहीं गाय, भेड़-बकरियों के झुंड नजर आ सकते हैं. या फिर फूस के झोंपड़ों में गर्मी से पनाह लेते चरवाहे. यहां भी शहर-कस्बों में जहां पक्के मकान हैं और बिजली-पानी की सुविधा उपलब्ध है, लोग पंखे, एसी, कूलर के जरिए गर्मी से बचाव कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में ऐसे कई गांव और ढाणियां हैं जहां अभी तक सड़क, बिजली पहुंची ही नहीं. पानी का भी अभाव है. सूर्य की तपिश बढ़ने पर लोग गोबर मिश्रित मिट्टी से बने घरों में दुबके रहते, भींगे कपड़ों से तन को लपेटकर गर्मी से बचाव करते हैं. अगर बाहर निकल गए हैं तो हरे-सूखे दरख्तों अथवा घास-जालोंकी छांह या उसका एहसास ही रक्षा कर सकती है. छांह की तलाश में मवेशी भी भटकते रहते हैं. इन सबके बीच रेतीली आंधी लोगों की दुश्वारियों को और बढ़ा देती है. आंधी के कारण तापमान में थोड़ी कमी जरूर आ जाती है लेकिन इससे रेत घरों में घुस जाती है. जब आंधी चलती है, पास से भी कुछ भी दिखाई नहीं देता.


तपती रेत में नीचे ट्यूबवेल से पानी लाती महिलाएं 


लेकिन देश के अन्य हिस्सों की गर्मी और यहां रेगिस्तानी इलाकों की गर्मी में एक बुनियादी फर्क है. अगर हवा चल रही है और आप पेड़-दरख्त की आड़ में हैं तो रहत महसूस कर सकते हैं. और फिर यहां सूर्योदय के साथ ही रेत जिस रफ्तार से गरम होती है, सांझ ढलने के साथ ही उसी रफ्तार से ठंडी भी होने लगती है. रात होने तक तो पूरे इलाके में तापमान इतना ठंडा (25-26 डिग्री सेल्सियस अथवा इससे कम भी) हो जाता है कि बाहर मैदान में सोने वाले को कंबल अथवा रजाई के बगैर रात काटनी दूभर हो जाती है. इलाके के ग्रामीण बताते हैं कि उन्होंने अभाव की जिंदगी के साथ यहां मौसम का मुकाबला करना सीख लिया है. ठंडे पानी के लिए रेतीली मिट्टी में धंसाकर रखे घड़ों-मटकों में भरा पानी ठंडा रहता है. पीने का हो अथवा नहाने का, आदमी के लिए हो अथवा मवेशी के लिए, पानी के लिए लोगों को सरकारी ट्यूबवेल से भरे टैंक और टैंकरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. लोग अपने घरों के सामने सीमेंट, चूने की टंकी बना कर उसमें पानी जमा कर लेते हैं. पानी कम पीने और कई कई दिन बाद नहाने की आदत सी बन गई है. अधिकतर इलाकों में पानी खारा और नमकीन तथा फ्लोराइडयुक्त होता है. अक्सर तमाम तरह की मौसम और जल जनित बीमारियों का सामना भी ग्रामीणों को करना पड़ता है. आसपास प्रशिक्षित डाक्टर और नर्सों वाले सरकारी अस्पताल नहीं. मामूली बीमारी के लिए भी जैसलमेर और जोधपुर तक जाना ग्रामीणें की नियति है. रास्ते में मरीज का दम तोड़ देना आम बात है. ग्रामीण इलाकों, खासतौर से पंचायत और प्रखंड मुख्यालयों पर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हैं भी तो वहां डाक्टर नहीं मिलते. गांवों में और वह भी गर्मियों में सरकारी डाक्टरों का इन इलाकों में मिलना किसी देवी देवता के दर्शन से कम नहीं. यही हालत स्कूलों की भी है. ग्रामीण इलाकों में अधिकतर स्कूलों में शिक्षक आते ही नहीं तो बच्चे भी नदारद ही रहते हैं. गांवों-ढाणियों में कुछ पैसेवालों को छोड़ दें तो शौचालय की सुविधा नहीं के बराबर नजर आती है. शौच के लिए खुले में ही जाना पड़ता है. खासतौर से औरतों को रात के अंधेरे में ही खुले मैदान में जाना पड़ता है. दिन में उन्हें झुरमुटों की आड़ की तलाश में बहुत दूर तक जाना पड़ता है. जैसलमेर के ग्रामीण इलाकों में अभाव की यह जिंदगी देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है. क्या दिल्ली के वातानुकूलित कमरों-कार्यालयों में बैठे हमारे योजना आयोग और उसके कर्ता -धर्ताओं को इसका एहसास है?


