इस बार कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाले सत्तारूढ़ यूपीए की अध्यक्ष सोनिया गांधी पर लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. तीन दिन पहले उन्होंने 127-28 साल पुरानी कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 15 साल पूरा करने का रिकार्ड या कहें इतिहास बनाया. आप उनसे, उनकी पार्टी और उनकी राजनीतिक शैली से सहमत अथवा असहमत हो सकते हैं लेकिन इस सच से इनकार तो कतई नहीं कर सकते कि 14 मार्च 1998 को अंदर से बिखरी, लगातार दो चुनावी हारों से पस्तहाल कांग्रेस की कमान संभालने वाली विदेशी (इतालवी) मूल की इस महिला ने जिस तरह न सिर्फ कांग्रेस को एकजुट किया बल्कि आगे चलकर इसके नेताओं-कार्यकर्ताओं में जीत सकने और फिर से सत्तारूढ़ होने का जज्बा पैदा किया, वह वाकई बेमिसाल है. कांग्रेस का लगातार चार बार अध्यक्ष चुने जाने का भी उनका अलग तरह का राजनीतिक रिकार्ड है. इससे पहले लगातार चार बार और वह भी 15 वर्षों तक कांग्रेस का अध्यक्ष बने रहने का रिकार्ड और किसी के नाम नहीं है. 15 ही क्यों, कांग्रेस के मौजूदा संविधान के तहत सोनिया गांधी 2015 तक यानी दो साल और इस पद पर रह सकती हैं. पिछली बार 2010 में जब उनका चुनाव हुआ था, उसके बाद कांग्रेस के संविधान में संशोधन कर संगठनात्मक चुनाव पांच साल में एक बार अवश्य कराने का प्रावधान कर दिया गया था. वैसे भी, अगर श्रीमती गांधी उससे पहले अथवा उसके बाद कांग्रेस का अध्यक्ष पद अपने उपाध्यक्ष पुत्र राहुल गांधी को नहीं सौंप देतीं तो उन्हें 2015 के आगे भी अध्यक्ष बने रहने से कौन रोक सकता है. मौजूदा कांग्रेस में गांधी परिवार को चुनौती दे सकने की हैसियत आज किस कांग्रेसी नेता में है ? अतीत में शरद पवार से लेकर जितेंद्र प्रसाद तक जिस किसी ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की उसका राजनीतिक हश्र सबके सामने है.
सोनिया गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पद सुशोभित कर चुके नेहरु-गांधी परिवार की पांचवीं सदस्य हैं. उनसे पहले पंडित मोतीलाल नेहरु, जवाहरलाल नेहरु, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी भी कांग्रेस अध्यक्ष रह चुके हैं. यह भी एक अजीब विडंबना है कि शुरुआती दिनों में राजनीति के प्रति अजीब तरह की बेरुखी व्यक्त करने वाली सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में लगातार सफलता के कीर्तिमान कायम करते गईं. 1991 में जब उनके पति, पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की श्रीलंका में सक्रिय तमिल आतंकी संगठन लिट्टे के आत्मघाती हमले में हत्या के बाद एक स्वर से देश भर के कांग्रेसजनों ने उनसे पार्टी और उसके नेतृत्व में बनने वाली सरकार का नेतृत्व स्वीकार करने का दबाव बनाया था तो कारण चाहे कुछ भी रहे हों, उन्होंने राजनीति के बारे में बड़ी हिकारतभरी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए साफ मना कर दिया था. लेकिन बाद के दिनों में वह कांग्रेस के अंदरूनी मामलों में रुचि जरूर लेती रहीं. 1996 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिंह राव की अध्यक्षता में कांग्रेस की बुरी पराजय और उसके बाद उनकी जगह गांधी परिवार के पुराने वफादार सीताराम केसरी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति में आने के संकेत देने शुरू कर दिए थे. 1997 में कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में वह शामिल हुईं और बाकायदा कांग्रेस की प्राथमिक सदस्य भी बनीं. उन्होंने 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए वोट भी मांगे. मुझे याद है कि उनकी पहली सभा 11 जनवरी को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदुर में उसी जगह हुई थी जिसके बगल में सात साल पहले उनके पति राजीव गांधी की हत्या हुई थी. श्रीपेरंबदुर के बाद वह बेंगलुरु, हैदराबाद, कोच्चि और गोवा भी गई थीं. श्रीपेरंबदुर, बेंगलुरु और हैदराबाद की उनकी पहली सभाओं को कवर करने का सौभाग्य मुझे भी मिला था. तब मैं नई दिल्ली में दैनिक हिन्दुस्तान के साथ विशेष संवाददाता के बतौर जुड़ा था.
