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Saturday, 12 December 2020

कमाल अता तुर्क के देश तुर्की में (दूसरी किश्त), In Turkey Part II


सूफी संत मौलाना रूमी के शहर कोन्या में 


जयशंकर गुप्त


    
    यह
सच है कि तुर्की पहला मुस्लिम देश था जिसने सबसे पहले इजराइल को मान्यता दी थी. और सरकार के स्तर पर 'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के एशियाई कारवां को किसी तरह का समर्थन-सहयोग भी नहीं था. तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोगन उस समय देश के प्रधानमंत्री थे. लेकिन नागरिकों के स्तर पर यहां के अधिकतर लोग इजराइल के विरोध में और फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष के समर्थक रहे हैं. डेढ़ साल पहले समुद्री रास्ते से गाजा में फिलीस्तीनियों के लिए राहत सामग्री लेकर जा रहे तुर्की के काफिले मावी-मरमारा पर इजराइल के नेवी कमांडो के हमले में नौ तुर्की नागरिकों की हत्या के बाद जनजीवन में इजराइल के खिलाफ आक्रोश और बढ़ा है. इसका एक उदाहरण अंकारा में इजराइली दूतावास के बाहर एशियाई कारवां के प्रदर्शन में स्थानीय लोगों की भागीदारी के रूप में भी देखने को मिला. 
अंकारा में एशियाई कारवां का स्वागत


    अनातोलिया में स्थित अंकारा तुर्की की राजधानी होने के साथ ही एक प्रमुख व्यापारिक और औद्योगिक केंद्र भी है. यहां पर सभी विदेशी दूतावास भी स्थित हैं. तुर्की के राजमार्गों एवं रेलमार्ग के जाल के मध्य में स्थित होने के कारण यह शहर व्यापार का प्रमुख केंद्र है. कभी इसे अंगोरा शहर के नाम से भी जाना जाता था. लम्बे बालों वाली अंगोरा बकरी और उसके कीमती ऊन, अंगोरा खरगोश, नाशपाती और शहद के लिये प्रसिद्ध इस प्राचीन शहर को कमाल पाशा ने 1923 में इसकी भौगोलिक और सामरिक स्थिति को देखते हुए ही देश की राजधानी बनाया था.

    
मुस्तफा कमाल अता तुर्क की प्रतिमा के नीचे, दाएं से 
जलगांव (महाराष्ट्र) के मित्र रागिब बहादुर, 
केरल के पत्रकार अब्दुल नजीर और एक छायाकार मित्र के साथ

    अंकारा में रात हमारे ठहरने का इंतजाम अंकारा-इस्तांबुल राष्ट्रीय राजमार्ग से लगी एक भव्य मस्जिद के निकाह हाल में किया गया था. पता चला कि वहां मस्जिदें केवल इबादत और नमाज अदा करने की जगह ही नहीं बल्कि सामाजिक मेलजोल की जगह भी होती हैं. जिसमें शापिंग कांप्लेक्स के साथ ही शादी-विवाह जैसे सामाजिक समारोह भी होते हैं. मस्जिद में नहाने के लिए गरम पानी के अलावा हर तरह की सुविधा उपलब्ध थी. हां, स्टोरी फाइल करने के लिए हमें उससे कुछ दूर जाना पड़ता था, जहां फैक्स और इंटरनेट की व्यावसायिक सुविधा उपलब्ध थी. खाने-पीने की दिक्कत भी होती थी, हालांकि तमाम तरह के मांसाहार के बीच अंडा, मछली के साथ ही फल, सलाद और कहीं-कहीं शाकाहार भी मिल जाता था. हमें किसी ने शुरू में ही सलाह दी थी कि नाश्ते से लेकर भोजन में भी ताजा फलों के साथ ही ओलिव यानी जैतून के फल, अंचार और तेल का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए जो पूरे पश्चिमी एशिया में बहुतायत उपलब्ध होता और स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत मुफीद होता था. हमने इस सुझाव पर बड़ी गंभीरता से अमल किया. 

   

 एशिया-यूरोप के संगम इस्तांबुल में


    
एरझुरुम के पास सड़क किनारे रेस्तरां में चाय की चुस्की के बाद
इंडोनेशिया के मित्र मोहम्मद मारूफ और दिल्ली के पत्रकार
साथी अब्दुल बारी


    अंकारा से आगे बढ़ते हुए हमारा कारवां तकरीबन 450 किमी दूर इस्तांबुल पहुंचा. पूरी दुनिया में एशिया माइनर के रूप में मशहूर तुर्की की आर्थिक और औद्योगिक राजधानी कहे जाने वाले तकरीबन डेढ़ करोड़ की आबादीवाले इस्तांबुल शहर को दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं वाले दस सबसे खूबसूरत शहरों में भी शुमार किया जाता है. इस्तांबुल वर्ष 1923 तक ओटोमन साम्राज्य के जमाने में तुर्की की राजधानी हुआ करता था लेकिन बीसवीं सदी में 29 अक्टूबर 1923 को हुई क्रांति के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने कूटनीति एव युद्धनीति के मद्देनजर राजधानी को यहां से 450 किमी दूर अंकारा में स्थानांतरित कर दिया था. तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के पश्चिमी सभ्यता पर आधारित सुधारों की छाप भी साफ दिखती है. ईरान के उलट तुर्की में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव भी साफ नजर आते हैं. ईरान में जहां औरतें बुर्के में और सिर को हिजाब से ढके मिलती थीं, तुर्की में औरतों के बाल खुले भी नजर आए. यहां मस्जिदों में अजान नहीं होती. हालांकि अब यहां के जनजीवन पर भी इस्लामी क्रांति और संस्कृति का दबाव तेजी से बढ़ रहा है. 

