Wednesday, 23 January 2013
चौटाला की सजा के बहाने
कभी खुद को ‘सर्वशक्तिमान’ समझने वाले, हरियाणा के चार बार मुख्यमंत्री रहे इंडियन लोकदल के अध्यक्ष, विधानसभा में विपक्ष के नेता ओमप्रकाश चौटाला (78 वर्ष) अपने विधायक पुत्र अजय चैटाला (52) वर्ष -के साथ इन दिनों दिल्ली की तिहाड़ जेल की हवा खा रहे हैं. चौटाला पिता-पुत्र के साथ ही उनकी पार्टी के एक अन्य विधायक शमशेर सिंह बड़शामी, दो आइ ए एस अधिकारियों- तत्कालीन प्राथमिक शिक्षा निदेशक संजीव कुमार और तत्कालीन मुख्यमंत्री चौटाला के ओएसडी रहे विद्याधर सहित 50 अन्य लोगों को दिल्ली में सीबीआई की एक विशेष अदालत ने दस- दस साल के कारावास की की सजा सुनाई है. बीते बुधवार को इन लोगों को वर्ष 1999-2000 में हरियाणा में 3206 कनिष्ठ शिक्षकों की भर्ती में हुए घोटाले में दोषी करार देते हुए इसी अदालत ने न्यायिक हिरासत में जेल भिजवा दिया था. जैसा कि राजनीतिकों के साथ आमतौर पर होता है , जेल पहुंचते ही चौटाला को सांस लेने में तकलीफ से लेकर तमाम तरह की बीमारियों का पता चला और फिलहाल दिल्ली के गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल में उनका ‘इलाज’ चल रहा है.
बड़े नेता, सांसद, विधायक, मंत्री-मुख्यमंत्री पहले भी गिरफ्तार होते और जेल जाते रहे हैं. लेकिन भ्रष्टाचार के किसी मामले में दोष सिद्ध होने के बाद जेल भेजे जाने की यह हरियाणा में और शायद देश में भी पहली ही घटना हो सकती है. इसके लिए हमारी केंद्रीय जांच एजेंसी सीबीआई वाकई पीठ थपथपाए जाने की हकदार कही जा सकती है. उसने पिछले 12-13 वर्षों में आरोपियों पर अध्यापकों की नियुक्ति में धांधली, नियुक्त शिक्षकों की मूल सूची को बदलकर तकरीबन चार लाख रु. रिश्वत लेकर फर्जी लोगों की सूची तैयार करने की जालसाजी एवं धोखाधड़ी के आरोपों को साबित कर दिया. जाहिर है कि चौटाला और उनके परिवार और पार्टी के लोग इसे राजनीतिक षडयंत्र करार दे रहे हैं.इसके लिए उनके पास तर्क भी हैं और उदाहरण भी कि इसी तरह के भ्रष्टाचार के मामले तो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती के खिलाफ भी अदालतों में विचाराधीन हैं लेकिन उनके मामलों में सीबीआई की जांच की दिशा और दशा केंद्र सरकार के साथ उनके राजनीतिक रिश्तों के मद्देनजर बदलते रहती है. और चूंकि चैटाला और उनकी पार्टी कांग्रेस की कट्टर विरोधी है जिसके साथ उसका कभी कोई तालमेल नहीं रहा और ना ही इसकी कोई संभावना है, इसलिए उनके मामले में ऐसा हुआ. और फिर घपले-घोटालों से संबंधित आरोप तो हरियाणा में मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा और उनकी सरकार पर भी लगते रहे हैं. लेकिन एक कहावत भी तो है ना कि जो पकड़ा जाए, वही चोर. कहने का मतलब साफ है कि महज राजनीतिक षडयंत्र बताकर चौटाला और उनका परिवार हरियाणा में शासन के दौरान किंवदंती बन गए उनके निरंकुश भ्रष्टाचार के किस्सों पर पर्दा नहीं डाल सकते. यकीनन इसका राजनीतिक नुकसान उन्हें अगले चुनावों में उठाना पड़ सकता है. हालांकि उनके किए की सजा हरियाणा के मतदाता उन्हें पिछले दो विधानसभा चुनावों में दे चुके हैं. लेकिन 2009 के चुनाव में उनकी पार्टी ने 90 सीटों की विधानसभा में 35 सीटें जीतकर एक तरह से लोगों को अचंभित ही किया था क्योंकि उससे पहले 2005 के विधानसभा चुनाव में उन्हें केवल 9 सीटें ही मिली थीं. इस बार वह सत्ता में अपनी वापसी को लेकर बेहद आशान्वित थे. हालांकि अब भी उनके समर्थक उनकी जेल को ‘राजनीतिक षडयंत्र’ बताकर उनके पक्ष में ‘सहानुभूति’ बटोरने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ने वाले. वैसे भी उनके परंपरागत जनाधार कहे जाने वाले जाट किसानों के लिए उनका भ्रष्टाचार खास मायने नहीं रखता.
लेकिन चौटाला की मुश्किलें और तरह की भी हैं. इस अदालती फैसले के बाद पिता-पुत्र के राजनीतिक भविष्य पर छह वर्षों का विराम लग जाएगा. जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 8 -1- एम के अनुसार भ्रष्टाचार विरोधी कानून 1988 के तहत दोषी करार दिए जाने के बाद वे अगले छह वर्षों तक कोई चुनाव नहीं लड़ सकेंगे. न्यायविदों की राय में वे अगले छह वर्षों की अवधि में चुनाव तभी लड़ सकते हैं जब उच्च अदालत में उनकी अपील की सुनवाई स्वीकार करते हुए उन पर दोष सिद्धि को लंबित कर दिया जाए. हालांकि दोष सिद्धि को लंबित किए जाने के मामले गिने चुने ही देखने को मिलते हैं. सुप्रीम कोर्ट अभिनेता संजय दत्त, राजद के पूर्व सांसद पप्पू यादव और शहाबुद्दीन की दोष सिद्धि को निलंबित करने से इनकार कर चुकी है जबकि गैर इरादतन हत्या के एक मामले में पूर्व क्रिकेटर एवं भाजपा के सांसद नवजोत सिंह सिद्धू की दोष सिद्धि को सर्वोच्च अदालत ने निलंबित कर दिया था.
