Tuesday, 4 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 3: हम तो मर मर के जीते हैं




जयशंकर गुप्त


जैसलमेर से बाहर उत्तर पश्चिम की ओर निकलते ही कंकरीली-रेतीली झाड़ियों से भरे मैदान दूर दूर तक दिखाई देते हैं. सड़क सीमा संगठन द्वारा बनाई सड़क सीधे जैसलमेर से 130 किमी दूर पाकिस्तान सीमा के पास स्थित तनोट तक जाती है. कहीं कहीं सड़क पर रेत भर जाने से कठिनाई होती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर बड़े बड़े दैत्याकार पंखों वाले मोटे खंभों की कतार दिखती है. ये खंभे यहां बड़े पैमाने पर पवन ऊर्जा (विंड एनर्जी) के उत्पादन में लगी कंपनियों सुजलान एनर्जी और एनरकान के हैं. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े काम हो रहे हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे तकरीबन 500 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है. पवन ऊर्जा के उत्पादन में लगी कंपनियों की मानें तो अगर स्थापित क्षमता का संपूर्ण उपयोग हो जाए तो पूरे देश का बिजली संकट इससे दूर हो सकता है. कहीं-कहीं सौर ऊर्जा के संयंत्र भी दिखते हैं.

सड़क किनारे झोंपड़े में लू से बचाव और चाय की तैयारी में चरवाहे 

थोड़ा और आगे सोनु गांव के पास लाइम स्टोन की खदानें एवं लाइम स्टोन क्रशर दिखते हैं. बताते हैं कि यहां उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर मिलते हैं जिनका इस्तेमाल इस्पात कारखानों में होता है. जैसलमेर में बड़े पैमाने पर जिप्सम की खदानें भी हैं. कुछ जगहों पर तेल के भंडार भी मिले हैं. रामगढ़ के पास रिफाइनरी भी बन रही है. जैसलमेर और तनोट से समान (65 किमी) दूरी पर स्थित रामगढ़ कस्बेनुमा ग्राम पंचायत है जो आसपास के ग्रामीण इलाकों के लिए हर तरह की सुविधों की आपूर्ति का केंद्र और बाजार भी है. रामगढ़ के थोड़ा आगे बढ़ने पर पानी से भरी नहर मिलती है जिसके चलते आसपास के इलाकों में हरियाली और खेत भी नजर आते हैं. लेकिन उससे 25-30 किमी और आगे रणाऊ की ढाणी तक एक बार फिर रेतीले बंजर में कीकर, खेजरी और जाल घास के अलावा कुछ नहीं दिखता. रास्ते में एक जगह फूस के झोंपड़े में कुछ लोग बैठे हैं. पता चला कि आसपास के गांवों के चरवाहे हैं. मवेशी तो मैदान में चर रहे या पेड़ों, घास के झुरमुटों में छांह खोज रहे हैं जबकि चरवाहे इसी तरह के झोंपड़ों में बैठे आराम कर रहे होते हैं. कई बार ये लोग रात को भी यहीं कहीं सो जाते हैं. झोंपड़े में कुल तीन लोग हैं और साथ में भेड़ का एक मेमना भी. लकड़ी सुलगाकर चाय बन रही है.

