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Monday, 21 December 2020

पश्चिम एशिया (बेरुत में बीते पल) (In Beirut with Global March to Jerusalem)


लेबनान के लिए समुद्री यात्रा


जयशंकर गुप्त


  
बेरुत बंदरगाह पर वीसा के सवाल पर जहाज,
फर्गुन के डेकपर हंगामा
    फर्गुन जहाज में 13 देशों के हम कुल 137 प्रतिनिधि शामिल थे. जहाज के डेक पर जाकर मेडिटेरियन सी यानी भूमध्य सागर का दृश्य बड़ा ही सुहाना लगता था लेकिन उसे बहुत देर तक नहीं देखा जा सकता था, चारों तरफ नीला पानी ही पानी. हम अंदर जहाज में आ गए. अंदर जहाज में अलग-अलग तरह की चर्चाएं चल रही थीं. चर्चा इस बात को लेकर भी थी कि अगर इजराइल की किसी पनडुब्बी ने हमारे जहाज पर हमला कर दिया तो? इजराइल के लिए कुछ भी असंभव नहीं. 31 मई 2010 के मावी मरमारा नरसंहार की चर्चाएं भी होने लगीं जिसमें फिलीस्तीनियों के लिए राहत सामग्री ले जा रहे ‘गाजा फ्रीडम फ्लोटिला’ में शामिल छह जहाजों के काफिले पर अंतर्राष्ट्रीय समुद्री सीमा में गाजा से 65 किमी दूर हमला कर इजराइली कमांडो दस्ते ने नौ लोगों की जान ले ली थी. वैसे, इस बार भी 23-24 मार्च को इजराइल ने अपनी सीमा से लगने वाले सीरिया, लेबनान, मिश्र और जार्डन की सरकारों को लिखित चेतावनी दे दी थी कि उनके देशों से इजराइल की सीमा (येरूशलम की ओर) में प्रवेश करने वालों का स्वागत गोलियों और तोप के गोलों से किया जाएगा. हालांकि इजराइल की धमकियों का कारवां में शामिल लोगों पर खास असर नहीं था. हम लोग गाते-बजाते जा रहे थे. भाषणबाजी भी हो रही थी. हमारी भी तकरीर हुई. साथियों की आम प्रतिक्रिया यही थी कि ‘जो होगा, देखा जाएगा. जहां मरना बदा होगा, वहीं मरेंगे.’ हमारे मशहूर शायर मिर्जा गालिब ने कहा भी है, ‘‘मौत का एक दिन मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.’’ इस तरह की चर्चाओं के बीच कब नींद आ गई और रात बीत गई, हम बेरुत या कहें बेयरुत पहुंच गए, कुछ पता ही नहीं चला. 

फर्गुन जहाज के बेरुत बंदरगाह पर पहुंचने के बाद की तस्वीर
पीछे बेरुत शहर की झलक

बेरुत के बुरे अनुभव!


    28 मार्च की सुबह नौ बजे हमारा फर्गुन जहाज बेरुत बंदरगाह पर पहुंच गया था. तकरीबन उसी जगह जहां इस साल (2020) अगस्त के महीने में भारी विस्फोट हुए थे जिनके चलते बेरुत में जान-माल की भारी तबाही हुई थी. मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) का पेरिस कहे जानेवाले बेरुत की रुत वाकई बहुत सुहानी थी. बेरुत के सौन्दर्य और वहां की हूरों के बारे में भी बहुत कुछ सुन रखा था. लेकिन हमारे हिस्से में तो कुछ और ही बदा दिख रहा था. बेरुत पोर्ट पर हमारे साथ जो कुछ घटा, वह किसी दुःस्वप्न से कम नहीं था. लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी जहाज के अंदर आए और हमसे वीसा फार्म भरवाकर हमारे पासपोर्ट लेकर चले गए. लेबनान में वीसा आन एराइवल देने की बात थी. इसी आश्वासन के बाद जहाज फर्गुन हमें बेरुत ले जाने को तैयार हुआ और तुर्की के आप्रवासन अधिकारियों ने हमें बेरुत के लिए रवाना किया था.
    

