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Tuesday, 17 November 2020

न्यूयॉर्क-वॉशिंगटन भ्रमण , दूसरी किश्त (In New York and Washington part II)

 मैनहट्टन, टाइम्स स्क्वॉयर की सैर


जयशंकर गुप्त


    
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय
न्यूयॉर्क और इसके लोवर मैनहट्टन की तो बात ही निराली है. दुनिया के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक के पास बसा न्यूयार्क शहर आबादी के मामले में सबसे बड़ा शहर है. हडसन नदी यहां अटलांटिक महासागर में मिलती है. 1785 से 1790 तक संयुक्त राज्य अमेरिका का राजधानी शहर भी रहे न्यूयॉर्क को हमारी मुंबई की तरह इस देश की व्यावसायिक और सांस्कृतिक राजधानी का भी दर्जा प्राप्त है. गगन चुम्बी अट्टालिकाएं यहां अतिरिक्त आकर्षण का केंद्र हैं. लांग आईलैंड में रेडिसन होटल से मैनहट्टन में हडसन नदी के पास स्थित संयुक्त राष्ट्र और उसी के सामने स्थित होटल ‘मिलेनियम यूएन प्लाजा’ की तकीबन 64 किमी की दूरी तय करने में तकरीबन सवा घंटे का समय लगता है. रास्ते में लांग आई लैंड और न्यूयार्क-मैनहट्टन को जोड़नेवाली ‘ईस्ट रिवर’ को पार करने के लिए तकरीबन दो किमी लंबी सुरंग ‘क्वींस मिडटाउन टनेल’ से होकर गुजरने के लिए टैक्सीवाले को टोल टैक्स चुकाने के लिए रुकना पड़ा था. इस सुरंग से गुजरना भी एक अनुभव था. दो लेन जाने और दो लेन आने के लिए 1940 में बनी इस सुरंग से रोजाना तकरीबन 70 हजार वाहन आ और जा रहे थे.

मैनहट्टन में रिक्शा
    होटल मिलेनियम प्लॉजा पहुंचने से पहले हम लोगों ने न्यूयॉर्क और मैनहट्टन के प्रमुख इलाकों में सैर की. हम लोग टाइम्स स्क्वायर में घूमे. सेवेंथ एवेन्यू और ब्राडवे के जंक्शन पर स्थित भीड़ भरे टाइम्स स्क्वायर की रौनक के बारे में जितना सुना था, उससे ज्यादा देखने को मिल रहा था. 1904 से पहले इस चौराहे को ‘लांग केयर स्क्वायर’ के नाम से जाना जाता था लेकिन 1904 में न्यूयार्क टाइम्स अखबार के मुख्यालय के स्थानांतरित होकर यहां आ जाने के बाद से इसका नाम ‘टाइम्स स्क्वायर’ पड़ गया. बताया जाता है कि टाइम्स स्क्वायर सिर्फ अमेरिका ही नहीं दुनिया के सबसे ज्यादा व्यस्त और मनोरंजन का सबसे बड़ा केंद्र कहा जानेवाला व्यावसायिक चौराहा है. विश्व के सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन केंद्र के रूप में प्रसिद्ध टाइम्स स्क्वायर पर हर दिन तकरीबन तीन लाख लोग गुजरते हैं. सालाना यहां आनेवाले पर्यटकों की संख्या औसतन 5 करोड़ बताई जाती है.
मैनहट्टन में छायाकार मित्र जी एन झा
 (जैकेट पर प्रेस लिखा है) के साथ

