राम विलास पासवान के साथ न्यूयॉर्क में
जयशंकर गुप्त
बात वर्ष 2008 के जून महीने की है.अमेरिका में किसी पहले अल्पसंख्यक-अश्वेत के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना तय सा हो गया था. और इधर हमारे देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के राजनीतिक माहौल में अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर अजीब तरह की उथल-पुथल का दौर चल रहा था. प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के द्वारा अमेरिका के साथ किए जा रहे असैन्य परमाणु सहयोग करार के विरोध में सरकार को समर्थन दे रहे वाम दल सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दे रहे थे. इसी बीच एक दिन संप्रग सरकार में रसायन, उर्वरक और इस्पात मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल रहे समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ मंत्री, राम विलास पासवान जी के निवास से फोन आया. कहा गया कि पासवान साहब मिलना चाहते हैं.
शाम को हम 12 जनपथ स्थित उनके निवास पर पहुंच गये. लगा कि पासवान जी सरकार पर मंडरा रहे राजनीतिक संकट के बारे में कुछ खबर देनेवाले हैं. लेकिन संप्रग सरकार के सामने उत्पन्न संकट पर बात करने के बजाय पासवान जी ने कहा कि जुलाई के पहले सप्ताह में अमेरिका चलना है. थोड़ा विस्मय भाव से हमने पूछा, इस समय अमेरिका ! उन्होंने कहा कि हां, वहां न्यूयॉर्क में दलित एवं अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम का पांचवां तीन दिवसीय सम्मेलन हो रहा है. लेकिन सरकार के सामने संकट! उन्होंने कहा कि सम्मेलन की तिथि और स्थान का फैसला दो साल पहले यहां दिल्ली में हुए फोरम के चौथे सम्मेलन में ही हो गया था. सारी तैयारियां हो चुकी हैं. कई और पत्रकार, देश और दुनिया भर से दलित, अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम के प्रतिनिधि भी वहां पहुंच रहे हैं.
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बाएं से लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष चरणजीत सिंह अटवाल, रामविलास पासवान, डा. शाकिर मुखी, डा. ए. एस. नाकडार और रामचंद्र पासवान |
हमारे लिए ना कहने जैसी कोई बात ही नहीं थी, एक तो राम विलास जी और उनकी समाजवादी पृष्ठभूमि की राजनीति के साथ दशकों से जुड़ाव और लगाव था. मुझे उनका एक सूत्र वाक्य बहुत पसंद था, “मैं उस घर में दिया जलाने चला हूं जहां सदियों से अंधेरा है.’’ पत्रकार के बतौर भी उस समय हम हिन्दुस्तान अखबार के लिए उनकी लोक जनशक्ति पार्टी को भी कवर कर रहे थे. दूसरे, पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद से या कहें उससे पहले से ही मन में ग्रेट ब्रिटेन, सोवियत रूस, फ्रांस, अमेरिका और चीन जैसी विश्व की महाशक्ति कहे जाने वाले देशों में जाने, घूमने और देखने का सपना संजोए था. अपने तईं तो इन देशों में जा सकने का सामर्थ्य कभी रहा नहीं लेकिन अखबार के जरिए एक-एक कर या कहें उससे अधिक देशों में जाने-घूमने, वहां के समाज और संस्कृति को समझने के सपने साकार हो रहे थे. रूस के राजधानी शहर मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग की यात्रा तत्कालीन राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम साहब के सौजन्य से संभव हो गई थी और अब अमेरिका जाने का पासवान जी का आंत्रण सामने था. मैंने पासवान जी से कहा कि मेरी तरफ से तो पूरी हां है लेकिन एक बार अखबार में संपादक जी से अनुमति लेनी पड़ेगी. पासवान जी ने कहा कोई बात नहीं है. आप आज ही बात कर लीजिए. बता दीजिएगा कि विमान यात्रा और वहां रहने-घूमने का खर्च फोरम की तरफ से वहन किया जाएगा. जल्दी बता देंगे तो वीसा की प्रक्रिया भी शुरू करनी होगी. हमने कार्यालय आकर तत्कालीन संपादक मृणाल (पांडेय) जी से बात की. उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी. इस तरह से अमेरिका की यात्रा का टिकट पक्का हो गया. संयोगवश जिस दिन हम लोग संयुक्त राज्य अमेरिका की व्यावसायिक और सांस्कृतिक राजधानी कहे जानेवाले सबसे बड़े शहर न्यूयॉर्क पहुंचने वाले थे, उसके अगले दिन, 4 जुलाई को अमेरिका का राष्ट्रीय (स्वतंत्रता) दिवस भी था.