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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Sunday, 26 May 2013

बीत गए चार साल आगे कौन हवाल



जयशंकर गुप्त

बीते 22 मई को कांग्रेसनीत संप्रग2 सरकार के चार साल बीत गए. एक तरह से कहें तो केंद्र में संप्रग सरकार के लगातार सत्ता में नौ साल बीत गए. इसको एक और तरह से देखें तो भारतीय जनता पार्टी और इसके नेतृत्ववाले राजग की भी लगातार मुख्य विपक्षी दल या कहें मुख्य विपक्षी गठबंधन बन रहने की उस दिन नौवीं वर्षगांठ थी. कांग्रेस और संप्रग सरकार ने उस दिन अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाया. अखबारों में लंबे चौड़े इश्तिहार छपे. रात को प्रधानमंत्री निवास पर सरकारी उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड जारी होने के साथ ही भव्य भोज भी हुआ. भाजपा ने लगातार मुख्य विपक्ष बने रहने की अपनी नौवीं वर्षगांठ पर अपनी ‘उपलब्धियों का जश्न’ मनाने के बजाए अपनी राजनीतिक ऊर्जा सरकार को उसकी नाकामियों, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर अपने रटे रटाए अंदाज में घेरने में ही खपाई.

 ही मायने में कांग्रेसनीत सत्तारूढ़ संप्रग और भाजपानीत विपक्षी राजग की इन चार या कहें नौ वर्षों की उपलब्धियां क्या रहीं. कांग्रेस और संप्रग के लिए तो सबसे बड़ी उपलब्धि लगातार नौ वर्षों तक कई बार अल्पमत में होते हुए भी गठबंधन सरकार चलाते रहने की कही जा सकती है. इस मामले में मनमोहन सिंह पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री कहे जा सकते हैं जिन्होंने लगातार नौ साल किसी सरकार का नेतृत्व किया और दसवां साल पूरा करने जा रहे हैं. उनके पहले कार्यकाल में सरकार ने सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, किसानों की कर्जमाफी, अमेरिका के साथ परमाणु करार जैसे कई उल्लेखनीय काम किए. इन कामों के सहारे संप्रग2 भी सत्तारूढ़ हो सका. उनके पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे कोई बड़े मामले भी सार्वजनिक नहीं हुए जिनके चलते सरकार की थू-थू होती, जैसी आज गाहे बगाहे हो रही है. इसका एक कारण शायद वाम दलों का सरकार को बाहर से समर्थन भी था जो सरकार और उसके फैसलों पर एक तरह का अदृश्य सा नियंत्रण भी रखते थे. लेकिन अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार के विरोध में वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. हालांकि इसका खामियाजा कांग्रेस और संप्रग के बजाय वामदलों को ही लोकसभा और फिर विधानसभा के चुनावों में भी करारी हार के रूप में भुगतना पड़ा था.

लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग 2 की सरकार ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ सकी. हालांकि कांग्रेस को 2004 में 141 के मुकाबले 2009 में लोकसभा की अधिक (206) सीटें मिली थीं. सरकार पर इसकी पकड़ भी पहले से कहीं ज्यादा थी. लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून बनाने और मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी और कैश सबसिडी ट्रान्सफर योजना के अलावा सरकार ने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया जो जनमानस पर सकारात्मक छाप छोड़ सके. मल्टी ब्रांड खुदरा बाज़ार में  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लाभ भी आमजन को मिलते नहीं दिखा. दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से तेलंगाना राष्ट्र कांग्रेस, आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन, झारखंड विकास मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक जैसे तकरीबन आधा दर्जन घटक दल संप्रग से अलग होते गए. एकमात्र नई एंट्री अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल की हुई. सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की लड़खड़ाती बैसाखी के सहारे टिकी है. भ्रष्टाचार के नित नए किस्से उजागर होते रहे जिनके चलते तकरीबन आधा दर्जन केंद्रीय मंत्रियों को सरकार से बाहर होना और कुछ को जेल भी जाना पड़ा. संवैधानिक पदों और संस्थाओं में नियुक्ति से लेकर अन्य बातों पर टकराव विवाद का विषय बनते रहे. संसद में विपक्ष लगातार नकारात्मक रुख के साथ सरकार के विरुद्ध हमलावर रहा जिससे मौजूदा लोकसभा का अधिकतर समय हल्ला-हंगामे की भेंट ही चढ़ते रहा. यहां तक कि सरकार और कांग्रेस के लिए भी ‘गेम चेंजर’ कहे जाने वाले खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और लोकपाल जैसे विधेयक पारित नहीं कराए जा सके जबकि इन विधेयकों पर विपक्ष की असहमति नहीं के बराबर रही है. और अब जबकि लोकसभा चुनाव में साल भर से भी कम का समय ही रह गया है, कांग्रेस के लिए ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ साबित होने वाले इन विधेयकों का कानून बन पाना संदिग्ध ही लगता है. बचे समय में बमुश्किल मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र की गुंजाइश ही बचती है. चुनाव जब सिर पर हों, विपक्ष कांग्रेस के इन ‘गेम चेंजर’ विधेयकों को पारित कराने के लिए सहयोग भला क्यों करेगा?
पलब्धियों की कसैटी पर देखें तो भाजपा का रेकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं रहा है. मुख्य विपक्षी दल के नाते उसकी एक भी सकारात्मक भूमिका या कहें ठोस विकल्प पेश करने की कोशिश नहीं दिखी जिसका जनमानस पर सकारात्मक असर देखने को मिला हो. कुल मिलाकर पिछले नौ सालों में विपक्ष और खासतौर से भाजपा की छवि नकारात्मक रवैए और बात बेबात संसद को जाम करते रहने वाले विपक्ष के रूप में ही उभर कर आती रही है. मतभेदों और अंतर्विरोधों वाले राजग में शिवसेना, जद (यू), अकाली दल और हरियाणा जनहित कांग्रेस जैसे दल ही रह गए हैं. संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा ने संसद में जितना आक्रामक तेवर दिखाया, वही तेवर सड़कों पर दिखाने में वह विफल सी रही. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा अथवा राजग के बजाय अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ज्यादा सक्रिय दिखे. दिल्ली में एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में सड़कों पर उमड़े जानाक्रोश और जनांदोलन को भी भाजपा कोई दिशा नहीं दे सकी. यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उसे अपने दो मुख्यमंत्री या कहें दो राज्यसरकारें और एक राष्ट्रीय अध्यक्ष की राजनीतिक बलि देनी पड़ी. उसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अभी कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा जबकि  झारखंड में उसके नेतृत्ववाली साझा सरकार उसके हाथ से निकल गई. इस लिहाज से देखें तो भाजपा की पिछले चार साल की राजनीतिक उपलब्धि नकारात्मक ही रही.

ब अगले कुछ ही महीनों बाद दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों में और उसके साथ अथवा कुछ ही महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस को भी अपने सहयोगी दलों के साथ मैदान में उतरकर अपनी उपलब्धियों का लेखा जोखा करना होगा. कांग्रेस को आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसी ने किसी सहयोगी दल के सहारे की जरूरत होगी. इन तीन बड़े राज्यों में लोकसभा की तकरीबन सवा सौ सीटें हैं. बिहार में तो कांग्रेस का लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के साथ चुनावी तालमेल तय सा लगता है. ठीक इसी तरह भाजपा को भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश       ( अब तो कर्नाटक में भी इसकी हालत पतली सी हो गई है), पश्चिम बंगाल और ओडिशा में नए-पुराने सहयोगी दलों को फिर से राजग के साथ जोड़ना पड़ेगा. तब कहीं जाकर लड़ाई बराबर के स्तर पर हो सकेगी लेकिन इससे पहले भाजपा को अपना घर भी व्यवस्थित करना पड़ेगा.


(इस लेख के सम्पादित अंश  26 मई  2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Sunday, 19 May 2013

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग:  महाराष्ट्र में प्रकृति ही नहीं जल कुप्रबंधन की देन भी है सूखा उ म्मीदें आसमान पर टंगी हैं. शायद इस बार अच्छा और कुछ जल्दी मानसून आएगा औ...

