जयशंकर गुप्त
कर्नाटक से आ रही सकारात्मक चुनावी हवाएं भी यहां दिल्ली में कांग्रेसनीत यूपीए सरकार पर मंडरा रहे संकटों को कम नहीं कर पा रही हैं. कर्नाटक से ताजा सूचनाएं बता रही हैं कि दक्षिण भारत के किसी पहले राज्य में भारतीय जनता पार्टी का ‘राजनीतिक दुर्ग’ भर भरा कर गिरने वाला है. चुनावी नतीजे 8 मई को आएंगे लेकिन कर्नाटक में भाजपा की दोबारा सरकार बनने के आसार कतई नजर नहीं आ रहे. कांग्रेस को अगर स्पष्ट बहुमत नहीं भी मिले तो भी सरकार उसके ही नेतृत्व में बनने के पूर्वानुमान लगाए जा रहे हैं. हालांकि राजनीति में कुछ भी सुनिश्चित नहीं होता, ऐन वक्त पर मतदान के समय कोई एक मुद्दा प्रभावी होकर सारे पूर्वानुमानों को ध्वस्त कर सकता है.
कर्नाटक में जो कुछ होगा वह भविश्य के गर्त में है लेकिन यहां केंद्र सरकार पर छाए संकट के बादल और घने होते जा रहे हैं. तकनीकीतौर पर सरकार के अस्तित्व पर कोई खतरा नजर नहीं आता क्योंकि विपक्ष अविश्वास प्रस्ताव लाने को तैयार नहीं है और लोकसभा के अगले चुनाव एक साल बाद होने हैं. इसके बावजूद नौकरशाही से लेकर आम जनता के बीच सरकार की साख लगातार कमजोर होती जा रही है. सरकार के दो प्रमुख सहयोगी रहे तृणमूल कांग्रेस और द्रविड़ मुनेत्र कझगम इससे अलग हो चुके हैं. सरकार का अस्तित्व बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी तथा कुछ अन्य छोटे क्षेत्रीय दलों के समर्थन की बैसाखी पर टिका है. वे लोग सरकार को बुरा भला कहते रहते और एन केन प्रकारेण अपने समर्थन की कीमत भी वसूलते रहते हैं.
और भ्रष्टाचार-घोटालों से तो इस सरकार का जैसे चोली दामन का रिश्ता सा बन गया है. एक घोटाले और उसमें सरकार के प्रमुख लोगों की शिरकत की अनुगूंज मद्धिम नहीं पड़ती कि दूसरा घोटाला सामने आ जाता है. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति (जे पी सी ) की ‘विवादित’ रिपोर्ट को लेकर इसके 30 में से आधे यानी 1 5 सदस्य अपने अध्यक्ष पी सी चाको के विरुद्ध अविश्वास व्यक्त कर चुके हैं. कानून मंत्री अश्विनी कुमार द्वारा कोयला खदानों के आवंटन में घोटाले की जांच कर रही सीबीआई के निदेशक रंजीत सिन्हां को बुलाकर प्रधानमंत्री कार्यालय एवं कोयला मंत्रालय के आलाअफसर की मौजूदगी में उसकी की स्टेटस रिपोर्ट में छेड़छाड़ के आरोप में सरकार और सीबीआई को भी सुप्रीम कोर्ट की लताड़ झेलनी पड़ी. सुप्रीम कोर्ट की मनाही के बावजूद सीबीआई के निदेशक ने रिपोर्ट सरकार को दिखाई. अब कानून मंत्री अश्विनी कुमार का राजनीतिक भविष्य इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर टंगा है.
विवादों में बंसल!
