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Wednesday, 6 January 2021

डोकलाम विवाद के साए में चीन यात्रा

क्या है डोकलाम विवाद !


जयशंकर गुप्त


    
तस्वीर इंटरनेट से
    भारत में इसे डोकलाम, भूटान में डो काला, तिब्बत में झोगलम और चीन में डोंगलांग कहते हैं. यह उत्तर में चीन की चुंबी घाटी, पूर्व में भूटान की हा घाटी और पश्चिम में भारत के सिक्किम राज्य की नाथंग घाटी के बीच में स्थित पठार और घाटी वाला क्षेत्र है. इसे 1961 से भूटानी मानचित्रों में भूटान के हिस्से के रूप में चित्रित किया गया है, लेकिन चीन भी इस पर अपना दावा करता है. आज तक, भूटान और चीन के बीच कई दौर की सीमा वार्ताओं के बावजूद इस विवाद को हल नहीं किया जा जा का है. यह क्षेत्र तीनों देशों के लिए सामरिक महत्व का है. इसको लेकर ही जून-अगस्त, 2017 में दोनों देशों के बीच विवाद चरम पर पहुंच गया था. जैसा कि हम पिछली कड़ी में लिख चुके हैं, जिस समय हम लोग चीन यात्रा पर बीजिंग पहुंचे थे, चीन और भारत-भूटान के बीच भूटान की सीमा के भीतर डोकलाम के पास चीन के असैन्य, सड़क निर्माण और उसके विरोध में भारतीय सैन्य टुकड़ियों की उस क्षेत्र में बुलडोजरों के साथ पहुंचकर सड़क निर्माण को रोकने को लेकर विवाद चरम पर पहुंच गया था. दोनों देशों पर आशंकित युद्ध के अदृश्य बादल मंडराने लगे थे. 

    विवाद की शुरुआत भारत-भूटान और चीन के सीमावर्ती तिराहे (ट्राई जंक्शन) से लगे डोकलाम के पास जून 2017 में चीन के सड़क निर्माण को लेकर हुई थी. डोकलाम चीन के पश्चिम, सिक्किम (भारत) के पूर्व तथा भूटान के दक्षिण सीमा पर लगनेवाला तिराहा है. 16 जून को वहां चीन के सड़क निर्माण शुरू होने के दो दिन बाद, 18 जून को बुलडोजरों के साथ 270 भारतीय सैनिकों ने सीमा पारकर चीन को सड़क निर्माण से रोक दिया था. इसके बाद ही दोनों देशों की सेनाओं का वहां जमावड़ा शुरू हो गया था. भारत का दावा है कि भूटान की सीमा के भीतर डोकलाम का कुछ हिस्सा सिक्किम में भारत की सीमा से सटा हुआ है. भूटान और चीन, दोनों डोकलाम पर अपना दावा जताते हैं. चीन 1890 के ऐंग्लो-चाइना कन्वेंशन के हवाले डोकलाम पर अपना हक जताता है. भूटान और चीन के बीच किसी तरह का राजनयिक संबंध नहीं है जबकि उसे भारत से सैन्य-राजनयिक और आर्थिक सहयोग भी मिलता है. उसकी सीमाओं की सुऱक्षा भारत की जिम्मेदारी है. इसके मद्देनजर ही भारत ने भूटान की सीमा के भीतर चीन के सड़क निर्माण को रोकने की पहल की. 

    भारत डोकलाम क्षेत्र में चीन के सड़क निर्माण का विरोध इसलिए भी कर रहा था क्योंकि उसे आशंका थी कि इससे इलाके में यथास्थिति, भौगोलिक स्थिति और सुरक्षा समीकरण बदल सकते हैं. भारत को लगता था कि चीन ने इस सड़क को बना लिया तो देश के उत्तर पूर्वी राज्यों को देश से जोड़नेवाले इस 'चिकन नेक' कहे जानेवाले 20 किमी चौड़े पठारी इलाके, सिलीगुड़ी कारिडोर पर चीन को बढ़त हासिल हो जाएगी. लेकिन चीन भारत की आशंकाओं को निराधार करार देते हुए इस बात पर अड़ा था कि वह सड़क निर्माण अपनी सीमा के भीतर कर रहा है और भारत को उसे रोकने का कोई अधिकार नहीं है. भारत के सैनिकों ने चीन की सामा के भीतर घुसपैठ की है और उन्हें बिना शर्त वापस चले जाना चाहिए. 
वांगफुजिंग स्ट्रीट पर मॉल के सामने

    चीन यात्रा के दौरान, पहले दिन से ही हम जहां कहीं भी गए, चीन के सैन्य और विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से लेकर उनके रणनीतिकारों और ‘थिंक टैंक’ से जुड़े लोगों ने भी नरम-गरम मीठी भाषा और कभी-कभी घुड़की-धमकी के अंदाज में भी हमें समझाने की कोशिश की कि डोकलाम क्षेत्र में भारतीय सैनिकों की उपस्थिति गलत और असहनीय है. इलाके को अपना साबित करने और भूटान का हो तब भी, वहां अपने निर्माण कार्य को जायज करार देते हुए हमें यह समझाने की कोशिश की जाती रही कि भारत अगर उस क्षेत्र को खाली नहीं करता और इसके सैनिक वहां बने रहते हैं तो भारत को इसका 'खामियाजा' भुगतना पड़ सकता है.

नोवोटेल होटल से लगा 'टी कल्चर हाउस'

बीजिंग प्रवास 

    बीजिंग में हमारी पहली शाम नोवोटेल होटल और आसपास के इलाकों में घूमने-टहलने में ही बीती. होटल से सटे ‘टी कल्चर हाउस’ के सामने लॉन में हवा में टंगी केटली से निरंतर नीचे गिरता पानी (चाय) हमें बरबस अपनी ओर आकर्षित करता था. हम टी कल्चर हाउस के अंदर गए. वहां तमाम तरह की चाय पत्तियां, कुछ फुडीज भी बिक्री के लिए थीं. विभिन्न चाय पत्तियों से बनी चाय टेस्ट करने का आमंत्रण भी था. हमने वहां चाय की बहुत छोटी, डिस्पोजेबल प्यालियों में भी कई तरह की चाय की चुस्की लेकर उसका स्वाद भी जाना लेकिन कीमत बहुत ज्यादा होने के कारण खरीदने का साहस नहीं जुटा सके. शाम को हम पास के एक बड़े शापिंग माल में भी गये. माल के सामने की सड़क, वांगफुजिंग स्ट्रीट शाम को एक बाजार की शक्ल ले लेती है जिस पर परिवहन प्रतिबंधित हो जाता है. वहां सिर्फ पर्यटक और खरीदार ही नजर आते हैं. 

वांगफुजिंग स्ट्रीट का एक दृश्य

 साथ लगी गलियों में सड़क छाप फूड कोर्ट्स और रेस्तरां भी दिखते हैं जहां भोजन के रूप में सी फूड से लेकर सांप-बिच्छू के आइटम भी उपलब्ध थे. हम सुनते तो थे कि चीनी लोग सांप-बिच्छू भी खाते हैं. उन रेस्तराओं में जार में रखे, सांप-बिच्छू और उन्हें तल-पकाकर वहां बैठकर अथवा खड़े होकर लोगों को खाते हुए पहली बार ही देख रहे थे. 

