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Monday, 2 August 2021

Pegasus Snoopgate and Parliamentry Disruptions in India

पेगासस जासूसी प्रकरण और संसदीय गतिरोध


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/QZlM_UHarlM

    पेगासस जासूसी प्रकरण मोदी सरकार के गले की हड्डी बन गया दिखता है जिसे सरकार न तो उगल पा रही है और ना ही निगल पा रही. इस सवाल पर 19 जुलाई को शुरू हुए मानसून सत्र के दो सप्ताह संसद के दोनों सदनों में नारेबाजी, शोरगुल और हंगामे की भेंट चढ़ गए. प्रश्नकाल और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव से लेकर कोई भी विधायी कार्य विधिवत संपन्न नहीं कराया जा सका है. सरकार और विपक्ष के बीच किसी तरह के सम्मानजनक समझौता होने तक इस गतिरोध के टूटने के आसार भी कम ही दिख रहे हैं. मानसून सत्र के तीसरे सप्ताह के पहले दिन यानी सोमवार को भी संसद बाधित ही नजर आई. इस बीच सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण घटक जनता दल (यू) के वरिष्ठ नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की मांग का समर्थन कर मोदी सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं.

   इस बीच, सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस संसदीय गतिरोध के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण की जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में स्वतंत्र जांच करवाने और दोनों सदनों में कार्यस्थगन प्रस्ताव के तहत चर्चा कराने की मांग पर अड़ा है. दूसरी ओर, इसके लिए राजी नहीं हो रही मोदी सरकार संसदीय गतिरोध का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ते हुए कह रही है कि विपक्ष जन सरोकार से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा नहीं होने दे रहा है. संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा है कि विपक्ष बेवजह पेगासस जासूसी प्रकरण जैसे गैर जरूरी मुद्दे को तूल दे रहा है जबकि सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में जवाब दे चुके हैं.

    
पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा के लिए
 राज्यसभा में हंगामा
    वैसे, भारतीय संसद में हंगामे और शोर-शराबे के कारण गतिरोध कोई नई बात नहीं है. सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नोक-झोंक, बहसबाज़ी, परस्पर दोषारोपण या फिर यदा-कदा सदन में हंगामा और बहिर्गमन तो पहले भी होता रहा है. लेकिन हाल के दशकों में उत्तेजित सदस्यों के सदन के बीच में आकर शोरगुल और नारेबाजी करना आम बात हो गई है. और अब तो पीठासीन अधिकारियों की चेतावनी के बावजूद सदन में मंत्री से सरकारी कागज छीनकर उसे फाड़ देने, सदन के बीच में खड़े होकर नारेबाजी, पर्चे और कागज हवा में और यदा कदा आसंदी की तरफ भी उछाल देने का चलन भी शुरू हो गया है. इसे स्वस्थ और पारदर्शी संसदीय लोकतंत्र के लिए कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार भी तो नहीं ठहराया जा सकता. जिस पेगासस जासूसी मामले को सरकार गैर जरूरी बता रही है, उसे एकजुट विपक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दा मानते हुए उस पर संसद में चर्चा की मांग को लेकर दोनों सदनों में हंगामा कर रहा है.

  
सुप्रीम कोर्टः पेगासस स्पाईवेयर की स्वतंत्र जांच
की मांग पर होगी सुनवाई
    सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे एक गंभीर मामला मानते हुए इसकी स्वतंत्र जांच कराने से संबंधित वरिष्ठ पत्रकार एन राम तथा अन्य की याचिका पर इसी सप्ताह, 5 अगस्त से सुनवाई की मंजूरी दे दी है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सीमित दायरे में इस मामले की जांच की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर और कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य को सौंपी है.

    इस बीच फ्रांस सरकार की साइबर सुरक्षा एजेंसी ने अपनी जांच के बाद पेगासस स्पाईवेयर के जरिए पेरिस के मीडिया संगठन ‘मीडिया पॉर्ट’ के दो पत्रकारों लीनैग ब्रेडॉक्स और एडवी प्लेनेल के टेलीफोन हैक किए जाने की पुष्टि कर मामले को और गंभीर बना दिया है. गौरतलब बात यह भी है कि इसी मीडिया पॉर्ट ने राफेल युद्धक विमानों की खरीद में हुए कथित भ्रष्टाचार का रहस्योद्घाटन किया है. फ्रांस की सरकार इन रहस्योद्घाटनों के मद्देनजर ही इस मामले की जांच नए सिरे से करवा रही है.
 
  
 
 नैग ब्रेडॉक्स और एड्वी प्लेनेल (दाएं)
पेगासस स्पाईवेयर का राफेल कनेक्शन!


    इजराइल की कंपनी एनएसओ ग्रुप के पेगासस स्पाईवेयर को लेकर न सिर्फ दुनिया के कई और देशों बल्कि इजराइल में भी विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं. इजराइल की सरकार ने उसके ठिकानों पर छापेमारी भी की है. अब तो एनएसओ की तरफ से भी कहा जा रहा है कि उसके जासूसी उपकरण के दुरुपयोग के मद्देनजर कुछ सरकारी एजेंसियों को पेगासस स्पाईवेयर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है. ऐसे में भारत सरकार यह कह कर नहीं निकल सकती कि यह एक गैर जरूरी या अगंभीर मुद्दा है. जाहिर सी बात है कि महंगाई, बेरोजगारी, सीमाओं की सुरक्षा, कोरोना महामारी से निबटने में कथित लापरवाही जैसे जन सरोकार से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संसद में चर्चा होनी ही चाहिए लेकिन इसके बहाने पेगासस जासूसी मामले पर चर्चा नहीं कराने की सरकार की बात आसानी से हजम नहीं होती. अगर इस मामले में मोदी सरकार का दामन पाक-साफ है तो वह इसकी स्वतंत्र जांच और सदन में उचित नियम के तहत चर्चा करवाने को राजी क्यों नहीं हो रही !

    विपक्ष भी इसके जरिए मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहता. विपक्ष के रणनीतिकारों को लगता है कि संसदीय गतिरोध के जरिए वे देशवासियों को बताने में सफल हो रहे हैं कि जासूसी मामले में घिर गई सरकार के पास कुछ बताने को नहीं है और वह इसकी जांच इसलिए भी नहीं करवाना चाहती है क्योंकि इससे जासूसी प्रकरण और राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार का सच सामने आ सकता है. आम जन को भी लगने लगा है कि सरकार कहीं न कहीं इस मामले में गलत है तभी तो जांच और चर्चा से भाग रही है. उसे यह बताने में क्या हर्ज है कि उसने एनएसओ ग्रुप से पेगासस स्पाईवेयर खरीदा है कि नहीं. और अगर खरीदा है तो इसके जरिए वह किसकी जासूसी करवा रही थी. यही मांग तो भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मणयम स्वामी भी कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्टों में पेगासस स्पाईवेयर के जरिए भारत में जिन तकरीबन 300 लोगों के फोन हैककर उनकी जासूसी करने की बात सामने आ रही है, उनमें न सिर्फ विपक्ष के बड़े नेता, केंद्र सरकार में मंत्री, पत्रकार, वकील, सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ता बल्कि कुछ उद्यमी और वरिष्ठ अधिकारी भी हैं. राज्यसभा में कांग्रेस यानी विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे के अनुसार पेगासस जासूसी प्रकरण बहुत गंभीर मामला है. इस पर चर्चा के बाद ही संसद में हंगामा थमेगा और दूसरे विषयों पर चर्चा हो सकेगी.

मल्लिकार्जुन खरगेः पेगासस जासूसी प्रकरण पर
चर्चा होने तक जाम रहेगी संसद !
 
  बदली भूमिका में विपक्ष

    दरअसल, संसद में हल्ला हंगामा और गतिरोध हमारे राजनीतिक तंत्र का अनिवार्य अंग बन गया है. कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भाजपा के नेतृत्ववाली राजग सरकार के खिलाफ संसद में गतिरोध पैदा करने की जो रणनीति अभी अपनाई है, यही रणनीति 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए सरकार के जमाने में भाजपा और उसके सहयोगी दल अपनाते रहे हैं. उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान कोयला ब्लॉक आवंटन और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में हुए कथित घोटाले और मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर भाजपा के नेतृत्व में हुए हंगामों के कारण संसद के सत्र दर सत्र बाधित हो रहे थे. इसके चलते पंद्रहवीं लोकसभा और राज्यसभा का भी अधिकतर समय भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे की भेंट चढ़ गया था. आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा के लोग कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, तब, संप्रग सरकार के जमाने में उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार मानते थे.

राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडूः
 सरकार बदली, भाषा भी बदली !
 

     राजग शासन में सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई की चेतावनी देने में लगे राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु यूपीए शासन के दौरान खुद हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते थे. उस समय जब उनसे यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था कि हम नए तरीके ईजाद करेंगे ताकि सरकार की जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. इस लड़ाई को संसद से बाहर जनता के बीच भी ले जाएंगे.
    कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कथित घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों को जाम करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली कह रहे थे कि ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर संसद में हंगामा शुरू किया है, उसे निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल होने तक जनता के बीच ले जाएंगे. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इस मुद्दे को समाप्त करने के लिए की जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते हुए इसे अत्यंत महत्वपूर्ण संसदीय कार्य बता रहे थे. यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ अभी लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला से लेकर सत्तापक्ष के अन्य नेता भी संसदीय गतिरोध से देश को हो रहे करोड़ों रु. के नुकसान का विवरण दे रहे हैं लेकिन संप्रग सरकार के जमाने में संसद जॉम होने पर राजकोष को हो रहे आर्थिक नुकसान के बारे में जब लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष (भाजपा) की नेता सुषमा स्वराज से पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने कहा था, ‘‘अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ रु. का नुकसान हुआ और हम सरकार पर अपनी मांग के पक्ष में दबाव बना सके तो यह हमें स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’.

विपक्ष में रहते लालकृष्ण आडवाणीः 
संसदीय गतिरोध से भी नतीजे मिलते हैं
    उस समय भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी इसमें जोड़ा था कि ‘‘मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जेपीसी जांच की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ जाहिर है कि अब, पिछले सात वर्षों में हमारे राजनीतिक दलों की भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेता अब वही भाषा बोल रहे हैं जो उस समय संप्रग शासन में कांग्रेस के लोग बोलते थे. दूसरी तरफ विपक्ष की भूमिका में आ चुकी कांग्रेस अब एकजुट विपक्ष को साथ लेकर अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत राजग सरकार को घेरने में लगी है. पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच और संसद में इस पर विधिवत चर्चा होने तक गतिरोध जारी रहने की बात कर रही है. विपक्ष का आरोप है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष की रणनीति अब पेगासस जासूसी प्रकरण पर संसद को जाम रखने के साथ ही इसे सड़कों पर, जनता के बीच ले जाने की भी लगती है.