    
बेरुत बंदरगाह पर जहाज में बंधक! पीछे खड़ा संयुक्त राष्ट्र का
 युद्ध विमान अनिष्ट की आशंका को कम कर रहा था!
    कई घंटे बीत जाने के बाद भी जब वीसा नहीं मिला तो चिंता सताने लगी क्योंकि इंडोनेशिया के साथियों को उसी दिन बेरुत से विमान से जार्डन जाना था. इंडोनेशिया के बेरुत स्थित दूतावास के लोग उन्हें लेने भी आ गए थे. हमारा वीसा नहीं आया. अलबत्ता, समुद्र में किनारे जिस जगह हमारा जहाज खड़ा था, उसके चारों तरफ जमीन पर हमारे जहाज की तरफ रुख किए लेबनान के स्वचालित राइफलधारी सुरक्षा बलों के जवान घेरा बंदी कर खड़े हो गए थे, जैसे हमारे जहाज में आतंकवादियों का कोई गिरोह बैठा हो जिनसे उन्हें मुठभेड़ करनी है. हमारे जहाज के कुछ ही दूर समुद्र में संयुक्त राष्ट्र का भी एक युद्धक जहाज खड़ा था जो हमारे अंदर के भय को कुछ कम कर रहा था. वीसा मिलने में अस्वाभाविक देरी होने पर हम लोगों ने जहाज के डेक पर आकर नारेबाजी शुरू की. शाम पांच बजे अचानक लेबनान के कुछ आप्रवासन अधिकारी आए और इंडोनेशिया के प्रतिनिधियों को जहाज से बाहर निकाला गया. दो घंटे बाद तुर्की और फिर ईरान, मलयेशिया, अजरबैजान और ताजिकिस्तान के लोगों को भी बाहर किया गया क्योंकि उन्हें वीसा की जरूरत नहीं थी (तो फिर उन्हें तब तक जहाज पर क्यों रोके रखा गया था. यह किसी के भी समझ से परे की बात थी). बाकी बच गए हम 37 भारतीय, तीन फिलीपीनी और एक इराकी प्रतिनिधि के लिए कहा गया कि एक घंटे में हमें भी वीसा मिल जाएगा. 

    लेकिन जब रात के 11 बजे तक कोई हलचल नहीं दिखी तो एक बार फिर हम लोगों (जहाज पर बचे प्रतिनिधियों) ने आधी रात को जहाज के डेक पर आकर जोर-जोर से हल्ला-हंगामा और नारेबाजी शुरू की. थोड़ी देर में हमारे हंगामे से खुन्नस खाए, बंदरगाह के आप्रवासन अधिकारी अहमद आए. उनके साथ हमारी कुछ कहा-सुनी भी हुई. वह कुछ ऐसा बता रहे थे कि हमारे मेजबानों से उनकी कोई बात नहीं हो पा रही है. वे लोग इनका फोन नहीं उठा रहे, इसलिए वीसा मिलने में हमें दिक्कत हो रही है. बाद में पता चला कि इसके पीछे फिलीस्तीनी संघर्ष में शामिल संगठनों और गुटों की आपस की लड़ाई के चलते कहीं संवादहीनता की स्थिति बनी है. अहमद अगली सुबह नौ बजे तक कुछ होने की बात कह कर चले गए. दाल में कुछ काला भांप कर हम लोगों ने बेरुत स्थित भारतीय दूतावास से संपर्क किया. कारवां में शामिल हम मीडिया कर्मियों ने अपने-अपने तईं नई दिल्ली और हैदराबाद के मीडिया संपर्कों और राजनीतिक हलकों को अपनी आपबीती बतानी शुरू की. नतीजतन, मीडिया, राज्य सभा और लोक सभा के साथ ही आंध्र प्रदेश विधानसभा और विधानपरिषद में भी यह सवाल मजबूती से उठा. हमारी सरकार भी सक्रिय हुई. दुनिया भर में हमारे हवाले से खबर फैल गई कि ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ में शामिल होने जा रहे हम भारतीय प्रतिनिधियों को बेरुत में बंदरगाह पर बेवजह रोक कर रखा गया है जबकि वहां पुहंचते ही वीसा देने का अश्वासन था. 

डिपोर्टेशन की तैयारी !