लेकिन हमारी न्यायिक और कानूनी विडंबना का लाभ चौटाला पिता-पुत्र को इस रूप में अवश्य मिल सकता है कि वे मौजूदा विधानसभा का 2014 तक का कार्यकाल पूरा होने तक विधायक बने रह सकते हैं. इस मामले ने एक नई बहस को जन्म दिया है. पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में न्यायमूर्ति ए के पटनायक एवं ज्ञान सुधा मिश्रा की पीठ के समक्ष अधिवक्ता लिली थामस एवं स्वयंसेवी संगठन लोक प्रहरी की जनहित याचिकाओं की सुनवाई के दौरान प्रख्यात विधि विशेषज्ञ फली एस नरीमन ने जन प्रतिनिधियों के इस विशेषाधिकार को संविधान के विरुद्ध करार देते हुए चुनौती दी है. उन्होंने कहा कि जन प्रतिनिधित्व कानून के मुताबिक अगर किसी नागरिक को किसी ऐसे अपराध में दोषी माना गया है जिसमें दो साल की सजा का प्रावधान है तो वह चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है लेकिन अगर कोई सांसद-विधायक ऐसे किसी मामले में दोषी करार दिया जाता है और अगर वह अदालत के फैसले के विरुद्ध उच्च अदालत में अपील करता है तो उसकी सदस्यता समाप्त नहीं होती. यानी वह नया चुनाव तो नहीं लड़ सकता लेकिन चुने जाने के बाद अगर दोषी साबित होता है तो कार्यकाल पूरा होने तक उसकी सदस्यता बरकरार रह सकती है. कहने की जरूरत नहीं कि पिछली लोकसभा में जहां आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 128 और गंभीर अपराधवाले आरोपों का सामना कर रहे सांसदों की संख्या 55 थी, वहीं मौजूदा लोकसभा में इस तरह के सांसदों की संख्या बढ़कर इस समय क्रमशः 150 और 72 हो गई है. इसमें से अगर किसी को सजा हो जाती हे तो वह अगला चुनाव तो नहीं लड़ सकते लेकिन सदस्य जरूर बने रह सकते हैं.दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अपराध और सजा के मामले में आम नागरिक के लिए कानून अलग हैं और जन प्रतिनिधियों के लिए अलग. सुप्रीम कोर्ट ने इस विरोधाभासी मामले में सरकार से स्पष्टीकरण मांगा है.
दरअसल, राजनीति में बढ़ रहे अपराधीकरण पर रोक लगाने के लिए यह बहस पुरानी है कि ऐसे लोगों को चुनाव ही नहीं लड़ने दिया जाना चाहिए जिन्हे सजा हो चुकी है अथवा जिनके खिलाफ अभियोगपत्र दाखिल हो चुके हैं. मुख्य चुनाव आयुक्त एस वी संपत का भी मानना है कि जिन लोगों पर अदालत में ऐसे आरोप तय हो चुके हैं, जिनमें पांच साल से अधिक की सजा का प्रावधान है, उन्हें चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए. उनके अनुसार चुनाव आयोग की यह मांग 15 साल पुरानी है. लेकिन अभी तक इस मामले में सरकार ने और संसद ने भी कोई फैसला नहीं किया है. नरीमन का तर्क है कि जिस लोकसभा में इतनी बड़ी मात्रा में अपराधी या कहें अपराध के आरोपों से घिरे सांसद भरे हों, वहां अपराधियों को चुनाव नहीं लड़ने देने का फैसला कैसे हो सकता है. राजनीतिकों की तरफ से यह तर्क दिया जाता है कि अगर निचली अदालतों में अभियोगपत्र दाखिल होने अथवा उनके फैसले पर ही सदस्यता जाती रहे तो फिर उच्च अदालतों से किसी के निर्दोष करार दिए जाने पर क्या होगा. जो भी हो, अब समय आ गया है जब विधायिका और न्यायपालिका मिलकर इस समस्या का समाधान निकालना चाहिए क्योंकि देश की जनता ऐसे विरोधाभासों को अब और ज्यादा झेलने के पक्ष में नहीं है. इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई अगले 12 फरवरी को होनी है. जब तक सर्वोच्च अदालत कोई फैसला नहीं सुनाती इस विरोधाभास का लाभ लेते हुए चौटाला पिता पुत्र विधायक बने रह सकते हैं. दूसरी तरफ उन्हें मिली सजा आए दिन भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरते जाने वाले या कहें भ्रष्टाचार में संलिप्त हमारे राजनेताओं के लिए सबक साबित हो सकती है क्योंकि अब तक तो उन्हें यही लगता रहा है कि उनका कोई बाल भी बांका करने वाला नहीं.
Sunday, 13 January 2013
दो राहे पर झारखंड
झारखंड एक बार फिर दो राहे पर है. झारखंड मुक्ति मोर्चा -झामुमो-और कुछ निर्दलीय विधायकों को साथ लेकर बनी भाजपाई अर्जुन मुंडा की सरकार त्यागपत्र दे चुकी है. वायदे या कहें समझौते के मुताबिक मुंडा के बाकी के 28 महीनों की सत्ता झामुमो के गुरू जी यानी आदिवासी नेता शिबू सोरेन के पुत्र, राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन को सौंपने से इनकार करने पर झामुमो ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया . अब गेंद राज्यपाल और उससे भी अधिक केंद्र सरकार और उसे चलाने वाली कांग्रेस के पाले में है. कांग्रेस और केंद्र सरकार भी दुविधा में है कि राज्य में एक बार फिर राजद और निर्दलीय विधायकों की जोड़ तोड़ से झामुमो की सरकार बनवाए और सरकार में शामिल हो या फिर इन सबको साथ लेकर अपने मुख्यमंत्री के नेतृत्व में साझा सरकार बनाए. राष्ट्रपति शासन लागू कर कुछ महीनों तक परोक्ष रूप से राज्य में शासन चलाए और फिर माहौल सकारात्मक नजर आने पर सरकार बनाए अथवा चुनाव करवाए. झारखंड के कांग्रेसी, निर्दलीय, राजद और झामुमो के विधायक एन केन प्रकारेण सरकार बनवाने के पक्ष में हैं. 82 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस के 13, झामुमो के 18, राजद के पांच और निर्दलीय छह-सात विधायक हैं जिन्हें मिलाकर विधानसभा में स्पष्ट बहुमत के लिए जरूरी 42 विधायकों का आंकड़ा पूरा हो जाता है. सरकार बनने का रास्ता साफ होने पर आजसू, जनता दल -यू- एवं कुछ अन्य छोटे दलों के विधायकों के भी साथ आने के संकेत मिल रहे हैं.