    संसद चलाने की जिम्मेदारी किसकी

    
    लेकिन दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. दरअसल, सरकार भी संसद को सुचारु रूप से चलने देने में बहुत ज्यादा उत्सुक नहीं लगती. उसकी रणनीति एक तरफ तो संसदीय गतिरोध के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराकर उसे जनता की नजरों में गिराने की लगती है (इसका जिक्र स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा संसदीय दल की बैठक में कर चुके हैं. और दूसरी बात यह भी कि संसद के पिछले कुछ सत्रों की तरह इस बार भी वह शोरगुल और हंगामे के बीच अपने जरूरी विधायी कार्य बिना चर्चा और बहस के ही संपन्न करा सकेगी. ऐसा वह अतीत में करती भी रही है. इस मामले में सरकार मोदी जी के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते किए प्रयोगों पर ही अमल कर रही है. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री रहते मोदी जी को जब गुजरात विधानसभा में कोई जरूरी विधेयक पास करवाना होता तो किसी न किसी बहाने सदन में हंगामा करवाकर विपक्ष के प्रमुख विधायकों का थोकभाव से निलंबन करवा देते या फिर हल्ला हंगामे के बीच ही बिना किसी चर्चा और बहस के अपने विधेयक पास करवा लेते.
 
    संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम, प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला-हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. दूसरी तरफ, संसद को चलाने की मुख्य जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती. इस काम में उसे विपक्ष को अपने साथ लेकर चलना होता है, कभी समझा-बुझाकर, कभी बहला-फुसलाकर, तो कभी थकाकर और कभी नर्म पड़कर भी. सरकार का संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लाकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका और उसके संसदीय अधिकारों को को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिश करते ही नजर आ रही हैं. पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर बने गतिरोध के मामले में भी यही दिख रहा है.




Monday, 26 July 2021

HAL FILHAL: PEGASUS SPYWARE PROJECT and RAID ON MEDIA

जासूसी का जाल और मीडिया पर छापेमारी


जयशंकर गुप्त


    क्या कोई सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों, असहमति रखनेवाले पत्रकारों, वकीलों, उद्यमियों और नागरिकों की जासूसी करवा सकती है! और क्या स्वतंत्र और तटस्थ पत्रकारिता कर रहे अखबारों, टीवी चैनलों और पत्रकारों के यहां आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी से उन्हें डराया-धमकाया जा सकता है ! हम बात कर रहे हैं, भारत सहित दुनिया के कई और देशों में भी ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए स्मार्ट फोन हैक कर जासूसी करने के संबंध में मीडिया रिपोर्ट्स की और देश के सबसे बड़े अखबारों में शुमार ‘दैनिक भास्कर’ और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ और इसके संपादक के कार्यालयों, ठिकानों पर पिछले सप्ताह बड़े पैमाने पर हुई आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी की.

  
राज्यसभा में पेगासस जासूसी को लेकर हंगामा (तस्वीरः राज्यसभा टीवी)
    मानसून सत्र का पहला सप्ताह कथित जासूसी प्रकरण और मीडिया संस्थानों छापेमारी पर संसद में चर्चा कराने, इसकी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में विशेष जांच दल (एसआइटी) से जांच करवाने की मांग कर रहे विपक्ष के हंगामे और सरकार के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया. एक दिन राज्य सभा में विपक्ष के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे के बीच पेगासस जासूसी मामले पर जवाब दे रहे सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव से जवाब की प्रति छीनने के आरोप में तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन को पूरे मानसून सत्र के लिए निलंबित किया जा चुका है. लेकिन मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा है.इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन भीमराव लोकुर एवं कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के दो सदस्यीय जांच आयोग से इस मामले की न्यायिक जांच कराने की घोषणा की है. सुश्री बनर्जी के अनुसार उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में इस मामले की जांच करवाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

    इस बीच देश और दुनिया के कई और देशों में भी इजरायल की कंपनी एनएसओ के जासूसी उपकरण ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए की गई जासूसी के संबंध में नित नए खुलासे हो रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, सांसद अभिषक बनर्जी, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, युद्धक विमान राफेल की खरीद से जुड़े उद्योगपति अनिल अंबानी, उनकी कंपनी के कुछ बड़े अधिकारी, राफेल कंपनी के कुछ अधिकारियों से लेकर जम्मू कश्मीर के कुछ बड़े नेताओं और देश के चार दर्जन पत्रकारों के साथ ही केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद पटेल के नाम भी अब तक सामने आ चुके हैं जिनके स्मार्ट मोबाइल फोन नंबरों को हैक कर उनकी जासूसी की बात कही जा रही है. फ्रांस में खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर संस्था ‘मीडियापार’ के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उनकी सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडॉ के नाम भी उस लिस्ट में हैं, जिनके फोन की पेगासस के जरिए जासूसी कराए जाने की बातें कही जा रही हैं. मीडियापार वही संस्था है, जिसकी शिकायत पर फ्रांस में राफेल विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार की जांच नए सिरे से शुरू हुई है.

    
राहुल गांधीः फोन हैक हुआ
    राहुल गांधी ने अपने स्मार्ट फोन को हैक होने की पुष्टि की है. उन्होंने इस जासूसी प्रकरण को ‘राजद्रोह’ करार देते हुए इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है और उनके त्यागपत्र की मांग की है. उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका की जांच भी सुप्रीम कोर्ट से कराने की मांग की है. लेकिन सरकार ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर विपक्ष की इस मांग को निराधार करार देते हुए कथित जासूसी प्रकरण को संसद के मानसून सत्र के ठीक एक दिन पहले सार्वजनिक करने के पीछे भारत की प्रगति और विकास के रास्ते में अवरोध पैदा करने की गरज से अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र की आशंका जाहिर की है. सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 19 जुलाई को लोकसभा में कहा, "एक वेब पोर्टल पर कल रात एक अति संवेदनशील रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर कई आरोप लगाए गए. ये रिपोर्ट संसद के मॉनसून सत्र के एक दिन पहले प्रकाशित हुई. यह संयोग मात्र नहीं हो सकता." इसी तरह की बात करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने भी इसकी क्रोनोलॉजी समझाने की कोशिश की है. सरकार की तरफ से यह भी साफ करने की कोशिश की गई कि सरकार अवैधानिक तरीके से किसी की जासूसी नहीं करवाती है. यानी वैधानिक तरीके से जासूसी कराई जा सकती है. अगर सरकार इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के रहस्योद्घाटनों को निराधार और अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मानती है तो फिर इस मामले की संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच को तैयार क्यों नहीं हो जाती.  

    यह मांग केवल विपक्ष के नेता, वकील और पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं, भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कहा है कि “अगर छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह इजराइली प्रधानमंत्री को चिट्‌ठी लिखें और एनएसओ के पेगासस प्रोजेक्ट का पता लगाएं. यह भी पता लगाया जाए कि इसके लिए पैसे किसने खर्च किया.” स्वामी ने ट्विटर पर लिखा कि पेगासस स्पाईवेयर एक व्यावसायिक कंपनी है, जो पैसा लेकर ही काम करती है. इसलिए यह सवाल लाज़मी है कि भारतीय लोगों पर जासूसी के लिए पैसे अगर भारत सरकार ने नहीं दिए, तो आख़िर किसने दिए. मोदी सरकार को इसका जवाब देश की जनता को देना चाहिए. अपने विरोधियों की जासूसी कराने के इस मामले में सरकार पर शक की सुई इसलिए भी उठ रही है क्योंकि एनएसओ ने साफ कहा है कि उसका जासूसी सॉफ्टवेयर अपराध और आतंकवादी गतिविधियों को रोकने और लोगों के जीवन बचाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए केवल सरकारों और उनकी खुफिया एजेंसियों को ही बेचा जाता है. इसे किसी निजी व्यक्ति अथवा संस्थान को नहीं बेचा जाता. मजे की बात यह भी है कि अभी तक भारत में जितने भी फोन नंबरों की जासूसी पेगासस के स्पाईवेयर से कराए जाने की बातें सामने आ रही हैं, उनमें से एक भी फोन नंबर किसी आतंकवादी अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अपराधी का नहीं है. 

  
भाजपा नेता स्वामीः छिपाने को कुछ नहीं तो जांच करवा लें
    इस संदर्भ में मीडिया रिपोर्ट्स सार्वजनिक होने से पहले ही भाजपा नेता स्वामी ने ट्वीट कर बताया था कि वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन तथा कुछ और मीडिया संस्थान एक रिपोर्ट सार्वजनिक करने जा रहे हैं, जिसमें इजराइल की फर्म पेगासस को मोदी कैबिनेट के मंत्री, आरएसएस के नेता, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और पत्रकारों के फ़ोन टैप करने के लिए हायर किए जाने का भंडाफोड़ होगा. 18 जुलाई को वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में बताया गया कि शुरुआती रिपोर्ट में दुनिया भर में 189 पत्रकारों, 600 से अधिक राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों और 60 से अधिक व्यावसायिक अधिकारियों को एनएसओ के ग्राहकों (क्लाइंट्स) द्वारा लक्षित किया गया था. 18 जुलाई की देर शाम यहां दिल्ली में न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज खुलासा किया कि भारत सरकार ने 2017 से 2019 के बीच करीब 300 भारतीयों की जासूसी करवाई है. इन 300 लोगों में विपक्ष के नेता पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और बिजनेसमैन भी शामिल हैं. दि वायर ने दावा किया कि सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए इन लोगों के फोन हैक किए थे.

क्या है पेगासस जासूसी प्रकरण


    इजराइल की कंपनी एनएसओ का पेगासस स्पाईवेयर एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो बिना सहमति के आपके स्मार्ट फोन तक पहुंच हासिल करने, व्यक्तिगत और संवेदनशील जानकारी इकट्ठा कर जासूसी करने वाले यूजर यानी ग्राहक को देने के लिए बनाया गया है. यह अगर किसी स्मार्ट फोन में डाल दिया जाए तो कोई हैकर उस आईफोन, एन्ड्राएड फोन के माइक्रोफोन, कैमरा, आडियो और टेक्स्ट मेसेजेज, ईमेल और लोकेशन तक की सभी तरह की जानकारियां हासिल कर सकता है. 

  दरअसल, फ़्रांसीसी मीडिया संस्थान, फॉरबिडन स्टोरीज और मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े एमनेस्टी इंटरनेशनल को 45 देशों के तकरीबन 50 हजार स्मार्ट फोन नंबर्स की एक लिस्ट मिली थी जिनको पेगासस स्पाईवेयर के जरिए हैक करने की आशंका जताई गई थी. 'फ़ॉरबिडन स्टोरीज़' ने इनमें से 67 फोन नंबरों के उपयोगकर्ताओं से अनुमति लेकर उनके नंबरों की फ़ॉरेंसिक जांच करवाई. इनमें से 37 लोगों के फ़ोन में एमनेस्टी इंटरनेशनल सिक्योरिटी लैब्स को पेगासस स्पाईवेयर द्वारा संभावित रूप से टारगेट बनाये जाने के सबूत मिले. इसके बाद ही इन संस्थाओं ने पूरी सूची को दि गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, फ्रंटलाइन, ली मॉंड, रेडियो फ्रांस, हारेट्ज (इजराइल) जैसे दुनियाभर के 17 बड़े और नामचीन मीडिया संस्थानों के साथ शेयर किया. इन मीडिया संस्थानों में भारत से ‘दि वायर’ भी शामिल था. इन मीडिया संस्थानों और उनके 80 खोजी पत्रकारों की महीनों की मेहनत और गहन जांच के बाद बताया गया कि पेगासस के जरिए अलग-अलग देशों की सरकारें पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, बिजनेसमैन, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और वैज्ञानिकों समेत कई लोगों की जासूसी कर रही हैं. इस सूची में भारत का भी नाम है.

