याद करो कुरबानी
मधुबन थाना गोलीकांड
मधुबन थाना गोलीकांड के बारे में प्रामाणिक दस्तावेज-साहित्य बहुत कम मिलता है. बचपन में पिताजी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विष्णुदेव स्वाधीनता संग्राम के अंतिम चरण, अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ और उसमें मधुबन के लोगों और अपने योगदान के बारे में बताते थे, लेकिन तब हमारे पल्ले उनकी बातें कुछ खास नहीं पड़ती थीं. इतना भर जानते थे कि वह स्वतंत्रता सेनानी हैं जिनके कारण हम तीन भाइयों और बहन की शहीद इंटर कॉलेज मधुबन में फीस माफ थी और छात्रवृत्ति भी मिलती थी. बाद में जब समझने, समझाने लायक बना तब भी उनसे छिटपुट जानकारियां ही जमा हो सकीं. पूरा विवरण कलमबद्ध करने का हम पिता-पुत्र का आपसी वादा टलते रहा जो कभी पूरा नहीं हो सका. वर्षों पहले, पिता जी के दिवंगत हो जाने के बाद एक बार मधुबन प्रवास के दौरान दुबारी में जनता इंटर कॉलेज के प्रबंधक, स्वतंत्रता सेनानी मंगलदेव ऋषि से मुलाकात के दौरान जब वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन के योगदान के बारे में सिलसिलेवार बताने लगे तो हमने उसे कलमबद्ध कर लिया था लेकिन वह नोट बुक कहीं दबी पड़ी रही. काफी मशक्कत के बाद कुछ दिन पहले उक्त नोटबुक मिल गई. इसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में आजमगढ और मधुबन के योगदान के बारे में प्रकाशित एक विशेषांक में आजमगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी सूर्यवंश पुरी जी का एक लेख मिल गया जिससे मधुबन कांड के बारे में जानने-समझने में सहूलत हुई. इस बीच हमारे गांव कठघराशंकर में रह रहे भतीजे रजनीश बरनवाल, एडवोकेट को पिताजी के हस्तलिखित संस्मरण के कुछ पन्ने मिल गये हैं जिनसे उस समय की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन के लोगों और खासतौर से उनकी भूमिका का पता चलता है. लेकिन उनकी लिखावट को पढ़ पाना दुरूह कार्य है. रजनीश इस काम में लगे हैं. उन्होंने उसमें से कुछ विवरण भेजा भी है. इन सबको संजो, संपादित कर हम यह आलेख प्रस्तुत कर पा रहे हैं. हम इतिहासकार नहीं बल्कि पत्रकार हैं. इस आलेख में कुछ त्रुटियां संभव हैं, कुछ विवरण छूट भी गये हो सकते हैं. सुधार और संशोधन की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी. अगले वर्ष इधर- उधर बिखरे दस्तावेजों को खोज-खंगालकर एक पुस्तिका के प्रकाशन का इरादा है.
अगस्त क्रांति और पिता जी, विष्णुदेव
पिता जी,
विष्णुदेव बताते थे कि किस तरह किशोरावस्था में ही उनपर और उनके साथी युवाओं पर
आजादी का जुनून सवार हो गया था. फतेहपुर जूनियर हाई स्कूल से मिडल तक की पढ़ाई के समय से ही वह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. उनके पिता जी (हमारे दादा
जी) चतुरी राम की ननऊर (नंदौर) गांव में कपड़े की बड़ी दुकान थी. लेकिन उनके बड़े
बेटे, विष्णुदेव का मन पढ़ाई और दुकानदारी में कम
ही लगता था. वह भूमिगत क्रांतिकारियों, कांग्रेस की गतिविधियों में शामिल होने लगे. 1938 में 18 वर्ष की
उम्र में वह ब्लाक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बन गए थे. साल भर बाद उनका संपर्क
क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह और चंद्रेशेखर आजाद के संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट
रिपब्लिकन आर्मी (एसोसिएशन)’ के लोगों से हो गया था. इस संबंध में वह खुद लिखते
हैं, “1937 में देश के क्रांतिकारी योगेश चटर्जी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामदुलारे अंडमान जेल से रिहा होकर गोरखपुर आये
थे. मैं, वहां अपनी सास के इलाज के लिए गया था. कौतूहलवश मैं उनके संपर्क में आया और फिर मेरा संबंध ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' से हो गया. मैं इनके संपर्क में रहकर गुप्त रूप से कार्य करने लगा. उन
दिनों दल का काम था, सशस्त्र क्रांति की तैयारी.”
