संसद का बजट सत्र शुरु हो चुका है. 21 फरवरी को राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण और उससे पहले संसद के केंद्रीय कक्ष में जो माहौल देखने को मिला उससे लगा कि यह बजट सत्र ठीक-ठाक चलेगा. एक दिन पहले जिस तरह से गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भगवा आतंकवाद और भारतीय जनता पार्टी एवं आरएसएस पर आतंकवादियों को प्रशिक्षण देने से संबंधित अपने विवादित बयान के लिए खेद व्यक्त किया था और जिस तरह से भाजपा ने उसे बड़े मन से स्वीकार भी कर लिया था, उसका असर केंद्रीय कक्ष में भी साफ दिख रहा था. शिंदे और भाजपा के बड़े नेता बड़ी गर्म जोशी के साथ एक दूसरे से मिल रहे थे. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने भी शिंदे और उनके साथ बैठी लोकसभा में विपक्ष-भाजपा-की नेता सुषमा स्वराज के पास जाकर इशारों में जानना चाहा कि उनके बीच सब ठीक हो गया न! राष्ट्रपति के रूप में प्रणब मुखर्जी के पहले, तकरीबन एक घंटे के अभिभाषण में प्रायः वही सब था जो आमतौर पर राष्ट्रपति के अभिभाषणों में होता है. विपक्ष की सुनें तो अभिभाषण से देश की दशा और दिशा का पता नहीं चलता. खबरनवीसों को उसमें से खबर और इंट्रो निकालने में खासी माथापच्ची करनी पड़ रही थी, लेकिन शाम ढलने तक एक खबर ऐसी आई जिसने न सिर्फ दक्षिण भारत के प्रवेशद्वार कहे जाने वाले हैदराबाद को बल्कि पूरे देश को दहला दिया.
दिल को गहरे दुखा देने वाले हैदराबाद के भीड़ भरे दिलसुखनगर में आतंकी धमाकों पर हमारी संसद की एकजुट प्रतिक्रिया ने भी दिलासा दिया कि आतंकवाद और इसकी चुनौती का सामना करने को लेकर किसी तरह की राजनीति नहीं की जाएगी. हालांकि इस तरह की एकजुट प्रतिक्रियाएं हम देश के विभिन्न हिस्सों में होने वाली प्रायः सभी आतंकी वारदातों के समय देखने के आदी हो चुके हैं. लेकिन उसके बाद क्या होता रहा है, सभी दल अपने हिसाब से आतंकवाद की आंच पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुट जाते हैं. कोई उनमें भगवा रंग देखता है तो कुछ लोग सरकार पर एक खासतरह के आतंकियों को खीर और कबाब परोसने जैसे बेहूदा आरोप लगाने में जुट जाते हैं. इन सबके बीच आतंकियों को भेष और स्थान बदल कर वारदातों को अंजाम देने में कामयाबी मिलती रहती है. तकरीबन सभी आतंकी हमलों के बाद केंद्र सरकार और हमारी गुप्तचर एजेंसियों की रटी रटाई प्रतिक्रिया यही रही है कि उनके पास आशंकित आतंकी हमले की सूचनाएं थीं जिसे उन्होंने संबद्ध राज्य सरकारों से समय रहते साझा भी किया था लेकिन इसके बावजूद कम ही मामले ऐसे मिलेंगे जिनमें इस तरह की सूचनाओं के आधार पर आतंकी हमलों को रोक पाने में कामयाबी मिली हो.
