Sunday, 26 May 2013

बीत गए चार साल आगे कौन हवाल



जयशंकर गुप्त

बीते 22 मई को कांग्रेसनीत संप्रग2 सरकार के चार साल बीत गए. एक तरह से कहें तो केंद्र में संप्रग सरकार के लगातार सत्ता में नौ साल बीत गए. इसको एक और तरह से देखें तो भारतीय जनता पार्टी और इसके नेतृत्ववाले राजग की भी लगातार मुख्य विपक्षी दल या कहें मुख्य विपक्षी गठबंधन बन रहने की उस दिन नौवीं वर्षगांठ थी. कांग्रेस और संप्रग सरकार ने उस दिन अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाया. अखबारों में लंबे चौड़े इश्तिहार छपे. रात को प्रधानमंत्री निवास पर सरकारी उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड जारी होने के साथ ही भव्य भोज भी हुआ. भाजपा ने लगातार मुख्य विपक्ष बने रहने की अपनी नौवीं वर्षगांठ पर अपनी ‘उपलब्धियों का जश्न’ मनाने के बजाए अपनी राजनीतिक ऊर्जा सरकार को उसकी नाकामियों, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर अपने रटे रटाए अंदाज में घेरने में ही खपाई.

 ही मायने में कांग्रेसनीत सत्तारूढ़ संप्रग और भाजपानीत विपक्षी राजग की इन चार या कहें नौ वर्षों की उपलब्धियां क्या रहीं. कांग्रेस और संप्रग के लिए तो सबसे बड़ी उपलब्धि लगातार नौ वर्षों तक कई बार अल्पमत में होते हुए भी गठबंधन सरकार चलाते रहने की कही जा सकती है. इस मामले में मनमोहन सिंह पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री कहे जा सकते हैं जिन्होंने लगातार नौ साल किसी सरकार का नेतृत्व किया और दसवां साल पूरा करने जा रहे हैं. उनके पहले कार्यकाल में सरकार ने सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, किसानों की कर्जमाफी, अमेरिका के साथ परमाणु करार जैसे कई उल्लेखनीय काम किए. इन कामों के सहारे संप्रग2 भी सत्तारूढ़ हो सका. उनके पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे कोई बड़े मामले भी सार्वजनिक नहीं हुए जिनके चलते सरकार की थू-थू होती, जैसी आज गाहे बगाहे हो रही है. इसका एक कारण शायद वाम दलों का सरकार को बाहर से समर्थन भी था जो सरकार और उसके फैसलों पर एक तरह का अदृश्य सा नियंत्रण भी रखते थे. लेकिन अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार के विरोध में वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. हालांकि इसका खामियाजा कांग्रेस और संप्रग के बजाय वामदलों को ही लोकसभा और फिर विधानसभा के चुनावों में भी करारी हार के रूप में भुगतना पड़ा था.

लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग 2 की सरकार ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ सकी. हालांकि कांग्रेस को 2004 में 141 के मुकाबले 2009 में लोकसभा की अधिक (206) सीटें मिली थीं. सरकार पर इसकी पकड़ भी पहले से कहीं ज्यादा थी. लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून बनाने और मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी और कैश सबसिडी ट्रान्सफर योजना के अलावा सरकार ने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया जो जनमानस पर सकारात्मक छाप छोड़ सके. मल्टी ब्रांड खुदरा बाज़ार में  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लाभ भी आमजन को मिलते नहीं दिखा. दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से तेलंगाना राष्ट्र कांग्रेस, आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन, झारखंड विकास मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक जैसे तकरीबन आधा दर्जन घटक दल संप्रग से अलग होते गए. एकमात्र नई एंट्री अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल की हुई. सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की लड़खड़ाती बैसाखी के सहारे टिकी है. भ्रष्टाचार के नित नए किस्से उजागर होते रहे जिनके चलते तकरीबन आधा दर्जन केंद्रीय मंत्रियों को सरकार से बाहर होना और कुछ को जेल भी जाना पड़ा. संवैधानिक पदों और संस्थाओं में नियुक्ति से लेकर अन्य बातों पर टकराव विवाद का विषय बनते रहे. संसद में विपक्ष लगातार नकारात्मक रुख के साथ सरकार के विरुद्ध हमलावर रहा जिससे मौजूदा लोकसभा का अधिकतर समय हल्ला-हंगामे की भेंट ही चढ़ते रहा. यहां तक कि सरकार और कांग्रेस के लिए भी ‘गेम चेंजर’ कहे जाने वाले खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और लोकपाल जैसे विधेयक पारित नहीं कराए जा सके जबकि इन विधेयकों पर विपक्ष की असहमति नहीं के बराबर रही है. और अब जबकि लोकसभा चुनाव में साल भर से भी कम का समय ही रह गया है, कांग्रेस के लिए ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ साबित होने वाले इन विधेयकों का कानून बन पाना संदिग्ध ही लगता है. बचे समय में बमुश्किल मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र की गुंजाइश ही बचती है. चुनाव जब सिर पर हों, विपक्ष कांग्रेस के इन ‘गेम चेंजर’ विधेयकों को पारित कराने के लिए सहयोग भला क्यों करेगा?
पलब्धियों की कसैटी पर देखें तो भाजपा का रेकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं रहा है. मुख्य विपक्षी दल के नाते उसकी एक भी सकारात्मक भूमिका या कहें ठोस विकल्प पेश करने की कोशिश नहीं दिखी जिसका जनमानस पर सकारात्मक असर देखने को मिला हो. कुल मिलाकर पिछले नौ सालों में विपक्ष और खासतौर से भाजपा की छवि नकारात्मक रवैए और बात बेबात संसद को जाम करते रहने वाले विपक्ष के रूप में ही उभर कर आती रही है. मतभेदों और अंतर्विरोधों वाले राजग में शिवसेना, जद (यू), अकाली दल और हरियाणा जनहित कांग्रेस जैसे दल ही रह गए हैं. संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा ने संसद में जितना आक्रामक तेवर दिखाया, वही तेवर सड़कों पर दिखाने में वह विफल सी रही. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा अथवा राजग के बजाय अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ज्यादा सक्रिय दिखे. दिल्ली में एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में सड़कों पर उमड़े जानाक्रोश और जनांदोलन को भी भाजपा कोई दिशा नहीं दे सकी. यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उसे अपने दो मुख्यमंत्री या कहें दो राज्यसरकारें और एक राष्ट्रीय अध्यक्ष की राजनीतिक बलि देनी पड़ी. उसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अभी कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा जबकि  झारखंड में उसके नेतृत्ववाली साझा सरकार उसके हाथ से निकल गई. इस लिहाज से देखें तो भाजपा की पिछले चार साल की राजनीतिक उपलब्धि नकारात्मक ही रही.