हालांकि 1998 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 141 सीटों के साथ पराजय का सामना ही करना पड़ा था. लेकिन चुनावी नतीजों के आने के कुछ ही दिन बाद 14 मार्च (अटल बिहारी वाजपेयी के राजग सरकार का दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के एक दिन पहले ) को कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को एक तरह से धकियाकर बाहर का रास्ता दिखा दिया गया और कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी को सौंप दी गई. फिर तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने कांग्रेस की भावी राजनीति का खाका तैयार करने के लिए मध्यप्रदेश के पचमढ़ी में नेताओं का चिंतन शिविर लगाया. उसमें अन्य बातों के अलावा इस बात पर भी राय ली गई कि गठबंधन राजनीति के दौर में कांग्रेस को भी समविचार दलों के साथ गठबंधन राजनीति का हिस्सा बनना चाहिए कि नहीं. शिविर से यह राय निकली कि कांग्रेस को किसी तरह के गठबंधन का हिस्सा बनने के बजाय एकला चलो की रणनीति अपनाते हुए अपने बूते ही चुनाव जीतना और सरकार बनाना चाहिए. लेकिन यह रणनीति बुरी तरह विफल रही, 1999 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को इसके सुदीर्घ राजनीतिक इतिहास में संभवतः सबसे कम, 114 सीटें ही मिल सकीं. इसका एक कारण शायद यह भी था कि 1999 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव से पहले ही विदेशी मूल के बजाय किसी भारतीय मूल के व्यक्ति को ही कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की मांग के साथ लोकसभा में उस समय विपक्ष (कांग्रेस) के नेता, मराठा छत्रप शरद पवार ने पूर्व लोकसभाध्यक्ष पूर्नो ए संगमा, तारिक अनवर और पार्टी के पूर्व महासचिव देवेंद्रनाथ द्विवेदी के साथ मिलकर श्रीमती गांधी के खिलाफ बगावत सी कर दी थी. उन्होंने अपनी अलग राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी बना ली थी.
1998 और 1999 की चुनावी विफलता को देखते हुए सोनिया गांधी ने एक बार फिर कांग्रेस की भावी राजनीतिक दशा और दिशा पर विचार करने के लिए जुलाई 2003 में शिमला में कांग्रेस का दूसरा चिंतन शिविर आयोजित करवाया. इसमें ‘एकला चलो’ की रणनीति पर तात्कालिक विराम लगाते हुए समान विचारवाले दलों के साथ चुनाव पूर्व अथवा बाद भी गठबंधन करने की बात तय हुई. नतीजा सामने था. 2004 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सीटें तो 145 ही मिलीं लेकिन उसके नेतृत्व में यूपीए की साझा सरकार बनी जिसे समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और वाम दलों का बाहर से समर्थन प्राप्त था. उस समय कांग्रेस ने और यूपीए ने भी एक राय से श्रीमती गांधी को सत्तारूढ़ संसदीय दल का नेता यानी प्रधानमंत्री पद का दावेदार चुना था लेकिन कारण चाहे कुछ भी रहे हों, ऐन वक्त पर ‘राजनीतिक त्याग’ की अद्भुत मिसाल पेश करते हुए सोनिया गांधी ने अपनी जगह डा.मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया था. कहा जाता है कि प्रधानमंत्री बनने पर उनके विदेशी मूल के रूप में विपक्ष के हाथ एक मजबूत राजनीतिक हथियार मिल सकता था, इससे बचने के लिए भी उन्होंने मना कर दिया था. वैसे, अप्रैल 1999 में वह प्रधानमंत्री बनने के इरादे से ही समर्थक सासंदों की सूची के साथ राष्ट्रपति भवन की ड्योढ़ी तक गई थीं लेकिन तब ऐन वक्त पर मुलायम सिंह यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने उनका राजनीतिक खेल बिगाड़ दिया था.