अमेरिका की खोज क्रिस्टोफर कोलंबस ने 1492 में की थी या आइसलैंड के लोगों के दावे के अनुसार इससे 500 साल पहले ही उनके पूर्वजों-वाइकिंग्स ने या किसी और ने ! सच है कि अमेरिका का इतिहास काफी पुराना है लेकिऩ संयुक्त राज्य अमेरिका के रूप में इसका ताजा इतिहास 18वीं शताब्दी में एक स्वतंत्र और संप्रभु देश के रूप में इसके उदय के साथ ही शुरू होता है. आज दुनिया में आर्थिक और सैन्य मामलों में भी सबसे ताकतवर महाशक्ति कहे जानेवाला अमेरिका भी 13 अन्य पड़ोसी उपनिवेशों के साथ ही कभी (1607 से 1783 तक) इंग्लैंड और ब्रिटश साम्राज्य के अधीन था. अमेरिका के राजनीतिज्ञ और सेनानायक जार्ज वाशिंगटन (जो देश के पहले राष्ट्रपति भी बने) के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ लंबे संघर्ष (अमेरिका के क्रांति संघर्ष) के क्रम में 4 जुलाई 1776 को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी थी. इसके साथ बाकी उपनिवेशों के भी स्वतंत्र हो जाने और आपस में एकजुट होकर संघीय गणराज्य बनाने पर सहमत होने के बाद ही विश्व के राजनीतिक मानचित्र पर एक नये, स्वतंत्र और संप्रभु देश के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका का उदय हुआ था. आज अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बन चुका है. दुनिया की कुल आबादी की महज 4.3 फीसदी आबादी अमेरिका में रहती है लेकिन दुनिया की कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत अमेरिका में ही है. इसकी सीमाएं उत्तर में कनाडा, पूर्व में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में मेक्सिको की खाड़ी और मेक्सिको तथा पश्चिम में प्रशांत महासागर के साथ लगती हैं. आज संयुक्त राज्य अमेरिका में 50 राज्य, एक केंद्र शासित जिला, पांच स्वायत्त शासी क्षेत्र हैं. तकरीबन 98 लाख वर्ग किमी. के क्षेत्रफल के साथ दुनिया का चौथा और आबादी के मामले में तकरीबन 28.14 करोड़ की आबादी (सन् 2000 की जनगणना के अनुसार) के साथ अमेरिका दुनिया में चीन और भारत के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश है. राजधानी इसकी वाशिंगटन है लेकिन व्यावसायिक, सांस्कृतिक राजधानी और सबसे बड़ा शहर न्यूयॉर्क है. एक समय, सन् 1800 में वाशिंगटन के राजधानी बनने से पहले न्यूयॉर्क और फिलाडेल्फिया भी अमेरिका की राजधानी रह चुके हैं. इस लिहाज से भी न्यूयॉर्क जाने और हडसन नदी के किनारे मैनहट्टन, संयुक्त राष्ट्र, 9 सितंबर 2001 को आतंकवादी हमलों का शिकार हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (ट्विन टॉवर्स) और स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी (स्वतंत्रता की मूर्ति या स्मारक) को देखने की इच्छा मन में हिलोरें मार रही थी.