हैदराबाद में आतंकी धमाकों के बारे में अभी तक सुरक्षा एवं जांच एजेंसियां किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकी हैं कि इसके पीछे किस आतंकी समूह का हाथ है. किसी आतंकी गुट ने इस बार अभी तक इसकी जिम्मेदारी भी नहीं ली है. जांच एजेंसियों के शक की शुरुआती सुई हर बार की तरह 2002 में भारत में बने और सक्रिय हुए आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन की ओर ही घूम रही है. जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं, उसके मद्देनजर लगता है कि आंध्र प्रदेश में कांग्रेस के किरण कुमार रेड्डी के नेतृत्ववाली ढुलमुल और अपेक्षाकृत कमजोर सरकार ने या तो हैदराबाद और खासतौर से दिलसुखनगर में आशंकित आतंकी हमलों की सूचनाओं और चेतावनियों को गंभीरता से नहीं लिया और अगर लिया भी तो उनसे निबटने के लिए उसने कोई गंभीर प्रयास करने के बजाए सब कुछ भगवान भरोसे छोड़ दिया था. गृह मंत्री शिंदे और उनके मंत्रालय की मानें तो वारदात के एक दो दिन पहले राज्य सरकार को संसद पर आतंकी हमले के गुनहगार अफजल गुरु की फांसी के बाद हैदराबाद सहित दक्षिण भारत में आंतकवाद के हिसाब से बेहद संवेदनशील चार-पांच शहरों में आतंकी हमलों के बारे में गुप्तचर सूचनाएं मिलने की बात बताई थी. अभी भी, इस हमले के बाद भी, गृह मंत्रालय ने हैदराबाद सहित कुछ और शहरों में आतंकी हमलों की आशंकाएं जताई हैं. हो सकता है कि आंध्र प्रदेश की सरकार और हैदराबाद के पुलिस-प्रशासन को गृह मंत्रालय की सूचनाएं उतनी गंभीर और 'स्पेसिफिक ' नहीं लगी हों हालांकि गृह मंत्रालय के सूत्रों के अनुसार गुरुवार की सुबह केंद्रीय सुरक्षा एजेंसियों ने उन्हें 'स्पेसिफिक' सूचनाएं दी थीं. लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण और चिंता की बात यह है कि अक्टूबर 2012 के अंत में दिल्ली पुलिस के हत्थे चढ़े महाराष्ट्र में नांदेड़ के निवासी, इंडियन मुजाहिदीन के सईद मकबूल और उसके एक और सहयोगी ने पूछताछ में बताया था कि उन दोनों ने पाकिस्तान में बैठे इंडियन मुजाहिदीन के आकांओं इकबाल और रियाज -शाहबंदारी-भटकल के कहने पर हैदराबाद में दिलसुखनगर और बेगमपेट इलाकों की रेकी की थी. यह सूचना दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने हैदराबाद पुलिस को भी दी थी. हैदराबाद पुलिस की एक टीम ने यहां तिहाड़ जेल में सईद मकबूल और उसके साथी से पूछताछ भी की थी लेकिन पांच महीने बाद हुए आतंकी धमाकों को रोक पाने में वे पूरी तरह विफल रहे. इसका क्या इलाज है?
हम इस सच को स्वीकार क्यों नहीं कर पाते कि भारत दुनिया में आतंकी निशाने पर होने वाले देशों में चैथे स्थान पर है और हमें हर वक्त इस तरह के आशंकित हमलों के प्रति सजग, सतर्क और सक्रिय रहने की जरूरत है. और खासतौर से हैदराबाद तो वैसे भी सांप्रदायिक तनाव और आतंकी हमलों के लिए सर्वाधिक संवेदनशील शहर होने का खिताब पा चुका है. पिछले डेढ़ दशक में यह शहर आधा दर्जन से अधिक आतंकी हमलों का दंश झेल चुका है. वहां तो पुलिस, खुफिया एवं सुरक्षा एजेंसियों को वैसे भी सजग, सतर्क और सक्रिय रहना चाहिए था, खासतौर से तब जबकि अफजल गुरु की फांसी को महज 12 दिन ही बीते थे. भारत से भागे और पाकिस्तान में बैठे इंडियन मुजाहिदीन के आकाओं और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से लेकर वहां सक्रिय लश्कर ए तैयबा, हिज्बुल मुजाहिदीन, जैश ए मोहम्मद जैसे आतंकी संगठन न सिर्फ अफजल की फांसी का बदला लेने की धमकियां दे रहे थे, उस पर अमल की तैयारियों में भी लगे थे. लेकिन हमारी सक्रियता और आतंकवादी चुनौतियों से निबटने की हमारी तैयारियां और प्रतिबद्धताएं शायद तात्कालिक ज्यादा होती हैं. हम अमेरिका से भी सबक नहीं ले पाते जहां 9 सितंबर 2001 को ट्विन टावर्स पर विमानों के जरिए हुए आतंकी हमलों के बाद आतंकी संगठन फिर कोई बड़ी वारदात का दुस्साहस नहीं कर सके. मुंबई में 26 नवंबर 2008 को हुए आतंकी हमलों के बाद यहां भी पुलिस, गुप्तचर एवं सुरक्षा एजेंसियों को चाक चौबस्त करने और आतंकवाद के खिलाफ ‘जीरो टालरेंस’ की बातें जोर शोर से कही गई थीं. राष्ट्रीय जांच एजेंसी भी गठित की गई थी. लेकिन नतीजा- तब से देश के विभिन्न हिस्सों में दर्जन भर छोटी बड़ी आतंकी वारदातें हुईं जिनमें सैकड़ों लोगों की जानें गईं.
