एक बार फिर मुलायम सिंह यादव और मायावती कांग्रेस और उसके नेतृत्ववाली यूपीए सरकार के संकटमोचन बने. संसद के दोनों सदनों में मतदानवाले प्रावधनों के तहत मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में विदेशी पूंजी के सीधे निवेश की मंजूरी को खारिज करने के इरादे से पेश विपक्ष के प्रस्तावों पर चर्चा के समय तो सपा और बसपा के नेताओं ने सरकार और एफडीआई के खिलाफ जमकर भाषणबाजी की लेकिन मतदान के समय सपा के सांसदों ने सदन से बहिर्गमन कर सरकार की मुष्किल आसान कर दी. बसपा ने भी लोकसभा में तो बहिर्गमन किया लेकिन राज्यसभा में एक कदम आगे बढ़कर मायावती ने अपने सांसदों से सरकार के पक्ष में खुलकर मतदान करवाया. उत्तर प्रदेश और देश की राजनीति में भी परस्पर एक-दूसरे को फूटी आंख भी नहीं सुहाने वाले इन दोनों दलों ने ऐसा क्यों किया, इसके तमाम कारण ढूंढ़े जा सकते हैं. अतीत में भी जब कभी यूपीए सरकार पर राजनीतिक संकट के बादल मंडराए, तारणहार मुलायम और मायावती ही बनते रहे हैं.
लेकिन इस बार माया और मुलायम के सहारे एफडीआई पर संसद की भी हरी झंडी प्राप्त करने में सफलता से कांग्रेस और यूपीए सरकार को एक अलग तरह की राजनीतिक ताकत मिली है. पिछले साल संसद के षीतकालीन सत्र में उसे अपने ही सहयोगियों के विरोध के कारण खुदराबाजार में एफडीआई की मंजूरी के लिए बढ़ाए कदम वापस लेने पड़े थे. उस पर नीतिगत फैसलों के मामले में ‘लकवामार’ होने के आरोप भी लगने लगे थे. अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और साख एजेंसियां भी अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमेाहन सिंह की क्षमताओं पर सवाल करने लगी थीं. भ्रष्टाचार और घोटालों के आरोप पहले से ही सरकार की थुक्काफजीहत करवा रहे थे. बची-खुची कसर ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस लेकर पूरी कर दी थी. सरकार अल्पमत में आ गई थी. इस लिहाज से देखें तो संसद के दोनों सदनों में सरकार को मिली जीत का उसके लिए बड़ा महत्व है. हालांकि दोनों सदनों में उसका अल्पमत भी उजागर हुए बिना नहीं रह सका. लेकिन सरकार के राजनीतिक प्रबंधकों और खासतौर से नए संसदीय कार्य मंत्री, कमलनाथ के संसदीय कौशल से साफ हो गया कि अल्पमत में होते हुए भी सरकार को तात्कालिक तौर पर किसी तरह का खतरा नहीं है. वह कोयला खदानों के आवंटन में कथित घोटाले से लोगों का ध्यान हटाने में भी कामयाब रही.
लेकिन इस पूरी संसदीय कवायद से मुख्य विपक्षी दल भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को क्या मिला? इस पर भाजपा और राजग के रणनीतिकारों को खुले दिमाग से ‘आत्म चिंतन’ और अपनी हाल की रणनीतियों पर पुनर्विचार की आवश्यकता है. जब यही फलाफल होना था तो भाजपा और उसके सहयोगी दलों ने पिछले मानसून सत्र का तीन चैथाई समय जाया क्यों करवाया? कथित कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के इस्तीफे से कम पर राजी नहीं होने की जिस जिद पर उसने मानसून सत्र को जाम किया था, वह मांग क्या पूरी हो गई? अगर नहीं तो फिर आम आदमी की गाढ़ी कमाई से जमा राजस्व की बरबादी का जिम्मेदार कौन कहा जाएगा. इस बार भी संख्याबल नहीं रहने के बावजूद एफडीआई के मुद्दे पर भाजपा बेवजह लोकसभा और राज्यसभा में मतदान के प्रावधानवाले नियम 184 और नियम 168 के तहत चर्चा कराए जाने की जिद पर अड़ गई. इसके चलते संसद के कई कार्य दिवस हंगामों की भेंट चढ़ गए.