    वैसे, इससे पहले भी तमाम सरकारों पर अपने विरोधियों की जासूसी करने के आरोप लगते रहे हैं. कई सरकारों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है लेकिन आश्चर्यजनक बात यही है कि पेगासस जासूसी प्रकरण को पूरी तरह से निराधार और भारत की प्रगति और विकास को अवरुद्ध करने के अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मान रही मोदी सरकार इसकी संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में किसी तरह की जांच करने को राजी क्यों नहीं हो रही. इतना भी नहीं बता रही कि उसने पेगासस की सेवाएं ली या नहीं.

    भारत और फ्रांस में जिन लोगों की जासूसी कराए जाने के विवरण सामने आ रहे हैं, उनमें से कइयों के नाम किसी न किसी रूप में युद्धक विमान राफेल की खरीद से भी जुड़े हैं. जाहिर सी बात है कि इसके मद्देनजर राफेल युद्धक विमानों की खरीद और उसमें कथित तौर पर ली अथवा दी गई दलाली का मामला भी नए सिरे से तूल पकड़ सकता है. फ्रांस ने तो इस प्रकरण को अपराध मानते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन भारत सरकार अभी भी इसे नकारने के मूड में ही दिख रही है.

मीडिया पर सरकारी शिकंजा !

  
    अब बात करते हैं, मीडिया और खासतौर से हाल के दिनों में सच को सामने लानेवाले मीडिया संस्थानों और उनके पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा कसते जाने के बारे में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर एक अरसे से सरकार से असहमति रखने और किन्हीं मामलों में सरकार की गलत नीतियों के विरोध में लिखने, बोलने और सरकार की गलतियों, नाकामियों को उजागर करनेवाले पत्रकारों-मीडिया संस्थानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे कुछ मीडिया संस्थानों को सरकारी विज्ञापनों की सूची से बाहर रखने, उन्हें न्यूनतम विज्ञापन जारी कर उन्हें आर्थिक रूप से कृपण बनाने से लेकर पत्रकारों को नौकरी से बाहर करवाने, कइयों को रासुका और राजद्रोह जैसे मुकदमों में फंसाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन अभी 22 जुलाई को एक साथ दैनिक भास्कर और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल भारत समाचार के कार्यालयों और अन्य ठिकानों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापा मारा. आमतौर पर सत्तामुखी या कहें सरकार समर्थक ही कहे जाते रहे दैनिक भास्कर ने हाल के महीनों में खासतौर से कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस महामारी से मौत का शिकार हुए लोगों की संख्या पर सरकार के आंकड़ों का सच उजागर करने से लेकर गंगा नदी में बहते और नदी किनारे दफनाए गए शवों, आक्सीजन के अभाव में मरे लोगों पर सरकार की गलत बयानी का सच दिखाने, चित्रकूट में हुई आरएसएस की गोपनीय बैठक से जुड़ी अंदरूनी खबरें सामने लाने, चरम छूती महंगाई और बेरोजगारी के आंकड़ों को प्रमुखता से प्रकाशित करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सिरदर्द बनने लगा था. दैनिक भास्कर का प्रबंधन इस छापेमारी को, जो 24 जुलाई को भी जारी रही, अखबार के सच दिखाने के प्रतिशोध में की गई कार्रवाई करार दिया है. दूसरी तरफ सत्ता पक्ष इससे पल्ला झाड़ते हुए इसे रूटीन कार्यवाही मान रहा है.

    अगर किसी व्यक्ति, संस्था, अखबार और मीडिया संस्थान ने भी आयकर अथवा किसी और मामले में कुछ गलत या अनियमित किया है, मनी लांड्रिंग की है तो उसकी जांच होनी ही चाहिए. उसके खिलाफ कानून और जांच एजेंसियों को अपना काम करना ही चाहिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन सवाल इस छापेमारी की टाइमिंग और अमित शाह जी की भाषा में कहें तो क्रोनोलॉजी को लेकर है. हाल के महीनों में यह बात अक्सर और अधिकतर मामलों में देखी गई है कि हमारे आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों के निशाने पर सरकार के विरोध में बोलने, लिखने, छापने और दिखानेवाले लोग ही ज्यादा होते हैं. अगर दैनिक भास्कर अखबार ने कुछ भी गलत किया है तो उसकी जांच अथवा इसके कार्यालयों पर आयकर के छापे तबभी पड़ सकते थे जब यह सत्तामुखी था. ऐसे समय में ही उस पर छापे क्यों पड़े जब वह सरकार की गलतियों, नाकामियों को सामने ला रहा है.

    
भारत समाचार के संपादक-ऐंकर ब्रजेश मिश्रः सच के साथ
    
सी दिन उत्तर प्रदेश के एक बेबाक टीवी चैनल भारत समाचार और उसके प्रधान संपादक ब्रजेश मिश्रा, तेजतर्रार पत्रकार विरेंद्र सिंह तथा चैनल से जुड़े कुछ अन्य लोगों के कार्यालय और ठिकानों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापेमारी की. दिल्ली पुलिस की एक टीम भारत में पेगासस जासूसी प्रकरण को उजागर करनेवाले न्यूज पोर्टल ‘दि वायर’ के कार्यालय में भी पहुंच गई. पूछने पर बताया गया कि पुलिस वहां 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस समारोह के मद्देनजर रूटीन जांच के लिए गई थी. इससे पहले इसी तरह की छापेमारी एक और न्यूज पोर्टल-यू ट्यूब चैनल ‘न्यूज क्लिक’ के साथ भी हुई थी. भारत समाचार की तरह ही न्यूज क्लिक भी यूपी सरकार से लेकर केंद्र सरकार के गलत कार्यों, कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की लापरवाही और नाकामियों को उजागर करते रहा है. अच्छी बात यह है कि इन पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इस तरह की सरकारी कार्रवाइयों और छापेमारी से डर कर घुटने टेकने के बजाय सच के साथ खड़े रहने का संकल्प जाहिर किया है. हालांकि भारतीय मीडिया का एक वर्ग इन छापों पर या तो तटस्थ है या फिर इनके औचित्य साबित करने में लगा है. सरकार को भी अब जाहिरा तौर पर कह देना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर उसके तमाम नेता चाहे कितना भी मजबूत लोकतंत्र की दुहाई देते रहें, लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व असहमति उन्हें हर्गिज बर्दाश्त नहीं होगी. उसके विरुद्ध कोई कुछ लिखेगा, बोलेगा और छापेगा तो उसके यहां छापे भी पड़ेंगे.

Monday, 21 December 2020

पश्चिम एशिया (बेरुत में बीते पल) (In Beirut with Global March to Jerusalem)


लेबनान के लिए समुद्री यात्रा


जयशंकर गुप्त


  
बेरुत बंदरगाह पर वीसा के सवाल पर जहाज,
फर्गुन के डेकपर हंगामा
    फर्गुन जहाज में 13 देशों के हम कुल 137 प्रतिनिधि शामिल थे. जहाज के डेक पर जाकर मेडिटेरियन सी यानी भूमध्य सागर का दृश्य बड़ा ही सुहाना लगता था लेकिन उसे बहुत देर तक नहीं देखा जा सकता था, चारों तरफ नीला पानी ही पानी. हम अंदर जहाज में आ गए. अंदर जहाज में अलग-अलग तरह की चर्चाएं चल रही थीं. चर्चा इस बात को लेकर भी थी कि अगर इजराइल की किसी पनडुब्बी ने हमारे जहाज पर हमला कर दिया तो? इजराइल के लिए कुछ भी असंभव नहीं. 31 मई 2010 के मावी मरमारा नरसंहार की चर्चाएं भी होने लगीं जिसमें फिलीस्तीनियों के लिए राहत सामग्री ले जा रहे ‘गाजा फ्रीडम फ्लोटिला’ में शामिल छह जहाजों के काफिले पर अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा में गाजा से 65 किमी दूर हमला कर इजराइली कमांडो दस्ते ने नौ लोगों की जान ले ली थी. वैसे, इस बार भी 23-24 मार्च को इजराइल ने अपनी सीमा से लगने वाले सीरिया, लेबनान, मिश्र और जार्डन की सरकारों को लिखित चेतावनी दे दी थी कि उनके देशों से इजराइल की सीमा (येरूशलम की ओर) में प्रवेश करने वालों का स्वागत गोलियों और तोप के गोलों से किया जाएगा. हालांकि इजराइल की धमकियों का कारवां में शामिल लोगों पर खास असर नहीं था. हम लोग गाते-बजाते जा रहे थे. भाषणबाजी भी हो रही थी. हमारी भी तकरीर हुई. साथियों की आम प्रतिक्रिया यही थी कि ‘जो होगा, देखा जाएगा. जहां मरना बदा होगा, वहीं मरेंगे.’ हमारे मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने कहा भी है, ‘‘मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.’’ इस तरह की चर्चाओं के बीच कब नींद आ गई और रात बीत गई, हम बेरुत या कहें बेयरुत पहुंच गए, कुछ पता ही नहीं चला. 

फर्गुन जहाज के बेरुत बंदरगाह पर पहुंचने के बाद की तस्वीर
पीछे बेरुत शहर की झलक

बेरुत के बुरे अनुभव!


    28 मार्च की सुबह नौ बजे हमारा फर्गुन जहाज बेरुत बंदरगाह पर पहुंच गया था. तकरीबन उसी जगह जहां इस साल (2020) अगस्त के महीने में भारी विस्फोट हुए थे जिनके चलते बेरुत में जान-माल की भारी तबाही हुई थी. मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) का पेरिस कहे जानेवाले बेरुत की रुत वाकई बहुत सुहानी थी. बेरुत के सौन्दर्य और वहां की हूरों के बारे में भी बहुत कुछ सुन रखा था. लेकिन हमारे हिस्से में तो कुछ और ही बदा दिख रहा था. बेरुत पोर्ट पर हमारे साथ जो कुछ घटा, वह किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था. लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी जहाज के अंदर आए और हमसे वीसा फार्म भरवाकर हमारे पासपोर्ट लेकर चले गए. लेबनान में वीसा आन एराइवल देने की बात थी. इसी आश्वासन के बाद जहाज फर्गुन हमें बेरुत ले जाने को तैयार हुआ और तुर्की के आप्रवासन अधिकारियों ने हमें बेरुत के लिए रवाना किया था.
    