    इस्तांबुल पुराना शहर है. समुद्र किनारे स्थित होने के कारण यहां बड़े बंदरगाह हैं जहां बड़े-बड़े जहाजों का आवागमन लगा रहता है. इस कारण भी यह शहर अपने मुंबई जैसा भी लगता है. धार्मिक रूप से भी इस शहर का बड़ा महत्व है. यहां अया सोफिया और सुल्तान अहमद मस्जिद उर्फ विश्व प्रसिद्ध ‘ब्ल्यू मास्क’ पूरी दुनिया में इस शहर की पहिचान बन चुकी हैं. नीले पत्थरों से बनी इस मस्जिद का निर्माण वर्ष 1609 से 1616 के बीच किया गया. इस्तांबुल आनेवाले पर्यटकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आकर्षण केंद्र है.

  
यूरोप-एशिया का मिलन स्थल, इस्तांबुल  (तस्वीर इंटरनेट से)
    इस्तांबुल की खाड़ी पर बने 'बोस्फोरस स्ट्रेट' पुल को यूरोप और एशिया का संधि या संगम स्थल भी कहा जाता है. पुल पार करते ही लिखा मिलता है, ‘यूरोप में आपका स्वागत है’ तुर्की में वाकई यूरोप और एशिया की सभ्यता और संस्कृति का मेल नजर आ रहा था. इसे आधुनिकता और रुढ़िवादी पारंपरिकता का संगम भी कह सकते हैं. एक तरफ बुर्के और हिजाब में लिपटी महिलाओं से लेकर स्किन टाइट डेनिम की जींस और उससे मैच करते टॉप्स पहने, बालों में अलग-अलग रंगों की डाई किए हुए महिलाओं का मिला-जुला माहौल देखने को मिला, तो दूसरी तरफ दाढ़ी और पारंपरिक वेशभूषावाले और पाश्चात्य संस्कृति में रंगे पुरुष भी नजर आए. तुर्की के खान-पान और भारत के खान-पान में काफी समानताएं नजर आईं. आलू, प्याज, टमाटर, गोभी की सब्जियां, नमक, मिर्च और मसाले भी यहां खान-पान में शामिल हैं. यहां भी रोटियां घरों में नहीं बनतीं बल्कि बैकरी और सार्वजनिक चूल्हों से खरीदकर लाई-खाई जाती हैं. इस्ताम्बुल पहुंचने के रास्ते में समुद्र किनारे फोर्ड, होंडा, टोयोटा जैसी बहु राष्ट्रीय कंपनियों के साइनबोर्डों के बीच अनिवासी भारतीय उद्योगपति लक्ष्मीनिवास मित्तल की आर्सेलर फैक्ट्री का साइनबोर्ड भी नजर आता है जबकि शहर में गुजरते हुए टाटा की इंडिगो कार का नजर आना आश्चर्य मिश्रित सुखानुभूति पैदा कर रहा था. इस्ताम्बुल में भी हमारे ठहरने का इंतजाम एक भव्य शिया मस्जिद में किया गया था जिसमें तकरीबन सारी सहूलतें-सुविधाएं उपलब्ध थीं. वहां ‘वाय फाय’ के जरिए इंटरनेट की सुविधा भी थी, हालांकि वहां नेट पर काम करना कई तरह के ‘वायरसों’ को आमंत्रित करने जैसा भी था.
इस्तांबुल में मरमारा समुद्र के किनारे

    
    जिस दिन 25 मार्च, रविवार को, हम इस्तांबुल भ्रमण पर निकले, वह दिन वहां सार्वजनिक अवकाश का था ( आम तौर पर मुस्लिम देशों में साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार को होता है लेकिन यह कमाल पाशा के सामाजिक-धार्मिक सुधारों का ही असर था कि तुर्की में साप्ताहिक अवकाश रविवार को होता है.) काफी लंबी दूरी तक फैले समुद्र किनारे सूखे पेड़ों के हल्के झुरमुटों के बीच जैसे पूरा इस्तांबुल शहर ही उमड़ा पड़ा था. लोग बाग सपरिवार खाने-पीने और खेलने के सामानों से लैस होकर वहां जमे थे. सड़क किनारे उनकी कारें खड़ी थीं. कुछ लोग साथ लाई अंगीठियों पर कबाब भुनने में मशगूल थे तो कुछ अपने बच्चों और कुत्तों के साथ खेलने में. भीड़ का आलम यह था कि तकरीबन रेंग रहे ट्रैफिक के बीच हमारी बसों को सड़क पर कहीं खड़ा हो सकने यानी पार्क करने की जगह ही नहीं मिल सकी. हम बस में बैठे ही घूमते और शहर का नजारा देखते रहे. इस कारण भी हम बाजार की बात तो छोड़ ही दें, अया सोफिया और ‘ब्ल्यू मास्क’ को भी ठीक से नहीं देख सके. समुद्र किनारे एक जगह हमारे साथ चल रही वाल्वो बसों के ड्राइवरों ने हमें इस ताईद के साथ उतार दिया कि ठीक उनके बताए समय और स्थान पर हमें मिलना है. तब तक वे बसों को इधर उधर घुमाते रहे. तयशुदा समय और स्थान पर हम सभी सभी साथी बस में सवार हो गए लेकिन इस क्रम में एक साथी तो छूट से गए थे. बाद में मोबाइल कनेक्टिविटी का लाभ लेकर फिर से उन्हें बस में साथ लिया गया.
रविवार को छुट्टी के दिन इस्तांबुल में मरमारा समुद्र के किनारे
सपरिवार मौज-मस्ती. सड़कों के किनारे पार्किंग की जगह नहीं