कलंकित होता क्रिकेट



जयशंकर गुप्त

क्रिकेट हमारे लेखन का प्रिय विषय नहीं रहा है. ऐसा भी नहीं कि क्रिकेट के प्रति हमारी रुचि ही नहीं रही. हम भी उन लोगों में से रहे हैं जिन्हें आम भारतीयों की तरह क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर या कहें ‘भगवान’ कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक का अंतहीन इंतजार है. यही नहीं, हमने लिटिल मास्टर कहे जाने वाले सुनील गावस्कर के शतकों का रिकार्ड बनने के क्रम में उनकी अनेक बोझिल पारियों के बारे में  भी पढ़ी-सुनी हैं. ठीक उसी तरह जैसे 2003 में एक दिनी क्रिकेट के विश्वकप विजेता कप्तान कपिल देव के  गेंदबाजी का रिकार्ड बनने के क्रम में उनकी भोथरी होती गई गेंदबाजी  के बारे में  भी हम पढ़ते-सुनते रहे हैं. उस समय क्रिकेट के मैदानों तक अपनी पहुँच नहीं होती थी और टेलीविज़न अपने सामर्थ्य के बाहर होता था. अखबार और आकाशवाणी ही अपने क्रिकेट ज्ञान या कहें जिज्ञासा को पूरा करने के माध्यम होते थे. बाद के वर्षों में जब भी किसी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में किसी दूसरे देश की टीम के सामने एक गेंद अथवा रन पर हमारी टीम की जीत अथवा हार तय होने की बात होती, टी वी सेट के सामने हमारा दिल भी तेजी से धड़कने लगता. हारने से दिल बैठ जाता और जीत जाने पर खुशी के मारे उछलने लगता. इसे हमारे क्रिकेटी राष्ट्रवाद से जोड़कर भी देखा जा सकता है. वैसे, दुनिया भर के अन्य क्रिकेटरों के बेहतरीन खेल के भी हम कायल रहे हैं.

लेकिन जब से क्रिकेट में बेशुमार दौलत का प्रवाह होने लगा, इसके नित नए संस्करण जुड़ते गए, खासतौर से बड़े ताम झाम और चमक दमक के साथ आईपीएल के नाम से 2008 में शुरू हुए टी 20 क्रिकेट मैचों के प्रति मेरा कभी आकर्षण नहीं बन पाया. किसी भी टीम अथवा खिलाड़ी को अपना कह सकने लायक कारण समझ में नहीं आते. बस यही लगता कि सब पैसों के लिए खेल रहे हैं. हालांकि इसमें एक अच्छी बात यह जरूर उभर कर आई कि भारतीय और शायद अन्य देशों में भी क्रिकेट की जिन युवा प्रतिभाओं को या फिर टीम में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाने के कारण बाहर हो गए खिलाडियों को अपनी राष्ट्रीय टीमों में खेलने का अवसर नहीं मिल पाता, उन्हें आईपीएल मैचों में विभिन्न टीमों का हिस्सा बनकर अपना हुनर दिखाने और अच्छे प्रदर्शन से अपनी राष्ट्रीय टीमों में जगह बनाने के लिए अपनी दावेदारी भी मजबूत करने का मौका मिल जाता है. इसमें उन्हें खूब सारा पैसा भी मिल जाता है जिसकी उम्मीद वे राष्ट्रीय टीम में खेलने के बावजूद नहीं कर सकते. अब केरल के प्रतिभाशाली गेंदबाज श्रीसंत को ही देखिए. पिछले कुछ समय से बाहर श्रीशंत के आईपीएल मैचों में अच्छे प्रदर्शन के कारण भारतीय टीम के अगले विदेश दौरे में शामिल किए जाने की अटकलें लगने लगी थीं. पिछले साल राजस्थान रायल्स ने उन्हें तकरीबन सवा दो करोड़ रु. में खरीदा था. लेकिन शायद इतने भर से उन्हें संतोष नहीं था. और जब आईपील मैचों को मैच फिक्सिंग और स्पाट फिक्सिंग के जरिए हजारों करोड़ रु. के गोरखधंधे में बदल देने वाले सटोरियों और उनके बुकी या कहें फिक्सर्स ने संपर्क किया तो वह अपने कुछ अन्य साथी क्रिकेटरों के साथ डोल गए. एक ओवर में 13 या उससे अधिक रन पिटवाने के एवज में उन्हें 40 लाख रु. और उनके एक अन्य सहयोगी अंकित चह्वाण को इसी काम के लिए 60 लाख रु. का प्रलोभन मामूली नहीं था. लेकिन इसके चलते न सिर्फ उनका क्रिकेट भविष्य अंधकारमय हो गया, ‘स्पाट फिक्सिंग’ के लिए जेल जाने वाले किसी पहले टेस्ट क्रिकेटर का ‘खिताब’ भी उनके नाम  जुड़ गया. क्या मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग के खेल में शामिल होनेवाले श्रीसंत अकेले क्रिकेटर हैं?