    
बेरुत बंदरगाह पर जहाज में बंधक! पीछे खड़ा संयुक्त राष्ट्र का
 युद्ध विमान अनिष्ट की आशंका को कम कर रहा था!
    कई घंटे बीत जाने के बाद भी जब वीसा नहीं मिला तो चिंता सताने लगी क्योंकि इंडोनेशिया के साथियों को उसी दिन बेरुत से विमान से जार्डन जाना था. इंडोनेशिया के बेरुत स्थित दूतावास के लोग उन्हें लेने भी आ गए थे. हमारा वीसा नहीं आया. अलबत्ता, समुद्र में किनारे जिस जगह हमारा जहाज खड़ा था, उसके चारों तरफ जमीन पर हमारे जहाज की तरफ रुख किए लेबनान के स्वचालित राइफलधारी सुरक्षा बलों के जवान घेरा बंदी कर खड़े हो गए थे, जैसे हमारे जहाज में आतंकवादियों का कोई गिरोह बैठा हो जिनसे उन्हें मुठभेड़ करनी है. हमारे जहाज के कुछ ही दूर समुद्र में संयुक्त राष्ट्र का भी एक युद्धक जहाज खड़ा था जो हमारे अंदर के भय को कुछ कम कर रहा था. वीसा मिलने में अस्वाभाविक देरी होने पर हम लोगों ने जहाज के डेक पर आकर नारेबाजी शुरू की. शाम पांच बजे अचानक लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी आए और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों को जहाज से बाहर निकाला गया. दो घंटे बाद तुर्की और फिर ईरान, मलयेशिया, अजरबैजान और ताजिकिस्तान के लोगों को भी बाहर किया गया क्योंकि उन्हें वीसा की जरूरत नहीं थी (तो फिर उन्हें तब तक जहाज पर क्यों रोके रखा गया था. यह किसी के भी समझ से परे की बात थी). बाकी बच गए हम 37 भारतीय, तीन फिलीपीनी और एक इराकी प्रतिनिधि के लिए कहा गया कि एक घंटे में हमें भी वीसा मिल जाएगा. 

    लेकिन जब रात के 11 बजे तक कोई हलचल नहीं दिखी तो एक बार फिर हम लोगों (जहाज पर बचे प्रतिनिधियों) ने आधी रात को जहाज के डेक पर आकर जोर-जोर से हल्ला-हंगामा और नारेबाजी शुरू की. थोड़ी देर में हमारे हंगामे से खुन्नस खाए, बंदरगाह के आप्रवासन अधिकारी अहमद आए. उनके साथ हमारी कुछ कहा-सुनी भी हुई. वह कुछ ऐसा बता रहे थे कि हमारे मेजबानों से उनकी कोई बात नहीं हो पा रही है. वे लोग इनका फोन नहीं उठा रहे, इसलिए वीसा मिलने में हमें दिक्कत हो रही है. बाद में पता चला कि इसके पीछे फिलीस्तीनी संघर्ष में शामिल संगठनों और गुटों की आपस की लड़ाई के चलते कहीं संवादहीनता की स्थिति बनी है. अहमद अगली सुबह नौ बजे तक कुछ होने की बात कह कर चले गए. दाल में कुछ काला भांप कर हम लोगों ने बेरुत स्थित भारतीय दूतावास से संपर्क किया. कारवां में शामिल हम मीडिया कर्मियों ने अपने-अपने तईं नई दिल्ली और हैदराबाद के मीडिया संपर्कों और राजनीतिक हलकों को अपनी आपबीती बतानी शुरू की. नतीजतन, मीडिया, राज्य सभा और लोक सभा के साथ ही आंध्र प्रदेश विधानसभा और विधानपरिषद में भी यह सवाल मजबूती से उठा. हमारी सरकार भी सक्रिय हुई. दुनिया भर में हमारे हवाले से खबर फैल गई कि ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ में शामिल होने जा रहे हम भारतीय प्रतिनिधियों को बेरुत में बंदरगाह पर बेवजह रोक कर रखा गया है जबकि वहां पुहंचते ही वीसा देने का अश्वासन था. 

डिपोर्टेशन की तैयारी !


   
  जहाज पर पहुंचे भारतीय दूतावास में वीसा काउंसिलर ए के शुक्ला ने बताया कि बेरुत के आप्रवासन अधिकारी तो हमें बैरंग दिल्ली डिपोर्ट करने की तैयारी में हैं. मतलब साफ था कि आपको बिना कोई कारण बताए वापस आपके मुल्क भेज दिया जाएगा और आपके पासपोर्ट पर लिख दिया जाएगा, ‘डिपोर्टेड’. हमारा माथा ठनका. हमने जहाज में साथियों से विमर्श किया और शुक्ला जी की बातों का मर्म समझाया कि हमारे पासपोर्ट्स पर 'डिपोर्टेड' लिखकर हमें वापस हमारे देश भेज दिया जाएगा. उस पर डिपोर्टेशन का कारण भी नहीं लिखा होगा. यानी अब हम-आप इस पासपोर्ट को लेकर दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में नहीं जा सकेंगे. हमने तय किया कि अगर लेबनान सरकार ऐसा करती है तो हम गांधी और लोहिया के दिए राजनीतिक अस्त्र 'सिविल नाफरमानी' का इस्तेमाल करते हुए इसकी शालीनता के साथ अवज्ञा करेंगे. इस बात पर सर्वानुमति बनने के बाद हमने जवाब में शुक्ला जी के जरिए बेरुत के आप्रवासन अधिकारियों को कहलवा दिया कि हम लोग यहां तिरंगे और महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए शांतिपूर्ण और अहिंसक ढंग से ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ में शामिल होने आए हैं. हम गांधी-लोहिया के लोग ‘मारेंगे नहीं लेकिन मानेंगे भी नहीं.’ बिना कारण बताए अपने पासपोर्ट पर ‘डिपोर्टेशन’ का दाग लगवाने के बजाए हम यहां जेल जाना अथवा लेबनान के सुरक्षाबलों की गोलियों से मरना पसंद करेंगे. लेबनान सरकार बताए तो सही कि ‘आन एराइवल वीसा’ देने के आश्वासन से उसके मुकरने के कारण क्या हैं.

     
बेरुत बंदरगाह पर जहाज से बार निकलने के बाद
    इस बीच हमें तासुकु से बेरुत ले आए जहाज फर्गुन के कर्मचारियों का दबाव भी बढ़ रहा था. जाहिर है कि उन्हें अगले मुकाम पर जाना होगा. 
छोटे से जहाज फर्गुन में खाने-पीने का सीमित सामान समाप्त होने को था. शौचालय भी पानी और सफाई के अभाव में दुर्गंध फैलाने लगे थे. तब तक शायद भारतीय दूतावास को 'नई दिल्ली' का संदेश आ चुका था. और तकरीबन 37 घंटे बेवजह जहाज में ही बिताने के बाद हमें वीसा मिल गया. 29 मार्च की रात दस बजे ही हम बेरुत की धरती पर कदम रखने में सफल हो सके. उसके बाद तो बेरुत प्रशासन और खासतौर से आप्रवासन अधिकारियों का हमसे बातचीत और व्यवहार का लहजा भी बदल सा गया था. हमें सम्मान के साथ होटल या कहें स्टुडिओ अपार्टमेंट, ‘ग्रैंड प्लाजा’ में ले जाया गया. 29 मार्च की रात हमने वहीं बिताई. होटल प्रवास के अनुभव भी कुछ अलग तरह के ही थे.

अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन



    
प्रदर्शन में नेतृत्व को लेकर खींचातानी केबीच अमेरिका से
आए यहूदी प्रदर्शनकारियों का प्लेकॉर्ड


    अगली सुबह बसों से हमारा कारवां ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ का हिस्सा बनने के लिए रवाना हुआ. लेकिन लेबनान की सेना ने इजराइल की सीमा की ओर जाने से मना कर हमें पहुंचा दिया बेरुत से तकरीबन 60 किमी दूर अरनून गांव की पहाड़ी पर स्थित बेऊफोर्ट कैसल के पास. वहां हमें तारों की बाड़ दिखाई दी. उसके पार हाथों में स्वचालित राइफलें थामे कमांडोनुमा जवान खड़े थे. हमें लगा कि हम लोग इजराइली सीमा पर हैं. बाद में पता चला कि लेबनान की सरकार ने उसके आगे जाने की अनुमति नहीं दी है. अरनून के एक हजार साल पुराने किले के पास दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के द्वारा फिलीस्तीन की मुक्ति एवं येरूशलम पर तीनों धर्मों-मुस्लिम, ईसाई और यहूदियों के पवित्र धर्मस्थलों की सम्मानजनक स्थिति बहाली की मांग के साथ ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ का एक और चरण पूरा हो गया. प्रदर्शन में स्थानीय फिलीस्तीनी शराणार्थी स्त्री-पुरुष भी बड़ी मात्रा में वहां आए थे. हम येरूशलम तो नहीं पहुंच सके लेकिन इजराइली सीमा के पास फिलीस्तीनी लैंड डे पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर फिलीस्तीन समस्या पर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित कर पाने में सफल जरूर रहे. 

    
अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन, हाथ में तिरंगा
    हालांकि फिलीस्तीन मुक्ति के नाम पर जमा प्रदर्शनकारियों के बीच के मतभेद वहां भी खुलकर दिखे. यह भी एक कारण था कि वहां अपेक्षाकृत भीड़ नहीं जुटी. ‘फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा’, ‘हमास’, ‘फतह’ और हिजबुल्ला के बीच कार्यक्रम के आयोजन का श्रेय लेने की होड़ हिंसक झड़प में बदलने से बाल-बाल बची. मंच पर एक तरह से हिजबुल्ला के लोगों का ही कब्जा हो गया था. एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के प्रतिनिधियों को बोलने का मौका भी नहीं मिला. प्रदर्शनकारियों में अमेरिका से आए कुछ यहूदी भी थे जो अपनी वेशभूषा और अपने हाथ में लिए बैनरों के कारण सबको आकर्षित कर रहे थे. उनके बैनरों पर लिखा था ‘जुडाइज्म रिजेक्ट्स जुआनिज्म ऐंड स्टेट आफ इजराइल.’ ‘जीव्ज युनाइटेड अगेंस्ट जुआनिज्म’ के नेता रब्बाई के अनुसार येरूशलम पर जुआनिज्म का एक छत्र आधिपत्य हर्गिज स्वीकार्य नहीं है. हम लोग इजराइल के शांतिपूर्ण विखंडन के लिए प्रार्थना करते हैं. लेकिन सबसे अधिक सम्मान तिरंगे के साथ महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए भारतीय प्रतिनिधियों का था. तिरंगा और गांधी की तस्वीर देखते ही स्थानीय और बाहर से आए प्रतिनिधियों के साथ ही विभिन्न खबरिया चैनलों, मीडिया संगठनों के प्रतिनिधि साक्षात्कार लेने लग जाते. अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन के बाद हमारा बेरुत प्रवास भी अपने आप में एक अनुभव रहा.


