Sunday, 17 March 2013

‘रिकार्डतोड’ सोनिया गांधी !



इस बार कांग्रेस  और उसके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. तीन दिन पहले उन्होंने 127-28 साल पुरानी कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 15 साल पूरा करने का रिकार्ड या कहें इतिहास बनाया. आप उनसे, उनकी पार्टी और उनकी राजनीतिक शैली से सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं लेकिन इस सच से इनकार तो कतई नहीं कर सकते कि 14 मार्च 1998 को अंदर से बिखरी, लगातार दो चुनावी हारों से पस्तहाल कांग्रेस की कमान संभालने वाली विदेशी (इतालवी) मूल की इस महिला ने जिस तरह न सिर्फ कांग्रेस को एकजुट किया बल्कि आगे चलकर इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं में जीत सकने और फिर से सत्तारूढ़ होने का जज्बा पैदा किया, वह वाकई बेमिसाल है. कांग्रेस का लगातार चार बार अध्यक्ष चुने जाने का भी उनका अलग तरह का राजनीतिक रिकार्ड है. इससे पहले लगातार चार बार और वह भी 15 वर्षों तक कांग्रेस का अध्यक्ष बने रहने का रिकार्ड और किसी के नाम नहीं है. 15 ही क्यों, कांग्रेस के मौजूदा संविधान के तहत सोनिया गांधी 2015 तक यानी दो साल और इस पद पर रह सकती हैं. पिछली बार 2010 में जब उनका चुनाव हुआ था, उसके बाद कांग्रेस के संविधान में संशोधन कर संगठनात्मक चुनाव पांच साल में एक बार अवश्य कराने का प्रावधान कर दिया गया था. वैसे भी, अगर श्रीमती गांधी उससे पहले अथवा उसके बाद कांग्रेस का अध्यक्ष पद अपने उपाध्यक्ष पुत्र राहुल गांधी को नहीं सौंप देतीं तो उन्हें 2015 के आगे भी अध्यक्ष बने रहने से कौन रोक सकता है. मौजूदा कांग्रेस में गांधी परिवार को चुनौती दे सकने की हैसियत आज किस कांग्रेसी नेता में है ? अतीत में शरद पवार से लेकर जितेंद्र प्रसाद तक जिस किसी ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की उसका राजनीतिक हश्र सबके सामने है.

सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद सुशोभित कर चुके नेहरु-गांधी परिवार की पांचवीं सदस्य हैं. उनसे पहले पंडित मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी भी कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं. यह भी एक अजीब विडंबना है कि शुरुआती दिनों में राजनीति के प्रति अजीब तरह की बेरुखी व्यक्त करने वाली सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में लगातार सफलता के कीर्तिमान कायम करते गईं. 1991 में जब उनके पति, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की श्रीलंका में सक्रिय तमिल आतंकी संगठन लिट्टे के आत्मघाती हमले में हत्या के बाद एक स्वर से देश भर के कांग्रेसजनों ने उनसे पार्टी और उसके नेतृत्व में बनने वाली सरकार का नेतृत्व स्वीकार करने का दबाव बनाया था तो कारण चाहे कुछ भी रहे हों, उन्होंने राजनीति के बारे में बड़ी हिकारतभरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए साफ मना कर दिया था. लेकिन बाद के दिनों में वह कांग्रेस के अंदरूनी मामलों में रुचि जरूर लेती रहीं. 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव की अध्यक्षता में कांग्रेस की बुरी पराजय और उसके बाद उनकी जगह गांधी परिवार के पुराने वफादार सीताराम केसरी के  कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत देने शुरू कर दिए थे. 1997 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में वह शामिल हुईं और बाकायदा कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य भी बनीं. उन्होंने 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट भी मांगे. मुझे याद है कि उनकी पहली सभा 11 जनवरी को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदुर में उसी जगह हुई थी जिसके बगल में सात साल पहले उनके पति राजीव गांधी की हत्या हुई थी. श्रीपेरंबदुर के बाद वह बेंगलुरु, हैदराबाद, कोच्चि और गोवा भी गई थीं. श्रीपेरंबदुर, बेंगलुरु और हैदराबाद की उनकी पहली सभाओं को कवर करने का सौभाग्य मुझे भी मिला था. तब मैं नई दिल्ली में दैनिक हिन्दुस्तान के साथ विशेष संवाददाता के बतौर जुड़ा था.
हालांकि 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 141 सीटों के साथ पराजय का सामना ही करना पड़ा था. लेकिन चुनावी नतीजों के आने के कुछ ही दिन बाद 14 मार्च (अटल बिहारी वाजपेयी के राजग सरकार का दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के एक दिन पहले ) को कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को एक तरह से धकियाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी को सौंप दी गई. फिर तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने कांग्रेस की भावी राजनीति का खाका तैयार करने के लिए मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में नेताओं का चिंतन शिविर लगाया. उसमें अन्य बातों के अलावा इस बात पर भी राय ली गई कि गठबंधन राजनीति के दौर में कांग्रेस को भी समविचार दलों के साथ गठबंधन राजनीति का हिस्सा बनना चाहिए कि नहीं. शिविर से यह राय निकली कि कांग्रेस को किसी तरह के गठबंधन का हिस्सा बनने के बजाय एकला चलो की रणनीति अपनाते हुए अपने बूते ही चुनाव जीतना और सरकार बनाना चाहिए. लेकिन यह रणनीति बुरी तरह विफल रही, 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इसके सुदीर्घ राजनीतिक इतिहास में संभवतः सबसे कम, 114 सीटें ही मिल सकीं. इसका एक कारण शायद यह भी था कि 1999 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव से पहले ही विदेशी मूल के बजाय किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को ही कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग के साथ लोकसभा में उस समय विपक्ष (कांग्रेस) के नेता, मराठा छत्रप शरद पवार ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूर्नो ए संगमा, तारिक अनवर और पार्टी के पूर्व महासचिव देवेंद्रनाथ द्विवेदी के साथ मिलकर श्रीमती गांधी के खिलाफ बगावत सी कर दी थी. उन्होंने अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी बना ली थी.
 1998 और 1999 की चुनावी विफलता को देखते हुए सोनिया गांधी ने एक बार फिर कांग्रेस की भावी राजनीतिक दशा और दिशा पर विचार करने के लिए जुलाई 2003 में शिमला में कांग्रेस का दूसरा चिंतन शिविर आयोजित करवाया. इसमें ‘एकला चलो’ की रणनीति पर तात्कालिक विराम लगाते हुए समान विचारवाले दलों के साथ चुनाव पूर्व अथवा बाद भी गठबंधन करने की बात तय हुई. नतीजा सामने था. 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सीटें तो 145 ही मिलीं लेकिन उसके नेतृत्व में यूपीए की साझा सरकार बनी जिसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और वाम दलों का बाहर से समर्थन प्राप्त था. उस समय कांग्रेस ने और यूपीए ने भी एक राय से श्रीमती गांधी को सत्तारूढ़ संसदीय दल का नेता यानी प्रधानमंत्री पद का दावेदार चुना था लेकिन कारण चाहे कुछ भी रहे हों, ऐन वक्त पर ‘राजनीतिक त्याग’ की अद्भुत मिसाल पेश करते हुए सोनिया गांधी ने अपनी जगह डा.मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया था. कहा जाता है कि प्रधानमंत्री बनने पर उनके विदेशी मूल के रूप में विपक्ष के हाथ एक मजबूत राजनीतिक हथियार मिल सकता था, इससे बचने के लिए भी उन्होंने मना कर दिया था. वैसे, अप्रैल 1999 में वह प्रधानमंत्री बनने के इरादे से ही समर्थक सासंदों की सूची के साथ राष्ट्रपति भवन की ड्योढ़ी तक गई थीं लेकिन तब ऐन वक्त पर मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने उनका राजनीतिक खेल बिगाड़ दिया था.