जगमगाती रोशनी में बड़ी बड़ी कंपनियों के प्रचार करते आंखें चुंधिया देनेवाले बिल बोर्ड्स और विज्ञापन बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. बड़े-बड़े माल्स और मेगा सुपर स्टोर्स की सज्जा बाहर से ही देखकर अंदर जाने का साहस नहीं हो रहा था. हालांकि वहां एक बड़े सुपर स्टोर से हम लोगों ने कुछ कुछ खरीदारी भी की. सामान सस्ते तो कतई नहीं थे (न्यूयॉर्क दुनिया के सबसे महंगे शहरों में गिना जाता है)  लेकिन एक तो सामान की शुद्धता की गारंटी और फिर समय के सदुपयोग के लिहाज से भी खरीद हुई. हमने निकॉन का एक स्वचालित पॉकेट कैमरा खरीद लिया. अन्य मित्रों ने भी अपने हिसाब से खरीदारी की. रास्ते में अमेरिका की समृद्धि के साथ सभ्यता के दर्शन भी हो रहे थे. फुटपाथ पर कुत्ते को टहला रहे दंपति के साथ एक स्ट्रॉलर भी था जिसमें प्लास्टिक बैग टंगा था. कुत्ते के पोटी करने पर वे लोग सड़क से उठाकर बैग में रख लेते थे. 
न्यूयॉर्क, मैनहट्टन का एक दृश्य यह भी 
सड़क और फुटपाथ पर भी गंदगी, कचरे के निशान नहीं.अजीब तरह की सायकिल को तीन चार लोगों को एक साथ चलाते दिखे. रिक्शा भी दिखे. हम लोग पास में ही स्थित वॉल स्ट्रीट में भी गए. अमेरिका का वित्तीय प्रबंधन यहीं से होता है. बैंक ऑफ अमेरिका, न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज, नैसडॉक और वॉल स्ट्रीट जर्नल का मुख्यालय भी यहीं है. हम लोगों ने दूर से ही इनका अवलोकन किया. स्टॉक एक्सचेंज के सामने शेयर बाजारों में तेजी के प्रतीक ‘बिग बुल’ की बड़ी प्रतिमा भी देखी. हमारे मुंबई शहर की तरह ही न्यूयार्क के बारे में भी मशहूर है कि यह शहर कभी सोता नहीं है. दिन रात सक्रिय रहता है. वहां हमने बराक ओबामा की लोकप्रियता के प्रतीक के तौर पर जगह-जगह फुटपाथों पर उनके आदमकद कटआउट्स भी देखे. लोग उसके साथ तस्वीरें खिंचवा रहे थे. हमारे साथी सुभाशीष मित्रा और हमारे बाद वहां पहुंचीं गीताश्री ने भी ओबामा के कटआउट के साथ तस्वीर खिंचवाई.


   
    लोवर मैनहट्टन में हम उस जगह भी गए जहां कभी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर्स हुआ करते थे. 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमलों में अलकायदा के आत्मघाती आतंकियों ने अपहृत विमान को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावरों से टकरा दिया था. पल भर में ही अमेरिकी समृद्धि की प्रतीक दोनों गगन चुम्बी इमारतें मलबे का ढेर बन गई थीं. जिस समय हम लोग वहां गए, उस समतल जगह की बैरिकेडिंग की गई थी. वहां स्मारक बनाने की बात थी. 9 सितंबर के आतंकी हमले में तकरीबन तीन हजार लोग मारे गए थे लेकिन उनकी पहिचान, राष्ट्रीयता, धर्म और जाति के बारे में आधिकारिक तौर कुछ भी नहीं बताया गया.

बाएं से आरती कपूर, हम सुभाशीष और आशुतोष
.   मैनहट्टन की सैर करते हुए हम लोग हडसन नदी के मुहाने पर गए. स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी को दूर से देखा. हम लोगों ने उस जगह को भी देखा जहां से शाम को संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय (स्वतंत्रता) दिवस के अवसर पर आतिशबाजी होनेवाली थी. पास में ही संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय भी गए. बाहर से ही अवलोकन के बाद हम लोग शाम होते-होते होटल मिलेनियम यूएन प्लाजा गए जहां सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक अध्यक्ष बिंदेश्वर पाठक अपनी टीम और ‘अलवर की नई राजकुमारियों’ के साथ ठहरे हुए थे. पाठक जी ने खुले दिल से हमारा स्वागत किया. मदन झा तो साथ में थे ही. 