इजराइल की सीमा से लगे अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन
महात्मा गांधी की ताकत
     
विश्व के सबसे प्राचीन शहर और सभ्यताओं में से एक कहा जानेवाला लेबनान उत्तर और पूर्व में सीरिया तथा दक्षिण में इजराइल की सीमा से लगा मिश्रित सभ्यता और संस्कृतियों का समुद्र और पहाड़ों से घिरा छोटा सा (क्षेत्रफल तकरीबन 10450 वर्ग किमी) देश है. इसकी समुद्री सीमाएं साइप्रस से भी लगती हैं. तकरीबन 50 लाख की आबादी वाले लेबनान में साक्षरता दर काफी ऊंची, तकरीबन 98 फीसदी है. पूरी दुनिया में लॉ का सबसे पहला स्कूल बेरुत में ही खुला था. पारंपरिक रूप से व्यापार के लिए मशहूर लेबनान और इसके राजधानी शहर बेरुत को मध्यूपर्व यानी पश्चिमी एशिया में व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र कहा जा सकता है. इसकी इन्हीं विशेषताओं ने यूनानी, रोमन, अरब, ओटोमन, तुर्क और फ्रेंच हमलावर-शासकों और मेहमानों को इसकी ओर आकर्षित किया. 1920 से लेकर 1943 में अपनी आजादी से पहले लेबनान फ्रेंच साम्राज्य का उपनिवेश भी रहा. इसके अवशेष आज भी यहां जन जीवन पर साफ दिखते हैं. 
अरनून की पहाड़ी पर भारतीय तिरंगा थामे


    लेबनान और इसका सबसे पुराना (तकरीबन पांच हजार साल पुराना) और विकसित राजधानी शहर बेरुत दशकों तक युद्ध-गृह युद्धों और प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका झेलता रहा है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद पड़े सूखा-अकाल में वहां एक लाख लोग मारे गए थे जबकि 1975 से 1990 तक हुए गृह युद्ध में तकरीबन डेढ़ लाख लोगों की जानें गई थीं जबकि 17 हजार लोग लापता हो गए थे. क्षेत्रीय ताकतों, विशेषकर इजराइल, सीरिया और फिलस्तीनी मुक्ति संगठन ने लेबनान को अपने झगड़े सुलझाने के लिए युद्ध के मैदान के तौर पर इस्तेमाल किया. इस लिहाज से देखा जाए तो लेबनान मध्य पूर्व यानी पश्चिम एशिया में सबसे जटिल और बंटे हुए देशों में से एक है. इजराइल के निर्माण के समय और बाद में भी फिलीस्तीन समस्या से जुड़े जो भी विवाद उठे उनमें कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेबनान भी शामिल रहा है. इजराइल के निर्माण और उसके बाद से तकरीबन एक लाख फिलीस्तीनी शरणार्थी लेबनान में आकर बस गए. 1968 में लेबनान में रह रहे एक फिलीस्तीनी मुक्ति गुट के हमले में इजराइल के एक ,यरलाइनर के ध्वस्त होने के जवाब में इजराइल के कमांडोज ने बेरुत हवाई अड्डे पर हमला कर इसके दर्जनभर विमान नष्ट कर दिए थे. लेबनान में गृह युद्ध की शुरुआत के समय सीरियाई सैनिक टुकड़ियां वहां दाखिल हो गईं. इजराइली सेना ने 1978 और फिर 1982 में हमले किए और फिर वे 1985 में एक स्वघोषित सुरक्षा जोन में दाखिल हो गए जहां से वे मई 2000 में ही बाहर निकले.

    सीरिया का लेबनान में अच्छा खासा राजनीतिक दबदबा है. हालांकि दमिश्क ने 2005 में अपनी सैनिक टुकड़ियां वहां से हटा कर 29 साल की अपनी सैन्य मौजूदगी खत्म कर दी. यह कदम लेबनान के तत्कालीन प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या के बाद उठाया गया. लेबनानी विपक्षी गुटों ने इस मामले में सीरिया का हाथ होने का आरोप लगाया जिससे सीरिया ने लगातार इंकार किया. उसके बाद बेरुत में सीरिया समर्थक और सीरिया विरोधी बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित हुईं जिसके बाद सीरिया के सैनिकों को वहां से बाहर निकलना पड़ा.

  
वार मेमोरियल म्युजियम में 2006 के युद्ध में
हिजबुल्ला द्वारा कब्जा किए इजराइली टैंक, हथियारों की नुमाइश

    बेरुत की अरब शिया-सुन्नी मुस्लिम, ईसाई बहुल मिश्रित आबादी में एक बड़ा हिस्सा 1948 में यहां आए फिलीस्तीनी शरणार्थियों का भी है. इस कारण भी वहां अक्सर आपस में और इजराइल से भी हिंसक झड़पें होती रहती हैं. 1982 के युद्ध में इजराइल ने लेबनान और खासतौर से बेरुत शहर को तबाह सा कर दिया था. लेकिन 2006 में हिजबुल्ला के लड़ाकों ने इजराइली सेना को परास्त कर उसे बहुत दूर खदेड़ दिया था. उस युद्ध में विजय और इजराइल की पराजय को यादगार बनाने के लिए बेरुत से कुछ दूर ऊंची पहाड़ी पर ‘वार मेमोरियल’ बनाया गया है जहां इजराइल के साथ युद्ध में हिजबुल्ला की जीत पर आधारित फिल्म दिखाई जाती है जबकि बाहर बने पार्क के विभिन्न हिस्सों में इजराइल से कब्जा किए गए टैंक, तोपों एवं अन्य अस्त्र-शस्त्रों को बिखेरकर रखा गया है.

लेबनान का समावेशी संसदीय लोकतंत्र


    
होटल ग्रैंड प्लाजा के लॉ ओपेरा सुइट के सामने
    लेबनान में अनोखा संसदीय लोकतंत्र है. 15 वर्षों के लंबे गृह युद्ध के बाद हुए 1990 में हुए कन्फेसनल तैफ समझौते के तहत 128 सदस्यीय संसद और सरकार में भी 18 धर्मों एवं संप्रदायों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की व्यवस्था यहां संविधान में ही कर दी गई है. सरकार किसी भी दल अथवा गठबंधन की हो, राष्ट्रपति मेरोनाइट ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी मुसलमान और लोकसभाध्यक्ष शिया मुसलमान ही होना चाहिए. इसी तरह से उप प्रधानमंत्री और डिप्टी स्पीकर ग्रीक रोमन ही हो सकता है. संसद के चुनाव में भी विभिन्न धार्मिक समूहों के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं.

    लगातार युद्ध, हिंसक झड़पों के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका का सामना करते रहे लेबनान और खासतौर से बेरुत के नए सिरे से खड़ा होने की जिजीविषा अपने आप में एक उदाहरण है. यह अपनी भस्मियों से उठ खड़ा होने वाले पौराणिक फीनिक्स पक्षी जैसा ही है. इजराइली हमलों में पूरी तरह ध्वस्त हो चुका बेरुत का नया हवाई अड्डा आज दुनिया के किसी भी विकसित देश के हवाई अड्डों से होड़ लेने में सक्षम है. बेरुत में मिश्रित जन जीवन और संस्कृति के दर्शन होते हैं. दक्षिण लेबनान के इलाके में हमारी पुरानी दिल्ली का नजारा है तो पश्चिमी बेरुत में सिटी सेंटर और समुद्र किनारे ‘हमरा स्ट्रीट’ पर घूमते समय तमाम ऊंची अट्टालिकाएं, बिजनेस सेंटर, होटल, रेस्तरां, शापिंग माल-प्लाजा, सिनेमा हाल, नाइट क्लब और पब्स मुंबई के नरीमन प्वाइंट और मेरीन ड्राइव की याद दिलाते हैं. अपने थिएटर, शैक्षणिक,सांस्कृतिक और साहित्यिक, पब्लिशिंग और बैंकिंग गतिविधियों के साथ ही पब्स और नाइट क्लबों से सज्जित नाइट लाइफ के कारण भी बेरुत अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों का आकर्षण केंद्र बना हुआ है. यह भी एक वजह है कि न्यूयार्क टाइम्स ने 2009 में बेरुत को पर्यटकों का सबसे पसंदीदा शहर घोषित किया था जबकि ‘लोनली प्लानेट’ ने इसे दुनिया के दस सर्वाधिक जीवंत शहरों में से एक घोषित किया था. 

ग्रैंड प्लाजा में अमेरिका से आए यहूदी नेता के साथ

 'सूरी कामगार' और   बेरुत !

     
    बेरुत को पश्चिम एशिया का पेरिस भी कहा जाता है. यहां की अर्थव्यवस्था मूल रूप से बैंकिंग एवं पर्यटन तथा दुनिया भर में फैले लेबनानी नागरिकों से आने वाली रकम पर आधारित है. लेकिन छोटे-मोटे तमाम कामों के लिए यह शहर 'सूरी कामगारों' पर टिका है. सूरी यानी पड़ोसी देश सीरिया में गरीबी, बेरोजगारी और आतंकवाद तथा उससे त्रस्त होकर यहां आने वाले लोग होटलों में वेटर से लेकर कारपेंटर, मेकेनिक, इलेक्ट्रिशियन, मेसन, खेत मजदूर, आटोमेबाइल उद्योग आदि क्षेत्रों में काम करते नजर आ जाएंगे. एक होटल में रूम ब्वाय इस्माइल ने बताया कि बेरुत में 70-80 फीसदी ‘वर्क फोर्स’ सीरिया से छह-छह महीने के वर्क परमिट पर आकर काम करनेवालों की है. सीरिया से छात्र भी फीस भरने के लिए यहां 'री इंट्री वीसा' लेकर आते, काम करते और लौट जाते हैं. इस्माइल खुद भी स्नातक छात्र है. उसने बताया कि जिस काम के यहां उसे दस हजार लेबनानी लिरा मिलते हैं, उसी काम के सीरिया में आधे या उससे भी कम पैसे ही मिलते हैं. उसके अनुसार ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां आपको सूरी कामकाजी नहीं मिलें. अगर सूरी लोग यहां से चले जाएं तो लेबनान और बेरुत का जनजीवन ठप हो जाएगा या फिर बेतरह प्रभावित होगा.

होटल ग्रैंड प्लाजा में अमेरिका से आए यहूदी 
प्रतिनिधि के साथ एशियाई (पाकिस्तानी) प्रतिनिधि


फिलीस्तीनी शरणार्थियों की बदहाली !
 

