Monday, 27 September 2021

Hal Filhal : Social Engineering by Political Parties in Uttar Pradesh



यूपी में सोशल इंजीनियरिंग का दौर


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/vQHW41wZiJo


    
    पांच-छह महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए राजनीतिक शतरंज की बिसात अभी से बिछनी शुरू हो गई है. पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के रूप में पहला दलित मुख्यमंत्री दे कर कांग्रेस ने न केवल पंजाब बल्कि अन्य चुनावी राज्यों में भी अपने राजनीतिक विरोधियों को शह देने की कोशिश की है. हालांकि चुनाव आयोग की आचार संहिता लागू होने में महज तीन-चार महीने ही बाकी रह गए हैं, रविवार, 26 सितंबर को चन्नी मंत्रि परिषद के विस्तार में भी सामाजिक एवं क्षेत्रीय संतुलन बनाए रखने की कोशिश की गई. चन्नी का दलित चेहरा सामने रखकर कांग्रेस उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी दलित, ब्राह्मण और अल्पसंख्यक मतदाताओं के अपने परंपरागत जनाधार को वापस पाने की कोशिश में है. दूसरी तरफ, सत्तारूढ़ भाजपा ने भी रविवार को ही योगी मंत्रि परिषद का विस्तार कर सोशल इंजीनियरिंग का अपना पुराना फार्मूला लागू करने की कोशिश की है. इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के रणनीतिकार भी यूपी में नए सिरे से सोशल इंजीनियरिंग में जुट गए हैं. सभी दलों का फोकस दलित और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के साथ ही सवर्ण ब्राह्मणों के बीच अपनी पैठ बढ़ाने और मजबूत करने पर केंद्रित होते दिख रहा है.

भाजपा आलाकमान की बेचैनी

   
    उत्तर प्रदेश को लेकर, पिछले विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हुई भाजपा के आलाकमान का विश्वास कुछ डगमगा गया सा लगता है. कोरोना की महामारी में उचित इलाज और ऑक्सीजन के अभाव में बड़े पैमाने पर हुई मौतों, मृतकों के सम्मानजनक अंतिम संस्कार नहीं हो पाने के कारण नदी में तैरते और नदी किनारे रेत में दबे शवों की तस्वीरें सार्वजनिक होने, महंगाई, बेरोजगारी और किसान आंदोलन के साथ ही कानून-व्यवस्था की बदतर स्थिति, दलितों पर बढ़ते अत्याचार-उत्पीड़न और बलात्कार की घटनाएं उत्तर प्रदेश में भाजपा के आलाकमान को परेशान किए हैं. उसे नहीं लगता कि मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुसलमान का उसका परंपरागत एजेंडा इस बार भी कारगर हो सकेगा. इसका एक कारण शायद यह भी है कि उसके तथा संघ परिवार की तरफ से हिंदू-मुसलमान के बीच नफरत का माहौल बनाने के इरादे से दिए जाने वाले उत्तेजक बयानों पर दूसरी तरफ से खास प्रतिक्रिया नहीं हो रही है. सांप्रदायिक दंगे नहीं हो रहे हैं. इस कारण सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी नहीं हो पा रहा है. भाजपा और संघ परिवार की इस रणनीति को निष्क्रिय बनाने में किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत की भूमिका भी महत्वपूर्ण मानी जा रही है. भाजपा शासन में प्रयागराज के प्रतिष्ठित बाघंबरी मठ के महंत और भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या की गुत्थी एवं दर्जन भर अन्य साधु-संतों की हत्या को लेकर हिंदू समाज वैसे भी उद्वेलित है. नरेंद्र गिरि की हत्या-आत्महत्या के मामले में उनके पांच सितारा शिष्य' आनंद गिरि के साथ ही भाजपा के नेता का नाम भी सामने आने से पार्टी की किरकिरी हुई है. आनंद गिरि के भी भाजपा नेताओं के साथ करीबी संबंध सामने आ रहे हैं. उन पर अपने गुरु को उनके कथित अश्लील वीडियो के सहारे ब्लैक मेल करने के आरोप हैं. 

    उत्तर प्रदेश में कभी सवर्ण ब्राह्मण-बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा में इन दिनों और खासतौर से योगी आदित्यनाथ के शासन में जिस तरह से उनके सजातीय राजपूतों का वर्चस्व बढ़ा है ब्राह्मण समाज के लोग खुद को पीड़ित और उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. दलितों और पिछड़ी जातियों के उत्पीड़न, बच्चियों के साथ बलात्कार और हत्या की घटनाएं लगातार बढ़ने के कारण दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच भी भाजपा के प्रति नाराजगी बढ़ी है. इस सबके चलते ही एक बार तो भाजपा आलाकमान ने राज्य में नेतृत्व परिवर्तन का मन भी बना लिया था लेकिन मुख्यमंत्री, योगी आदित्यनाथ के अड़ जाने के कारण ऐसा नहीं हो सका. इसके बाद ही भाजपा के रणनीतिकारों ने उत्तर प्रदेश में आदित्यनाथ के अलावा, ब्राह्मण समाज, दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के बड़े चेहरे भी सामने लाने और उनके सहारे उनके जाति-समाज को आकर्षित करने के इरादे से भाजपा आलाकमान ने उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के अपने पुराने फार्मूले पर काम करना शुरू कर दिया है.

    
गृह मंत्री अमित शाह के साथ बेबी रानी मौर्या: यूपी भाजपा का दलित चेहरा !
    इस रणनीति के तहत ही पिछले पखवाड़े उत्तराखंड की राज्यपाल बेबी रानी मौर्या से त्यागपत्र दिलवाकर उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ने की घोषणा के बावजूद भाजपा आलाकमान की योजना उन्हें उत्तर प्रदेश में भाजपा के दलित (जाटव) चेहरे के बतौर पेश करने की है. पूरे उत्तर प्रदेश में उनकी रैलियां-सभाएं करवाने के कार्यक्रम बन रहे हैं. इसके साथ ही भाजपा ने केंद्र सरकार में राज्य मंत्री अनुप्रिया पटेल के अपना दल और संजय निषाद की निषाद पार्टी के साथ चुनावी गठजोड़ की घोषणा भी की है. संजय निषाद वही हैं, जिनका ‘पैसे लेने’, ‘मार डालने’ जैसे विवादित बयानों का स्टिंग पिछले दिनों वायरल हुआ था. निषाद के साथ ही हाल ही में भाजपा में शामिल जितिन प्रसाद, वीरेंद्र गुर्जर एवं गोपाल अंजान को विधान परिषद में नामित कर भाजपा के पक्ष में सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद रविवार, 26 सितंबर को की गई. इसमें से जितिन प्रसाद ब्राह्मण तथा बाकी तीन अन्य और अति पिछड़ी जातियों से हैं. 

    रविवार की शाम को ही भाजपा के आलाकमान के दबाव में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी मंत्रि परिषद का विस्तार भी किया लेकिन मंत्री-राज्य मंत्री उन्होंने अपनी और संघ की मर्जी से ही बनाए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पसंद के पूर्व नौकरशाह, विधान पार्षद अरविंद शर्मा और निषाद पार्टी के संजय निषाद को उन्होंने मंत्री नहीं बनाया. इसके बजाय उन्होंने जितिन प्रसाद (ब्राह्मण) को मंत्री बनाने के साथ ही अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों के तीन लोगों-छत्रपाल गंगवार (कुर्मी), संगीता बिंद (निषाद) और धर्मवीर प्रजापति (कुम्भकार), गैर जाटव अनुसूचित जाति के पलटू राम और दिनेश खटिक के साथ ही अनुसूचित जनजाति के संजय गोंड को राज्य मंत्री बनाया. हालांकि यूपी में जितिन प्रसाद की पहिचान एक ब्राह्मण नेता के रूप में कभी नहीं रही, भाजपा के रणनीतिकार सोचते हैं कि वह इस सबसे बड़े राज्य में ब्राह्मणों की नाराजगी कुछ कम कर सकेंगे. वैसे भी, भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि लाख नाराजगी के बावजूद ब्राह्मण और बनिए बड़े पैमाने पर भाजपा के साथ ही बने रहेंगे. 

मंत्रिपरिषद का विस्तार : मर्जी के मंत्री, राज्य मंत्री
    इस मंत्रि परिषद विस्तार के जरिए भाजपा ने ब्राह्मण समाज के साथ ही गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित जातियों को साधने की कोशिश की है. भाजपा की योजना इन नए मंत्रियों को उनके जातीय समूहों के बीच लाल बत्ती वाली गाड़ियों पर घुमाकर यह जताने की है कि देखो, मनुवादियों की पार्टी कही जानेवाली भाजपा दलितों और अन्य एवं अति पिछड़ी जातियों का कितना खयाल रखती है. इसके पहले केंद्र में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंत्रि परिषद के विस्तार में भी उत्तर प्रदेश से एक ब्राह्मण और आधा दर्जन राज्य मंत्री दलित और ओबीसी ही बनाए गए थे.

    हालांकि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव सिर पर होने, तीन-चार महीने बाद ही आचार संहिता लागू हो जाने के मद्देनजर एक तो प्रशासनिक अधिकारी मंत्रियों की वैसे भी नहीं सुनते और फिर राज्य मंत्रियों के पास गाड़ी पर लाल बत्ती लग जाने, बंगला, कार्यालय, सुरक्षा गार्ड और कुछ कारकून मिल जाने के अलावा वैसे भी कुछ काम नहीं होते. उनके सरकारी फाइलें बमुश्किल ही भेजी जाती है. इसको लेकर दलित एवं अति पिछड़ी जातियों के बीच उनके प्रतिनिधियों के साथ भेदभाव की शिकायत भी बढ़ सकती है. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने दलित और पिछड़ी जातियों के प्रति भाजपा के इस प्रेम को उसका ढोंग करार देते हुए कहा है कि अगर इतना ही प्रेम है तो भाजपा की केंद्र सरकार जातिगत आधार पर जनगणना क्यों नहीं करवाती. एक तरफ तो सार्वजनिक उपक्रमों को निजी पूंजीपतियों के हाथों बेचकर सरकार इन उपक्रमों की नौकरियों में आरक्षण समाप्त कर रही है और दूसरी तरफ उनके कुछ मंत्रियों को राज्य मंत्री बनाकर अपने दलित-ओबीसी प्रेम का दिखावा कर रही है. यूपी में दलितों-पिछड़ी जातियों पर अत्याचार उत्पीड़न लगातार बढ़ रहा है.

      अभी तक भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग गैर जाटव दलित एवं गैर यादव पिछड़ी जातियों के बीच पैठ बढ़ाने पर केंद्रित रही है. पिछले कुछ चुनावों में उसे इसका राजनीतिक डिविडेंड भी मिला है. भाजपा की रणनीति अब दलितों में भी सबसे अधिक जाटव (चमार) आबादी पर भी फोकस कर बसपा सुप्रीमो मायावती के परंपरागत जनाधार में सेंध लगाने की लगती है. शायद इसलिए भी जाटव समाज की बेबी रानी मौर्या को आगे किया जा रहा है. लेकिन रविवार की भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग में बेबी रानी मौर्या कहीं नहीं दिखीं. न विधानपरिषद में और न ही मंत्रि परिषद में! ऐसे में, कर्मकांडी भाजपा की श्राद्ध पक्ष में 'सोशल इंजीनियरिंग' पर आधारित यह चुनावी रणनीति कितनी कारगर होगी! पोगापंथी लोगों का प्रचार है कि श्राद्ध पक्ष में शुभ कार्य नहीं किए जाते. भाजपा के लोग भी अभी तक श्राद्ध पक्ष में हुए पंजाब में कांग्रेस के नेतृत्व परिवर्तन को लेकर मजे ले रहे थे लेकिन योगी आदित्यनाथ ने श्राद्ध पक्ष में ही अपनी मंत्रि परिषद के विस्तार में एक ब्राह्मण को मंत्री बनाकर इस टोटके को मिटा दिया है. 
 