जो भी हो 2004 में आठ वर्षों के अंतराल के बाद बनी कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार में सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनने के बावजूद सरकार और संगठन में भी सर्वशक्तिमान के रूप में उभर कर सामने आईं. उन्हें सत्तारूढ़ यूपीए और राष्ट्रीय विकास परिषद का अध्यक्ष बनाया गया. 2004 में फोर्ब्स पत्रिका ने उन्हें विश्व की तीसरी और 2007 में विश्व की छठी सबसे ताकतवर महिला घोषित किया. 2007-08 के लिए टाईम पत्रिका ने उन्हें विश्व की एक सौ सबसे महत्वपूर्ण शख्सियतों में शुमार किया. उनका राजनीतिक कौशल तो 2009 के चुनाव में देखने को मिला जब कांग्रेस को लोकसभा की दो सौ से ज्यादा सीटें मिलीं और उसके नेतृत्व में यूपीए लगातार दूसरी बार सत्तारूढ़ हुआ. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही बने. इस बीच कांग्रेस संगठन और सरकार पर भी पकड़ मजबूत बनाते हुए सोनिया गांधी ने नई पीढ़ी, अपने सांसद एवं कांग्रेस के महासचिव पुत्र राहुल गांधी के अपेक्षाकृत युवा हाथों में अपना उत्तराधिकार यानी कांग्रेस की बागडोर सौंपने की कवायद शुरू कर दी है. जयपुर में कांग्रेस के तीसरे चिंतन शिविर से राहुल गांधी कांग्रेस संगठन में नंबर दो यानी उपाध्यक्ष के रूप में निकले. उनके पास अभी कांग्रेस अध्यक्ष का औपचारिक ठप्पा नहीं है लेकिन माना जा रहा है कि कांग्रेस लोकसभा का अगला चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ेगी.
इन बीते 15 वर्षों में कांग्रेस संगठन में जान फूंकने और जीत का जज्बा पैदा करने का श्रेय अगर श्रीमती गांधी को है तो कुछ विफलताएं भी उनके नाम हैं, मसलन कभी कांग्रेस का राजनीति का गढ़ रहे हिंदी पट्टी के उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में कांग्रेस को इसका गौरवशाली अतीत वह नहीं दिला सकीं. गुजरात में लगातार चार-पांच चुनावों से उनकी पार्टी सत्ता से दूर है. महाराष्ट्र में शरद पवार की राकांपा के साथ गठबंधन इसकी मजबूरी सी बन गई है. तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल में और अब तो आंध्र प्रदेश में भी कांग्रेस किसी सहयोगी दल के ही भरोसे है. अपने बूते इन राज्यों में आज भी कांग्रेस न तो सत्तारूढ़ होने का दम भर सकती है और ना ही वहां लोकसभा की सर्वाधिक सीटें जीत सकने का दावा. कई राज्यों में कांग्रेस संगठन लुंज पुंज दशा में है. प्रदेश अध्यक्ष त्यागपत्र दे चुके हैं, उनके स्थानापन्न की घोषणा अरसे से लटकी पड़ी है. वह कांग्रेस संगठन में अदंरूनी लोकतंत्र बहाल करने में भी सफल नहीं हो सकी हैं. इसकी चर्चा कई अवसरों पर राहुल गांधी भी कर चुके हैं और सबसे बड़ी बात यह कि 1998 में भी कांग्रेस गांधी परिवार की मोहताज थी, आज 15 साल बाद भी है, इसे आप कमजोरी कह सकते हैं और इसकी ताकत भी.
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