लेकिन कांग्रेस आलाकमान दुविधा में है. उसके सामने लोकसभा का अगला चुनाव भी है और अतीत में उसके समर्थन से बनी निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार का खामियाजा भुगतने का उदाहरण भी. अपने तकरीबन दो साल -2006 से 2008-के कार्यकाल में कोड़ा सरकार भ्रष्टाचार के अनगिनत मामलों और किस्सों के कारण इतना बदनाम हो गई और उसकी इतनी बड़ी कीमत कांग्रेस को 2009 के लोकसभा चुनाव में चुकानी पड़ी कि कांग्रेस आलाकमान एक बार फिर उसी तरह के राजनीतिक प्रयोग से पहले दस बार सोचेगी. 2009 के चुनाव में झारखंड से लोकसभा की 14 में से केवल एक सीट ही कांग्रेस को मिल पाई थी. अलबत्ता भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खा रहे मधु कोड़ा खुद चुनाव जीत गए थे. कांग्रेस की मुसीबत यह भी है कि मुंडा सरकार में शामिल रहे झामुमो के तमाम नेता, निर्दलीय विधायक-मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे हैं. कइयों के खिलाफ मुकदमे विचाराधीन हैं. दो पूर्व मंत्री-विधायक एनोस एक्का और हरिनारायण राय अभी कुछ महीनों के पेराल पर जेल से बाहर आए हैं. इस तरह के लोगों को लेकर सरकार बनाने-चलाने और उन्हें सरकार में शामिल करने के फलाफल को लेकर भी कांग्रेस आलाकमान आशंकित है क्योंकि कांग्रेस अथवा झामुमो के नेतृत्व में सरकार बन जाने पर लोग अर्जुन मंडा के नेतृत्ववाली साझा सरकार की अकर्मण्यता और विफलताओं, उनके अंदरूनी झगड़ों, भ्रष्टाचार के किस्सों को भूल जाएंगे. इसकी जगह नई सरकार के अंदरूनी झगड़े, काम और भ्रष्टाचार झारखंड की राजनीति के नए मुद्दे बनेंगे. दूसरी तरफ, उसे अगले लोकसभा चुनाव के लिए झारखंड में और खासतौर से इसके संथाल परगना इलाकों में खासा जनाधार रखने वाले शिबू सोरेन और उनके झामुमो के रूप में एक मजबूत सहयोगी भी मिल सकता है. कांग्रेस का एक खेमा चाहता है कि अगर सरकार बनानी है तो समझौते में अगले लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच चुनावी तालमेल की बात भी शामिल होनी चाहिए. कांग्रेस लोकसभा की कम से कम आठ सीटों पर चुनाव लड़ना चाहेगी.
कांग्रेस और केंद्र सरकार की दुविधा के चलते ही राज्यपाल सईद अहमद भी कई दिन तक पशोपंज का शिकार रहे. उन्होंने पहले तो मुंडा को कार्यवाहक सरकार चलाते रहने के निर्देश के साथ केंद्र को अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट भर भेजी. शनिवार को उन्होंने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश भेजी. इस पर अभी मंत्रिमंडल की मुहर लगनी है. कांग्रेस और झामुमो के सरकार बनाने के समर्थक नेताओं की सुनें तो सरकार तो राष्ट्रपति शासन के दौरान भी बन सकती है.
लगता है कि अपने गठन से लेकर अभी तक अस्थिरता के लिए अभिशप्त झारखंड का राजनीतिक भविष्य तय होने में अभी कुछ दिन और लगेंगे. यह अजीबोगरीब सी बात है कि सन् 2000 में बिहार से अलग होकर बने झारखंड राज्य में अभी तक एक भी मुख्यमंत्री-सरकार ने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. पिछले 12 सालों में आठ मुख्यमंत्री बन चुके हैं. दो बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है. तीसरी बार राज्य राष्ट्रपति शासन के हवाले होने जा रहा है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता को कुछ लोग छोटे राज्यों और विधानसभाओं के गठन के विरुद्ध तर्क के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं कि छोटे राज्यों में संख्या कम होने और क्षेत्रीय दलों और विधायकों के पाला बदलते रहने के कारण राजनीतिक अस्थिरता का खतरा बना रहता है. इससे विकास की प्रक्रिया बाधित होती है. लेकिन इसके लिए कहीं न कहीं हमारा नेत्रित्व और मतदातावर्ग भी दोषी कहा जा सकता है जो किसी दल अथवा नेता को स्पष्ट बहुमत नहीं देकर त्रिशंकु विधानसभाएं चुनकर भेजता है. दूसरी तरफ नेता और दल भी कुछ खास इलाकों के जाति-कबीले विशेष के होकर रह गए लगते हैं. झारखंड में राष्ट्रीय हों अथवा क्षेत्रीय, कोई दल ऐसा नहीं दिखता जिसका एक जैसा सघन प्रभाव क्षेत्र छोटा नागपुर और संथाल परगना के इलाकों में भी स्पष्ट दिखता हो. झारखंड में किसी भी दल अथवा नेता की बनिस्बत माओवादियों का प्रभावक्षेत्र कहीं ज्यादा सघन और व्यापक दिखता है. सच तो यह भी है कि सरकार किसी की भी हो, झारखंड के अधिकतर जिलों में माओवादियों का ही हुक्म चलता है. उन्हें रंगदारी टैक्स कहें या कुछ और नाम दें, भारी रकम चुकाने के बाद ही वहां किसी भी दल अथवा नेता के सिर पर जीत का सेहरा बंध पाता है. बहुत सारे मामलों में तो नेताओं, मंत्रियों, सांसदों-विधायकों तथा नौकरशाहों-ठेकेदारों को भी अपने जान- माल और काम की सलामती के लिए अपराधियों के संगठित गिरोह का रूप धारण कर चुके माओवादी नक्सलवादियों को नियमित ‘टैक्स’ देना पड़ता है.