 रणाऊ में बेकार खड़ा पवन ऊर्जा का खंभा 
गे दूर से ही रणाऊ गांव नजर आता है जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नजर नहीं आता. सड़क से 300-350 मीटर दूर बसे सोलंकी राजपूतों के इस गांव में प्रवेश करते समय हमारी गाड़ी रेतीले रास्ते में फंस गई. ड्राइवर के लाख जतन करने पर भी रेत में धंसे कार के पहिए आगे-पीछे होने का नाम न लें. तपती रेत पर पैदल ही गांव में जाना पड़ा. रेत पर बसे गांव में एक महिला घर में भर गई रेत निकाल कर बाहर रख रही थी. पूछने पर बताती है कि यह तो आए दिन की बात है. जब भी तेज हवा या आंधी चलती है घरों में रेत भर जाती है. कुछ महिलाएं गांव से नीचे सड़क के पास टैंक से सिर पर घड़ों में पानी भरकर ला रही हैं. पता चला कि ट्यूबवेल में खराबी के कारण सात आठ दिन तक पानी नहीं आया था. रघुनाथ सिंह बताते हैं कि पानी के बिना बड़ी मुश्किल हुई थी. काफी अनुनय-विनय के बाद सीमा सुरक्षा बल के लोगों ने कुछ पानी दिया था. वह बताते हैं कि 70-80 घरों की इस ढाणी को आयल इंडिया ने गोद लिया है. ट्यूबवेल भी उसी ने लगाया है. उसके सौजन्य से कुछ साल पहले पवन ऊर्जा का एक खंभा भी गड़ा था लेकिन उससे बिजली आज तक नहीं मिली. बेकार खड़ा है. गांव में स्कूल है जहां आठवीं तक की पढ़ाई होती है. आसपास कोई अस्पताल नहीं है. न ही कोई डाक्टर-कंपाउंडर या एएनएम कभी इधर का रुख करता है.

 रेत के उपर बने घरों के सामने बात करती कमला देवी-
हम तो मर मर के जीते हैं
भी हमारी बात चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी महिला कमला देवी सामने आती हैं और हमारा ही इंटरव्यू लेना शुरू कर देती हैं. बाद में कहती हैं, इस तरह के पूछने वाले बहुतेरे आते हैं लेकिन कुछ करते नहीं. लौटने के बाद सब भूल जाते हैं. आप भी भूल जाओगे. हमारी परेशानी ऐसे ही रहेगी. वह कहती हैं, ‘‘हम लोग तो यहां मर-मर के जीते हैं. गर्मी में गर्मी और लू सताती है. बरसात में मिट्टी-गोबर के घर गिरने लग जाते हैं. सर्दियों में ठंड सताती है. सर्दियों में रेत एकदम से ठंडी हो जाती और कई बार तापमान शून्य तक पहुंच जाता है. वह बताती हैं कि सिरदर्द की टिकिया से लेकर बुखार और डिलीवरी तक के लिए रामगढ़ जाना या फिर डाक्टर को फोन करके बुलाना पड़ता है. इस सड़क पर केवल एक बस चलती है. सुबह तनोट से रामगढ़ होकर जैसलमेर जाती है और फिर शाम को वही बस लौटती है. बाकी समय के लिए रामगढ़ से फोन करके टैक्सी बुलानी पड़ती है जो इमरजेंसी में एक हजार रु. भाड़ा लेता है. कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. यहां लैंड लाइन नहीं. मोबाइल फोन की सुविधा भी नहीं के बराबर है. बीएसएनएल का टावर तनोट में है लेकिन कनेक्टिविटी नहीं. ऊपर टीले पर जाने और मौसम साफ होने पर ही बातचीत हो पाती है. राशन से लेकर सब्जी या कोई अन्य सामान रामगढ़ से ही मंगाना पड़ता है. पूरा गांव जीविका के लिए पशुपालन पर ही निर्भर करता है. लेकिन इस गांव में बच्चों में पढ़ने की ललक दिखती है.