ब अगले कुछ ही महीनों बाद दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों में और उसके साथ अथवा कुछ ही महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस को भी अपने सहयोगी दलों के साथ मैदान में उतरकर अपनी उपलब्धियों का लेखा जोखा करना होगा. कांग्रेस को आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसी ने किसी सहयोगी दल के सहारे की जरूरत होगी. इन तीन बड़े राज्यों में लोकसभा की तकरीबन सवा सौ सीटें हैं. बिहार में तो कांग्रेस का लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के साथ चुनावी तालमेल तय सा लगता है. ठीक इसी तरह भाजपा को भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश       ( अब तो कर्नाटक में भी इसकी हालत पतली सी हो गई है), पश्चिम बंगाल और ओडिशा में नए-पुराने सहयोगी दलों को फिर से राजग के साथ जोड़ना पड़ेगा. तब कहीं जाकर लड़ाई बराबर के स्तर पर हो सकेगी लेकिन इससे पहले भाजपा को अपना घर भी व्यवस्थित करना पड़ेगा.


(इस लेख के सम्पादित अंश  26 मई  2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

इस लेख अथवा ब्लॉग के अन्य लेखों पर प्रतिक्रिया
 jaishankargupta@gmail.com या jaishankar.gupta@lokmat.com पर भेजी जा सकती हैं.



Sunday, 19 May 2013

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग:  महाराष्ट्र में प्रकृति ही नहीं जल कुप्रबंधन की देन भी है सूखा उ म्मीदें आसमान पर टंगी हैं. शायद इस बार अच्छा और कुछ जल्दी मानसून आएगा औ...

कलंकित होता क्रिकेट



जयशंकर गुप्त

क्रिकेट हमारे लेखन का प्रिय विषय नहीं रहा है. ऐसा भी नहीं कि क्रिकेट के प्रति हमारी रुचि ही नहीं रही. हम भी उन लोगों में से रहे हैं जिन्हें आम भारतीयों की तरह क्रिकेट के मास्टर ब्लास्टर या कहें ‘भगवान’ कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक का अंतहीन इंतजार है. यही नहीं, हमने लिटिल मास्टर कहे जाने वाले सुनील गावस्कर के शतकों का रिकार्ड बनने के क्रम में उनकी अनेक बोझिल पारियों के बारे में  भी पढ़ी-सुनी हैं. ठीक उसी तरह जैसे 2003 में एक दिनी क्रिकेट के विश्वकप विजेता कप्तान कपिल देव के  गेंदबाजी का रिकार्ड बनने के क्रम में उनकी भोथरी होती गई गेंदबाजी  के बारे में  भी हम पढ़ते-सुनते रहे हैं. उस समय क्रिकेट के मैदानों तक अपनी पहुँच नहीं होती थी और टेलीविज़न अपने सामर्थ्य के बाहर होता था. अखबार और आकाशवाणी ही अपने क्रिकेट ज्ञान या कहें जिज्ञासा को पूरा करने के माध्यम होते थे. बाद के वर्षों में जब भी किसी अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट मैच में किसी दूसरे देश की टीम के सामने एक गेंद अथवा रन पर हमारी टीम की जीत अथवा हार तय होने की बात होती, टी वी सेट के सामने हमारा दिल भी तेजी से धड़कने लगता. हारने से दिल बैठ जाता और जीत जाने पर खुशी के मारे उछलने लगता. इसे हमारे क्रिकेटी राष्ट्रवाद से जोड़कर भी देखा जा सकता है. वैसे, दुनिया भर के अन्य क्रिकेटरों के बेहतरीन खेल के भी हम कायल रहे हैं.