बताने की जरूरत नहीं कि इस सबके चलते झारखंड उन उद्देश्यों को हासिल कर पाने में विफल सा रहा है जिनके लिए यह अस्तित्व में आया था. बहुमूल्य खनिज संपदा, जल, जंगल, जमीन और मानवशक्ति की प्रचुरता के बावजूद पिछले 12 वर्षों में झारखंड में विकास की स्थिति क्या है. क्या आदिवासी गांवों की सूरत और सीरत बदली, आदिवासियों की जीवन दशा में सुधार हुआ. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मामलों में ईमानदार आकलन नकारात्मक तस्वीर ही पेश करता है. कमोबेस यही तस्वीर माओवादी प्रभाव वाले इलाकों में भी नजर आती है. इसके उलट झारखंड के नेता, नौकरशाह, ठेकेदार और खनन माफिया लगातार मालामाल होते गए हैं. क्या यह उदाहरण काफी नहीं कि एक साल ग्यारह महीनों तक मुख्यमंत्री रहे निर्दलीय मधु कोड़ा इतने कम समय में चार हजार करोड़ रु. से अधिक की संपत्ति के मालिक बन गए. यकीनन झारखंड के राजनीतिक भविष्य के बारे में कोई फैसला करना यकीनन केंद्र और कांग्रेस आलाकमान के लिए भी टेढ़ा और चुनौती भरा काम है.
Monday, 7 January 2013
बलात्कार, जनाक्रोश और दिल्ली पुलिस
इस बार हमने नए साल का जश्न नहीं मनाया. न तो किसी को नए साल के सुखद और मंगलमय होने की शुभकामनाएं दी और नाही इस तरह के संदेशों का जवाब दिया. मैंने ही क्या दिल्ली की समूची पत्रकार बिरादरी ने और प्रेस क्लब आफ इंडिया ने भी राजधानी दिल्ली में पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार की बर्बर वारदात के शोक और आक्रोश में शामिल होते हुए नए साल के स्वागत के नाम पर होने वाले जश्न, समारोहों से दूर रहने का ही फैसला किया था. कमोबेस पूरी दिल्ली और आसपास के इलाकों में, पांच सितारा होटलों में भी यही आलम था. इसके बजाय हजारों की संख्या में छात्र-युवा, बच्चे, स्त्री-पुरुष जंतर मंतर पर जमा होकर कैंडल मार्च आदि के जरिए उस बहादुर युवती को श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ ही इस बात की दुआ करते नजर आए कि नए साल में किसी दामिनी या कहें निर्भया के साथ ऐसा कुछ ना हो जिसके खिलाफ दिल्ली में इंडिया गेट, राजपथ, राष्ट्रपति भवन और जंतर मंतर पर या फिर देश के अन्य हिस्सों में सड़कों पर जनाक्रोश उबलना पड़े. लेकिन अफसोस कि नए साल में भी कोई भी दिन ऐसा नहीं बीत रहा है जिसमें दिल्ली और इससे लगे हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के इलाकों से महिलाओं के साथ बलात्कार, व्यभिचार और उत्पीड़न की घटनाएं मीडिया की सुर्खियां नहीं बन रही हों.
इस बीच सामूहिक बलात्कार की इस घटना और उसके खिलाफ उबल पड़े जनाक्रोश से जुडे़ तथ्यों और विभिन्न पहलुओं के परत दर परत उधड़ते जाने के साथ ही दिल्ली पुलिस का एक ऐसा चेहरा उजागर हो रहा है जो न सिर्फ भ्रष्ट, अमानुषिक बल्कि भयावह भी है. दिल्ली में अदालतों की बार बार की झिड़कियों के बावजूद बड़े, संपन्न, प्रभावशाली एवं मन बढ़ू लोगों की कार-बसों में काला शीशा लगाकर चलने पर मनाही का कोई लाक्षणिक असर देखने को नहीं मिलता. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर को भी कहना पड़ा कि अगर बस-कारों में शीशों पर लगी काली फिल्मों को हटाने पर सख्ती से अमल हुआ होता तो सामूहिक बलात्कार की यह वारदात शायद नहीं होती. बलात्कार पीड़ित युवती के साथ बस में सवार उसके मित्र (जो इस जघन्य घटना का चश्मदीद गवाह भी है) का बयान है कि काले शीशों से ढकी बस में वे दोनों डेढ़-दो घंटों तक बर्बर दरिंदों के साथ जूझते, प्रतिरोध करते रहे लेकिन उनकी आवाज बहार किसी ने नहीं सुनी. यही नहीं कंपकंपाती ठंड में नंगा कर बुरी तरह से घायल अवस्था में उन्हें मरने के लिए सड़क पर फेंक दिया गया. सड़क पर भी वे काफी देर तक कांपते-कराहते रहे लेकिन किसी ने भी वहां रुक कर उनका हाल जानने, अस्पताल पहुंचाने की बात तो दूर उनके नंगे शरीर पर कपड़ा ढांकने की जरूरत भी नहीं समझी. पुलिस की गाड़ियां उधर से गुजरीं, रुकीं भी लेकिन यह कह कर आगे बढ़ गईं कि यह मामला उनके इलाके का नहीं है. युवती के दोस्त का साक्षात्कार एक खबरिया चैनल पर प्रसारित हुआ है जिसमें उसने कहा है कि वह कई दिन तक थाने में यों ही पड़ा रहा. किसी ने उसकी सुध नहीं ली. इन सब बातों के सार्वजनिक होने के बाद किसी तरह का प्रायश्चित करने, संबद्ध पुलिस कर्मियों के विरुद्ध कार्रवाई करने के बजाय दिल्ली पुलिस ने उस टीवी चैनल को ही तलब कर उसके खिलाफ मुकदमा कर दिया जिसने उसका साक्षात्कार दिखाया था.
