Sunday, 23 December 2012

बलात्कार और मरती संवेदनाएं


समझ में नहीं आ रहा है कि इस बार जीरो आवर को किस बात पर केंद्रित करें. संसद के बीते शीतकालीन सत्र की 'उपलबिधयों' पर,गुजरात  विधानसभा चुनाव में भाजपा की लगातार पांचवीं जीत या कहें, मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की तिकड़ी यानी हैट्रिक और सांत्वना के बतौर हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस को मिली जीत पर या फिर पिछले रविवार को देश की राजधानी दिल्ली और औरों से अधिक चुस्त-दुरुस्त कही जाने वाली दिल्ली पुलिस के माथे पर कलंक का अमिट दाग लगा गयी  उस सामूहिक बलात्कार की घटना पर जिसने न सिर्फ दिल्ली बल्कि देश को भी अंदर से हिला दिया. दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी कहना पड़ा, ''दिल्ली में महिलाएं असुरक्षित हैं, मैं शर्मिंदा हूं. मुझमें सामूहिक बलात्कार की पीड़ित युवती  का सामना करने की हिम्मत नहीं."
बहुत कम लोग होंगे जिन्हें गुजरात में भाजपा की लगातार पांचवीं जीत और नरेंद्र मोदी की जीत की तिकड़ी के बारे में किसी तरह का संदेह रहा होगा. मोदी और उनके दंगाई स्वरूप से लाख असहमति के बावजूद गुजरात में कांग्रेस की लचर स्थिति के मद्देनज़र कम से कम हमें तो उनकी जीत के प्रति रंच मात्र का संदेह भी नहीं था. संसद के शीतकालीन सत्र का हश्र भी कमोबेस वैसा ही होने की आशंका थी जैसा पिछले मानसून सत्र के दौरान देखने को मिला था. फर्क इस बार इतना भर रहा कि पिछली बार संसद को जाम करने वाले इस बार उसे चलाने के लिए औरों से अधिक फिक्रमंद लगे जबकि कुछ और लोग अपनी मनमर्जी को मनवाने  के लिए और मनमर्जी का नहीं होने पर संसद को जाम करते रहे. संसद कुछ चली भी लेकिन विधायी कार्य फिर भी अपेक्षाकृत कम ही संपन्न किए जा सके.सूचीबद्ध 25 विधेयकों में से केवल छह ही पारित कराए जा सके. अधिकतर दिन दोनों सदनों में प्रश्नकाल हंगामों की भेंट ही चढ़ते रहा. 400 में से केवल 20 सवालों के जवाब ही दिए जा सके. 
लेकिन पिछले रविवार की रात दिल्ली में जो कुछ हुआ, वह न केवल अभूतपूर्व था, उसने अंदर से झकझोर दिया. दक्षिण दिल्ली में चलती बस में हैवानियत की हदें पार करने वाले दरिंदों ने, जिनमें एक खुद को नाबालिग कहता है और दो सगे भाई भी थे, सिनेमा देख कर लौट रही पैरामेडिकल छात्रा के साथ बलात्कार किया, विरोध करने पर उसके मित्र को बुरी तरह मारा पीटा और पीड़ित युवती के गुप्तांगों में लोहे की राड (सरिया) घुसेड़ दी. बाद में उन्हें बुरी तरह जख्मी हालत में निर्वस्त्र कर चलती बस से सड़क पर फेंक दिया. कड़ाके की ठंड भरी रात में वे दोनों पुलिस के आने और अस्पताल तक पहुंचाए जाने तक कांपते- कराहते रहे. राहगीर सड़क से गजुरते रहे लेकिन किसी ने उनकी सुध लेने, उनके निर्वस्त्र शरीर पर कपड़े डालने तक की जरूरत नहीं समझी.
बलात्कार की घटनाएं दिल्ली और देश के विभिन्न हिस्सों में भी होती रहती हैं. नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि इस साल अक्टूबर महीने के अंत तक केवल दिल्ली में ही बलात्कार की 580 घटनाएं दर्ज की जा चुकी थीं. जाहिर सी बात है कि इस आंकड़े में बलात्कार की वे घटनाएं शामिल नहीं हैं जिन्हें लोकलाज के कारण बलात्कार पीड़ित और उनके परिजनों ने पुलिस में रिपोर्ट करने की हिम्मत नहीं जुटाई या फिर अपराध की घटनाओं को कम दिखाने की अभ्यस्त पुलिस ने उन्हें दर्ज करने के प्रति निरुत्साहित किया. 
लेकिन रविवार को हुई सामूहिक बलात्कार की घटना कुछ अलग तरह की है जो हमें यह सोचने और खुद से यह सवाल करने को बाध्य करती है कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं और हमारा समाज किस दिशा में बढ़ रहा है. महिला सशक्तीकरण के तमाम नारों और दावों के बावजूद अजन्मी भ्रूण कन्या से लेकर, बच्चियों, छात्राओं, बहुओं और महिलाओं के बारे में हमारा सोच क्या है. अभी भी हम महिलाओं को शोषण, उपभोग और उत्पीड़न की वस्तु से अलग मानने को तैयार नहीं हो पा रहे हैं. दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की इस घटना के पहले और बाद में भी इस तरह की अनेक घटनाएं सामने आई हैं जब एक पिता ने तथा निकट के संबंधियों ने ही अपनी बेटी, भतीजी, भांजियों को हवस का शिकार बनाया. दिल्ली में बच्चों के एक प्ले स्कूल के प्रबंधक ने ही तीन साल की बच्ची के साथ पाशविक कुकर्म किया जिससे उस अबोध बच्ची की जान जोखिम में पड़ी है.