मौलाना रूमी के शहर कोन्या में


     एशियाई कारवां 25 मार्च की रात को इस्तांबुल से तकरीबन 700 किमी दूर कोन्या के लिए रवाना हुआ. अगली सुबह हम कोन्या में थे. सेंट्रल अनातोलिया क्षेत्र में तुर्की की राजधानी अंकारा के दक्षिण में तकरीबन 260 किमी दूर स्थित विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक एतिहासिक शहर कोन्या आबादी के हिसाब से तुर्की का सातवां सबसे बड़ा शहर है. उस समय कोन्या की आबादी तकरीबन 12 लाख बताई गई. कोन्या कभी (1071-1275 तक) सुल्तान रम या कहें रूम के सेल्जुक तुर्क सल्तनत की राजधानी रूमी के नाम से प्रसिद्ध था. बताते हैं कि उसी समय इस शहर का नाम कोन्या रखा गया. यहां ऐतिहासिक किले और स्मारक होने के साथ ही कोन्या कालीन उद्योग, आटा मिलों, अल्युमिनियम के कारखाने आदि के कारण कोन्या को तुर्की का औद्योगिक शहर भी कहा जाता है.
सूफी संत, शायर मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मजार पर
लेकिन इस समय दुनिया भर में कोन्या की प्रसिद्धि तेरहवीं सदी के मशहूर सूफी संत-कवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मजार के लिए ही है. इस्लाम में सूफी संतों अहम मुकाम है. सूफी संत मानते हैं कि सूफी मत का श्रोत खुद पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब हैं. दुनिया भर में अनेक सूफी संत हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैगाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फारसी के सुप्रसिद्ध कवि जलालुद्दीन रूमी. वह जिंदगी भर इश्के-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. उनकी शायरी इश्क और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. उनके अनुसार खुदा से इश्क और इश्क में खुद को मिटा देना ही इश्क की इंतिहा है, खुदा की इबादत है. कोन्या में रूमी साहब की मजार पर आकर लगा कि मेरा जीवन धन्य हो गया. उनकी मजार पर और उसके इर्द गिर्द मीते पल मेरी जिंदगी के सबसे सबसे महत्वपूर्ण पलों में शुमार किए जा सकते हैं.  हम खुशकिस्मत थे कि अपने देश में हजरत निजामुद्दीन चिश्ती, अजमेर के ख्वाजा, गरीब नवाज हजरत मोइनुद्दीन चिश्ती और फतेहपुर सीकरी के शेख सलीम चिश्ती जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के सूफी संतों की दरगाह पर मत्था टेक चुके होने के बाद अब तुर्की के कोन्या में मौलाना रूमी की मजार के सामने सजदा करने के अवसर मिला. 

     
कोन्या में मौलाना रूमी की तस्वीर के नीचे
    फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक जलालुद्दीन रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफगानी उन्हें बलखी के नाम से पुकारते हैं. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिंदुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. 1207 ईस्वी में 30 सितंबर को उनका जन्म अफगानिस्तान के बलख़ या बेल्ह शहर में हुआ था. लेकिन बाद के दिनों में अपने पिता बहाउद्दीन बेलेद के साथ तुर्की के अनातोलिया और फिर कोन्या चले आए थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन कोन्या में बिताया. यहीं रहकर उन्होंने अपनी तमाम महत्वपूर्ण रचनाएं लिखीं और यहीं 17 दिसंबर 1273 को अंतिम सांस भी ली थी. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफी मुरीद उन्हें खुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. उनके पुरखों की कड़ी पहले खलीफा अबू बकर तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ एक आलिम मुफ्ती, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफी संत भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी. 
     रूमी का मसनवी में महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने सूफी परंपरा में नर्तक साधुओं-गिर्दानी दरवेशों-की परंपरा का संवर्धन किया था. कोन्या के बीच शहर में उनका भव्य स्मारक और संग्रहालय बना है, जहां दुनिया भर से लाखों पर्यटक-श्रद्धालु हर साल जमा होते हैं. यहां उनकी हस्तलिखित रचनाओं के अलावा उनके कपड़ों और बरतनों को भी बहुत करीने से सहेज कर रखा गया है. उन्होंने मूलतः फारसी में ही लिखा. उनकी प्रमुख रचनाओं में मसनवी, दीवान ए कबीर, रुबाइलर आदि का समावेश है. जाहिर है कि कोन्या को अब मौलाना रूमी के नाम से भी जाना जाता है. यहां तक कि उनकी मज़ार के बगल में एक होटल का नाम भी उनके ही नाम पर रख दिया गया है. संग्रहालय में उनके नाम के लाकेट और चाबियों के छल्ले भी बिक रहे थे. उनकी मजार पर एक जगह उनका मशहूर उद्धरण भी देखने को मिला. मौलाना रूमी ने लिखा, ‘‘मेरे मरने के बाद मेरे मकबरे को जमीन में मत खोजना, उसे लोगों के दिलों में खोजना.’’ उनके करीबी, समर्थक हर साल 17 दिसंबर को उनकी मौत की सालगिरह का जश्न शादी की सालगिरह के रूप में मनाते हैं. मौत से पहले उन्होंने अपनी मौत को 'पिया (प्रियतम, खुदा, ईश्वर) मिलन (शादी)  की रात करार देते हुए अपने समर्थकों से कहा था कि उनकी मौत पर कोई रोएगा नहीं.  

कोन्या की एक बाजार में तफरीह
    खूबसूरत शहर कोन्या में  हम लोग दिन भर रहे. पास की बाजार में भी गए. विंडो शापिंग भी की. अच्छा लगा. पूरा दिन कोन्या में बिताने के बाद 26 मार्च की रात के नौ बजे हमारा कारवां वाल्वो बसों से कोन्या से  तकरीबन 400 किमी दूर दक्षिण तुर्की में उत्तर पूर्वी भूमध्य सागर के तट पर स्थित बंदरगाह शहर मर्सिन के लिए रवाना हुआ. तकरीबन 9 लाख की आबादीवाले ऐतिहासिक एवं प्राचीन मर्सिन शहर को तुर्की के मर्सिन प्रांत की राजधानी और सबसे बड़ा बंदरगाह तथा भूमध्य सागर के लिए तुर्की का मुख्य प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. इस हिसाब से यह तुर्की के व्यावसायिक गतिविधियों वाले प्रमुख शहरों में से भी एक है.