गाय दूध रही एक महिला
णाऊ से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक रास्ता गुर्दूवाला गांव की तरफ जाता है. तीन किमी के रास्ते में सेना के दस्ते और रेतीली पहाड़ियों पर उनके बंकर भी नजर आते हैं. गुर्दूवाला रेत के टीले पर बसा राजपूतों का गांव है. नीचे प्राइमरी स्कूल के पास खेल रहे बच्चों में स्वरूप सिंह भी है जो सातवीं में पढ़ने के लिए सोनु जाकर रहता है. वह नंगे पावं तपती रेत में दौड़कर गांव वालों को बुलाकर लाता है. सभी लोग स्कूल में जमा होते हैं. एक और युवक भूर सिंह 70 किमी दूर अपनी बहन के गांव हावुर (पूनमनगर) में जाकर दसवीं की पढ़ाई कर रहा है. छुट्टियों में गांव आया है. वह बताता है कि गांव तक सड़क है लेकिन बस नहीं आती. पानी के लिए जल दाय विभाग का ट्यूबवेल है जिसे चलाने की जिम्मेदारी गांव के ही दो युवकों पर है. सरकारी कर्मचारी कभी नहीं आता. इन्हें अपने वेतन से कुछ रु. देकर काम करवाता है. भूर सिंह बताता है कि गांव में रेत उड़ते रहती है. जवान लोग तो मवेशियों के साथ बाहर निकल जाते हैं. रात को जंगल में ही रह जाते, रोटियां सेंकते और बकरी के दूध में मिलाकर पी जाते हैं. कई बार आटे में रेत भी मिल जाती है. ये लोग भी रणाऊ  के लोगों की तरह ही यहां चार पीढियों से रह रहे हैं. गर्मी से बचाव के लिए क्या करते हैं? पूछने पर भूर सिंह बताता है कि भोगोलिक परिस्थितियां सब कुछ सहने के लायक बना देती हैं. लोग अपनी आवश्यकताओं को उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से ढाल लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में जो पानी मिलता है वह खारा, नमकीन होता है. उसमें फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन गांव के लोग उसी का इस्तेमाल नहाने और पीने के लिए भी करते हैं. जिनके पास पैसे हैं वे मीठा पानी खरीदकरमंगाते हैं. गांव के बुजुर्ग कर्ण सिंह इस बात से खफा हैं कि अभी तक गुर्दूवाला को राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिल सका है. हर छोटे बड़े काम के लिए रामगढ़ या जैसलमेर के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सरकारी योजनाओं का उन्हें पता भी नहीं लगता, लाभ मिलना तो दूर बात है. किसी भी स्कूल में यहां मिड डे मील जैसी योजना का अता-पता नहीं.

माता तनोट राय का मंदिर

 तनोट की देवी का मंदिर
गुर्दूवाला से हम तनोट की तरफ बढ़ते हैं. ग्रामीणों की मदद से कार सड़क पर पहुंच जाती है. तनोट भी एक छोटी सी बस्ती है, दलित मेघवालों की. तनोट की ख्याति 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण हुई थी. पाकिस्तानी फौज यहां लोंगेवाला होते हुए अंदर तनोट तक आ गई थी. सीमा सुरक्षा बल के लोगों का कहना है कि कम संख्या में मौजूद भारतीय जवान घिर गए थे. तभी वहां प्रकट सी हुई किसी महिला (देवी) ने उनसे मंदिर की ओट में आ जाने को कहा था. बताते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों ने वहां तकरीबन तीन हजार बम गोले बरसाए. 450 गोले मंदिर के पास भी गिरे लेकिन किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ. बहुत सारे गोले तो फटे ही नहीं. उन्हें मंदिर प्रांगण में ही सहेजकर रख गया है. इसी तरह 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी लोंगेवाला पोस्ट तक घुस आई थी लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और भारतीय सेना ने उन्हें मारते, वापस
 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय मंदिर के पास गिराए 
पाकिस्तानी गोले जो फूट नहीं सके थे.
मंदिर में अन्य स्मृति चिह्नों, तस्वीरों के साथ उन्हें भी 
सहेजकर रखा गया है

खदेड़ते हुए उनके टैंक व गाड़ियां कब्जे में ले लिया था. इसे भी सेना और सीमा सुरक्षा बल के लोग देवी के चमत्कार से ही जोड़कर देखते हैं. बताते हैं कि उस समय वहां पोस्ट पर रहे जवान और अफसर साल में एक बार जरूर तनोट की देवी का दर्शन करने यहां आते हैं. अब तो वहां सीमा सुरक्षा बल की देख रेख और प्रबंधन में भव्य मंदिर, धर्मशाला और कार्यालय भी खुल गए हैं. देश भर से श्रद्धालुओं का यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है.

