लोकसभा चुनाव में अभी भी एक साल से कुछ अधिक का समय बाकी है. अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, इसकी पेशबंदियां अभी से शुरू हो गई हैं. कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी भले ही कहते फिरें कि वह प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहते, कांग्रेसजनों, देश-विदेश के राजनीतिक पंडितों से लेकर आम लोगों तक को पता है कि अगर अगले चुनाव में कांग्रेस अथवा उसके नेतृत्ववाले यूपीए को बहुमत मिलता है तो प्रधानमंत्री राहुल गांधी ही बनेंगे. बीच-बीच में वित्तमंत्री पी चिदंबरम का नाम भी उछलता है. मनमोहन सिंह के तीसरे कार्यकाल की अटकलें भी गाहे-बगाहे लगती रहती हैं. कृषिमंत्री एवं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद पवार अपना नाम भी अपने लोगों से उछलवाते रहते हैं. इसके पीछे क्या राजनीतिक गणित है, पवार साहब ही बेहतर बता सकते हैं. मुलायम सिंह यादव भी गैर कांग्रेस, गैर भाजपा दलों के तथाकथित तीसरे मोर्चे के दम पर प्रधानमंत्री बनने के सपने संजोए हैं. हालांकि उनके अपने ही राज्य उत्तर प्रदेश में उनके कुनबे के शासन के बावजूद उनकी पार्टी की हालत खस्ता होते दिख रही है.
दूसरे मजबूत दावेदार के बतौर मुख्य विपक्षी दल, भारतीय जनता पार्टी की तरफ से गुजरात में मुख्यमंत्री के रूप में चुनावी जीत की तिकड़ी बनाने वाले नरेंद्र मोदी के लिए जबरदस्त और सुनियोजित अभियान उनकी पार्टी के भीतर और कारपोरेट लाबी द्वारा भी चलाया जा रहा है. माना जा रहा है कि अगला चुनाव गांधी (राहुल) बनाम मोदी (नरेंद्र) का ही होगा. मोदी और उनकी राजनीति से सहमत और असहमत हुआ जा सकता है लेकिन पिछले सप्ताह यहां दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में मोदी के पक्ष में जिस तरह का माहौल बनाया गया, उससे साफ लगता था कि भाजपा के नेता और कार्यकर्ता अब एकमात्र उन्हें ही भाजपा की चुनावी नैया का खेवनहार मान चुके हैं. लेकिन क्या मोदी के नाम पर भाजपानीत राजग के बाकी घटक दल सहमत हो सकेंगे. और अगर वे सहमत हो भी गए तो क्या राजग का मौजूदा स्वरूप लोकसभा चुनाव में सरकार बनाने लायक बहुमत ला सकेगा. यह चिंता मोदी, भाजपा और उसे संचालित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व की भी है.शायद यह भी एक कारण हो सकता है कि भाजपा एक बार फिर अपना राजनीतिक चोला बदलने और राजग के विस्तार के फेर में लगती है.
भाजपा की राष्ट्रीय परिषद से ठीक पहले जमीयत ए उलेमाए हिंद के नेता, सांसद महमूद मदनी तथा देवबंद के उप कुलपति रहे गुलाम मोहम्मद वस्तानवी का उनके समर्थन में बयान आना संयोगमात्र नहीं है. मोदी जानबूझकर इलाहाबाद के महाकुंभ के अवसर पर विश्व हिंदू परिषद और संत सम्मेलन में नहीं गए. वहां उन्हें भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जाने से लेकर अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के स्वर तेजी से गूंजे. मोदी उसमें सहभागी होने से बचना चाहते थे! यही नहीं भाजपा की हाल के वर्षों में यह शायद पहली राष्ट्रीय परिषद थी जिसमें वरिष्ठ नेताओं के भाषणों से लेकर उसके राजनीतिक प्रस्ताव में भी इसके तीनों परंपरागत मगर विवादित मुद्दों-अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर का निर्माण, संविधान में कश्मीर से संबंधित धारा 370 को हटाने तथा सबके लिए समान नागरिक संहिता-का जिक्र तक नहीं हुआ. इसके बजाए उनका फोकस रामसेतु और गंगा मुक्ति जैसे मुद्दों पर था. मतलब साफ है, भाजपा और संघ के नेतृत्व को भी इस बात का एहसास है कि चरम हिंदुत्व भी उन्हें लोकसभा की 180 से अधिक सीटें दिला पाने में विफल रहा था. अपनी नई रणनीति के तहत भाजपा अपने नए और पुराने सहयोगी दलों को संदेश देना चाहती है कि वह राजग के विस्तार के लिए अपने परंपरागत मुद्दों को एक बार फिर ठंडे बस्ते में रखने को तैयार है. बता दें कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाले राजग शासन के दौरान भाजपा ने इन तीन और इस तरह के अन्य विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था. 