कठिन वीसा प्रक्रिया
लेकिन अमेरिका जाने का टिकट जितनी आसानी से मिल गया, अमेरिकी वीसा प्राप्त करना काफी दुरूह कार्य साबित हुआ. नई दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित अमेरिकी दूतावास में निर्धारित तिथि पर तय समय से पहले ही जाकर कतारबद्ध होना पड़ा. तमाम तरह के सुऱक्षा प्रबंधों से गुजरते हुए नियत अधिकारी के पास साक्षात्कार के लिए पहुंचने में काफी समय लग गया. साक्षात्कार भी बहुत कड़ा. आप अमेरिका क्यों जा रहे हैं. कब लौटेंगे. वहां कहां रहेंगे. हमारे इतिहास-भूगोल को पूरी तरह से खंगाला गया. कई बार तो गुस्सा भी हुआ और हमने कहा भी कि भाई हम आतंकी नहीं हैं और ना ही हमें तुम्हारे देश में रहने, नौकरी-रोजगार की कोई ख्वाहिश है. हमारा देश हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है. वह तो दलित-अल्पसंख्यक फोरम के सम्मेलन में जाना है, सो जा रहे हैं. उसने मुझसे दलित, अल्पसंख्यक के मायने समझे और सम्मेलन से जुड़े कई सवाल भी किए. बाद में गुस्सैल से दिखनेवाले अमेरिकी अधिकारी से फारिग होकर लौटे तो यह आशंका भी बनी रही कि वीसा मिलेगा भी कि नहीं. लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से मुझे जो वीसा मिला, वह पांच साल के लिए था. यह वीसा हमारे लिए एक और (तुर्की) यात्रा में भी बड़ा कारगर साबित हुआ. इसकी चर्चा आगे अपनी पश्चिम एशिया में इरान, तुर्की और लेबनान की यात्रा से जुड़े संस्मरणों में करूंगा.
बहरहाल, न्यूयॉर्क के लिए लंदन होते हुए नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से हमारी उड़ान 2-3 जुलाई की आधी रात की थी जो तकरीबन चार घंटे लंदन में रुकने, लंदन तक के यात्रियों को उतारने और वहां से न्यूयार्क जानेवाले यात्रियों और उनके सामान को लेने-लादने आदि की प्रक्रिया के बाद तीन जुलाई की सुबह 10 बजे के करीब, भारतीय समय के मुताबिक रात के साढ़े आठ बजे (उस समय भारत और अमेरिका के बीच समय का अंतर तकरीबन 10.30 घंटों का था, अमेरिका का समय भारत के मुकाबले 10.30 घंटे पीछे था) न्यूयॉर्क के जॉन एफ कनेडी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंची. विमान में कई और पत्रकार मित्र भी मिल गए थे जो इसी कार्यक्रम के लिए न्यूयॉर्क जा रहे थे. इंडियन एयरलाइंस-एयर इंडिया के विमान में ‘महाराजा’ का आतिथ्य ठीक ही था लेकिन राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ यात्राओं के दौरान उनके लिए एयर इंडिया के विशेष विमान में ‘महाराजा’ के आतिथ्य से इसकी तुलना बेमानी है. लंदन में हम चार घंटे रुके जरूर लेकिन हवाई अड्डे से बाहर निकलने की मनाही थी. सारा समय लंदन हवाई अड्डे पर मित्र पत्रकारों-गीताश्री, सुभाशीष मित्रा, आशुतोष, वंदिता मिश्रा, आरती कपूर और शेख मंजूर के साथ गप्पें लड़ाने, कुछ खाने-पीने में गुजारना पड़ा. हमारे लिए यह खुशी की बात थी कि लंदन की उस सरजमीं पर पांव रखने की हमारी ख्वाहिश पूरी हुई जिसके सम्राट-महारानी और उनके ब्रिटिश साम्राज्य ने हमारे देश पर सैकड़ों वर्षों तक राज किया था.
न्यूयॉर्क के जेएफके (जॉन एफ कनेडी) अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कड़ी और चिढ़ पैदा करनेवाली सुऱक्षा जांच से गुजरते हुए बाहर निकलने में अपेक्षा के विपरीत ज्यादा समय लगा. यह सब 9 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए भीषणतम आतंकी हमले का प्रतिफल बताया गया, जिसमें अल कायदा के आत्मघाती आतंकवादियों ने चार अमेरिकी विमानों का अपहरण कर विमानों को ही बम की तरह इस्तेमाल करते हुए न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में ट्विन टावर्स और वाशिंगटन में पेंटागन तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण इमारतों से टकरा दिया था. इस आतंकवादी हमले में तकरीबन तीन हजार लोग मारे गये थे जबकि तकरीबन 29 हजार लोग घायल हुए थे. काफी बड़े पैमाने पर, तकरीबन दो लाख करोड़ की संपत्ति भी नष्ट हुई थी. उस हमले के बाद से ही अमेरिकी हवाई अड्डों और अन्य ठिकानों पर सुरक्षा जांच बहुत कड़ी कर दी गई जिससे हर किसी को गुजरना पड़ता था. इस कड़ी जांच प्रक्रिया या कहें नंगाझोरी (पैर के जूते-मोजे तक उतरवा दिए गए थे), एक्सरे मशीन से पूरे शरीर की जांच से कभी हमारे रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस और राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम को भी गुजरना पड़ा था.