    
दक्षिण बेरुत में फिलीस्तीनी शरणार्थियों के लिए बने
कब्रिस्तान के बगल में ही उनकी बस्ती है
लेकिन सबसे बुरी हालत तो यहां रहने वाले फिलीस्तीनी शरणार्थियों की है. उनकी बस्तियां अलग-अलग इलाकों में हैं. दक्षिणी बेरुत में हमारे होटल के पास की ऐसी ही एक बस्ती बुर्ज अल बराजनेह में जाने और कुछ शरणार्थियों से मिलने का अवसर मिला. लेबनान में उन्हें किसी तरह के नागरिक अधिकार नहीं हैं. वे मन मुताबिक शिक्षा और रोजगार नहीं पा सकते. पता चला कि 1948 में जब फिलीस्तीन की छाती पर दुनिया भर के यहूदियों के लिए धर्म के आधार पर इजराइल देश बनाया जा रहा था, फिलीस्तीनियों को अपना घर बार, सब कुछ छोड़ जान बचाकर पड़ोसी मुल्कों में भागना पड़ा था. लोग अपने घरों पर ताले लगाकर आए थे कि स्थितियां सुधर जाने के बाद वे अपने घरों को लौट सकेंगे. लेकिन पीढियां गुजर गईं, हालात नहीं बदले. कुछ बुजुर्ग लोगों ने उन चाभियों को दिखाया जिनसे अपने घरों के दरवाजे वे बंद करके आए थे. अब उन घरों पर किन्हीं औरों का कब्जा है. इजराइल इन शरणार्थियों को वापस उनके घरों में लौटने देने को कतई राजी नहीं है. 


    बेरुत में हम दो अप्रैल को वाया दोहा (कतर) दिल्ली के लिए रवाना होने तक रुके रहे. हमारे दो साथियों मुंबई के सईद अहमद और यूपी में बहराइच के मूल निवासी और अभी नई दिल्ली में रह रहे सुजात अली कादरी, को दो दिन और ज्यादा रुकना पड़ा. होटल से उनके पासपोर्ट गायब हो गए थे. होटल में प्रवेश के समय काउंटर पर सभी लोगों के पासपोर्ट ले लिए गए थे. उसके बाद ही हमें कमरे आवंटित कर चाबियां दी गई थीं. लेकिन वापसी के समय जब पासपोर्ट लौटाए जा रहे थे तो दो पासपोर्ट कम थे. होटलवाले यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि ये दो पासपोर्ट उन्होंने अपने पास जमा किए थे. काफी कहा सुनी हुई लेकिन वे लोग अपने रुख से टस से मस होने को तैयार नहीं थे. भारतीय दूतावास के हस्तक्षेप पर भी वे लोग यह मानने को तैयार नहीं हुए कि उनके पास से किसी के पासपोर्ट गुम हुए हैं. वे तो यहां तक कहने लगे कि उनके होटल में यह दोनों लोग ठहरे ही नहीं थे. बाद में किसी तरह भारतीय दूतावास ने उनके लिए अस्थाई पासपोर्ट का प्रबंध किया और तब जाकर दो-तीन दिन बाद वे दोनों स्वदेश लौट सके. 

भारत वापसी 



बेरुत की मशहूर हमरा स्ट्रीट पर दार अल नदवा के कार्यालय में
हिजबुल्ला के करीबी इस्लामी नेता मान बसूर के साथ. समुद्र किनारे
हमरा स्ट्रीट के इलाके की तुलना मुंबई के नरीमन प्वाइंट और
मरीन ड्राइव से की जा सकती है.
    बहरहाल, हम लोगों के लिए दो अप्रैल को दोहा और फिर वहां से दिल्ली तक की उड़ान कतर एयरवेज से थी. हम सुबह ही बेरुत हवाई अड्डे पर पहुंच गए. सामानों की तलाशी के क्रम में हमारे सूटकेस को खुलवाया गया. हमें लगा कि तेहरान के मेयर द्वारा दिया गया मोमेंटो एक बार फिर समस्या बन रहा होगा, लेकिन एक्सरे मशीन पर बैठे अधिकारी ने सूटकेस खुलवाकर उसमें रखी जैतून के तेल की बोतल निकलवा ली. हमारे तमाम अनुनय-विनय को नकारते हुए जैतून के तेल की बोतलें रखवा ली गईं. हालांकि बोतलें चेक इन बैगेज में थीं लेकिन वह भी उन्हें गंवारा नहीं थीं. ईरान की तरह लेबनान में भी जैतून की पैदावार खूब होती है. जैतून और उसका तेल भी वहां काफी सस्ता और शुद्ध मिलता है. हम जब तक वहां रहे जैतून और उसका तेल किसी न किसी बहाने हमारे नाश्ते-भोजन का अंग बनता रहा क्योंकि बताया गया कि यह कोलोस्ट्रल में कमी लाता है. लेकिन हम जैतून का तेल ला पाने में विफल रहे. एयरपोर्ट के अधिकारियों का कहना था कि अगर जैतून के तेल की बातलें ले जानी हैं तो अपने सामान के साथ  बाहर जाइए और पर्याप्त पैकिंग करवाने के बाद ले आइए. उसने समझाया कि अगर सामानों की लदान-उतरान के बीच कोई बोतल लीक हो गई और उससे आपके अथवा किसी और यात्री के भी कपड़े खराब हो गए तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा. जहाज छूटने का समय करीब होने के कारण हम यह जहमत उठाने को राजी नहीं थे लिहाजा जैतून के तेल की बोतलें वहीं छौड़ हम आगे बढ़ गए. 

    कतर एयरवेज की उड़ान काफी अच्छी और सुविधा संपन्न रही. मदिरा सेवन के आदी मित्रों के लिए 15-20 दिनों के बाद अच्छी मदिरा सेवन का अवसर भी मिला. भोजन भी इन दिनों में पहली बार अपने जायके के हिसाब से मिला. दोहा में हवाई अड्डे पर कई घंटे यूं ही गुजारने पड़े, दिल्ली के लिए कतर एयरवेज की उड़ान के इंतजार में. लेकिन पूरा समय दोहा हवाई अड्डे पर उपलब्ध सुविधाओं, ड्यूटी फ्री शापिंग में कैसे गुजर गया किसी को महसूस ही नहीं हुआ. दोहा से तकरीबन साढ़े तीन घंटे की उड़ान भरकर हम तीन अप्रैल की सुबह साढ़े तीन बजे दिल्ली आ गए. और इस तरह से ग्लोबल मार्च टू येरूशलम के बहाने हमारी पश्चिम एशिया के बड़े भूभाग की यात्रा संपन्न हुई. पश्चिम एशिया में संयुक्त अरब अमीरात के दुबई, अबू धाबी, शारजाह की यात्रा हम पहले ही कर चुके थे.

नोटः पश्चिम एशिया में ईरान, तुर्की और लेबनान की यात्रा संपन्न होने के तकरीबन पांच वर्षों बाद, अगस्त 2017 में चीन की राजधानी
मतियान्यु के पास चीन की (हरी भरी) महान दीवार
 (तस्वीर इंटरनेट से) 
बीजिंग और उसके बंदरगाह शहर झानझियांग में एक सप्ताह की यात्रा का अवसर उस समय मिला, जब चीन के साथ डोकलाम को लेकर भारत का सीमा विवाद चरम पर था. यात्रा संस्मरणों की अगली कड़ी चीन यात्रा के बारे में.

Saturday, 12 December 2020

कमाल अता तुर्क के देश तुर्की में (दूसरी किश्त), In Turkey Part II


सूफी संत मौलाना रूमी के शहर कोन्या में 


जयशंकर गुप्त


    
    यह
सच है कि तुर्की पहला मुस्लिम देश था जिसने सबसे पहले इजराइल को मान्यता दी थी. और सरकार के स्तर पर 'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के एशियाई कारवां को किसी तरह का समर्थन-सहयोग भी नहीं था. तुर्की के मौजूदा राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोगन उस समय देश के प्रधानमंत्री थे. लेकिन नागरिकों के स्तर पर यहां के अधिकतर लोग इजराइल के विरोध में और फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष के समर्थक रहे हैं. डेढ़ साल पहले समुद्री रास्ते से गाजा में फिलीस्तीनियों के लिए राहत सामग्री लेकर जा रहे तुर्की के काफिले मावी-मरमारा पर इजराइल के नेवी कमांडो के हमले में नौ तुर्की नागरिकों की हत्या के बाद जनजीवन में इजराइल के खिलाफ आक्रोश और बढ़ा है. इसका एक उदाहरण अंकारा में इजराइली दूतावास के बाहर एशियाई कारवां के प्रदर्शन में स्थानीय लोगों की भागीदारी के रूप में भी देखने को मिला. 
अंकारा में एशियाई कारवां का स्वागत


    अनातोलिया में स्थित अंकारा तुर्की की राजधानी होने के साथ ही एक प्रमुख व्यापारिक और औद्योगिक केंद्र भी है. यहां पर सभी विदेशी दूतावास भी स्थित हैं. तुर्की के राजमार्गों एवं रेलमार्ग के जाल के मध्य में स्थित होने के कारण यह शहर व्यापार का प्रमुख केंद्र है. कभी इसे अंगोरा शहर के नाम से भी जाना जाता था. लम्बे बालों वाली अंगोरा बकरी और उसके कीमती ऊन, अंगोरा खरगोश, नाशपाती और शहद के लिये प्रसिद्ध इस प्राचीन शहर को कमाल पाशा ने 1923 में इसकी भौगोलिक और सामरिक स्थिति को देखते हुए ही देश की राजधानी बनाया था.

    
मुस्तफा कमाल अता तुर्क की प्रतिमा के नीचे, दाएं से 
जलगांव (महाराष्ट्र) के मित्र रागिब बहादुर, 
केरल के पत्रकार अब्दुल नजीर और एक छायाकार मित्र के साथ

    अंकारा में रात हमारे ठहरने का इंतजाम अंकारा-इस्तांबुल राष्ट्रीय राजमार्ग से लगी एक भव्य मस्जिद के निकाह हाल में किया गया था. पता चला कि वहां मस्जिदें केवल इबादत और नमाज अदा करने की जगह ही नहीं बल्कि सामाजिक मेलजोल की जगह भी होती हैं. जिसमें शापिंग कांप्लेक्स के साथ ही शादी-विवाह जैसे सामाजिक समारोह भी होते हैं. मस्जिद में नहाने के लिए गरम पानी के अलावा हर तरह की सुविधा उपलब्ध थी. हां, स्टोरी फाइल करने के लिए हमें उससे कुछ दूर जाना पड़ता था, जहां फैक्स और इंटरनेट की व्यावसायिक सुविधा उपलब्ध थी. खाने-पीने की दिक्कत भी होती थी, हालांकि तमाम तरह के मांसाहार के बीच अंडा, मछली के साथ ही फल, सलाद और कहीं-कहीं शाकाहार भी मिल जाता था. हमें किसी ने शुरू में ही सलाह दी थी कि नाश्ते से लेकर भोजन में भी ताजा फलों के साथ ही ओलिव यानी जैतून के फल, अंचार और तेल का प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल अवश्य करना चाहिए जो पूरे पश्चिमी एशिया में बहुतायत उपलब्ध होता और स्वास्थ्य के लिहाज से बहुत मुफीद होता था. हमने इस सुझाव पर बड़ी गंभीरता से अमल किया. 

