Sunday, 30 December 2012
हार गई जिंदगी से जुडे सवाल
दवा और दुआएं भी नाकाम रहीं. जिंदगी मौत से हार गई. 16 दिसंबर की रात राजधानी दिल्ली में छह वहशी दरिंदों के बर्बर, सामूहिक बलात्कार की शिकार पैरा मेडिकल छात्रा ने आखिरकार शनिवार की अलसुबह सिंगापुर के अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधाओं और दुनिया भर के विशेषज्ञ डाक्टरों से सज्ज माउंट एलिजाबेथ अस्पताल में दम तोड़ दिया. जिस तरह से दरिंदों ने चलती बस में उस बहादुर युवती और उसके मित्र के प्रतिरोध के बीच उसके साथ बर्बर अत्याचार किया था, उसके जीवित बच पाने की उम्मीद पहले से ही बहुत कम थी. यह तो उसकी जिजीविषा ही थी जिसने उसे इतने दिनों तक मौत के पंजों से महफूज रखा. लेकिन इस मौत ने कई सवालों के साथ जैसे पूरे देश को ही झकझोर दिया है. दिल्ली और देश के अन्य शहरों में भी छात्र-युवा, आम नागरिक सड़कों पर आकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करते हुए उसके लिए इन्साफ मांग रहे हैं. राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तक को कहना पड़ा है कि यह मौत बेकार नहीं जाने दी जाएगी. यह बात और है कि नई दिल्ली में इंडिया गेट लस लेकर राजपथ, राष्ट्रपति भवन,प्रधानमंत्री निवास तमाम, मंत्रियों, नेताओं के बंगलों को इस तरह सील कर दिया गया, आस पास के मेट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए जैसे पूरे इलाके में इमरजेंसी लगी हो.और शासक अपने ही लोगों से दर गए हों.
यह इस साल का अंतिम ‘जीरो आवर’ होगा. 2012 बीतने को है. 2013 आने की दस्तक दे रहा है. मन व्यथित और गमजदा है. और कुछ आक्रोशित भी. बीता साल जाते-जाते राजधानी दिल्ली को और समूचे देश को कलंकित करने वाला एक ऐसा जख्म दे गया जिसके घाव आसानी से नहीं भरेंगे. हालाँकि इस जख्म और इसके विरुद्ध दिल्ली और देश के विभिन्न हिस्सों में जिस तरह का स्वतःस्फूर्त छात्र-युवा, जनाक्रोश निकल कर सामने राजपथ से लेकर इंडिया गेट, जंतर मंतर और अन्य शहरों में सड़कों पर आया और कई दिनों तक लगातार बना रहा, उससे उम्मीद बंधती है. यह वाकई अच्छा संकेत है क्योंकि आजकल बड़े से बड़े हादसों को भी भूलने में हमें समय नहीं लगता. इस जनाक्रोश ने सामूहिक बलात्कार की इस घटना तथा इससे जुड़े मामलों में केंद्र और राज्य सरकार को भी तत्काल कार्रवाई के लिए बाध्य किया. बर्बर बलात्कारी धर लिए गए. पूरी सत्ता व्यवस्था घबराई सी है. खबरिया चैनलों से लेकर हमारे प्रिंट मीडिया में भी टीआरपी और प्रसार संख्या बढ़ाने की गरज से बलात्कार के विरुद्ध ‘मिशन’ चलाने की होड़ सी लग गई है, जैसे दिल्ली और देश में बलात्कार की पहली घटना हुई हो. जब देश और दिल्ली के लोग सामूहिक बलात्कार की इस घटना को लेकर बेहद उत्तेजित और आंदोलित थे, उस समय भी देश और दिल्ली के विभिन्न हिस्सों में बलात्कार और दरिंदगी की अनेक घटनाएं घटती रहीं. दिल्ली में ही एक प्ले स्कूल के प्रबंधक ने तीन साल की एक अबोध बच्ची के साथ बलात्कार किया. क्या हममें से कोई उसकी और उसके परिवारवालों की सुध लेने गया. हमारी संवेदनाएं तभी जगती हैं जब कोई घटना बड़ा रूप ले लेती है और मीडिया उसे सुर्खियां बनाने में जुट जाता है.