इस बीच रेल मंत्री पवन कुमार बंसल भी अपने भांजे विजय सिंगला की ‘करतूत’के कारण विवादों के घेरे में आ गए हैं. बीते शुक्रवार की रात सीबीआई ने सिंगला को चार दिन पहले ही रेलवे बोर्ड के सदस्य नियुक्त महेश कुमार के प्रतिनिधि मंजूनाथ से 90 लाख रु. की रिश्वत लेते हुए गिरफतार किया. यह रिश्वत कथित तौर पर महेश कुमार की प्रोन्नति और फिरउनकी मेंबर इलेक्ट्रिकल जैसी मलाईदार पोस्टिंग के एवज में ली जा रही थी. हालांकि बंसल ने कांग्रेस आलाकमान और प्रधानमंत्री को भी यह समझाने की कोशिश की है कि सिंगला के साथ उनके किसी तरह के कारोबारी संबंध नहीं हैं. लेकिन विपक्ष के नेता परिस्थितिजन्य साक्ष्यों के आधार पर आरोप लगाते हैं कि इस रिश्वत प्रकरण और महेश कुमार के प्रोमोशन में कहीं कुछ अंतर्संबंध जरूर है. उनके मामले पर फैसला कांग्रेस आलाकमान को करना है.
भ्रष्टाचार के इस इस ताजा मामले ने टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन, कोयला खदानों के आवंटन घोटाले और उसकी जांच कर रही सीबीआई के कामकाज में दखल का आरोप लगाते हुए कानून मंत्री अश्विनी कुमार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के त्यागपत्र की मांग को लेकर संसद को जाम कर रही भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को एक और मजबूत राजनीतिक हथियार थमा दिया है. जाहिर सी बात है कि बात बात पर संसद को जाम करने की आदी हो चुकी भाजपा को संसद को नहीं चलने देने के लिए ‘रेलवे गेट’ के नाम से एक और मजबूत बहाना मिल गया है. बजट सत्र के बाकी चार-पांच दिन भी विपक्ष के हंगामे की भेंट चढ़ने की आशंका बढ़ गई है. इस बार संसद के बजट सत्र का अधिकांश समय वजह बे वजह विपक्ष के हंगामों की भेंट ही चढ़ते रहा है. 22 अप्रैल को शुरू हुए बजट सत्र के दूसरे चरण में तो एक दिन के लिए भी संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारु रूप से नहीं चल सकी. प्रश्नकाल नहीं हुए, प्राइवेट मेम्बर्स बिल इज भी चर्चा नहीं हो सकी. यहां तक कि भारत के संसदीय इतिहास में संभवतः पहली अथवा दूसरी बार विनियोग, वित्त विधेयक, रेल और आम बजट भी दोनों सदनों में बिना किसी बहस और चर्चा के ही पारित कराए गए, वह भी विपक्ष के इन बजट- विधेयकों को पारित करने से पहले सदन से बहिर्गमन की मोहलत मिलने के बाद. बजट सत्र दस मई तक के लिए निर्धारित है, हालांकि संसदीय कार्य मंत्री कमलनाथ ने कहा है कि बजट सत्र का समय से पहले सत्रावसान नहीं किया जाएगा और सरकार की कोशिश खाद्य सुरक्षा एवं भूमि अधिग्रहण जैसे सरकार और कांग्रेस के लिए भी चुनावी दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण विधेयकों पर संसद की मुहर लगवाने की होगी, भले ही यह काम संसद में हंगामों के बीच बिना किसी चर्चा के ही संपन्न क्यों न कराना पड़े. लेकिन सरकार की साख का क्या होगा?
सरबजीत की मौत पर!
