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Monday, 19 July 2021

Haal Filhal : Questioning the Relevance of Sedition Law

राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल


जयशंकर गुप्त


    सुप्रीम कोर्ट ने अंग्रेजी राज में बने तकरीबन 151 साल पुराने राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर मोदी सरकार के सामने अजीब सी मुसीबत खड़ी कर दी है. अब केंद्र सरकार को बताना है कि 1870 में बने जिस राजद्रोह कानून को बदलते समय के अनुरूप ब्रिटेन, अमेरिका सहित कई देशों ने कानून की किताबों से बाहर कर दिया है, आजाद भारत में इसे बनाए रखने का औचित्य क्या है! भारतीय दंड संहिता में धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून आज भी न सिर्फ कायम है बल्कि सत्ता विरोधियों के विरुद्ध इसके बेजा इस्तेमाल को लेकर विवाद भी उठते रहे हैं. अधिकतर मामलों में अदालतें राजद्रोह कानून के तहत दर्ज मुकदमे रद्द करती रही हैं.

    बीते 15 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आजादी के 74 साल बाद भी 124ए की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करने के बाद तमाम राजनीतिक दल, बौद्धिक, विधि विशेषज्ञ, अधिवक्ता तथा सामाजिक एवं मानवाधिकारों से जुड़े संगठनों ने कहा है कि लोकतांत्रिक भारत में इस कानून के लगातार दुरुपयोग को देखते हुए इसे रद्द कर देना ही श्रेयस्कर होगा. लेकिन सरकार ने और इसका नेतृत्व कर रहे सत्तारूढ़ दल ने भी इसके बारे में अभी तक साफ राय नहीं जाहिर की है. मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण की अध्यक्षतावाली पीठ के सामने 124 ए की प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई के दौरान महान्यायवादी के के वेणुगोपाल ने कहा कि कानून को पूरी तरह से रद्द करने के बजाय इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए पैरामीटर तय कर दिशा निर्देश जारी किए जा सकते हैं. इससे पहले जुलाई 2019 में केंद्र सरकार ने संसद में अपने जवाब में कहा था कि राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निबटने के लिए इस कानून की जरूरत है.

    लेकिन मैसूर के रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने आजाद भारत में 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देनेवाली याचिका में कहा है कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है. तीन जजों-मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमण, ए एस बोपन्ना और हृषिकेश राय- की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एक औपनिवेशिक कानून है जिसे अंग्रेजी राज में आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बनाया था. इसका इस्तेमाल महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को चुप कराने के लिए किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि आजादी के 74 साल बाद भी क्‍या यह कानून जरूरी है? 
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमण

    मुख्य न्‍यायाधीश ने महान्यायवादी श्री वेणुगोपाल से कहा कि धारा 66A को ही ले लीजिए, उसके रद्द किए जाने के बाद भी हज़ारों मुकदमे इस धारा के तहत दर्ज किए गए. हमारी चिंता कानून के दुरुपयोग को लेकर है. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह तो ऐसा ही है कि किसी बढ़ई को एक पेड़ काटने के लिए आरी दी जाए लेकिन वह पूरे जंगल को ही काटने लग जाए. उन्होंने कहा कि सरकार बहुत सारे पुराने कानूनों को क़ानून की किताबों से निकाल रही है तो इस कानून को भी हटाने पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की राय में राजद्रोह कानून लोकतंत्र में संस्थाओं के कामकाज के लिए गंभीर खतरा है. सुदूर गांव में कोई पुलिस अधिकारी किसी को सबक सिखाना चाहे तो वह राजद्रोह कानून का सहारा ले सकता है. यदि कोई राजनीतिक दल असहमति के स्वरों को दबाना चाहता है तो वह अपने विरोधियों के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल कर सकता है. देश में इस कानून को लेकर हर कोई थोड़ा डरा हुआ है. जस्टिस रमण ने कहा कि सर्वोच्च अदालत राजद्रोह कानून की वैधता का परीक्षण करेगी. केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए कहा गया कि इसके साथ इससे जुड़ी अन्य याचिकाओं की सुनवाई भी होगी. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में ऩ्यायमूर्ति उदय ललित की एक अन्य पीठ में भी धारा 124 ए को चुनौती देनेवाली छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ला और मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम की याचिका विचाराधीन है. जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने भी किसी मामले की सुनवाई करते हुए सवाल किया था कि यह कैसे तय होगा कि क्या राजद्रोह है और क्या राजद्रोह नहीं है. सरकार से असहमति मात्र राजद्रोह का आधार नहीं बन सकती है.