वह लिखते हैं, “1940-41 में पूज्य महात्मा गांधी के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन चला. आदतन खादी पहनने, सूत कातने व संयमी जीवन व्यतीत करने वाले कांग्रेस के पदाधिकारियों व सदस्यों को ही सत्याग्रह करने की अनुमति मिली थी. उस समय मैं अपने मंडल कांग्रेस कमेटी का कोषाध्यक्ष था. मेरे सत्याग्रह की तिथि 7 अप्रैल निश्चित थी. लेकिन सत्याग्रह के तय समय से पहले ही मुझे मेरे घर से गिरफ्तार कर मधुबन थाने में रखा गया. दूसरे दिन किरिहड़ापुर रेलवे स्टेशन होकर आजमगढ़ ले जाए गये और जिला जेल में बंद किए गये. यह मेरी पहली जेल यात्रा थी. मुझे छः माह की सख्त कैद व 15 रुपये जुर्माने की सज़ा हुई थी. जेल में मुझे समाजवादी विचारधारा का अध्ययन करने व शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला और मैं समाजवादी हो गया. सितंबर 1941 में मैं जेल से रिहा हुआ. फिर कुछ समय अपनी दुकान का काम देखकर कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय रहता था. इस दौरान समाजवादी नेताओं से मेरा संपर्क बढ़ता रहा. 1942 में पूज्य महात्मा गांधी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की रजत जयंती समारोह में आए थे. प्रथम बार उन्हें निकट से भी देखने व उनका भाषण सुनने का मुझे सुअवसर मिला था.”
बहरहाल, भारत
छोड़ो आंदोलन के तहत 16 अगस्त को घोसी और उससे पहले मधुबन थाने पर कब्जा कर
तिरंगा फहराने की योजना का पता पुलिस को चल गया था. 13 अगस्त 1942 को मधुबन के
थानेदार मुक्तेश्वर सिंह ने दुबारी में कांग्रेस के मंडल कार्यालय पर छापा मारकर उसे ध्वस्त करवा दिया. क्षेत्र के
लोगों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया. मंगलदेव (शास्त्री) ऋषि के अनुसार जन कार्रवाई
की योजना पर चर्चा करने के लिए 13 अगस्त को गोबरही गांव में मंगला सिंह के घर
कांग्रेस के नेताओं की बैठक में जिले के वरिष्ठ कांग्रेस समाजवादी नेता राम सुंदर
पांडेय, गोरखनाथ शुक्ल, लोची सिंह और
मंगलदेव (पांडेय) शास्त्री के साथ ही घोसी तहसील के अधिकांश कांग्रेस
नेताओं-कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. तय हुआ कि जनता को साथ लेकर घोसी तहसील पर
कब्जा किया जाए. श्री ऋषि के अनुसार बैठक के बाद वह कमलसागर आए. वहां राम नक्षत्र
पांडेय लाठी में तिरंगा टांगे कहीं जा रहे थे. पूछने पर बताया कि भिसहां गांव में
फतेहपुर मंडल के कांग्रेसियों की बैठक हो रही है. शास्त्री भी उनके साथ हो लिए. भिसहां
की बैठक में फैसला बदला
गया और तय हुआ कि
तहसील पर नहीं बल्कि 15 अगस्त को दिन में 2 बजे मधुबन में ही जनता की भीड़ के साथ थाने
पर कब्जा कर तिरंगा फहराया जाएगा. इसकी विधिवत घोषणा 14 अगस्त को दुबारी गांव में
हुई सभा में रामसुंदर पांडेय ने अपने ओजस्वी भाषण में कर दी थी. इस आशय के संदेश
तुरंत सभी पड़ोसी गांवों में भेज दिए गए. 14 अगस्त की सुबह जन कार्रवाई की तैयारी
के सिलसिले में बीबीपुर जाने के लिए निकले गोरखनाथ शुक्ल को मूरत गोंड एवं झिनकू चौहान
के साथ मधुबन के पास हिराजपट्टी संस्कृत पाठशाला से गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी
गिरफ्तारी की खबर फैलते ही दुबारी गांव के कई लोग उन्हें पुलिस हिरासत से रिहा
कराने के उद्देश्य से इकट्ठा हुए. लेकिन जिला प्रशासन ने जल्दबाजी में उन्हें
आजमगढ़ जेल भेज दिया.