इस जनाक्रोश और उससे निबटने के पुलिसिया तरीके ने भी कई तरह के सवाल खड़े किए हैं. इसने अपराधियों-दंगाइयों और शांतिपूर्ण धरना-प्रदर्शनकारियों के बीच फर्क नहीं करने वाली पुलिस व्यवस्था को एक बार फिर उजागर किया है. वर्ना सामूहिक बलात्कार की शिकार युवती को न्याय दिलाने के लिए सड़कों पर उमड़े जनाक्रोश को देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और दिल्ली की मुख्यमंत्री द्वारा जायज करार दिए जाने के बावजूद कंपकंपाती ठंड में राजपथ और इंडिया गेट पर जमा छात्र-युवा, स्त्री-पुरुष प्रदर्शनकारियों पर ठंडे पानी की मोटी बौछारें, आंसू गैस के गोले और लाठियां नहीं बरसाई जातीं. यही नहीं, पुलिस अब प्रदर्शनकारियों के पीछे दौड़ते समय गिरकर मरे दिल्ली पुलिस के एक जवान की ‘हत्या’ के मामले में कुछ प्रदर्शनकारियों को लपेटने में लग गई है. प्रत्यक्षदर्शियों से लेकर इलाज करने वाले डाक्टरों का भी यही मानना रहा है कि जवान के शरीर पर बाहरी-अंदरूनी चोट के निशान नहीं थे, जिनके चलते उनकी मौत हुई हो, लेकिन प्रदर्शनकारियों को हिंसक और हमलावर के रूप में पेश करने पर आमादा दिल्ली पुलिस उसे हत्या के प्रयास का मामला बनाने में लगी है. कुछ ऐसे लोगों को भी हिरासत में लिया गया है जिनका दावा है कि वे उस पर इंडिया गेट पर नहीं बल्कि मेट्रो रेल में सवार थे. अदालत के आदेश पर अब मेट्रो के सीसीटीवी में कैद तस्वीरों की फुटेज खंगाली जा रही है.
इस प्रकरण ने दिल्ली में शासन और पुलिस व्यवस्था के खोखलेपन को भी उजागर किया है. दिल्ली की कालोनियां और सड़कें -बसें, गाड़ियां बच्चियों, युवतियों और कामकाजी महिलाओं के लिए असुरक्षित क्यों होती जा रही हैं? इस पर आपस में मिल बैठकर विचार करने और समाधान ढूंढने के बजाए मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और घटना के सात-आठ दिन बाद विदेश से लौटे उपराज्यपाल तेजिंदर खन्ना अपना पिंड बचाने और एक-दूसरे को नीचा दिखाने में ही लग गए. मुख्यमंत्री दिल्ली में कानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार पुलिस को कसूरवार ठहराती रहीं जबकि उपराज्यपाल ट्रैफिक पुलिस को, जिसने घटना के दिन चलती बस को अपने चेक पोस्टों पर रोकने की जहमत नहीं उठाई. पता चला है कि जिस चार्टर्ड बस में युवती के साथ पाशविक कुकर्म हुआ उसका इससे पहले सात -आठ बार चलन हो चुका था और उसके पास महीनों से दिल्ली की सड़कों पर दौड़ने का वैध परमिट भी नहीं था. फिर वह चलन में क्यों थी और दिल्ली के दो प्रतीष्ठित स्कूलों के बच्चों को लाने- पहुंचाने में कैसे लगी थी. इस घटना की गहराई में जाकर जांच करने पर न सिर्फ दिल्ली पुलिस के सभी स्वरूपों में लगा भ्रष्टाचार का घुन सामने आता है, पुलिस अपराधी- असामारही जिक तत्वों और हमारे नेताओं के बीच एक अजीब तरह की दुरभिसंधि का पता भी चलता है. बिना वैध परमिट के दिल्ली में चलनेवाली वह अकेली बस नहीं थी और भी तमाम बसें बिना विश परमिट के दिल्ली के विभिन्न मार्गों पर धड़ल्ले से चल रही हैं.चेकपोस्टों पर पुलिस सिर्फ़ ट्रैफिक जाम करती और स्कूटर, कइके सवारों को रोक कर उनसे पैसे वसूलती है, उम्मीद की जानी चाहिए कि इस ताजा जनाक्रोश के दबाव में नए साल में यह दुरभिसंधि टूटेगी. अपराधियों को उनके अपराध की प्रवृत्ति के हिसाब से उनके किए की सजा के प्रावधान और उस पर अमल की गारंटी मिलेगी. और न सिर्फ सामूहिक बलात्कार की शिकार इस युवती को बल्कि आए दिन शोषण, उत्पीड़न और बलात्कार का शिकार बनाई जा रही उन बच्चियों, युवतियों और महिलाओं को भी न्याय मिलेगा जो दिल्ली के संभ्रांत इलाकों और मीडिया की सुर्ख़ियों के दायरे से बहुत दूर गली-मोहल्लों, गांवों, आदिवासी इलाकों में रहती हैं.
