Sunday, 13 January 2013
दो राहे पर झारखंड
झारखंड एक बार फिर दो राहे पर है. झारखंड मुक्ति मोर्चा -झामुमो-और कुछ निर्दलीय विधायकों को साथ लेकर बनी भाजपाई अर्जुन मुंडा की सरकार त्यागपत्र दे चुकी है. वायदे या कहें समझौते के मुताबिक मुंडा के बाकी के 28 महीनों की सत्ता झामुमो के गुरू जी यानी आदिवासी नेता शिबू सोरेन के पुत्र, राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन को सौंपने से इनकार करने पर झामुमो ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया . अब गेंद राज्यपाल और उससे भी अधिक केंद्र सरकार और उसे चलाने वाली कांग्रेस के पाले में है. कांग्रेस और केंद्र सरकार भी दुविधा में है कि राज्य में एक बार फिर राजद और निर्दलीय विधायकों की जोड़ तोड़ से झामुमो की सरकार बनवाए और सरकार में शामिल हो या फिर इन सबको साथ लेकर अपने मुख्यमंत्री के नेतृत्व में साझा सरकार बनाए. राष्ट्रपति शासन लागू कर कुछ महीनों तक परोक्ष रूप से राज्य में शासन चलाए और फिर माहौल सकारात्मक नजर आने पर सरकार बनाए अथवा चुनाव करवाए. झारखंड के कांग्रेसी, निर्दलीय, राजद और झामुमो के विधायक एन केन प्रकारेण सरकार बनवाने के पक्ष में हैं. 82 सदस्यों की विधानसभा में कांग्रेस के 13, झामुमो के 18, राजद के पांच और निर्दलीय छह-सात विधायक हैं जिन्हें मिलाकर विधानसभा में स्पष्ट बहुमत के लिए जरूरी 42 विधायकों का आंकड़ा पूरा हो जाता है. सरकार बनने का रास्ता साफ होने पर आजसू, जनता दल -यू- एवं कुछ अन्य छोटे दलों के विधायकों के भी साथ आने के संकेत मिल रहे हैं.
लेकिन कांग्रेस आलाकमान दुविधा में है. उसके सामने लोकसभा का अगला चुनाव भी है और अतीत में उसके समर्थन से बनी निर्दलीय मधु कोड़ा की सरकार का खामियाजा भुगतने का उदाहरण भी. अपने तकरीबन दो साल -2006 से 2008-के कार्यकाल में कोड़ा सरकार भ्रष्टाचार के अनगिनत मामलों और किस्सों के कारण इतना बदनाम हो गई और उसकी इतनी बड़ी कीमत कांग्रेस को 2009 के लोकसभा चुनाव में चुकानी पड़ी कि कांग्रेस आलाकमान एक बार फिर उसी तरह के राजनीतिक प्रयोग से पहले दस बार सोचेगी. 2009 के चुनाव में झारखंड से लोकसभा की 14 में से केवल एक सीट ही कांग्रेस को मिल पाई थी. अलबत्ता भ्रष्टाचार के मामले में जेल की हवा खा रहे मधु कोड़ा खुद चुनाव जीत गए थे. कांग्रेस की मुसीबत यह भी है कि मुंडा सरकार में शामिल रहे झामुमो के तमाम नेता, निर्दलीय विधायक-मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरे रहे हैं. कइयों के खिलाफ मुकदमे विचाराधीन हैं. दो पूर्व मंत्री-विधायक एनोस एक्का और हरिनारायण राय अभी कुछ महीनों के पेराल पर जेल से बाहर आए हैं. इस तरह के लोगों को लेकर सरकार बनाने-चलाने और उन्हें सरकार में शामिल करने के फलाफल को लेकर भी कांग्रेस आलाकमान आशंकित है क्योंकि कांग्रेस अथवा झामुमो के नेतृत्व में सरकार बन जाने पर लोग अर्जुन मंडा के नेतृत्ववाली साझा सरकार की अकर्मण्यता और विफलताओं, उनके अंदरूनी झगड़ों, भ्रष्टाचार के किस्सों को भूल जाएंगे. इसकी जगह नई सरकार के अंदरूनी झगड़े, काम और भ्रष्टाचार झारखंड की राजनीति के नए मुद्दे बनेंगे. दूसरी तरफ, उसे अगले लोकसभा चुनाव के लिए झारखंड में और खासतौर से इसके संथाल परगना इलाकों में खासा जनाधार रखने वाले शिबू सोरेन और उनके झामुमो के रूप में एक मजबूत सहयोगी भी मिल सकता है. कांग्रेस का एक खेमा चाहता है कि अगर सरकार बनानी है तो समझौते में अगले लोकसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच चुनावी तालमेल की बात भी शामिल होनी चाहिए. कांग्रेस लोकसभा की कम से कम आठ सीटों पर चुनाव लड़ना चाहेगी.