14 अगस्त को ही, बनारस-भटनी रेलवे मार्ग पर मधुबन के करीब लेकिन बलिया जिले में स्थित किरिहड़ापुर और बेल्थरा रोड आदि कई स्टेशनों पर जमा जन समूह ने तोड़ फोड़ की. बेल्थरा रोड में रेलवे स्टेशन लूटा जा रहा था, कहीं मालगाड़ी लूटी जा रही थी तो कहीं रेल की पटरी उखाड़ी जा रही थी. टेलीफोन के तार काटे जा रहे थे. उसी दिन घोसी और मधुबन में भी पुलिस के पास सूचनाएं पहुंची कि भारी 'जन समूह' आगे पश्चिम की ओर बढ़ने से पहले मधुबन और घोसी की ओर कूच करेगा. इसकी तथा स्थानीय स्तर पर भी कांग्रेस के आंदोलनकारियों की योजना और तैयारियों की सूचना जिला कलेक्टर और मजिस्ट्रेट आर.एच. निबलेट को भी भेज दी गई. यह सुनकर कि मधुबन थाने पर हमला करने की योजना बनाई गई है, कलेक्टर ने सर्किल अफसर सुदेश्वरी सिंह, दो सब-इंस्पेक्टर, दो अंडर ऑफिसर, 17 कांस्टेबल और 42 चौकीदारों के साथ खुद 15 अगस्त की सुबह से ही मधुबन थाने में डेरा डाल लिया.
मधुबन थाने के अपराध विवरण रजिस्टर में लिखा है, ‘‘कौड़ी सिंह जमींदार, दुबारी की मदद से थाने की हिफाजत का इंतजाम रात में ही कर लिया गया और इसकी सूचना जिले के आला अफसरों को भी दे दी गई. रामपुर पुलिस चौकी से असलहे (हथियार) और सिपाही रात में ही हटा लिए गए. 15 अगस्त को सबेरे खबर मिली कि एक बड़ी भीड़ गाते बजाते, नारे लगाते, कांग्रेसी झंडे लिए रामपुर चौकी लूटते-फूंकते गई है. उनका प्रोग्राम फतेहपुर डाकखाना, मधुबन डाकखाना और मधुबन थाना लूटने और फूंकने का है. वहां से बाद कामयाबी घोसी तहसील, रेलवे स्टेशन, डाकखाना लूटते फूंकते मुहम्मदाबाद तहसील पर कब्जा करते सदर आजमगढ़ पर हमला करने का है. थाने की हिफाजत के लिए चौकीदार इकट्ठा किए गए. खुशकिस्मती से जब यह काम हो चुका था, जनाब मिस्टर आर एच निबलेट कलेक्टर साहेब बहादुर भी ठाकुर सुदेश्वरी सिंह हल्का मौजूद डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बहादुर दो नफर हथियारबंद सिपाही लेकर मधुबन थाना पर तशरीफ फरमा हुए और वाकयात को सुनकर थाने की सुरक्षा में मशरूफ हुए.” दूसरी तरफ, आंदोलनकारी भी 15 अगस्त की सुबह ही सक्रिय हो गए थे. मधुबन के रास्ते में जो भी सरकारी कार्यालय, पुलिस चौकी, पोस्ट आफिस मिले, उन्हें नष्ट करते मधुबन पहुंचने का निर्णय लिया गया था. रामवृक्ष चौबे, विष्णुदेव, रामनक्षत्र पांडेय, शंकर वर्मा, ठाकुर तिवारी, रमापति तिवारी और अन्य लोगों ने रामपुर चौकी, डाकघर पर हमला किया और सभी सरकारी कागजात नष्ट कर दिए. जन समूह ने वहां भवन पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्र होने और खुद मुख्तारी की घोषणा की. उत्साही भीड़ ने आगे रास्ते में फ़तेहपुर डाकघर को भी तहस-नहस कर दिया. मधुबन पहुंचने से पहले उन्होंने कठघरा शंकर में शराब की दुकान और मवेशी खाने को ध्वस्त किया.