बीता साल देश में सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल से सराबोर रहा. कांग्रेस राहुल गांधी के रूप में युवा नेतृत्व पेश करने की कवायद में जुटी रही लेकिन साल की शुरुआत में यूपी विधानसभा के चुनाव में बाजी समाजवादी पार्टी के युवा नेता अखिलेश यादव मार ले गए. सरकार के संकटमोचन कहे जाते रहे प्रणब बाबू माननीय मंत्री से महामहिम राष्ट्रपति महोदय बन गए. यूपी, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में तख्तापलट हो गया जबकि गुजरात में जीत की तिकड़ी बनाने में सफल रहे नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय राजनीति की ओर बढ़ती पदचाप साफ़ सुनाई देने लगी है. इसे लेकर भाजपा और उसे संचालित करने वाले आरएसएस में मंथन जारी है. ममता बनर्जी की तृणमूल कांगे्रस ने मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में सीधे विदेशी निवेश की अनुमति से कुपित होकर सरकार से समर्थन वापस ले लिया. आपसी अंतर्विरोधों में उलझे मुलायम सिंह और मायावती यूपीए सरकार की लानत-मलामत करते हुए भी अपने-अपने ढंग उसके संकटमोचन बने रहे. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले की तर्ज पर भाजपा ने कोयला खदानों के आवंटन में कथित घोटाले पर संसद को जाम किया. लेकिन दूसरे कार्यकाल की तैयारी में जुटे इसके अपने ही अध्यक्ष नितिन गडकरी भ्रष्टाचार के आरोपों में इस कदर घिरे कि पार्टी ने उन्हें हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव अभियान से दूर रखना ही श्रेयस्कर माना.हालाँकि संघ अब भी उन्हें दुसरे कार्यकाल के लिए भाजपा का अध्यक्ष बनाने पर अडिग लगता है.
मुंबई पर आतंकी हमलों के गुनहगार पाकिस्तानी नागरिक आमिर अजमल कसाब को फांसी पर लटका दिया गया. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और कालेधन की वापसी के लिए बाबा राम देव और टीम अन्ना के आंदोलन-अनशन कार्यक्रमों ने भी खूब सुर्खियां बंटोरी, लेकिन साल बीतते-बीतते राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के मद्देनजर टीम अन्ना बिखर गई. अरविंद केजरीवाल ने अपने समर्थकों को साथ लेकर ‘आम आदमी पार्टी’ बना ली. लेकिन लोकपाल संसद के मुहाने पर ही खड़ा रहा. अगले साल में उसके भी अस्तित्व में आने की उम्मीद की जानी चाहिए. अगले साल दस राज्य विधानसभाओं के चुनाव कांग्रेस और मुख्य विपक्षी दल भाजपा के लिए भी बेहद चुनौतीपूर्ण साबित होंगे. लोकसभा के मध्यावधि चुनाव की अटकलें भी हवा में यथावत बनी हुई हैं. संसद पर आतंकी हमले के गुनहगार अफजल गुरु की फांसी का सवाल भी है. और सबसे बड़ी बात सामूहिक बलात्कार की शिकार बहादुर बहन-बेटी और उसके बहाने शोषण,उत्पीड़न और बलात्कार की शिकार बनाई जा रही तमाम बहन-बेटियों को मिलने वाले इंसाफ और औरत के बारे में हमारी मानसिकता में बदलाव की भी है. इन सब बातों पर अगले साल ‘जीरो आवर’ में चर्चा होगी.