   
  जहाज पर पहुंचे भारतीय दूतावास में वीसा काउंसिलर ए के शुक्ला ने बताया कि बेरुत के आप्रवासन अधिकारी तो हमें बैरंग दिल्ली डिपोर्ट करने की तैयारी में हैं. मतलब साफ था कि आपको बिना कोई कारण बताए वापस आपके मुल्क भेज दिया जाएगा और आपके पासपोर्ट पर लिख दिया जाएगा, ‘डिपोर्टेड’. हमारा माथा ठनका. हमने जहाज में साथियों से विमर्श किया और शुक्ला जी की बातों का मर्म समझाया कि हमारे पासपोर्ट्स पर 'डिपोर्टेड' लिखकर हमें वापस हमारे देश भेज दिया जाएगा. उस पर डिपोर्टेशन का कारण भी नहीं लिखा होगा. यानी अब हम-आप इस पासपोर्ट को लेकर दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में नहीं जा सकेंगे. हमने तय किया कि अगर लेबनान सरकार ऐसा करती है तो हम गांधी और लोहिया के दिए राजनीतिक अस्त्र 'सिविल नाफरमानी' का इस्तेमाल करते हुए इसकी शालीनता के साथ अवज्ञा करेंगे. इस बात पर सर्वानुमति बनने के बाद हमने जवाब में शुक्ला जी के जरिए बेरुत के आप्रवासन अधिकारियों को कहलवा दिया कि हम लोग यहां तिरंगे और महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए शांतिपूर्ण और अहिंसक ढंग से ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ में शामिल होने आए हैं. हम गांधी-लोहिया के लोग ‘मारेंगे नहीं लेकिन मानेंगे भी नहीं.’ बिना कारण बताए अपने पासपोर्ट पर ‘डिपोर्टेशन’ का दाग लगवाने के बजाए हम यहां जेल जाना अथवा लेबनान के सुरक्षाबलों की गोलियों से मरना पसंद करेंगे. लेबनान सरकार बताए तो सही कि ‘आन एराइवल वीसा’ देने के आश्वासन से उसके मुकरने के कारण क्या हैं.

     
बेरुत बंदरगाह पर जहाज से बार निकलने के बाद
    इस बीच हमें तासुकु से बेरुत ले आए जहाज फर्गुन के कर्मचारियों का दबाव भी बढ़ रहा था. जाहिर है कि उन्हें अगले मुकाम पर जाना होगा. 
छोटे से जहाज फर्गुन में खाने-पीने का सीमित सामान समाप्त होने को था. शौचालय भी पानी और सफाई के अभाव में दुर्गंध फैलाने लगे थे. तब तक शायद भारतीय दूतावास को 'नई दिल्ली' का संदेश आ चुका था. और तकरीबन 37 घंटे बेवजह जहाज में ही बिताने के बाद हमें वीसा मिल गया. 29 मार्च की रात दस बजे ही हम बेरुत की धरती पर कदम रखने में सफल हो सके. उसके बाद तो बेरुत प्रशासन और खासतौर से आप्रवासन अधिकारियों का हमसे बातचीत और व्यवहार का लहजा भी बदल सा गया था. हमें सम्मान के साथ होटल या कहें स्टुडिओ अपार्टमेंट, ‘ग्रैंड प्लाजा’ में ले जाया गया. 29 मार्च की रात हमने वहीं बिताई. होटल प्रवास के अनुभव भी कुछ अलग तरह के ही थे.

अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन



    
प्रदर्शन में नेतृत्व को लेकर खींचातानी केबीच अमेरिका से
आए यहूदी प्रदर्शनकारियों का प्लेकॉर्ड


    अगली सुबह बसों से हमारा कारवां ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ का हिस्सा बनने के लिए रवाना हुआ. लेकिन लेबनान की सेना ने इजराइल की सीमा की ओर जाने से मना कर हमें पहुंचा दिया बेरुत से तकरीबन 60 किमी दूर अरनून गांव की पहाड़ी पर स्थित बेऊफोर्ट कैसल के पास. वहां हमें तारों की बाड़ दिखाई दी. उसके पार हाथों में स्वचालित राइफलें थामे कमांडोनुमा जवान खड़े थे. हमें लगा कि हम लोग इजराइली सीमा पर हैं. बाद में पता चला कि लेबनान की सरकार ने उसके आगे जाने की अनुमति नहीं दी है. अरनून के एक हजार साल पुराने किले के पास दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आए सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के द्वारा फिलीस्तीन की मुक्ति एवं येरूशलम पर तीनों धर्मों-मुस्लिम, ईसाई और यहूदियों के पवित्र धर्मस्थलों की सम्मानजनक स्थिति बहाली की मांग के साथ ‘ग्लोबल मार्च टू येरूशलम’ का एक और चरण पूरा हो गया. प्रदर्शन में स्थानीय फिलीस्तीनी शराणार्थी स्त्री-पुरुष भी बड़ी मात्रा में वहां आए थे. हम येरूशलम तो नहीं पहुंच सके लेकिन इजराइली सीमा के पास फिलीस्तीनी लैंड डे पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर फिलीस्तीन समस्या पर पूरी दुनिया का ध्यान आकर्षित कर पाने में सफल जरूर रहे. 