मंगलदेव शास्त्री
के अनुसार चारों दिशाओं से जनता के जत्थे मधुबन थाने की ओर बढ़ने लगे थे. दुबारी
से रामसुंदर पांडेय,
मंगलदेव तो फतेहपुर की ओर से रामबृक्ष चौबे, रामनक्षत्र पांडेय और विष्णुदेव
गुप्ता, के साथ सैकडों लोगों का हुजूम रामपुर का डाकखाना,
फतेहपुर की पुलिस चौकी लूटते हुए गांगेबीर गांव के पास जमा हुआ.
वहां से लोग जुलूस की शक्ल में थाने की ओर बढ़े. पश्चिम की ओर से राम विलास पांडेय
और श्यामसुंदर मिश्र के नेतृत्व में जन समूह दोहरीघाट और घोसी, बीबीपुर, सिपाह, सूरजपुर, दरगाह होते हुए मधुबन पहुंचे. दोपहर
2 बजे तक मधुबन में तकरीबन दस हजार लोग जमा हो गए थे.
जनता का जुलूस मधुबन थाने के पास जाकर रुक गया. विष्णुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं, “तय हुआ कि दो नेता, मंगलदेव शास्त्री (ऋषि जी) और रामवृक्ष चौबे जी थाने में जाकर बात करें. ये लोग थाने में गये और सर्किल इंस्पेक्टर सुदीश्वर सिंह से कहा, ‘देश आजाद हो गया है. जनता का राज कायम हो गया है. आप लोग आत्मसमर्पण करो. हम थाने पर तिरंगा (राष्ट्रीय ध्वज) फहराएंगे.’ लेकिन सर्किल इंस्पेक्टर ने कहा कि आज आप लोग प्रदर्शनकारियों के साथ लौट जाएं. कलेक्टर पूरी फोर्स-तैयारी के साथ थाने में हैं. दूसरे दिन जो चाहे कीजिएगा. हमारे नेताओं ने कहा हमारे साथ इतने लोग हैं, हम तो झंडा फहराएंगे. अंत में सर्किल इंस्पेक्टर ने कहा, अच्छा जाइए, इसे चौरी चौरा अथवा जलियांवाला कांड मत बनाइए. बातचीत से निराश हो दोनों नेता थाने से यह कहते हुए बाहर निकले कि अफसरों का अगर यही रुख है तो फिर यहां भी हमें वही करना होगा जो हमने दूसरी जगहों पर किया है.”