नया साल सुखद और मंगलमय होने की शुभकामनाएं.
Sunday, 23 December 2012
बलात्कार और मरती संवेदनाएं
समझ में नहीं आ रहा है कि इस बार जीरो आवर को किस बात पर केंद्रित करें. संसद के बीते शीतकालीन सत्र की 'उपलबिधयों' पर,गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा की लगातार पांचवीं जीत या कहें, मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की तिकड़ी यानी हैट्रिक और सांत्वना के बतौर हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को मिली जीत पर या फिर पिछले रविवार को देश की राजधानी दिल्ली और औरों से अधिक चुस्त-दुरुस्त कही जाने वाली दिल्ली पुलिस के माथे पर कलंक का अमिट दाग लगा गयी उस सामूहिक बलात्कार की घटना पर जिसने न सिर्फ दिल्ली बल्कि देश को भी अंदर से हिला दिया. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी कहना पड़ा, ''दिल्ली में महिलाएं असुरक्षित हैं, मैं शर्मिंदा हूं. मुझमें सामूहिक बलात्कार की पीड़ित युवती का सामना करने की हिम्मत नहीं."
बहुत कम लोग होंगे जिन्हें गुजरात में भाजपा की लगातार पांचवीं जीत और नरेंद्र मोदी की जीत की तिकड़ी के बारे में किसी तरह का संदेह रहा होगा. मोदी और उनके दंगाई स्वरूप से लाख असहमति के बावजूद गुजरात में कांग्रेस की लचर स्थिति के मद्देनज़र कम से कम हमें तो उनकी जीत के प्रति रंच मात्र का संदेह भी नहीं था. संसद के शीतकालीन सत्र का हश्र भी कमोबेस वैसा ही होने की आशंका थी जैसा पिछले मानसून सत्र के दौरान देखने को मिला था. फर्क इस बार इतना भर रहा कि पिछली बार संसद को जाम करने वाले इस बार उसे चलाने के लिए औरों से अधिक फिक्रमंद लगे जबकि कुछ और लोग अपनी मनमर्जी को मनवाने के लिए और मनमर्जी का नहीं होने पर संसद को जाम करते रहे. संसद कुछ चली भी लेकिन विधायी कार्य फिर भी अपेक्षाकृत कम ही संपन्न किए जा सके.सूचीबद्ध 25 विधेयकों में से केवल छह ही पारित कराए जा सके. अधिकतर दिन दोनों सदनों में प्रश्नकाल हंगामों की भेंट ही चढ़ते रहा. 400 में से केवल 20 सवालों के जवाब ही दिए जा सके.
लेकिन पिछले रविवार की रात दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह न केवल अभूतपूर्व था, उसने अंदर से झकझोर दिया. दक्षिण दिल्ली में चलती बस में हैवानियत की हदें पार करने वाले दरिंदों ने, जिनमें एक खुद को नाबालिग कहता है और दो सगे भाई भी थे, सिनेमा देख कर लौट रही पैरामेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार किया, विरोध करने पर उसके मित्र को बुरी तरह मारा पीटा और पीड़ित युवती के गुप्तांगों में लोहे की राड (सरिया) घुसेड़ दी. बाद में उन्हें बुरी तरह जख्मी हालत में निर्वस्त्र कर चलती बस से सड़क पर फेंक दिया. कड़ाके की ठंड भरी रात में वे दोनों पुलिस के आने और अस्पताल तक पहुंचाए जाने तक कांपते- कराहते रहे. राहगीर सड़क से गजुरते रहे लेकिन किसी ने उनकी सुध लेने, उनके निर्वस्त्र शरीर पर कपड़े डालने तक की जरूरत नहीं समझी.