 ह पहली बार नहीं हुआ है जब क्रिकेटरों के कारण क्रिकेट कलंकित हुआ है. जब से क्रिकेट में काले अथवा सफेद धन का प्रवाह बढ़ा है, भ्रष्टाचार, विवाद और मैच फिक्सिंग के प्रकरण भी बढ़े हैं. जिन लोगों का क्रिकेट से कभी कुछ भी लेना देना नहीं रहा, वे बड़े नेता, नौकरशाह और वकील भी क्रिकेट की राजनीति और प्रबंधन से जुड़ने लगे. लाखों-करोड़ों रु. के वारे न्यारे होने लगे. इस सबके बीच ही सटोरिये और जुआड़ी भी क्रिकेट की तरफ मुखातिब होने लगे. आगे चलकर क्रिकेट मैचों के फैसलों को मनचाहे ढंग से करवाने के नाम पर मैच फिक्सिंग का धंधा जोर पकड़ने लगा. क्रिकेट में सटोरियों और मैच फिक्सिंग में लगे लोगों का मामला पहली बार उस समय प्रकाश में आया था जब तत्कालीन हरफन मौला खिलाड़ी मनोज प्रभाकर ने इस मामल में कपिलदेव का नाम भी उछाला था. तब कपिल के क्रिकेटी कद को देखते हुए इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया था. उसके बाद अप्रैल 2000 में दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट टीम के कप्तान हैंसी क्रोंजे ने स्वीकार किया था कि भारत दौरे के समय मैच फिक्सिंग में उनकी भूमिका थी. उनके क्रिकेट खेलने पर आजीवन प्रतिबंध लगा था. बाद में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत भी हो गई थी. कुछ ही महीनों बाद हुए खुलासे के बाद भारतीय टीम के बेहतरीन क्रिकेटर-कप्तान अजहरुद्दीन और अजय जडेजा सहित कुछ और लोग भी मैच फिक्सिंग के जाल में फंसे थे. उनके क्रिकेट खेलने पर भी क्रमशः आजीवन एवं पांच साल तक के प्रतिबंध लगे थे. अभी केंद्रीय मंत्री एवं आईपीएल के चेयरमैन राजीव शुक्ल कह रहे हैं कि स्पाट फिक्सिंग के लिए गिरफ्तार अथवा दोषी पाए गए अन्य क्रिकेटरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी. कड़ी कार्रवाई क्या वैसी ही होगी जैसी अजहर के खिलाफ हुई? वह आज हमारी संसद के सम्मानित सदस्य हैं.

ईपीएल क्रिकेट मैचों और उनके प्रबंधन से जुड़े लोगों का कहना है कि हजारों करोड़ रु. के इस आयोजन में किसी को भी घाटा नहीं है. यहां तक कि जो टीम सबसे निचले पायदान पर रहती है उसे भी खासा मुनाफा हो जाता है. लेकिन स्पाट फिक्सिंग के खुलासे के बाद लगता है कि इस पूरे प्रकरण में किसी की हार होती है तो वह मैदान में बैठे अथवा टीवी चैनलों पर अपने प्रिय क्रिकेटरों के बेहतर अथवा बदतर प्रदर्शन पर उछलने अथवा उदास हो जाने वाले दर्शकों की, जिन्हें पता ही नहीं होता कि उनका प्रिय क्रिकेटर किस बाल, रन और चैक्के, छक्के के लिए कितने रु. का सौदा कर चुका है. कहा तो यह भी जा रहा है कि जितने हजार करोड़ रु. का कुल कारोबार आईपीएल6 में अनुमानित है, उससे कहीं अधिक रकम आईपील के एक-एक मैच, एक-एक गेंद और रन को लेकर फिक्सिंग के जरिए होने वाली सट्टेबाजी और जुए में लग रही है. सट्टेबाजों और उनके फिक्सर्स के लिए मैच फिक्सिंग के मुकाबले स्पॉट फिक्सिंग ज्यादा सुरक्षित और मुफीद नज़र आने लगी. इसमें पुरे मैच के बजाय उसका कुछ या खास हिस्सा ही फिक्स करना था. मसलन, अगली गेंद नो बाल डालनी है, कौन सी बाल वाइड फेंकनी है, किस ओवर में आउट होना है. या अगले ओवर में कितने रन बनने हैं आदि आदि. इस फिक्सिंग में कोई एक खिलाडी अकेले भी शामिल हो सकता है. इसमें एक्यूरेसी भी ज्यादा दिखती है लिहाजा इसमें पैसों का फ्लो भी ज्यादा ही होता है. पहले जहाँ मैच पर सट्टे लगते थे वहां अब हर गेंद पर सट्टा लगने लगा है.