पाकिस्तान के लाहौर की कोट लखपत जेल में 2 2- 23 साल गुजारने वाले सरबजीत सिंह की पिछले सप्ताह जेल में ही बर्बर पिटाई के चलते वहां जिन्ना अस्पताल में हुई मौत को लेकर पूरे देश में संसद से लेकर सड़क तक गम और गुस्से की लहर स्वाभाविक थी. गुस्सा इसलिए भी स्वाभाविक था क्योंकि भारत में यह धारणा है कि उन्हें उस गुनाह की सजा मिली जो उन्होंने किया ही नहीं था. लेकिन मौत के बाद उनकी लाश पर शुरू हुई राजनीति हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं का चरित्र ही उजागर करती है. शराब के नशे में या कहें छोटी-मोटी जासूसी के फेर में सीमा पार कर गए और वहां गिरफतार कर दहशतगर्दी और बम धमाके के आरोप में कैद कर दिए गए सरबजीत के जीवित रहते उन्हें मानवीय अथवा कूटनीतिक आधार पर रिहा करवाने के गंभीर प्रयास किसी ने नहीं किए. अब मौत के बाद उन्हें ‘देश का वीर सपूत’ बताने, उनके परिवार के लोगों को 25 लाख रु. देने और उनके शव को विशेष विमान से लाहौर से स्वदेश मंगवानेवाले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने, उनकी अंत्येष्टि राजकाीय सम्मान के साथ करवाने, उनके परिवारवालों की आर्थिक मदद करने, उनकी बेटियों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा करने वाले अकाली दल ने और ‘कमजोर’ यूपीए सरकार पर सरबजीत की रिहाई के लिए गंभीर प्रयास नहीं करने के आरोप लगाने वाले भाजपा के लोगों ने भी केंद्र में और पंजाब में भी अपनी सरकार रहते कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे उनकी जीवित स्वदेश वापसी संभव हो सके. यूपीए सरकार ने तो कम से कम मौके बेमौके पाकिस्तान के हुक्मरानों के समक्ष उसकी रिहाई का मामला उठाया भी. हालांकि भारतीय जेल में हत्या के मामले में 20 वर्षों तक कैद रहे पाकिस्तानी वैज्ञानिक खलील चिश्ती की सद्भावना रिहाई के समय भारत भी पाकिस्तान पर दबाव बनाकर सरबजीत की मांग करता तो बात कुछ और हो सकती थी.
सरबजीत की जीवित वापसी तो नहीं हो सकी लेकिन उनकी मौत को लेकर देश भर में नेताओं की बयानबाजियों से लेकर मीडिया के एक हिस्से द्वारा जनाक्रोश की अभिव्यक्ति के जरिए पाकिस्तान और पाकिस्तान के लोगों के विरुद्ध उत्तेजना और उन्माद का जो माहौल बनाने की कोशिश की गई, उसे किसी भी तरह जायज करार नहीं दिया जा सकता. जिस तरह से जम्मू की एक जेल में कैद पाकिस्तान के एक आतंकवादी सनाउल्ला पर भारत के एक पूर्व सैनिक कैदी ने हमला कर उसे मौत की कगार पर पहंचा दिया, वह इस उत्तेजना और उन्माद की ही परिणति कही जा सकती है. सरकार ने सरबजीत की मौत के बाद भारतीय जेलों में कैद पाकिस्तानियों की सुरक्षा कड़ी करने के निर्देश जारी किए थे. जाहिर है कि जम्मू के जेल अधिकारियों ने उस पर अमल नहीं किया. बदले की इस कार्रवाई से फौरी तौर पर हम खुश हो सकते हैं की चलो सरबजीत का बदला ले लिया लेकिन सरबजीत की हत्या के मामले में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान की सरकार और उसकी बदनाम खुफिया एजेंसी 'आइएसआई' को कठघरे में खड़ा करने का नैतिक अधिकार हमारे पास कहां रह जाता है. और फिर इससे क्या यह बात भी साबित नहीं होती कि जेलों में कैदी तो आपस में लड़ते मरते ही रहते हैं. अगर हम मानते हैं कि पाकिस्तान आज कट्टरपंथी अराजक तत्वों के हाथ में है तो जवाब में क्या हमें भी अराजक और कट्टरपंथी बन जाना चाहिए?
5 मई 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित
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aatma ke kone me ek ched sa ho gaya
ReplyDeleteitne intejar ke baad ye kya ho gaya
hamne chahi thi rihaaee sarabjeet ki
desh ke logon ke maan ki jeet ki
kitni darindagi jheli hogi laal ne
kaise dans liya dirghjeevee ko kaal ne
moam ko lohe ke tempreture pe khaolaya
seedhe se insaan ko dareendagee se maar giraya
marne ke baad sarkar ko sudh aaee
saheed ho gaya aaj hamara wo bhaee