तासुकु बंदर पर जहाज के इंतजार में बीता दिन


    27 मार्च की अल्लसुबह तीन बजे हम मर्सिन शहर से कुछ दूर सिलिफके जिले में स्थित तासुकु या कहें तैसुकु बंदरगाह पहुंच गए. यहीं से हमें पानी के जहाज से लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए रवाना होना था. बताया गया था कि हमें सुबह ही वहां तासुकु बंदरगाह से बेरुत के लिए पानी का जहाज पकड़ना है, इसीलिए हम लोग अल्ल सुबह ही यहां पहुंच गए थे. लेकिन जहाज पकड़ने का समय बदलता गया और हम छोटे, तकरीबन दस हजार की आबादी वाले, मगर बहुत खूबसूरत तासुकु बंदर के सुहाने मौसम और रेस्तराओं का लुत्फ उठाते रहे. तासुकु में भी शौचालयों में पेशाब करने के लिए एक से दो तुर्की लिरा (2012 में तुर्की का एक लिरा 31-32 रु. के बराबर होता था. इस समय तो तुर्की के लिरा के अवमूल्यन के कारण उसकी कीमत 9.50 रु. के आसपास रह गई है) अदा करना पड़ता था. एक तो ठंड का मौसम और ऊपर से पैसे लगने की फिक्र, पेशाब कुछ ज्यादा ही लगती थी. ऐसे में हमें लिला नाम का एक रेस्तरां मिल गया जिसकी मालकिन एयलिन और उनके पति बहुत ही मजेदार और मिलनसार थे. उनके रेस्तरां में चाय भी अच्छी और अपेक्षाकृत सस्ती (आधे लिरा में एक गिलास काली चाय) ईरान, तुर्की और लेबनान में कहीं भी, हमें दूध की मलाईदार चाय देखने को नहीं मिलती थी. एयलिन के रेस्तरां में डब्ल्यू सी (अरब देशों में टॉयलेट को लोग डब्ल्यू सी के नाम से अधिक जानते हैं) की सुविधा भी थी और इसके लिए वह कोई अतिरिक्त पैसे भी नहीं लेती थी इसलिए जब कभी जरूरत होती हम चाय के बहाने उनके रेस्तरां में पहुंच जाते और चाय का आर्डर करते. हमारा मकसद भांप कर एक बार तो एयलिन ने मुस्कराते हुए कहा भी, ‘‘टॉयलेट यूज करने के लिए चाय जरूरी नहीं है. आप हमारे मेहमान हैं. बिना चाय पिए भी हमारा टॉयलेट यूज कर सकते हैं.’’ 

    तासुकु छोटा सा बंदर शहर है जो आमतौर पर पर्यटकों और बंदरगाह पर लेबनान और साइप्रस आने-जाने वाले जहाजियों-यात्रियों से ही गुलजार रहता है. एयलिन के अनुसार गर्मी के दिनों में यहां रहिवासियों की संख्या 40-50 हजार तक पहुंच जाती है जबकि सर्दियों में कम होकर 10 हजार तक रह जाती है. बातचीत के क्रम में एयलिन ने बताया कि मर्सिन और तासुकु में भी घूमने और देखने के लायक बहुत कुछ है.तासुकु में आधुनिक तुर्की के निर्माता अता तुर्क कमाल पाशा के नाम का एक संग्रहालय भी है. कमाल पाशा मर्सिन और तासुकु की आबोहवा से बहुत प्रभावित थे. अपने अंतिम समय में वह यहां चार बार आए थे और परिवार के साथ कई कई दिन ठहरे थे. सन् 2000 में सरकार ने उस तीन मंजिला मकान को उनके नाम का संग्रहालय घोषित कर दिया जिसमें वह यहां आने पर ठहरते थे. लेकिन हम चाहकर भी अता तुर्क संग्रहालय नहीं जा सके. अगर पता होता कि लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए हमारा जहाज काफी देर बाद रवाना होगा तो हम लोग न सिर्फ अता तुर्क संग्रहालय बल्कि मर्सिन में भी घूम कर अपने समय का सदुपयोग कर सकते थे. लेकिन बार-बार यही कहा जाता कि कुछ ही देर में हमारा जहाज पहुंचनेवाला है और हमें तुरंत ही उसमें सवार होना पड़ेगा. असमंजस की स्थिति बने रहने के कारण हम लोग तासुकु में यूं ही वक्त जाया करते रहे. तासुकु में समुद्र किनारे समय बिताते अचानक दिन में पौने दो बजे बंदरगाह के पास से धुएं का गुबार उठते दिखा. हम लोग दौड़ कर गए, पता चला कि जहाज पर लदने जा रहे पेप्सीकोला के रेफ्रिजरेटरों से लदे एक वैन में आग लग गई थी. मिनटों में ही पुलिस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां आ गईं. देखते-देखते ही आग पर काबू पा लिया गया. लेकिन तब तक सारे रेफ्रिजरेटर जलकर खाक हो गए थे.
तासुकु बंदरगाह पर जहां हम जहाज पकड़नेवाले थे,
पेप्सी के रेफ्रिजरेटरों से भरे कंटेनर में आग लग गई 

    
    

बेरुत के लिए  रवानगी          

    हम रात के ग्यारह बजे बेरुत जाने वाले 250 सीटों के फर्गुन यात्री जहाज या कहें बड़े स्टीमर में सवार होने तक तासुकु बंदर पर ही रहे. इमिग्रेशन जांच के दौरान कतार में सबसे पहला व्यक्ति मैं ही था. सामानों की एक्सरे जांच के क्रम में न जाने क्या दिखा कि अधिकारियों ने मुझे रोक लिया और मेरा सूटकेस खोलकर दिखाने को कहा. पता चला कि तेहरान के मेयर के द्वारा दिया गया बुर्ज ए मिलाद टावर का मोमेंटो उन्हें खटक रहा था. इस मोमेंटो में नीचे लगी इलेक्ट्रिक बैट्री से वह जलता-बुझता भी है. उसे बाहर निकालकर देखने के बाद अधिकारी संतुष्ट हो गए. हमने उन्हें बताया कि यह मोमेंटो हमारे साथ बेरुत जा रहे तकरीबन सभी लोगों के बैगेज में मिलेगा. इसके बाद उन्होंने उसकी जांच बंद कर दी और हम लोग पानी के जहाज 'फर्गुन' पर सवार होकर लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए निकल पड़े. 