हवाई अड्डे से आरामदायक बस से तकरीबन पौन घंटे की यात्रा के बाद हम लोग ‘लांग आईलैंड’ में स्थित होटल मैरिअट पहुंचे जहां हमारे ठहरने का इंतजाम किया गया था.लंबी यात्रा की थकन (जेट लेग) से कुछ निजात मिलने के बाद शाम के समय हममें से कुछ लोग पास में ही अटलांटिक महासागर के किनारे खूबसूरत जोंस बीच (समुद्र तट) देखने चले गये थे. सम्मेलन स्थल भी मैरिअट होटल में ही था. अपने परिवार और इस सम्मेलन के आयोजन में लगे कुछ पत्रकारों-बौद्धिकों के साथ राम विलास पासवान 25-26 जून को ही यहां आ गए थे.
दलित-अल्पसंख्यक हितों की चिंता न्यूयॉर्क में !
यह महज संयोग भर भी हो सकता है कि जिस समय अश्वेत और अल्पसंख्यक नेता के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता बराक ओबामा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे थे, अमेरिकन फेडरेशन ऑफ मुस्लिम ऑफ इंडियन ओरिजिन (आफमी) की मेजबानी में आयोजित इस सम्मेलन में पासवान को भारत के दलितों, अल्पसंख्यकों और वंचितों के सबसे बड़े नेता-प्रवक्ता के साथ ही ‘भारतीय ओबामा’ और भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की भूमिका तैयार की जा रही थी. सम्मेलन के लिए प्रकाशित स्मारिका के मुख पृष्ठ पर भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेटकर और स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी के बीच में राम विलास पासवान की बड़ी सी तस्वीर लगी थी. पासवान की छवि निर्माण के साथ ही इस सम्मेलन और इसके आयोजकों (जिनमें अधिकतर गुजरात और महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक मुसलमान थे, का एक मकसद 9 सितंबर के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका में कमजोर और असुरक्षित महसूस करने लगे अल्पसंख्यकों के लिए भारत सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री तथा भारत के साथ ही दुनिया के अन्य कई देशों से आए नेताओं, बुद्धिजीवियों की मौजूदगी से दलित-अल्संख्यक एकजुटता का संदेश देना भी लगा. गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों में हुए अल्पसंख्यकों के भीषण नरसंहार के विरोध में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली राजग सरकार के मंत्री पद से त्यागपत्र दे देने के बाद से ही पासवान देश और दुनिया में अल्पसंख्यकों के एक बड़े तबके के बीच बड़े पैमाने पर आकर्षण का केंद्र बन गए थे. जबकि समाजवादी पृष्ठभूमि के कई नेता सरकार में ही बने रहे थे. हालांकि जिस नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हुए थे और जिनके विरोध में पासवान वाजपेयी मंत्रिमंडल से अलग हुए थे, बाद में उनके नेतृत्व में ही पासवान और उनकी पार्टी ने 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा और उनकी सरकारों में वह मंत्री भी बने.
दलित-अल्पसंख्यक एकजुटता !