इस बीच साहस और दृढ़ संकल्प के साथ जुलूस 'वंदे मातरम', 'इंकलाब जिंदाबाद', ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘अंग्रेजों वापस जाओ’ और 'गांधी जी की जय' के नारों के साथ थाने की ओर बढ़ा. भीड़ में शामिल कुछ लोगों के हाथों में लाठियां और रास्ते में चुने गए कंकर-पत्थर के टुकड़े थे. भीड़ अपने नेताओं के आदेश की प्रतीक्षा में थी. भीड़ का सामना करने के लिए पुलिस के अधिकारी और हथियारबंद जवान भी पूरी तरह से तैयार थे. थाने की छतों पर हथियारबंद पुलिस के जवान मंडराने लगे थे. थाने की खिड़कियों और सुराखों से बंदूकों की नली बाहर झांकने लगी थीं. लेकिन इसका उत्साहित और उत्तेजित जनता पर खास असर नहीं पड़ रहा था. गांधी जी के ‘करो या मरो’ मंत्र ने उनके भीतर का डर गायब कर दिया था. लोग थाने के मुख्य दरवाजे के पास तक पहुंच गए थे. रामबृक्ष चौबे और मंगलदेव ऋषि को बाहर निकलते देख दाढ़ी, जटा रखे कैथौली गांव के एक उत्साही युवक रामनरायन उर्फ बहादुरलाल श्रीवास्तव ने मंगलदेव शास्त्री को कंधे पर उठा लिया और जोर से चिल्लाया, ‘आदेश हो गया है. आगे बढ़ो.’ भीड़ तो जैसे यही सुनने को ब्याकुल थी. थाने पर सबसे पहले झंडा फहराने का गौरव हासिल करने के लिए कई दिशाओं से नौजवान आगे बढ़े. उनके पीछे 'इन्कलाब जिंदाबाद', 'अंग्रेजों वापस जाओ', 'करेंगे या मरेंगे', 'भारत माता की जय' और 'महात्मा गांधी' की जय के नारे लगाते हुए हजारों लोगों का जन समूह भी थाने की ओर चल पड़ा. भीड़ से कुछ लोग थाने को लक्ष्य कर ढेला पत्थर भी चलाने लगे. यह देख जिला कलेक्टर निबलेट ने ‘फायर’ कहकर गोली चलाने का आदेश दे दिया. इसके साथ ही थाने की छत और दीवारों के पीछे से पुलिस की बंदूकें गरज उठीं. पूरब की ओर से हाथ में तिरंगा लिए थाने में घुस रहे राम नक्षत्र पांडेय को पहली गोली लगी और मधुबन में मातृभूमि के लिए प्रथम शहीद होने का गौरव उन्हें ही प्राप्त हुआ. उसके बाद उत्तर की ओर से रमापति तिवारी आगे बढ़े और पुलिस की गोलियों से छलनी होकर शहीद हो गए. फिर तो तिरंगा लिए आगे बढ़ने की होड़ सी लग गई. लोग पुलिस की अंधाधुंध गोलियों से घायल होकर गिरने लगे. कौन किधर गिरकर मर रहा है और कौन घायल पड़ा है किसी को सुध ही नहीं रही. भीड़ से जवाबी पत्थरबाजी भी हो रही थी. एक पत्थर थाने की छत से घात लगाकर गोलियां बरसा रहे रहे सिपाही हासिम को लगा. वह वहीं गिर गया. उसके हाथ से बंदूक छूट कर नीचे गिर गई. भीड़ ने विजय प्रतीक के रूप में बंदूक ले ली लेकिन अहिंसा व्रत के पालन की शपथ के कारण किसी ने हासिम को हाथ भी नहीं लगाया. उसके गिरते ही जन समूह नये जोश के साथ थाने की ओर बढ़ चला. लगातार दो-तीन घंटे तक जन समूह की पत्थरबाजी और पुलिस की गोलीबारी चलती रहा. कितने मरे, कितने घायल हुए, किसी को सुध नहीं थी. विष्णुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं, “पुलिस की गोलियों से करीब 15 लोग शहीद हुए. सैकड़ों गोली से घायल हुए. मैं उस समय लाल रंग का हाफ पैंट-कमीज़ पहने था. मेरे बगल से धांय की आवाज करते पुलिस की गोली निकल गई. मैं गिर पड़ा लेकिन चोट नहीं लगी थी. फिर उठकर देखा कि भीड़ पीछे हट रही है. मैं भी भीड़ के साथ पीछे चला गया. उधर थाने से गोली चलते देखकर एक चौकीदार यादव थाने से भागने लगा तो उसे भी गोली मार दी गई. वह वहीं ढेर हो गया.”