बेरुत बंदरगाह पर जहाज 'फर्गुन' के डेक पर

नोट ः लेबनान की राजधानी बेरुत के  रास्ते में समुद्री जहाज फर्गुन में  इजराइल के आशंकित हमले से लेकर अन्य तमाम तरह की आशंकाओं के बीच बेरुत को लेकर मन में बहुत सारी बातें  दिमाग में तैर  रही थीं. 

बेरुत और उसकी  सुहानी रुत के बारे में बहुत अच्छी -अच्छी बातें सुन रखे थे. लेकिन बेरुत बंदरगाह पर पहुंचने पर जिन परिस्थितियों से सामना हुआ, किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था. तकरीबन 40 घंटे हम लोग एक छोटे से जहाज में 'बंधक' से रहे. बेरुत की सरजमीं पर पैर भी नहीं रख सके. इस दुःस्वप्न से लेकर लेबनान की राजधानी बेरुत में बीते रोमांचक पलों से जुड़े संस्मरण अगली किश्त में .





Saturday, 5 December 2020

पश्चिम एशिया ( तुर्की) में बीते दिन ( In West Asia, Turkey )

  कमाल अता तुर्क के देश में


जयशंकर गुप्त

इस्तांबुल में एशिया-यूरोप का संगम सामने दिख रही सुल्तान अहमद मस्जिद

        अता तुर्क (राष्ट्र पिता) के नाम से सम्मानित तुर्की गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति कमाल पाशा के देश में जाने, मुस्लिम देश होने के बावजूद धर्मनिरपेक्ष देश होने, कमाल पाशा के सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक सुधारों, ईरान की इस्लामी क्रांति के तुर्की पर पड़ रहे प्रभावों आदि को लेकर मन में उठ रही जिज्ञासा के साथ 22 मार्च की सुबह को हम ईरान के बजरगान से लगनेवाली तुर्की की सीमा में प्रवेश के लिए सीमा आव्रजन (इमिग्रेशन) कार्यालय पर थे. वीसा को लेकर शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पड़ा. तथाकथित ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के बावजूद पाकिस्तान के जत्थे को तुर्की सरकार ने वीसा नहीं दिया. लिहाजा उन्हें तेहरान से सीरिया की राजधानी दमिश्क होकर लेबनान जाना पड़ा. तेहरान में रह कर पढ़ाई कर रहे पाकिस्तानी छात्र मोहतशिम और उनकी लेबनानी बीवी तो हमारे साथ ईरान-तुर्की की सीमा तक आए भी लेकिन उनके पास चूंकि पाकिस्तानी पासपोर्ट था, उन्हें भी लौटा दिया गया. वीसा की समस्या हमारे और फिल्मकार राजकुमारी अस्थाना के सामने भी आई क्योंकि हमारा नाम मार्च में शामिल होने वालों की सूची में बाद में जुड़ा था. लोग तमाम तरह की अटकलें लगा रहे थे. यह भी लगा कि हमें भी वापस हमारे हिन्दुस्तान भेजा जा सकता है. माथे पर पसीने की लकीरें बढ़ रही थीं. हालांकि सुरेश खैरनार जी एवं फीरोज मिठीबोरवाला आश्वस्त कर रहे थे कि हमारे साथ ऐसा नहीं होगा और जरूरत पड़ी तो वे लोग इसका भी इंतजाम करेंगे.

ईरान की सीमा से लगी तुर्की की सीमा पर आव्रजन कार्यालय के बाहर

एशिया और यूरोप का संगम !



    लेकिन इस तरह के उहापोह के बीच सबके साथ हमें भी उस समय घनघोर आश्चर्य हुआ जब हमें हमारा पासपोर्ट देखते ही तत्काल, बिना किसी हीला-हवाली के, वीसा क्लीयरेंस मिल गया. पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारे पासपोर्ट पर अमेरिका का वीसा लगा हुआ था. माना गया कि जो अमेरिका हो आया है, वह तुर्की के लिए भी ‘खतरनाक’ नहीं होगा. तुर्की उन मुस्लिम देशों में संभवतः पहला था जिसने सरकार के स्तर पर इजराइल को सबसे पहले मान्यता दी थी. 


तुर्की के आब्रजन कार्यालय के बाहर





    यूरेशिया
में स्थित तुर्की या कहें टर्की को एशिया और यूरोप का संगम भी कहते हैं. इसका कुछ भाग यूरोप में तथा अधिकांश भाग एशिया में पड़ता है, इसलिए इसे यूरोप एवं एशिया के बीच का 'पुल' भी कहा जाता है. इसके वाणिज्यिक राजधानी शहर इस्तांबुल के इजीयन सागर (Aegean sea) के बीच में आ जाने से इस पर बने पुल के दो भाग हो जाते हैं, जिन्हें साधारणतया यूरोपीय टर्की (थ्रेस) तथा एशियाई टर्की (अनातोलिया) कहते हैं. तुर्की के तकरीबन 473896 वर्ग किमी के क्षेत्रफल में यूरोपीय टर्की (पूर्वी थ्रैस) का क्षेत्रफल 14524 वर्ग किमी तथा एशियाई टर्की (अनातोलिया) का क्षेत्रफल 459387 वर्ग किमी बताया जाता है. तुर्की की सीमाएं पूर्व में रूस और ईरान, दक्षिण की ओर इराक, सीरिया तथा भूमध्यसागर, पश्चिम में ग्रीस और बुल्गारिया और उत्तर में कालासागर से लगती हैं. तुर्की की तकरीबन 7.5 करोड़ की आबादी में सर्वाधिक आबादी तुर्कों की है जबकि कुर्द, अर्मेनियाई, अल्बेनियाई, अरब, अजरबैजानी, बुल्गार और अन्य अल्पसंख्यक समूहों के लोग भी बड़ी मात्रा में रहते हैं. आधिकारिक भाषा तुर्की है लेकिन कुर्द, अरबी, अजेरी, आदि भाषाएं भी बोली, लिखी जाती हैं. लेकिन धर्म के मामले में नब्बे फीसदी से अधिक आबादी मुस्लिम होने के बावजूद तुर्की का कोई आधिकारिक धर्म नहीं है. शासन के स्तर पर धर्मिनरपेक्षता पर अमल होता है. धर्म वहां सरकारी नहीं बल्कि व्यक्तिगत नैतिकता, व्यवहार तथा विश्वास तक सीमित है.