    
अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन, हाथ में तिरंगा
    हालांकि फिलीस्तीन मुक्ति के नाम पर जमा प्रदर्शनकारियों के बीच के मतभेद वहां भी खुलकर दिखे. यह भी एक कारण था कि वहां अपेक्षाकृत भीड़ नहीं जुटी. ‘फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा’, ‘हमास’, ‘फतह’ और हिजबुल्ला के बीच कार्यक्रम के आयोजन का श्रेय लेने की होड़ हिंसक झड़प में बदलने से बाल-बाल बची. मंच पर एक तरह से हिजबुल्ला के लोगों का ही कब्जा हो गया था. एशिया, अफ्रीका और अमेरिका के प्रतिनिधियों को बोलने का मौका भी नहीं मिला. प्रदर्शनकारियों में अमेरिका से आए कुछ यहूदी भी थे जो अपनी वेशभूषा और अपने हाथ में लिए बैनरों के कारण सबको आकर्षित कर रहे थे. उनके बैनरों पर लिखा था ‘जुडाइज्म रिजेक्ट्स जुआनिज्म ऐंड स्टेट आफ इजराइल.’ ‘जीव्ज युनाइटेड अगेंस्ट जुआनिज्म’ के नेता रब्बाई के अनुसार येरूशलम पर जुआनिज्म का एक छत्र आधिपत्य हर्गिज स्वीकार्य नहीं है. हम लोग इजराइल के शांतिपूर्ण विखंडन के लिए प्रार्थना करते हैं. लेकिन सबसे अधिक सम्मान तिरंगे के साथ महात्मा गांधी की तस्वीरों को सीने से लगाए भारतीय प्रतिनिधियों का था. तिरंगा और गांधी की तस्वीर देखते ही स्थानीय और बाहर से आए प्रतिनिधियों के साथ ही विभिन्न खबरिया चैनलों, मीडिया संगठनों के प्रतिनिधि साक्षात्कार लेने लग जाते. अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन के बाद हमारा बेरुत प्रवास भी अपने आप में एक अनुभव रहा.


इजराइल की सीमा से लगे अरनून की पहाड़ी पर प्रदर्शन
महात्मा गांधी की ताकत
     
विश्व के सबसे प्राचीन शहर और सभ्यताओं में से एक कहा जानेवाला लेबनान उत्तर और पूर्व में सीरिया तथा दक्षिण में इजराइल की सीमा से लगा मिश्रित सभ्यता और संस्कृतियों का समुद्र और पहाड़ों से घिरा छोटा सा (क्षेत्रफल तकरीबन 10450 वर्ग किमी) देश है. इसकी समुद्री सीमाएं साइप्रस से भी लगती हैं. तकरीबन 50 लाख की आबादी वाले लेबनान में साक्षरता दर काफी ऊंची, तकरीबन 98 फीसदी है. पूरी दुनिया में लॉ का सबसे पहला स्कूल बेरुत में ही खुला था. पारंपरिक रूप से व्यापार के लिए मशहूर लेबनान और इसके राजधानी शहर बेरुत को मध्यूपर्व यानी पश्चिमी एशिया में व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र कहा जा सकता है. इसकी इन्हीं विशेषताओं ने यूनानी, रोमन, अरब, ओटोमन, तुर्क और फ्रेंच हमलावर-शासकों और मेहमानों को इसकी ओर आकर्षित किया. 1920 से लेकर 1943 में अपनी आजादी से पहले लेबनान फ्रेंच साम्राज्य का उपनिवेश भी रहा. इसके अवशेष आज भी यहां जन जीवन पर साफ दिखते हैं. 
अरनून की पहाड़ी पर भारतीय तिरंगा थामे


