जयशंकर गुप्त
बीते 22 मई को कांग्रेसनीत संप्रग2 सरकार के चार साल बीत गए. एक तरह से कहें तो केंद्र में संप्रग सरकार के लगातार सत्ता में नौ साल बीत गए. इसको एक और तरह से देखें तो भारतीय जनता पार्टी और इसके नेतृत्ववाले राजग की भी लगातार मुख्य विपक्षी दल या कहें मुख्य विपक्षी गठबंधन बन रहने की उस दिन नौवीं वर्षगांठ थी. कांग्रेस और संप्रग सरकार ने उस दिन अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाया. अखबारों में लंबे चौड़े इश्तिहार छपे. रात को प्रधानमंत्री निवास पर सरकारी उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड जारी होने के साथ ही भव्य भोज भी हुआ. भाजपा ने लगातार मुख्य विपक्ष बने रहने की अपनी नौवीं वर्षगांठ पर अपनी ‘उपलब्धियों का जश्न’ मनाने के बजाए अपनी राजनीतिक ऊर्जा सरकार को उसकी नाकामियों, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर अपने रटे रटाए अंदाज में घेरने में ही खपाई.
सही मायने में कांग्रेसनीत सत्तारूढ़ संप्रग और भाजपानीत विपक्षी राजग की इन चार या कहें नौ वर्षों की उपलब्धियां क्या रहीं. कांग्रेस और संप्रग के लिए तो सबसे बड़ी उपलब्धि लगातार नौ वर्षों तक कई बार अल्पमत में होते हुए भी गठबंधन सरकार चलाते रहने की कही जा सकती है. इस मामले में मनमोहन सिंह पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री कहे जा सकते हैं जिन्होंने लगातार नौ साल किसी सरकार का नेतृत्व किया और दसवां साल पूरा करने जा रहे हैं. उनके पहले कार्यकाल में सरकार ने सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, किसानों की कर्जमाफी, अमेरिका के साथ परमाणु करार जैसे कई उल्लेखनीय काम किए. इन कामों के सहारे संप्रग2 भी सत्तारूढ़ हो सका. उनके पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे कोई बड़े मामले भी सार्वजनिक नहीं हुए जिनके चलते सरकार की थू-थू होती, जैसी आज गाहे बगाहे हो रही है. इसका एक कारण शायद वाम दलों का सरकार को बाहर से समर्थन भी था जो सरकार और उसके फैसलों पर एक तरह का अदृश्य सा नियंत्रण भी रखते थे. लेकिन अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार के विरोध में वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. हालांकि इसका खामियाजा कांग्रेस और संप्रग के बजाय वामदलों को ही लोकसभा और फिर विधानसभा के चुनावों में भी करारी हार के रूप में भुगतना पड़ा था.
लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग 2 की सरकार ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ सकी. हालांकि कांग्रेस को 2004 में 141 के मुकाबले 2009 में लोकसभा की अधिक (206) सीटें मिली थीं. सरकार पर इसकी पकड़ भी पहले से कहीं ज्यादा थी. लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून बनाने और मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी और कैश सबसिडी ट्रान्सफर योजना के अलावा सरकार ने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया जो जनमानस पर सकारात्मक छाप छोड़ सके. मल्टी ब्रांड खुदरा बाज़ार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लाभ भी आमजन को मिलते नहीं दिखा. दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से तेलंगाना राष्ट्र कांग्रेस, आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन, झारखंड विकास मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक जैसे तकरीबन आधा दर्जन घटक दल संप्रग से अलग होते गए. एकमात्र नई एंट्री अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल की हुई. सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की लड़खड़ाती बैसाखी के सहारे टिकी है. भ्रष्टाचार के नित नए किस्से उजागर होते रहे जिनके चलते तकरीबन आधा दर्जन केंद्रीय मंत्रियों को सरकार से बाहर होना और कुछ को जेल भी जाना पड़ा. संवैधानिक पदों और संस्थाओं में नियुक्ति से लेकर अन्य बातों पर टकराव विवाद का विषय बनते रहे. संसद में विपक्ष लगातार नकारात्मक रुख के साथ सरकार के विरुद्ध हमलावर रहा जिससे मौजूदा लोकसभा का अधिकतर समय हल्ला-हंगामे की भेंट ही चढ़ते रहा. यहां तक कि सरकार और कांग्रेस के लिए भी ‘गेम चेंजर’ कहे जाने वाले खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और लोकपाल जैसे विधेयक पारित नहीं कराए जा सके जबकि इन विधेयकों पर विपक्ष की असहमति नहीं के बराबर रही है. और अब जबकि लोकसभा चुनाव में साल भर से भी कम का समय ही रह गया है, कांग्रेस के लिए ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ साबित होने वाले इन विधेयकों का कानून बन पाना संदिग्ध ही लगता है. बचे समय में बमुश्किल मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र की गुंजाइश ही बचती है. चुनाव जब सिर पर हों, विपक्ष कांग्रेस के इन ‘गेम चेंजर’ विधेयकों को पारित कराने के लिए सहयोग भला क्यों करेगा?
उपलब्धियों की कसैटी पर देखें तो भाजपा का रेकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं रहा है. मुख्य विपक्षी दल के नाते उसकी एक भी सकारात्मक भूमिका या कहें ठोस विकल्प पेश करने की कोशिश नहीं दिखी जिसका जनमानस पर सकारात्मक असर देखने को मिला हो. कुल मिलाकर पिछले नौ सालों में विपक्ष और खासतौर से भाजपा की छवि नकारात्मक रवैए और बात बेबात संसद को जाम करते रहने वाले विपक्ष के रूप में ही उभर कर आती रही है. मतभेदों और अंतर्विरोधों वाले राजग में शिवसेना, जद (यू), अकाली दल और हरियाणा जनहित कांग्रेस जैसे दल ही रह गए हैं. संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा ने संसद में जितना आक्रामक तेवर दिखाया, वही तेवर सड़कों पर दिखाने में वह विफल सी रही. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा अथवा राजग के बजाय अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ज्यादा सक्रिय दिखे. दिल्ली में एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में सड़कों पर उमड़े जानाक्रोश और जनांदोलन को भी भाजपा कोई दिशा नहीं दे सकी. यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उसे अपने दो मुख्यमंत्री या कहें दो राज्यसरकारें और एक राष्ट्रीय अध्यक्ष की राजनीतिक बलि देनी पड़ी. उसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अभी कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा जबकि झारखंड में उसके नेतृत्ववाली साझा सरकार उसके हाथ से निकल गई. इस लिहाज से देखें तो भाजपा की पिछले चार साल की राजनीतिक उपलब्धि नकारात्मक ही रही.
अब अगले कुछ ही महीनों बाद दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों में और उसके साथ अथवा कुछ ही महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस को भी अपने सहयोगी दलों के साथ मैदान में उतरकर अपनी उपलब्धियों का लेखा जोखा करना होगा. कांग्रेस को आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसी ने किसी सहयोगी दल के सहारे की जरूरत होगी. इन तीन बड़े राज्यों में लोकसभा की तकरीबन सवा सौ सीटें हैं. बिहार में तो कांग्रेस का लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के साथ चुनावी तालमेल तय सा लगता है. ठीक इसी तरह भाजपा को भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश ( अब तो कर्नाटक में भी इसकी हालत पतली सी हो गई है), पश्चिम बंगाल और ओडिशा में नए-पुराने सहयोगी दलों को फिर से राजग के साथ जोड़ना पड़ेगा. तब कहीं जाकर लड़ाई बराबर के स्तर पर हो सकेगी लेकिन इससे पहले भाजपा को अपना घर भी व्यवस्थित करना पड़ेगा.
(इस लेख के सम्पादित अंश 26 मई 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )
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