    शापिंग मॉल के बाहर सड़क पर एक-दो संदिग्ध महिलाएं भी दिखीं जो इशारों से कुछ कहना चाहती थीं. पास जाने पर पता चला कि वह ‘काल गर्ल्स’ अथवा उनकी एजेंट थीं. नोवोटेल होटल के बाहर भी तकरीबन रोजाना बाहर निकलते समय इस तरह की एक-दो महिलाएं अक्सर दिख जातीं. एक बार जिज्ञासावश दरयाफ्त करने पर वह कुछ तस्वीरें और नंबर दिखाकर अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में बताने लगीं कि जो पसंद हो, आपके रूम में आ जाएगी. मना करने पर मुंह बिचकाकर आगे बढ़ जातीं. लेकिन दिखती तकरीबन रोजाना ही थीं. 

बीजिंग में सायकिल का प्रचलन


  
फुटपाथ पर मोबाइल ऐप
से जुड़ी सायकिलें
    बीजिंग और चीन के दूसरे बड़े शहरों में भी पिछले ढाई-तीन दशकों में शुरू हुए आर्थिक सुधारों, खुली अर्थव्यवस्था और उदारीकरण के चलते मध्यम वर्ग तेजी से विकसित हुआ है. इसके साथ ही लोगों के बीच निजी वाहनों की मांग और चलन में भी वृद्धि हुई है. बीजिंग और अन्य बड़े शहरों में बढ़ रहे प्रदूषण और ट्रैफिक जॉम का एक बड़ा कारण सड़कों पर अचानक निजी वाहनों की बढ़ रही आमद को भी बताया गया. इससे निजात पाने के लिए यहां ऐप आधारित मोटर बाइक्स और सायकिलों का चलन तेजी से बढ़ा है. बीजिंग और झान झियांग में हमें जगह-जगह सड़कों पर बने सायकिल स्टैंड्स पर डिजिटल ताले में बंद सायकिलें दिखीं. हालांकि अब तो दिल्ली एवं देश के अन्य बड़े शहरों में हमारे यहां भी सायकिलों का चलन बढ़ा है. बताया गया कि बीजिंग में उस समय (2017 में) तकरीबन 40 लाख ऐप आधारित सायकिलें चलन में थीं.

    सायकिल स्टैंड्स पर लोग अपने मोबाइल फोन पर पहले से डाउनलोडेड ऐप पर क्यू आर कोड दिखाते और पसंद की सायकिल का ताला खुल जाता. और फिर लोग सायकिल लेकर अपने गंतव्य, घूमने-टहलने से लेकर मेट्रो स्टेशन, रेलवे स्टेशन और बस स्टेशन से अपने घर-कार्यालय के लिए निकल जाते. गंतव्य पर ही वे लोग सायकिल छोड़ जाते. जीपीएस से जुड़ी होने के कारण संचालक कंपनी के लोग उन्हें उठवाकर करीब के सायकिल स्टैंड पर तालाबंद कर रख देते हैं. इसी तरह की प्रक्रिया मोबाइक्स के साथ भी होती है. दूर दराज से आनेवाले कर्मचारी मेट्रो, रेल और बस स्टेशनों से सायकिल लेकर ही अपने कार्यालय-घर आने-जाने को प्राथमिकता देते हैं. इस काम के लिए कई बड़ी कंपनियां भी बाजार में आ गई हैं. इससे न सिर्फ ट्रैफिक जॉम से निजात मिलती है, प्रदूषण भी कुछ कम होता है बल्कि सस्ती होने के कारण जेब पर असर भी कम पड़ता है. कुछ लोगों के लिए सायकिल चलाना फैशन भी बन गया है जबकि कुछ लोग स्वास्थ्य कारणों से भी सायकिलिंग करते नजर आए. उस समय सायकिल के प्रति घंटे के इस्तेमाल के लिए तकरीबन एक युवान या कहें आरएमबी (चीनी मुद्रा) यानी तकरीबन 9 रुपए 75 पैसे (2017 में) देने पड़ते हैं. सायकिल गायब होने, टूट फूट, ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन आदि पर जुर्माना या मुआवजा संबद्ध उपयोगकर्ता की जमानत राशि से काट लिया जाता है. पता चला की सायकिल के लिए 100 आरएमबी (तकरीबन 975 रु.) तथा मोबाइक्स के लिए 300 आरएमबी (तकरीबन 2925 रु.) मोबाइल फोन पर ऐप डाउनलोड करते समय ही जमा करवा लिए जाते हैं. लेकिन इससे मोबाइक कंपनियों की कमाई कैसे होती है, हमारे स्थानीय पत्रकार मित्र ने बताया कि कंपनियों को उपभोक्ताओं के साथ ही केंद्र सरकार, राज्य सरकार और स्थानीय निकायों से भी प्रदूषण कम करने और ट्रैफिक जाम से मुक्ति के नाम पर भी अच्छा खासा फंड मिलता है. 
वांगफुजिंग स्ट्रीट पर


 थर्ड गैरिसन मुख्यालय में


    अगले दिन, सात अगस्त की सुबह आठ बजे ही हम लोगों को बीजिंग के बाहर पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) के ‘थर्ड गैरिसन’ के लिए निकलना था, लिहाजा हमें होटल में सुबह के सात बजे ही पूरी तरह से तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर आ जाना पड़ा. इस बीच बीजिंग में टाइम्स ऑफ इंडिया के विशेष संवाददाता शैबालदास गुप्ता एवं पीटीआई के चीन संवाददाता के. जे. एम. वर्मा जी भी हमारे साथ जुड़ चुके थे. ये लोग लगातार हमारे साथ रहे. नाश्ता करने (होटल में हर तरह के नाश्ते का इंतजाम था. अंडे-मछली और सीफुड के साथ कुछ शाकाहार और ताजे-स्वादिष्ट फल भी भरपूर मिलते थे) के बाद हम लोग शहर से बाहर हरी-भरी पहाड़ियों के बीच पीएलए के थर्ड गैरिसन पहुंचे.

    राजधानी शहर बीजिंग की रक्षा-सुरक्षा के लिए जिम्मेदार पीएलए की ‘थर्ड गैरिसन’ के बारे में बताया गया कि गैरिसन पीएलए अधिकारियों और सैनिकों के सबसे पुराने और सबसे महत्वपूर्ण प्रशिक्षण केंद्रों में से एक है. गैरिसन में लगभग 11,000 सैनिक तैनात हैं. आपातकालीन निर्माण, आपदा प्रबंधन, ज्वाइंट एयर डिफेंस और सिविलियन डिजेस्टर रिलीफ से लेकर ऐसा कोई काम नहीं है जिसे ये लोग नहीं कर सकते. अप्रैल-जून, 1989 में तियानमेन चौक पर लोकतंत्र समर्थक छात्र-युवाओं की एक लाख से ऊपर की भीड़ से निबटने के नाम पर उनके दमन में थर्ड गैरिसन की भूमिका ‘महत्वपूर्ण’ थी. 

    तकरीबन 35 डिग्री तापमानवाली चिलचिलाती धूप में हम लोग एक वातानुकूलित हाल में बैठकर सामने लगे पारदर्शी सीसे से बाहर मैदान में थर्ड गैरिसन के जवानों के करतब, युद्ध कौशल, छोटे-बड़े आग्नेयास्त्रों से उनकी लक्ष्यभेदी निशानेबाजी देखते रहे. नजदीकी युद्ध में ‘शत्रु ताकतों’ पर कब्जा करना, आतंकवाद से मुकाबला करने और लेजर सिमुलेशन फोर्स-ऑन-फोर्स प्रशिक्षण शामिल थे. उनकी सटीक निशानेबाजी देख मुंह से बरबस ‘वाह’ निकल पड़ता था. हालांकि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के वरिष्ठ कर्नल ली ली ने स्पष्ट किया कि इस सैनिकों के इस युद्ध कौशल प्रदर्शन का डोंगलांग विवाद से कोई विशेष संदर्भ नहीं है जहां अब भी भारतीय सैनिक को बुलडोजर के साथ जमे हैं.