    तुर्की दुनिया के सबसे पुराने बसे हुए क्षेत्रों में से एक माना जाता है. तुर्की के हजारों वर्षों इतिहास में कई सभ्यताओं के बीच टकराव और संघर्ष दर्ज हैं जिनमें से दो प्रमुख थीं-यूनानी, रोमन और तुर्क. ईसा से 1200 वर्ष पूर्व यूनानियों ने यहां अनेक शहर बसाए, जिनमें एक का नाम था बाइजैन्टियम. बाद में यही शहर इस्तांबुल कहलाया. यूनानियों के बाद यहां कोंस्तांतिन प्रथम के नेतृत्व में रोमन साम्राज्य का आधिपत्य हुआ तब बाइजैन्टियम का नाम कोंस्टनटिनोपल या कुस्तुनतुनिया रखा गया, तब तक रोमन साम्राज्य के ईसाई धर्म ने तुर्की में अपनी पकड़ जमा ली थी. 

    समय बीता और इतिहास का चक्र आगे बढ़ा. सन् 900-1,000 के आसपास सेल्जुक तुर्कों ने रोमन साम्राज्य को हराकर तुर्की का तुर्कीकरण और इस्लामीकरण, दोनों प्रारंभ किया. कुछ समय बाद मंगोल आक्रमणकारी तुर्की तक आ पहुंचे. सेल्जुक तुर्क मंगोलों से हार गए. वैसे तो मंगोल योद्धा विजेता बनने के बाद वापस लौट गए. बाद में सेल्जुक साम्राज्य के उस्मान प्रथम ने उस्मानी (ऑटोमन) राजवंश की नींव रखी, जिसने तुर्की पर अगले लगभग 650 वर्ष राज किया. प्रथम विश्व युद्ध में उस्मानियों ने जर्मनी का साथ दिया और युद्ध में हार के बाद विराम संधि के अंतर्गत उस्मानी साम्राज्य के कुछ भाग ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, ग्रीस आदि में बंट गए. 1922 में तुर्की की सेना में फील्ड मार्शल रहे, क्रांतिकारी और प्रगतिशील विचारों वाले राजनेता मुस्तफा कमाल पाशा ने जंगे आजादी का ऐलान किया और तुर्की की आजादी हासिल की. और इस तरह 29 अक्तूबर 1922 को तुर्की स्वतंत्र एवं संप्रभु गणराज्य के रूप में अस्तित्व में आया. अंकारा देश की राजधानी घोषित हुई और आधुनिक तुर्की गणराज्य के प्रथम राष्ट्रपति बने मुस्तफा कमाल पाशा. वह मृत्यु पर्यंत, 1938 तक तुर्की के राष्ट्रपति रहे. बाद में उन्हें अता तुर्क यानी राष्ट्रपिता के सम्मान से नवाजा गया.

खास है ‘अया सोफिया’


    
चर्च, मस्जिद और संग्रहालय, मस्जिद का रूप बदलती रही
अया उर्फ हागिया सोफिया
    तुर्की के गौरवशाली लेकिन हमलों और आपसी टकराव के साक्षी रहे इतिहास की गवाह ‘अया या कहें हागिया सोफिया’ भी है, जो विश्व की सर्वश्रेठ स्थापत्य कलावाली इमारतों में से एक है. बताया जाता है कि छठी शताब्दी में बाइजैन्टिन शहंशाह जस्टिनियन प्रथम एक ऐसा गिरजाघर बनाना चाहते थे, जो रोम की इमारतों से भव्य हो और जो स्वर्ग की सुंदरता धरती पर ले आए. उनकी देख रेख में कई वर्षों (532-537) के निरंतर निर्माण के बाद एक ऐसी इमारत बनी, जिसे देख कर शहंशाह मुग्ध हो उठे. ईसाई धर्म के धार्मिक दृष्य दर्शाने वाले कुट्टभि चित्र (मोजेक), ऊंचे स्तंभ, जिन पर टिका है, इस इमारत का विशेष आकर्षण, इसका ऊंचा गुंबद. आज से 1500 साल पहले इस गुंबद की परिकल्पना और निर्माण शायद किसी जादूगर ने ही की होगी! 