जिला कलेक्टर निबलेट के अनुसार, '119 राउंड (मस्कट से 86, रिवाल्वर से 27, निजी बंदूकों से 6 राउंड) से अधिक फायरिंग की गई थी.' जमीन लहू लुहान थी. थोड़ी देर बाद, रात के आठ बजे से भीड़ छंटने लगी. लोग शहीद सेनानियों और घायलों की पहिचान कर सुरक्षित और उपयुक्त स्थान पर ले जाने लगे. उधर थाने में भी गोलियों का स्टॉक कम होते जाने से गोलीबारी धीमी पड़ने लगी. लेकिन थाने की घेरा बंदी थोड़ी दूर से भी जारी रही. ताकि जिला कलेक्टर एवं अन्य अधिकारी निकल कर भाग न सकें. थाने के बाहर सड़क पर सभी तरफ के रास्ते और पुलिया काट दी गई. यह स्थिति अगले दो तीन दिनों तक बनी रही. निबलेट और अन्य अधिकारी वस्तुतः दो रात और तीन दिनों के लिए थाने के भीतर ही कैद से रहे. बाद में आजमगढ़ से फौज की टुकड़ी और अतिरिक्त पुलिस के आने के बाद ही वे लोग बाहर आ सके. निबलेट 17 अगस्त की रात को आजमगढ़ पहुंचे.
मधुबन थाने में इस घटना के बारे में दर्ज रिकार्ड के अनुसार “उत्तेजित भीड़ का रुख देखकर जिला मजिस्ट्रेट बहादुर को गोली चलाने का हुक्म देना पड़ा और गोली चलनी शुरू हो गई. करीब दो घंटे तक बाकायदा जंग रही जिसमें कई कांस्टेबिल भी घायल हुए. बलवाइयों के बहुत सारे आदमी घायल और हलाक हुए (मारे गये). रात के नौ बजे के करीब मैदान साफ हो गया. लेकिन तब भी हालत खतरे से खाली नहीं थी. बलवाइयों ने मधुबन-घोसी रोड को भी काट डाला था ताकि कलेक्टर साहब बाहर नहीं जा सकें. यह सूरत महसूरी (घेराव) दो रात तीन दिन तक कायम रही जब तक कि सदर (आजमगढ़) से काफी फोर्स-इमदाद नहीं पहुंच गई. जुमला इलाका (संपूर्ण क्षेत्र) बागी हो गया था. फौजी इमदाद पहुंचने तक मुलाजिमान (कर्मचारियों) का थाने से बाहर निकलना खतरनाक रहा.”
छह-सात घंटे के थाने के घेराव और संघर्ष में
कितने सेनानी शहीद हुए और कितने घायल हुए, इसकी सही और प्रामाणिक संख्या का पता
नहीं. शवों की
पहिचान के आधार पर कुछ लोगों के नाम मिले हैं. इन वीर शहीदों के नाम मधुबन और
कठघराशंकर में भी बने शहीद स्मारकों पर अंकित हैं. इनमें बनवारी यादव (कठघरा),
हनीफ दर्जी (गुरुम्हा), कुमार मांझी (मर्यादपुर), लखनपति कोइरी (नेवादा), मुन्नी कुंवर
(तिघरा), रामनक्षत्र पांडे (कंधरापुर), राजदेव कांदू (रामपुर), रघुनाथ भर (तकिया), रमापति तिवारी (तिनहरी), सोमर गड़ेरी (मर्यादपुर), शिवदान
हरिजन (पहाड़ीपुर), भागवत सिंह (कुचाई), बंधु नोनिया (माछिल) तथा कैथौली के रामनारायण
उर्फ बहादुर लाल श्रीवास्तव (इनका नाम शहीद स्मारक पर अंकित नहीं है लेकिन इनकी
शहादत की पुष्टि अन्य कई सरकारी दस्तावेजों और स्वतंत्रता सेनानियों के संस्मरणों से
भी हुई है). घायलों में से कम से कम दो स्वतंतत्रता सेनानी हमारे पिता जी के बेहद
करीबी राजनीतिक सहयोगियों, पांती गांव के जामवंत प्रसाद गुप्ता और अहिरौली के
कन्हई भर को तो हमने बाद के वर्षों में भी देखा था. जामवंत प्रसाद के गले के पास
की हड्डी को पार करते हुए गोली निकल गई थी जबकि कन्हई भर को गोली पैर में लगी थी.