    बताया गया कि जिस हाल में हम बैठे थे, वहां विदेशी सैन्य प्रतिनिधिमंडलों के साथ कई महत्वपूर्ण बैठकें होती रही हैं. इसकी ताईद वहां दीवार पर लगी अतीत में हुई बैठकों की तस्वीरें भी कर रही थीं. इसमें कई तस्वीरें पाकिस्तान के सैन्य प्रतिनिधिमंडलों की पीएलए के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठकों की थीं. एक तस्वीर पीएलए के अधिकारियों के साथ भारतीय सैन्य प्रतिनिधिमंडल की भी थी जो संभवतः डोकलाम विवाद के सामने आने से तकरीबन दो महीने पहले की थी. साथ लगे थर्ड गैरिसन मुख्यालय भवन के विभिन्न कक्षों में हमें अत्याधुनिक सैन्य साज सामान, प्रौद्योगिकी उपकरण दिखाए गये.

    सीनियर कर्नल ली ली ने दावा किया, "डोंगलांग में भारतीय सैनिकों ने जो किया है वह चीनी क्षेत्र पर आक्रमण है. टकराव से बचने के लिए उन्हें तत्काल चीनी क्षेत्र से हट जाना चाहिए" एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “डोंगलांग में पीएलए क्या करेगी, यह भारतीय सैनिकों की कार्रवाई पर निर्भर करता है. हम उचित जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार हैं. हम चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी और केंद्रीय सैन्य आयोग (चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में 2.3 मिलियन मजबूत सेना के समग्र उच्च कमान) के आदेशों का पालन करेंगे." उन्होंने धमकी भरे अंदाज में कहा, "भारत को यह याद रखना चाहिए कि उसके पड़ोसी में सभी हमलावर दुश्मनों को हराने की क्षमता है." हमने उन्हें समझाने की कोशिश की कि भारत भी 1962 से काफी आगे निकल चुका है.

चीन के रक्षा मंत्रालय के सूचना केंद्र में


    बरहाल, हम लोग वहां तकरीबन दो घंटे तक रहे. वहां से लौटकर नोवोटेल होटल आए. दोपहर के भोजन के बाद दिन में दो बजे हमें चीन के रक्षा मंत्रालय के सूचना कार्यालय केंद्र ले जाया गया. इस बीच बीजिंग शहर का ट्रैफिक अपने सबाब पर था. कहीं-कहीं हल्के जाम भी देखने को मिले. प्रदूषण भी दिखने लगा था. ढाई बजे हमारी बैठक रक्षा मंत्रालय के वरिष्ठ सूचना अधिकारियों के साथ शुरू हुई. चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता, सीनियर कर्नल रेन गुओकियांग ने डोकलाम गतिरोध के बारे में भारतीय मीडिया के साथ संवाद को महत्वपूर्ण बताया. चीन द्वारा दो सप्ताह के भीतर डोकलाम से भारतीय सैनिकों को बाहर निकालने के लिए चीन के द्वारा एक ‘छोटे स्तर के सैन्य अभियान’ पर विचार करने से संबंधित चीन की सरकारी मीडिया (ग्लोबल टाइम्स) में चीन के थिंक टैंक के हवाले से हो रही बयानबाजी के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि इसके बारे में वह कुछ नहीं कह सकते. यह चीन सरकार का आधिकारिक रुख नहीं है. मीडिया और ‘थिंकटैंक’ की राय हो सकती है. चीन के आधिकारिक रुख जानने के लिए विदेश मंत्रालय और रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ताओं के बयान ही देखे जाने चाहिए. लेकिन उन्होंने दावा किया कि डोकलाम चीन का हिस्सा है. इस बात के ऐतिहासिक और कानूनी साक्ष्य भी चीन के पास हैं. हमें अपनी सीमा के भीतर सड़क निर्माण का वैधानिक अधिकार है. उन्होंने सड़क निर्माण रोकने के लिए 18 जून को भारतीय सैनिकों पर चीन की सीमा में घुसपैठ करने का आरोप लगाते हुए कहा कि भारत को डोकलाम पर 50 दिनों से बने गतिरोध को समाप्त करने के लिए अपने सैनिकों को अविलंब और बिना शर्त वहां से हटा लेना चाहिए. कर्नल रेन ने सवाल किया कि बीजिंग द्वारा नई दिल्ली को दो बार सूचित किए जाने के बाद भी भारत ने चीन द्वारा वहां सड़क बनाने की योजना पर चुप्पी क्यों बनाए रखी. उन्होंने कहा कि चीन ने 18 मई को और फिर 8 जून को भारत को सूचित किया था.

    उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के एक बयान के हवाले से दावा किया कि चीन और भारत के दो शरीर लेकिन आत्मा एक है. चीन एक शांति प्रिय देश है. हमारे साथी संदीप दीक्षित के यह पूछने पर कि 127 वर्षों में नहीं तो अब इसी समय चीन को सिक्किम क्षेत्र में सड़क निर्माण की क्यों सूझी ! हमारे यह बताने पर कि चीन पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में 50 अरब अमेरिकी डालर के सहयोग से चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) बनाने, श्रीलंका में बंदरगाह आदि के निर्माण आदि के जरिए अपनी विस्तारवादी नीति पर अमल कर रहा है. डोकलाम क्षेत्र में उसके सड़क निर्माण को इस पृष्ठभूमि में भी देखा जा रहा है. प्रधानमंत्री मोदी का बयान अपनी जगह सही हो सकता है, लेकिन हमने उन्हें बताया कि भारत में जैश ए मोहम्मद के खूंखार आतंकवादी मसूद अजहर पर प्रतिबंध लगाने के संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के विरुद्ध चीन के वीटो लगा देने को लेकर भारत में बहुत आक्रोश है. भारत में कट्टरपंथी ताकतें चीन के इस रुख का विरोध चीन निर्मित सामानों के बहिष्कार के नाम पर अपना गुस्सा उन छोटे-बड़े व्यापारियों-दुकानदारों के यहां तोड़ फोड़ कर निकालते हैं, जो चीन के सामान बेचते हैं.

    कर्नल रेन ने चीन पर विस्तारवादी देश होने के आरोप को खारिज करते हुए कहा कि ‘यह हमारे जीन में नहीं है.’ उन्होंने कहा कि चीन की विदेश नीति समय और परिस्थिति के अनुरूप बनती है. चीन के बारे में यह बहुत बड़ी गलतफहमी, ‘स्ट्रैटेजिक मिसजजमेंट’ है. इसे साफ करने में दोनों देशों के मीडिया की भूमिका और भी बढ़ जाती है. चीन के रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता चीनी भाषा में बोल रहे थे, उसे हम तक समझाने के लिए चीन के ही दुभाषिया मेजर यु लियांग हमें अंग्रजी में और हम लोगों के द्वारा अंग्रेजी और हिंदी में (हम तो लगातार वहां अपनी बात हिंदी में ही करते थे जिसका अंग्रेजी अनुवाद हमारे मित्र संदीप दीक्षित बताते थे) कही बातों को चीनी भाषा में अनुवाद कर चीन के अधिकारियों को समझाते थे. रक्षा मंत्रालय के सूचना केंद्र से लौटने के बाद शाम को होटल नोवोटेल लौटने के बाद हम वांगफुजिंग स्ट्रीट पर बने मॉल और साथ लगे इलाकों में घूमते-फिरते रहे. मॉल में सामान तो काफी अच्छे लेकिन महंगे थे जो हमारी जेब की पहुंच के बाहर थे लेकिन देखने (विंडो शापिंग) पर तो कोई रोक नहीं थी.