राजद्रोह कानून है क्या!

    भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ धारा 124ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो सकता है. इसके अलावा अगर कोई शख्स किसी देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से उसका सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है. यह गैर जमानती अपराध है. इस मामले में दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है. इसके अतिरिक्त इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है. हालांकि संविधान में अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली है. लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद-19 (2) के तहत ऐसा कोई बयान नहीं दिया जा सकता जो देश की संप्रभुता, सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर के खिलाफ हो. तो फिर राजद्रोह कानून को बनाए रखने का औचित्य क्या है.
 
    दरअसल, हमारी सरकारें समाज में शांति और कानून-व्‍यवस्‍था कायम रखने के नाम पर असहमति के स्वरों, सरकार, सरकारी फैसले और कानूनों का विरोध करनेवालों के विरुद्ध राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही हैं. हाल के वर्षों में 124 ए के तहत हुए मुकदमों की संख्या और इसके दुरुपयोग के मामले बढ़े हैं. अब तो इसका इस्तेमाल सरकार के विरोध में लिखने, बोलनेवाले मीडिया के लोगों के विरुद्ध भी होने लगा है. 2020 में 67 पत्रकारों के खिलाफ केस कर दिया गया है. आंकड़े बताते हैं कि 2010 में राजद्रोह के 10 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2014 से लेकर 2019 तक राजद्रोह के 326 मामले दर्ज हुए जिनमें 559 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि इनमें से केवल दस मामलों में ही आरोप सिद्ध हो सके. बाकी मामलों में वर्षों जेलों में बिताने के बाद सबूतों के अभाव में अभियुक्त बेदाग छूट गए. तो फिर उन्हें गिरफ्तार क्यों किया गया था. देखा जाए तो राजनीतिक विरोधियों, मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया कर्मियों के विरुद्ध उन्हें डराने-धमकाने और चुप करने के इरादे से राजद्रोह के मुकदमों का इस्तेमाल अघोषित ‘सेंसरशिप’ के रूप में भी किया जा रहा है.

    
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआः सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया
राजद्रोह का मुकदमा
    पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि, डॉ. कफील खान से लेकर शफूरा जरगर, वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ से लेकर मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैया लाल शुक्ल तथा सिद्दीक कप्पन तक ऐसे कई लोग हैं जिनके विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया. कइयों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया है जबकि अधिकतर लोग सबूतों के अभाव में अदालतों के द्वारा इन आरोपों से बरी भी हो चुके हैं. देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के पुरोधा पत्रकार कहे जानेवाले विनोद दुआ के खिलाफ 6 मई 2020 को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ था. उनका गुनाह इतना भर था कि उन्होंने अपने किसी टीवी शो में मोदी सरकार को निकम्मा कहा था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ऩे 1962 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को आधार मानकर दुआ पर राजद्रोह के मुकदमे को खारिज कर दिया था.

राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य

    गौरतलब है कि 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में धारा 124ए यानी राजद्रोह क़ानून को बरकरार रखने के पक्ष में फैसला देते हुए कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक ही सीमित होना चाहिए.” सुप्रीम कोर्ट ने तब साफ किया था कि सरकार के कार्यों और फैसलों की आलोचना के लिए किसी नागरिक के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता क्योंकि ऐसा करना भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है. राजद्रोह कानून से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान अक्सर सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त फैसले और दिशा निर्देशों का संदर्भ दिया जाता है. उसके बाद भी कई अवसरों पर सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि लोकतंत्र में अगर किसी को सरकार के समर्थन का अधिकार है तो किसी को सरकार और उसके फैसलों की आलोचना करने का अधिकार भी है. इसके बावजूद सत्ता विरोधी अथवा असहमति के स्वरों को दबाने के इरादे से राजद्रोह कानून अथवा इसी तरह के कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है. और इस मामले में केंद्र सरकार हो या राज्यों में भाजपा की अथवा किसी और दल की सरकार, सबका रवैया कमोबेस एक जैसा ही रहा है.