ब्राह्मणों को दोबारा जोड़ने में लगी बसपा    


    
त्रिशूल धारी मायावती : छीजते जनाधार की चिंता!
    उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक कभी कांग्रेस के परंपरागत जनाधार रहे हैं लेकिन 1980 के दशक के अंतिम वर्षों में राम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन के क्रम में ब्राह्मण भाजपा तथा अल्पसंख्यक मुसलमान समाजवादी पार्टी के करीब होते गए. उसी दौर में कांशीराम के बामसेफ आंदोलन और मायावती के साथ मिलकर उनकी बहुजन राजनीति और बहुजन समाज पार्टी के राजनीतिक परिदृश्य पर तेजी से उभरने के बाद उत्तर प्रदेश में दलित और खासतौर से जाटव बड़े पैमाने पर उनके साथ जुड़ते गए. तब उनका नारा होता था, ‘तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ और ‘ब्राह्मण, बनिया, क्षत्रिय छोड़, बाकी सब हैं, डीएस 4’. इस दलित जनाधार के बूते ही मायावती उत्तर प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री बनीं और प्रधानमंत्री बनने के सपने भी देखने लगीं. 2007 के विधानसभा चुनाव से पहले मायावती ने सवर्ण ब्राह्मण, दलित और अल्पसंख्यक मतदाताओं के जनाधार पर काबिज होने की गरज अपनी रणनीति में बदलाव किया. खासतौर से ब्राह्मणों को साधने की गरज से उन्होंने भाई चारा सम्मेलन शुरू किए. उनके नारे भी बदल गए, 'पंडित शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा', 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा-विष्णु, महेश है'. इस सोशल इंजीनियरिंग ने गजब का असर भी दिखाया और उन्होंने विधानसभा में 30.43 फीसदी वोटों के साथ 206 सीट हासिल कर पहली बार पूर्ण बहुमत की अपनी सरकार बनाई. 2009 के लोकसभा चुनावों में भी बसपा 27.4 फीसदी वोटों के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही. लेकिन साल 2012 में और उसके बाद भी उनके सोशल इंजीनियरिंग की चमक फीकी पड़ती गई. उनका जनाधार भी बिखरते गया. सबसे बड़ा झटका 2014 के लोकसभा चुनावों में लगा, जब यूपी में बसपा को वोट तो 20 फीसदी मिले लेकिन सीट एक भी नहीं मिल सकी. 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 23 फीसदी वोट के साथ सिर्फ 19 सीटें ही मिलीं, जिनमें से अब सिर्फ सात ही साथ बचे हैं. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ चुनावी तालमेल से उसे दस सीटें मिलीं लेकिन सपा से चुनावी तालमेल तोड़ लेने के बाद अब यकीनी तौर पर नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कितने मन से उनके साथ रह गए हैं.

    
बेटे के साथ बसपा के प्रबुद्ध (ब्राह्मण) सम्मेलन में सतीश मिश्र :
भाजपा से नाराज ब्राह्मण बसपा से जुड़ेंगे!
    अब एक बार फिर से मायावती और उनकी बसपा ब्राह्मणों की ओर रुख कर रही हैं. उनके सिपहसालार कहे जाने वाले राज्यसभा सांसद सतीश मिश्रा ब्राह्मण समाज को वापस बसपा से जोड़ने के इरादे से प्रबुद्ध वर्ग (ब्राह्मण) सम्मेलन कर रहे हैं. मिश्र कहते हैं कि यूपी में भाजपा सरकार में ब्राह्मण उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार हो रहे हैं. शासन-प्रशासन में उनकी उपेक्षा हो रही है. करीब दो दर्जन साधु-संत, पुजारियों की हत्याएं हो चुकी हैं. यह समाज इनके पास धर्म के नाम पर आया था. लेकिन जब देखा कि अयोध्या में भगवान राम के नाम पर भी लोगों को ठगा गया, तो ब्राह्मण अब भाजपा से विमुख हो रहे हैं. उनके अनुसार ब्राह्मण का मान-सम्मान और स्वाभिमान सिर्फ बीएसपी में ही सुरिक्षत है. बसपा ने अपने शासन में उन्हें उचित भागीदारी दी थी. हालांकि हाल के दिनों में रामवीर उपाध्याय जैसे बसपा के कई बड़े ब्राह्मण नेता पार्टी में उचित मान सम्मान नहीं मिलेने को ही बहाना बनाकर बसपा से दूर हुए है.

    लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि जिस दलित समाज को अपना कोर वोट मानकर बसपा सोशल इंजीनियरिंग का यह प्रयोग कर रही है, क्या वह पूरी तरह से उसके साथ है? अल्पसंख्यक समाज के लोग तो कबके उनका साथ छोड़ चुके हैं. सच तो यह है कि उत्तर प्रदेश हो या देश के किसी अन्य हिस्से में अल्पसंख्यकों, ओबीसी और दलितों पर होने वाले अत्याचार-उत्पीड़न, दलित बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं को लेकर मायावती और उनकी बसपा को कभी आक्रामक और आंदोलित होते नहीं देखा गया. संघर्ष और आंदोलनों को वह समय नष्ट करने की कवायद मानते हुए अपने लोगों को संगठित होने की सलाह देते रही हैं. हालांकि जुलाई, 2017 में उन्होंने यह कहते हुए राज्यसभा से इस्तीफा दिया था कि अब वह संसद छोड़कर दलित-उत्पीड़न के खिलाफ सड़कों पर उतरेंगी. लेकिन तबसे उन्हें कहीं भी सड़क पर उतरते, आंदोलित होते नहीं देखा गया. केंद्र में हो अथवा उत्तर प्रदेश में भी वह सत्तारूढ़ दल के बजाय कांग्रेस और सपा जैसे विरोधी दलों के खिलाफ ही ज्यादा आक्रामक दिखती हैं. भाजपा के प्रति उनके नरम रुख के कारण, उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें भाजपा की 'बी टीम' भी कहने लगे हैं. इसके चलते भी अल्पसंख्यक, ओबीसी और दलित समाज के लोग उनसे कटते गए. 2017 में जीते उनकी पार्टी के 18 विधायकों में से दस सपा तथा दो भाजपा के शिविर में दिखने लगे. अपने इस परंपरागत दलित जनाधार को एकजुट रखने और उसे विस्तार देने की गरज से ही मायावती ने पंजाब में ढाई दशक के बाद शिरोमणि अकाली दल के साथ चुनावी गठजोड़ किया. इस गठबंधन ने सत्ता मिलने पर किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा भी की गई. लेकिन कांग्रेस ने पंजाब में एक दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाकर उनकी इस चुनावी रणनीति ओर वादे की भी हवा निकाल दी है.

     
चंद्रशेखर : अपना कुछ बनाएंगे या मायावती का खेल बिगाड़ेंगे !
इस बीच मायावती के ही जाटव समाज के युवा नेता चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी पहली बार चुनाव मैदान में उतरने जा रही है. पूरे उत्तर प्रदेश में बड़े पैमाने पर दलित और खासतौर से-पढ़े लिखे दलित युवा उनके आक्रामक तेवरों के कारण उनकी तरफ आकर्षित भी हो रहे हैं. अभी यह तय नहीं है कि वह किस दल अथवा गठबंधन के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे. उनकी बातचीत कांग्रेस के साथ ही सपा-लोकदल गठबंधन के साथ भी हो रही है. अगर उनका अखिलेश यादव की सपा और जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल के साथ चुनावी गठजोड़ हो गया और अगर कांग्रेस भी इस गठजोड़ का हिस्सा बन गई तो यह बसपा के साथ ही भाजपा के लिए भी बहुत भारी पड़ सकता है.

    संगठन और जनाधार की कमी से जूझती कांग्रेस


    कांग्रेस के साथ दिक्कत यही है कि उसके पास इस समय उत्तर प्रदेश में न तो कोई ठोस संगठन है और न ही कोई ऐसा नेता जिसकी पूरे उत्तर प्रदेश में अपनी धाक और पहिचान हो. जिस प्रियंका गांधी वाड्रा के नाम पर यूपी का चुनाव लड़ने की बात कही जा रही है, उनके प्रति उत्तर प्रदेश में और खासतौर से युवाओं और महिलाओं के बीच आकर्षण तो दिख रहा है, लेकिन उन्होंने अभी तक इस बात के ठोस संकेत नहीं दिए हैं कि वह यूपी में अपनी राजनीति को लेकर बहुत गंभीर हैं. कुछ दिन यूपी में सक्रिय रहने के बाद वह अचानक गायब सी हो जाती हैं.

प्रियंका गांधी वाड्रा : उत्तर प्रदेश को लेकर कितनी गंभीर !

कांग्रेेस के बड़े नेता रहे जितेंद्र प्रसाद के यूपीए शासन में केंद्र सरकार में राज्य मंत्री रहे युवा नेता जितिन प्रसाद के बाद पीढ़ी दर पीढ़ी कांग्रेस के साथ रहे कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र ललितेशपति त्रिपाठी के भी नाता तोड़ लेने के बाद यूपी में कांग्रेस की हालत और भी पतली हो गई है. 2017 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस के साथ सीटों का तालमेल करने के बावजूद कांग्रेस की हालत पतली ही रही. शायद इसलिए भी कांग्रेस में एक बड़ा तबका इस बार किसी से तालमेल करने के बजाय प्रियंका गांधी वाड़ा को सामने रखकर अपने बूते ही चुनाव लड़ने पर जोर दे रहा है. हालांकि अभी तक यह तय नहीं हो पा रहा है कि प्रियंका खुद भी विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी कि नहीं!

    ज्यादा उत्साहित हैं अखिलेश !


     
अखिलेश यादव: भाजपा का दलित-पिछड़ा प्रेम दिखावा!
    समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश में भाजपा और योगी आदित्यनाथ के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है. सत्ता किसके हाथ लगेगी, यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन हर कोई मान रहा है कि यूपी में मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा के बीच ही होने वाला है. अखिलेश यादव के साथ उनके सजातीय यादव और अल्पसंख्यक मतदाता पूरी तरह से लामबंद दिख रहे हैं. अन्य पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों में भी उनका समर्थन इधर बढ़ा है. सपा के प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल पूरे उत्तर प्रदेश में यात्रा कर अपने सजातीय पटेल कुर्मी किसानों को सपा के साथ जोड़ने में लगे हैं. चाचा शिवपाल सिंह यादव के साथ अखिलेश यादव की अनबन खत्म सी हो गई लगती है. सपा और उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के बीच चुनावी गठजोड़ हो जाने की बात भी कही जा रही है. इसके साथ ही जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोकदल, केशवदेव मौर्य के महान दल, संजय चौहान की जनवादी पार्टी के साथ भी सपा का चुनावी गठबंधन हो गया है. भीम आर्मी के चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के साथ भी उनके चुनावी गठजोड़ की बात चल रही है. ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के साथ भाजपा की बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनके भी इसी गठजोड़ के साथ आने की बात कही जा रही है. किसान आंदोलन और उसके नेता राकेश टिकैत का समर्थन भी इसी गठजोड़ को मिलने की बात कही जा रही है. 