जो भी हो 2004 में आठ वर्षों के अंतराल के बाद बनी कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार में सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनने के बावजूद सरकार और संगठन में भी सर्वशक्तिमान के रूप में उभर कर सामने आईं. उन्हें सत्तारूढ़ यूपीए और राष्ट्रीय विकास परिषद का अध्यक्ष बनाया गया. 2004 में फोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें विश्व की तीसरी और 2007 में विश्व की छठी सबसे ताकतवर महिला घोषित किया. 2007-08 के लिए टाईम पत्रिका ने उन्हें विश्व की एक सौ सबसे महत्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार किया. उनका राजनीतिक कौशल तो 2009 के चुनाव में देखने को मिला जब कांग्रेस को लोकसभा की दो सौ से ज्यादा सीटें मिलीं और उसके नेतृत्व में यूपीए लगातार दूसरी बार सत्तारूढ़ हुआ. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही बने. इस बीच कांग्रेस संगठन और सरकार पर भी पकड़ मजबूत बनाते हुए सोनिया गांधी ने नई पीढ़ी, अपने सांसद एवं कांग्रेस के महासचिव पुत्र राहुल गांधी के अपेक्षाकृत युवा हाथों में अपना उत्तराधिकार यानी कांग्रेस की बागडोर सौंपने की कवायद शुरू  कर दी है. जयपुर में कांग्रेस के तीसरे चिंतन शिविर से राहुल गांधी कांग्रेस संगठन में नंबर दो यानी उपाध्यक्ष के रूप में निकले. उनके पास अभी कांग्रेस अध्यक्ष का औपचारिक ठप्पा नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस लोकसभा का अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ेगी.

इन बीते 15 वर्षों में कांग्रेस संगठन में जान फूंकने और जीत का जज्बा पैदा करने का श्रेय अगर श्रीमती गांधी को है तो कुछ विफलताएं भी उनके नाम हैं, मसलन कभी कांग्रेस का राजनीति का गढ़ रहे हिंदी पट्टी के उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस को इसका गौरवशाली अतीत वह नहीं दिला सकीं. गुजरात में लगातार चार-पांच चुनावों से उनकी पार्टी सत्ता से दूर है. महाराष्ट्र में शरद पवार की राकांपा के साथ गठबंधन इसकी मजबूरी सी बन गई है. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल में और अब तो आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस किसी सहयोगी दल के ही भरोसे है. अपने बूते इन राज्यों में आज भी कांग्रेस न तो सत्तारूढ़ होने का दम भर सकती है और ना ही वहां लोकसभा की सर्वाधिक सीटें जीत सकने का दावा. कई राज्यों में कांग्रेस संगठन लुंज पुंज दशा में है. प्रदेश अध्यक्ष त्यागपत्र दे चुके हैं, उनके स्थानापन्न की घोषणा अरसे से लटकी पड़ी है. वह कांग्रेस संगठन में अदंरूनी लोकतंत्र बहाल करने में भी सफल नहीं हो सकी हैं. इसकी चर्चा कई अवसरों पर राहुल गांधी भी कर चुके हैं और सबसे बड़ी बात यह कि 1998 में भी कांग्रेस गांधी परिवार की मोहताज थी, आज 15 साल बाद भी है, इसे आप कमजोरी कह सकते हैं और इसकी ताकत भी.
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Sunday, 10 March 2013