    कांस्टेंटिनपोल के तुर्की पर जीत के बाद 1453 में उस्मानी राजवंश ने इस्तांबुल पर कब्जा किया तो यहां के नागरिकों ने ‘अया सोफिया’ में जमकर लूट-पाट की. मेहमूद द्वितीय के आदेश पर इस गिरजाघर को मस्जिद में बदल दिया गया. ईसा मसीह और मरियम के चित्र तोड़े तो नहीं गए, पर प्लास्टर से ढक जरूर दिए गए. दीवारों पर कुरान की आयतों के टाइल लगा दिए गए. मुअज्जिन के लिए स्थान बनाया गया. चार मीनारें बनीं और लगभग 500 वर्ष तक इसे इस्लाम धर्म की प्रमुख मस्जिदों में गिना गया. लेकिन सत्तारूढ़ होने के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने एक क्रांतिकारी निर्णय लिया कि ‘अया सोफिया’ जैसी खूबसूरत इमारत न तो मस्जिद होगी और न ही गिरजाघर. 1935 में उसे सरकारी संग्रहालय घोषित कर दिया गया. अभी पूरी दुनिया से करोड़ों पर्यटक इसे देखने यहां आते हैं. इस खूबसूरत इमारत का आनंद लेते हैं जिसमें ईसाई और इस्लाम धर्म दोनों समाविष्ट हैं. बाद में उसे यूनेस्को संरक्षित विश्व इमारतों में शामिल कर लिया गया. (इधर, जुलाई 2020 में तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचप तैयप एर्दोगन ने एक बार फिर से अया सोफिया का रूपांतरण मस्जिद के रूप में करने का विवादित फरमान जारी कर दिया जिसका देश-विदेश में भी भारी विरोध हुआ. दरअसल, एर्दोगन अरब देशों में अपने कट्टरपंथी विचारों के साथ नया खलीफा बनने के प्रयासों में दिख रहे हैं. हालांकि उन्होंने फिलीस्तीन के सवाल पर किसी तरह का समर्थन-सहयोग नहीं किया है).

अया सोफिया के सामने 'ब्ल्यू मास्क'


    हालांकि उस्मानी साम्राज्य के एक सुल्तान अहमद ने इस्तांबुल में एक और मस्जिद बनाने का निर्णय लिया, जबकि उस समय की सबसे बड़ी मस्जिद ‘अया सोफिया’ वहां पहले से मौजूद थी. सुल्तान अहमद ने इसका निर्माण भी ‘अया सोफिया’ के बिल्कुल सामने किया. इसलिए इसे सुल्तान अहमद मस्जिद भी कहा जाता है. सुल्तान इस मस्जिद को स्थापत्य के मामले में अया सोफिया से भी शानदार इमारत बनाना चाहते थे. बना भी बहुत खूब, उस्मानी वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण. पंचमुखी गुंबद, आठ छोटे गुंबद और छह मीनारें. लेकिन जब मक्का के तत्कालीन उलेमाओं ने इस मस्जिद पर छह मीनारें देखीं तो कुपित हो गए क्योंकि मक्का की मस्जिद-अल-हरम में उस समय छह मीनारें ही थीं और अन्य मस्जिदों में चार. उनका तर्क था कि कोई मस्जिद मक्का की मस्जिद-अल-हरम की बराबरी कैसे कर सकती है. उस जमाने में मक्का-मदीना उस्मानी राजवंश के जिम्मे ही था. तत्कालीन सुल्तान ने समस्या के समाधान के लिए एक समझौते के तहत हुक्म देकर मक्का की मस्जिद-अल-हरम में सातवीं मीनार का निर्माण करवाकर उसकी श्रेष्ठता साबित की. तब जाकर समस्या टली!

    सुना था कि अया सोफिया की तरह ही इस विशाल नयनाभिराम मस्जिद की खूबसूरती देखते ही बनती है. कहते हैं कि इसका निर्माण ताजमहल बनाने वाले शिल्पकारों ने किया था. इसे नीली मस्जिद (ब्ल्यू मास्क) भी कहा जाता है. बाहर से तो नीला कुछ भी नहीं हैं, पर अंदर जाने पर नीले रंग के हजारों टाइल्स देखने को मिलते हैं, जिनमें फूल-पौधों की आकृतियां बनी हैं. इसमें अभिरंजित कांच जड़ित खिड़कियों से रोशनी छनकर मस्जिद के अंदर आती है. इस मस्जिद में पर्यटकों को भी जाने की छूट है. सच तो यह है कि दुनिया भर से हर साल 40-50 लाख पर्यटक और श्रद्धालु इस मस्जिद की महत्ता, भव्यता, इसके स्थापत्य को देखने और सजदा करने आते हैं. इसके लिए पर्यटकों से कोई शुल्क नहीं लिया जाता लेकिन मस्जिद में प्रवेश के लिए उनके लिए निर्धारित वस्त्र धारण करना आवश्यक है. अगर किसी के पास निधार्धारित वस्त्र नहीं हैं तो वहां पर्यटकों के लिए निशुल्क दुपट्टा और लुंगी मिलती है ताकि मस्जिद की पवित्रता का सम्मान हो सके. लेकिन नमाज के समय पर्यटकों को अंदर जाने की अनुमति नहीं है. हम लोग भी ‘ब्ल्यू मास्क’ और अया सोफिया के भीतर नहीं जा सके लेकिन उसके कारण कुछ और थे जिसका जिक्र आगे करेंगे.

कहर ढाती कड़ाके की ठंड


एरझुरुम शहर के बाहर सड़क के किनारे, पीछे बिछी बर्फ की चादरें
    बहरहाल, ठंड तो ईरान और उसके बजरगान इलाके में भी कम नहीं थी लेकिन तुर्की में प्रवेश के समय से ही तापमान तेजी से नीचे गिरने लगा था. दो-तीन दिन पहले ही पूरे इलाके में जबरदस्त बर्फबारी हुई थी. हालांकि मार्च महीने में इन इलाकों में इस तरह की बर्फबारी अनहोनी के रूप में ही देखी जा रही थी. तुर्की में राजधानी अंकारा पहुंचने तक अधिकतर जगहों पर तापमान शून्य और इससे कम ही मिला. बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच गुजरते हुए हमारे कारवां का पहला पड़ाव तुर्की के पूर्वी अनातोलिया क्षेत्र में इग्दिर प्रांत की राजधानी इग्दिर के पास ‘फाइव स्वर्ड’ नामक स्मारक के पास रुका जहां बड़ी संख्या में आए तुर्की के लोगों ने कारवां का स्वागत बड़े जोश-खरोश के साथ किया. आसमान की तरफ उठी 40 मीटर लंबी पांच तलवारों के साथ बना यह स्मारक 1915 में आरमेनियाई सैनिकों द्वारा मारे गए तुर्की के तीन हजार लोगों की स्मृति में बनाया गया है. इग्दिर से तकरीबन 290 किमी आगे बढ़ने पर रात में एरझुरुम शहर में तापमान शून्य से 9 डिग्री सेल्सियश नीचे तक चला गया था. इसी एरझुरुम शहर में 2010 के ‘विंटर ओलंपिक’ खेलों का आयोजन हुआ था. एरुझुरुम में हम लोग थोड़ी देर रुके. एक पार्क में जमी बर्फ में पांव धंसाकर खड़े हुए, वहां सभा भी हुई. रात का खाना भी हुआ. लगा कि रात्रि विश्राम भी वहीं होगा. लेकिन हम वहां रुके नहीं, रात में ही अंकारा के लिए रवाना हो गए. रात भर वातानुकूलित वाल्वो बस में सफर करते हुए तकरीबन 870 किमी दूर तुर्की की राजधानी अंकारा पहुंचने के बाद ही ठंड में कुछ कमी महसूस की जा सकी. 
इग्दिर में 'फाइव स्वर्ड' के पास कारवां का प्रदर्शन