बलात्कार की घटनाएं दिल्ली और देश के विभिन्न हिस्सों में भी होती रहती हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि इस साल अक्टूबर महीने के अंत तक केवल दिल्ली में ही बलात्कार की 580 घटनाएं दर्ज की जा चुकी थीं. जाहिर सी बात है कि इस आंकड़े में बलात्कार की वे घटनाएं शामिल नहीं हैं जिन्हें लोकलाज के कारण बलात्कार पीड़ित और उनके परिजनों ने पुलिस में रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं जुटाई या फिर अपराध की घटनाओं को कम दिखाने की अभ्यस्त पुलिस ने उन्हें दर्ज करने के प्रति निरुत्साहित किया.
लेकिन रविवार को हुई सामूहिक बलात्कार की घटना कुछ अलग तरह की है जो हमें यह सोचने और खुद से यह सवाल करने को बाध्य करती है कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं और हमारा समाज किस दिशा में बढ़ रहा है. महिला सशक्तीकरण के तमाम नारों और दावों के बावजूद अजन्मी भ्रूण कन्या से लेकर, बच्चियों, छात्राओं, बहुओं और महिलाओं के बारे में हमारा सोच क्या है. अभी भी हम महिलाओं को शोषण, उपभोग और उत्पीड़न की वस्तु से अलग मानने को तैयार नहीं हो पा रहे हैं. दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की इस घटना के पहले और बाद में भी इस तरह की अनेक घटनाएं सामने आई हैं जब एक पिता ने तथा निकट के संबंधियों ने ही अपनी बेटी, भतीजी, भांजियों को हवस का शिकार बनाया. दिल्ली में बच्चों के एक प्ले स्कूल के प्रबंधक ने ही तीन साल की बच्ची के साथ पाशविक कुकर्म किया जिससे उस अबोध बच्ची की जान जोखिम में पड़ी है.
हालांकि दिल्ली में हैवानियत को भी शर्मिंदा करने वाली सामूहिक बलात्कार की उपरोक्त घटना के विरुद्ध संसद से लेकर सड़क, जनपथ से लेकर राजपथ तक देश भर में जिस तरह का तात्कालिक ही सही, जनाक्रोश उबल कर आया, वह कहीं न कहीं ढांढस बढ़ाता है. बलात्कारियों को फांसी देने, उनके गुप्तांग काट लेने से लेकर कानून में संशोधन कर बलात्कार की सजा फांसी-उम्र कैद तय करने की मांग भी उठी. सरकार ने इस मामले की सुनवाई त्वरित अदालत से करवाकर शीघ्रतातिशीघ्र इसका निपटारा करने और गुनहगारों को कठोर सजा दिलाने की बातें कही हैं. लेकिन क्या इससे दिल्ली में और देश के अन्य हिस्सों में भी बलात्कार की घटनाएं रुक जाएंगी या उनमें कमी आ सकेगी? बताने की जरूरत नहीं कि सामूहिक बलात्कार की इस घटना के विरुद्ध देश और समाज में आए उबाल के बीच भी दिल्ली में और देश के दूसरे हिस्सों में भी बलात्कार की अनके घटनाएं सामने आ रही हैं. अपराधियों-बलात्कारियों में इस बात का भय कतई नहीं दिखता कि उन्हें उनके किए की सजा मिल सकेगी. अभी तक केवल एक मामले में, पश्चिम बंगाल के कोलकाता में धनंजय चटर्जी नामक हैवान को फांसी दी गयी है,जिसने एक 14 वर्षीय स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार के बाद उसकी निर्मम हत्या कर दी थी. लेकिन क्या उसके बाद बलात्कार की घटनाएं रुकीं?