हालांकि दिल्ली में हैवानियत को भी शर्मिंदा करने वाली सामूहिक बलात्कार की उपरोक्त घटना के विरुद्ध संसद से लेकर सड़क, जनपथ से लेकर राजपथ  तक देश भर में जिस तरह का तात्कालिक ही सही, जनाक्रोश उबल कर आया, वह कहीं न कहीं ढांढस बढ़ाता है. बलात्कारियों को फांसी देने, उनके गुप्तांग काट लेने से लेकर कानून में संशोधन कर बलात्कार की सजा फांसी-उम्र कैद तय करने की मांग भी उठी. सरकार ने इस मामले की सुनवाई त्वरित अदालत से करवाकर शीघ्रतातिशीघ्र इसका निपटारा करने और गुनहगारों को कठोर सजा दिलाने की बातें कही हैं. लेकिन क्या इससे दिल्ली में और देश के अन्य हिस्सों में भी बलात्कार की घटनाएं रुक जाएंगी या उनमें कमी आ सकेगी? बताने की जरूरत नहीं कि सामूहिक बलात्कार की इस घटना के विरुद्ध देश और समाज में आए उबाल के बीच भी दिल्ली में और देश के दूसरे हिस्सों में भी बलात्कार की अनके घटनाएं सामने आ रही हैं. अपराधियों-बलात्कारियों में इस बात का भय कतई नहीं दिखता कि उन्हें उनके किए की सजा मिल सकेगी. अभी तक केवल एक मामले में, पश्चिम बंगाल के कोलकाता में धनंजय चटर्जी नामक हैवान को फांसी दी गयी है,जिसने एक 14 वर्षीय स्कूली छात्रा के साथ बलात्कार के बाद उसकी निर्मम हत्या कर दी थी. लेकिन क्या उसके बाद बलात्कार की घटनाएं रुकीं? 
यकीनन बलात्कार हत्या के किसी मामले से भी जघन्य होता है. बलात्कार का जख्म पीड़ित को आजीवन जीते जी मारते रहता है. बलात्कार और इस तरह के जघन्य अपराधों से निबटने के लिए कानूनों की कमी नहीं हैं. कानून अगर कमजोर हैं तो उन्हें और मजबूत किया जा सकता है, दंड के प्रावधान और कड़े किए जा सकते हैं लेकिन इसका किसी के पास क्या जवाब है कि अब तक बलात्कार के सिर्फ 26 प्रतिशत मामलों में ही कनविक्शन हो सका है. बाकी मामले या तो अब भी अदालतों में लंबित हैं या फिर जटिल अदालती प्रक्रिया ( प्राथमिकी दर्ज करने के समय पोलिस थाने में और फिर अदालतों में सुनवाई के समय पीड़ित महिला से इस तरह के सवाल किये जाते हैं कि वह टूट जाती है, उसे एक बार फिर अपने साथ हुए बलात्कार के डरावने एहसास से गुजरना पड़ता है. जिरह करने वाले वकील इस तरह के सवाल करते हैं,  गुनाहगार वह बलात्कारी नहीं बल्कि बलात्कार की शिकार महिला ही हो.)  के जाल में पीड़ित महिलाओं के टूट जाने, गवाहों के मुकर जाने के कारण बलात्कारी जेल से बाहर आ गए. दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की इस घटना के बहुप्रचारित हो जाने, इसके विरुद्ध उबल रहे जनमानस के मददेनजर सरकार इसकी सुनवाई के लिए त्वरित अदालत गठित कर करने की बात कर रही है लेकिन अदालतों में वर्षों से लंबित बलात्कार के अन्य मामलों का क्या होगा. उनकी सुनवाई कब पूरी होगी 
दरअसल, एक तरफ तो अपराधियों में कानून और पुलिस का भय घट रहा है, अदालतों से उन्हें उनके किये की सजा नहीं के बराबर मिल पा रही है, वे गिरफ्तार तो होते हैं मगर बहुत जल्दी छूट जाते हैं. अगर हमारी जेलों का  सर्वेक्षण कराया जाये तो वहां बहुत कम बलात्कारी नज़र  आयेंगे. दूसरी तरफ समाज में इस तरह की घटनाओं के प्रति संवेदनहीनता बढ़ रही है. औरत के विरुद्ध आए दिन हो रहे अत्याचार, शारीरिक शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध स्थायी आक्रोश का हमारे समाज में अब भी अभाव ही दिखता है. अभी कोई और बड़ी घटना मीडिया की सुर्खियां बन जाएगी और हम इस घटना के बारे में भूलने लग जाएंगे. कुछ महीनों पहले असम की राजधानी दिसपुर से लगे गुवाहाटी में एक युवती को सरेआम निर्वस्त्र कर उसकी पिटायी और उसका वीडियो बनाए जाने के विरुद्ध भी देशव्यापी जन उबाल देखने को मिला था. उस मामले में क्या हुआ. क्या पीड़ित महिला को न्याय मिल सका. सच तो यह है कि हमारी संवेदनाएं मर रही हैं. हमारे इर्द गिर्द कन्या भ्रूण हत्या, बच्चियों -युवतियों के साथ बलात्कार, दहेज के लिए औरतों को जिंदा जलाए जाने की घटनाएं हमें अन्दर से आंदोलित नहीं करतीं. हमारे गुस्से और आक्रोश का उबाल किसी बड़ी घटना और सुर्खी का इंतजार करता है. हम संवेदनहीन होते जा रहे हैं और अपराधी-बलात्कारी निर्भय और निडर. समाज के लिए सबसे खतरनाक और चिंताजनक बात यही है.

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