   

 एशिया-यूरोप के संगम इस्तांबुल में


    
एरझुरुम के पास सड़क किनारे रेस्तरां में चाय की चुस्की के बाद
इंडोनेशिया के मित्र मोहम्मद मारूफ और दिल्ली के पत्रकार
साथी अब्दुल बारी


    अंकारा से आगे बढ़ते हुए हमारा कारवां तकरीबन 450 किमी दूर इस्तांबुल पहुंचा. पूरी दुनिया में एशिया माइनर के रूप में मशहूर तुर्की की आर्थिक और औद्योगिक राजधानी कहे जाने वाले तकरीबन डेढ़ करोड़ की आबादीवाले इस्तांबुल शहर को दुनिया की सबसे प्राचीन सभ्यताओं वाले दस सबसे खूबसूरत शहरों में भी शुमार किया जाता है. इस्तांबुल वर्ष 1923 तक ओटोमन साम्राज्य के जमाने में तुर्की की राजधानी हुआ करता था लेकिन बीसवीं सदी में 29 अक्टूबर 1923 को हुई क्रांति के बाद मुस्तफा कमाल पाशा ने कूटनीति एव युद्धनीति के मद्देनजर राजधानी को यहां से 450 किमी दूर अंकारा में स्थानांतरित कर दिया था. तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा के पश्चिमी सभ्यता पर आधारित सुधारों की छाप भी साफ दिखती है. ईरान के उलट तुर्की में सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव भी साफ नजर आते हैं. ईरान में जहां औरतें बुर्के में और सिर को हिजाब से ढके मिलती थीं, तुर्की में औरतों के बाल खुले भी नजर आए. यहां मस्जिदों में अजान नहीं होती. हालांकि अब यहां के जनजीवन पर भी इस्लामी क्रांति और संस्कृति का दबाव तेजी से बढ़ रहा है. 

    इस्तांबुल पुराना शहर है. समुद्र किनारे स्थित होने के कारण यहां बड़े बंदरगाह हैं जहां बड़े-बड़े जहाजों का आवागमन लगा रहता है. इस कारण भी यह शहर अपने मुंबई जैसा भी लगता है. धार्मिक रूप से भी इस शहर का बड़ा महत्व है. यहां अया सोफिया और सुल्तान अहमद मस्जिद उर्फ विश्व प्रसिद्ध ‘ब्ल्यू मास्क’ पूरी दुनिया में इस शहर की पहिचान बन चुकी हैं. नीले पत्थरों से बनी इस मस्जिद का निर्माण वर्ष 1609 से 1616 के बीच किया गया. इस्तांबुल आनेवाले पर्यटकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण आकर्षण केंद्र है.

  
यूरोप-एशिया का मिलन स्थल, इस्तांबुल  (तस्वीर इंटरनेट से)
    इस्तांबुल की खाड़ी पर बने 'बोस्फोरस स्ट्रेट' पुल को यूरोप और एशिया का संधि या संगम स्थल भी कहा जाता है. पुल पार करते ही लिखा मिलता है, ‘यूरोप में आपका स्वागत है’ तुर्की में वाकई यूरोप और एशिया की सभ्यता और संस्कृति का मेल नजर आ रहा था. इसे आधुनिकता और रुढ़िवादी पारंपरिकता का संगम भी कह सकते हैं. एक तरफ बुर्के और हिजाब में लिपटी महिलाओं से लेकर स्किन टाइट डेनिम की जींस और उससे मैच करते टॉप्स पहने, बालों में अलग-अलग रंगों की डाई किए हुए महिलाओं का मिला-जुला माहौल देखने को मिला, तो दूसरी तरफ दाढ़ी और पारंपरिक वेशभूषावाले और पाश्चात्य संस्कृति में रंगे पुरुष भी नजर आए. तुर्की के खान-पान और भारत के खान-पान में काफी समानताएं नजर आईं. आलू, प्याज, टमाटर, गोभी की सब्जियां, नमक, मिर्च और मसाले भी यहां खान-पान में शामिल हैं. यहां भी रोटियां घरों में नहीं बनतीं बल्कि बैकरी और सार्वजनिक चूल्हों से खरीदकर लाई-खाई जाती हैं. इस्ताम्बुल पहुंचने के रास्ते में समुद्र किनारे फोर्ड, होंडा, टोयोटा जैसी बहु राष्ट्रीय कंपनियों के साइनबोर्डों के बीच अनिवासी भारतीय उद्योगपति लक्ष्मीनिवास मित्तल की आर्सेलर फैक्ट्री का साइनबोर्ड भी नजर आता है जबकि शहर में गुजरते हुए टाटा की इंडिगो कार का नजर आना आश्चर्य मिश्रित सुखानुभूति पैदा कर रहा था. इस्ताम्बुल में भी हमारे ठहरने का इंतजाम एक भव्य शिया मस्जिद में किया गया था जिसमें तकरीबन सारी सहूलतें-सुविधाएं उपलब्ध थीं. वहां ‘वाय फाय’ के जरिए इंटरनेट की सुविधा भी थी, हालांकि वहां नेट पर काम करना कई तरह के ‘वायरसों’ को आमंत्रित करने जैसा भी था.
इस्तांबुल में मरमारा समुद्र के किनारे

    
    जिस दिन 25 मार्च, रविवार को, हम इस्तांबुल भ्रमण पर निकले, वह दिन वहां सार्वजनिक अवकाश का था ( आम तौर पर मुस्लिम देशों में साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार को होता है लेकिन यह कमाल पाशा के सामाजिक-धार्मिक सुधारों का ही असर था कि तुर्की में साप्ताहिक अवकाश रविवार को होता है.) काफी लंबी दूरी तक फैले समुद्र किनारे सूखे पेड़ों के हल्के झुरमुटों के बीच जैसे पूरा इस्तांबुल शहर ही उमड़ा पड़ा था. लोग बाग सपरिवार खाने-पीने और खेलने के सामानों से लैस होकर वहां जमे थे. सड़क किनारे उनकी कारें खड़ी थीं. कुछ लोग साथ लाई अंगीठियों पर कबाब भुनने में मशगूल थे तो कुछ अपने बच्चों और कुत्तों के साथ खेलने में. भीड़ का आलम यह था कि तकरीबन रेंग रहे ट्रैफिक के बीच हमारी बसों को सड़क पर कहीं खड़ा हो सकने यानी पार्क करने की जगह ही नहीं मिल सकी. हम बस में बैठे ही घूमते और शहर का नजारा देखते रहे. इस कारण भी हम बाजार की बात तो छोड़ ही दें, अया सोफिया और ‘ब्ल्यू मास्क’ को भी ठीक से नहीं देख सके. समुद्र किनारे एक जगह हमारे साथ चल रही वाल्वो बसों के ड्राइवरों ने हमें इस ताईद के साथ उतार दिया कि ठीक उनके बताए समय और स्थान पर हमें मिलना है. तब तक वे बसों को इधर उधर घुमाते रहे. तयशुदा समय और स्थान पर हम सभी सभी साथी बस में सवार हो गए लेकिन इस क्रम में एक साथी तो छूट से गए थे. बाद में मोबाइल कनेक्टिविटी का लाभ लेकर फिर से उन्हें बस में साथ लिया गया.
रविवार को छुट्टी के दिन इस्तांबुल में मरमारा समुद्र के किनारे
सपरिवार मौज-मस्ती. सड़कों के किनारे पार्किंग की जगह नहीं



मौलाना रूमी के शहर कोन्या में


     एशियाई कारवां 25 मार्च की रात को इस्तांबुल से तकरीबन 700 किमी दूर कोन्या के लिए रवाना हुआ. अगली सुबह हम कोन्या में थे. सेंट्रल अनातोलिया क्षेत्र में तुर्की की राजधानी अंकारा के दक्षिण में तकरीबन 260 किमी दूर स्थित विश्व के प्राचीनतम शहरों में से एक एतिहासिक शहर कोन्या आबादी के हिसाब से तुर्की का सातवां सबसे बड़ा शहर है. उस समय कोन्या की आबादी तकरीबन 12 लाख बताई गई. कोन्या कभी (1071-1275 तक) सुल्तान रम या कहें रूम के सेल्जुक तुर्क सल्तनत की राजधानी रूमी के नाम से प्रसिद्ध था. बताते हैं कि उसी समय इस शहर का नाम कोन्या रखा गया. यहां ऐतिहासिक किले और स्मारक होने के साथ ही कोन्या कालीन उद्योग, आटा मिलों, अल्युमिनियम के कारखाने आदि के कारण कोन्या को तुर्की का औद्योगिक शहर भी कहा जाता है.
सूफी संत, शायर मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मजार पर
लेकिन इस समय दुनिया भर में कोन्या की प्रसिद्धि तेरहवीं सदी के मशहूर सूफी संत-कवि मौलाना जलालुद्दीन रूमी की मजार के लिए ही है. इस्लाम में सूफी संतों अहम मुकाम है. सूफी संत मानते हैं कि सूफी मत का श्रोत खुद पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब हैं. दुनिया भर में अनेक सूफी संत हुए हैं, जिन्होंने लोगों को राहे-हक़ पर चलने का पैगाम दिया. इन्हीं में से एक हैं फारसी के सुप्रसिद्ध कवि जलालुद्दीन रूमी. वह जिंदगी भर इश्के-इलाही में डूबे रहे. उनकी हिकायतें और बानगियां तुर्की से हिंदुस्तान तक छाई रहीं. उनकी शायरी इश्क और फ़ना की गहराइयों में उतर जाती है. उनके अनुसार खुदा से इश्क और इश्क में खुद को मिटा देना ही इश्क की इंतिहा है, खुदा की इबादत है. कोन्या में रूमी साहब की मजार पर आकर लगा कि मेरा जीवन धन्य हो गया. उनकी मजार पर और उसके इर्द गिर्द मीते पल मेरी जिंदगी के सबसे सबसे महत्वपूर्ण पलों में शुमार किए जा सकते हैं.  हम खुशकिस्मत थे कि अपने देश में हजरत निजामुद्दीन चिश्ती, अजमेर के ख्वाजा, गरीब नवाज हजरत मोइनुद्दीन चिश्ती और फतेहपुर सीकरी के शेख सलीम चिश्ती जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के सूफी संतों की दरगाह पर मत्था टेक चुके होने के बाद अब तुर्की के कोन्या में मौलाना रूमी की मजार के सामने सजदा करने के अवसर मिला. 