 ह गोरखधंघा न सिर्फ मुंबई, दिल्ली बल्कि देश के अन्य बड़े शहरों, इलाकों में भी वर्षों से धड़ल्ले से चल रहा है. कहा तो यह भी जाता है कि इसके लिए सट्टेबाज, बड़े आपरेटर पुलिस अफसरों को नियमित ‘हफ्ता’ पहुंचाते हैं. अभी पिछले आईपीएल 5 के दौरान भी एक खबरिया चैनल ने स्टिंग आपरेशन के जरिए मैच-स्पॉट फिक्सिंग का खुलासा किया था लेकिन उसके बाद क्या हुआ? अगर हमारी पुलिस, भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की प्रबंधक समितियां एवं आईपीएल मैचों का प्रबंधन इस मामले में गंभीर होते तो शायद क्रिकेट और क्रिकेटरों और उनके शुभचिंतकों-प्रशंसकों को भी यह दिन नहीं देखने पड़ते. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात इन मैचों में बढ़ रही सट्टेबाजी और फिक्सिंग और इस गोरखधंधे में मुंबई, कराची, दुबई और अन्य ठिकानों पर बैठे माफिया-आतंकी सरगनाओं के सक्रिय होने को लेकर होनी चाहिए. स्पॉट  फिक्सिंग का खुलासा करने वाली दिल्ली पुलिस के अनुसार इस गोरखधंधे के तार कुख्यात आतंकी माफिया सरगना दाउद इब्राहिम और उसकी बदनाम डी कंपनी के साथ भी जुड़े हो सकते हैं. आश्चर्य की बात नहीं कि मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग पर आधारित जुए और सट्टेबाजी से जमा रकम का एक बड़ा हिस्सा भारत और पाकिस्तान के भी कुछ शहरों-इलाकों को निशाना बनाने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर भी खर्च होता है. इसकी चिंता किसे है?

(इस लेख के सम्पादित अंश 1 9 मई 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Monday, 13 May 2013

सरकार, भ्रष्टाचार और भाजपा


जयशंकर गुप्त


भ्रष्टाचार ने आखिर यूपीए2 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खासुलखास कहे जाने वाले दो मंत्रियों-रेल मंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार की राजनीतिक बलि ले ही ली. पिछले सप्ताह हमने जिक्र किया था कि किस तरह कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में जीत का खुशनुमा संकेत देने वाली राजनीतिक हवाएं भी सरकार के संकट कम नहीं कर पा रही हैं. नतीजे आ गए और कर्नाटक के रूप में दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भाजपा का राजनीतिक किला भरभरा कर गिर भी गया. सिद्धरमैया के नेतृत्व में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत से सरकार वहां बनने जा रही है. लेकिन कांग्रेस और यूपीए सरकार का संकट कम होते नहीं दिख रहा. विपक्ष के नकारात्मक रवैए और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे इन दोनों मंत्रियों को नहीं हटाने के सरकार के शुरुआती रुख के कारण खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण जैसे चुनावी दृष्टि से कांग्रेस के लिए और लोकपाल जैसे भ्रष्टाचार के विरोध के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराए बगैर ही संसद का बजट सत्र दो दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया. बजट सत्र के दूसरे चरण में कायदे से कोई विधायी कार्य नहीं हो सका. यहां तक कि विनियोग एवं वित्त विधेयक और रेल तथा सामान्य बजट भी सरकार को बिना किसी चर्चा और बहस के ही पारित करवाना पड़ा, वह भी तब जबकि विपक्ष सदन से बहिर्गमन के लिए राजी हो गया था.