नोट से लौटते समय हम लोंगेवाला पोस्ट होकर रामगढ़ आते हैं. लोंगेवाला में उस विजय स्तंभ और भारतीय सैनिकों द्वारा कब्जा किए गए पाकिस्तानी टैंक को देखते हैं. रास्ते में जगह-जगह मुख्य नहर से जोड़ने के नाम पर बनाई गई पक्की नालियां दिखती हैं जो जगह-जगह से टूटी-फटी हैं और सरकारी कामों की गुणवत्ता का बयान करती हैं. नहर का पानी अभी तक इन इलाकों में नहीं पहुंचा है और ना ही आजाद भारत के विकास की कोई किरण. जाहिर सी बात है कि जैसलमेर में दूर दराज के अनेक सीमावर्ती गांव अभी भी पिछड़ेपन का भूगोल बने हैं. चाहे गर्मी हो अथवा सर्दी और बरसात, उन्हें तो मर-मर के ही जीना पड़ता है.


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

इस लेख यात्रा वृतांत एवं ब्लॉग पर प्रकाशित अन्य लेखों पर प्रतिक्रिया jaishankargupta@gmail.com पर भी दी जा सकती हैं.

Monday, 3 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 2: सम के पास सूर्यास्त का सौंदर्य

सम के पास रेत के टीबों पर सूर्यास्त का सौंदर्य और ऊँट की सवारी 
जैसलमेर रेलवे स्टेशन पर दिन के 12 बजे रेल गाड़ी से बाहर निकलते ही शहर में मौसम का मिजाज समझ में आने लगता है. मटमैली रेतीली धूल से ढके आसमान से लगता था कि अंगारे बरस रहे हैं. दिन का तापमान 46-47 डिग्री सेल्यिस को छूने को बेकरार था (कभी-कभी तो यहां तापमान 50 के पार भी पहुंच जाता है.शहर में कर्फ्यू जैसा सन्नाटा पसरा है. स्टेशन से यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में लगे आटो रिक्शा और टैक्सियों के अलावा सड़कों पर बहुत कम वाहन दिखते हैं. बाजार में भी चहल-पहल गायब है. शाम को हम जैसलमेर से 45 किमी दूर सम के लिए रवाना होते हैं. सम के पास रेत के टीबों या कहें टीलों (सैंड ड्यून्स) से सूर्यास्त के सौंदर्य का नजारा बेहद मनमोहक लगता है. इसे देखने के लिए देश और दुनिया भर से हजारों पर्यटक यहां खिंचे चले आते हैं. लेकिन गर्मी के दिनों में पर्यटकों की आमद कम हो जाती है. सम के पास सड़क से अक्सर स्थान बदलते रहते रेत के टीबों तक जाने के लिए ऊंट की सवारी करनी पड़ती है. तपती धरती-रेत और आग के गोले बरसाते आसमान के बावजूद कुछ देसी-विदेशी पर्यटक  ऊंटों पर सवार होकर रेत के टीबों तक पहुंचते हैं. शाम शुरू होने के साथ ही रेत की गरमी भी कम होनी शुरू हो जाती है. रात दस-ग्यारह बजे तक रेत ठंडी होने लगती है. मौसम का मिजाज भी बदल जाता है. दिन की तपिश सुहानी ठंड में बदल जाती है. आधी रात होने तक तो कंबल-रजाई ओढ़ने की नौबत आ जाती है.