    चीन के विदेश मंत्रालय में


  
चीन के विदेश मंत्रालय के सामने
    आठ
अगस्त की सुबह 7.30 बजे होटल में नाश्ता करने के बाद 8.20 बजे हम लोग चीन के विदेश मंत्रालय गए. वहां सुबह के 9 बजे से विदेश मंत्रालय में सीमा और समुद्री मामलों की उप महानिदेशक वांग वेनली से मुलाकात तय थी. वहां भी हमें डोकलाम पर चीन का वही राग सुनने को मिला, मीठी घुड़की के साथ. वांग वेन ली ने कहा कि डोकलाम क्षेत्र में डेरा डाले भारत के सैनिकों के भारतीय सीमा में वापस लौट जाने तक भारत के साथ किसी तरह की बातचीत संभव नहीं है, अन्यथा हमारे (चीन के) लोग सोचेंगे कि हमारी सरकार अपनी सीमाओं की सुऱक्षा कर पाने में अक्षम है. एक भी भारतीय सैनिक के एक दिन के लिए भी चीन की सीमा में बने रहना हमारी संप्रभुता और अखंडता का उल्लंघन माना जाएगा. वैसे, उन्होंने कहा कि 50 दिनों से राजनयिक चैनल्स तो खुले ही हुए हैं. लेकिन बातचीत केवल बातचीत जारी रखने के लिए तो नहीं हो सकती !

     हमारे वरिष्ठ पत्रकार मित्र संदीप दीक्षित के पूछने पर कि तिराहा के पास 127 साल बाद सड़क निर्माण जरूरी था क्या ! वांग वेनली ने कहा, “सड़क निर्माण चीन की सीमा के भीतर आवागमन सुगम बनाने के लिए हो रहा है. यह मिलिटरी इंस्टालेशन नहीं है, जबकि भारत तो अपनी सीमा के भीतर सड़क निर्माण और मिलिटरी इंस्टालेशंस भी कर रहा है. हम लोगों ने तो उसे कभी नहीं रोका !” उन्होंने कहा कि तिराहा एक बिंदु है, सीमा निर्धारण क्षेत्र नहीं. उन्होंने भारत और नेपाल के बीच कालापानी विवाद और कश्मीर का उल्लेख करते हुए कहा कि "हमें लगता है कि भारतीय पक्ष के लिए डोंगलांग (डोकलाम) के पास भारत-भूटान और चीन के त्रि-जंक्शन (तिराहा) को मुद्दा बनाना ठीक नहीं है. भारत में भी इस तरह के कई त्रि-जंक्शन (तिराहे) हैं. अगर हमारी सेना उसी बहाने का इस्तेमाल करते हुए चीन भारत और नेपाल के बीच के त्रि जंकशन, कालापानी में या भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर क्षेत्र में प्रवेश कर जाए तो ! भारत की प्रतिक्रिया तब क्या होगी!” यह पूछे जाने पर कि क्या चीन भारत के साथ एक और युद्ध की तैयारी कर रहा है ! वांग वेनली ने कहा, “मैं केवल यह कह सकती हूं कि पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) और चीन सरकार अपने सीमा क्षेत्र को खाली कराने के लिए कटिबद्ध है. अगर भारत गलत रास्ते पर जाने का फैसला करता है या फिर भी इस घटना को लेकर भ्रम में है, तो हमें अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अंतर्राष्ट्रीय कानूनों के अनुरूप किसी भी हद तक जाने का अधिकार है. 

चीन के विदेश मंत्रालय में सीमा और समुद्री मामलों की
 उप महानिदेशक वांग वेनली
 (बीच में) 
के साथ बाएं से संदीप दीक्षित
हम, मनोज जोशी, अनिल के जोसेफ और जे के एम वर्मा
  
   यह पहली बार था जब चीन के किसी आधिकारिक प्रवक्ता ने इस विवाद में नेपाल और कश्मीर मुद्दे को लाने की कोशिश की, हालांकि इस तरह की टिप्पणी इससे पहले सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ में चीन के थिंक टैंक से जुड़े एक विद्वान ने भी की थी. वांग वेनली ने विवादित क्षेत्र को चीन का करार देते हुए दावा किया कि भूटान ने भी माना है कि डोकलाम चीनी क्षेत्र के अंतर्गत है. उन्होंने कहा कि भूटान ने राजनयिक चैनलों के जरिए बीजिंग को अवगत कराया है कि गतिरोध (स्टैंड-ऑफ) का क्षेत्र उसका नहीं है. हालांकि इस दावे की पुष्टि के लिए उन्होंने कोई सबूत नहीं दिया जो डोकलाम के बारे में भूटान की आधिकारिक प्रतिक्रिया से भिन्न हो. भूटान ने आधिकारिक तौर पर विज्ञप्ति जारी कर 16 जून को डोकलाम क्षेत्र में सड़क बनाने की चीन की कोशिश को द्विपक्षीय समझौते के उल्लंघन का आरोप लगाते हुए चीन सरकार का विरोध किया था. लेकिन वेनली ने कहा कि भूटान के लोगों को यह बहुत अजीब लगता है कि भारतीय सीमा सुरक्षा बल के सैनिक चीन की धरती पर हैं." उन्होंने कहा कि उनकी इस बात का समर्थन भूटानी मीडिया और वहां के आधिकारिक ब्लॉगों ने भी किया है जिनके पास "अधिक ठोस जानकारी" है.

    मनोज जोशी के यह बताने पर कि भूटान सरकार की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि चीन उसकी सीमा में घुसकर सड़क निर्माण कर रहा है. भारत सरकार ने 28 जून की भूटान के विदेश मंत्रालय की विज्ञप्ति का हवाला देते हुए कहा था कि “भूटानी क्षेत्र के अंदर सड़क का निर्माण भूटान और चीन के बीच 1988 और 1998 के समझौतों का सीधा उल्लंघन है और दोनों देशों के बीच सीमा के सीमांकन की प्रक्रिया को प्रभावित करता है. सुश्री वेनली ने कहा कि अगर एक पल के लिए मान भी लें कि विवादित इलाका भूटान की सीमा के भीतर है तो भी यह चीन और भूटान के बीच की बात है. भारत इसमें दखल क्यों दे रहा है. भूटान ने इसके लिए उससे सहयोग तो नहीं मांगा था. और फिर भारतीय सैनिक डोंगलांग के पास भूटान की सीमा से होकर नहीं बल्कि चीन सीमा को पार करके ही गए. उन्होंने कहा कि भूटान इस बात के प्रमाण देने में विफल रहा है कि डोकलाम उसकी सीमा के भीतर है. उन्होंने अपने दावे के समर्थन में कहा, “भूटान के मवेशी डोंगलांग क्षेत्र में चारा के लिए आते हैं. और इसके लिए हम लोग उनके पालकों से शुल्क लेते रहे हैं. उनसे वसूल किए जानेवाले टैक्स की रसीदें भी हमारे पास हैं.” (हालांकि हमारी बातचीत के दो दिन बाद ही 10 अगस्त को भूटान सरकार ने आधिकारिक तौर पर विज्ञप्ति जारी कर भूटान के हवाले से चीन के इस दावे को नकार दिया कि डोकलाम चीनी क्षेत्र के अंतर्गत है.)