साफ बात है कि भारत की भौगोलिक और राजनीतिक स्थिति ऐसी है कि हमारे लिए आतंकवाद की जद से पूरी तरह बाहर निकल पाना और इसके कहर से पूरी तरह बच पाना नामुमकिन सा ही है. अपने देश में भी आतंकवाद को पनपने के लिए पर्याप्त उपजाऊ जमीन, आर्थिक और सामाजिक असमानता, धार्मिक कट्टरता और असहिष्णता, सांप्रदायिकता, प्रशासनिक अकर्मण्यता और पक्षपाती राजनीति जैसे कारक पहले से ही मौजूद हैं. चाहे सरकारी पक्ष हो अथवा विपक्ष, हम बार-बार आतंकी हमलों के लिए इंडियन मुजाहिदीन और उसकी पीठ पर बैठे पड़ोसी पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई और वहां संरक्षित, पोषित आतंकी संगठनों को जिम्मेदार बताकर अपने दायित्वों की इति समझ लेते हैं. लेकिन क्या हमने कभी इस बात का ईमानदार विश्लेषण करने की जरूरत समझी है कि इंडियन मुजाहिदीन हो अथवा किसी और नाम से सक्रिय कोई और आतंकी संगठन, उन्हें स्थानीय खुराक, सहयोग और समर्थन क्यों और कैसे मिलता है.
पाकिस्तान की हमें अस्थिर करने की कोशिश तो समझ में आ सकती है लेकिन उसे अथवा किसी और देश में बैठे आतंकवाद के आकाओं को हमारे भटके भटकलों का साथ-सहयोग कैसे और क्यों मिल पाता है. इंडियन मुजाहिदीन के साथ जितने भी नाम सामने निकलकर आते हैं, सभी उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के मूल निवासी होते हैं. इस तरह के ईमानदार विश्लेषण और उसपर आधारित रणनीति के जरिए भी बहुत हद तक हम देश के विभिन्न हिस्सों में पैदा हो रही आतंकवाद की फुनगियों को पौधा अथवा मजबूत पेड़ बनने से रोक सकेंगे. दूसरी तरफ, आतंकवाद से निबटने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों तथा विभिन्न राजनीतिक दलों, सुरक्षा एवं गुप्तचर एजेंसियों के बीच समन्वय और रणनीतिक तालमेल का होना बेहद जरूरी है.
आतंकवाद का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए संसद में हम भले ही एकजुटता का प्रदर्शन करते हुए बड़ी बड़ी बातें करते हों, यथार्थ में इस सवाल पर केंद्र और राज्यों, यूपीए और गैर यूपीए सरकारों के बीच जबरदस्त मतभेद हैं. यह भी एक कारण है कि केंद्र सरकार के प्रस्तावित राष्ट्रीय आतंकवाद विरोधी केंद्र -एनसीटीसी- का गठन अब तक उसके अधिकार क्षेत्र और सीमाओं को लेकर केंद्र और राज्यसरकारों के आपसी मतभेदों के कारण नहीं हो सका है. यह जरूरी है कि केंद्र में सत्तारूढ़ हो अथवा राज्यों में, हमारे राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय सुरक्षा और नागरिक सुरक्षा को राज्य हितों से थोड़ा ऊपर तो रखना ही होगा. केंद्र को भी उनकी आशंकाओं का निवारण करना होगा तभी जाकर हम आतंकवाद के दंश को पूरी तरह रोक भले न पाएं इसे कम जरूर कर सकेंगे. हमारे सुरक्षा प्रबंधों में जन भागीदारी भी एक अनिवार्य शर्त होगी.
2 4 फरवरी, रविवार को लोकमत समाचार में प्रकाशित