 म के पास सूर्यास्त तकरीबन 7.40 बजे होता है लेकिन आसमान में उस दिन छाई रेतीली धूल के कारण सूर्य देवता सूर्यास्त से कुछ मिनट पहले ही आंखों से ओझल हो गए. कुछ लोग वापस लौटते हैं तो कुछ मौज मस्ती के मूड में रेत पर लोटते-पोटते, खेलते नजर आते हैं. यहां की रेत शरीर और कपड़ों से चिपकती नहीं है. जानकार लोग बताते हैं कि एक जमाने में रेत के टीबों का क्षेत्रफल और उनकी ऊंचाई काफी अधिक होती थी लेकिन अब बदलते पर्यावरण, जिले में नहर आदि से बढ़ रही हरियाली आदि के कारण भी रेत के टीबों की ऊंचाई और क्षेत्रफल कम होते जा रहा है.

सम के आगे अंधेरा है 

म सम से आगे बढ़ते हैं. रास्ते में पर्यटक मौसम में गुलजार रहने वाले बहुत सारे होटल, रिजार्ट, हट्स-स्विस टेंट्स वीरान नजर आते हैं. सूर्यास्त के बाद सम के आगे एक अजीबोगरीब अंधेरे से सामना होता है जो न सिर्फ इस इलाके में पिछड़ेपन के भूगोल और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित गांवों-ढाणियों के दर्शन कराता है, देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाता है. सबरों की ढाणी से पगडंडी रास्ते से होते हुए हम मेण़ुवों की ढाणी पहुंचते हैं. पूरा इलाका अंधकार में डूबा है. दूर दूर तक रोशनी का नामो निशां भी नहीं. कार की हेडलाइट्स देख कुछ लोग पास जमा हो जाते हैं. मिट्टी-पत्थरों से बनी दीवारों और एक खास तरह के फूस से बनी छत वाले छोटे से कमरे में 12-13 साल की बच्ची झिमा खान लकड़ी के चूल्हे में फूंक मारकर रोटियां सेंक रही है. एक अन्य कमरे से निकले प्यारे खान बताते हैं कि दस साल पहले गांव में बिजली के कुछ खंभे गाड़े गए थे लेकिन उनमें तार और बिजली कनेक्शन नहीं जोड़े जाने के कारण गांव में आज तक रोशनी नहीं आ सकी. बिजली नहीं तो पंखे-कूलर की बात बेमानी है. गर्मी का सामना कैसे करते हैं? प्यारे खान बताते हैं कि दिन में आमतौर पर घर से बाहर लोग, खासतौर से बूढ़े और बच्चे कम ही निकलते हैं. शरीर पर पानी भिंगोए कपड़े लपटते रहते हैं. ठंडा रखने के लिए मिट्टी के घड़ों-मटकों में पानी भरकर रखते हैं. पानी कम पीने की आदत बन गई है. गर्मी के दिनों में गाय का छाछ-मट्ठा, बकरी का दूध सबसे सुलभ और स्वास्थ्यकर पेय है. तकरीबन एक सौ घरों और 300 लोगों की इस बस्ती में पानी या तो 27 किमी दूर नहर से या फिर नौ किमी दूर सम से टैंकर में आता है. घर के पास बने टंका-सीमेंट की टंकी-में पानी जमा करते हैं. उसी से पानी पीते, नहाते और मवेशियों को भी पिलाते हैं. कुछ गांवों में ट्यूबवेल से पानी जीएलआर (ग्राउंड लेबल रिजर्वायर) में जमा होता है, उससे ग्रामीण घड़ों और पखालों-ऊंट की खाल से बने हौदों-में पानी भरकर घर के पास बनी टंकियों में जमा करते हैं. मिश्री खान बताते हैं कि सप्ताह में एक बार ही वे लोग नहा पाते हैं. पूरी बस्ती में शौचालय का कोई इंतजाम नहीं, लोग और महिलाएं भी खुले में ही शौच के लिए जाते हैं. गांव में एक भी पढ़ा-लिखा, साक्षर नहीं है. प्राइमरी स्कूल है लेकिन बकौल करमाली खान, टीचर कभी आते ही नहीं, पढ़ाई कैसे हो. वैसे, स्थानीय लोग बच्चों और खासतौर से बच्चियों को तालीम देने में ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आते. यही हाल बगल की मतुओं की बस्ती और सगरों की बस्ती का भी है. बीमार पड़ने पर नौ किमी दूर सम में स्थित प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर जाना पड़ता है या फिर जैसलमेर. मोबाइल फोन अधिकतर लोगों के पास हैं. लेकिन नेटवर्क कनेक्शन की और बिजली के अभाव में फोन को चार्ज करने की समस्या आम रहती है. इन गांवों में लोगों की जीविका का मुख्य साधन कैमल सफारी-ऊंट की सवारी-और मवेशी पालन होता है. लोग बड़े पैमाने पर गाय-भेड और बकरियां पालते हैं. इन इलाकों में भैंसें नहीं के बराबर दिखती हैं क्योंकि उन्हें पानी की अधिक दरकार होती है. बरसात के बाद ग्वार-बाजरा की खेती भी हो जाती है.

नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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तपती गर्मी में जैसलमेर 1: प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी

जयशंकर गुप्त

प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी  



'सोने का किला !'
पिछले सप्ताह राजस्थान के जैसलमेर जिले में जाना हुआ. जैसलमेर हम पहले भी जा चुके हैं लेकिन इस बार की बात कुछ और थी. ऐसे समय में जबकि दिन का तापमान तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, थार मरुस्थल वाले जैसलमेर की यात्रा! अटपटी सी बात लगती है. लेकिन चहुंओर मरुस्थल, रेत के टीबों (धोरों), कीकर (बबूल)- और खेजरी के सूखे-हरे दरख्तों, जालों और जहा-तहां भेड़-बकरियों, गायों के अलावे और कुछ भी नहीं दिखनेवाले जैसलमेर के भारत-पाकिस्तान सीमा से लगे ग्रामीण इलाकों में भी तो लोग जीते हैं. कैसे? यह जानना ही अपनी यात्रा का मकसद था.

जैसलमेर की ख्याति यहां सुनहरे किले और खासतौर से यहां से 45 किमी दूर सम के पास रेत के टीबों से सूर्यास्त के मनमोहक सौंदर्य के नजारे के लिए ही रही है. जैसलमेर का किला सोने का नहीं बना है और न ही इसकी दीवारों पर सोने का रंग चढ़ा है. लेकिन यहां 25 किमी के दायरे में स्थित 20 फुट गहरी खदानों से निकलने वाले सुनहरे रंग के रेतीले पत्थरों (सैंड स्टोन्स) से बना होने के कारण दूर से, और खासतौर से चटखती धूप अथवा रात में बिजली की रोशनी में भी यह किला सोने की तरह दमकता है. और अब तो शहर में तथा जिले में भी अधिकतर इमारतों के भी इन्हीं पत्थरों से बनी होने के कारण जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाने लगा है. प्रख्यात फिल्मकार स्व. सत्यजित रे ने किले की इसी खूबी के कारण एक फिल्म बनाई थी, ‘सोनार किल्ला’ यानी सोने का किला. इन पत्थरों की खासियत अपेक्षाकृत कमजोर होने और धूप में सोने जैसे दमकने के साथ ही ईंट के मुकाबले सस्ते, गर्मी में अपेक्षाकृत ठंडे और सर्दियों में गरम होने की भी है. किले की एक खासियत और भी है. देश और दुनिया में भी यह शायद पहला किला है जहां भरी पूरी आबादी और बाजार भी है. इसलिए भी देश और विदेश से बड़े पैमाने पर पर्यटक यहां हर साल आते हैं. पर्यटकों का मौसम यहां जुलाई-अगस्त से लेकर मार्च-अप्रैल तक होता है. पाकिस्तान की सीमा से लगा होने के कारण जैसलमेर और आसपास की आबादी का बड़ा हिस्सा सीमा सुरक्षा बल, भारतीय सेना और वायुसेना के लोगों का है. एक तरह से देखें तो जैसलमेर की अर्थव्यवस्था मुख्यरूप से पर्यटकों और सेनाओं तथा सीमा सुरक्षा बल के जवानों-अफसरों पर ही टिकी है.