    सुश्री वेनली ने बताया कि भारत और भूटान सहित 14 देशों की 22,000 किमी से अधिक लंबी सीमाएं चीन से लगती हैं. इनमें से 12 देशों के साथ चीन ने लगभग 20,000 किमी के सीमा विवाद को सुलझा लिया है. केवल भारत और भूटान को मिलाकर लगभग 2,000 किमी की सीमा विवाद का समाधान नहीं हो सका है. सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भूटान और चीन ने 1980 से लेकर अब तक 24 दौर की वार्ता की है जबकि भारत और चीन के बीच इसके लिए 19 दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं. इस पर संदीप दीक्षित और पीटीआई के चीन संवाददाता श्री वर्मा ने उन्हें टोककर कहा कि आप भारत-चीन और भूटान के बीच 2000 किमी के सीमा विवाद के हल नहीं हो पाने की बात कर रही हैं लेकिन भारत सरकार का तो दावा है कि तीनों देशों के बीच 3000 किमी से अधिक को लेकर सीमा विवाद है. वर्मा ने कहा कि आप केवल चीन की पूर्वी सीमाओं की बात कर रही हैं, लद्दाख और अक्साईचीन की नहीं ! इस पर सुश्री वेनली ने कहा कि फिलहाल तो इसी क्षेत्र की बात हो रही है. अभी तक केवल सिक्किम से लगी सीमा ही निर्धारित है. उन्होंने बार बार ब्रिटिश साम्राज्य (भारत उसके अधीन था) और चीन के बीच 1890 में हुए द्विपक्षीय समझौते (कन्वेंशन) का हवाला देते हुए इस संबंध में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाओ एनलाई को लिखे पत्र और संयुक्त राष्ट्र चार्टर का हवाला देते हुए हमें समझाने की कोशिश की कि डोकलाम चीन का है और भारत को वहां चीन के सड़क निर्माण को रोकने का कोई अधिकार नहीं है. संदीप दीक्षित ने उनसे जानना चाहा कि क्या चाओ एनलाई ने नेहरू के पत्र को स्वीकार कर लिया था. इस पर सुश्री वेनली ने कहा कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हमने उनके पत्र को स्वीकार कर लिया था या नहीं. बातचीत में बढ़ रही हल्की तल्खी के बीच श्री वर्मा ने पूछा, “तो क्या चीन भारत से युद्ध चाहता है.” हमने कहा कि मौजूदा परिस्थितियों में युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता और अगर आज दोनों देशों के बीच युद्ध होता है तो इसका खामियाजा दोनों ही देशों को और खासतौर से दोनों देशों की जनता को भुगतना पड़ सकता है. चीन को यह समझने की जरूरत है कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है. उन्होंने कहा, “डोंगलांग में चीन के सैनिक क्या करेंगे, यह भारतीय सैनिकों पर निर्भर करेगा. हम जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार हैं.”

चीन रेडियो इंटरनेशनल के साथ साक्षात्कार
    नोट ः अगली कड़ी में चीन रेडियो इंटरनेशनल, अखिल चीन पत्रकार संघ, चीन अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान तथा चीन के प्रमुख अंग्रेजी समाचार पत्र चाइना डेली के कार्यालयों में संवाद के साथ ही बीजिंग से तकरीबन दो-ढाई हजार किमी दूर चीन के गुआंगडांग प्रांत में दक्षिण चीन सागर के किनारे बसे बंदरगाह शहर झान झियांग की यात्रा से जुड़े रोचक और रोमांचक संस्मरण. 

Wednesday, 30 December 2020

चीन भ्रमण, 2017 (China Visit 2017)

डोकलाम विवाद के साए में चीन की यात्रा

जयशंकर गुप्त

     
चीन की ऐतिहासिक दीवार (तस्वीर इंटरनेट से)
    बात 2017 के अगस्त महीने की है. चीन के साथ डोकलाम या कहें ‘डोंगलांग’ को लेकर भारत का सीमा विवाद चरम पर था. दक्षिण पूर्व एशिया के आसमान में दोनों देशों के बीच आशंकित युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. 'आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन' का तकरीबन एक सप्ताह की चीन यात्रा का निमंत्रण मिला. मन में चीन भ्रमण की इच्छा तो वर्षों से हिलोरें मार रही थी लेकिन ऐसे माहौल में चीन की यात्रा! मन में कई तरह के सवाल भी खड़े कर रही थी. पता चला कि चीन साल में एक-दो बार भारत सहित दुनिया के अन्य देशों के पत्रकारों को भी अपने देश के विभिन्न हिस्सों की यात्रा करवाने के साथ ही संवाद का आदान-प्रदान भी करता है. यह आमंत्रण उसी क्रम में था. आधिकारिक तौर पर गैर सरकारी संगठन कहलानेवाला आल चाइना जर्नलिस्ट एसोसिएशन परोक्ष रूप से चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के प्रचार विभाग से जुड़ा है और चीन के पत्रकारों का यह सबसे बड़ा संगठन पार्टी, चीन सरकार और चीनी मीडिया-प्रेस के बीच सेतु का काम करता है. समय-समय पर विभिन्न सामयिक एवं ज्वलंत मुद्दों पर देश-विदेश में मीडिया टु मीडिया संवाद भी करता, करवाता है. संबद्ध देशों के पत्रकारों को चीन में बुलवाता, सामयिक विषयों पर चीन सरकार के विभिन्न मंत्रालयों, अधिकारियों, रणनीतिकारों से उन्हें मिलवाता, चीन के प्रमुख शहरों में उन्हें घुमाता है. चीन के पत्रकारों को भी अपने बैनर तले संबद्ध देशों की यात्रा पर भेजता है. 

    हमारी यात्रा डोकलाम विवाद पर भारतीय पत्रकारों को चीन के दृष्टिकोण से अवगत कराने के मकसद से भी आयोजित की गई लगती थी. हमारे साथ दिल्ली से चीन की राजधानी बीजिंग और इसके बंदरगाह शहर झानझियांग जानेवाले की सूची में टाइम्स ऑफ इंडिया के डिप्लोमेटिक एडिटर रहे वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी, पीटीआई के अनिल के जोसेफ, चंडीगढ़ में दि ट्रिब्यून के वरिष्ठ पत्रकार संदीप दीक्षित के नाम भी थे. इनमें अकेले हम ही किसी हिंदी अखबार के पत्रकार थे. हमने इस यात्रा के आमंत्रण को ज्यादा माथा पच्ची करने के बजाय सहज स्वीकार कर लिया. विश्व की पांच-छह महा शक्तियों में से रूस और अमेरिका के बाद चीन को देखने, समझने और उसकी महान दीवार के दीदार का सपना पूरा होने जा रहा था. निमंत्रण चूंकि चीन की तरफ से ही था, लिहाजा वीसा आदि को लेकर किसी तरह की दिक्कत नहीं हुई. 

बीजिंग के कैपिटल इंटरनेशनल एयरपोर्ट के बाहर
वरिष्ठ पत्रकार मनोज जोशी के साथ
    छह अगस्त को चीन की राजधानी बीजिंग के लिए एयर चाइना की हमारी उड़ान संख्या सी ए 948 अल्ल सुबह 2.50 बजे की थी जो उसी दिन सुबह के 9 बजे (भारतीय समय के अनुसार और चीन के समय के अनुसार सुबह के ही 11.25 बजे बीजिंग के कैपिटल इंटरनेशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल 3 पर पहुंच गई. तकरीबन छह घंटे की सीधी उड़ान को किसी भी लिहाज से बहुत आरामदायक तो नहीं कहा जा सकता था. ईकोनामी क्लास में सीटों के बीच जगह बहुत संकरी होने के कारण ठीक से पांव पसारने में भी दिक्कत हो रही थी. संयोग से या कहें हमारे सौभाग्य से बगल की सीटें खाली होने का लाभ हमें तीन सीटों पर पैर फैलाकर लेट जाने के रूप में मिला. 