अलवर की नई  'नई राजकुारियों'  के साथ 


    पाठक जी ने साथ आईं अलवर की 37 ‘नई राजकुमारियों’ में से एक उषा चोमर से मिलवाया. उषा को पाठक जी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में ‘सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस’ ऑर्गनाइजेशन की अध्यक्ष का ताज पहनाया गया था. पाठक जी के प्रयासों से चार साल पहले तक 56 अन्य महिला सफाई कर्मियों के साथ अलवर की गलियों में घरों के शौचालय साफ करने से लेकर मैला सिर पर ढोनेवाली उषा के जीवन में ऐसे कई बदलाव आए जिसके बारे में वह कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थीं. उनमें से उषा के नेतृत्व में 36 महिलाओं को विमान से सात समंदर पार अमेरिका के न्यूयार्क शहर में आने और संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सामने पांच सितारा मिलेनियम यूएन प्लाजा होटल में रहने-ठहरने का अवसर मिला. किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा से महरूम उषा ने संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बेझिझक, बेहिचक, अंग्रेजी में लिखा भाषण पढ़ा. उषा के साथ उनकी हमसफर महिलाओं ने स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी पर जाकर सामूहिक रूप से ‘वंदे मातरम’ का गान किया.
स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी के सामने  ‘अलवर की नई राजकुमारियां’
उनके लिए विश्वविख्यात माडेल के साथ उनके फैशन परेड का आयोजन भी हुआ.
     4 जुलाई की शाम को पाठक जी के कमरे से ही हम सबने हडसन नदी में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर हो रही शानदार आतिशबाजी देखी. अत्याधुनिक पटाखों की रंग-बिरंगी आतिशबाजी आजीब तरह का समा बांध रही थी. रात का बुफे भोजन हम सबने पाठक जी और उनकी ‘राजकुमारियों’ के साथ ही वहां, मैनहट्टन में एक मशहूर भारतीय रेस्तरां में किया. उसके बाद हम लोग लांग आईलैंड स्थित होटल मैरिअट आ गये.


      वॉशिंगटन डीसी में  

 

   
 कैपिटल भवन (अमेरिकी कांग्रेस मुख्यालय)

अगले
दिन, पांच जुलाई को हम कुछ लोग-आशुतोष, आरती कपूर, सुभाशीष मित्रा, शेख मंजूर आदि वॉशिंगटन चले गए. हमारे लिए तो यह एक अतिरिक्त उपलब्धि थी. वॉशिंगटन भ्रमण हमारे यात्रा कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था. लेकिन पासवान जी के सौजन्य से यह भी संभव हो सका. सुबह-सबेरे ही हम लोग वॉशिंगटन के लिए निकल पड़े. सड़क मार्ग से फर्राटा भरती आरामदायक लिमोजिन कार में वॉशिंगटन डीसी का तकरीबन 400 किमी का सफर कब पूरा हो गया, पता ही नहीं चला. तकरीबन साढ़े तीन घंटों में हम वॉशिंगटन डीसी पहुंच गए, वह भी बगैर किसी तरह की थकान के. रास्ते में राजमार्ग के आगे-पीछे फर्राटा भरते वाहनों के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था. रास्ते में किसी उपनगर में जाने के लिए साइड लेन बनी हुई थीं, जिससे राजमार्ग से उतर कर जाया जा सकता था. कहीं-कहीं रेस्तरां ओर सुपर स्टोर्स भी थे. उसके लिए भी राजमार्ग से उतरकर जाना पड़ता था. राजमार्ग पर चलते हुए दाएं-बाएं कुछ दिखता नहीं था. सब कुछ ढका सा रहता था. रास्ते में फिलाडेल्फिया शहर भी पड़ा जो कभी, वॉशिंगटन से पहले संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी था. यहीं से अमेरिका ने 4 जुलाई 1776 को ग्रेट ब्रिटेन से अपनी आजादी का घोषणापत्र जारी किया था. फिलाडेल्फिया में रुकने और इसके प्रसिद्ध स्थलों और स्मारकों को देखने का मन तो बहुत था लेकिन हमारे पास समय नहीं था. शाम होते हमें लांग आईलैंड के अपने होटल में लौटना भी था. इस लिहाज से भी हम जल्दी वॉशिंगटन पहुंचना चाहते थे.