सड़क किनारे झोंपड़े में गर्मी से बचाव और चूल्हे पर पकती चाय 
हाल के वर्षों में जैसलमेर में कई तरह के बदलाव आए हैं. इंदिरा गांधी नहर के प्रवेश के कारण कई इलाकों में पानी पहुंचने लगा है. कहीं कहीं हरियाली भी दिखने लगी है. इसके चलते बरसात की मात्रा भी बढ़ी है,  (एक जमाने में बरसात यहां नहीं के बराबर होती थी. कहा तो यह भी जाता है कि एक बार गांव में बरसात हुई तो एक आठ-दस साल का बच्चा डर कर घर में घुस गया क्योंकि उसने कभी आसमान से पानी बरसते देखा ही नहीं था. इसी तरह से कुछ वर्षों पूर्व अचानक भारी बरसात के कारण जैसलमेर में आयी बाढ़ से डरकर लोग घरों में छिप गए थे), रेगिस्तान या कहें रेत के टीबे भी सिमटने लगे हैं. सैंड स्टोंस, लाइम स्टोन, जिप्सम जैसे खनिजों के कारण और फिर हाल के वर्षों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा के संयंत्रों के कारण और इन सबके अलावा अब दिल्ली से सीधी रेल सेवा जैसलमेर तक पहुंचने के कारण पर्यटकों की आमद लगातार बढ़ते जाने से यहां आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं. इससे पहले हवाई जहाज से अथवा रेलगाड़ी से भी जोधपुर और वहां से तकरीबन 300 किमी तक की जैसलमेर की दूरी टैक्सी, बस अथवा छोटी लाइन की छुकछुक रेलगाड़ी से तय करनी पड़ती थी.

लेकिन इन सारी गतिविधियों और विकास कार्यों का जैसे जिले के दूर दराज के, पाकिस्तान की सीमा से सटे गांवों-ढाणियों-बस्तियों में रहने वाले ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक सेहत पर खास असर नहीं पड़ा है. चरम को छूती गर्मी हो अथवा बरसात या फिर सर्दियों में हाड़ कंपाने और शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने वाली ठंड, दूर दराज के गांवों और ढाणियों में रहने वालों के लिए मुश्किलें बढ़ा देती है. गर्मी तो इन दिनों दिल्ली और  देश के अन्य हिस्सों में भी तकरीबन इसी हिसाब से पड़ रही है लेकिन अभाव की जिंदगी जैसलमेर के मरुस्थली इलाकों में गर्मी को और भी मारक बना देती है. दूर दूर तक आबादी का नामो निशां नहीं. चारों तरफ रेतीले बंजर में कीकर (बबूल),खेजरी और जाल की घासें. कहीं कहीं गाय, भेड़-बकरियों के झुंड नजर आ सकते हैं. या फिर फूस के झोंपड़ों में गर्मी से पनाह लेते चरवाहे. यहां भी शहर-कस्बों में जहां पक्के मकान हैं और बिजली-पानी की सुविधा उपलब्ध है, लोग पंखे, एसी, कूलर के जरिए गर्मी से बचाव कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में ऐसे कई गांव और ढाणियां हैं जहां अभी तक सड़क, बिजली पहुंची ही नहीं. पानी का भी अभाव है. सूर्य की तपिश बढ़ने पर लोग गोबर मिश्रित मिट्टी से बने घरों में दुबके रहते, भींगे कपड़ों से तन को लपेटकर गर्मी से बचाव करते हैं. अगर बाहर निकल गए हैं तो हरे-सूखे दरख्तों अथवा घास-जालोंकी छांह या उसका एहसास ही रक्षा कर सकती है. छांह की तलाश में मवेशी भी भटकते रहते हैं. इन सबके बीच रेतीली आंधी लोगों की दुश्वारियों को और बढ़ा देती है. आंधी के कारण तापमान में थोड़ी कमी जरूर आ जाती है लेकिन इससे रेत घरों में घुस जाती है. जब आंधी चलती है, पास से भी कुछ भी दिखाई नहीं देता.