हर बात के पैसे !


    तुर्की में हर बात के पैसे लगते हैं. यहां तक कि बजरगान से सीमा पार कर तुर्की में प्रवेश के समय आब्रजन कार्यालय से लगी कैफीटेरिया के नीचे तलघर में बने मूत्रालय-शौचालय की सुविधा का इस्तेमाल करने पर दो लिरा (तुर्की की मुद्रा, उस समय भारतीय रु. के हिसाब से देखें तो तकरीबन 60-65 रु.) मांगे गए. हमारे पास लिरा नहीं था तो हमने दो (भारतीय) रु. का सिक्का थमा दिए लेकिन बात नहीं बनी. शौचालय के बाहर बैठे कर्मचारी ने हमें रोक कर लिरा में भुगतान करने को कहा. बाद में बाहरी मुसाफिर और मकसद जानने के बाद हमें यूं ही जाने दिया गया. रास्ते में पेट्रोल पंपों और होटल-रेस्तराओं में भी शौचालय की सुविधा इस्तेमाल करने के लिए एक से दो लिरा देने पड़ते थे. यहां तक कि कैमरे, मोबाइल और लैपटाप आदि इलेक्ट्रानिक उपकरणों की बैटरी चार्ज करने के लिए भी एक लिरा देना पड़ता था. अलबत्ता, सड़क पर मोटेल, रेस्तरां आदि पर नमाज पढ़नेवालों को इस शुल्क का भुगतान नहीं करने की छूट थी. रास्ते में जोर की आने पर भारतीय और पाकिस्तानी प्रतिनिधियों के सड़क किनारे खुले में पेशाब करना, बाकियों के लिए एक अचंभित करनेवाला अनुभव था. कई बार तो मजाक का विषय भी बने.

मुस्तफा कमाल पाशा के सुधार

 और इस्लामी क्रांति का दबाव 

  
आधुिनक तुर्की के निर्माता
 मुस्तफा कमाल पाशा अता तुर्क


 
तुर्की प्रवास के दौरान एक बात महसूस हुई. आधुनिक तुर्की के संस्थापक मुस्तफा कमाल पाशा की क्रांति और सुधारों के कारण भी तुर्की अपनी धर्मनिरपेक्षता के लिए मशहूर रहा है. अता तुर्क (राष्ट्र पिता) कहे जानेवाले कमाल पाशा ने एक धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक राष्ट्र की स्थापना के लिए तुर्की में तमाम सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक सुधार किये थे. उन्होंने धर्मनिरपेक्षता को बहुत कड़ाई से लागू किया था. स्कार्फ ओढ़ने, टोपी पहनने पर पाबंदी लगाने से लेकर तुर्की भाषा में अजान देने जैसे कदम उठाये गए थे. ज्यादा समय नहीं बीता है जब तुर्की को दूसरे मुस्लिम देशों के लिए एक मिसाल के तौर पर पेश किया जाता था. लेकिन आज तुर्की भी बदलाव के दौर से गुजर रहा है. ईरान की इस्लामिक क्रांति से प्रभावित लोग तुर्की को भी इस्लामिक मुल्क बनाने की राह पर हैं. मजे की बात यह भी कि हमारी सभाओं और कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों में से अधिकतर लोग धार्मिक और कट्टर इस्लामी या कहें ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रभावित लोग ही थे. जाहिर सी बात है कि तुर्की में क्रांति और सुधारों के जनक कमाल पाशा के बारे में इन लोगों की राय बहुत अच्छी नहीं थी. उसी तरह जैसे हमारे भारत में कट्टरपंथी हिन्दुओं का एक तबका राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में अच्छी राय नहीं रखता. लेकिन तुर्की में आम लोगों के बीच कमाल पाशा आज भी सबसे लोकप्रिय और श्रद्धेय राजनेता हैं, जैसे हमारे यहां गांधी जी. हमारे भारत का होने के बारे में पता चलते ही लोगों में हिन्दुस्तान और महात्मा गांधी की चर्चा शुरू हो जाती. युवाओं में शाहरुख खान और आमिर खान का जिक्र भी होता.

नोट ः अगली किश्त में  तुर्की की राजधानी अंकारा,  व्यावसायिक राजधानी  और एशिया तथा यूरोप का संगम कहे जानेवाले इस्तांबुल शहर, विश्व प्रसिद्ध सूफी संत, शायर मौलाना  जलालुद्दीन  रूमी के शहर कोन्या और भूमध्य सागर के तट पर बसे बंदरगाह शहर मर्सिन और तैसुकु पर  ग्लोबल मार्च यु येरूशलम में शामिल होने जा रहे एशियाई कारवां के साथ बीते रोचक और रोमांचक पलों से जुड़े संस्मरण के साथ और भी बहुत कुछ.