1999 के दिसंबर के अंतिम सप्ताह में चेन्नई में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद में और किसी ने नहीं बल्कि नरेंद्र मोदी ने ही भाजपा के संगठनात्मक मामलों के प्रभारी महासचिव की हैसियत से पेश किए गए राजनीतिक प्रस्ताव में कहा था कि हमारे एक हाथ में भाजपा का झंडा और दूसरे हाथ में राजग का एजेंडा होना चाहिए. हमें अपने कुछ परंपरागत मुद्दों को कुछ समय के लिए ताक पर रख देना चाहिए. भाजपा के रणनीतिकारों को लगता है कि ऐसा करने से न सिर्फ नीतीश कुमार और शरद यादव को भाजपा के साथ बने रहने में किसी तरह की परेशानी नहीं होगी, नवीन पटनायक, जयललिता, चंद्रबाबू नायडू अथवा जगनमोहन रेड्डी, ओमप्रकाश चौटाला और ममता बनर्जी जैसे नेताओं को भी राजग से जोड़ा जा सकेगा. इनमें से कई लोग और उनके नेतृत्ववाले दल अतीत में राजग के घटक रह चुके हैं. यहां एक गौर करने लायक बात यह भी है कि पिछले दिनों ही समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव का एक बयान भी आया था कि भाजपा अगर राम जन्मभूमि तथा अन्य विवादित मुद्दों को छोड़ दे तो उसे सहयोग देने और उससे सहयोग लेने में उन्हें गुरेज नहीं होगा.
वैसे भी, अतीत के वर्षों में भाजपा अपने मुद्दे सांप के केंचुल की तरह छोड़ते-बदलते रही है. कभी लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण के लिए देश भर में राम रथ यात्रा से लेकर बाबरी मस्जिद के विध्वंस का माहौल तैयार करने वाली -जिसके चलते देश के कई हिस्सों में भीषण सांप्रदायिक दंगे हुए और दो संप्रदायों के बीच अजीब तरह की नफरत की दीवार सी खड़ी हो गई थी-भारतीय जनता पार्टी की नेता, इन दिनों लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने कभी कहा था कि राम मंदिर का मुद्दा तो बैंक के बेयरर चेक की तरह था जिसे एक बार ही भुनाया जा सकता था. बाद में भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे ने मेरे साथ एक साक्षात्कार में कहा था कि जिस तरह नदी पार करने के बाद नाव को कंधे पर ढोकर बाहर नहीं ले जाया जाता उसी तरह से राम मंदिर के मुद्दे की राजनीतिक उपयोगिता का सवाल है. गाहे-बगाहे भाजपा के नेताओं को उसके अपने परंपरागत मगर विवादित मुद्दों की याद अब राजनीतिक परिस्थितियों और उपयोगिता को ध्यान में रखकर ही आती है. आश्चर्य नहीं होगा कि आने वाले दिनों में भाजपा और संघ परिवार की ओर से नरेंद्र मोदी को उनके एक और नए ‘अवतार’ पिछड़ी (घांची) जाति के नेता के रूप में पेश और प्रचारित किया जाने लगे. वैसे, प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में अभी भी उनके सामने चुनौतियां कम नहीं हुई हैं. आडवाणी को दरकिनार भी कर दें तो सुषमा स्वराज, मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में तिकड़ी बनाने की कोशिश में लगे सौम्य छवि वाले शिवराज सिंह चौहान और इन सबसे ऊपर भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह की अंदरूनी चुनौती को आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता. देश के विभिन्न हिस्सों में दबंग राजपूत युवा राजनाथ सिंह के रूप में विश्वनाथ प्रताप सिंह और चंद्रशेखर के बाद तीसरे राजपूत प्रधानमंत्री का सपना अभी से संजोने लगे हैं.
सटीक विश्लेषण
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