तपती रेत में नीचे ट्यूबवेल से पानी लाती महिलाएं 


लेकिन देश के अन्य हिस्सों की गर्मी और यहां रेगिस्तानी इलाकों की गर्मी में एक बुनियादी फर्क है. अगर हवा चल रही है और आप पेड़-दरख्त की आड़ में हैं तो रहत महसूस कर सकते हैं. और फिर यहां सूर्योदय के साथ ही रेत जिस रफ्तार से गरम होती है, सांझ ढलने के साथ ही उसी रफ्तार से ठंडी भी होने लगती है. रात होने तक तो पूरे इलाके में तापमान इतना ठंडा (25-26 डिग्री सेल्सियस अथवा इससे कम भी) हो जाता है कि बाहर मैदान में सोने वाले को कंबल अथवा रजाई के बगैर रात काटनी दूभर हो जाती है. इलाके के ग्रामीण बताते हैं कि उन्होंने अभाव की जिंदगी के साथ यहां मौसम का मुकाबला करना सीख लिया है. ठंडे पानी के लिए रेतीली मिट्टी में धंसाकर रखे घड़ों-मटकों में भरा पानी ठंडा रहता है. पीने का हो अथवा नहाने का, आदमी के लिए हो अथवा मवेशी के लिए, पानी के लिए लोगों को सरकारी ट्यूबवेल से भरे टैंक और टैंकरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. लोग अपने घरों के सामने सीमेंट, चूने की टंकी बना कर उसमें पानी जमा कर लेते हैं. पानी कम पीने और कई कई दिन बाद नहाने की आदत सी बन गई है. अधिकतर इलाकों में पानी खारा और नमकीन तथा फ्लोराइडयुक्त होता है. अक्सर तमाम तरह की मौसम और जल जनित बीमारियों का सामना भी ग्रामीणों को करना पड़ता है. आसपास प्रशिक्षित डाक्टर और नर्सों वाले सरकारी अस्पताल नहीं. मामूली बीमारी के लिए भी जैसलमेर और जोधपुर तक जाना ग्रामीणें की नियति है. रास्ते में मरीज का दम तोड़ देना आम बात है. ग्रामीण इलाकों, खासतौर से पंचायत और प्रखंड मुख्यालयों पर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हैं भी तो वहां डाक्टर नहीं मिलते. गांवों में और वह भी गर्मियों में सरकारी डाक्टरों का इन इलाकों में मिलना किसी देवी देवता के दर्शन से कम नहीं. यही हालत स्कूलों की भी है. ग्रामीण इलाकों में अधिकतर स्कूलों में शिक्षक आते ही नहीं तो बच्चे भी नदारद ही रहते हैं. गांवों-ढाणियों में कुछ पैसेवालों को छोड़ दें तो शौचालय की सुविधा नहीं के बराबर नजर आती है. शौच के लिए खुले में ही जाना पड़ता है. खासतौर से औरतों को रात के अंधेरे में ही खुले मैदान में जाना पड़ता है. दिन में उन्हें झुरमुटों की आड़ की तलाश में बहुत दूर तक जाना पड़ता है. जैसलमेर के ग्रामीण इलाकों में अभाव की यह जिंदगी देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है. क्या दिल्ली के वातानुकूलित कमरों-कार्यालयों में बैठे हमारे योजना आयोग और उसके कर्ता -धर्ताओं को इसका एहसास है?


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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