    हवाई अड्डे पर अपने सामान पाने के लिए हमें एक मेट्रोरेलनुमा शटल ट्रेन ‘कैपिटल एक्सप्रेस’ से निर्धारित जगह, टर्मिनल 2 पर पहुंचना पड़ा. आप्रवासन की औपचारिकताओं आदि से फारिग होने में दिन के एक-डेढ़ बज गए. हवाई अड्डे से बाहर निकलने पर हमारे स्वागत के लिए चीन के आए श्री रोंग मिले जो न सिर्फ हमारे लिए दुभाषिए के बतौर बल्कि मित्रवत गाइड के रूप में भी पूरी यात्रा में हमारे साथ रहे. समय के सदुपयोग को ध्यान में रखते हुए हमारी बीजिंग यात्रा का कार्यक्रम कुछ इस तरह से बना था कि हवाई अड्डे से सीधे हम लोग एक सुविधाजनक, वातानुकूलित मिनी बस में हुएरो जिले के मुतियान्यु सेक्टर में चीन की महान दीवार (ग्रेट वॉल ऑफ चाइना) देखने चले गए.

चीन की महान दीवार के दीदार


     चीन की ऐतिहासिक और दुनिया के सात आश्चर्यों में से एक, सबसे लंबी (21 हजार 196 किमी), मिट्टी और पत्थर से बनी किलेनुमा दीवार का निर्माण चीन के विभिन्न शासकों के द्वारा सातवीं शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर सोलहवीं शताब्दी तक उत्तरी सीमा पर यूरेशिया से आनेवाले घूमंतू, खानाबदोश लुटेरे, हमलावरों से सुरक्षा के साथ ही सीमा निर्धारण, सिल्क रोड से परिवहन और सामान को एक जगह से दूसरी जगह पर पहुंचाने से लेकर कराधान की गरज से करवाया गया. इसे दुनिया में इंसानों के द्वारा बनाई गई सबसे बड़ी संरचना भी कहा जाता है. चीनी भाषा में इस दीवार को ‘वान ली छांग छंग’ कहा जाता है जिसका मतलब होता है ‘चीन की विशाल दीवार’. यूनेस्को ने इसे 1987 में विश्व धरोहर सूची में शामिल किया था. तकरीबन एक करोड़ पयर्टक हर साल इस दीवार को देखने के लिए दुनिया भर से आते हैं.

    इस दीवार का निर्माण किसी एक सम्राट या राजा के द्वारा नहीं बल्कि कई सम्राटों और राजाओं द्वारा कराया गया था. इसकी परिकल्पना चीन के पूर्व सम्राट किन शी हुआंग ने पांचवीं शताब्दी में की थी लेकिन इस पर काम बाद में शुरू हुआ. दीवार का महत्वपूर्ण और बहुचर्चित हिस्सा सोलहवीं शताब्दी में मिंग साम्राज्य के जमाने में पूरा हुआ था. चीन की इस किलेनुमा विशाल दीवार के विभिन्न सेक्टरों पर कुछ खास जगहों पर वॉच टॉवर्स बनाए गए हैं. इस दीवार को 1970 में आम दर्शकों-पयर्टकों के लिए खोला गया था. हमें बताया गया कि यह पूरी एक दीवार नहीं है बल्कि छोटे-छोटे हिस्‍सों से मिलकर बनी है. इस दीवार की चौड़ाई इतनी है कि पांच घुड़सवार या 10 पैदल सैनिक एक साथ इस पर गश्त कर सकते हैं. दीवार की ऊंचाई एक समान नहीं है, किसी जगह यह 9 फुट ऊंची है तो कहीं पर 35 फुट ऊंची भी है. इस दीवार को उत्तर की दिशा में चीन की रक्षा के लिए बनाया गया था लेकिन यह दीवार अजेय न रह सकी क्योंकि चंगेज खान ने 1211 में इसे पार करके ही चीन पर हमला किया था.

    बीजिंग के उत्तर पूर्व में बीजिंग अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से तकरीबन 60 किमी दूर मुतियान्यु स्थित चीन की दीवार के इस खंड तक पहुंचने में हमारी बस को डेढ़ घंटे का समय लगा. हम लोगों ने वहां हरी-भरी पहाड़ियों पर बनी चीन की दीवार पर तकरीबन डेढ़ घंटे का समय वहां गुजारा. ऊपर तक गए. वहां बहुत सारे पर्यटक भी थे. कुछ तो हमारी उड़ान में साथ आए लोग भी लगते थे. हुएरो जिले में स्थित मुतियान्यु खंड की चीन की दीवार चीन और खासतौर से बीजिंग के सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटक केंद्रों में से एक है. वहां कुछ दुकानें और रेस्तरां भी थे लेकिन सब कुछ बहुत महंगा था, अमीर पर्यटकों के हिसाब से ! पर्यटकों के लिए चीन की दीवार सुबह के 7.30 बजे खुलती और शाम को ठीक 5.30 बजे बंद हो जाती है. हम लोग वहां पांच बजे तक रहे और वहां से सीधे बीजिंग वांगफुजिंग स्ट्रीट, सिटी सेंटर के करीब पांच सितारा होटल ‘नोवोटेल बीजिंग पीस’ पहुंचे जहां हमारे ठहरने का इंतजाम किया गया गया था. होटल ठीक ठाक था. 

इसी होटल नोवोटेल बीजिंग पीस में
हमारे ठहरने का इंतजाम था
    सबसे अच्छी बात यह थी कि इस होटल के पास ही पैदल दूरी पर शापिंग माल्स, स्ट्रीट फूड्स और शापिंग स्ट्रीट थी, जिसे शाम के बाद वाहनों की आवाजाही के लिए बंद कर दिया जाता था. थोड़ी दूर और आगे चलने पर, 15-20 मिनट की पैदल दूरी पर ‘निषिद्ध शहर’ (फारबिडेन सिटी), मिंग साम्राज्य का विशाल शाही महल और विश्व प्रसिद्ध ‘तियानमेन चौराहा’ भी है जहां कभी, एक अक्टूबर 1949 को चेयरमैन माओ ने कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जनवादी गणराज्य चीन की घोषणा के साथ ही सत्ता संभालने की घोषणा की थी. वहीं पर माओ का भव्य मुसोलियन (समाधिस्थल) भी बना है जो पर्यटकों के अतिरिक्त आकर्षण का केंद्र रहता है. इस तियानमेन चौक की (कु) ख्याति एक कारण से और भी है. जून 1989 के पहले सप्ताह में चीन में लोकतंत्र समर्थक लाखों छात्र-युवाओं ने यहां भारी प्रदर्शन किया था. चीन की तत्कालीन सरकार ने लोकतंत्र समर्थक छात्र-युवाओं पर सेना की गोलियां बरसाकर, उन्हें टैंकों से रौंदवाकर उस आंदोलन का दमन किया था. बताया जाता है कि उस समय तकरीबन तीन हजार लोकतंत्र समर्थक छात्र युवा मारे गए थे हालांकि पश्चिमी मीडिया मृतकों की संख्या दस हजार के करीब बताता है जबकि चीन सरकार के अनुसार मारे गए छात्र-युवाओं की संख्या तीन सौ से अधिक नहीं थी, अलबत्ता हजारों लोग घायल हुए थे. जो भी हो, पूरी दुनिया में इस मामले पर चीन की थू थू हुई थी. इसे पश्चिमी देशों की तरफ से कई तरह के प्रतिबंध भी झेलने पड़े थे. 
बीजिंग शहर के बीच ऐतिहासिक तियानमेन चौक