    लेबनान और इसका सबसे पुराना (तकरीबन पांच हजार साल पुराना) और विकसित राजधानी शहर बेरुत दशकों तक युद्ध-गृह युद्धों और प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका झेलता रहा है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद पड़े सूखा-अकाल में वहां एक लाख लोग मारे गए थे जबकि 1975 से 1990 तक हुए गृह युद्ध में तकरीबन डेढ़ लाख लोगों की जानें गई थीं जबकि 17 हजार लोग लापता हो गए थे. क्षेत्रीय ताकतों, विशेषकर इजराइल, सीरिया और फिलस्तीनी मुक्ति संगठन ने लेबनान को अपने झगड़े सुलझाने के लिए युद्ध के मैदान के तौर पर इस्तेमाल किया. इस लिहाज से देखा जाए तो लेबनान मध्य पूर्व यानी पश्चिम एशिया में सबसे जटिल और बंटे हुए देशों में से एक है. इजराइल के निर्माण के समय और बाद में भी फिलीस्तीन समस्या से जुड़े जो भी विवाद उठे उनमें कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में लेबनान भी शामिल रहा है. इजराइल के निर्माण और उसके बाद से तकरीबन एक लाख फिलीस्तीनी शरणार्थी लेबनान में आकर बस गए. 1968 में लेबनान में रह रहे एक फिलीस्तीनी मुक्ति गुट के हमले में इजराइल के एक ,यरलाइनर के ध्वस्त होने के जवाब में इजराइल के कमांडोज ने बेरुत हवाई अड्डे पर हमला कर इसके दर्जनभर विमान नष्ट कर दिए थे. लेबनान में गृह युद्ध की शुरुआत के समय सीरियाई सैनिक टुकड़ियां वहां दाखिल हो गईं. इजराइली सेना ने 1978 और फिर 1982 में हमले किए और फिर वे 1985 में एक स्वघोषित सुरक्षा जोन में दाखिल हो गए जहां से वे मई 2000 में ही बाहर निकले.

    सीरिया का लेबनान में अच्छा खासा राजनीतिक दबदबा है. हालांकि दमिश्क ने 2005 में अपनी सैनिक टुकड़ियां वहां से हटा कर 29 साल की अपनी सैन्य मौजूदगी खत्म कर दी. यह कदम लेबनान के तत्कालीन प्रधानमंत्री रफीक हरीरी की हत्या के बाद उठाया गया. लेबनानी विपक्षी गुटों ने इस मामले में सीरिया का हाथ होने का आरोप लगाया जिससे सीरिया ने लगातार इंकार किया. उसके बाद बेरुत में सीरिया समर्थक और सीरिया विरोधी बड़ी-बड़ी रैलियां आयोजित हुईं जिसके बाद सीरिया के सैनिकों को वहां से बाहर निकलना पड़ा.

  
वार मेमोरियल म्युजियम में 2006 के युद्ध में
हिजबुल्ला द्वारा कब्जा किए इजराइली टैंक, हथियारों की नुमाइश

    बेरुत की अरब शिया-सुन्नी मुस्लिम, ईसाई बहुल मिश्रित आबादी में एक बड़ा हिस्सा 1948 में यहां आए फिलीस्तीनी शरणार्थियों का भी है. इस कारण भी वहां अक्सर आपस में और इजराइल से भी हिंसक झड़पें होती रहती हैं. 1982 के युद्ध में इजराइल ने लेबनान और खासतौर से बेरुत शहर को तबाह सा कर दिया था. लेकिन 2006 में हिजबुल्ला के लड़ाकों ने इजराइली सेना को परास्त कर उसे बहुत दूर खदेड़ दिया था. उस युद्ध में विजय और इजराइल की पराजय को यादगार बनाने के लिए बेरुत से कुछ दूर ऊंची पहाड़ी पर ‘वार मेमोरियल’ बनाया गया है जहां इजराइल के साथ युद्ध में हिजबुल्ला की जीत पर आधारित फिल्म दिखाई जाती है जबकि बाहर बने पार्क के विभिन्न हिस्सों में इजराइल से कब्जा किए गए टैंक, तोपों एवं अन्य अस्त्र-शस्त्रों को बिखेरकर रखा गया है.