यकीनन बलात्कार हत्या के किसी मामले से भी जघन्य होता है. बलात्कार का जख्म पीड़ित को आजीवन जीते जी मारते रहता है. बलात्कार और इस तरह के जघन्य अपराधों से निबटने के लिए कानूनों की कमी नहीं हैं. कानून अगर कमजोर हैं तो उन्हें और मजबूत किया जा सकता है, दंड के प्रावधान और कड़े किए जा सकते हैं लेकिन इसका किसी के पास क्या जवाब है कि अब तक बलात्कार के सिर्फ 26 प्रतिशत मामलों में ही कनविक्शन हो सका है. बाकी मामले या तो अब भी अदालतों में लंबित हैं या फिर जटिल अदालती प्रक्रिया ( प्राथमिकी दर्ज करने के समय पोलिस थाने में और फिर अदालतों में सुनवाई के समय पीड़ित महिला से इस तरह के सवाल किये जाते हैं कि वह टूट जाती है, उसे एक बार फिर अपने साथ हुए बलात्कार के डरावने एहसास से गुजरना पड़ता है. जिरह करने वाले वकील इस तरह के सवाल करते हैं, गुनाहगार वह बलात्कारी नहीं बल्कि बलात्कार की शिकार महिला ही हो.) के जाल में पीड़ित महिलाओं के टूट जाने, गवाहों के मुकर जाने के कारण बलात्कारी जेल से बाहर आ गए. दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की इस घटना के बहुप्रचारित हो जाने, इसके विरुद्ध उबल रहे जनमानस के मददेनजर सरकार इसकी सुनवाई के लिए त्वरित अदालत गठित कर करने की बात कर रही है लेकिन अदालतों में वर्षों से लंबित बलात्कार के अन्य मामलों का क्या होगा. उनकी सुनवाई कब पूरी होगी.
दरअसल, एक तरफ तो अपराधियों में कानून और पुलिस का भय घट रहा है, अदालतों से उन्हें उनके किये की सजा नहीं के बराबर मिल पा रही है, वे गिरफ्तार तो होते हैं मगर बहुत जल्दी छूट जाते हैं. अगर हमारी जेलों का सर्वेक्षण कराया जाये तो वहां बहुत कम बलात्कारी नज़र आयेंगे. दूसरी तरफ समाज में इस तरह की घटनाओं के प्रति संवेदनहीनता बढ़ रही है. औरत के विरुद्ध आए दिन हो रहे अत्याचार, शारीरिक शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध स्थायी आक्रोश का हमारे समाज में अब भी अभाव ही दिखता है. अभी कोई और बड़ी घटना मीडिया की सुर्खियां बन जाएगी और हम इस घटना के बारे में भूलने लग जाएंगे. कुछ महीनों पहले असम की राजधानी दिसपुर से लगे गुवाहाटी में एक युवती को सरेआम निर्वस्त्र कर उसकी पिटायी और उसका वीडियो बनाए जाने के विरुद्ध भी देशव्यापी जन उबाल देखने को मिला था. उस मामले में क्या हुआ. क्या पीड़ित महिला को न्याय मिल सका. सच तो यह है कि हमारी संवेदनाएं मर रही हैं. हमारे इर्द गिर्द कन्या भ्रूण हत्या, बच्चियों -युवतियों के साथ बलात्कार, दहेज के लिए औरतों को जिंदा जलाए जाने की घटनाएं हमें अन्दर से आंदोलित नहीं करतीं. हमारे गुस्से और आक्रोश का उबाल किसी बड़ी घटना और सुर्खी का इंतजार करता है. हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं और अपराधी-बलात्कारी निर्भय और निडर. समाज के लिए सबसे खतरनाक और चिंताजनक बात यही है.
Tuesday, 11 December 2012
संकट मोचन नाम तिहारो
एक बार फिर मुलायम सिंह यादव और मायावती कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली यूपीए सरकार के संकटमोचन बने. संसद के दोनों सदनों में मतदानवाले प्रावधनों के तहत मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी के सीधे निवेश की मंजूरी को खारिज करने के इरादे से पेश विपक्ष के प्रस्तावों पर चर्चा के समय तो सपा और बसपा के नेताओं ने सरकार और एफडीआई के खिलाफ जमकर भाषणबाजी की लेकिन मतदान के समय सपा के सांसदों ने सदन से बहिर्गमन कर सरकार की मुष्किल आसान कर दी. बसपा ने भी लोकसभा में तो बहिर्गमन किया लेकिन राज्यसभा में एक कदम आगे बढ़कर मायावती ने अपने सांसदों से सरकार के पक्ष में खुलकर मतदान करवाया. उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में भी परस्पर एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाने वाले इन दोनों दलों ने ऐसा क्यों किया, इसके तमाम कारण ढूंढ़े जा सकते हैं. अतीत में भी जब कभी यूपीए सरकार पर राजनीतिक संकट के बादल मंडराए, तारणहार मुलायम और मायावती ही बनते रहे हैं.