दिल्ली पुलिस का इसी तरह का चेहरा सामूहिक बलात्कार की इस पाशविक घटना के विरुद्ध नई दिल्ली की सड़कों पर उबल पड़े जनाक्रोश के विरुद्ध भी उजागर हुआ. पुलिस ने शांतिपूर्ण-निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर न सिर्फ लाठी, आंसू गैस के गोले, पानी की तेज बौछारें दागीं, इंडिया गेट पर प्रदर्शनकारियों के पीछे दौड़ रहे एक जवान सुभाष तोमर की मौत को हत्या का मामला घोषित कर आठ लोगों के खिलाफ हत्या के प्रयास का मुकदमा दायर उन्हें हिरासत में ले लिया. इनमें से दो भाइयों ने मेट्रो रेल के क्लोज सर्किट टीवी फुटेज से साबित कर दिया कि जिस समय तोमर के साथ ‘घटना’ हुई, दोनों भाई मेट्रो रेल में सफर कर रहे थे.
जिस बस में युवती के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ, उसके पास पिछले छह महीनों से कोई वैध परमिट नहीं था. उसके मालिक नोएडा निवासी दिनेश यादव की दर्जनों बसें दिल्ली और एनसीआर में दौड़ती हैं. उनके लाइसेंस-परमिट के लिए दिल्ली में बुराडी का जो पता दिया गया था वह फर्जी था. सामूहिक बलात्कार की घटना और उसके विरोध के बीच भी नई दिल्ली में ही एक क्लस्टर बस में सवार बच्ची से कंडक्टर के साथ चल रहे एक और कंडक्टर ने, जो उस समय ड्यूटी पर नहीं था, दुष्कर्म किया. उसे पकड़ा गया. बाद में उस बच्ची ने बताया कि घर में उसका सौतेला भाई उसके साथ महीनों से जबरन व्यभिचार कर रहा था. दिल्ली में क्लस्टर बसें दिल्ली परिवहन निगम ठेके पर लेकर चलाता है. अधिकतर क्लस्टर बसें उत्तर प्रदेश के शराब माफिया कहे जाते रहे, खरबपति व्यवसाई चड्ढा बंधुओं में से हरदीप की बताई जाती हैं. पिछले दिनों एक फार्म हाउस पर कब्जा जमाने के लिए आपसी गोली बारी में हरदीप और उसके भाई पोंटी चड्ढ़ा की जानें गई थीं. पता चला है कि उनके क्लस्टर बसों के धंधे में दिल्ली सरकार के एक मंत्री की साझेदारी भी है. उनकी बसों को दिल्ली में संचालन का लाइसेंस-परमिट तब मिला था जब वह दिल्ली सरकार में परिवहन मंत्री थे.
सामूहिक बलात्कार की इस घटना के विरोध में दिल्ली और देश के विभिन्न हिस्सों में उबल रहे जनाक्रोश का इतना असर तो जरूर हुआ है कि इसकी सुनवाई के लिए त्वरित अदालत गठित की गई है. अपराधियों को समय रहते हिरासत में लेने में सफल पुलिस ने उनके विरुद्ध अभियोगपत्र दाखिल कर दिया है. बलात्कारियों को कठोर दंड के प्रावधान हेतु कानून में संशोधन के सुझाव देने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे एस एस वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति ने काम शुरू कर दिया है. दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश उषा मेहरा की अध्यक्षता में एक आयोग अलग से बना है जो इस बात की जांच कर है कि सामूहिक बलात्कार की इस घटना में पुलिस से कहां क्या चूक हुई. दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था की निगरानी के लिए एक विशेष कार्यबल भी गठित किया गया है. इस सब के बावजूद बलात्कार और महिलाओं के साथ अत्याचार-उत्पीड़न की घटनाओं में कमी नहीं आ रही. जैसे बर्बर बलात्कारियों-अपराधियों के मन से पुलिस, कानून और अदालतों का डर ही गायब हो गया हो.
दरअसल, बलात्कार की बढ़ती और बर्बर रूप धारण करते जा रही घटनाओं के पीछे सिर्फ कानून और व्यवस्था का ही सवाल नहीं है. सबसे बड़ी समस्या महिलाओं के बारे में हमारे सामाजिक सोच की भी है. इस सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद महिलाओं और उनके साथ हो रही ज्यादतियों के बारे में हमारे राजनीतिकों, समाज के ठेकेदारों के जिस तरह के बयान आए हैं उनका विश्लेषण करने पर औरत के विरुद्ध हमारे पुरुष प्रधान समाज की सोच ही उजागर होती है. अभी ताजा बयान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक मोहन भागवत का है जिसमें उन्होंने कहा है,‘‘ इस तरह के बलात्कार की घटनाएं 'इंडिया' में होती हैं, 'भारत' में नहीं.’’ हमें नहीं मालूम कि इंडिया और भारत के बारे में उनकी परिभाषा क्या है. अगर उनका इशारा शहरी और ग्रामीण भारत की ओर है तो इतने बड़े सामाजिक-राजनीतिक संगठन को संचालित करने वाले श्री भागवत को शायद यह पता ही नहीं है कि औरत के विरुद्ध इस तरह की बर्बर और पाशविक घटनाएं देश में चहुंओर हो रही हैं. संभव है कि शहरी इलाकों में जिन्हें श्री भागवत ‘इंडिया’ करार देते हैं, इस तरह की ज्यादातर घटनाएं मीडिया के जरिए सामने आ जाती हैं जबकि ग्रामीण इलाकों में आमतौर पर ज्यादातर घटनाएं पुलिस और समाज के ठेकेदारों के द्वारा दबा दी जाती हैं. दूर क्यों जाएं, सामूहिक बलात्कार की इस घटना और इसके विरोध की सुर्खियों के दौरान ही ग्रेटर नोएडा के एक गांव में एक बच्ची के साथ गांव के दबंग युवाओं ने बलात्कार किया. पुलिस उसकी प्राथमिकी तक दर्ज करने को तैयार नहीं हुई. बाद में दबाव बढ़ने और मेडिकल जांच में बलात्कार की पुष्टि के बाद प्राथमिकी तो दर्ज हुई लेकिन फिर गांव की पंचायत ने बलात्कारी युवकों के पिताओं को महज माफी मांग लेने की सजा सुनाकर मामले को रफा दफा- करने की कोशिश की. पंचायत ने बलात्कार पीड़ित युवती और उसके घर वालों पर दबाव बढ़ाया कि वे अब इस मामले में आगे कोई कार्यवाही ना करें अन्यथा उनका सामाजिक बहिष्कार किया जाएगा. उन्हें तमाम तरह की धमकिया दी गईं. भागवत जी की सुविधा के लिए बता दें कि पंचायत में मुख्य भूमिका निभाने वाले सरपंच भारतीय जनता पार्टी के पूर्व जिलाध्यक्ष थे.