लेबनान का समावेशी संसदीय लोकतंत्र


    
होटल ग्रैंड प्लाजा के लॉ ओपेरा सुइट के सामने
    लेबनान में अनोखा संसदीय लोकतंत्र है. 15 वर्षों के लंबे गृह युद्ध के बाद हुए 1990 में हुए कन्फेसनल तैफ समझौते के तहत 128 सदस्यीय संसद और सरकार में भी 18 धर्मों एवं संप्रदायों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की व्यवस्था यहां संविधान में ही कर दी गई है. सरकार किसी भी दल अथवा गठबंधन की हो, राष्ट्रपति मेरोनाइट ईसाई, प्रधानमंत्री सुन्नी मुसलमान और लोकसभाध्यक्ष शिया मुसलमान ही होना चाहिए. इसी तरह से उप प्रधानमंत्री और डिप्टी स्पीकर ग्रीक रोमन ही हो सकता है. संसद के चुनाव में भी विभिन्न धार्मिक समूहों के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं.

    लगातार युद्ध, हिंसक झड़पों के साथ ही प्राकृतिक आपदाओं की विभीषिका का सामना करते रहे लेबनान और खासतौर से बेरुत के नए सिरे से खड़ा होने की जिजीविषा अपने आप में एक उदाहरण है. यह अपनी भस्मियों से उठ खड़ा होने वाले पौराणिक फीनिक्स पक्षी जैसा ही है. इजराइली हमलों में पूरी तरह ध्वस्त हो चुका बेरुत का नया हवाई अड्डा आज दुनिया के किसी भी विकसित देश के हवाई अड्डों से होड़ लेने में सक्षम है. बेरुत में मिश्रित जन जीवन और संस्कृति के दर्शन होते हैं. दक्षिण लेबनान के इलाके में हमारी पुरानी दिल्ली का नजारा है तो पश्चिमी बेरुत में सिटी सेंटर और समुद्र किनारे ‘हमरा स्ट्रीट’ पर घूमते समय तमाम ऊंची अट्टालिकाएं, बिजनेस सेंटर, होटल, रेस्तरां, शापिंग माल-प्लाजा, सिनेमा हाल, नाइट क्लब और पब्स मुंबई के नरीमन प्वाइंट और मेरीन ड्राइव की याद दिलाते हैं. अपने थिएटर, शैक्षणिक,सांस्कृतिक और साहित्यिक, पब्लिशिंग और बैंकिंग गतिविधियों के साथ ही पब्स और नाइट क्लबों से सज्जित नाइट लाइफ के कारण भी बेरुत अंतर्राष्ट्रीय पर्यटकों का आकर्षण केंद्र बना हुआ है. यह भी एक वजह है कि न्यूयार्क टाइम्स ने 2009 में बेरुत को पर्यटकों का सबसे पसंदीदा शहर घोषित किया था जबकि ‘लोनली प्लानेट’ ने इसे दुनिया के दस सर्वाधिक जीवंत शहरों में से एक घोषित किया था. 

ग्रैंड प्लाजा में अमेरिका से आए यहूदी नेता के साथ

 'सूरी कामगार' और   बेरुत !

     
    बेरुत को पश्चिम एशिया का पेरिस भी कहा जाता है. यहां की अर्थव्यवस्था मूल रूप से बैंकिंग एवं पर्यटन तथा दुनिया भर में फैले लेबनानी नागरिकों से आने वाली रकम पर आधारित है. लेकिन छोटे-मोटे तमाम कामों के लिए यह शहर 'सूरी कामगारों' पर टिका है. सूरी यानी पड़ोसी देश सीरिया में गरीबी, बेरोजगारी और आतंकवाद तथा उससे त्रस्त होकर यहां आने वाले लोग होटलों में वेटर से लेकर कारपेंटर, मेकेनिक, इलेक्ट्रिशियन, मेसन, खेत मजदूर, आटोमेबाइल उद्योग आदि क्षेत्रों में काम करते नजर आ जाएंगे. एक होटल में रूम ब्वाय इस्माइल ने बताया कि बेरुत में 70-80 फीसदी ‘वर्क फोर्स’ सीरिया से छह-छह महीने के वर्क परमिट पर आकर काम करनेवालों की है. सीरिया से छात्र भी फीस भरने के लिए यहां 'री इंट्री वीसा' लेकर आते, काम करते और लौट जाते हैं. इस्माइल खुद भी स्नातक छात्र है. उसने बताया कि जिस काम के यहां उसे दस हजार लेबनानी लिरा मिलते हैं, उसी काम के सीरिया में आधे या उससे भी कम पैसे ही मिलते हैं. उसके अनुसार ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है जहां आपको सूरी कामकाजी नहीं मिलें. अगर सूरी लोग यहां से चले जाएं तो लेबनान और बेरुत का जनजीवन ठप हो जाएगा या फिर बेतरह प्रभावित होगा.