    
 पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमः असहमति की सजा! 
    मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को अभी 13 मई को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने कोरोना से हुई प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष एस टिकेंद्र सिंह की मौत पर श्रद्धांजलि देने के क्रम में सोशल मीडिया पर लिख दिया था, “कोरोना का इलाज गोबर और गोमूत्र से नहीं बल्कि विज्ञान से संभव है.” इतना लिखने भर से वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गए. इस तरह के और भी तमाम मामले हैं जब सरकार के विरोध में बोलने-लिखनेवालों को राजद्रोह या इसी तरह के खतरनाक कानून के शिकंजे में लिया गया. नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने से लेकर अभी सरकार के तीन कृषि कानूनों का विरोध करनेवाले किसानों के विरुद्ध भी बड़े पैमाने पर राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया गया है.

क्या कहते हैं विधि विशेषज्ञ

    सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन का मानना है कि केवल दिशानिर्देश तय करने से बात नहीं बननेवाली. धारा 124 ए के दिशा-निर्देश और मानदंड 60 के दशक में निर्धारित किए गए थे. पांच दशक बाद भी हम उस फ़ैसले की मंशा और दायरे की ग़लत व्याख्या कर रहे हैं और अभी भी दिशानिर्देशों की तलाश में हैं. सच तो यह है कि इस क़ानून का क़ानून की किताब में होना ही इसके दुरुपयोग को जन्म देता है. सुप्रीम कोर्ट में एक और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंसाल्विस के अनुसार राजद्रोह का क़ानून लोगों को डराने-धमकाने और बेवजह जेलों में बंद करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. राजद्रोह कानून के मामले में वर्ष 2018 में भारतीय विधि आयोग ने भी ऊपर एक परामर्श पत्र जारी करते हुए कहा था कि जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए. विधि आयोग की राय में "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है". और यह भी कि सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह की धारा के तहत आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए. परामर्श पत्र में यह भी कहा गया कि ब्रिटेन ने दस साल पहले देशद्रोह क़ानूनों को समाप्त करते वक़्त कहा था कि देश ऐसे कठोर क़ानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता. तो फिर उस धारा 124ए को बनाये रखना कितना उचित है जिसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक औजार के रूप में उपयोग किया था.

 पूर्व मुख्य न्यायाधीश,सांसद रंजन गोगोईः
राजद्रोह कानून अथवा सरकार की वकालत!
    हालांकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य ऩ्यायाधीश एवं अभी राज्यसभा के सदस्य रंजन गोगोई का इस मामले में कुछ और ही मानना है. उनकी राय में अगर किसी कानून का दुरुपयोग हो रहा है तो उसके रोकने के तरीके भी हैं, उसे रद्द करना ठीक नहीं. उन्होंने कहा कि अदालत सिर्फ किसी कानून की वैधानिकता का फैसला कर सकती है, उसकी जरूरत पर फैसला सरकार को करना चाहिए.

    बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून की वैधानिकता और प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई हो रही रहा है. सरकार से जवाब मांगा गया है. स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि सरकार भी इस औपनिवेशिक एवं गुलामी के प्रतीक राजद्रोह कानून को रद्द करने के मामले में सकारात्मक रुख अपनाए. लेकिन अगर सरकार इस औपनिवेशिक कानून को बनाए रखने की जिद करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट स्वतः इस कानून को समाप्त कर अथवा इसके लिए मौजूदा संदर्भों के साथ नए पैरामीटर्स और दिशा निर्देश जारी कर इस कानून के तहत निरुद्ध लोगों को रिहा करवा सकती है!