लेकिन इस बार माया और मुलायम के सहारे एफडीआई पर संसद की भी हरी झंडी प्राप्त करने में सफलता से कांग्रेस और यूपीए सरकार को एक अलग तरह की राजनीतिक ताकत मिली है. पिछले साल संसद के षीतकालीन सत्र में उसे अपने ही सहयोगियों के विरोध के कारण खुदराबाजार में एफडीआई की मंजूरी के लिए बढ़ाए कदम वापस लेने पड़े थे. उस पर नीतिगत फैसलों के मामले में ‘लकवामार’ होने के आरोप भी लगने लगे थे. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और साख एजेंसियां भी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमेाहन सिंह की क्षमताओं पर सवाल करने लगी थीं. भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप पहले से ही सरकार की थुक्काफजीहत करवा रहे थे. बची-खुची कसर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लेकर पूरी कर दी थी. सरकार अल्पमत में आ गई थी. इस लिहाज से देखें तो संसद के दोनों सदनों में सरकार को मिली जीत का उसके लिए बड़ा महत्व है. हालांकि दोनों सदनों में उसका अल्पमत भी उजागर हुए बिना नहीं रह सका. लेकिन सरकार के राजनीतिक प्रबंधकों और खासतौर से नए संसदीय कार्य मंत्री, कमलनाथ के संसदीय कौशल से साफ हो गया कि अल्पमत में होते हुए भी सरकार को तात्कालिक तौर पर किसी तरह का खतरा नहीं है. वह कोयला खदानों के आवंटन में कथित घोटाले से लोगों का ध्यान हटाने में भी कामयाब रही.
लेकिन इस पूरी संसदीय कवायद से मुख्य विपक्षी दल भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को क्या मिला? इस पर भाजपा और राजग के रणनीतिकारों को खुले दिमाग से ‘आत्म चिंतन’ और अपनी हाल की रणनीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. जब यही फलाफल होना था तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने पिछले मानसून सत्र का तीन चैथाई समय जाया क्यों करवाया? कथित कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के इस्तीफे से कम पर राजी नहीं होने की जिस जिद पर उसने मानसून सत्र को जाम किया था, वह मांग क्या पूरी हो गई? अगर नहीं तो फिर आम आदमी की गाढ़ी कमाई से जमा राजस्व की बरबादी का जिम्मेदार कौन कहा जाएगा. इस बार भी संख्याबल नहीं रहने के बावजूद एफडीआई के मुद्दे पर भाजपा बेवजह लोकसभा और राज्यसभा में मतदान के प्रावधानवाले नियम 184 और नियम 168 के तहत चर्चा कराए जाने की जिद पर अड़ गई. इसके चलते संसद के कई कार्य दिवस हंगामों की भेंट चढ़ गए.
भाजपा के रणनीतिकारों की सुनें तो उनका इरादा सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे लेकिन खुदरा बाजार में एफडीआई की मंजूरी का भाषणबाजी में और यहां तक कि इसके विरोध में हुए भारत बंद में शामिल होकर पुरजोर विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को एक्सपोज करने का था. लेकिन भाजपाई रणनीतिकार भूल गए कि सीबाआई का खौफ हो या कुछ और, कोई न कोई कारण तो ऐसा जरूर है जिसके चलते बार बार सपा और बसपा एन केन प्रकारेण कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के संकटमोचन बनते रहे हैं. मुलायम और मायावती, दोनों भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे हैं. उनकी नकेल सीबीआई के हाथ में है. लेकिन दोनों प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्ष भी पाले हैं. हालाँकि यूपी के विधानसभ चुनाव के बाद मायावती का गणित कुछ कमजोर और मुलायम का मजबूत हुआ है. ममता बनर्जी की तरह मुलायम भी चाहते हैं कि लोकसभा के चुनाव जल्दी हो जाएं लेकिन उन्हें यह भरोसा नहीं है