    अमेरिका में दो वॉशिंगटन हैं. एक वॉशिंगटन, जहां एक पूर्ण राज्य है जबकि दूसरा वॉशिंगटन डीसी यानी वॉशिंगटन डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया हमारी दिल्ली की तरह एक तरह से केंद्र शासित क्षेत्र और संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी भी है. वॉशिंगटन डीसी के नागरिकों को राजधानी का नागरिक होने के बावजूद अमेरिकी संसद में प्रतिनिधित्व का कोई स्पेशल राइट नहीं है. एक नगर प्रमुख के नेतृत्व में 13 सदस्यीय नगर पालिका डीसी का प्रशासन संभालती है, लेकिन केंद्र सरकार इस नगर पालिका के किसी भी निर्णय को पलट सकती है. संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय संसद में डीसी से एक नामित सांसद के अतिरिक्त कोई चुना हुआ प्रतिनि‍धि नहीं होता है. 1961 में हुए 23वें संविधान संशोधन से पहले यहां के ना‍गरिकों को राष्ट्रपति चुनाव में मतदान का अधिकार तक नहीं था जबकि भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में इसके उलट अपनी विधानसभा और सरकार है. हालांकि पुलिस, डीडीए, एनडीएमसी दिल्ली नहीं केंद्र सरकार के ही अधीन है.

    पोटोमैक नदी के किनारे विकसित राजधानी शहर वॉशिंगटन देश के बाकी दूसरे शहरों से कतई अलग सुव्यवस्थित तरीके से बसाया गया एक बेहद ही खूबसूरत शहर है. तकरीबन 177 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफलवाले इस शहर का 5वां भाग हरित-उद्यान क्षेत्र है. अमेरिका के दूसरे शहरों की भागमभाग भरी जिंदगी से उलट इस शहर में एक तरीके का ठहराव है, शांति है. आज के शब्दों में कहें तो वॉशिंगटन कूल यानी सुकून से भरा शहर है. यह एक तरह से यूरोपियन स्थापत्य शैली में बसा शहर है. यहां नज़ारों को देखकर एक बारगी भ्रम हो सकता है कि अमेरिका नहीं बल्कि यूरोप के किसी शहर में हैं. यहां इमारतें, सड़कें, आर्किटेक्चर सब कुछ यूरोप का एहसास कराते हैं.

    वॉशिंगटन डीसी का नामकरण 1789 में संयुक्त राज्य अमेरिका के पहले राष्ट्रपति बने जॉर्ज वॉशिंगटन के नाम पर किया गया. उनके राष्ट्रपति बनने के बाद ही 1791 में वाशिंगटन डीसी को राष्ट्रीय राजधानी बनाने की घोषणा हुई थी जो सन् 1800 में साकार हो सकी. इस बीच फिलाडेल्फिया से अंतरिम राजधानी का काम होता रहा. वाशिंगटन की अधिकतर प्रमुख इमारतें और स्मारक राजधानी का दर्ज़ा मिलने के बाद ही अस्तित्व में आए. वाशिंगटन का एक हिस्सा जॉर्ज टाउन भी है. पोटोमैक नदी पर बना पुल, ‘की-ब्रिज’ ही वॉशिंगटन डीसी और जार्ज टाउन को जोड़ता है. जॉर्ज टाउन विश्व प्रसिद्ध जॉर्ज टाउन विश्विद्यालय के लिए भी जाना जाता है.