    
लालजी वर्मा और राम अचल राजभर के साथ अखिलेश यादव :
 सामाजिक समीकरण बनाने की कवायद
  इधर भाजपा और बसपा से नाराज दलित एवं अन्य पिछड़ी जातियों के कद्दावर नेता भी अखिलेश यादव के साथ जुड़ते जा रहे हैं. विधायक दल के नेता और प्रदेश बसपा के अध्यक्ष रहे लाल जी वर्मा (कुर्मी) और राम अचल राजभर की अखिलेश यादव से बात हो गई है. बसपा के एक और बड़े, बुजुर्ग नेता विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव राजभर ने भी अखिलेश यादव का समर्थन किया है. उनके पुत्र सपा में शामिल हो गए हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों में शुमार होने वाले राजभर मतों की अच्छी तादाद बताई जाती है.अखिलेश यादव परशुराम जयंती मनाने के साथ ही परशुराम का बड़ा मंदिर बनाने की बात कर ब्राह्मण समाज को भी साधने में लगे हैं. वह भी प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन कर रहे हैं. लेकिन कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल हो या कुछ और वह अभी खुलकर मैदान में नहीं दिख रहे हैं और फिर उनमें तथा उनके करीबी लोगों में चुनावी जीत को लेकर अति विश्वास भी कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. 

    इस बीच आम आदमी पार्टी और सांसद असदुद्दीन ओवैसी की मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन और पीस पार्टी भी उत्तर प्रदेश के चुनावी समर में सक्रिय हो रहे हैं. हालांकि उनकी भूमिका अभी तक इस या उस दल अथवा गठबंधन का राजनीतिक खेल बनाने अथवा बिगाड़ने से अधिक नहीं दिख रही है. इस तरह से उत्तर प्रदेश में बिछ रही राजनीतिक शतरंज की बिसात पर मोहरे फिट करने, सामाजिक समीकरण बनाने और बिगाड़ने के खेल जारी हैं. भविष्य में इस खेल में कुछ और आयाम भी जुड़ेंगे जो अगले साल फरवरी-मार्च महीने में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे को प्रभावित करेंगे. 


Tuesday, 21 September 2021

Hal Filhal : Congress Master Stroke In Punjab !


पंजाब में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2DV4tvcoloo

   
     
इस समय राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन का दौर सा चल रहा है. एक सप्ताह पहले ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ वाली राजनीतिक शैली में भाजपा के आलाकमान ने गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी समेत उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में 24 सदस्यों की नई मंत्रि परिषद बनवा दी. उसके सप्ताह भर बाद ही विधायकों के भारी विरोध के मद्देनजर कांग्रेस के आलाकमान ने भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह अपेक्षाकृत युवा, दलित सिख नेता चरणजीत सिंह चन्नी के हाथों में पंजाब की कमान देकर ‘राजनीतिक खेला’ कर दिया है.
    
चरणजीत सिंह चन्नी के साथ राहुल गांधी : पंजाब में पहले
 दलित मुख्यमंत्री का 'मास्टर स्ट्रोक'
    पहली बार किसी दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाए जाने को कांग्रेस या कहें राहुल गांधी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा रहा है. तीन बार विधायक, एक बार नेता विरोधी दल और हाल तक अमरिंदर सिंह की सरकार में मंत्री रहे चन्नी के नाम और चेहरे को न सिर्फ पंजाब के 32 फीसदी अनुसूचित जाति के मतदाताओं के बीच बल्कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भी भुनाया जा सकता है. उनके साथ जाट सिख नेता सुखजिंदर सिंह उर्फ सुक्खी रंधावा और हिंदू नेता ओमप्रकाश सोनी को उपमुख्यमंत्री का भी शपथ ग्रहण करवा कर पंजाब में सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन बिठाने की कोशिश भी की गई है. एक और जाट सिख नवजोत सिंह सिद्धू को पहले ही पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा चुका है. अब पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के लिए भी एक दलित सिख समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री का विरोध मुश्किल होगा. चन्नी को कांग्रेस आलाकमान का वरदहस्त भी प्राप्त है. उनके शपथग्रहण कार्यक्रम में राहुल गांधी खुद भी शामिल हुए.

   चुनावों के मद्देनजर नेतृत्व परिवर्तन !

    
    
भूपेंद्र पटेल के साथ नरेंद्र मोदी : नए मुख्यमंत्री के साथ नई मंत्रिपरिषद
पंजाब 
के साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी चार-पांच महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं. गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा के चुनाव अगले साल ही नवंबर-दिसंबर में कराए जाएंगे. इन नेतृत्व परिवर्तनों को आगामी विधानसभा चुनावों के साथ जोड़कर भी देखा जा रहा है. 2022 के विधानसभा चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहे हैं, राजनीतिक दल चुनावी जीत सुनिश्चित करने की गरज से अपने संगठन और सरकार को चुस्त-दुरुस्त करने और आवश्यक होने पर नेतृत्व में फेरबदल की कवायद में भी जुट गए हैं. भाजपा के आलाकमान ने इन चुनावों के मद्देनजर ही पहले उत्तराखंड में दो-दो मुख्यमंत्री बदल दिए. और अभी एक सप्ताह पहले गुजरात में न सिर्फ अपने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी बल्कि उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को ही नाकारा और नाकाबिल मान कर उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया. यहीं नहीं उनके लिए 24 सदस्यों की नई मंत्रिपरिषद भी बनवा दी गई जिसमें रूपाणी मंत्रिपरिषद के एक भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया. हालांकि इस नेतृत्व परिवर्तन के समय किसी का जाहिरा विरोध सामने नहीं आया था, मीडिया से बातें करते समय रूपाणी सरकार में उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे पाटीदार समाज के कद्दावर नेता नितिन पटेल की आंखों में आंसू छलक आए थे. पार्टी में अंदरूनी विरोध को लेकर ही मंत्रिपरिषद की घोषणा और मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह को एक दिन के लिए टालना पड़ गया था.
आहत मन नितिन पटेल: इस बार भी सिली मायूशी

    उत्तराखंड, असम और कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के बाद भाजपा आलाकमान की इच्छा तो उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन की थी लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आलाकमान के सामने झुकने के बजाय तनकर खड़े हो जाने के कारण यह संभव नहीं हो सका. यहां तक कि आलाकमान की इच्छानुसार वह अपनी मंत्रिपरिषद में फेरबदल को भी राजी नहीं हुए. विवश होकर भाजपा आलाकमान को कहना पड़ा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. भाजपा में अभी हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें लगाई जा रही हैं. देर-सबेर उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन के अनुमान भी लगाए जा रहे हैं. इसका कारण चाहे चुनावों से पहले पार्टी और सरकार में ‘ओवरहालिंग’ रहा हो या फिर पश्चिम बंगाल में चुनावी हार और वहां लगातार हो रही दुर्गति के कारण प्रधानमंत्री मोदी की चुनाव जितानेवाली साख में आ रही कमी, भाजपा आलाकमान राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन के जरिए संगठन और सरकार पर भी उनकी मजबूत पकड़ के संकेत देना चाहता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पार्टी और संघ परिवार में भी गाहे-बगाहे हिंदुत्व के एक अन्य ‘पोस्टर ब्वॉय’ के रूप में उभर रहे या उभारे जा रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भविष्य में उन्हें राजनीतिक चुनौती मिलने के कयास भी लगते रहते हैं. हालांकि केंद्र से लेकर राज्यों में भी सत्तारूढ़, भाजपा के आलाकमान और संघ के नेतृत्व की मजबूती और अंदरूनी अनुशासन के चलते भी भाजपा शासित राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन बहुत खामोशी और सुगमता के साथ संपन्न हो गया लेकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं हो सका.

कांग्रेस को करनी पड़ी मशक्कत     


    
नवजोत सिंह सिद्धू के साथ चरणजीत सिंह चन्नी:आगे क्या !
    गुजरात में भाजपा का नेतृत्व परिवर्तन जितनी सहजता से संपन्न हो गया, कांग्रेस को पंजाब में इसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी. पद से हटने या हटाए जाने के बाद से ही खुद को अपमानित महसूस करते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बागी तेवर अपना लिया. वह सोमवार को चरणजीत सिंह चन्नी, रंधावा और उनके करीबी कहे जानेवाले सोनी के शपथग्रण समारोह में भी नहीं आए. अपने उसी फार्म हाउस में बैठे रहे, जहां से उन पर हाल तक अपनी सरकार चलाते रहने के आरोप लगते रहे. उनके त्यागपत्र के बाद पहले तो उनकी सरकार में असंतुष्ट मंत्री रहे सुखजिंदर सिंह रंधावा को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुने जाने और उनके साथ दलित महिला अरुणा चौधरी और हिंदू समाज से भारत भूषण ‘आशु’ को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की बात सामने आई लेकिन रंधावा ने जिस प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के साथ मिलकर कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ खुली बगावत की, आखिरी समय में उन्हीं के विरोध की वजह से वह मुख्यमंत्री नहीं बन सके. उनका नाम सामने आने पर सिद्धू ने मुंह फुला लिया था. सिद्धू खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष रहते आलाकमान उन्हें मुख्यमंत्री बनाने को राजी नहीं था और फिर उनके नाम पर अमरिंदर सिंह ने वीटो भी लगा दिया था. सिद्धू को अभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता, यह स्पष्ट होने के बाद उन्होंने किसी और जाट सिख नेता के बजाय किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की बात चलाई जिस पर कांग्रेस आलाकमान भी राजी हो गया. और इस तरह से कांग्रेस विधायक दल में चरणजीत सिंह चन्नी के नाम पर सहमति बनाई गई. इसके साथ ही सुखजिंदर सिंह रंधावा और अमृतसर से लगातार पांचवीं बार विधायक ओमप्रकाश सोनी को उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात तय हुई.

सुखजिंदर सिंह रंधावा: मुख्यमंत्री बनते-बनते
बन गए उप मुख्यमंत्री
    राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह ही कांग्रेस आलाकमान पर एक अरसे से पंजाब में भी नेतृत्व परिवर्तन के लिए अंदरूनी दबाव बना हुआ था. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस का आलाकमान अभी तक कोई निर्णय नहीं कर सका है लेकिन पंजाब आसन्न विधानसभा के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान को फैसला करना ही पड़ा. 80 सदस्यों के कांग्रेस विधायक दल में 50-60 विधायकों के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विरोध में लामबंद हो जाने और 17 सितंबर को नेतृत्व परिवर्तन के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने के बाद आलाकमान को भी लगने लगा कि विधायकों का विश्वास खोते जा रहे अमरिंदर सिंह की कप्तानी में कांग्रेस की चुनावी नाव पार नहीं लग सकेगी. हालांकि गांधी परिवार और खासतौर से सोनिया गांधी के साथ उनके पति स्व. राजीव गांधी के जमाने से ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के पारिवारिक रिश्ते बहुत करीबी रहे हैं. पंजाब में वह कांग्रेस के सबसे बड़े जनाधारवाले कद्दावर लेकिन बुजुर्ग नेता भी हैं. अन्य राज्यों में भाजपा की मोदी लहर के बावजूद अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हो सकी थी. श्रीमती गांधी के कहने पर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते अमृतसर में अरुण जेटली के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़कर उन्हें धूल भी चटाई थी. 

कैप्टन के विरोध में अपने ही लामबंद 

    
    लेकिन अगले साल मार्च महीने में उम्र के 80 साल पूरा करनेवाले कांग्रेस के इस कैप्टन के खिलाफ पिछले कई महीनों से उनकी अपनी ही पार्टी के नेता-विधायकों का बड़ा तबका लामबंद हो रहा था. पार्टी के नेता, विधायक और मंत्री भी उनके खिलाफ कांग्रेस के चुनावी वादों को पूरा नहीं करने, ड्रग्स रैकेट के साथ ही बेअदबी मामले में विपक्षी अकाली दल के नेतृत्व के प्रति नरमी बरतने, पार्टी के विधायकों की उपेक्षा, नौकरशाही के भरोसे ‘महाराजा स्टाइल’ में अपने फार्म हाउस से सरकार चलाने के गंभीर आरोप खुलेआम लगा रहे थे. भाजपा से कांग्रेस में आए पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू अपने सहयोगी विधायक, भारतीय हाकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह के साथ मिलकर असंतुष्ट विधायकों को लामबंद करने के साथ ही उनके असंतोष को लगातार हवा दे रहे थे. हालांकि गांधी परिवार के साथ उनकी करीबी के कारण उनके विरुद्ध अंदरूनी कलह और पार्टी के विधायकों के विरोध के हर दाव विफल साबित हो रहे थे.