     
कोन्या में मौलाना रूमी की तस्वीर के नीचे
    फारसी साहित्य के महत्वपूर्ण लेखक जलालुद्दीन रूमी को कई नामों से जाना जाता है. अफगानी उन्हें बलखी के नाम से पुकारते हैं. ईरान में वह मौलवी हैं, तुर्की में मौलाना और हिंदुस्तान सहित अन्य देशों में रूमी. 1207 ईस्वी में 30 सितंबर को उनका जन्म अफगानिस्तान के बलख़ या बेल्ह शहर में हुआ था. लेकिन बाद के दिनों में अपने पिता बहाउद्दीन बेलेद के साथ तुर्की के अनातोलिया और फिर कोन्या चले आए थे. उन्होंने अपना पूरा जीवन कोन्या में बिताया. यहीं रहकर उन्होंने अपनी तमाम महत्वपूर्ण रचनाएं लिखीं और यहीं 17 दिसंबर 1273 को अंतिम सांस भी ली थी. रूम के शहर कोन्या में रिहाइश की वजह से ही मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन, मौलाना-ए-रूम या रूमी कहलाए जाने लगे. उनके सिलसिले के सूफी मुरीद उन्हें खुदावंदगार के नाम से भी पुकारते थे. उनके पुरखों की कड़ी पहले खलीफा अबू बकर तक जाती है. उनके पिता बहाउद्दीन वलेद न सिर्फ एक आलिम मुफ्ती, बल्कि बड़े पहुंचे हुए सूफी संत भी थे. उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी. 
     रूमी का मसनवी में महत्वपूर्ण योगदान है. उन्होंने सूफी परंपरा में नर्तक साधुओं-गिर्दानी दरवेशों-की परंपरा का संवर्धन किया था. कोन्या के बीच शहर में उनका भव्य स्मारक और संग्रहालय बना है, जहां दुनिया भर से लाखों पर्यटक-श्रद्धालु हर साल जमा होते हैं. यहां उनकी हस्तलिखित रचनाओं के अलावा उनके कपड़ों और बरतनों को भी बहुत करीने से सहेज कर रखा गया है. उन्होंने मूलतः फारसी में ही लिखा. उनकी प्रमुख रचनाओं में मसनवी, दीवान ए कबीर, रुबाइलर आदि का समावेश है. जाहिर है कि कोन्या को अब मौलाना रूमी के नाम से भी जाना जाता है. यहां तक कि उनकी मज़ार के बगल में एक होटल का नाम भी उनके ही नाम पर रख दिया गया है. संग्रहालय में उनके नाम के लाकेट और चाबियों के छल्ले भी बिक रहे थे. उनकी मजार पर एक जगह उनका मशहूर उद्धरण भी देखने को मिला. मौलाना रूमी ने लिखा, ‘‘मेरे मरने के बाद मेरे मकबरे को जमीन में मत खोजना, उसे लोगों के दिलों में खोजना.’’ उनके करीबी, समर्थक हर साल 17 दिसंबर को उनकी मौत की सालगिरह का जश्न शादी की सालगिरह के रूप में मनाते हैं. मौत से पहले उन्होंने अपनी मौत को 'पिया (प्रियतम, खुदा, ईश्वर) मिलन (शादी)  की रात करार देते हुए अपने समर्थकों से कहा था कि उनकी मौत पर कोई रोएगा नहीं.  

कोन्या की एक बाजार में तफरीह
    खूबसूरत शहर कोन्या में  हम लोग दिन भर रहे. पास की बाजार में भी गए. विंडो शापिंग भी की. अच्छा लगा. पूरा दिन कोन्या में बिताने के बाद 26 मार्च की रात के नौ बजे हमारा कारवां वाल्वो बसों से कोन्या से  तकरीबन 400 किमी दूर दक्षिण तुर्की में उत्तर पूर्वी भूमध्य सागर के तट पर स्थित बंदरगाह शहर मर्सिन के लिए रवाना हुआ. तकरीबन 9 लाख की आबादीवाले ऐतिहासिक एवं प्राचीन मर्सिन शहर को तुर्की के मर्सिन प्रांत की राजधानी और सबसे बड़ा बंदरगाह तथा भूमध्य सागर के लिए तुर्की का मुख्य प्रवेश द्वार भी कहा जाता है. इस हिसाब से यह तुर्की के व्यावसायिक गतिविधियों वाले प्रमुख शहरों में से भी एक है.

तासुकु बंदर पर जहाज के इंतजार में बीता दिन


    27 मार्च की अल्लसुबह तीन बजे हम मर्सिन शहर से कुछ दूर सिलिफके जिले में स्थित तासुकु या कहें तैसुकु बंदरगाह पहुंच गए. यहीं से हमें पानी के जहाज से लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए रवाना होना था. बताया गया था कि हमें सुबह ही वहां तासुकु बंदरगाह से बेरुत के लिए पानी का जहाज पकड़ना है, इसीलिए हम लोग अल्ल सुबह ही यहां पहुंच गए थे. लेकिन जहाज पकड़ने का समय बदलता गया और हम छोटे, तकरीबन दस हजार की आबादी वाले, मगर बहुत खूबसूरत तासुकु बंदर के सुहाने मौसम और रेस्तराओं का लुत्फ उठाते रहे. तासुकु में भी शौचालयों में पेशाब करने के लिए एक से दो तुर्की लिरा (2012 में तुर्की का एक लिरा 31-32 रु. के बराबर होता था. इस समय तो तुर्की के लिरा के अवमूल्यन के कारण उसकी कीमत 9.50 रु. के आसपास रह गई है) अदा करना पड़ता था. एक तो ठंड का मौसम और ऊपर से पैसे लगने की फिक्र, पेशाब कुछ ज्यादा ही लगती थी. ऐसे में हमें लिला नाम का एक रेस्तरां मिल गया जिसकी मालकिन एयलिन और उनके पति बहुत ही मजेदार और मिलनसार थे. उनके रेस्तरां में चाय भी अच्छी और अपेक्षाकृत सस्ती (आधे लिरा में एक गिलास काली चाय) ईरान, तुर्की और लेबनान में कहीं भी, हमें दूध की मलाईदार चाय देखने को नहीं मिलती थी. एयलिन के रेस्तरां में डब्ल्यू सी (अरब देशों में टॉयलेट को लोग डब्ल्यू सी के नाम से अधिक जानते हैं) की सुविधा भी थी और इसके लिए वह कोई अतिरिक्त पैसे भी नहीं लेती थी इसलिए जब कभी जरूरत होती हम चाय के बहाने उनके रेस्तरां में पहुंच जाते और चाय का आर्डर करते. हमारा मकसद भांप कर एक बार तो एयलिन ने मुस्कराते हुए कहा भी, ‘‘टॉयलेट यूज करने के लिए चाय जरूरी नहीं है. आप हमारे मेहमान हैं. बिना चाय पिए भी हमारा टॉयलेट यूज कर सकते हैं.’’ 

    तासुकु छोटा सा बंदर शहर है जो आमतौर पर पर्यटकों और बंदरगाह पर लेबनान और साइप्रस आने-जाने वाले जहाजियों-यात्रियों से ही गुलजार रहता है. एयलिन के अनुसार गर्मी के दिनों में यहां रहिवासियों की संख्या 40-50 हजार तक पहुंच जाती है जबकि सर्दियों में कम होकर 10 हजार तक रह जाती है. बातचीत के क्रम में एयलिन ने बताया कि मर्सिन और तासुकु में भी घूमने और देखने के लायक बहुत कुछ है.तासुकु में आधुनिक तुर्की के निर्माता अता तुर्क कमाल पाशा के नाम का एक संग्रहालय भी है. कमाल पाशा मर्सिन और तासुकु की आबोहवा से बहुत प्रभावित थे. अपने अंतिम समय में वह यहां चार बार आए थे और परिवार के साथ कई कई दिन ठहरे थे. सन् 2000 में सरकार ने उस तीन मंजिला मकान को उनके नाम का संग्रहालय घोषित कर दिया जिसमें वह यहां आने पर ठहरते थे. लेकिन हम चाहकर भी अता तुर्क संग्रहालय नहीं जा सके. अगर पता होता कि लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए हमारा जहाज काफी देर बाद रवाना होगा तो हम लोग न सिर्फ अता तुर्क संग्रहालय बल्कि मर्सिन में भी घूम कर अपने समय का सदुपयोग कर सकते थे. लेकिन बार-बार यही कहा जाता कि कुछ ही देर में हमारा जहाज पहुंचनेवाला है और हमें तुरंत ही उसमें सवार होना पड़ेगा. असमंजस की स्थिति बने रहने के कारण हम लोग तासुकु में यूं ही वक्त जाया करते रहे. तासुकु में समुद्र किनारे समय बिताते अचानक दिन में पौने दो बजे बंदरगाह के पास से धुएं का गुबार उठते दिखा. हम लोग दौड़ कर गए, पता चला कि जहाज पर लदने जा रहे पेप्सीकोला के रेफ्रिजरेटरों से लदे एक वैन में आग लग गई थी. मिनटों में ही पुलिस और फायर ब्रिगेड की गाड़ियां आ गईं. देखते-देखते ही आग पर काबू पा लिया गया. लेकिन तब तक सारे रेफ्रिजरेटर जलकर खाक हो गए थे.
तासुकु बंदरगाह पर जहां हम जहाज पकड़नेवाले थे,
पेप्सी के रेफ्रिजरेटरों से भरे कंटेनर में आग लग गई 

    
    

बेरुत के लिए  रवानगी          

    हम रात के ग्यारह बजे बेरुत जाने वाले 250 सीटों के फर्गुन यात्री जहाज या कहें बड़े स्टीमर में सवार होने तक तासुकु बंदर पर ही रहे. इमिग्रेशन जांच के दौरान कतार में सबसे पहला व्यक्ति मैं ही था. सामानों की एक्सरे जांच के क्रम में न जाने क्या दिखा कि अधिकारियों ने मुझे रोक लिया और मेरा सूटकेस खोलकर दिखाने को कहा. पता चला कि तेहरान के मेयर के द्वारा दिया गया बुर्ज ए मिलाद टावर का मोमेंटो उन्हें खटक रहा था. इस मोमेंटो में नीचे लगी इलेक्ट्रिक बैट्री से वह जलता-बुझता भी है. उसे बाहर निकालकर देखने के बाद अधिकारी संतुष्ट हो गए. हमने उन्हें बताया कि यह मोमेंटो हमारे साथ बेरुत जा रहे तकरीबन सभी लोगों के बैगेज में मिलेगा. इसके बाद उन्होंने उसकी जांच बंद कर दी और हम लोग पानी के जहाज 'फर्गुन' पर सवार होकर लेबनान की राजधानी बेरुत के लिए निकल पड़े. 


बेरुत बंदरगाह पर जहाज 'फर्गुन' के डेक पर

नोट ः लेबनान की राजधानी बेरुत के  रास्ते में समुद्री जहाज फर्गुन में  इजराइल के आशंकित हमले से लेकर अन्य तमाम तरह की आशंकाओं के बीच बेरुत को लेकर मन में बहुत सारी बातें  दिमाग में तैर  रही थीं. 

बेरुत और उसकी  सुहानी रुत के बारे में बहुत अच्छी -अच्छी बातें सुन रखे थे. लेकिन बेरुत बंदरगाह पर पहुंचने पर जिन परिस्थितियों से सामना हुआ, किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था. तकरीबन 40 घंटे हम लोग एक छोटे से जहाज में 'बंधक' से रहे. बेरुत की सरजमीं पर पैर भी नहीं रख सके. इस दुःस्वप्न से लेकर लेबनान की राजधानी बेरुत में बीते रोमांचक पलों से जुड़े संस्मरण अगली किश्त में .