पीटीआई को प्रसार भारती की धमकी
आपातकाल बनाम अघोषित आपातकाल
जयशंकर गुप्त
अभी आपातकाल की 45वीं बरसी को एक-दो दिन भी नहीं बीते थे जब आपातकाल के असली-नकली 'योद्धाओं' (माफीवीरों) ने आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय करार दिया था. आपातकाल की ज्यादतियों, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटे जाने को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कांग्रेस को जमकर कोसा था. लानत मलामतें भेजी गई थीं और फिर ऐसा दोबारा नहीं होने देने की कसमें भी खाई गई थीं. लेकिन एक दिन बाद ही हमारे 'नेशनल ब्राडकास्टर' प्रसार भारती ने इस देश की सबसे बड़ी समाचार एजेंसी पीटीआई (प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया) को राष्ट्र विरोधी करार देते हुए धमकी भरा पत्र भेजकर 'अघोषित आपातकाल' का व्यावहारिक एहसास करा दिया है.
पीटीआई का 'गुनाह' सिर्फ इतना भर है कि उसने लद्दाख में चीन की घुसपैठ, गलवान घाटी और आसपास के इलाकों में वास्तविक नियंत्रण रेखा के भारतीय हिस्से की तरफ उसके कब्जा जमाने और वहां भारतीय सेना की बिहार रेजीमेंट के 20 जवानों की शहादत आदि की पृष्ठभूमि में अपने पत्रकारीय दायित्वों का निर्वाह करते हुए नई दिल्ली में चीन के राजदूत सुन वेईडोंग (Sun Weidong) और चीन की राजधानी बीजिंग में भारत के राजदूत विक्रम मिस्री के इंटरव्यू प्रसारित कर दिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं था लेकिन दोनों इंटरव्यूज से लद्दाख में चीन की घुसपैठ को लेकर भारत सरकार और खासतौर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दावे खंडित हो रहे थे.
इसको लेकर सत्ता के गलियारों में खलबली मची और पीटीआई के दुनिया भर में 400 से अधिक बड़े ग्राहकों में से सबसे बड़ा कहे जानेवाले प्रसार भारती ने शनिवार, 27 जून को पीटीआई के मार्केटिंग विभाग को पत्र लिखकर कहा कि लद्दाख प्रकरण में पीटीआई की रिपोर्टिंग और खासतौर से उसके इंटरव्यूज देश द्रोह की तरह के हैं. पीटीआई की देश विरोधी रिपोर्टिंग के कारण उसके साथ अपने संबंध जारी रखने पर पुनर्विचार किया जाएगा.
गौरतलब है कि भारत सरकार से वित्त पोषित प्रसार भारती से गैर लाभकारी समाचार एजेंसी, पीटीआई को प्रति वर्ष करोड़ों रुपये का भुगतान होता है. पीटीआई की ख्याति समाचारों, लेखों, तस्वीरों और इंटरव्यूज को ठोंक बजाकर अधिकृत रुख जानने के बाद प्रसारित करनेवाली समाचार एजेंसी की रही है. लेकिन जाहिर सी बात है कि प्रसार भारती और उसके पीठ पीछे सक्रिय लोग थोड़ा और आगे बढ़कर पीटीआई से प्रसारित होनेवाले समाचारों को मनमुआफिक ही देखना चाहते हैं.
इसी तरह की कोशिश तो आपातकाल में इंदिरा गांधी और उनकी सरकार ने भी की थी. सत्तर के दशक के मध्यार्ध में खासतौर से 1974 के जेपी आंदोलन, इलाहाबाद हाईकोर्ट के श्रीमती गांधी के चुनाव को रद्द करने के फैसले के बाद मीडिया, समाचार एजेंसियों की कवरेज, श्रीमती गांधी को पद त्याग करने के सुझावस्वरूप लिखे गये संपादकीय आदि को लेकर श्रीमती गांधी और उनके दरबारी बहुत नाखुश थे. उनके पुत्र संजय गांधी तब पीटीआई और यूएनआई से इस बात पर नाराज थे कि इन दोनों प्रमुख एजेंसियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा के फैसले को हूबहू क्यों प्रसारित कर दिया था. उसे ट्विस्ट कर इस तरह से क्यों नहीं जारी किया था जो श्रीमती गांधी के हित में हो, उनके प्रति जन सहानुभूति पैदा करे.