चीन का इतिहास- भूगोल


    पूर्वी एशिया में स्थित चीनी जनवादी गणराज्य में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की एक दलीय शासन व्यवस्था है. तकरीबन 139 करोड़ की आबादी (2017 में) के साथ चीन को विश्व का सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश भी कहा जाता है. तकरीबन 96 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ यह रूस, कनाडा और अमेरिका के बाद विश्व का चौथा सबसे बड़ा क्षेत्रफल वाला देश है. इसकी तकरीबन 22117 किमी लंबी सीमाएं 14 देशों-पूर्वी एशिया में विएतनाम, लाओस, और म्यांमार, दक्षिण पूर्व एशिया में भारत, भूटान, नेपाल, पाकिस्तान और अफगानिस्तान, दक्षिण एशिया में ताजिकिस्तान और किर्गिस्तान, मध्य एशिया में कज़ाकिस्तान, रूस, मंगोलिया, उत्तर कोरिया से लगती हैं. इसकी समुद्री सीमाएं दक्षिण कोरिया, जापान, विएतनाम तथा फिलीपींस के साथ लगती हैं. चीन के पश्चिम में हिमालय पर्वत श्रृंखला है जो चीन की भारत, भूटान और नेपाल के साथ प्राकृतिक सीमा बनाती है.

    चीन विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यताओं में से एक है जो अभी भी अस्तित्व में हैं. खुदाई में प्राप्त जीवाश्मों से पता चलता है कि आज से कोई 16 लाख साल पूर्व ही चीन की भूमि पर मानव ने अपने पदचिन्ह छोड़ दिए थे. चीन का लिखित इतिहास भी पांच हजार साल पुराना बताते हैं. ईसा से 221 वर्ष पूर्व छिन राजवंश की स्थापना हुई, जिसने चीन का एकीकरण किया था. यहां विभिन्न प्रकार के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक ग्रन्थ और पुरातन संस्कृति के अवशेष पाए गए हैं. दुनिया के अन्य कई प्राचीन देशों की तरह चीन भी अपने विकास के दौरान आदिम समाज, दास समाज और सामंती समाज के कालों से गुजरा था. इस दौरान चीन कई युद्धों-गृह युद्धों के साथ ही कई सम्राटों और उनके राजवंशों के शासन, आक्रमण, उत्थान और पतन का भी साक्षी बनता रहा. सन् 618 में थांग राजवंश स्थापित हुआ. उसके शासनकाल में चीन पूर्वी एशिया में सर्वाधिक समृद्धशाली देश था. चीन का अंतिम राजवंश छिंग था. 1911 में चीन में कुओमिन्तांग (केएमटी या नेशनलिस्ट पार्टी) के सुन यात सेन के नेतृत्व में हुई क्रांति ने छिंग राजवंश का तख्ता पलट दिया और एक जनवरी, 1912 को चीन गणराज्य के रूप में दुनिया के सामने आया. सुन यात सेन इसके पहले कार्यवाहक राष्ट्राध्यक्ष बने. लेकिन दो-तीन साल बाद उन्हें अपदस्थ कर छिंग साम्राज्य के पूर्व जनरल युवान शिकाई राष्ट्राध्यक्ष बन गए और 1915 में उन्होंने खुद को चीन का सम्राट घोषित कर लिया. लेकिन 1916 में युवान शिकाई की मृत्यु के बाद शुरू हुए अस्थिरता के दौर में चीन राजनीतिक तौर पर बिखर सा गया. 1920 के दशक के अंत में च्यांग काई शेक के नेतृत्व में कुओमिन्तांग एक बार फिर सत्तारूढ़ हुए. उन्होंने चीन गणराज्य को नये सिरे से एकजुट किया और नान्जिंग में अपनी राजधानी बनाई. 

कम्युनिस्ट क्रांति


    लेकिन कुछ ही वर्षों में चीन के गरीब किसान, मजदूरों के बीच सत्तारुढ़ कुओमिन्तांग पार्टी के ‘कुशासन’ के विरोध में नाराजगी बढ़ने लगी. 1929 में उसके विरूद्ध चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और उसकी ‘जन मुक्ति सेना’ (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) ने सशस्त्र संघर्ष छेड़ दिया था. यह संघर्ष बाद के वर्षों में गृह युद्ध के रूप में बदल गया था. उसी कालखंड (1934-35) में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष माओत्से तुंग के नेतृत्व में चीन में ऐतिहासिक लांग मार्च हुआ था. उसी बीच, 1936 में जापान ने चीन पर आक्रमण कर दिया था. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया जब 1937 से 1945 के बीच दूसरे चीन-जापान युद्ध के दौरान च्यांग काई शेक और माओ ने एक दूसरे से हाथ मिला लिया था. लेकिन जापान से युद्ध की समाप्ति के बाद चीन में एक बार फिर से गृह युद्ध शुरू हो गया था जिसकी परिणति कुओमिन्तांग की पराजय और चीन में चेयरमैन माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्ट शासन के रूप में हुई थी. एक अक्टूबर 1949 को माओ ने मशहूर तियानमेन चौक पर बड़े सार्वजनिक समारोह में चीनी जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की थी. धर्म को अफीम की गोली घोषित करनेवाले माओ के नेतृत्व में बाद के वर्षों में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान भी वहां बड़े पैमाने पर खून खराबा और नर संहार हुए थे. 

चेयरमैन माओत्सेतुंग
सांस्कृतिक क्रांति के 'अग्रदूत'
    बहरहाल, 1976 में माओत्से तुंग के निधन के बाद सत्तारूढ़ हुए देंग शियाओ पिंग के नेतृत्व में न सिर्फ चीन की कम्युनिस्ट पार्टी बल्कि चीन की राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में भी परिस्थितिजन्य सुधार शुरू हुए और चीन में साम्यवादी अर्थव्यवस्था की जगह मिश्रित अर्थव्यवस्था आकार लेने लगी. अपने आर्थिक सुधारों के कारण आज चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और परमाणु शक्ति संपन्न, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य देश भी है. आज का चीन विश्व का सबसे बड़ा निर्यातक और दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश भी है. हालांकि चीन अभी भी धर्म के मामले में आधिकारिक तौर पर नास्तिक देश है. सरकार में शामिल लोग और कम्युनिस्ट पार्टी के साधारण सदस्य भी किसी धर्म या धार्मिक संस्था से नहीं जुड़ सकते. लेकिन हाल के कुछ दशकों में चीन में भी धर्म के प्रति आम लोगों की आस्था बढ़ी है. सरकारी स्तर पर भी इस मामले में कुछ उदारता बढ़ी है. चीन का संविधान भी लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है. आम आदमी निजी तौर पर अपनी पसंद के किसी धर्म के प्रति आस्थावान हो सकता है. चीन की सरकार इस समय पांच धर्मों-बौद्ध, ताओ, इस्लाम, प्रोटेस्टेंट और कुछ हद तक कैथोलिक ईसाई धर्म को पहचान देती है. चीन की आधिकारिक भाषा चीनी, मंडारिन है.