करवट बदलती भगवा राजनीति


लोकसभा चुनाव में अभी भी एक साल से कुछ अधिक का समय बाकी है. अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, इसकी पेशबंदियां अभी से शुरू हो गई हैं. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भले ही कहते फिरें कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते, कांग्रेसजनों, देश-विदेश के राजनीतिक पंडितों से लेकर आम लोगों तक को पता है कि अगर अगले चुनाव में कांग्रेस अथवा उसके नेतृत्ववाले यूपीए को बहुमत मिलता है तो प्रधानमंत्री राहुल गांधी ही बनेंगे. बीच-बीच में वित्तमंत्री पी चिदंबरम का नाम भी उछलता है. मनमोहन सिंह के तीसरे कार्यकाल की अटकलें भी गाहे-बगाहे लगती रहती हैं. कृषिमंत्री एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार अपना नाम भी अपने लोगों से उछलवाते रहते हैं. इसके पीछे क्या राजनीतिक गणित है, पवार साहब ही बेहतर बता सकते हैं. मुलायम सिंह यादव भी गैर कांग्रेस, गैर भाजपा दलों के तथाकथित तीसरे मोर्चे के दम पर प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए हैं. हालांकि उनके अपने ही राज्य उत्तर प्रदेश में उनके कुनबे के शासन के बावजूद उनकी पार्टी की हालत खस्ता होते दिख रही है.

दूसरे मजबूत दावेदार के बतौर मुख्य विपक्षी दल, भारतीय जनता पार्टी की तरफ से गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में चुनावी जीत की तिकड़ी बनाने वाले नरेंद्र मोदी के लिए जबरदस्त और सुनियोजित अभियान उनकी पार्टी के भीतर और कारपोरेट लाबी द्वारा भी चलाया जा रहा है. माना जा रहा है कि अगला चुनाव गांधी (राहुल) बनाम मोदी (नरेंद्र)  का ही होगा. मोदी और उनकी राजनीति से सहमत और असहमत हुआ जा सकता है लेकिन पिछले सप्ताह यहां दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में मोदी के पक्ष में जिस तरह का माहौल बनाया गया, उससे साफ लगता था कि भाजपा के नेता और कार्यकर्ता अब एकमात्र उन्हें ही भाजपा की चुनावी नैया का खेवनहार मान चुके हैं. लेकिन क्या मोदी के नाम पर भाजपानीत राजग के बाकी घटक दल सहमत हो सकेंगे. और अगर वे सहमत हो भी गए तो क्या राजग का मौजूदा स्वरूप लोकसभा चुनाव में सरकार बनाने लायक बहुमत ला सकेगा. यह चिंता मोदी, भाजपा और उसे संचालित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व की भी है.शायद यह भी एक कारण हो सकता है कि भाजपा एक बार फिर अपना राजनीतिक चोला बदलने और राजग के विस्तार के फेर में लगती है.