 कर्नाटक के चुनावी नतीजे आ जाने और संसद के बजट सत्र के अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किए जाने के बावजूद जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा, रेलवे रिश्वतखोरी प्रकरण में सीबीआई का शिकंजा उनके कुनबे से होते हुए सीधे रेल मंत्री बंसल पर कसने लगा और कोयला खदानों के आवंटन घोटाले की जांच कर रही सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट कानून मंत्री अश्विनी कुमार की भूमिका को लेकर सरकार और सीबीआई के संबंधों पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने लगा, कांग्रेस आलाकमान यानी सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए इन दोनों मंत्रियों को बचा पाना असंभव हो गया. हालांकि इसके लिए भी शुक्रवार को राजधानी के सत्ता गलियारे में जबरदस्त राजनीतिक ड्रामा देखने को मिला. रेल मंत्री बंसल कुर्सी बचाने के लिए अंधविश्वासी बन बकरी पूजा करने लगे. लेकिन दोपहर ढलते ढलते सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री निवास जाकर मनमोहन सिंह से साफ कह दिया कि इन मंत्रियों के अब बने रहने का कोई तुक नहीं है. बंसल ने तो त्यागपत्र दे दिया लेकिन अश्विनी कुमार अंत तक इस कोशिश में लगे रहे कि उनके मामले में खुद भी विवादों के घेरे में आ चुके प्रधानमंत्री उन्हें बचा लेंगे लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका. उनके इस्तीफे में देरी होते देख श्रीमती गांधी ने अपने राजनीतिक सचिव अहमद पटेल को प्रधानमंत्री निवास भेजकर साफ करवा दिया कि वह क्या चाहती हैं. नतीजतन कुछ ही देर में अश्विनी कुमार के भी सरकार से बाहर होने की खबर आ गई.

बंसल ने अगर पहले ही त्यागपत्र दे दिया होता तो शायद उनकी और सरकार की भी इतनी दुर्गति और छीछालेदर नहीं हुई होती. लेकिन वह अपने भांजे की करतूत से कोई सरोकार नहीं होने की बेमतलब सफाई देते रहे. पहली बात तो यह कि घर में बैठे बेटे, भतीजे और भांजे की करतूतों का पता नहीं होने की रेलवे जैसे भारी भरकम महकमे के मंत्री की सफाई न सिर्फ बेमानी थी बल्कि इतने गुरुतर मंत्रालय की जिम्मेदारी निभाने की उनकी काबिलियत पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है. अब जिस तरह से उनके भूत और वर्तमान के पिटारे से भ्रष्टाचार के किस्से एक एक कर बाहर आने लगे हैं, ऐसा लगता है कि उनके पहली बार केंद्र में वित्त राज्यमंत्री बनने के साथ ही उनका कुनबा भ्रष्टाचार के काम में सक्रिय हो गया था. सीबीआई को मिल रहे साक्ष्यों के ताजा खुलासों से तो लगता है कि भ्रष्टाचार के कई मामलों में न सिर्फ उन्हें जानकारी थी बल्कि उनकी मिलीभगत भी थी.

लेकिन सरकार का संकट केवल बंसल और अश्विनी कुमार के सरकार से बाहर हो जाने भर से दूर होते नहीं दिखता. विपक्ष इतने भर से संतुष्ट होते नहीं दिखता. शनिवार को भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘कोयला गेट’ में सीधे प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की मांग करके विपक्ष के इरादे जाहिर कर दिए हैं. सवाल है कि अश्विनी कुमार का गुनाह क्या था. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक को बुलाकर स्टेटस रिपोर्ट देखने और उसमें छेड़ छाड़ करने के जिस मामले में उन्हें हटाया गया है, उसमें पहली बात तो यह है कि उनका अपना सीधा कोई हित नहीं जुड़ा था. दूसरे, इस मामले में वह अकेले नहीं थे. उनके साथ प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के आला अफसर भी तो थे. क्या दोनों आला अफसर प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री की इच्छा और निर्देश के बगैर सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में बदलाव कर रहे थे. स्टेटस रिपोर्ट कोयला खदान आवंटन घोटाले को लेकर थी जिसका सीधा सरोकार कोयला मंत्रालय और तत्कालीन कोयला मंत्री मनमोहन सिंह से है. जाहिर सी बात है कि इस मामले में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद का मानसून सत्र जाम कर चुकी भाजपा अगला मानसून सत्र भी नहीं चलने दे सकती है. और फिर इसी मामले में अश्विनी कुमार की ‘बलि’ ने विपक्ष को एक मजबूत राजनीतिक अस्त्र थमा दिया है.

