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Monday, 19 July 2021

Haal Filhal : Questioning the Relevance of Sedition Law

राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल


जयशंकर गुप्त


    सुप्रीम कोर्ट ने अंग्रेजी राज में बने तकरीबन 151 साल पुराने राजद्रोह कानून की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े कर मोदी सरकार के सामने अजीब सी मुसीबत खड़ी कर दी है. अब केंद्र सरकार को बताना है कि 1870 में बने जिस राजद्रोह कानून को बदलते समय के अनुरूप ब्रिटेन, अमेरिका सहित कई देशों ने कानून की किताबों से बाहर कर दिया है, आजाद भारत में इसे बनाए रखने का औचित्य क्या है! भारतीय दंड संहिता में धारा 124ए यानी राजद्रोह कानून आज भी न सिर्फ कायम है बल्कि सत्ता विरोधियों के विरुद्ध इसके बेजा इस्तेमाल को लेकर विवाद भी उठते रहे हैं. अधिकतर मामलों में अदालतें राजद्रोह कानून के तहत दर्ज मुकदमे रद्द करती रही हैं.

    बीते 15 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा आजादी के 74 साल बाद भी 124ए की प्रासंगिकता पर सवाल खड़ा करने के बाद तमाम राजनीतिक दल, बौद्धिक, विधि विशेषज्ञ, अधिवक्ता तथा सामाजिक एवं मानवाधिकारों से जुड़े संगठनों ने कहा है कि लोकतांत्रिक भारत में इस कानून के लगातार दुरुपयोग को देखते हुए इसे रद्द कर देना ही श्रेयस्कर होगा. लेकिन सरकार ने और इसका नेतृत्व कर रहे सत्तारूढ़ दल ने भी इसके बारे में अभी तक साफ राय नहीं जाहिर की है. मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण की अध्यक्षतावाली पीठ के सामने 124 ए की प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई के दौरान महान्यायवादी के के वेणुगोपाल ने कहा कि कानून को पूरी तरह से रद्द करने के बजाय इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए पैरामीटर तय कर दिशा निर्देश जारी किए जा सकते हैं. इससे पहले जुलाई 2019 में केंद्र सरकार ने संसद में अपने जवाब में कहा था कि राष्ट्र विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्वों से प्रभावकारी ढंग से निबटने के लिए इस कानून की जरूरत है.

    लेकिन मैसूर के रिटायर्ड मेजर जनरल एसजी वोम्बटकेरे और एडिटर्स गिल्ड आफ इंडिया ने आजाद भारत में 124ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देनेवाली याचिका में कहा है कि यह कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है. तीन जजों-मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रमण, ए एस बोपन्ना और हृषिकेश राय- की पीठ ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यह एक औपनिवेशिक कानून है जिसे अंग्रेजी राज में आजादी की लड़ाई को दबाने के लिए अंग्रेजों ने बनाया था. इसका इस्तेमाल महात्मा गांधी, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं को चुप कराने के लिए किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से पूछा कि आजादी के 74 साल बाद भी क्‍या यह कानून जरूरी है? 
मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एन वी रमण

    मुख्य न्‍यायाधीश ने महान्यायवादी श्री वेणुगोपाल से कहा कि धारा 66A को ही ले लीजिए, उसके रद्द किए जाने के बाद भी हज़ारों मुकदमे इस धारा के तहत दर्ज किए गए. हमारी चिंता कानून के दुरुपयोग को लेकर है. मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह तो ऐसा ही है कि किसी बढ़ई को एक पेड़ काटने के लिए आरी दी जाए लेकिन वह पूरे जंगल को ही काटने लग जाए. उन्होंने कहा कि सरकार बहुत सारे पुराने कानूनों को क़ानून की किताबों से निकाल रही है तो इस कानून को भी हटाने पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा है? सुप्रीम कोर्ट की राय में राजद्रोह कानून लोकतंत्र में संस्थाओं के कामकाज के लिए गंभीर खतरा है. सुदूर गांव में कोई पुलिस अधिकारी किसी को सबक सिखाना चाहे तो वह राजद्रोह कानून का सहारा ले सकता है. यदि कोई राजनीतिक दल असहमति के स्वरों को दबाना चाहता है तो वह अपने विरोधियों के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल कर सकता है. देश में इस कानून को लेकर हर कोई थोड़ा डरा हुआ है. जस्टिस रमण ने कहा कि सर्वोच्च अदालत राजद्रोह कानून की वैधता का परीक्षण करेगी. केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए कहा गया कि इसके साथ इससे जुड़ी अन्य याचिकाओं की सुनवाई भी होगी. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट में ऩ्यायमूर्ति उदय ललित की एक अन्य पीठ में भी धारा 124 ए को चुनौती देनेवाली छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ला और मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम की याचिका विचाराधीन है. जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने भी किसी मामले की सुनवाई करते हुए सवाल किया था कि यह कैसे तय होगा कि क्या राजद्रोह है और क्या राजद्रोह नहीं है. सरकार से असहमति मात्र राजद्रोह का आधार नहीं बन सकती है.