राजधानी बीजिंग


चीन की राजधानी बीजिंग आज एक वैश्विक शहर और संस्कृति, कूटनीति-राजनय, राजनीति, व्यापार और अर्थशास्त्र, शिक्षा, भाषा और विज्ञान-प्रौद्योगिकी के लिए दुनिया के अग्रणी केंद्रों में से एक कहा जाता है. सही मायने में तकरीबन दो करोड़ की आबादी के साथ मेगासिटी कहा जानेवाला बीजिंग, शंघाई के बाद शहरी आबादी के हिसाब से चीन का और संभवतः पूरी दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा शहर है. आज यहां चीन की सबसे बड़ी राज्य के स्वामित्ववाली कंपनियों के मुख्यालय हैं और दुनिया में फॉर्च्यून ग्लोबल 500 कंपनियों की सबसे बड़ी संख्या के साथ-साथ दुनिया के चार सबसे बड़े वित्तीय संस्थान भी यहीं हैं. बीजिंग को ‘दुनिया की अरबपति राजधानी’ भी कहा जाता है, जहां सबसे अधिक अरबपति रहते हैं.

    आधुनिक और पारंपरिक वास्तुकला दोनों को मिलाकर, बीजिंग दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है, जिसमें तीन सहस्त्राब्दियों का एक समृद्ध इतिहास संरक्षित है. चीन की चार महान प्राचीन राजधानियों (शी आन, लुओयांग और नानजिंग और बीजिंग) में से अंतिम के रूप में बीजिंग पिछली आठ शताब्दियों से देश का राजनीतिक केंद्र रहा है. पुरानी भीतरी और बाहरी शहर की दीवारों के अलावा, तीन तरफ अंतर्देशीय शहर के आसपास के पहाड़ों के साथ , बीजिंग को रणनीतिक रूप से राजधानी शहर, तत्कालीन सम्राट के निवास के रूप में बनाया गया था. यह शहर अपने भव्य महलों, मंदिरों, पार्कों, उद्यानों, मकबरों, दीवारों और दरवाजों के लिए भी प्रसिद्ध है. यहां यूनेस्को द्वारा संरक्षित सात विश्व धरोहर स्थल हैं- निषिद्ध शहर, स्वर्ग का मंदिर, समर पैलेस, मिंग टॉम्ब, झोउकौडियन और चीन की महान दीवार के कुछ हिस्से और ग्रैंड कैनाल- जहां बड़ी मात्रा में देश विदेश के पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है. बीजिंग में कुल 91 विश्वविद्यालय हैं जिनमें से कई लगातार एशिया प्रशांत और दुनिया में सर्वश्रेष्ठ कहे जाते हैं. इस शहर ने हालिया अतीत में ओलंपिक खेलों के साथ ही कई अन्य अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं की मेजबानी की है.

भारत-चीन संबंध !


    चीन के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक रूप से भी काफी मधुर रहे हैं. अतीत में भी दोनों के बीच आवाजाही, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रदान होता रहा है. सिल्क रूट के जरिए दोनों देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियां होती रही हैं. चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार भारत से ही हुआ था. 1949 में नये चीन जनवादी गणराज्य की स्थापना के तुरंत बाद भारत ने चीन के साथ राजनयिक सम्बन्ध स्थापित किए. इस तरह भारत, चीन जनवादी गणराज्य को मान्यता देने वाला पहला गैर कम्युनिस्ट देश कहा जा सकता है. वर्ष 1954 के जून माह में चीन, भारत व म्यांमार द्वारा शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के पांच सिद्धान्त यानी पंचशील प्रवर्तित किये गये. पंचशील चीन व भारत द्वारा दुनिया की शांति व सुरक्षा में किया गया एक महत्वपूर्ण योगदान था, जो आज तक दोनों देशों की जनता की जबान पर है. देशों के संबंधों को लेकर स्थापित इन सिद्धांतों की मुख्य विषयवस्तु है- एक-दूसरे की प्रभुसत्ता व प्रादेशिक अखंडता का सम्मान किया जाये, एक-दूसरे पर आक्रमण न किया जाए, एक-दूसरे के अंदरूनी मामलों में दखल न दी जाए और समानता व आपसी लाभ के आधार पर शांतिपूर्ण सहअस्तित्व बरकारार रखा जाए. उस समय दोनों देशों के बीच ‘हिंदी-चीनी, भाई- भाई’ का नारा बहुत प्रचलित हुआ था.

चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाओ एन लाई के साथ भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति 
 राजेंद्र प्रसाद, उप राष्ट्रपति एस राधाकृष्णन और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू
    लेकिन 1950 के दशक में तिब्बत पर चीन के कब्जे (चीन तिब्बत को ऐतिहासिक रूप से अपना, अपने साम्राज्य का हिस्सा होने का दावा करता है) और तिब्बत के तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष (टेम्पोरल हेड) बौद्ध गुरु दलाई लामा एवं अन्य बौद्ध धर्म गुरुओं के साथ बड़े पैमाने पर लाखों तिब्बती शरणार्थियों के भारत में आ जाने के बाद भारत के साथ चीन के संबंधों में भारी कटुता पैदा हुई. चीन ने मैत्री संबंधों और पंचशील को ताक पर रख कर अक्टूबर 1962 के तीसरे सप्ताह में सीमा पर तैनात भारतीय सैन्य चौकियों पर औचक आक्रमण कर दिया और भारत की बहुत सारी जमीन पर कब्जा करते हुए 21 नवंबर 1962 को एकपक्षीय युद्धविराम की घोषणा कर दी थी. उस समय से दोनों देशों के सम्बन्ध आज-तक सामान्य नहीं हो पाए. तब से ही दोनों देशों के बीच एक तरह का अविश्वास सा बना रहता है. 

    
अहमदाबाद में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग
 के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, 'झूला राजनय
    तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2003 में अपनी चीन यात्रा के दौरान तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग जेमिन के साथ बातचीत में तिब्बत को एक तरह से चीन का अंग मान लिया था (हालांकि 1998 में भारत में परमाणु परीक्षण के बाद समाजवादी नेता और वाजपेयी सरकार में रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस ने चीन को भारत का ‘दुश्मन नंबर एक’ करार देते हुए भारत के परमाणु परीक्षण का एक कारण चीन भी बताया था.) लेकिन वाजपेयी के तिब्बत को चीन का हिस्सा मान लेने, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनय के औपचारिक प्रोटोकोल के धता बताकर भी चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग के स्वागत, उन्हें अहमदाबाद बुलाकर झूला झुलाने, तिब्बत के सवाल को ठंडे बस्ते में ढाल देने और दलाई लामा को मिलने के लिए समय तक नहीं देने आदि के बावजूद चीन और भारत के रिश्तों में एक तरह की परोक्ष-अपरोक्ष खटास सी बनी रहती है. गाहे-बगाहे सीमा विवाद सामने आते और दोनों देशों की सेनाओं के बीच झड़पें, कई बार सशस्त्र झड़पें भी होती रहती हैं. डोकलाम विवाद भी इसी कड़ी में था.

नोट ः अगली कड़ी में डोकलाम विवाद, इसकी पृष्ठभूमि में चीन के रक्षा, विदेश मंत्रालयों के आला अधिकारियों के साथ 'संवाद', बीजिंग शहर और फिर इसके गुआंगडांग प्रांत में  समुद्र किनारे स्थित बंदरगाह शहर झानझियांग के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण, मेल-मुलाकात और बातचीत से संबंधित रोचक और रोमांचक संस्मरण.