 भाजपा की राष्ट्रीय परिषद से ठीक पहले जमीयत ए उलेमाए हिंद के नेता, सांसद महमूद मदनी तथा देवबंद के उप कुलपति रहे गुलाम मोहम्मद वस्तानवी का उनके समर्थन में बयान आना संयोगमात्र नहीं है. मोदी जानबूझकर इलाहाबाद के महाकुंभ के अवसर पर विश्व हिंदू परिषद और संत सम्मेलन में नहीं गए. वहां उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जाने से लेकर अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के स्वर तेजी से गूंजे. मोदी उसमें सहभागी होने से बचना चाहते थे! यही नहीं भाजपा की हाल के वर्षों में यह शायद पहली राष्ट्रीय परिषद थी जिसमें वरिष्ठ नेताओं के भाषणों से लेकर उसके राजनीतिक प्रस्ताव में भी इसके तीनों परंपरागत मगर विवादित मुद्दों-अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण, संविधान में कश्मीर से संबंधित धारा 370 को हटाने तथा सबके लिए समान नागरिक संहिता-का जिक्र तक नहीं हुआ. इसके बजाए उनका फोकस रामसेतु और गंगा मुक्ति जैसे मुद्दों पर था. मतलब साफ है, भाजपा और संघ के नेतृत्व को भी इस बात का एहसास है कि चरम हिंदुत्व भी उन्हें लोकसभा की 180 से अधिक सीटें दिला पाने में विफल रहा था. अपनी नई रणनीति के तहत भाजपा अपने नए और पुराने सहयोगी दलों को संदेश देना चाहती है कि वह राजग के विस्तार के लिए अपने परंपरागत मुद्दों को एक बार फिर ठंडे बस्ते में रखने को तैयार है. बता दें कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाले राजग शासन के दौरान भाजपा ने इन तीन और इस तरह के अन्य विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. 1999 के दिसंबर के अंतिम सप्ताह में चेन्नई में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद में और किसी ने नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी ने ही भाजपा के संगठनात्मक मामलों के प्रभारी महासचिव की हैसियत से पेश किए गए राजनीतिक प्रस्ताव में कहा था कि हमारे एक हाथ में भाजपा का झंडा और दूसरे हाथ में राजग का एजेंडा होना चाहिए. हमें अपने कुछ परंपरागत मुद्दों को कुछ समय के लिए ताक पर रख देना चाहिए. भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि ऐसा करने से न सिर्फ नीतीश कुमार और शरद यादव को भाजपा के साथ बने रहने में किसी तरह की परेशानी नहीं होगी, नवीन पटनायक, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू अथवा जगनमोहन रेड्डी, ओमप्रकाश चौटाला और ममता बनर्जी जैसे नेताओं को भी राजग से जोड़ा जा सकेगा. इनमें से कई लोग और उनके नेतृत्ववाले दल अतीत में राजग के घटक रह चुके हैं. यहां एक गौर करने लायक बात यह भी है कि पिछले दिनों ही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का एक बयान भी आया था कि भाजपा अगर राम जन्मभूमि तथा अन्य विवादित मुद्दों को छोड़ दे तो उसे सहयोग देने और उससे सहयोग लेने में उन्हें गुरेज नहीं होगा.

वैसे भी, अतीत के वर्षों में भाजपा अपने मुद्दे सांप के केंचुल की तरह छोड़ते-बदलते रही है. कभी लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए देश भर में राम रथ यात्रा से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस का माहौल तैयार करने वाली -जिसके चलते देश के कई हिस्सों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए और दो संप्रदायों के बीच अजीब तरह की नफरत की दीवार सी खड़ी हो गई थी-भारतीय जनता पार्टी की नेता, इन दिनों लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कभी कहा था कि राम मंदिर का मुद्दा तो बैंक के बेयरर चेक की तरह था जिसे एक बार ही भुनाया जा सकता था. बाद में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने मेरे साथ एक साक्षात्कार में कहा था कि जिस तरह नदी पार करने के बाद नाव को कंधे पर ढोकर बाहर नहीं ले जाया जाता उसी तरह से राम मंदिर के मुद्दे की राजनीतिक उपयोगिता का सवाल है. गाहे-बगाहे भाजपा के नेताओं को उसके अपने परंपरागत मगर विवादित मुद्दों की याद अब राजनीतिक परिस्थितियों और उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही आती है. आश्चर्य नहीं होगा कि आने वाले दिनों में भाजपा और संघ परिवार की ओर से नरेंद्र मोदी को उनके एक और नए ‘अवतार’ पिछड़ी (घांची) जाति के नेता के रूप में पेश और प्रचारित किया जाने लगे. वैसे, प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में अभी भी उनके सामने चुनौतियां कम नहीं हुई हैं. आडवाणी को दरकिनार भी कर दें तो सुषमा स्वराज, मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में तिकड़ी बनाने की कोशिश में लगे सौम्य छवि वाले शिवराज सिंह चौहान और इन सबसे ऊपर भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह की अंदरूनी चुनौती को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता. देश के विभिन्न हिस्सों में दबंग राजपूत युवा राजनाथ सिंह के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर के बाद तीसरे राजपूत प्रधानमंत्री का सपना अभी से संजोने लगे हैं.