कैप्टन अमरिंदर सिंह: अपमानित !
    लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आलाकमान से अपनी करीबी का लाभ लेकर समय रहते असंतुष्टों के साथ सुलह-सफाई की कोशिश नहीं की. यहां तक कि कई बार बुलाकर समझाने और अपनी कार्यशैली में सुधार करने के कांग्रेस आलाकमान के निर्देशों की भी वह अनदेखी ही करते रहे. वह पंजाब में दो-तीन नौकरशाहों के भरोसे एक स्वतंत्र, स्वेच्छाचारी क्षत्रप की तरह से अपने फार्म हाउस से सरकार चला रहे थे. किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री को पार्टी चलाने के लिए दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय को फंड देना होता है, लेकिन पंजाब से उन्होंने एक धेला भी नहीं दिया. आम जनता तो दूर पार्टी के विधायक भी उनसे मिल नहीं पाते थे. कांग्रेस के नेता बताते हैं कि उनके सुबह सो कर उठने, तैयार होकर किसी से मिलने का समय दोपहर बारह बजे के बाद शुरू होता है. यह बात भाजपा नेता अरुण जेटली ने भी 2014 में अमृतसर से उनके विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ते समय एक प्रेस कान्फ्रेंस में कही थी. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसके जवाब में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “जेटली गलत बोल रहा है, मैं दिन में एक बजे के बाद ही किसी से मिलता हूं.” पिछले दिनों केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग को नया रंग रूप दिया तो राहुल गांधी ने यह कहकर उसका विरोध किया था कि शहीदों की निशानियों के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इस मामले में राहुल गांधी के बयान का समर्थन करने के बजाय केंद्र सरकार के पक्ष में बयान दिया. और भी कई अवसरों पर वह प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के पक्ष में बोलते रहे. वह जब भी दिल्ली आते, प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से अवश्य मिलते थे. हाल के महीनों में राहुल गांधी और प्रियंका वैसे भी उन्हें पसंद नहीं करते थे, जलियांवाला बाग प्रकरण में अमरिंदर के सरकार समर्थक बयान को लेकर उनके प्रति आलाकमान की नाराजगी और बढ़ गई.

आलाकमान का भरोसा भी टूटा

    
    
सोनिया गांधी और राहुल: भारी मन से कहना पड़ा 'सारी अमरिंदर'
इस
बीच बड़बोले और वाचाल छवि के नवजोत सिंह सिद्धू लगातार अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री के विरुद्ध विपक्ष के किसी नेता से भी तीखी और आक्रामक भाषा में आरोप लगाते रहे. उन्हें शांत करने की गरज से कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को अध्यक्ष बनाकर प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप दी. लेकिन सिद्धू के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी कैप्टन और क्रिकेटर का झगड़ा सुलझ नहीं सका. कई बार एक मंच पर होने के बावजूद दोनों के बीच के रिश्तों की कड़वाहट खुलकर सामने आते रही. अमरिंदर सरकार के खिलाफ सिद्धू की बयानबाजी जारी रही तो अमरिंदर सिंह भी उनके विरुद्ध अपनी भड़ांस निकालते रहे. इस क्रम में सिद्धू अमरिंदर विरोधी विधायकों को एकजुट करते हुए आलाकमान तक यह बात पहुंचाने में कामयाब रहे कि कैप्टन के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस पंजाब का चुनाव नहीं जीत सकती. कई बार की चेतावनियों के बाद भी जब बात नहीं बनी और 50-60 विधायकों ने अमरिंदर के विरोध में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अल्टीमेटम सा दे दिया तो सोनिया गांधी ने उन्हें भारी मन से ‘आइ एम सॉरी अमरिंदर’ कहा और चंडीगढ़ में विधायक दल की बैठक बुलाए जाने की बात बताई.आलाकमान के इस फैसले से आहत और अपमानित महसूस करते हुए अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया और उससे पहले ही राजभवन जाकर राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को अपना त्यागपत्र थमा दिया. हालांकि विधायक दल की बैठक में कांग्रेस के 80 में से 78 विधायक शामिल हुए. बैठक में अमरिंदर सिंह के कार्यकाल और उनके कामकाज की सराहना का एक प्रस्ताव भी पारित करते हुए भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन मिलते रहने की उम्मीद जाहिर की गई.
अमरिंदर सिंह: बागी तेवर !

    लेकिन कैप्टन ने अपने राजनीतिक भविष्य का विकल्प खुला होने और कोई भी फैसला अपने साथियों-सहयोगियों से मंत्रणा के बाद ही करने की बात कही. जब उनके उत्तराधिकारी के चुनाव की बात चल रही थी, उन्होंने साफ कर दिया था कि मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धू उन्हें कतई कबूल नहीं. उन्होंने सिद्धू को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा का मित्र भी बताते हुए कहा कि उनकी राय में सीमावर्ती राज्य पंजाब में सिद्धू का मुख्यमंत्री बनना देश हित में नहीं होगा. यह कह कर एक तरह से कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिद्धू के नाम पर न सिर्फ वीटो सा लगा दिया बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य का संकेत भी दे दिया है. उन्होंने परोक्ष रूप से भाजपा की भाषा बोलते हुए राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अपने प्रदेश अध्यक्ष और कांग्रेस को भी घेरने की कोशिश की क्योंकि सिद्धू मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो हैं ही. भाजपा ने इस बात को लेकर कांग्रेस की आलोचना भी की. लेकिन कांग्रेस नेताओं का एक बड़ा तबका और राजनीतिक प्रेक्षक भी सिद्धू के बारे में अमरिंदर सिंह के द्वारा कही गई बातों को जायज नहीं मानते. सिद्धू के विरोध में तमाम बातें कही जा कती हैं लेकिन उन पर इस तरह का आरोप चस्पा नहीं होता. कुछेक कार्यक्रमों में शिरकत और मुलाकातों के आधार पर किसी को पाकिस्तान, उसके प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष का मित्र नहीं कहा जा सकता. वैसे भी सिद्धू और इमरान खान क्रिकेटर रह चुके हैं और इस लिहाज से उनकी पहले से ही मेल-मुलाकात स्वाभाविक है. पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भाजपा पर पलटवार करते हुए कहा कि इमरान खान के साथ सिद्धू की मित्रता तब से है जब वह भाजपा में थे. और करतारपुर साहिब कारिडोर खोले जाते समय अगर पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बाजवा और सिद्धू गले मिले तो इसमें गलत क्या था. हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी तो उनके घर जाकर पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से गले मिले थे. उनके साथ बिरयानी खाई थी. कांग्रेस के एक और नेता याद दिलाते हैं कि कैप्टन पर भी तो उनके राजनीतिक विरोधी पाकिस्तान की एक प्रभावशाली डिफेंस जर्नलिस्ट अरूसा आलम के साथ वर्षों से गहरे और अंतरंग रिश्ते होने के आरोप लगते रहे हैं. इससे उनकी देशभक्ति पर सवाल तो नहीं किए जा सकते.

चन्नी के सामने चुनौतियां


    देखने वाली बात यह होगी कि पंजाब में पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में सरकार की कमान संभाल चुके चरणजीत सिंह चन्नी के बारे में कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुख क्या होता है. आज वह उनके शपथग्रहण समारोह में नहीं आ सके. अभी भी कांग्रेस के एक-डेढ़ दर्जन विधायकों के उनके साथ होने की बात कही जा रही है. हालांकि नेतृत्व परिवर्तन के बाद इनमें से कितने उनके साथ रह जाएंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन इससे इतर नये मुख्यमंत्री  चन्नी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगले चार-पांच महीनों में ही होनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करने की होगी. इसके लिए न सिर्फ कैप्टन अमरिंदर सिंह बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और कई खेमों में बंटी कांग्रेस के गुटबाज नेताओं को भी साधना होगा. बड़बोले सिद्धू को नियंत्रित रखना अपनेआप में ही एक बड़ी चुनौती होगी. अभी उन्हें अपनी मंत्रिपरिषद का गठन भी करना होगा. उनके दो उपमुख्यमंत्रियों में से एक सिद्धू के तो दूसरे कैप्टन अमरिंदर सिंह के करीबी बताए जाते हैं. चन्नी खुद भी सिद्धू के साथ मिलकर अमरिंदर सिंह के विरुद्ध झंडा उठाए रहते थे. उन्हें संगठन और सरकार में तालमेल बिठाना पड़ेगा. अमरिंदर सिंह की सरकार के रहते कांग्रेस के तकरीबन डेढ़ दर्जन अधूरे वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी चन्नी सरकार पर होगी. इन अधूरे वादों को लेकर विपक्ष से अधिक कांग्रेस के चन्नी सहित तमाम असंतुष्ट नेता, विधायक अमरिंदर सरकार के विरुद्ध हमलावर रहे हैं. इसके अलावा उनका खुद का दामन भी बेदाग नहीं रहा है. अमरिंदर सरकार में मंत्री रहते कई तरह के आरोपों के साथ उनको लेकर विवाद खड़े होते रहे हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद विपक्ष उन्हें मुद्दा बना सकता है. एक महिला आइएएस अधिकारी को उनके द्वारा अतीत में अश्लील मेसेज भेजने का मामला भी तूल पकड़ सकता है. भाजपा की नेता और महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने इस मुद्दे को अभी से उछालना शुरू कर दिया है. 

    
हरीश रावत: बयान को लेकर गलतफहमी!
    इस बीच पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत के एक बयान को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया है. रावत ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि पंजाब में विधानसभा का अगला चुनाव प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो क्या चन्नी केवल चुनाव तक ही मुख्यमंत्री रहेंगे! इसको लेकर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने आपत्ति की है. नेतृत्व परिवर्तन के समय मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए जाखड़ ने ट्वीट कर कहा कि रावत का यह बयान चौंकाने वाला है. मुख्यमंत्री के अधिकार और उनकी राजनीतिक हैसियत को कमजोर करने की कोशिश है. हालांकि इसके तुरंत बाद ही कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष रणदीप सिंह सुरजेवाला ने आधिकारिक रूप से स्पष्ट किया कि विधानसभा के चुनाव मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़े जाएंगे. चुनाव अभियान में पार्टी के अन्य बड़े नेता भी शामिल होंगे. 

कारगर होगा मास्टर स्ट्रोक !