    आज वॉशिंगटन डीसी एक ध्रुवीय बनते जा रहे विश्व की सर्वोच्च सत्ता का केंद्र है. यहां पर ही कैपिटल हिल्स पर स्थित कैपिटल भवन से संसद (अमेरिकी कांग्रेस) का संचालन होता है. इसके साथ ही थोड़ी दूरी पर अमेरिका के प्रथम नागरिक यानी अमेरिकी राष्ट्रपति का विश्व प्रसिद्ध निवास ह्वाइट हाउस भी है जिसे अमेरिकी सत्ता का प्रतीक भी कहा जाता है. इसके अलावा लिंकन मेमोरियल, वॉशिंगटन स्मारक और वियतनाम एवं कोरिया युद्ध स्मारक, एयरो-स्पेस के साथ ही नेचुरल हिस्ट्री म्युजियम भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं, जो अमेरिका के इतिहास और संस्कृति से परिचय कराते हैं. यह सभी टूरिस्ट डेस्टिनेशंस आस-पास होने से हमें बाहर-बाहर से ही यहां अधिकतर जगहों पर घूमने-देखने में ज्यादा वक्त नहीं लगा और कुछ ही घंटों में हमने इनमें से अधिकतर जगहों की सैर कर डाली.


    ह्वाइट हाउस के सामने

ह्वाइट हाउस के सामने पर्यटकों के बीच आरती कपूर और हम

     हमारे बांग्लादेशी मूल के टैक्सी चालक हमारे गाइड की भूमिका में भी थे. वह हमें प्रमुख और प्रसिद्ध स्थानों की बाहरी सैर कराते हुए यह हिदायत देना नहीं भूलते थे कि जल्दी ही निकलना भी है. हम लोग अमेरिका या कहें पूरी दुनिया की सर्वोच्च सत्ता के प्रतीक ‘ह्वाइट हाउस’ भी गये जो अमेरिका के राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास और कार्यालय भी है. पेंसिलवेनिया एवेन्यू में तकरीबन 55 हजार वर्ग फुट में सफेद संगमरमर की चट्टानों से बने इस सफेद भवन में सबसे पहले, 1800 में राष्ट्रपति जॉन एडम्स (जॉर्ज वाशिंगटन के बाद राष्ट्रपति चुने गए थे) रहने के लिए आए थे. तब से सभी राष्ट्रपति शपथ ग्रहण के बाद यहीं आकर रहते और कार्यकाल पूरा होने के बाद यहां से विदा हो जाते हैं. यह कुछ-कुछ हमारे नई दिल्ली में रायसीना हिल्स पर स्थित राष्ट्रपति भवन की तरह का ही है. लेकिन हमारे राष्ट्रपति भवन से उलट यहां ह्वाइट हाउस के ठीक सामने बैरिकेडिंग्स तक आम आदमी, पर्यटक और यहां तक कि प्रदर्शनकारी भी आ-जा सकते हैं.

ह्वाइट हाउस के सामने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बुश का विरोध

    सुरक्षा प्रावधानों के बीच धरना-प्रदर्शन भी कर सकते हैं. हम लोग जब ह्वाइट हाउस पहुंचे थे, वहां कुछ लोग तत्कालीन राष्ट्र्पति जार्ज डब्ल्यू बुश के खिलाफ हाथों में प्ले कार्ड्स लिए धरना दे रहे थे. हमने भी वहां तस्वीरें खिंचवाईं. रास्ते में ड्राइवर ने हमें यूनाइटेड स्टेट्स कैपिटल बिल्डिंग भी दिखाई. यह वाशिंगटन डीसी में नेशनल मॉल के पूर्व की तरफ पठार पर स्थित है. उन्होंने हमें राह चलते अमेरिका के रक्षा विभाग के मुख्यालय, पेंटागन की झलक भी दिखाई. 9 सितंबर 2001 को अलकायदा के आत्मघाती आतंकियों के निशाने पर पेंटागन भी था, उन्होंने अपहृत विमानों में से एक को पेंटागन मुख्यालय की बिल्डिंग से भी टकराया था. इस हमले में 189 लोग मारे गए थे. मारे गए लोगों की याद में यहां एक स्मारक बना है. रास्ते में लौटते समय हमने वाशिंगटन स्मारक एवं कुछ अन्य स्मारक भी देखे.