भाजपा के रणनीतिकारों की सुनें तो उनका इरादा सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे लेकिन खुदरा बाजार में एफडीआई की मंजूरी का भाषणबाजी में और यहां तक कि इसके विरोध में हुए भारत बंद में शामिल होकर पुरजोर विरोध करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को एक्सपोज करने का था. लेकिन भाजपाई रणनीतिकार भूल गए कि सीबाआई का खौफ हो या कुछ और, कोई न कोई कारण तो ऐसा जरूर है जिसके चलते बार बार सपा और बसपा एन केन प्रकारेण कांग्रेसनीत केंद्र सरकार के संकटमोचन बनते रहे हैं. मुलायम और मायावती, दोनों भ्रष्टाचार के मामलों में फंसे हैं. उनकी नकेल सीबीआई के हाथ में है. लेकिन दोनों प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्ष भी पाले हैं. हालाँकि यूपी के विधानसभ चुनाव के बाद मायावती का गणित कुछ कमजोर और मुलायम का मजबूत हुआ है. ममता बनर्जी की तरह मुलायम भी चाहते हैं कि लोकसभा के चुनाव जल्दी हो जाएं लेकिन उन्हें यह भरोसा नहीं है कि उनके सरकार के विरूद्ध खड़ा हो जाने के बाद सरकार गिर जाएगी. उनके ऐसा करने पर मायावती खुलकर सरकार के साथ खड़ी हो सकती हैं. यह भी एक कारण है कि सरकार के प्रति दोनों एक-दूसरे का रुख भांपने में लगे रहते हैं. मुलायम की दुविधा यह भी है कि एक तो उनके तथाकथित तीसरे मोर्चे का ढांचा खड़ा नहीं हो पा रहा, दूसरे इसके संभावित घटक दलों के बीच उनकी विश्वसनीयता न्यूनतम होते गई है. अगर जोड़ तोड़ कर तीसरा मोर्चा खड़ा भी हो जाए और अगली लोकसभा त्रिशंकु बनकर उभरे तो भी उन्हें सरकार बनाने के लिए कांग्रेस अथवा भाजपा की मदद लेनी ही पड़ेगी. जब तक ‘सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने और सरकार बनाने में उनका साथ न लेने और न देने का नीतिगत फैसला वह नहीं बदलते, उन्हें समर्थन के लिए कांग्रेस की तरफ ही देखना होगा. हालांकि जिस तरह के जनाधार की राजनीति मुलायम और मायावती करते हैं, उसके लिए उनके भ्रटाचार में लिप्त रहने के बावजूद उनका समर्थन करते रहने की तरह ही नीतिगत मसलों पर उनके पलटी मारते रहने का भी खास प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता. बताने की जरूरत नहीं कि मुलायम पहली बार भाजपा के साथ चुनावी तालमेल से बनी जनता दल की सरकार में ही मुख्यमंत्री बने थे और बहन मायावती का तो भाजपा के साथ ‘राजनीतिक हनीमून और तलाक’ कई बार हो चुका है.
राजनीतिक प्रेक्षकों का मानना है कि अगर भाजपा खुदराबाजार में एफडीआई की अनुमति के विरुद्ध संसद में मतदान के प्रावधान वाले नियमों के बजाए बिना मतदान वाले नियमों के तहत चर्चा पर राजी हो जाती तो संसद का समय भी बचता और एफडीआई के विरुद्ध मुलायम-मायावती जैसे सरकार का बाहर से समथर््ान करने वाले ही नहीं बल्कि इसके कई घटक दलों की भड़ांस भी बाहर आती और सरकार के कमजोर होने का ‘भ्रम’ भी बने रहता. लेकिन उसकी रणनीति तो एफडीआई और सरकार के खिलाफ माहौल बनाने, सरकार में एफडीआई विरोधी घटकों और समर्थक दलों को उससे दूर और अपने करीब लाने के बजाए उन्हें ‘एक्सपोज’ करने की ही लगी. जाहिर सी बात है कि उसे इससे कुछ खास हासिल नहीं हो सका.
लेकिन सरकार की चुनौतियां भी पहले से ज्यादा बढ़ गई हैं. आर्थिक सुधारों से संबंधित ताबड़तोड़ फैसले करने में जुटी सरकार को अब आर्थिक मोर्चे पर देशवासियों-मतदाताओं का भरोसा भी जीतना होगा. कहने की बात नहीं कि महंगाई के मोर्चे पर सरकार लगातार विफल रही है. तिसपर सबसिडी में कटौती और रसोई गैस की राशनिंग कर सरकार ने आम आदमी की नाराजगी मोल ली है. दो सप्ताह के भीतर हिमाचल प्रदेश और गुजरात विधानसभा के चुनावी नतीजे सामने आ जाएंगे. अगले साल दस राज्यों में विधानसभ के चुनाव होने हैं और फिर लोकसभा के चुनाव जब भी कराए जाएं, इस बात का हिसाब तो रखा ही जाएगा कि मल्टी ब्रांड खुदरा बाजार में एफडीआई की अनुमति से देश और देशवासियों को कितना नफा-नुकसान हुआ. कितने लोगों को रोजगार मिला, कृषि और बागवानी से संबंधित हमारे बुनियादी ढांचे में कितना सुधार हुआ और इससे किसानों तथा मध्यम एवं लघु व्यापारियों की आर्थिक सेहत किस कदर प्रभावित हुई. खासतौर से आम उपभेक्ता को इससे क्या क्या लाभ मिले? जिस तरह के दावे सरकार ने संसद में एफडीआई के पक्ष में किए क्या वे पूरे हो पाए. इन सवालों के जवाब सरकार को संसद में नहीं बल्कि आनेवाले चुनावों में विधायकों और सांसदों को चुनने वाले मतदाताओं को देने होंगे.
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