    
    पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ कितना कारगर होगा, इसका पता विधानसभा के अगले चुनाव में ही चल सकेगा. नया नेतृत्व कांग्रेस की चुनावी नाव को पार लगा सकेगा या इसका हश्र भी वैसा ही होगा जैसा अप्रैल 1996 में पंजाब में ही चुनाव से 10-11 महीने पहले कांग्रेस के हरचरण सिंह बराड़ की जगह राजेंद्र कौर भट्टल को मुख्यमंत्री बनाने के बाद हुआ था. उस चुनाव में कांग्रेस को बुरी पराजय का सामना करना पड़ा था. हालांकि कांग्रेस आलाकमान और उसके रणनीतिकारों का मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन से अमरिंदर सिंह और उनकी सरकार के विरुद्ध ‘ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ काफी हद तक निष्प्रभावी हो सकेगा. चन्नी सरकार अमरिंदर सरकार के कुछ महत्वपूर्ण अधूरे कार्यों को पूरा करके पंजाब के लोगों का दिल जीत सकती है. चरणजीत सिंह चन्नी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेंस में केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खुला विरोध, किसान हितों के लिए कुरसी क्या जान भी कुरबान करने, बेअदबी और ड्रग रैकेट के गुनहगारों को उनके किए की कड़ी सजा दिलाने, किसानों के बिजली के बकाया बिल माफ करने, कमजोर तबके के लोगों के लिए बिजली पानी मुफ्त करने जैसी घोषणाएं करके सकारात्मक पहल की है. उनके पास समय कम है और काम अधिक लेकिन वह इस तरह की ठोस शुरुआत के जरिए अपनी और अपनी सरकार की प्राथमिकताओं को सामने रखकर पंजाब के मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश कर सकते हैं. पंजाब में पहली बार किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने न सिर्फ पंजाब में अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की बल्कि किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने के भाजपा के और किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने के आम आदमी पार्टी के चुनावी वादे की भी हवा निकाल दी है. कांग्रेस की कोशिश चरणजीत सिंह चन्नी को घुमाकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी अपने परंपरागत जनाधार रहे अनुसूचित जाति के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की भी हो सकती है. इसके मद्देनजर उत्तर प्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बसपा सुप्रीमो मायावती के वक्तव्यों और ट्वीट में अभी से बेचैनी नजर आने लगी है. भाजपा कांग्रेस के दलित प्रेम को चुनावी बता रही है. लेकिन कांग्रेस ते पहले भी कई दलित नेताओं को कई राज्यों में मुख्यमंत्री बना चुकी है, भाजपा ने अभी तक किसी राज्य में किसी दलित को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया ! जाहिर सी बात है कि पंजाब में कांग्रेस के इस दलित कार्ड या कहें मास्टर स्ट्रोक का जवाब भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के पास भी नहीं दिख रहा है.








Monday, 13 September 2021

Hal Filhal: Farmer's Protest becoming Mass Movement

जनांदोलन बनता किसान आंदोलन !


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/nETSJwcB76k    


    भारत सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में पिछले 9-10 महीनों से दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का आंदोलन अब एक जनांदोलन का रूप लेते जा रहा है. अब इसके साथ बेरोजगार युवा और मजदूर भी जुड़ने लगे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के 27 सितंबर को भारत बंद के अह्वान को कई प्रमुख मजदूर संगठनों का समर्थन मिलने की सूचनाएं भी मिल रही हैं.संवेदनहीन मोदी सरकार के पुलिसिया दमन, सत्तामुखी मुख्यधारा की मीडिया की बेरुखी और बेरहम मौसम की मार को झेलते हुए भी ये किसान दिल्ली से लगने वाली उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं पर लंबे समय से डेरा डाले हैं. कड़ी धूप, कड़कड़ाती ठंड और मूसलाधार बारिश भी इन किसानों का मनोबल तोड़ पाने में विफल रही है. तकरीबन छह सौ किसान इस किसान आंदोलन के क्रम में जान गंवा चुके हैं.

    
कृषि कानूनों के वापस होने तक घर वापसी नहीं !
    सरकार के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने, यहां तक कि उसमें किसान नेताओं के मनमुआफिक किसी तरह का फेरबदल करने पर भी राजी नहीं होनेवाली सरकार की जिद के कारण बेनतीजा ही रही है. किसान आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें, मीडिया के जरिए किसान आंदोलन को बदनाम करने, उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग से जुड़े होने के आरोपों से लेकर आंदोलन के केवल धनाढ्य किसानों और बिचौलियों का पक्षधर बताने के कुप्रचार भी किसानों के जज्बे और हौसले को डिगा नहीं सके हैं. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से घोषित किया है कि किसान अपनी मांगें पूरी होने यानी कृषि कानूनों की वापसी होने तक घर लौटनेवाले नहीं हैं. चाहे इसके लिए उन्हें 2024 तक या उससे आगे भी इस संघर्ष को क्यों न खींचना पड़े. 

    करनाल में झुकी हरियाणा सरकार

    
    
करनाल में पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज
हरियाणा
के करनाल में आंदोलनकारी किसानों के दबाव में राज्य सरकार के झुकने और उनकी अधिकतर मांगें मान लेने के बाद किसान नेताओं को मनोबल और बढ़ा है. गौरतलब है कि 28 अगस्त को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के करनाल आगमन का विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद किसानों ने अपनी मांगें पूरी होने तक करनाल में मिनी सचिवालय के सामने डेरा डाल दिया था. करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के प्रदर्शनकारी किसानों के सिर फोड़ देने के स्पष्ट निर्देश का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने और उस निर्देश पर अमल करते हुए पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद खट्टर सरकार के खिलाफ पहले से ही नाराज चल रहे किसानों का आक्रोश और बढ़ गया था. किसानों के दबाव में आई सरकार किसान नेताओं के बीच हुई बातचीत में बनी सहमति के बाद किसानों ने मिनी सचिवालय से अपना धरना हटा लिया है. सरकार ने 28 अगस्त के पुलिस लाठी चार्ज की न्यायिक जांच हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश से करवाने, एक महीने के भीतर जांच रिपोर्ट पेश करने, लोकतंत्र में भी जलियांवालाबाग हत्याकांड के गुनहगार माइकल ओ डायर की भाषा बोलनेवाले करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हां को एक महीने के लिए छुट्टी पर भेजने के साथ ही पुलिस लाठीचार्ज में घायल किसान, जिनकी अगले दिन मृत्यु हो गई थी, के परिवार के दो लोगों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है.
आयुष सिन्हाः लोकतंत्र में माइकेल ओ डायर की भाषा !

     इधर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसानों की महापंचायत ने इस आंदोलन की दिशा बदलनी शुरू कर दी है. तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ शुरू हुआ किसान आंदोलन एक नये तरह के जनांदोलन का रूप लेने लगा है. अब किसान नेता कृषि कानूनों के विरोध के साथ ही मोदी सरकार पर देश के सरकारी संसाधनों, सार्वजनिक उपक्रमों को अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचने का आरोप भी लगाने लगे हैं. इसके साथ ही महंगाई, बेरोजगारी के सवाल भी उठाते हुए किसान नेता वोट की चोट से सत्ता परिवर्तन की बात भी करने लगे हैं. यह भी एक कारण है कि अब किसान आंदोलन के साथ मजदूर और बेरोजगार युवा भी जुड़ते जा रहे हैं. तमाम विरोधी दलों का खुला समर्थन इस आंदोलन के पक्ष में दिखने लगा है. और अब तो सत्तारूढ़ दल भाजपा, इसके सहयोगी और इसे संचालित करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के लोग भी कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलित किसानों के पक्ष में बोलने लगे हैं.

    किसान महापंचायत ने भाजपा की नींद उड़ाई  


    
 किसान महापंचायत में राकेश टिकैतः सरकार नहीं मानी तो वोट की चोट
लेकिन मोदी सरकार न जाने किन कारणों से इन सब बातों को अभी भी अनसुना कर रही है. हालांकि पिछले 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत और उसमें सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने के इरादे से दिए गए अल्लाहु अकबर, हर हर महादेव और जो बोले सो निहाल का नारा लगाकर किसान नेताओं ने भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है. उन्हें लगता है कि इस तरह के नारों के साथ किसान नेताओं और खासतौर से राकेश टिकैत के गूंगी बहरी और संवेदनहीन सरकार को वोट की चोट देने के आह्वान का न सिर्फ उत्तर प्रदेश और पंजाब बल्कि उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भाजपा की राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है. इस तरह के नारों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उनके प्रयासों में पलीता लगते दिख रहा है. महा पंचायत में किसान नेताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि 2013-14 में वे लोग भाजपा और आरएसएस के द्वारा फैलाए गए भ्रमजाल के शिकार हो गए थे. 
    
    गौरतलब है कि 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी भाजपा के पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर आधारित चुनावी माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. भाजपा को इसका भरपूर राजनीतिक लाभ न सिर्फ 2014 के संसदीय आम चुनाव में बल्कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला था. इस बार किसान आंदोलन ने न सिर्फ किसानों को बल्कि इन इलाकों में दशकों पुराने सामाजिक सद्भाव और भाई चारे को भी लामबंद किया है. इस महा पंचायत में राकेश टिकैत ने साफ तौर पर भाजपा और आरएसएस के लोगों पर सुनियोजित साजिश के तहत सांप्रदायिक दंगे करवाने के आरोप लगाते हुए कहा कि इस बार भी इन लोगों की साजिश 2022 के चुनाव से पहले किसी बड़े हिंदू नेता की हत्या करवाने की हो सकती है. उन्होंने इसके लिए भाजपा के नेताओं के साथ ही आम जनता को भी आगाह किया.

   कितनी जायज हैं किसानों की आशंकाएं !


    किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने 27 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है. उनके इस आह्वान को तमाम मजदूर संगठनों का समर्थन भी मिल रहा है. किसान नेताओं की बदली रणनीति पर काबू पाने की गरज से मोदी सरकार ने मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत के तीन दिन बाद, 8 सितंबर को रबी फसलों-दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की खरीद के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में लाक्षणिक वृद्धि कर किसानों के सामने राजनीतिक चुग्गा फेंकने की कोशिश की. लेकिन किसान नेता इससे अप्रभावित ही रहे. उनका कहना है कि एमएसपी तो बढ़ती घटती रहती है, उनकी मांग तो कृषि उपज मंडियों की व्यवस्था जारी रखने और एमएसपी पर किसानों की फसल की खरीद की संवैधानिक गारंटी देने की है. 

    इसके साथ ही किसान नेता करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के बर्बर और किसान विरोधी रवैए को सामने रखकर कह रहे हैं कि इससे भी जाहिर होता है कि कृषि कानून किस हद तक किसान हितों के विरुद्ध है. कृषि कानून के तहत किसानों और व्यापारी-पूंजीपतियों के बीच किसी तरह का विवाद होने पर उसका निपटारा किसी अदालत में नहीं बल्कि एसडीएम के दरबार में होगा. आयुष सिन्हां के रवैए से समझा जा सकता है कि किसानों को किस तरह का न्याय मिलेगा. यही नहीं मंडियों के बने रहने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के लिए संवैधानिक गारंटी की मांग कर रहे किसानों का तर्क है कि इस तरह की गारंटी नहीं होने के बाद पूंजीपति वैसा ही करेंगे जैसे हिमाचल प्रदेश में गौतम अडानी की कंपनी ने सेब किसानों के साथ किया है. पहले तो मंडी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए उन लोगों ने दाम बढ़ाकर किसानों से सेब की खरीद की लेकिन इस बार सेब के दामों में गुणवत्ता के हिसाब से औसतन 15-20 रु. प्रति किलो के हिसाब से कमी कर दी है. इसी तरह से उनका कहना है कि कृषि कानूनों के बनने के बाद से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा कई अन्य राज्यों में भी कृषि उत्पादन मंडी समितियों में भारी कमी आई है. 