डालर से रुपए में बदलकर देखेंगे 
तो कुछ खा पी भी नहीं सकेंगे !
 


    वापस लौटते समय हम लोग न्यू यार्क-लांग आईलैंड के रास्ते में राजमार्ग से हटकर ‘मैकडानल्ड’ में रुके कुछ नाश्ता भी किए जो बहुत महंगा था. बगल के एक सुपर स्टोर्स में भी गए. विंडो शापिंग के क्रम में एक शर्ट पसंद आई जिसका दाम पूछने पर बांग्लादेशी सेल्स गर्ल ने कुछ डालरों में बताई. हमने हमने मोबाइल फोन के जरिए उसकी कीमत भारतीय रुपये में जानने के लिए गुणा-भाग शुरू किया. उसने समझ लिया और तंज की शैली में कहा, “अंकल यहां डालर से रुपये में कनवर्ट कर कीमतें देखेंगे तो कुछ भी खरीद नहीं सकेंगे. कुछ खा-पी भी नहीं सकेंगे.” हमने झेंप मिटाते हुए कहा, बेटा आपकी कमाई डालर में है और हमारी रुपये में. हम तो उसी के अनुरूप सोचेंगे और कीमत का पता करेंगे. आपकी बात अलग है, आप लोग डालर में कमाते हो. क्या पता जो चीज हम यहां खरीद रहे हैं, दिल्ली में इससे सस्ती मिल रही हो ! वह मुस्कराई और बोली, “हां ये तो है. वैसे, भी जो शर्ट आप पसंद कर रहे हैं. वह आपके यहां की ही बनी हुई है. यहां अलग लेबल लगाकर बिक रही है.” मैकडानल्ड में शाकाहारी खोजते-खोजते हमें एक ‘वेज बर्गर’ मिला जिसे हमने अपने ड्राइवर के लिए ले लिया. लौटते समय उसे दिया भी लेकिन उसने उसे खाने के बजाए सीट के पास रख लिया. लांग आईलैंड पहुंचने पर उससे पूछा कि बर्गर खाया क्यों नहीं ! उसने बड़ी हिकारत के साथ कहा, इसमें पोर्क (सुअर का मांस) है जो हमारे लिए हराम है. हमारे बताने पर कि यह तो वेज बर्गर है, उसने कहा कि इसके इन्ग्रेडिएंट्स देखने पर पता चलता है कि इसमें क्या क्या है. इसलिए हम बाहर का कुछ नहीं खाते.

    बहरहाल, हम लोग शाम होते होते लांग आईलैंड होटल मैरिअट पहुंच गये. रात का हम सबका भोजन लांग आईलैंड में ही आफमी के न्यूयार्क चैप्टर के गुजराती मूल के अध्यक्ष डा. फारूख मुखी के निवास पर था. डा. मुखी की लोकप्रियता उनके निवास पर जमा लोगों की भीड़ देखकर भी लगता है. वैसे भी एक डाक्टर और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उनकी अलग तरह की पहिचान है. उनके निवास पर रात्रिभोज में भारतीय मूल के खासतौर से गुजरात और महाराष्ट्र मूल के बहुत सारे लोगों से मुलाकात हुई. खाना भी बहुत ही लजीज था. अगले दिन दलित अल्पसंख्यक अंतर्राष्ट्रीय फोरम के समापन सत्र के बाद दोपहर का भोजन पासवान जी के साथ हम लोगों ने लांग आईलैंड में ही मशहूर भारतीय रेस्तरां ‘अकबर’ में हुआ.