लेकिन जब से क्रिकेट में बेशुमार दौलत का प्रवाह होने लगा, इसके नित नए संस्करण जुड़ते गए, खासतौर से बड़े ताम झाम और चमक दमक के साथ आईपीएल के नाम से 2008 में शुरू हुए टी 20 क्रिकेट मैचों के प्रति मेरा कभी आकर्षण नहीं बन पाया. किसी भी टीम अथवा खिलाड़ी को अपना कह सकने लायक कारण समझ में नहीं आते. बस यही लगता कि सब पैसों के लिए खेल रहे हैं. हालांकि इसमें एक अच्छी बात यह जरूर उभर कर आई कि भारतीय और शायद अन्य देशों में भी क्रिकेट की जिन युवा प्रतिभाओं को या फिर टीम में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाने के कारण बाहर हो गए खिलाडियों को अपनी राष्ट्रीय टीमों में खेलने का अवसर नहीं मिल पाता, उन्हें आईपीएल मैचों में विभिन्न टीमों का हिस्सा बनकर अपना हुनर दिखाने और अच्छे प्रदर्शन से अपनी राष्ट्रीय टीमों में जगह बनाने के लिए अपनी दावेदारी भी मजबूत करने का मौका मिल जाता है. इसमें उन्हें खूब सारा पैसा भी मिल जाता है जिसकी उम्मीद वे राष्ट्रीय टीम में खेलने के बावजूद नहीं कर सकते. अब केरल के प्रतिभाशाली गेंदबाज श्रीसंत को ही देखिए. पिछले कुछ समय से बाहर श्रीशंत के आईपीएल मैचों में अच्छे प्रदर्शन के कारण भारतीय टीम के अगले विदेश दौरे में शामिल किए जाने की अटकलें लगने लगी थीं. पिछले साल राजस्थान रायल्स ने उन्हें तकरीबन सवा दो करोड़ रु. में खरीदा था. लेकिन शायद इतने भर से उन्हें संतोष नहीं था. और जब आईपील मैचों को मैच फिक्सिंग और स्पाट फिक्सिंग के जरिए हजारों करोड़ रु. के गोरखधंधे में बदल देने वाले सटोरियों और उनके बुकी या कहें फिक्सर्स ने संपर्क किया तो वह अपने कुछ अन्य साथी क्रिकेटरों के साथ डोल गए. एक ओवर में 13 या उससे अधिक रन पिटवाने के एवज में उन्हें 40 लाख रु. और उनके एक अन्य सहयोगी अंकित चह्वाण को इसी काम के लिए 60 लाख रु. का प्रलोभन मामूली नहीं था. लेकिन इसके चलते न सिर्फ उनका क्रिकेट भविष्य अंधकारमय हो गया, ‘स्पाट फिक्सिंग’ के लिए जेल जाने वाले किसी पहले टेस्ट क्रिकेटर का ‘खिताब’ भी उनके नाम  जुड़ गया. क्या मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग के खेल में शामिल होनेवाले श्रीसंत अकेले क्रिकेटर हैं?

 ह पहली बार नहीं हुआ है जब क्रिकेटरों के कारण क्रिकेट कलंकित हुआ है. जब से क्रिकेट में काले अथवा सफेद धन का प्रवाह बढ़ा है, भ्रष्टाचार, विवाद और मैच फिक्सिंग के प्रकरण भी बढ़े हैं. जिन लोगों का क्रिकेट से कभी कुछ भी लेना देना नहीं रहा, वे बड़े नेता, नौकरशाह और वकील भी क्रिकेट की राजनीति और प्रबंधन से जुड़ने लगे. लाखों-करोड़ों रु. के वारे न्यारे होने लगे. इस सबके बीच ही सटोरिये और जुआड़ी भी क्रिकेट की तरफ मुखातिब होने लगे. आगे चलकर क्रिकेट मैचों के फैसलों को मनचाहे ढंग से करवाने के नाम पर मैच फिक्सिंग का धंधा जोर पकड़ने लगा. क्रिकेट में सटोरियों और मैच फिक्सिंग में लगे लोगों का मामला पहली बार उस समय प्रकाश में आया था जब तत्कालीन हरफन मौला खिलाड़ी मनोज प्रभाकर ने इस मामल में कपिलदेव का नाम भी उछाला था. तब कपिल के क्रिकेटी कद को देखते हुए इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया गया था. उसके बाद अप्रैल 2000 में दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट टीम के कप्तान हैंसी क्रोंजे ने स्वीकार किया था कि भारत दौरे के समय मैच फिक्सिंग में उनकी भूमिका थी. उनके क्रिकेट खेलने पर आजीवन प्रतिबंध लगा था. बाद में उनकी संदिग्ध परिस्थितियों में मौत भी हो गई थी. कुछ ही महीनों बाद हुए खुलासे के बाद भारतीय टीम के बेहतरीन क्रिकेटर-कप्तान अजहरुद्दीन और अजय जडेजा सहित कुछ और लोग भी मैच फिक्सिंग के जाल में फंसे थे. उनके क्रिकेट खेलने पर भी क्रमशः आजीवन एवं पांच साल तक के प्रतिबंध लगे थे. अभी केंद्रीय मंत्री एवं आईपीएल के चेयरमैन राजीव शुक्ल कह रहे हैं कि स्पाट फिक्सिंग के लिए गिरफ्तार अथवा दोषी पाए गए अन्य क्रिकेटरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी. कड़ी कार्रवाई क्या वैसी ही होगी जैसी अजहर के खिलाफ हुई? वह आज हमारी संसद के सम्मानित सदस्य हैं.

ईपीएल क्रिकेट मैचों और उनके प्रबंधन से जुड़े लोगों का कहना है कि हजारों करोड़ रु. के इस आयोजन में किसी को भी घाटा नहीं है. यहां तक कि जो टीम सबसे निचले पायदान पर रहती है उसे भी खासा मुनाफा हो जाता है. लेकिन स्पाट फिक्सिंग के खुलासे के बाद लगता है कि इस पूरे प्रकरण में किसी की हार होती है तो वह मैदान में बैठे अथवा टीवी चैनलों पर अपने प्रिय क्रिकेटरों के बेहतर अथवा बदतर प्रदर्शन पर उछलने अथवा उदास हो जाने वाले दर्शकों की, जिन्हें पता ही नहीं होता कि उनका प्रिय क्रिकेटर किस बाल, रन और चैक्के, छक्के के लिए कितने रु. का सौदा कर चुका है. कहा तो यह भी जा रहा है कि जितने हजार करोड़ रु. का कुल कारोबार आईपीएल6 में अनुमानित है, उससे कहीं अधिक रकम आईपील के एक-एक मैच, एक-एक गेंद और रन को लेकर फिक्सिंग के जरिए होने वाली सट्टेबाजी और जुए में लग रही है. सट्टेबाजों और उनके फिक्सर्स के लिए मैच फिक्सिंग के मुकाबले स्पॉट फिक्सिंग ज्यादा सुरक्षित और मुफीद नज़र आने लगी. इसमें पुरे मैच के बजाय उसका कुछ या खास हिस्सा ही फिक्स करना था. मसलन, अगली गेंद नो बाल डालनी है, कौन सी बाल वाइड फेंकनी है, किस ओवर में आउट होना है. या अगले ओवर में कितने रन बनने हैं आदि आदि. इस फिक्सिंग में कोई एक खिलाडी अकेले भी शामिल हो सकता है. इसमें एक्यूरेसी भी ज्यादा दिखती है लिहाजा इसमें पैसों का फ्लो भी ज्यादा ही होता है. पहले जहाँ मैच पर सट्टे लगते थे वहां अब हर गेंद पर सट्टा लगने लगा है.

 ह गोरखधंघा न सिर्फ मुंबई, दिल्ली बल्कि देश के अन्य बड़े शहरों, इलाकों में भी वर्षों से धड़ल्ले से चल रहा है. कहा तो यह भी जाता है कि इसके लिए सट्टेबाज, बड़े आपरेटर पुलिस अफसरों को नियमित ‘हफ्ता’ पहुंचाते हैं. अभी पिछले आईपीएल 5 के दौरान भी एक खबरिया चैनल ने स्टिंग आपरेशन के जरिए मैच-स्पॉट फिक्सिंग का खुलासा किया था लेकिन उसके बाद क्या हुआ? अगर हमारी पुलिस, भारतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट की प्रबंधक समितियां एवं आईपीएल मैचों का प्रबंधन इस मामले में गंभीर होते तो शायद क्रिकेट और क्रिकेटरों और उनके शुभचिंतकों-प्रशंसकों को भी यह दिन नहीं देखने पड़ते. लेकिन सबसे अधिक चिंता की बात इन मैचों में बढ़ रही सट्टेबाजी और फिक्सिंग और इस गोरखधंधे में मुंबई, कराची, दुबई और अन्य ठिकानों पर बैठे माफिया-आतंकी सरगनाओं के सक्रिय होने को लेकर होनी चाहिए. स्पॉट  फिक्सिंग का खुलासा करने वाली दिल्ली पुलिस के अनुसार इस गोरखधंधे के तार कुख्यात आतंकी माफिया सरगना दाउद इब्राहिम और उसकी बदनाम डी कंपनी के साथ भी जुड़े हो सकते हैं. आश्चर्य की बात नहीं कि मैच फिक्सिंग और स्पॉट फिक्सिंग पर आधारित जुए और सट्टेबाजी से जमा रकम का एक बड़ा हिस्सा भारत और पाकिस्तान के भी कुछ शहरों-इलाकों को निशाना बनाने वाली आतंकवादी गतिविधियों पर भी खर्च होता है. इसकी चिंता किसे है?

(इस लेख के सम्पादित अंश 1 9 मई 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

इस लेख अथवा ब्लॉग के अन्य लेखों पर प्रतिक्रिया
 jaishankargupta@gmail.com या jaishankar.gupta@lokmat.com पर भेजी जा सकती हैं.

Monday, 13 May 2013

सरकार, भ्रष्टाचार और भाजपा


जयशंकर गुप्त


भ्रष्टाचार ने आखिर यूपीए2 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खासुलखास कहे जाने वाले दो मंत्रियों-रेल मंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार की राजनीतिक बलि ले ही ली. पिछले सप्ताह हमने जिक्र किया था कि किस तरह कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में जीत का खुशनुमा संकेत देने वाली राजनीतिक हवाएं भी सरकार के संकट कम नहीं कर पा रही हैं. नतीजे आ गए और कर्नाटक के रूप में दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भाजपा का राजनीतिक किला भरभरा कर गिर भी गया. सिद्धरमैया के नेतृत्व में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत से सरकार वहां बनने जा रही है. लेकिन कांग्रेस और यूपीए सरकार का संकट कम होते नहीं दिख रहा. विपक्ष के नकारात्मक रवैए और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे इन दोनों मंत्रियों को नहीं हटाने के सरकार के शुरुआती रुख के कारण खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण जैसे चुनावी दृष्टि से कांग्रेस के लिए और लोकपाल जैसे भ्रष्टाचार के विरोध के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराए बगैर ही संसद का बजट सत्र दो दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया. बजट सत्र के दूसरे चरण में कायदे से कोई विधायी कार्य नहीं हो सका. यहां तक कि विनियोग एवं वित्त विधेयक और रेल तथा सामान्य बजट भी सरकार को बिना किसी चर्चा और बहस के ही पारित करवाना पड़ा, वह भी तब जबकि विपक्ष सदन से बहिर्गमन के लिए राजी हो गया था.

 कर्नाटक के चुनावी नतीजे आ जाने और संसद के बजट सत्र के अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किए जाने के बावजूद जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा, रेलवे रिश्वतखोरी प्रकरण में सीबीआई का शिकंजा उनके कुनबे से होते हुए सीधे रेल मंत्री बंसल पर कसने लगा और कोयला खदानों के आवंटन घोटाले की जांच कर रही सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट कानून मंत्री अश्विनी कुमार की भूमिका को लेकर सरकार और सीबीआई के संबंधों पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने लगा, कांग्रेस आलाकमान यानी सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए इन दोनों मंत्रियों को बचा पाना असंभव हो गया. हालांकि इसके लिए भी शुक्रवार को राजधानी के सत्ता गलियारे में जबरदस्त राजनीतिक ड्रामा देखने को मिला. रेल मंत्री बंसल कुर्सी बचाने के लिए अंधविश्वासी बन बकरी पूजा करने लगे. लेकिन दोपहर ढलते ढलते सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री निवास जाकर मनमोहन सिंह से साफ कह दिया कि इन मंत्रियों के अब बने रहने का कोई तुक नहीं है. बंसल ने तो त्यागपत्र दे दिया लेकिन अश्विनी कुमार अंत तक इस कोशिश में लगे रहे कि उनके मामले में खुद भी विवादों के घेरे में आ चुके प्रधानमंत्री उन्हें बचा लेंगे लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका. उनके इस्तीफे में देरी होते देख श्रीमती गांधी ने अपने राजनीतिक सचिव अहमद पटेल को प्रधानमंत्री निवास भेजकर साफ करवा दिया कि वह क्या चाहती हैं. नतीजतन कुछ ही देर में अश्विनी कुमार के भी सरकार से बाहर होने की खबर आ गई.

बंसल ने अगर पहले ही त्यागपत्र दे दिया होता तो शायद उनकी और सरकार की भी इतनी दुर्गति और छीछालेदर नहीं हुई होती. लेकिन वह अपने भांजे की करतूत से कोई सरोकार नहीं होने की बेमतलब सफाई देते रहे. पहली बात तो यह कि घर में बैठे बेटे, भतीजे और भांजे की करतूतों का पता नहीं होने की रेलवे जैसे भारी भरकम महकमे के मंत्री की सफाई न सिर्फ बेमानी थी बल्कि इतने गुरुतर मंत्रालय की जिम्मेदारी निभाने की उनकी काबिलियत पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है. अब जिस तरह से उनके भूत और वर्तमान के पिटारे से भ्रष्टाचार के किस्से एक एक कर बाहर आने लगे हैं, ऐसा लगता है कि उनके पहली बार केंद्र में वित्त राज्यमंत्री बनने के साथ ही उनका कुनबा भ्रष्टाचार के काम में सक्रिय हो गया था. सीबीआई को मिल रहे साक्ष्यों के ताजा खुलासों से तो लगता है कि भ्रष्टाचार के कई मामलों में न सिर्फ उन्हें जानकारी थी बल्कि उनकी मिलीभगत भी थी.

लेकिन सरकार का संकट केवल बंसल और अश्विनी कुमार के सरकार से बाहर हो जाने भर से दूर होते नहीं दिखता. विपक्ष इतने भर से संतुष्ट होते नहीं दिखता. शनिवार को भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘कोयला गेट’ में सीधे प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की मांग करके विपक्ष के इरादे जाहिर कर दिए हैं. सवाल है कि अश्विनी कुमार का गुनाह क्या था. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक को बुलाकर स्टेटस रिपोर्ट देखने और उसमें छेड़ छाड़ करने के जिस मामले में उन्हें हटाया गया है, उसमें पहली बात तो यह है कि उनका अपना सीधा कोई हित नहीं जुड़ा था. दूसरे, इस मामले में वह अकेले नहीं थे. उनके साथ प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के आला अफसर भी तो थे. क्या दोनों आला अफसर प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री की इच्छा और निर्देश के बगैर सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में बदलाव कर रहे थे. स्टेटस रिपोर्ट कोयला खदान आवंटन घोटाले को लेकर थी जिसका सीधा सरोकार कोयला मंत्रालय और तत्कालीन कोयला मंत्री मनमोहन सिंह से है. जाहिर सी बात है कि इस मामले में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद का मानसून सत्र जाम कर चुकी भाजपा अगला मानसून सत्र भी नहीं चलने दे सकती है. और फिर इसी मामले में अश्विनी कुमार की ‘बलि’ ने विपक्ष को एक मजबूत राजनीतिक अस्त्र थमा दिया है.

लेकिन संसद को जाम करने की रणनीति से भाजपा अथवा विपक्ष को क्या मिला. बंसल और अश्विनी कुमार के रूप में दो मंत्रियों और उससे पहले भी भ्रष्टाचार के मामले में ही तीन और मंत्रियों-दयानिधि मारन, ए राजा और सुबोधकांत के सरकार से बाहर होने को अपने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की सफलता घोषित कर भाजपाई अपनी पीठ खुद ही थपथपा सकते हैं. लेकिन लगातार, बात बे बात संसद को जाम करने और नकारात्मक विपक्ष की उसकी भूमिका को मतदाता पसंद नहीं कर रहे, इस पर भाजपा और उसे संचालित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ को भी गंभीरता से मंथन और आत्मचिंतन करना चाहिए. क्या वजह है कि केंद्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दों को संसद से लेकर सड़कों पर भी मजबूती से उठाने, उनको लेकर संसद जाम करने के दौरान ही हुए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक विधानसभाओं के चुनाव हुए जिनमें मतदाताओं ने भाजपा को नकार दिया. तीन राज्यों में सरकारें उसके हाथ से निकल गईं जबकि उत्तर प्रदेश में पहले से ही कमजो भाजपा की हालत और भी पतली हो गई. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों ने तो भाजपा को इस बात के लिए भी सोचने को विवश कर दिया है कि भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के बाहर विफल हो जाने के बाद वह अब किस नेता पर दाव लगाएगी. मुश्किल यह है कि भाजपा के पास आज न तो ऐसे नेता हैं और ना ही ऐसे मुद्दे जो अगले लोकसभा चुनाव में उसकी अथवा उसके नेतृत्ववाले गठबंधन की सरकार बनवाने में भी सहायक साबित हो सकें. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा 370 को हटाने और सबके लिए समान नागरिक संहिता जैसे विवादित मुद्दों को तो भाजपा का नेतृत्व भी भुला सा चुका है. कम से कम नई दिल्ली में हुई भाजपा की पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में तो उसने इन मुद्दो की चर्चा तक नहीं की.

 कांग्रेस और भाजपा के भी कर्नाटक में अपना पूरा चुनाव अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही केंद्रित करने के बावजूद वहां येदियुरप्पा से लेकर बेल्लारी के खनन माफिया-चाहे वे जिस किसी पार्टी से अथवा निर्दलीय ही चुनाव लड़े हों-की जीत राजनीतिक दलों के साथ ही हम सबके लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए. उनकी जीत इस बात का संकेत भी है कि मतदाता के लिए भ्रष्ट अथवा भ्रष्टाचार बहुत अधिक मायने नहीं रखते. दरअसल, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सबसे पहले जनमानस को ही खड़ा होना पड़ेगा. तभी इसके विरुद्ध शासन, प्रशासन और न्यायपालिका पर भी सकारात्मक दबाव बनाया जा सकेगा.

लेकिन ‘कोयला गेट’ प्रकरण के बहाने एक अच्छी बात सीबीआई की स्वायत्ता को लेकर शुरू हुई है. मंत्रियों का समूह इसकी औपचारिकताएं तय करने में लगा है. यह कवायद किस हद तक कारगर होती है, इसके मद्देनजर भी इस देश में भ्रष्टाचार और उसके विरोध में चलनेवाले अभियानों का भविष्य तय हो सकेगा. कहीं इस कवायद का हश्र भी ‘लोकपाल’ विधेयक की तरह ना हो जाए, इसका डर भी बना हुआ है. लोकपाल संसद की दहलीज पर अटका पड़ा है जिसे पारित कराने में किसी भी दल की इच्छा और प्रतिबद्धतानजर नहीं आती. चूंकि सीबीआई की स्वायत्तता के पीछे सुप्रीम कोर्ट का डंडा भी है, इसलिए कुछ धुंधली सी उम्मीद भी बंधती है.

(सम्पादित अंश 1 2  मई के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

इस लेख अथवा ब्लॉग पर संलग्न अन्य लेखों पर भी प्रतिक्रियाएं
jaishankargupta@gmail.com or jaishankar.gupta@lokmat.com पर भी दी जा सकती हैं .




Sunday, 5 May 2013

संकट में सरकार! और सरबजीत की मौत के मायने




जयशंकर  गुप्त

र्नाटक से आ रही सकारात्मक चुनावी हवाएं भी यहां दिल्ली में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर मंडरा रहे संकटों को कम नहीं कर पा रही हैं. कर्नाटक से ताजा सूचनाएं बता रही हैं कि दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भारतीय जनता पार्टी का ‘राजनीतिक दुर्ग’ भर भरा कर गिरने वाला है. चुनावी नतीजे 8 मई को आएंगे लेकिन कर्नाटक में भाजपा की दोबारा सरकार बनने के आसार कतई नजर नहीं आ रहे. कांग्रेस को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं भी मिले तो भी सरकार उसके ही नेतृत्व में बनने के पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं. हालांकि राजनीति में कुछ भी सुनिश्चित नहीं होता, ऐन वक्त पर मतदान के समय कोई एक मुद्दा प्रभावी होकर सारे पूर्वानुमानों को ध्वस्त कर सकता है.

र्नाटक में जो कुछ होगा वह भविश्य के गर्त में है लेकिन यहां केंद्र सरकार पर छाए संकट के बादल और घने होते जा रहे हैं. तकनीकीतौर पर सरकार के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर नहीं आता क्योंकि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाने को तैयार नहीं है और लोकसभा के अगले चुनाव एक साल बाद होने हैं. इसके बावजूद नौकरशाही से लेकर आम जनता के बीच सरकार की साख लगातार कमजोर होती जा रही है. सरकार के दो प्रमुख सहयोगी रहे तृणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुनेत्र कझगम इससे अलग हो चुके हैं. सरकार का अस्तित्व बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तथा कुछ अन्य छोटे क्षेत्रीय दलों के समर्थन की बैसाखी पर टिका है. वे लोग सरकार को बुरा भला कहते रहते और एन केन प्रकारेण अपने समर्थन की कीमत भी वसूलते रहते हैं.

और भ्रष्टाचार-घोटालों से तो इस सरकार का जैसे चोली दामन का रिश्ता सा बन गया है. एक घोटाले और उसमें सरकार के प्रमुख लोगों की शिरकत की अनुगूंज मद्धिम नहीं पड़ती कि दूसरा घोटाला सामने आ जाता है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति (जे पी सी ) की ‘विवादित’ रिपोर्ट को लेकर इसके 30 में से आधे यानी 1 5 सदस्य अपने अध्यक्ष पी सी चाको के विरुद्ध अविश्वास व्यक्त कर चुके हैं. कानून मंत्री अश्विनी कुमार द्वारा कोयला खदानों के आवंटन में घोटाले की जांच कर रही सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हां को बुलाकर प्रधानमंत्री कार्यालय एवं कोयला मंत्रालय के आलाअफसर की मौजूदगी में उसकी की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के आरोप में सरकार और सीबीआई को भी सुप्रीम कोर्ट की लताड़ झेलनी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक ने रिपोर्ट सरकार को दिखाई. अब कानून मंत्री अश्विनी कुमार का राजनीतिक भविष्य इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टंगा है.

विवादों में बंसल!

इस बीच रेल मंत्री पवन कुमार बंसल भी अपने भांजे विजय सिंगला की ‘करतूत’के कारण विवादों के घेरे में आ गए हैं. बीते शुक्रवार की रात सीबीआई ने सिंगला को चार दिन पहले ही रेलवे बोर्ड के सदस्य नियुक्त महेश कुमार के प्रतिनिधि मंजूनाथ से 90 लाख रु. की रिश्वत लेते हुए गिरफतार किया. यह  रिश्वत कथित तौर पर महेश कुमार की प्रोन्नति और फिरउनकी मेंबर इलेक्ट्रिकल जैसी मलाईदार पोस्टिंग के एवज में ली जा रही थी. हालांकि बंसल ने कांग्रेस आलाकमान और प्रधानमंत्री को भी यह समझाने की कोशिश की है कि सिंगला के साथ उनके किसी तरह के कारोबारी संबंध नहीं हैं. लेकिन विपक्ष के नेता परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर आरोप लगाते हैं कि इस रिश्वत प्रकरण और महेश कुमार के प्रोमोशन में कहीं कुछ अंतर्संबंध जरूर है. उनके मामले पर फैसला कांग्रेस आलाकमान को करना है.

  भ्रष्टाचार के इस इस ताजा मामले ने टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयला खदानों के आवंटन घोटाले और उसकी जांच कर रही सीबीआई के कामकाज में दखल का आरोप लगाते हुए कानून मंत्री अश्विनी कुमार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद को जाम कर रही भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को एक और मजबूत राजनीतिक हथियार थमा दिया है. जाहिर सी बात है कि बात बात पर संसद को जाम करने की आदी हो चुकी भाजपा को संसद को नहीं चलने देने के लिए ‘रेलवे गेट’ के नाम से एक और मजबूत बहाना मिल गया है. बजट सत्र के बाकी चार-पांच दिन भी विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ने की आशंका बढ़ गई है. इस बार संसद के बजट सत्र का अधिकांश समय वजह बे वजह विपक्ष के हंगामों की भेंट ही चढ़ते रहा है. 22 अप्रैल को शुरू हुए बजट सत्र के दूसरे चरण में तो एक दिन के लिए भी संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारु रूप से नहीं चल सकी. प्रश्नकाल नहीं हुए, प्राइवेट मेम्बर्स बिल इज भी चर्चा नहीं हो सकी. यहां तक कि भारत के संसदीय इतिहास में संभवतः पहली अथवा दूसरी बार विनियोग, वित्त विधेयक, रेल और आम बजट भी दोनों सदनों में बिना किसी बहस और चर्चा के ही पारित कराए गए, वह भी विपक्ष के इन बजट- विधेयकों को पारित करने से पहले सदन से बहिर्गमन की मोहलत मिलने के बाद. बजट सत्र दस मई तक के लिए निर्धारित है, हालांकि संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ ने कहा है कि बजट सत्र का समय से पहले सत्रावसान नहीं किया जाएगा और सरकार की कोशिश खाद्य सुरक्षा एवं भूमि अधिग्रहण जैसे सरकार और कांग्रेस के लिए भी चुनावी दृष्टि  से बेहद महत्वपूर्ण विधेयकों पर संसद की मुहर लगवाने की होगी, भले ही यह काम संसद में हंगामों के बीच बिना किसी चर्चा के ही संपन्न क्यों न कराना पड़े. लेकिन सरकार की साख का क्या होगा?

सरबजीत की मौत पर!

पाकिस्तान के लाहौर की कोट लखपत जेल में 2 2- 23 साल गुजारने वाले सरबजीत सिंह की पिछले सप्ताह जेल में ही बर्बर पिटाई के चलते वहां जिन्ना अस्पताल में हुई मौत को लेकर पूरे देश में संसद से लेकर सड़क तक गम और गुस्से की लहर स्वाभाविक थी. गुस्सा इसलिए भी स्वाभाविक था क्योंकि भारत में यह धारणा है कि उन्हें उस गुनाह की सजा मिली जो उन्होंने किया ही नहीं था. लेकिन मौत के बाद उनकी लाश पर शुरू हुई राजनीति हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं का चरित्र ही उजागर करती है. शराब के नशे में या कहें छोटी-मोटी जासूसी के फेर में सीमा पार कर गए और वहां गिरफतार कर दहशतगर्दी और बम धमाके के आरोप में कैद कर दिए गए सरबजीत के जीवित रहते उन्हें मानवीय अथवा कूटनीतिक आधार पर रिहा करवाने के गंभीर प्रयास किसी ने नहीं किए. अब मौत के बाद उन्हें ‘देश का वीर सपूत’ बताने, उनके परिवार के लोगों को 25 लाख रु. देने और उनके शव को विशेष विमान से लाहौर से स्वदेश मंगवानेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने, उनकी अंत्येष्टि राजकाीय सम्मान के साथ करवाने, उनके परिवारवालों की आर्थिक मदद करने, उनकी बेटियों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा करने वाले अकाली दल ने और ‘कमजोर’ यूपीए सरकार पर सरबजीत की रिहाई के लिए गंभीर प्रयास नहीं करने के आरोप लगाने वाले भाजपा के लोगों ने भी केंद्र में और पंजाब में भी अपनी सरकार रहते कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे उनकी जीवित स्वदेश वापसी संभव हो सके. यूपीए सरकार ने तो कम से कम मौके बेमौके पाकिस्तान के हुक्मरानों के समक्ष उसकी रिहाई का मामला उठाया भी. हालांकि भारतीय जेल में हत्या के मामले में 20 वर्षों तक कैद रहे पाकिस्तानी वैज्ञानिक खलील चिश्ती की सद्भावना रिहाई के समय भारत भी पाकिस्तान पर दबाव बनाकर सरबजीत की मांग करता तो बात कुछ और हो सकती थी.

सरबजीत की जीवित वापसी तो नहीं हो सकी लेकिन उनकी मौत को लेकर देश भर में नेताओं की बयानबाजियों से लेकर मीडिया के एक हिस्से द्वारा जनाक्रोश की अभिव्यक्ति के जरिए पाकिस्तान और पाकिस्तान के लोगों के विरुद्ध उत्तेजना और उन्माद का जो माहौल बनाने की कोशिश की गई, उसे किसी भी तरह जायज करार नहीं दिया जा सकता. जिस तरह से जम्मू की एक जेल में कैद पाकिस्तान के एक आतंकवादी सनाउल्ला पर भारत के एक पूर्व सैनिक कैदी ने हमला कर उसे मौत की कगार पर पहंचा दिया, वह इस उत्तेजना और उन्माद की ही परिणति कही जा सकती है. सरकार ने सरबजीत की मौत के बाद भारतीय जेलों में कैद पाकिस्तानियों की सुरक्षा कड़ी करने के निर्देश जारी किए थे. जाहिर है कि जम्मू के जेल अधिकारियों ने उस पर अमल नहीं किया. बदले की इस कार्रवाई से फौरी तौर पर हम खुश हो सकते हैं की चलो सरबजीत का बदला ले लिया लेकिन सरबजीत की हत्या के मामले में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की सरकार और उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी 'आइएसआई' को कठघरे में खड़ा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास कहां रह जाता है. और फिर इससे क्या यह बात भी साबित नहीं होती कि जेलों में कैदी तो आपस में लड़ते मरते ही रहते हैं. अगर हम मानते हैं कि पाकिस्तान आज कट्टरपंथी अराजक तत्वों के हाथ में है तो जवाब में क्या हमें भी अराजक और कट्टरपंथी बन जाना चाहिए?

5 मई  2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित 
jaishankar.gupta@lokmat.com
jaishankargupta@gmail.com