कांग्रेस और केंद्र सरकार की दुविधा के चलते ही राज्यपाल सईद अहमद भी कई दिन तक पशोपंज का शिकार रहे. उन्होंने पहले तो मुंडा को कार्यवाहक सरकार चलाते रहने के निर्देश के साथ केंद्र को अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट भर भेजी. शनिवार को उन्होंने राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश भेजी. इस पर अभी मंत्रिमंडल की मुहर लगनी है. कांग्रेस और झामुमो के सरकार बनाने के समर्थक नेताओं की सुनें तो सरकार तो राष्ट्रपति शासन के दौरान भी बन सकती है.
लगता है कि अपने गठन से लेकर अभी तक अस्थिरता के लिए अभिशप्त झारखंड का राजनीतिक भविष्य तय होने में अभी कुछ दिन और लगेंगे. यह अजीबोगरीब सी बात है कि सन् 2000 में बिहार से अलग होकर बने झारखंड राज्य में अभी तक एक भी मुख्यमंत्री-सरकार ने पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं किया. पिछले 12 सालों में आठ मुख्यमंत्री बन चुके हैं. दो बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है. तीसरी बार राज्य राष्ट्रपति शासन के हवाले होने जा रहा है. झारखंड की राजनीतिक अस्थिरता को कुछ लोग छोटे राज्यों और विधानसभाओं के गठन के विरुद्ध तर्क के रूप में भी इस्तेमाल करते हैं कि छोटे राज्यों में संख्या कम होने और क्षेत्रीय दलों और विधायकों के पाला बदलते रहने के कारण राजनीतिक अस्थिरता का खतरा बना रहता है. इससे विकास की प्रक्रिया बाधित होती है. लेकिन इसके लिए कहीं न कहीं हमारा नेत्रित्व और मतदातावर्ग भी दोषी कहा जा सकता है जो किसी दल अथवा नेता को स्पष्ट बहुमत नहीं देकर त्रिशंकु विधानसभाएं चुनकर भेजता है. दूसरी तरफ नेता और दल भी कुछ खास इलाकों के जाति-कबीले विशेष के होकर रह गए लगते हैं. झारखंड में राष्ट्रीय हों अथवा क्षेत्रीय, कोई दल ऐसा नहीं दिखता जिसका एक जैसा सघन प्रभाव क्षेत्र छोटा नागपुर और संथाल परगना के इलाकों में भी स्पष्ट दिखता हो. झारखंड में किसी भी दल अथवा नेता की बनिस्बत माओवादियों का प्रभावक्षेत्र कहीं ज्यादा सघन और व्यापक दिखता है. सच तो यह भी है कि सरकार किसी की भी हो, झारखंड के अधिकतर जिलों में माओवादियों का ही हुक्म चलता है. उन्हें रंगदारी टैक्स कहें या कुछ और नाम दें, भारी रकम चुकाने के बाद ही वहां किसी भी दल अथवा नेता के सिर पर जीत का सेहरा बंध पाता है. बहुत सारे मामलों में तो नेताओं, मंत्रियों, सांसदों-विधायकों तथा नौकरशाहों-ठेकेदारों को भी अपने जान- माल और काम की सलामती के लिए अपराधियों के संगठित गिरोह का रूप धारण कर चुके माओवादी नक्सलवादियों को नियमित ‘टैक्स’ देना पड़ता है.
बताने की जरूरत नहीं कि इस सबके चलते झारखंड उन उद्देश्यों को हासिल कर पाने में विफल सा रहा है जिनके लिए यह अस्तित्व में आया था. बहुमूल्य खनिज संपदा, जल, जंगल, जमीन और मानवशक्ति की प्रचुरता के बावजूद पिछले 12 वर्षों में झारखंड में विकास की स्थिति क्या है. क्या आदिवासी गांवों की सूरत और सीरत बदली, आदिवासियों की जीवन दशा में सुधार हुआ. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मामलों में ईमानदार आकलन नकारात्मक तस्वीर ही पेश करता है. कमोबेस यही तस्वीर माओवादी प्रभाव वाले इलाकों में भी नजर आती है. इसके उलट झारखंड के नेता, नौकरशाह, ठेकेदार और खनन माफिया लगातार मालामाल होते गए हैं. क्या यह उदाहरण काफी नहीं कि एक साल ग्यारह महीनों तक मुख्यमंत्री रहे निर्दलीय मधु कोड़ा इतने कम समय में चार हजार करोड़ रु. से अधिक की संपत्ति के मालिक बन गए. यकीनन झारखंड के राजनीतिक भविष्य के बारे में कोई फैसला करना यकीनन केंद्र और कांग्रेस आलाकमान के लिए भी टेढ़ा और चुनौती भरा काम है.
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