बहरहाल, चार जुलाई को शुरू हुए दलित अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम के सम्मेलन में भारत, अमेरिका के अलावा, ब्रिटेन, स्वीडेन, जर्मनी, दुबई, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, नेपाल, मलयेशिया, खाड़ी के देशों से तकरीबन 800 प्रतिनिधि जमा हुए थे. सबसे अधिक प्रतिनिधि भारत से ही थे. इनमें लोकसभा के उपाध्यक्ष चरणजीत सिंह अटवाल, सांसद एवं दलित सेना के अध्यक्ष रामचंद्र पासवान, साबिर अली, नंदी येल्लइया, राम दास अठावले, जे डी सेलम, योजना आयोग के सदस्य भालचंद्र मुंगेकर, दलित नेता उदित राज, बिशप ई सारगुनम, गुजरात पुलिस के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक आर बी श्रीकुमार, पत्रकार एवं पूर्व सांसद संतोष भारतीय, तीस्ता शीतलवाड, रूथ मनोरमा, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल, सहारा के अजीज बर्नी, भारत सरकार के पूर्व सचिव पी एस कृष्णन, पंजाब के पूर्व राज्यपाल ओ. पी. मेहरा, पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन, बौद्ध भिक्खु भंते धम्मवीरू, दिल्ली विधानसभा के उपाध्यक्ष शोएब इकबाल, मौलाना कल्बे रशीद रिजवी, पूर्व कुलपति रमेश चन्द्र, बिहार सरकार के पूर्व मंत्री पशुपति कुमार पारस, लोजपा के नेता अब्दुल खालिक प्रमुख थे. सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए पासवान ने भारतीय समाज में आजादी के 61 साल बाद भी दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के विकास की मुख्यधारा में पिछड़ते जाने पर गहरी चिंता जाहिर की और कहा कि अब महज आरक्षण जैसी सुविधाओं से काम नहीं चलेगा. दलित, शोषित, दमित, उपेक्षित, वंजित, तिरस्कृत और बहिष्कृत तथा तमाम तरह की निषमताओं-भेदभाव के शिकार हो रहे लोगों को एकजुट होकर सत्ता अपने हाथ में लेनी होगी. उन्होंने दलितों और अल्पसंख्यकों की समस्याओं को तकरीबन एक जैसी करार देते हुए उनके बीच ‘दर्द का रिश्ता’ कायम करने पर बल दिया.
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स्मारिका का विमोचन करते बाएं से लोकसभा के तत्कालीन उपाध्यक्ष चरणजीतसिंह अटवाल, रामविलास पासवान, सैयद शहाबुद्दीन और बिशप ई सारगुनम |
सुलभवाले पाठक जी से मुलाकात
सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के बाद, दोपहर के भोजन के समय होटल में हमारे मित्र और सुलभ इंटरनेशनल के जनसंपर्क कार्य से जुड़े मदन झा भी मिल गये. वह इस सम्मेलन में भाग नहीं ले रहे थे लेकिन यह भी एक संयोग ही था कि बिहार की एक और विभूति, सुलभ के संस्थापक अध्यक्ष बिंदेश्वर पाठक भी उस समय अपनी पूरी टीम और ‘अलवर की राजकुमारियों’ के साथ न्यूयार्क के मैनहट्टन इलाके में मौजूद थे. अलवर में बचपन से ही शौचालय साफ करने और सिर पर मैला ढोनेवाली सफाई कर्मियों को उनके परंपरागत धंधे से मुक्त करवाकर उन्हें समाज की मुख्य धारा में जोड़ने में लगे श्री पाठक ने इन्हें ‘अलवर की राजकुमारियां’ नाम दिया है. पाठक उन्हें यहां लेकर आए थे ताकि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर उन्हें सम्मानित किया जा सके. मदन झा ने बताया कि उन लोगों का तो 2-3 जुलाई को ही दिल्ली लौटने का कार्यक्रम था लेकिन 25-26 जून की रात में एक ही विमान में यात्रा कर रहे पासवान जी और पाठक जी की मुलाकात में पासवान जी के आग्रह पर वे लोग इस सम्मेलन में शिरकत के लिए कुछ दिन और रुक गए थे. पाठक जी की टीम में हमारे मित्र और बिहार के स्वनामधन्य छायाकार कृष्ण मुरारी किशन और जीएन झा भी थे जिन्होंने विमान में ही उनका फोटो सेशन भी किया था. पासवान जी के आग्रह पर पाठक जी भी अपनी टीम के साथ सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में शामिल हुए थे.
मदन जी ने ही बताया कि 4 जुलाई को अमेरिका के राष्ट्रीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हडसन नदी में बहुत शानदार आतिशबाजी होती है. यह आतिशबाजी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सामने स्थित मिलेनियम यूएन प्लाजा होटल में उनके कमरे से बेहतर दिखेगी. उनका आग्रह था कि कुछ साथी अगर चाहें तो उनके साथ चल रही टैक्सी (लिमोजिन कार) में उनके साथ चल सकते हैं. दलित अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम का मुख्य उद्घाटन सत्र तो हो ही चुका था, हम छह सात लोग-प्रदीप श्रीवास्तव, आशुतोष, सुभाशीष मित्रा, आरती कपूर, वंदिता मिश्रा, शेख मंजूर तैयार हो गये. तैयार तो गीताश्री भी हो गई थीं लेकिन गाड़ी में सिर्फ एक जगह बच रही थी जबकि उनके साथ उनके एक स्थानीय मित्र सुब्रत भी थे. जगह नहीं बनते देख उन्होंने कुछ और कार्यक्रम बना लिया.
लिमोजिन से लॉंग आईलैंड से मैनहट्टन के रास्ते में मदन झा,आरती कपूर, हम और जीएन झा तस्वीर आशुतोष ने ली थी |
न्यूयॉर्क और इसके लोवर मैनहट्टन की तो बात ही निराली है. दुनिया के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक के पास बसा न्यूयार्क शहर आबादी के मामले में सबसे बड़ा शहर है. हडसन नदी यहां अटलांटिक महासागर में मिलती है. 1785 से 1790 तक संयुक्त राज्य अमेरिका का राजधानी शहर भी रहे न्यूयॉर्क को हमारी मुंबई की तरह इस देश की व्यावसायिक और सांस्कृतिक राजधानी का भी दर्जा प्राप्त है. गगन चुम्बी अट्टालिकाएं यहां अतिरिक्त आकर्षण का केंद्र हैं. लांग आईलैंड में रेडिसन होटल से मैनहट्टन में हडसन नदी के पास स्थित संयुक्त राष्ट्र और उसी के सामने स्थित होटल ‘मिलेनियम यूएन प्लाजा’ की तकीबन 64 किमी की दूरी तय करने में तकरीबन सवा घंटे का समय लगता है. रास्ते में लांग आई लैंड और न्यूयार्क-मैनहट्टन को जोड़नेवाली ‘ईस्ट रिवर’ को पार करने के लिए तकरीबन दो किमी लंबी सुरंग ‘क्वींस मिडटाउन टनेल’ से होकर गुजरने के लिए टैक्सीवाले को टोल टैक्स चुकाने के लिए रुकना पड़ा था. इस सुरंग से गुजरना भी एक अनुभव था. दो लेन जाने और दो लेन आने के लिए 1940 में बनी इस सुरंग से रोजाना तकरीबन 70 हजार वाहन आ-जा रहे थे.
नोट ः अगली कड़ी में न्यूयॉर्क के मैनहट्टन में टाइम्स स्क्वायर, वाल स्ट्रीट पर भ्रमण के साथ ही लांग आई लैंड से वाशिंगटन की यात्रा, अमेरिकी सत्ता के प्रतीक ह्वाइट हाउस तथा अन्य इलाकों में भ्रमण से जुड़े कुछ रोचक संस्मरण.
Very informative article...
ReplyDeleteअच्छा लगा...पुस्तक के रूप मे भी आना चाहिए।
ReplyDeleteसर,रोचक संस्मरण!
ReplyDeleteअत्यंत ही रोचक तथा शानदार यात्रा वृतांत बाबा जी
ReplyDeleteअत्यंत ही रोचक तथा शानदार यात्रा वृतांत बाबा जी
ReplyDeleteशानदार यात्रा संस्मरण आपके द्वारा प्रस्तुत किया गया है बाबा जी .
ReplyDeleteअमेरिका के तात्कालिक ऐतिहासिक , राजनीतिक पक्ष को रखने के साथ साथ दलित चिंतन कार्यक्रम से जुड़ी महत्वपूर्ण जानकरियाँ भी आपके द्वारा साँझा की गई हैं .
बहुत सजीव वर्णन किया है आपने ।
ReplyDeleteअच्छा लगा भईया, आपको पढ कर ,.... हम आपको बहुत खोजते रहे पर, मुलाकात नहीं हो सकी | हम त्रिवेणी प्रसाद एडवोकेट ,. सन्2001 मे मुलाकात हुई थी , एक लम्बे सामाजिक आंदोलन के संदर्भ मे |लखनऊ रहता हू | कभी आपके पांव पखार सकू , ऐसी अभिलाषा है |
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