उस समय देश में चार बड़ी समाचार एजेंसियां थीं- पीटीआई, यूएनआई, हिन्दुस्तान समाचार और समाचार भारती. चारों एजेंसियां एक दूसरे से होड़ में अलग अलग सूत्रों से प्राप्त अलग समाचार जारी करती थीं. तत्कालीन सत्ता को लगा कि चारों एजेंसियों को एक में विलीन कर देने से सूचना-संवाद के प्रवाह को आसानी से नियंत्रित किया जा सकता है. शुरू में किसी भी समाचार एजेंसी का प्रबंधन इसके लिए तैयार नहीं हुआ. तब इसके लिए समाचार एजेंसियों पर सरकारी दबाव बनाया गया. उस समय प्रसार भारती तो था नहीं लेकिन तब भी आकाशवाणी और दूरदर्शन तथा सरकारी विभाग समाचार एजेंसियों के सबसे बड़े और महत्वपूर्ण ग्राहक (सब्सक्राइबर) थे. सरकार की तरफ से उसका प्रस्ताव नहीं मानने पर न सिर्फ एजेंसियों की सेवा लेना बंद करने बल्कि उनके पुराने बकायों का भुगतान रोक कर उन्हें आर्थिक रूप से पंगु बना देने की धमकियां दी गईं. और कोई विकल्प नहीं होने के कारण समाचार एजेंसियों के प्रबंधन ने घुटने टेक दिए. उसके बाद ही चारों एजेंसियों को आपस में विलीन कर एक नई एजेंसी 'समाचार' बनाई गई थी. इसके साथ ही पूरे आपातकाल के दौरान प्रेस पर सेंसरशिप के जरिए अंकुश लगाने आदि की बातें हुई थीं जिस पर अलग से लिखा जा सकता है.
मीडिया के साथ अभी भी तो यही हो रहा है ! यानी कहने को तो देश में आपातकाल नहीं है लेकिन काम सारे वही हो रहे हैं! अखबार, पत्रिकाओं और टीवी चैनलों पर आमतौर पर सरकार की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी नहीं छपता, नही प्रसारित होता है. जो कोई इस तरह की 'गुस्ताखी' करता है, उसे धमकियां मिलती हैं, उसकी नौकरी पर बन आती है, उसके विरुद्ध मुकदमें होते हैं, उसके पीछे सोशल मीडिया पर सक्रिय ट्रोल्स गालियों और अपशब्दों की बौछार शुरू कर देते हैं. इसी क्रम में पीटीआई (यूएनआई और हिन्दुस्तान समाचार का हाल पहले से बुरा है) को आर्थिक रूप से पंगु बनाने की धमकी देकर एक तरफ तो उसे भी 'हिज मास्टर्स वायस' बनाने की कोशिश की जा रही है, दूसरी तरफ, उसकी जगह एएनआइ जैसी सरकार की किसी और 'हिज मास्टर्स वायस' समाचार एजेंसी को प्रोमोट कर मजबूत बनाने और पीटीआई के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश हो सकती है.
लेकिन ताजा संदर्भ में प्रसार भारती की धमकी से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या अब यह सरकार या उसके द्वारा वित्त पोषित प्रसार भारती के लोग तय करेंगे कि अखबार, समाचार एजेंसी और टीवी चैनल किसका इंटरव्यू करेंगे और किसका नहीं. इसके आगे क्या अब यह भी ये लोग ही तय करेंगे कि कौन सा समाचार छपेगा या प्रसारित होगा और कौन नहीं! इसे अघोषित आपातकाल नहीं तो और क्या कहेंगे!
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