भोजन पूरी तरह से भारतीय पद्धति और मसालों से तैयार बहुत ही स्वादिष्ट और जायकेदार था. सम्मेलन के समापन सत्र में गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों से जुड़े विभिन्न अदृश्य पहलुओं, दंगों में शासन-प्रशासन और खासतौर से पुलिस की भूमिका को उजागर करनेवाली सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड, पत्रकार तरुण तेजपाल, और गुजरात पुलिस के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक रहे आर बी श्रीकुमार को सम्मानित किया गया. इस अवसर पर एक 12 सूत्री ‘न्यूयार्क घोषणापत्र’ भी जारी हुआ. पूरे सम्मेलन में अधिकतर नेताओं-वक्ताओं के निशाने पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी और शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ही थे.


भाई जान के साथ न्यूयॉर्क और 
लांग आईलैंड की सैर 

    सम्मेलन स्थल पर लखनऊ के आसपास के किसी इलाके के एक सज्जन (नाम याद नहीं रहा, संभवतः श्री खान) मिल गये. हम उन्हें यहां भाई जान के नाम से संबोधित करेंगे. भाई जान वहां काफी सारी चाकलेट्स लेकर आए थे जिसे उन्होंने हम सबके बीच बांटा. बातचीत में कुछ करीबी बढ़ गई. उन्होंने प्रस्ताव किया कि हम कुछ लोग चाहें तो वह हमें अपनी कार में न्यूयार्क और आसपास के कुछ इलाकों में घुमा सकते हैं. हमारे लिए तो यह एक सुअवसर जैसा ही था. हम, आशुतोष, सुभाशीष मित्रा और आरती कपूर उनके साथ खूब घूमे. उनके साथ घूमते समय ही इस बात का एहसास हुआ कि वहां कारें बहुत ज्यादा होने के कारण पार्किंग की समस्या कितनी विकराल है. काफी दूर कार पार्क कर गंतव्य तक पैदल जाना पड़ता है. कई बार तो पार्किंग उपलब्ध नहीं होने के कारण कार में ही चक्कर लगाने पड़ते हैं. लोगों ने अपने घरों के एक एक हिस्से में भी पार्किंग बना रखी थी. पार्किंगस्थलों पर लगे साइनबोर्ड पर पता चल जाता था कि कहां कितनी जगह खाली है.
मेगा स्टोर के बाहर आरती कपूर और 'भाई जान' के साथ
वह हमें एक बड़े मेगा स्टोर में भी ले गये जहां सेल चल रही थी. हमने वहां से बच्चों के लिए जैकेट, कपड़े खरीद लिए. उनके साथ हम लोग एक और दुकान में गए जिसका नाम था, ‘वन डालर शॉपी’ वहां हर सामान एक डालर का था. वहां से भी कुछ जरूरत के सामान खरीदे गए. वहीं पता चला कि एक पका हुआ केला भी एक डालर यानी भारतीय मुद्रा के हिसाब से उस समय 60-70 रुपये का था. इस हिसाब से एक दर्जन केले के भाव समझ सकते हैं. इसी तरह के दाम अन्य वस्तुओं के भी थे. दरअसल, अमेरिका में एक डालर का मतलब हमारे यहां के एक रुपये की तरह ही होता है लेकिन भारत से वहां घूमने गए लोगों के लिए वह काफी भारी पड़ता है. वहां एक बात और दिखी. पीने के पानी का दाम कोका कोला और पेप्सी जैसे पेय पदार्थों से महंगा था. स्ट्रीट फूड्स भी महंगे थे. हम लोग एक दिन लांग आईलैंड में घूमते हुए एक अपेक्षाकृत छोटी दुकान में एक पिज्जा का दाम सुनकर चमत्कृत रह गए. दुकानदार ने हमारी समस्या समझकर बताया कि उसके पास एक बड़ा पिज्जा भी है जिसे आप लोग शेयर कर सकते हैं. हमने वही किया. एक (पापा) पिज्जा तीन-चार लोगों के लिए पर्याप्त और अपेक्षाकृत सस्ता भी था. 