    सरकारी आंकड़ों में किसानों की बदहाली


    किसान नेताओं का मानना है कि कृषि कानूनों के अमल में आने पर किसानों का उनकी जमीन और उपज पर भी हक नहीं रह जाएगा. कार्पोरेट ताकतों को कृषि पर कब्जा करने का हक मिल जाएगा. इस बीच भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसओ) ने बताया है कि देश में खेती-बाड़ी करने वाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार कर्ज में डूबे प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 74,121 रुपये का कर्ज था. सर्वे में कहा गया है कि उनके कुल बकाया कर्ज में से तकरीबन 70 प्रतिशत बैंकों, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिए गये थे. जबकि 20.5 प्रतिशत कर्ज पेशेवर सूदखोरों से लिए गये. एनएसओ ने जनवरी-दिसंबर 2019 के दौरान देश के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार की भूमि और पशुधन के अलावा कृषि परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन किया. सर्वे के अनुसार कृषि वर्ष 2018-19 (जुलाई-जून) के दौरान प्रत्येक कृषक परिवार की हर महीने औसत आमदनी महज 10,218 रुपये थी. एक परिवार में औसतन चार-या पांच सदस्य होते हैं. इस हिसाब से प्रति किसान यह आमदनी दो से ढाई हजार रुपए प्रति माह ही बैठती है. एनएसओ की यह रिपोर्ट आंखें खोलनेवाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के संसदीय चुनाव से पहले और बाद में भी किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाने, उनकी आमदनी दो गुनी करने की बातें करते रहे हैं. एनएसओ के ये आंकड़े उनके इन वादों को जमीनी सच की कसौटी पर परखने में भी मददगार हो सकते हैं.

मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत में सांप्रदायिक सद्भाव की बातें
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशों का खुलासा !
     कुल मिलाकर देखा जाए तो किसानों का आंदोलन अब केवल तीन कृषि कानूनों को रद्द करने का आंदोलन मात्र नहीं रह गया है. अब इसने एक वृहत्तर जनांदोलन की शक्ल लेनी शुरू कर दी है. मोदी जी और उनकी सरकार में शामिल लोगों को पता होगा कि 1973-74 का गुजरात आंदोलन कुछ कालेजों में होस्टेल की फीस बढने और भोजन की खराब गुणवत्ता के लेकर शुरू हुआ था. उसकी ही तर्ज पर बिहार आंदोलन शुरू हुआ. आगे चलकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी उस आंदोलन में शामिल होने के बाद उसे जेपी आंदोलन या कहें संपूर्ण क्रांति आंदोलन भी कहा जाने लगा. आगे चलकर इसमें कुछ और राजनीतिक घटनाक्रम भी जुड़े जिनके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया था. लेकिन 1977 में हुए संसदीय आम चुनाव में उन्हें और उनकी कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा था. पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी. कहने का मतलब सिर्फ यही है कि समय रहते अगर मोदी सरकार ने अतीत से सबके लेकर कृषि कानूनों पर अपनी जिद छोड़कर कृषि और किसानों के हित में कोई ठोस फैसला नहीं किया तो उसे भी आगे चलकर इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसकी बानगी उन्हें अगले साल फरवरी-मार्च महीने में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब सहित पांच राज्य विधानसभाओं और फिर उसी साल, 2022  के अंत में होनेवाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकती है.

नोट ः तस्वीरें इंटरनेट से ली गई हैं

Tuesday, 7 September 2021

Hal Filhal : PM MATERIAL NITISH KUMAR !

तो क्या नीतीश कुमार हैं पीएम मटीरियल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/xXi2Ze03CuQ

तो क्या नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल यानी प्रधानमंत्री पद के काबिल बताया जाना एक राजनीतिक शिगूफा भर है! क्या इसका राजनीतिक मकसद अपने राजनीतिक सहयोगी भाजपा पर दबाव बनाना, जनता दल (यू) को राष्ट्रीय दल की पहिचान दिलाना भर है या नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती देने के इरादे से विपक्ष का चेहरा बनने की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं! या फिर यह जद (यू)  के अंदरूनी मतभेदों को दबाने और खबरों में बने रहने की कवायद भर है!

    इन दिनों बिहार की राजनीति में पीएम यानी प्रधानमंत्री मटीरियल की चर्चा बहुत जोरों पर है. बिहार में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनानेवाले नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के लोग एक अरसे से पी एम मटीरियल मानते और बताते रहे हैं लेकिन इस बार जब 29 अगस्त को जनता दल (यू) की राष्ट्रीय परिषद ने इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पास कर दिया तो बात में गंभीरता नजर आने लगी है. पक्ष और विपक्ष में भी तर्क कुतर्क दिए जाने लगे हैं. यह बात और है कि अभी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई रिक्ति नजर नहीं आ रही है.

नीतीश कुमारः राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल !
    जाहिरा तौर पर नीतीश कुमार पहले भी इससे इनकार करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही कहा है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते. पार्टी में लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं. लेकिन उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में इस तरह का राजनीतिक प्रस्ताव कैसे पास हो गया ! ऐसा तो संभव ही नहीं है कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना यह प्रस्ताव तैयार और पास भी हो गया हो ! हालांकि इस प्रस्ताव को पास करते समय भी उनकी पार्टी के नेताओं ने यह साफ नहीं किया कि वह प्रधानमंत्री कब और कैसे बनेंगे. लोकसभा के चुनाव पौने तीन साल बाद होने हैं और अभी वह जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हैं, उसमें प्रधानमंत्री का पद और भविष्य की दावेदारी भी खाली नहीं है. उनके समर्थक और उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताने वाले उनकी पार्टी के नेता क्या यह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा में उम्र के पैमाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे और भाजपानीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित राजग बिहार की बादशाहत की तरह ही लोकसभा में 15-20 सांसद की राजनीतिक ताकतवाले नीतीश कुमार को नेतृत्व की दावेदारी सौंप देगा! फिलहाल तो यह द्विवा स्वप्न से अधिक कुछ और नहीं लगता.
 

कैसे बनेंगे वैकल्पिक चेहरा !


    इसके लिए दूसरा विकल्प 2024 में संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना वैकल्पिक चेहरा मानकर चुनाव लड़े. तो क्या उनकी निगाह एक बार फिर से पलटी मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में बननेवाले किसी संभावित राजनीतिक गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर लगी है. एक अरसे से उन्हें विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सर्वमान्य विकल्प के बतौर देखा जाते रहा है. संभव है कि मौजूदा विपक्ष में कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों, वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति के अभाव, ममता बनर्जी और कुछ अन्य क्षेत्रीय नेताओं की संभावित दावेदारी के मद्देनजर उनके भीतर भी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगी हों. उनके करीबी लोगों को लगता है कि वह विपक्ष का चेहरा बन सकते हैं. जेल से बाहर आने के बाद से ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा फिर से खड़ा करने की कवायद में लगे हैं. वह नीतीश कुमार तथा कुछ अन्य नेताओं से मिल भी चुके हैं. अगले 25 सितंबर को उन्होंने अपने पिता, पूर्व उप प्रंधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती के अवसर पर हरियाणा के जींद में एक बड़ा समारोह (मिलन समारोह) आयोजित कर उसमें नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, तेलुगु देशम पार्टीप के चंद्रबाबू नायडू, रालोद के जयंत चौधरी, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कान्फ्रेंस के डा. फारुख अब्दुल्ला और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को भी बुलाया है. इनमें से कौन कौन वहां जुटता है और आगे की रणनीति क्या बनती है, यह देखने की बात होगी. हालांकि ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों स्वयं हरियाणा में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका राजनीतिक कुनबा बिखर चुका है. उनके पुत्र अजय चौटाला और पौत्र दुष्यंत चौटाला हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे हैं.  

राजीव रंजन उर्फ ललन सिंहः जद (यू) को राष्ट्रीय पहिचान दिलाना है
    नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बताने के पीछे उनकी और उनके जद (यू) की राष्ट्रीय पहिचान बनाने की कवायद भी हो सकती है. जद (यू) नेताओं की कोशिश उत्तर प्रदेश और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी अगर भाजपा से बात बन जाती है तो उसके साथ मिलकर और सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर अपने बूते भी तकरीबन आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की लगती है. इसके लिए अभी उनके पास प्रचुर समय भी है. भाजपा के साथ उनकी बात भी हो रही है. अगले साल ही जम्मू-कश्मीर और गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. जद (यू) की कोशिश इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कुछ सीटें और अपेक्षित मत प्रतिशत हासिल कर चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता हासिल करने की हो सकती है. मणिपुर, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में उसकी पहले भी मौजूदगी रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कश्मीर यात्रा कर वहां भी पार्टी के पांव पसारने और चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. केंद्र सरकार में कृषि, भूतल परिवहन एवं रेल जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग तरह की पहिचान भी रही है.

पहले भी मन में उठी थी हूक !

    
    नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री मटीरियल वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इससे पहले भी कई बार हिलोर मार चुकी हैं. 2014 के संसदीय चुनाव के समय भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए जाने के विरोध में उनकी पार्टी ने भाजपा और राजग से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उनकी कोशिश कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ने की थी लेकिन बात नहीं बनी और लोकसभा चुनाव में उनके हिस्से में केवल दो ही सीटें आई थीं. भाजपा, लोजपा ओर रालोसपा का गठबंधन बिहार में तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब हुआ था. लेकिन इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस और अपने राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ मिलकर लड़ा और शानदार जीत हासिल कर एक बार फिर वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी के पास राजद से कुछ कम सीटें थीं और इसको लेकर वह कुछ दबाव भी महसूस करते थे. उस समय भी, 2019 के संसदीय चुनाव में कुछ विपक्षी दलों की ओर से उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की कवायद शुरू हुई. कुछ समाजवादी बौद्धिकों ने भी उनके पक्ष में दिल्ली से माहौल बनान शुरू किया था. लेकिन नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें यूपीए में संयोजक जैसा कोई पद देकर यूपीए उनके नेतृत्व में ही लोकसभा का चुनाव लड़े. लेकिन यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए को मंजूर नहीं था. और भी कुछ बातें थीं जिनसे उनका कांग्रेस और राजद के साथ मोहभंग सा होता गया. और इसी क्रम में विधानसभा के भीतर यह कहने के बावजूद कि रहें या मिट्टी में मिल जाएं, अब कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगे, उन्होंने 2017 में दोबारा भाजपा से हाथ मिलाते हुए 2015 के जनादेश को दरकिनार कर भाजपा के साथ साझा सरकार बना ली. इससे विपक्षी खेमे में उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता संदिग्ध हुई. अभी भी कोई यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अगला राजनीतिक कदम क्या होगा!
 

भाजपा के रहमो करम पर मुख्यमंत्री !


    लेकिन उनके भाजपा के साथ एक बार फिर गलबहियां करने के 2017 के राजनीतिक फैसले का उन्हें भरपूर चुनावी लाभ मिला. मोदी लहर एक तरह से बिहार में स्वीप कर गई. 40 में से 30 सीटें राजग के खाते में गई. जद (यू) के भी 16 सांसद जीते. विपक्ष के नाम पर केल कांग्रेस को एक सीट मिल सकी थी. विधानसभा का पिछला, 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ ही मिलकर लड़ा. लेकिन इस बार भाजपा की सीटें तो बढ़कर 74 हो गईं, नीतीश कुमार के जद (यू) के खाते में केवल 43 सीटें ही आ सकीं. नीतीश कुमार के लिए यह एक राजनीतिक झटका था. हालांकि वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही साझा सरकार बनवाई लेकिन क्रमशः इसकी कीमत भी वसूलने लगी. नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर 2015 के बाद वाली ही स्थिति उभरकर सामने आने लगी है. भाजपा की तरफ से अपने हितों की पूर्ति और संघ परिवार के एजेंडे पर अमल के लिए दबाव बढ़ने लगा. भाजपा के विभागीय मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. इसके साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा के लोगों की तरफ से उन्हें इस बात का एहसास भी कराया जाने लगा है कि वह भाजपा के रहमो करम पर ही मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

लालू प्रसाद यादवः  सरकार पर समाजवादी नेताओं को
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से हटाने का आरोप
    पिछले सप्ताह बिहार के छपरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने जेपी विश्वविद्यालय में गुपचुप ढंग से भाजपा का एजेंडा लागू करने की साजिश उजागर हुई. वहां राजनीति शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक और नीतीश कुमार के राजनीतिक आराध्य और आदर्श रहे समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की के व्यक्तित्व और विचारों की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फुले और जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीन दयाल उपाध्याय को शामिल किया गया. नेताजी और ज्योतिबा फुले और यहां तक कि दीन दयाल उपाध्याय (हालांकि उपाध्याय का राष्ट्रीय आंदोलन अथवा सामाजिक आंदोलनों में भी क्या योगदान है, यह विवाद का विषय भी हो सकता है.) के बारे में भी पढ़ाया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कीमत पर. जिस जेपी के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उन्हें ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया! आश्चर्यजनक बात तो यह है कि बिहार में शिक्षामंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के ही विजय कुमार चौधरी हैं. चौधरी और नीतीश कुमार की आंख तब खुली जब विपक्ष ने और खासतौर से लालू प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि संघी मानसिकता की सरकार समाजवादी नेताओं के विचार पाठ्यक्रमों से हटा रही है. बिहार सरकार के जगने एवं कड़े निर्देश जारी करने के बाद अब पाठ्यक्रम में फिर से सुधार हो रहा है. अब इस बात की जांच करने की मांग हो रही है कि ऐसी खुराफात की किसने ? क्या यह करामात शिक्षा मंत्रालय के किसी अफसर की थी या फिर सीधे राजभवन से इसके लिए निर्देश था.
 