होटल ग्रैंड प्लाजा में अमेरिका से आए यहूदी 
प्रतिनिधि के साथ एशियाई (पाकिस्तानी) प्रतिनिधि


फिलीस्तीनी शरणार्थियों की बदहाली !
 

    
दक्षिण बेरुत में फिलीस्तीनी शरणार्थियों के लिए बने
कब्रिस्तान के बगल में ही उनकी बस्ती है
लेकिन सबसे बुरी हालत तो यहां रहने वाले फिलीस्तीनी शरणार्थियों की है. उनकी बस्तियां अलग-अलग इलाकों में हैं. दक्षिणी बेरुत में हमारे होटल के पास की ऐसी ही एक बस्ती बुर्ज अल बराजनेह में जाने और कुछ शरणार्थियों से मिलने का अवसर मिला. लेबनान में उन्हें किसी तरह के नागरिक अधिकार नहीं हैं. वे मन मुताबिक शिक्षा और रोजगार नहीं पा सकते. पता चला कि 1948 में जब फिलीस्तीन की छाती पर दुनिया भर के यहूदियों के लिए धर्म के आधार पर इजराइल देश बनाया जा रहा था, फिलीस्तीनियों को अपना घर बार, सब कुछ छोड़ जान बचाकर पड़ोसी मुल्कों में भागना पड़ा था. लोग अपने घरों पर ताले लगाकर आए थे कि स्थितियां सुधर जाने के बाद वे अपने घरों को लौट सकेंगे. लेकिन पीढियां गुजर गईं, हालात नहीं बदले. कुछ बुजुर्ग लोगों ने उन चाभियों को दिखाया जिनसे अपने घरों के दरवाजे वे बंद करके आए थे. अब उन घरों पर किन्हीं औरों का कब्जा है. इजराइल इन शरणार्थियों को वापस उनके घरों में लौटने देने को कतई राजी नहीं है. 


    बेरुत में हम दो अप्रैल को वाया दोहा (कतर) दिल्ली के लिए रवाना होने तक रुके रहे. हमारे दो साथियों मुंबई के सईद अहमद और यूपी में बहराइच के मूल निवासी और अभी नई दिल्ली में रह रहे सुजात अली कादरी, को दो दिन और ज्यादा रुकना पड़ा. होटल से उनके पासपोर्ट गायब हो गए थे. होटल में प्रवेश के समय काउंटर पर सभी लोगों के पासपोर्ट ले लिए गए थे. उसके बाद ही हमें कमरे आवंटित कर चाबियां दी गई थीं. लेकिन वापसी के समय जब पासपोर्ट लौटाए जा रहे थे तो दो पासपोर्ट कम थे. होटलवाले यह मानने को तैयार ही नहीं थे कि ये दो पासपोर्ट उन्होंने अपने पास जमा किए थे. काफी कहा सुनी हुई लेकिन वे लोग अपने रुख से टस से मस होने को तैयार नहीं थे. भारतीय दूतावास के हस्तक्षेप पर भी वे लोग यह मानने को तैयार नहीं हुए कि उनके पास से किसी के पासपोर्ट गुम हुए हैं. वे तो यहां तक कहने लगे कि उनके होटल में यह दोनों लोग ठहरे ही नहीं थे. बाद में किसी तरह भारतीय दूतावास ने उनके लिए अस्थाई पासपोर्ट का प्रबंध किया और तब जाकर दो-तीन दिन बाद वे दोनों स्वदेश लौट सके. 