राजनारायण
अपने समर्थकों में नेताजी के नाम से मशहूर लोकबंधु राजनारायण देश के उन कुछ गिने चुने नेताओं में से थे, समय और समाज जिनका अपेक्षित मूल्यांकन नहीं कर सका. खासतौर से हमारे मीडिया ने उनकी सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि, उनके संघर्ष और सरोकारों को समझे बिना उनकी छवि एक ऐसे मसखरे, ‘विदूषक’ की बना दी थी जो अपनी भदेस टिप्पणियों के लिए सुर्खियों में आते थे. हमने उनके कई ऐसे संवाददाता सम्मेलन देखे थे जिनमें वह कहना कुछ और चाहते थे लेकिन अखबार वाले (उस समय टीवी चैनलों का प्रचलन नहीं था) उनसे कुछ ऐसा चटखारा सुनना चाहते थे जो अलग ढंग की खबरें बना सके. अक्सर उनसे ऐसा कुछ बोलने के लिए कहा जाता था जो अगले दिन कम से कम स्थानीय संस्करणों के लिए पहले पन्ने की खबर बन सके. इसके बाद (इंट्रो और हेडलाइन) की डिमांड भी होती थी. कई बार नेताजी न चाहते हुए भी ऐसा कुछ बोल भी जाते थे.
इसमें अतिशयोक्ति भी संभव है लेकिन हमारी समझ से मुख्यधारा की राजनीति में राजनारायण जी ने अंग्रेजी राज के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में और फिर आजाद भारत में कांग्रेसी राज के खिलाफ समाजवादी आंदोलन के अथक सेनानी के रूप में जितनी बार जेल यात्राएं की और जितना समय भारत की जेलों में बिताया, उतना शायद ही किसी और नेता ने किया होगा. तकरीबन 80 बार वह जेल गए और 17 साल उन्होंने विभिन्न जेलों में काटे. इनमें से तीन साल तो अंग्रेजी राज में और बाकी के 14 साल कांग्रेसी हुकमत के खिलाफ विभिन्न जन समस्याओं को लेकर संघर्ष करते हुए जेलों में बीते.
राजनारायण जी एक बड़े जमींदार परिवार से थे. पढ़े लिखे, अपने जमाने के एम ए, एलएलबी थे. लेकिन उनका अधिकतर समय गांव, गरीब, कमजोर तबकों, की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बेहतरी के संघर्ष में ही बीता. स्वतंत्रता सेनानी एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रमुख समाजवादी नेता, विधायक रहे मेरे पिता जी स्व. विष्णुदेव उनके करीबी लोगों में से थे. वे हमें बताते थे कि नेताजी का संघर्ष अपने घर-परिवार से ही शुरू होता था. वह जब वाराणसी जिले में अपने गांव गंगापुर पहुंचते थे तो उनके परिवार के खेत-खलिहानों में काम करने वाले खेतिहर मजदूरों के साथ उनका रिश्ता बराबरी का होता था और अक्सर वह उन्हें ज्यादा मजदूरी के लिए अपने परिवार के विरुद्ध भी संघर्ष के लिए उकसाते.
हमारा जिला आजमगढ़ ( अभी मऊ) एक जमाने में समाजवादी और साम्यवादी आंदोलन का गढ़ था. स्व. बाबू विश्राम राय जिले के तपे तपाए समाजवादी नेता थे. संघर्ष और जेल शायद समाजवादियों (तबके) को विरासत में मिला था. पिताजी भी अंग्रेजी दासता के विरुद्ध वर्षों जेल रहे. आजादी मिलने के बाद वह भी डा. राममनोहर लोहिया एवं अन्य समाजवादी नेताओं से प्रभावित होकर समाजवादी आंदोलन में शामिल हो गए और सरकार, पुलिस और अपराधी तत्वों के खिलाफ आजीवन संघर्ष करते रहे. अनगिनत बार जेल गए. कई बार उन पर प्राणघातक हमले भी हुए. ऐसे कई मौके आए जब डॉ लोहिया, मधुलिमए, राजनारायण जी हमारे मधुबन आए और सभाएं की. एक बार की सभा का मुझे याद है. सभा के बाद चाय का इंतजाम था लेकिन किसी ने वहां घर से दही भी लाकर रखी थी. लेकिन चम्मच नहीं था, नेताजी ने चाय की एक चुक्कड़ को तोड़ते हुए उससे चम्मच का काम लिया और दही बड़े चाव से खाई. खूब खायी.