    भाजपा के दबाव से मुक्ति की कवायद !


     भाजपा और संघ परिवार के इस तरह के दबावों के कारण बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चलाते हुए भी नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार अभी तक इन दबावों को झेलते और भरसक परे करते हैं. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को जद (यू) में विलीन करवाने के साथ ही बसपा, लोजपा के इक्का-दुक्का विधायकों को अपने दल में शामिल कर वह एक तरफ तो अपनी राजनीतिक मजबूती के संकेत देते हैं. दूसरी तरफ वह बीच-बीच में अपनी और अपने दल की स्वतंत्र-धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ समझौता नहीं करने और भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के संकेत भी देते रहते हैं. भाजपा के जन संख्या नियंत्रण कानून पर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी राय भाजपा से अलग है. इसी तरह से पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की विपक्ष की मांग का समर्थन कर उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार पर एक तरह का दबाव ही बनाया. उन्होंने भाजपा के राजनीतिक रुख की परवाह किए बिना जातीय जनगणना पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिलकर इसके लिए दबाव भी बनाया. प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उन्होंने इसके लिए विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को श्रेय देकर लालू प्रसाद यादव के यहां भी एक खिड़की खुली रखने की कोशिश की. पेट्रोलियम पदार्थों और खासतौर से रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया. देखना यही है कि जातिगत आधार पर जनगणना के मामले में नीतीश कुमार और बिहार के मुख्य विपक्ष के दबाव पर भाजपा और मोदी सरकार का रुख क्या होता है. क्योंकि कुछ ही दिनों में होनेवाले पंचायत चुनावों में बाढ़, पेट्रोल-डीजल और खासतौर से रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ जातीय जनगणना भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. साथ ही भविष्य में भाजपा से अलग होने के लिए नीतीश कुमार के पास ठोस बहाना भी!

    इस तरह से भाजपा के लोग नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं और कसमसाहट महसूस करते हुए नीतीश कुमार भी इससे मुक्त होने के प्रयास में लगे रहते हैं. तो क्या उनके प्रधानमंत्री मटीरियल होने की बात इस समय भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के लिए भी कही जा रही है! इसके साथ ही पिछले दिनों जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी थी. नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद उनकी जगह सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष और हाल ही में जद यू में शामिल उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल यू की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें, वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार के कहने पर ही किया. प्रधानमंत्री मटीरियल का शिगूफा छेड़कर अंदरूनी मतभेदों पर काबू पाने की कोशिश भी हो सकती है. अब सभी नेता एक स्वर से नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताने के काम में जुट गए हैं. कुल मिलाकर नीतीश कुमार के पीएम मटीरियल होने का खेल जारी है. इस खेल में बहुत कुछ अगले साल होनेवाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और फिर गुजरात और जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजों पर भी निर्भर करेगा.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से.  

Monday, 23 August 2021

Hal Filhal : Ugly Face of Family and Individualistic Politics in Bihar


बिहार की राजनीति में बवाल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/snt96f2eTxY

     
    बिहार
की राजनीति और खासतौर से जनता परिवार (अविभाजित जनता पार्टी और जनता दल) के घटक रहे दलों में और इनके नेताओं के परिवार में बवाल सा मचा है. बिहार आंदोलन और जनता परिवार से जुड़े रहे तीन कद्दावर नेताओं-रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के परिवार और पार्टियों की अंदरूनी कलह खुलकर सामने आ गई है. ‘घर को आग लग गई घर के चिराग से’ की कहावत को चरितार्थ करते हुए कुछ महीनों पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी और परिवार उनके अपने ‘चिराग’ को लेकर दो हिस्सों में बिखर गया. और अब पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव का राजनीतिक कुनबा भी उनके बड़े बेटे तेज प्रताप यादव को लेकर उसी राह पर चलते दिख रहा है. वहीं, भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे जनता दल (यू) में भी अंदरखाने शीर्ष पर बैठे नेताओं के बीच रस्साकशी और एक-दूसरे को नीचा दिखाने का राजनीतिक खेल खुलकर सामने आने लगा है.

परिवारवाद और व्यक्तिवाद का विद्रूप चेहरा ! 


    
नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और रामविलास पासवान: सामने आ रहा है
व्यक्तिवाद और परिवारवादी राजनीति का विद्रूप चेहरा
दरअसल, बिहार के जनता परिवार में जो कुछ हो रहा है, उसे व्यक्तिवादी और परिवारवादी राजनीति का विद्रूप चेहरा भी कहा जा सकता है. जब किसी बड़े नेता के परिवार के कई सदस्य राजनीति में सक्रिय हो जाते हैं तो आगे चलकर ‘उत्तराधिकार’ को लेकर उनके बीच राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगती हैं. उनमें कोई आगे निकल जाता है तो बाकियों को लगता है कि ऐसा उसकी ही कीमत पर हो रहा है. इसके बाद शुरू हो जाता है राजनीतिक साजिशों और एक दूसरे को उठाने, गिराने का राजनीतिक खेल. यह बात स्व. राम विलास पासवान के राजनीतिक कुनबे में भी दिखी जहां उनके लक्ष्मण सरीखे अनुज पशुपति कुमार पारस ने केंद्र सरकार में मंत्री पद पाने के लिए अपने भतीजे चिराग पासवान को हाशिए पर डालने में जरा भी संकोच और लिहाज नहीं किया. उन्होंने पार्टी पर भी एक तरह से कब्जा जमा लिया. सांसद चिराग अब अपने राजनीतिक वर्चस्व और पिता की राजनीतिक विरासत के लिए अपने चाचा पारस और चचेरे भाई, सांसद प्रिंस राज से बिहार के राजनीतिक मैदान में जाकर लड़ रहे हैं.
चिराग ः पिता की राजनीतिक विरासत की जंग!

     अब यही खेल लालू प्रसाद यादव के राजनीतिक कुनबे में भी शुरू हो गया है. इसे विडम्बना ही कहेंगे कि एक तरफ जहां लालू प्रसाद बिहार से लेकर दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भाजपा को मजबूत चुनौती और शिकस्त देने के लिए विपक्ष को एकजुट करने की कवायद में जुटे हैं, वहीं बिहार में उनके बड़े बेटे और पार्टी के विधायक तेज प्रताप यादव उनके और उनके दूसरे बेटे, विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी राजद के लिए भी मुसीबत का कारण बन रहे हैं. उन्होंने लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव के भी भरोसेमंद प्रदेश राजद के अध्यक्ष जगदानंद सिंह और परोक्ष रूप से तेजस्वी के विरुद्ध भी ‘राजनीतिक युद्ध’ सा छेड़ दिया है. तेज प्रताप को लगता है कि बड़ा होने के बावजूद एक साजिश के तहत पार्टी और परिवार में उनका कद छोटा किया जा रहा है. इस बीच उनके कुछ हालिया बयानों को लेकर उनके ऊपर अनुशासनहीनता की तलवार अलग से लटक रही है. उनके लिए सुधर जाने अथवा पार्टी और परिवार से भी बाहर होने का खतरा साफ दिखने लगा है. इस बात के संकेत लालू प्रसाद और तेजस्वी यादव ने भी देना शुरू कर दिया है. हालांकि राजद के कुछ नताओं को लगता है कि लालू प्रसाद ने शुरू से ही तेजप्रताप को अनुशासित किया होता तो शायद आज यह दिन नहीं देखने पड़ते. 

लालू के लाल का अपनों के खिलाफ मोर्चा
    
    लालू प्रसाद यादव के चारा घोटाले में पहली बार जेल जाने के बाद जब उनकी पत्नी राबड़ी देवी मुख्यमंत्री बनीं, उस समय उनके सभी बच्चे छोटे थे. उनके वयस्क होने के बाद उन्हें भी राजनीति का चस्का लगा या कहें उन्हें भी राजनीति में सक्रिय किया गया. बड़ी बेटी मीसा भारती को लोकसभा के दो चुनाव हारने के बाद 2016 में राज्यसभा में भेजा गया. जबकि 2015 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार के जद (यू) , कांग्रेस और राजद के गठबंधन ने मिलकर चुनाव लड़ा और सरकार भी बनाई तो उसमें उनके छोटे बेटे तेजस्वी यादव को उप मुख्यमंत्री और बड़े बेटे तेजप्रताप यादव को भी स्वास्थ्य मंत्री बनाया. आगे चलकर और खासतौर से दोबारा जेल चले जाने के बाद भी लालू प्रसाद पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने रहे लेकिन व्यावहारिक तौर पर उन्होंने पार्टी की कमान तेजस्वी यादव को सौंपकर उन्हें अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया. 

    2020 के बिहार विधानसभा के चुनाव में तेजस्वी को ही भावी मुख्यमंत्री के रूप में पेश किया गया. उनके राजनीतिक मार्गदर्शन के लिए पुराने भरोसेमंद, समाजवादी एवं सामाजिक न्याय के प्रति समर्पित नेता जगदानंद सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया. हरियाणा के युवा नेता संजय यादव तेजस्वी के साथ राजनीतिक सलाहकार के रूप में जुड़ गए. इस तिकड़ी ने अपेक्षित नतीजे भी दिए. तेजस्वी ने लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के साए से अलग एक नये राजद को खड़ा करने की कोशिश की. लालू प्रसाद की गैर हाजिरी में भी राजद को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में बिहार की सत्ता के करीब पहुंचा कर तेजस्वी ने अपनी नेतृत्व क्षमता का परिचय दिया.

तेजस्वी यादवः साबित की नेतृत्व क्षमता
     उधर जगदानंद सिंह ने भी पार्टी और पटना में इसके मुख्यालय को व्यवस्थित और अनुशासित करना शुरू किया. प्रदेश मुख्यालय को समाजवादी एवं सामाजिक न्याय के प्रतीक नेताओं की तस्वीरों और पुस्तकों से सजाया गया. वहां अनावश्यक भीड़-भाड़ के बजाए काम से काम रखनेवालों को तरजीह मिलनी शुरू हुई. बड़ा सभागार तथा मीडिया कक्ष भी बना. पदाधिकारियों को समय पर कार्यालय आने और दिए कार्य पूरा करने की जवाबदेही तय होने लगी. जगदानंद खुद भी पटना में रहने पर रोजाना 11 बजे कार्यालय आते और शाम को ही घर जाते. नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए चापलूसी, चाटुकारिता के बजाए पठन पाठन में ध्यान लगाने का निर्देश था. लेकिन इस प्रक्रिया में तेजप्रताप और मीसा भारती पार्टी में खुद को उपेक्षित और पिछड़ते महसूस करने लगे. हालांकि लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने भी अपनी संतानों के बीच राजनीतिक संतुलन बनाए रखने में कोई कभी कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन वह अपने बड़े बेटे तेजप्रताप की महत्वाकांक्षाओं और उल जलूल हरकतों पर नियंत्रण कर उन्हें अनुशासित नहीं रख सके. वह कभी कृष्ण तो कभी शिव की शक्ल धारण करने लगे तो कभी वृंदावन के चक्कर लगाने लगे. गाहे बगाहे वह खुद को दूसरा लालू भी कहने लगे. इस सबके बीच उनका वैवाहिक जीवन भी विवाद का विषय बना और पत्नी से न सिर्फ तलाक हो गया बल्कि उनके पिता, पूर्व विधायक चंद्रिका राय के साथ लालू प्रसाद का दशकों पुराना पारिवारिक संबंध भी टूट गया.