घाव इतना गहरा था कि वह जीवन पर्यंत लंगड़ाकर ही चलते रहे. लोग उन्हें लंगड़ कह कर
भी बुलाते थे. पांती गांव के राम नरायन मल्ल भी घायल हुए थे. घायलों की पूरी सूची
हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है. लेकिन मधुबन के शहीद और घायल सेनानियों के नाम देखने
से पता चलता है कि उनमें सभी धर्म और जातियों के लोग थे. सही मायने में वह साझी शहादत पर आधारित जनांदोलन था.
जिला कलेक्टर और फौज के लौट जाने के बाद पूरे मधुबन इलाके में पुलिस का भारी दमन चक्र चला. शहीदों और घायलों की खोज कर उनके परिवारवालों को प्रताड़ित किया गया. नेताओं की खोज में गांव-गांव पुलिस की दबिश बढ़ी. शक की बिना और चौकीदारों की सूचना पर भी उनके घर, मकानों को जलाना-फूंकना और लूटना शुरू हुआ. लोग गिरफ्तार किए जाने लगे. स्थानीय नेता फरार हो गए जबकि घायलों और शहीदों के परिवारों के लोग चुपचाप गम के आंसू पी गए. भेद खुल जाने के भय से उन्होंने आह भी नहीं भरी. इस क्रम में हमारे पिताजी (विष्णुदेव गुप्त) का ननऊर (नंदौर) का घर जला दिया गया था. गांव से नंदलाल मल्ल और लाली गड़ेरी गिरफ्तार किए गए थे. भूमिगत होकर आंदोलन में सक्रिय रहे विष्णुदेव अपनी फरारी और भूमिगत जीवन के बारे में लिखते हैं, “हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी से संबंध के कारण मेरे पास पिस्तौल थी. कुछ फरार क्रांतिकारियों के साथ कई योजनाएं बनीं. उन दिनों मैं देवरिया जिले के कपड़वार में स्थित अपनी ससुराल में रह रहा था. देवरिया के कलेक्टर को गोली मारने की योजना में मैं भी शामिल था लेकिन वह योजना सफल नहीं हो सकी. कपड़वार में फरारी के दिनों में एक दिन सवेरे नदी किनारे टहलते समय गांव के चौकीदार व सिपाहियों से भेंट हो गई. उन्होंने मुझे पहचान लिया और पकड़ना चाहा. मैंने पिस्तौल तान दिया और गोली मार देने का डर दिखा कर वहां से बच निकला. इस बीच सूचना मिली कि मुझे हाज़िर करवाने की गरज से घर के लोगों को बहुत तंग किया जा रहा था.”
16 नवंबर 1942 को ‘अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट दो’ के
आह्वानवाले पर्चों के साथ विष्णुदेव गिरफ्तार कर लिए गए. इस मुकदमे में उन्हें दो
वर्ष की तथा मधुबन थाना कांड में शामिल होने के आरोप में दस और तीन साल की सजा
हुई. जेल में रहते ही 1944 में उनके पिता चतुरी राम का निधन हो गया लेकिन वह जेल
से बाहर नहीं आ सके. उनकी रिहाई 1946 में ही संभव हो सकी थी.
आजमगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी आर. एच. निबलेट
की निगाह में मधुबन की लड़ाई ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों
में लड़े जा रहे युद्धों की तुलना में किसी से कम नहीं थी. तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो
ने अपने नोटिंग में बताया कि मधुबन की घटना के बारे में निबलेट से मिले विवरण ने 1857 की याद दिला दी.
नोटः 15 अगस्त 1942 को और उसके बाद मधुबन थाना कांड की प्रतिक्रिया में आजमगढ़ जिले और खासतौर से मधुबन के आसपास के इलाकों में हुई जन प्रतिक्रिया के बारे में अगली कड़ी में..