लेकिन सत्तर के शुरुआती दशक में मधुबन में राजनारायण जी एक सभा ऐसी भी हुई जिसमें उनका कोपभाजन हमारे पिताजी को बनना पड़ा था. संसोपा में राष्ट्रीय स्तर पर अंदरूनी मतभेद तो पहले से ही चल रहे थे लेकिन संभवत: 1972 में राज्यसभा के लिए उनकी उम्मीदवारी को लेकर संसोपा दो टुकड़ों में विभाजित हो गई थी. उत्तर प्रदेश और आजमगढ़ के भी तमाम बड़े समाजवादी नेता राजनारायण जी के साथ थे जबकि पिताजी मधु लिमए और जार्ज फर्नांडिस के साथ हो लिए थे. उन्होंने न सिर्फ पूर्वी उत्तर प्रदेश बल्कि समूचे उत्तर प्रदेश में सोशलिस्ट पार्टी को खड़ा करने में अपनी ऊर्जा खपाई थी. मैं उन दिनों समाजवादी युवजन सभा में सक्रिय हो रहा था. पार्टी की तरह ही युवजन सभा भी वाराणसी और हैदराबाद के बीच विभाजित हो गई थी. जाहिर सी बात है कि हम लोग मोहन सिंह और देवब्रत मजुमदार के साथ हैदराबाद वाली युवजन सभा के साथ जुड़ गए थे. राजनारायण जी को पिताजी का उनका साथ छोड़कर मधुलिमए और जार्ज फर्नांडिस के साथ जुड़ना बेहद नागवार लगा था. उसी समय वह मधुबन आए थे. उनके भाषण में पार्टी की टूट और उसके कारणों की चर्चा स्वाभाविक थी. एक पुराने समाजवादी कार्यकर्ता शहाबुद्दीन शाह ने नेताजी से पूछ लिया, ‘तो फिर विसुनदेव जी आपके साथ क्यों नहीं हैं.’ नेताजी का तपाकी कटाक्ष था, ‘विसुनदेव बिसुक गइलें.’
लेकिन रिश्तों की यह कड़वाहट तात्कालिक थी. आपातकाल के बाद जब सभी लोग जनता पार्टी के बैनर तले एकजुट हुए तो सारे गिले-शिकवे दूर हो गए. उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव के समय पिताजी यूपी जनता पार्टी के संसदीय बोर्ड के सदस्य थे लेकिन जनता पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने पिता जी का ही टिकट काट कर एक कांग्रेसी निवर्तमान विधायक जगदीश मिश्र को हमारे नत्थूपुर से जनता पार्टी का उम्मीदवार बना दिया था. कार्यर्ताओं के स्तर पर इसका पुरजोर विरोध हुआ था और पिता जी बागी उम्मीदवार के बतौर चुनाव लड़ गए.
मुझे याद है कि मधु लिमए इस बात के लिए मनाने आए थे कि पिताजी को चुनाव मैदान से हट जाना चाहिए. लेकिन राजनरायण जी ने हमें बुलाकर कहा था कि विष्णुदेव के साथ ज्यादती हुई है. मैदान में डटे रहना चाहिए और डंके की चोट पर उन्हें खुद को राजनारायण और चौधरी चरण सिंह का उम्मीदवार घोषित कर प्रचार करना चाहिए. उन्होंने हमें कुछ पैसे भी दिए थे. दूसरी तरफ, हमारे पड़ोसी चंद्रशेखर जी ने जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का फर्ज निभाते हुए पिताजी को हरवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. उन्होंने गांवों में साइकिल से चुनाव प्रचार किया था. पिताजी बहुत कम मतों से चुनाव हार गए थे. पार्टी से बाहर हो जाने के बावजूद राजनारायण की पूरी कोशिश उन्हें अपने साथ जोड़े रखने की थी. जनता पार्टी की टूट के बाद पिताजी चरण सिंह, राजनारायण और मधु लिमए के साथ जनता पार्टी (सेक्युलर) के साथ ही रहे.
जिस तरह डा. लोहिया हमेशा शिखर (तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु) से ही टकराने के आदी थे, राजनारायण जी भी 1971 के लोकसभा चुनाव में जीत हार की परवाह किए बगैर रायबरेली में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से ही टकरा गए थे. चुनाव में वह उनसे हार जरूर गए लेकिन अदालती लड़ाई में उन्होंने श्रीमती गांधी को परास्त कर दिया था. आपातकाल उसके बाद ही लगा था. लेकिन एक दिन वह भी आया जब नेताजी ने उसी रायबरेली में इंदिरा गांधी को पटखनी देकर भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में एक नया अध्याय लिख दिया था. 1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी जनता पार्टी की सरकार बनवाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही. राजनारायण जी जनता सरकार में स्वास्थ्य मंत्री बने. मुझे याद है, मैं उस समय सक्रिय राजनीति से अलग होने और पत्रकारिता के क्षेत्र में सक्रिय होने की दिशा में बढ़ रहा था.इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक अमृत प्रभात के लिए फ्रीलांस जर्नलिस्ट के बतौर उन दिनों मैं सम सामयिक विषयों पर लिखने लगा था. स्वास्थ्य मंत्री के रूप में राजनारायण जी ने ‘बेयर फुट’ डाक्टर की योजना चलाई थी ताकि ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य और चिकित्सा की प्राथमिक सुविधाएं आसानी से सुलभ हो सकें. रामनरेश यादव जी के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाने और लोकसभा से त्यागपत्र दे देने के कारण आजमगढ़ में लोकसभा का उपचुनाव हो रहा था. राम बचन यादव जनता पार्टी के उम्मीदवार थे. कांग्रेस ने मोहसिना किदवई को उम्मीदवार बनाया था. उस उपचुनाव में सारे बड़े नेता मौजूद थे. राजनारायण जी भी आए थे. उनके करीबी समाजवादी नेता त्रिलोकीनाथ अग्रवाल के निवास पर नेताजी से मुलाकात हुई. हमने सहमते हुए उनसे इंटरव्यू की दरख्वास्त की. उन्होंने डांटते हुए कहा, ‘‘तुम हमारे घर-परिवार के हो, बेटे जैसे हो. दे देंगे इंटरव्यू. कब करना है.’’ मैंने कहा, ‘नेताजी, जितना जल्दी हो सके’. उन्होंने फौरन पास बैठे लोगों को शांत कर किनारे किया और इंटरव्यू शुरू हो गया. काफी अच्छा बन गया था वह साक्षात्कार जिसे अमृत प्रभात ने अच्छे से प्रकाशित भी किया था.
आपातकाल में जबरन नसबंदी के किस्सों के कारण बढ़ती आबादी पर अंकुश लगाने के लिए परिवार नियोजन का कार्यक्रम भी काफी बदनाम हुआ था. राजनारायण जी के स्वास्थ्य मंत्री रहते परिवार नियोजन कार्यक्रम के प्रचार प्रसार के लिए नारे की जरूरत थी. राजनारायण जी रामचरित मानस से बेहद प्रभावित थे. उन्हें लगता था कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और सीता आम भारतीयों के लिए आदर्श हैं और उनको सामने रखकर कही गई बात भारतीय जनमानस को परिवार नियोजन के लिए प्रेरित कर सकेगी. नतीजतन देश भर और खासतौर से उत्तर भारत की दीवारों पर स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से एक चौपाई लिखी दिखी, ‘‘दुइ सुत सुंदर सीता जाए, लव कुश वेद-पुरानन गाए.’’ और फिर इसी तरह से बताया गया था कि राम के बाकी भाइयों की भी दो-दो ही संतानें थीं. काफी चर्चित रहा था यह विज्ञापन.
जनता पार्टी की सरकार में पहले वह तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और फिर चौधरी चरण सिंह के करीबी, ‘हनुमान’ के रूप में मशहूर हुए. यह बात और है कि उनके ‘रामों’ ने उनका इस्तेमाल तो भरपूर किया लेकिन किसी ने उन्हें उनका वाजिब हक नहीं दिया. हालत यह हो गई कि ‘हनुमान’ को अपने ‘रामों’ के विरुद्ध भी मोर्चा खोलना पड़ गया. चरण सिंह के विरुद्ध तो वह उनके ही क्षेत्र में जाकर चुनाव भी लड़ गए थे लेकिन तब तक वह काफी कमजोर हो गए थे, शारीरिक रूप से और राजनीतिक रूप से भी. जनता पार्टी की टूट की पृष्ठभूमि के बारे में ठीक से समझे बगैर राजनारायण एवं मधु लिमए सदृश समाजवादी नेताओं को इसके लिए जिम्मेदार बताकर खलनायक के रूप में पेश किया जाता रहा है. सबको लगता था कि इन सिर फिरे समाजवादी नेताओं की जिद और चौधरी चरण सिंह की प्रधानमंत्री बनने की लिप्सा के कारण ही केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार की अकाल मौत हो गई. लेकिन फिर उसके बाद भी जनता पार्टी क्यों टूट गई. सच तो यह है कि पार्टी और सरकार पर पर्दे के पीछे से सक्रिय राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का वर्चस्व बढ़ रहा था, जनतापार्टी में संघ की पृष्ठभूमि के नेता दोहरी सदस्यता बनाए रखने के पक्षधर थे. इस बात को राजनारायण और मधु लिमए ने समय रहते उठाया. जनता पार्टी में संघ से गहरे जुड़े नेताओं से संघ और जनता पार्टी में से एक को चुनने को कहा गया लेकिन उन्हें यह मंजूर नहीं था. नतीजतन जनता पार्टी टूट गई. यही सवाल 1980 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की बुरी तरह से हुई पराजय के बाद भी उठा, तब संघ की पृष्ठभूमि वाले नेता और कार्यकर्ता निर्णायक रूप से जनता पार्टी से अलग हो गए और उन्होंने अपनी भारतीय जनता पार्टी बना ली.
राजनारायण जी संसद और विधानसभा में भी वह जन समस्याओं और आम जन के दुख दर्द के सजग प्रहरी के रूप में ही नजर आते थे. एक बार जब वह उत्तर प्रदेश में विधायक थे, किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा चल रही थी. राजनारायण जी को लगा कि उन्हें भी उस विषय पर बोलना चाहिए. वह उठ खड़े हुए लेकिन अध्यक्ष ने यह कहते हुए मना कर दिया कि उन्होंने पहले से नोटिस नहीं दी है इसलिए उनके लिए समय निर्धारित नहीं है. लेकिन राजनारायण जी इस जिद पर अड़े रहे कि अत्यंत महत्व के उस विषय पर उनका बोलना जरूरी है. इस बात को लेकर दोनों के बीच तकरार में सात-आठ मिनट निकल गए. राजनारायण जी ने अध्यक्ष से कहा कि हां, ना में दस मिनट निकल गए. इसमें से ही पांच मिनट उन्हें मिल गए होते तो वह अपनी बात पूरी कर लेते. निरुत्तर अध्यक्ष महोदय ने उन्हे पांच मिनट में अपनी बात पूरी करने का समय दिया. राजनारायण जी ने बोलना शुरू किया तो फिर समय की सीमा नहीं रह गई. अंत में हालत यहां तक आ गई कि उन्हें मार्शल के जरिए सदन से बाहर निकालना पड़ा. उस समय उन्हें सदन से बाहर निकालते समय ली गई तस्वीर एक हिंदी पत्रिका में छपी थी. शीर्षक था,‘गरीबों को मिले रोटी तो मेरी जान सस्ती है.’
नेताजी ने बहुतों को बहुत कुछ बनाया लेकिन अपने परिवार के लिए जीतेजी शायद कुछ भी नहीं किया.आज के 'समाजवादी' जहां अपने परिवार-खानदान में सबको सब कुछ बनाने में लगे हैं, नेताजी के परिवार के सदस्यों के बारे में उनके बहुत करीब रहे लोगों के अलावा किसी को शायद यह भी पता नहीं होगा कि उनके परिवार में आज कौन- कौन हैं और किस हाल में हैं. क्या राजनारायण जी की तुलना आज के कुनबा परस्त नेताओं से की जा सकती है.
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