घर वापसी 

    बहरहाल, संयुक्त राज्य अमेरिका की दोनों राजधानियों (न्यूयार्क और वाशिंगटन) के साथ ही लांग आई लैंड में भ्रमण की यादें मन में समेटे आठ जुलाई को हम लोग दिल्ली लौट आए. रास्ते में एक बार फिर हमारा विमान लंदन में रुका. हम लोगों ने एक बार फिर कुछ घंटे लंदन हवाई अड्डे पर गुजारे. हमारे कुछ मित्र अपने-अपने कारणों से अमेरिका में ही रुक गए थे. उनका वहां कुछ अन्य जगहों पर जाने का कार्यक्रम बन गया था. लंदन से दिल्ली की उड़ान में तत्कालीन मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री डी. पुरंदेश्वरी मिल गई. हमारा उनसे पुराना परिचय था. वह आंध्र प्रदेश के संभवतः पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री एन टी रामराव की पुत्री हैं लेकिन उस समय वह कांग्रेस में थीं (2014 में वह भाजपा में शामिल हो गईं). उनसे काफी देर तक एनटीआर कुनबे की राजनीति पर भी चर्चा होती रही.
हवाई अड्डे पर ड्यूटी फ्री शॉप 
     अमेरिका में हुए दलित अल्पसंख्यक अंतर्राष्ट्रीय फोरम के तीन दिनों के सम्मेलन में यकीनीतौर पर राम विलास पासवान देश में दलितों और अल्पसंख्यकों के बड़े नेता-प्रवक्ता के रूप में लौटे थे. दुनिया भर से आए दलितों, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य वंचित, उपेक्षित तबकों के बीच उनके नाम का आकर्षण बढ़ा था. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के बजाय लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ा और उन्हें बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा. बाद में लालू प्रसाद के सहयोग से वह राज्यसभा में आ सके थे. लेकिन इस बीच न्यूयार्क घोषणापत्र में कही गई बातों को वह भूल से गए और एक समय तो ऐसा भी आया जब 2014 के संसदीय चुनाव में अपने पुत्र चिराग पासवान और पूरे कुनबे के साथ उन्हीं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा करनेवाली भाजपा के साथ उन्होंने चुनावी गठबंधन कर लिया, जिसके विरुद्ध उनका पूरा दलित, अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम का सम्मेलन केंद्रित था. लेकिन वह मोदी सरकार में मृत्यु पर्यंत मंत्री बने रहे. शायद इसलिए भी उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा ‘मौसम विज्ञानी’ कहते रहे. इस दौरान उन्हें अपने ‘न्यूयार्क घोषणापत्र’ की याद भी शायद नहीं आई. लेकिन उनके सौजन्य से हमें एक ध्रुवीय बनती जा रही दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य महाशक्ति, संयुक्त राज्य अमेरिका की दोनों राजधानियों में भ्रमण का अवसर तो मिला ही. यह संयोग कहें अथवा अपने अस्त-व्यस्त रहन सहन का दोष. इस यात्रा से जुड़ी बहुत सारी बातें और संस्मरण खासतौर से हमारे कैमरे से ली गई तस्वीरें बहुत प्रयास के बावजूद मिल नहीं सकीं. इस कारण भी यात्रा में साथ रहे मित्रों, मदन झा, गीताश्री, आशुतोष, सुभाशीष, प्रदीप, शेख मंजूर, कुरबान अली, संतोष भारतीय आदि मित्रों को गाहे-बगाहे तंग कर हमने तथ्य और तस्वीरें जुटाई. कहीं कुछ गलत लिख गया हो, कुछ छूट गया हो तो मित्र सुधार कर सकते हैं.