कि उनके सरकार के विरूद्ध खड़ा हो जाने के बाद सरकार गिर जाएगी. उनके ऐसा करने पर मायावती खुलकर सरकार के साथ खड़ी हो सकती हैं. यह भी एक कारण है कि सरकार के प्रति दोनों एक-दूसरे का रुख भांपने में लगे रहते हैं. मुलायम की दुविधा यह भी है कि एक तो उनके तथाकथित तीसरे मोर्चे का ढांचा खड़ा नहीं हो पा रहा, दूसरे इसके संभावित घटक दलों के बीच उनकी विश्वसनीयता न्यूनतम होते गई है. अगर जोड़ तोड़ कर तीसरा मोर्चा खड़ा भी हो जाए और अगली लोकसभा त्रिशंकु बनकर उभरे तो भी उन्हें सरकार बनाने के लिए कांग्रेस अथवा भाजपा की मदद लेनी ही पड़ेगी. जब तक ‘सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने और सरकार बनाने में उनका साथ न लेने और न देने का नीतिगत फैसला वह नहीं बदलते, उन्हें समर्थन के लिए कांग्रेस की तरफ ही देखना होगा. हालांकि जिस तरह के जनाधार की राजनीति मुलायम और मायावती करते हैं, उसके लिए उनके भ्रटाचार में लिप्त रहने के बावजूद उनका समर्थन करते रहने की तरह ही नीतिगत मसलों पर उनके पलटी मारते रहने का भी खास प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता. बताने की जरूरत नहीं कि मुलायम पहली बार भाजपा के साथ चुनावी तालमेल से बनी जनता दल की सरकार में ही मुख्यमंत्री बने थे और बहन मायावती का तो भाजपा के साथ ‘राजनीतिक हनीमून और तलाक’ कई बार हो चुका है.
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर भाजपा खुदराबाजार में एफडीआई की अनुमति के विरुद्ध संसद में मतदान के प्रावधान वाले नियमों के बजाए बिना मतदान वाले नियमों के तहत चर्चा पर राजी हो जाती तो संसद का समय भी बचता और एफडीआई के विरुद्ध मुलायम-मायावती जैसे सरकार का बाहर से समथर््ान करने वाले ही नहीं बल्कि इसके कई घटक दलों की भड़ांस भी बाहर आती और सरकार के कमजोर होने का ‘भ्रम’ भी बने रहता. लेकिन उसकी रणनीति तो एफडीआई और सरकार के खिलाफ माहौल बनाने, सरकार में एफडीआई विरोधी घटकों और समर्थक दलों को उससे दूर और अपने करीब लाने के बजाए उन्हें ‘एक्सपोज’ करने की ही लगी. जाहिर सी बात है कि उसे इससे कुछ खास हासिल नहीं हो सका.
लेकिन सरकार की चुनौतियां भी पहले से ज्यादा बढ़ गई हैं. आर्थिक सुधारों से संबंधित ताबड़तोड़ फैसले करने में जुटी सरकार को अब आर्थिक मोर्चे पर देशवासियों-मतदाताओं का भरोसा भी जीतना होगा. कहने की बात नहीं कि महंगाई के मोर्चे पर सरकार लगातार विफल रही है. तिसपर सबसिडी में कटौती और रसोई गैस की राशनिंग कर सरकार ने आम आदमी की नाराजगी मोल ली है. दो सप्ताह के भीतर हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनावी नतीजे सामने आ जाएंगे. अगले साल दस राज्यों में विधानसभ के चुनाव होने हैं और फिर लोकसभा के चुनाव जब भी कराए जाएं, इस बात का हिसाब तो रखा ही जाएगा कि मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में एफडीआई की अनुमति से देश और देशवासियों को कितना नफा-नुकसान हुआ. कितने लोगों को रोजगार मिला, कृषि और बागवानी से संबंधित हमारे बुनियादी ढांचे में कितना सुधार हुआ और इससे किसानों तथा मध्यम एवं लघु व्यापारियों की आर्थिक सेहत किस कदर प्रभावित हुई. खासतौर से आम उपभेक्ता को इससे क्या क्या लाभ मिले? जिस तरह के दावे सरकार ने संसद में एफडीआई के पक्ष में किए क्या वे पूरे हो पाए. इन सवालों के जवाब सरकार को संसद में नहीं बल्कि आनेवाले चुनावों में विधायकों और सांसदों को चुनने वाले मतदाताओं को देने होंगे.
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