महाभारत के पात्र !


    
तेजस्वी को ताज पहनाते तेजप्रतापः 'कृष्ण' की भूमिका !
    तेज प्रताप सार्वजनिक तौर पर खुद को कृष्ण और छोटे भाई तेजस्वी यादव को अर्जुन बताते हुए यह कहते नहीं थकते कि तेजस्वी को मुख्यमंत्री बनाना ही उनका राजनीतिक मकसद है. लेकिन अपने आचरण से वह लगातार तेजस्वी और राजद को कमजोर ही करते रहे. पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में भी टिकट से वंचित अपने करीबी लोगों को बागी उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़वाकर उन्होंने कई चुनाव क्षेत्रों में राजद की हार में योगदान ही किया. अपनी उल जलूल हरकतों और विवादित बयानबाजियों के कारण पहले भी सुर्खियों में रहे तेज प्रताप ने हाल के दिनों में राजद के प्रदेश अध्यक्ष जगदानंद सिंह और तेजस्वी यादव के राजनीतिक सलाहकार संजय यादव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. संजय यादव को प्रवासी सलाहकार कह कर वह उन पर परवार में फूट डालने के आरोप लगा रहे हैं तो राजद की स्थापना के समय से ही लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और इधर तेजस्वी यादव के भी भरोसेमंद रहे जगदानंद सिंह को वह हिटलर और नागपुरी राजनीति का ‘स्लीपर सेल’ तक करार दे रहे हैं. यहां तक कि किसी को शिशुपाल तो किसी को दुर्योधन करार देकर वह उनके ‘वध’ की बात भी करने लगे हैं. यह बात और है कि राजद और लालू प्रसाद के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पराकाष्ठा का परिचय देते हुए 2015 के विधानसभा चुनाव में जगदानंद सिंह ने राजद का टिकट नहीं मिलने पर भाजपा का उम्मीदवार बन गए अपने पुत्र सुधाकर सिंह की हार सुनिश्चित करवाई थी.

    इससे पहले भी तेज प्रताप तेज प्रताप लालू प्रसाद यादव के दो और वरिष्ठ और भरोसेमंद नेताओं-पूर्व केंद्रीय मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह और पूर्व सांसद, शिवानंद तिवारी के विरुद्ध भी इस तरह की अपमानजनक टिप्पणियां करते रहे हैं. रघुवंश प्रसाद सिंह को तो उन्होंने पार्टी रूपी समुद्र में एक लोटा जल भर कहकर अपमानित किया था. अब तेज प्रताप अपने आलाकमान से जगदानंद के खिलाफ कार्रवाई की मांग पर अड़े हैं और कह रहे हैं कि ऐसा होने तक वह राजद के किसी कार्यक्रम में शामिल नहीं होंगे. इसके लिए उन्होंने तेजस्वी से बात करने की कोशिश की लेकिन उनका आरोप है कि संजय यादव के हस्तक्षेप से बातचीत बीच में ही छोड़कर तेजस्वी अपने कमरे में चले गए. अब तेजप्रताप अपने पिता लालू प्रसाद से मिलने दिल्ली में हैं. संयोगवश तेजस्वी यादव भी दिल्ली में ही हैं. दोनों भाई रक्षाबंधन के पर्व पर बहनों से राखी बंधवाने दिल्ली आए हैं. 

    
जगदानंद सिंह लालू प्रसाद और तेजस्वी के भरोसेमंद
लेकिन तेज प्रताप के लिए 'हिटलर' और 'शिशुपाल' !
जगदानंद सिंह के खिलाफ तेजप्रताप की ताजा खुन्नस अपने खासुलखास आकाश यादव की जगह गगन यादव को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष बनाए जाने को लेकर है. विवाद की शुरुआत 8 अगस्त को छात्र राजद के सम्मेलन में हुई. इस सम्मेलन के लिए लगे पोस्टरों-बैनरों और होर्डिंग्स में तेजस्वी यादव की तस्वीर गायब थी. यही नहीं तेज प्रताप ने इस सम्मेलन में जगदानंद सिंह की तुलना हिटलर से कर दी. इससे क्षुब्ध और क्रुद्ध जगदानंद ने राजद कार्यालय जाना ही छोड़ दिया. यहां तक कि 15 अगस्त को वह पार्टी मुख्यालय में झंडा फहराने भी नहीं गए. काफी मान मनौवल और लालू प्रसाद तथा तेजस्वी यादव के साथ बातचीत के बाद वह कार्यालय पहुंचे और और सबसे पहले तकनीकी आधार पर तेज प्रताप के करीबी आकाश यादव की जगह गगन यादव को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष बनाया. इससे भड़के तेज प्रताप ने जगदानंद सिंह पर नियम और पार्टी के संविधान की अवहेलना का आरोप लगाया. उन्होंने कहा कि ऐसा करने से पहले उन्हें उनसे बात करनी चाहिए थी क्योंकि छात्र राजद के संरक्षक की हैसियत से उन्होंने ही आकाश को छात्र राजद का अध्यक्ष बनाया था. लेकिन जगदानंद सिंह ने साफ किया कि पार्टी में छात्र राजद के संरक्षक का कोई पद ही नहीं है तो कैसे कोई किसी को प्रदेश छात्र राजद का अध्यक्ष नियुक्त कर सकता है. प्रदेश राजद के आमुख संगठनों के पदाधिकारियों की नियुक्ति प्रदेश अध्यक्ष ही करता है. और उन्होंने अध्यक्ष की हैसियत से किसी को इस पद पर नियुक्त ही नहीं किया था तो किसी को हटाने की बात कहां से आती है. उन्होंने तो प्रदेश छात्र राजद अध्यक्ष के रिक्त पद पर गगन यादव को नियुक्त किया है.

     जगदानंद के खिलाफ तेज प्रताप की खुन्नस पुरानी है. उन्हें लगता है कि वह उनका राजनीतिक कद छोटा करने में लगे रहने के साथ ही उनकी उपेक्षा करते हैं. उन्हें उस तरह का भाव नहीं देते जैसा वह तेजस्वी को देते हैं. मसलन, जब वह यानी तेज प्रताप पार्टी मुख्यालय में आते हैं तो प्रदेश अध्यक्ष उनका उस तरह से स्वागत नहीं करते जैसा वह तेजस्वी का करते हैं. वह उनसे फोन पर बात भी नहीं करते और न ही सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनकी बातों पर वह ताली ही बजाते हैं. जगदानंद का कहना है कि तेजस्वी यादव संवैधानिक पद पर, नेता विपक्ष हैं और तेजप्रताप केवल विधायक. हम तो प्रोटोकॉल का अनुसरण करते हैं.

    इस बीच उनके हालिया बयानों ने तेजप्रताप के सिर पर अनुशासनहीनता के आरोप में कार्रवाई की तलवार लटका दी है. वह यह समझने में भूल कर बैठे कि जगदानंद सिंह जो भी कर या कह रहे हैं, उसके लिए उन्हें लालू प्रसाद और तेजस्वी से हरी झंडी मिली हुई है. शायद इसलिए भी लालू प्रसाद और तेजस्वी उनके विरुद्ध कुछ नहीं बोल रहे बल्कि संकेतों के जरिए तेजप्रताप को संयमित और अनुशासित रहने की सलाह दे रहे हैं. तेजस्वी यादव ने कहा भी है कि तेजप्रताप उनके बड़े भाई हैं लेकिन हमारे माता पिता ने हमें अनुशासित रहने और बड़ों का सम्मान करने की सीख दी है. तेजस्वी ने यह भी कहा है कि जगदानंद जी बड़े बुजुर्ग और सम्मानित नेता के साथ ही प्रदेश राजद के अध्यक्ष भी हैं, उन्हें प्रदेश संगठन में सभी फैसले लेने का अधिकार है. ऐसे मे अगर उन्होंने छात्र राजद के प्रदेश अध्यक्ष के पद पर कोई नियुक्ति की है तो यह उनका अधिकार है. कहा तो यह भी जा रहा है कि अगर तेजप्रताप अपनी सीमा और अनुशासन में नहीं रहे और इसी तरह के उल जलूल और अपमानजनक बयान देते रहे तो उनके विरुद्ध कार्रवाई भी हो सकती है. लेकिन इसका राजनीतिक नफा-नुसान किसे होगा! राजद के विरोधी मौके का लाभ लेने की ताक में हैं. भाजपा और जद (यू) के नेताओं ने अपने बयानों के जरिए अभी से इसका मजा लेना शुरू कर दिया है. राजद के एक नेता ने गुमनामी की शर्त पर कहा है कि इन दिनों तेज प्रताप जो कुछ कर और बोल रहे हैं, उनकी पीठ पर लालू प्रसाद के  किसी राजनीतिक विरोधी का हाथ लगता है.यह बात राजद नेतृत्व और लालू प्रसाद को भी तो पता होगी ही! इस बात का आकलन भी हो रहा होगा कि तेजप्रताप के विरुद्ध कार्रवाई होने और नहीं होने का राजद और परिवार की राजनीतिक सेहत पर क्या असर पड़ेगा!

जनता दल (यू) में भी रस्साकशी !


    
नीतीश कुमारः ये सब क्या हो रहा है, समय पर बोलेंगे

    दूसरी तरफ, बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी खुद को असहज महसूस कर रहे जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी है. कुछ समय पहले जद (यू) में वापसी करनेवाले उपेंद्र कुशवाहा नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बता रहे हैं तो उनके समर्थक अपने पोस्टर, बैनर और होर्डिंगों में उपेंद्र कुशवाहा को भावी मुख्यमंत्री बताने लगे हैं.नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद नाराजगी बढ़ी तो उनकी जगह एक और खासुल खास रहे सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया. इसके बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल (यू) की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद और खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें. आरसीपी ने अपने स्वागत समारोहों में कहा भी है कि केंद्र में मंत्री बन जाने के बावजूद पार्टी संगठन में उनकी भूमिका और सक्रियता बनी रहेगी. वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नेता, नीतीश कुमार के कहने पर ही किया.अभी तक नीतीश कुमार इससे इनकार करते रहे हैं. लेकिन अपने स्वागत समारोहों के क्रम में कई दिन बिहार-पटना में रहने के बावजूद वह नीतीश कुमार से मिलने का समय नहीं निकाल सके, इस तरह की चर्चाएं जोर पकड़ने के बाद वह वह शनिवार, 21 अगस्त को मुख्यमंत्री निवास पर जाकर नीतीश कुमार से मिले. दो घंटे साथ रहे, बातें बहुत ज्यादा नहीं हुई. पार्टी की तरफ से कहा जा रहा है कि सब कुछ ठीक-ठाक है. नीतीश कुमार अभी खामोश हैं. कहा जा रहा है कि इन सब पर 29 अगस्त को जद यू की राष्ट्रीय परिषद में कुछ बोल सकते हैं.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट से