जयशंकर गुप्त
भ्रष्टाचार ने आखिर यूपीए2 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के खासुलखास कहे जाने वाले दो मंत्रियों-रेल मंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार की राजनीतिक बलि ले ही ली. पिछले सप्ताह हमने जिक्र किया था कि किस तरह कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में जीत का खुशनुमा संकेत देने वाली राजनीतिक हवाएं भी सरकार के संकट कम नहीं कर पा रही हैं. नतीजे आ गए और कर्नाटक के रूप में दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भाजपा का राजनीतिक किला भरभरा कर गिर भी गया. सिद्धरमैया के नेतृत्व में कांग्रेस की पूर्ण बहुमत से सरकार वहां बनने जा रही है. लेकिन कांग्रेस और यूपीए सरकार का संकट कम होते नहीं दिख रहा. विपक्ष के नकारात्मक रवैए और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे इन दोनों मंत्रियों को नहीं हटाने के सरकार के शुरुआती रुख के कारण खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण जैसे चुनावी दृष्टि से कांग्रेस के लिए और लोकपाल जैसे भ्रष्टाचार के विरोध के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण विधेयक पारित कराए बगैर ही संसद का बजट सत्र दो दिन पहले ही अनिश्चितकाल के लिए स्थगित हो गया. बजट सत्र के दूसरे चरण में कायदे से कोई विधायी कार्य नहीं हो सका. यहां तक कि विनियोग एवं वित्त विधेयक और रेल तथा सामान्य बजट भी सरकार को बिना किसी चर्चा और बहस के ही पारित करवाना पड़ा, वह भी तब जबकि विपक्ष सदन से बहिर्गमन के लिए राजी हो गया था.
कर्नाटक के चुनावी नतीजे आ जाने और संसद के बजट सत्र के अनिश्चितकाल के लिए स्थगित किए जाने के बावजूद जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा, रेलवे रिश्वतखोरी प्रकरण में सीबीआई का शिकंजा उनके कुनबे से होते हुए सीधे रेल मंत्री बंसल पर कसने लगा और कोयला खदानों के आवंटन घोटाले की जांच कर रही सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट कानून मंत्री अश्विनी कुमार की भूमिका को लेकर सरकार और सीबीआई के संबंधों पर प्रतिकूल टिप्पणियां करने लगा, कांग्रेस आलाकमान यानी सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए इन दोनों मंत्रियों को बचा पाना असंभव हो गया. हालांकि इसके लिए भी शुक्रवार को राजधानी के सत्ता गलियारे में जबरदस्त राजनीतिक ड्रामा देखने को मिला. रेल मंत्री बंसल कुर्सी बचाने के लिए अंधविश्वासी बन बकरी पूजा करने लगे. लेकिन दोपहर ढलते ढलते सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री निवास जाकर मनमोहन सिंह से साफ कह दिया कि इन मंत्रियों के अब बने रहने का कोई तुक नहीं है. बंसल ने तो त्यागपत्र दे दिया लेकिन अश्विनी कुमार अंत तक इस कोशिश में लगे रहे कि उनके मामले में खुद भी विवादों के घेरे में आ चुके प्रधानमंत्री उन्हें बचा लेंगे लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका. उनके इस्तीफे में देरी होते देख श्रीमती गांधी ने अपने राजनीतिक सचिव अहमद पटेल को प्रधानमंत्री निवास भेजकर साफ करवा दिया कि वह क्या चाहती हैं. नतीजतन कुछ ही देर में अश्विनी कुमार के भी सरकार से बाहर होने की खबर आ गई.
बंसल ने अगर पहले ही त्यागपत्र दे दिया होता तो शायद उनकी और सरकार की भी इतनी दुर्गति और छीछालेदर नहीं हुई होती. लेकिन वह अपने भांजे की करतूत से कोई सरोकार नहीं होने की बेमतलब सफाई देते रहे. पहली बात तो यह कि घर में बैठे बेटे, भतीजे और भांजे की करतूतों का पता नहीं होने की रेलवे जैसे भारी भरकम महकमे के मंत्री की सफाई न सिर्फ बेमानी थी बल्कि इतने गुरुतर मंत्रालय की जिम्मेदारी निभाने की उनकी काबिलियत पर प्रश्न चिह्न भी लगाती है. अब जिस तरह से उनके भूत और वर्तमान के पिटारे से भ्रष्टाचार के किस्से एक एक कर बाहर आने लगे हैं, ऐसा लगता है कि उनके पहली बार केंद्र में वित्त राज्यमंत्री बनने के साथ ही उनका कुनबा भ्रष्टाचार के काम में सक्रिय हो गया था. सीबीआई को मिल रहे साक्ष्यों के ताजा खुलासों से तो लगता है कि भ्रष्टाचार के कई मामलों में न सिर्फ उन्हें जानकारी थी बल्कि उनकी मिलीभगत भी थी.
लेकिन सरकार का संकट केवल बंसल और अश्विनी कुमार के सरकार से बाहर हो जाने भर से दूर होते नहीं दिखता. विपक्ष इतने भर से संतुष्ट होते नहीं दिखता. शनिवार को भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने ‘कोयला गेट’ में सीधे प्रधानमंत्री से त्यागपत्र की मांग करके विपक्ष के इरादे जाहिर कर दिए हैं. सवाल है कि अश्विनी कुमार का गुनाह क्या था. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक को बुलाकर स्टेटस रिपोर्ट देखने और उसमें छेड़ छाड़ करने के जिस मामले में उन्हें हटाया गया है, उसमें पहली बात तो यह है कि उनका अपना सीधा कोई हित नहीं जुड़ा था. दूसरे, इस मामले में वह अकेले नहीं थे. उनके साथ प्रधानमंत्री कार्यालय और कोयला मंत्रालय के आला अफसर भी तो थे. क्या दोनों आला अफसर प्रधानमंत्री और कोयला मंत्री की इच्छा और निर्देश के बगैर सीबीआई की स्टेटस रिपोर्ट में बदलाव कर रहे थे. स्टेटस रिपोर्ट कोयला खदान आवंटन घोटाले को लेकर थी जिसका सीधा सरोकार कोयला मंत्रालय और तत्कालीन कोयला मंत्री मनमोहन सिंह से है. जाहिर सी बात है कि इस मामले में प्रधानमंत्री के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद का मानसून सत्र जाम कर चुकी भाजपा अगला मानसून सत्र भी नहीं चलने दे सकती है. और फिर इसी मामले में अश्विनी कुमार की ‘बलि’ ने विपक्ष को एक मजबूत राजनीतिक अस्त्र थमा दिया है.
लेकिन संसद को जाम करने की रणनीति से भाजपा अथवा विपक्ष को क्या मिला. बंसल और अश्विनी कुमार के रूप में दो मंत्रियों और उससे पहले भी भ्रष्टाचार के मामले में ही तीन और मंत्रियों-दयानिधि मारन, ए राजा और सुबोधकांत के सरकार से बाहर होने को अपने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान की सफलता घोषित कर भाजपाई अपनी पीठ खुद ही थपथपा सकते हैं. लेकिन लगातार, बात बे बात संसद को जाम करने और नकारात्मक विपक्ष की उसकी भूमिका को मतदाता पसंद नहीं कर रहे, इस पर भाजपा और उसे संचालित करने वाले राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ को भी गंभीरता से मंथन और आत्मचिंतन करना चाहिए. क्या वजह है कि केंद्र में व्याप्त भ्रष्टाचार के मुद्दों को संसद से लेकर सड़कों पर भी मजबूती से उठाने, उनको लेकर संसद जाम करने के दौरान ही हुए उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश और अब कर्नाटक विधानसभाओं के चुनाव हुए जिनमें मतदाताओं ने भाजपा को नकार दिया. तीन राज्यों में सरकारें उसके हाथ से निकल गईं जबकि उत्तर प्रदेश में पहले से ही कमजो भाजपा की हालत और भी पतली हो गई. कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों ने तो भाजपा को इस बात के लिए भी सोचने को विवश कर दिया है कि भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किए जा रहे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के बाहर विफल हो जाने के बाद वह अब किस नेता पर दाव लगाएगी. मुश्किल यह है कि भाजपा के पास आज न तो ऐसे नेता हैं और ना ही ऐसे मुद्दे जो अगले लोकसभा चुनाव में उसकी अथवा उसके नेतृत्ववाले गठबंधन की सरकार बनवाने में भी सहायक साबित हो सकें. अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा 370 को हटाने और सबके लिए समान नागरिक संहिता जैसे विवादित मुद्दों को तो भाजपा का नेतृत्व भी भुला सा चुका है. कम से कम नई दिल्ली में हुई भाजपा की पिछली राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में तो उसने इन मुद्दो की चर्चा तक नहीं की.
कांग्रेस और भाजपा के भी कर्नाटक में अपना पूरा चुनाव अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध ही केंद्रित करने के बावजूद वहां येदियुरप्पा से लेकर बेल्लारी के खनन माफिया-चाहे वे जिस किसी पार्टी से अथवा निर्दलीय ही चुनाव लड़े हों-की जीत राजनीतिक दलों के साथ ही हम सबके लिए भी चिंता की बात होनी चाहिए. उनकी जीत इस बात का संकेत भी है कि मतदाता के लिए भ्रष्ट अथवा भ्रष्टाचार बहुत अधिक मायने नहीं रखते. दरअसल, भ्रष्टाचार के विरुद्ध सबसे पहले जनमानस को ही खड़ा होना पड़ेगा. तभी इसके विरुद्ध शासन, प्रशासन और न्यायपालिका पर भी सकारात्मक दबाव बनाया जा सकेगा.
लेकिन ‘कोयला गेट’ प्रकरण के बहाने एक अच्छी बात सीबीआई की स्वायत्ता को लेकर शुरू हुई है. मंत्रियों का समूह इसकी औपचारिकताएं तय करने में लगा है. यह कवायद किस हद तक कारगर होती है, इसके मद्देनजर भी इस देश में भ्रष्टाचार और उसके विरोध में चलनेवाले अभियानों का भविष्य तय हो सकेगा. कहीं इस कवायद का हश्र भी ‘लोकपाल’ विधेयक की तरह ना हो जाए, इसका डर भी बना हुआ है. लोकपाल संसद की दहलीज पर अटका पड़ा है जिसे पारित कराने में किसी भी दल की इच्छा और प्रतिबद्धतानजर नहीं आती. चूंकि सीबीआई की स्वायत्तता के पीछे सुप्रीम कोर्ट का डंडा भी है, इसलिए कुछ धुंधली सी उम्मीद भी बंधती है.
(सम्पादित अंश 1 2 मई के लोकमत समाचार में प्रकाशित )
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