लेकिन संसद को जाम करने की रणनीति से भाजपा अथवा विपक्ष को क्या मिला. बंसल और अश्विनी कुमार के रूप में दो मंत्रियों और उससे पहले भी भ्रष्टाचार के मामले में ही तीन और मंत्रियों-दयानिधि मारन, ए राजा और सुबोधकांत के सरकार से बाहर होने को अपने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की सफलता घोषित कर भाजपाई अपनी पीठ खुद ही थपथपा सकते हैं. लेकिन लगातार, बात बे बात संसद को जाम करने और नकारात्मक विपक्ष की उसकी भूमिका को मतदाता पसंद नहीं कर रहे, इस पर भाजपा और उसे संचालित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ को भी गंभीरता से मंथन और आत्मचिंतन करना चाहिए. क्या वजह है कि केंद्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दों को संसद से लेकर सड़कों पर भी मजबूती से उठाने, उनको लेकर संसद जाम करने के दौरान ही हुए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक विधानसभाओं के चुनाव हुए जिनमें मतदाताओं ने भाजपा को नकार दिया. तीन राज्यों में सरकारें उसके हाथ से निकल गईं जबकि उत्तर प्रदेश में पहले से ही कमजो भाजपा की हालत और भी पतली हो गई. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों ने तो भाजपा को इस बात के लिए भी सोचने को विवश कर दिया है कि भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के बाहर विफल हो जाने के बाद वह अब किस नेता पर दाव लगाएगी. मुश्किल यह है कि भाजपा के पास आज न तो ऐसे नेता हैं और ना ही ऐसे मुद्दे जो अगले लोकसभा चुनाव में उसकी अथवा उसके नेतृत्ववाले गठबंधन की सरकार बनवाने में भी सहायक साबित हो सकें. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा 370 को हटाने और सबके लिए समान नागरिक संहिता जैसे विवादित मुद्दों को तो भाजपा का नेतृत्व भी भुला सा चुका है. कम से कम नई दिल्ली में हुई भाजपा की पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में तो उसने इन मुद्दो की चर्चा तक नहीं की.

 कांग्रेस और भाजपा के भी कर्नाटक में अपना पूरा चुनाव अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही केंद्रित करने के बावजूद वहां येदियुरप्पा से लेकर बेल्लारी के खनन माफिया-चाहे वे जिस किसी पार्टी से अथवा निर्दलीय ही चुनाव लड़े हों-की जीत राजनीतिक दलों के साथ ही हम सबके लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए. उनकी जीत इस बात का संकेत भी है कि मतदाता के लिए भ्रष्ट अथवा भ्रष्टाचार बहुत अधिक मायने नहीं रखते. दरअसल, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सबसे पहले जनमानस को ही खड़ा होना पड़ेगा. तभी इसके विरुद्ध शासन, प्रशासन और न्यायपालिका पर भी सकारात्मक दबाव बनाया जा सकेगा.

लेकिन ‘कोयला गेट’ प्रकरण के बहाने एक अच्छी बात सीबीआई की स्वायत्ता को लेकर शुरू हुई है. मंत्रियों का समूह इसकी औपचारिकताएं तय करने में लगा है. यह कवायद किस हद तक कारगर होती है, इसके मद्देनजर भी इस देश में भ्रष्टाचार और उसके विरोध में चलनेवाले अभियानों का भविष्य तय हो सकेगा. कहीं इस कवायद का हश्र भी ‘लोकपाल’ विधेयक की तरह ना हो जाए, इसका डर भी बना हुआ है. लोकपाल संसद की दहलीज पर अटका पड़ा है जिसे पारित कराने में किसी भी दल की इच्छा और प्रतिबद्धतानजर नहीं आती. चूंकि सीबीआई की स्वायत्तता के पीछे सुप्रीम कोर्ट का डंडा भी है, इसलिए कुछ धुंधली सी उम्मीद भी बंधती है.

(सम्पादित अंश 1 2  मई के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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