भारत वापसी 



बेरुत की मशहूर हमरा स्ट्रीट पर दार अल नदवा के कार्यालय में
हिजबुल्ला के करीबी इस्लामी नेता मान बसूर के साथ. समुद्र किनारे
हमरा स्ट्रीट के इलाके की तुलना मुंबई के नरीमन प्वाइंट और
मरीन ड्राइव से की जा सकती है.
    बहरहाल, हम लोगों के लिए दो अप्रैल को दोहा और फिर वहां से दिल्ली तक की उड़ान कतर एयरवेज से थी. हम सुबह ही बेरुत हवाई अड्डे पर पहुंच गए. सामानों की तलाशी के क्रम में हमारे सूटकेस को खुलवाया गया. हमें लगा कि तेहरान के मेयर द्वारा दिया गया मोमेंटो एक बार फिर समस्या बन रहा होगा, लेकिन एक्सरे मशीन पर बैठे अधिकारी ने सूटकेस खुलवाकर उसमें रखी जैतून के तेल की बोतल निकलवा ली. हमारे तमाम अनुनय-विनय को नकारते हुए जैतून के तेल की बोतलें रखवा ली गईं. हालांकि बोतलें चेक इन बैगेज में थीं लेकिन वह भी उन्हें गंवारा नहीं थीं. ईरान की तरह लेबनान में भी जैतून की पैदावार खूब होती है. जैतून और उसका तेल भी वहां काफी सस्ता और शुद्ध मिलता है. हम जब तक वहां रहे जैतून और उसका तेल किसी न किसी बहाने हमारे नाश्ते-भोजन का अंग बनता रहा क्योंकि बताया गया कि यह कोलोस्ट्रल में कमी लाता है. लेकिन हम जैतून का तेल ला पाने में विफल रहे. एयरपोर्ट के अधिकारियों का कहना था कि अगर जैतून के तेल की बातलें ले जानी हैं तो अपने सामान के साथ  बाहर जाइए और पर्याप्त पैकिंग करवाने के बाद ले आइए. उसने समझाया कि अगर सामानों की लदान-उतरान के बीच कोई बोतल लीक हो गई और उससे आपके अथवा किसी और यात्री के भी कपड़े खराब हो गए तो इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा. जहाज छूटने का समय करीब होने के कारण हम यह जहमत उठाने को राजी नहीं थे लिहाजा जैतून के तेल की बोतलें वहीं छौड़ हम आगे बढ़ गए. 

    कतर एयरवेज की उड़ान काफी अच्छी और सुविधा संपन्न रही. मदिरा सेवन के आदी मित्रों के लिए 15-20 दिनों के बाद अच्छी मदिरा सेवन का अवसर भी मिला. भोजन भी इन दिनों में पहली बार अपने जायके के हिसाब से मिला. दोहा में हवाई अड्डे पर कई घंटे यूं ही गुजारने पड़े, दिल्ली के लिए कतर एयरवेज की उड़ान के इंतजार में. लेकिन पूरा समय दोहा हवाई अड्डे पर उपलब्ध सुविधाओं, ड्यूटी फ्री शापिंग में कैसे गुजर गया किसी को महसूस ही नहीं हुआ. दोहा से तकरीबन साढ़े तीन घंटे की उड़ान भरकर हम तीन अप्रैल की सुबह साढ़े तीन बजे दिल्ली आ गए. और इस तरह से ग्लोबल मार्च टू येरूशलम के बहाने हमारी पश्चिम एशिया के बड़े भूभाग की यात्रा संपन्न हुई. पश्चिम एशिया में संयुक्त अरब अमीरात के दुबई, अबू धाबी, शारजाह की यात्रा हम पहले ही कर चुके थे.

नोटः पश्चिम एशिया में ईरान, तुर्की और लेबनान की यात्रा संपन्न होने के तकरीबन पांच वर्षों बाद, अगस्त 2017 में चीन की राजधानी
मतियान्यु के पास चीन की (हरी भरी) महान दीवार
 (तस्वीर इंटरनेट से) 
बीजिंग और उसके बंदरगाह शहर झानझियांग में एक सप्ताह की यात्रा का अवसर उस समय मिला, जब चीन के साथ डोकलाम को लेकर भारत का सीमा विवाद चरम पर था. यात्रा संस्मरणों की अगली कड़ी चीन यात्रा के बारे में.