राजद्रोह कानून है क्या!

    भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए में राजद्रोह को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि अगर कोई व्यक्ति सरकार-विरोधी सामग्री लिखता या बोलता है या ऐसी सामग्री का समर्थन करता है, राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ धारा 124ए के तहत राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हो सकता है. इसके अलावा अगर कोई शख्स किसी देश विरोधी संगठन के साथ अनजाने में भी संबंध रखता है या किसी भी प्रकार से उसका सहयोग करता है तो वह भी राजद्रोह के दायरे में आता है. यह गैर जमानती अपराध है. इस मामले में दोषी पाए जाने पर आरोपी को तीन साल से लेकर उम्रकैद तक हो सकती है. इसके अतिरिक्त इसमें जुर्माने का भी प्रावधान है. हालांकि संविधान में अनुच्छेद-19 (1)(ए) के तहत विचार और अभिव्यक्ति की आजादी मिली है. लेकिन इसके साथ ही अनुच्छेद-19 (2) के तहत ऐसा कोई बयान नहीं दिया जा सकता जो देश की संप्रभुता, सुरक्षा, पब्लिक ऑर्डर के खिलाफ हो. तो फिर राजद्रोह कानून को बनाए रखने का औचित्य क्या है.
 
    दरअसल, हमारी सरकारें समाज में शांति और कानून-व्‍यवस्‍था कायम रखने के नाम पर असहमति के स्वरों, सरकार, सरकारी फैसले और कानूनों का विरोध करनेवालों के विरुद्ध राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करती रही हैं. हाल के वर्षों में 124 ए के तहत हुए मुकदमों की संख्या और इसके दुरुपयोग के मामले बढ़े हैं. अब तो इसका इस्तेमाल सरकार के विरोध में लिखने, बोलनेवाले मीडिया के लोगों के विरुद्ध भी होने लगा है. 2020 में 67 पत्रकारों के खिलाफ केस कर दिया गया है. आंकड़े बताते हैं कि 2010 में राजद्रोह के 10 मामले दर्ज हुए थे जबकि 2014 से लेकर 2019 तक राजद्रोह के 326 मामले दर्ज हुए जिनमें 559 लोगों को गिरफ्तार किया गया. हालांकि इनमें से केवल दस मामलों में ही आरोप सिद्ध हो सके. बाकी मामलों में वर्षों जेलों में बिताने के बाद सबूतों के अभाव में अभियुक्त बेदाग छूट गए. तो फिर उन्हें गिरफ्तार क्यों किया गया था. देखा जाए तो राजनीतिक विरोधियों, मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करनेवाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया कर्मियों के विरुद्ध उन्हें डराने-धमकाने और चुप करने के इरादे से राजद्रोह के मुकदमों का इस्तेमाल अघोषित ‘सेंसरशिप’ के रूप में भी किया जा रहा है.

    
वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआः सुप्रीम कोर्ट ने रद्द किया
राजद्रोह का मुकदमा
    पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता दिशा रवि, डॉ. कफील खान से लेकर शफूरा जरगर, वरिष्ठ पत्रकार विनोद दुआ से लेकर मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम और छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैया लाल शुक्ल तथा सिद्दीक कप्पन तक ऐसे कई लोग हैं जिनके विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा दर्ज किया गया. कइयों को इस मामले में गिरफ्तार भी किया गया है जबकि अधिकतर लोग सबूतों के अभाव में अदालतों के द्वारा इन आरोपों से बरी भी हो चुके हैं. देश में इलेक्ट्रानिक मीडिया के पुरोधा पत्रकार कहे जानेवाले विनोद दुआ के खिलाफ 6 मई 2020 को हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में राजद्रोह का मुकदमा दर्ज हुआ था. उनका गुनाह इतना भर था कि उन्होंने अपने किसी टीवी शो में मोदी सरकार को निकम्मा कहा था. बाद में सुप्रीम कोर्ट ऩे 1962 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को आधार मानकर दुआ पर राजद्रोह के मुकदमे को खारिज कर दिया था.

राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य

    गौरतलब है कि 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने राजेंद्र सिंह बनाम बिहार राज्य के मामले में धारा 124ए यानी राजद्रोह क़ानून को बरकरार रखने के पक्ष में फैसला देते हुए कहा था कि इस प्रावधान का इस्तेमाल “अव्यवस्था पैदा करने की मंशा या प्रवृत्ति या क़ानून और व्यवस्था की गड़बड़ी या हिंसा के लिए उकसाने वाले कार्यों तक ही सीमित होना चाहिए.” सुप्रीम कोर्ट ने तब साफ किया था कि सरकार के कार्यों और फैसलों की आलोचना के लिए किसी नागरिक के विरुद्ध राजद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया जा सकता क्योंकि ऐसा करना भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है. राजद्रोह कानून से जुड़े मामलों की सुनवाई के दौरान अक्सर सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त फैसले और दिशा निर्देशों का संदर्भ दिया जाता है. उसके बाद भी कई अवसरों पर सर्वोच्च अदालत ने कहा है कि लोकतंत्र में अगर किसी को सरकार के समर्थन का अधिकार है तो किसी को सरकार और उसके फैसलों की आलोचना करने का अधिकार भी है. इसके बावजूद सत्ता विरोधी अथवा असहमति के स्वरों को दबाने के इरादे से राजद्रोह कानून अथवा इसी तरह के कानूनों का इस्तेमाल किया जा रहा है. और इस मामले में केंद्र सरकार हो या राज्यों में भाजपा की अथवा किसी और दल की सरकार, सबका रवैया कमोबेस एक जैसा ही रहा है.

    
 पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेमः असहमति की सजा! 
    मणिपुर के पत्रकार किशोरचंद्र वांगखेम को अभी 13 मई को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने कोरोना से हुई प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष एस टिकेंद्र सिंह की मौत पर श्रद्धांजलि देने के क्रम में सोशल मीडिया पर लिख दिया था, “कोरोना का इलाज गोबर और गोमूत्र से नहीं बल्कि विज्ञान से संभव है.” इतना लिखने भर से वह राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन गए. इस तरह के और भी तमाम मामले हैं जब सरकार के विरोध में बोलने-लिखनेवालों को राजद्रोह या इसी तरह के खतरनाक कानून के शिकंजे में लिया गया. नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने से लेकर अभी सरकार के तीन कृषि कानूनों का विरोध करनेवाले किसानों के विरुद्ध भी बड़े पैमाने पर राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया गया है.

क्या कहते हैं विधि विशेषज्ञ

    सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता रेबेका जॉन का मानना है कि केवल दिशानिर्देश तय करने से बात नहीं बननेवाली. धारा 124 ए के दिशा-निर्देश और मानदंड 60 के दशक में निर्धारित किए गए थे. पांच दशक बाद भी हम उस फ़ैसले की मंशा और दायरे की ग़लत व्याख्या कर रहे हैं और अभी भी दिशानिर्देशों की तलाश में हैं. सच तो यह है कि इस क़ानून का क़ानून की किताब में होना ही इसके दुरुपयोग को जन्म देता है. सुप्रीम कोर्ट में एक और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंसाल्विस के अनुसार राजद्रोह का क़ानून लोगों को डराने-धमकाने और बेवजह जेलों में बंद करने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है. राजद्रोह कानून के मामले में वर्ष 2018 में भारतीय विधि आयोग ने भी ऊपर एक परामर्श पत्र जारी करते हुए कहा था कि जबकि यह प्रावधान राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए आवश्यक है, इसका दुरुपयोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाना चाहिए. विधि आयोग की राय में "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के हर ग़ैर-ज़िम्मेदाराना प्रयोग को राजद्रोह नहीं कहा जा सकता है". और यह भी कि सरकार की नीतियों से मेल न खाने वाले विचार व्यक्त करने के लिए किसी व्यक्ति पर राजद्रोह की धारा के तहत आरोप नहीं लगाया जाना चाहिए. परामर्श पत्र में यह भी कहा गया कि ब्रिटेन ने दस साल पहले देशद्रोह क़ानूनों को समाप्त करते वक़्त कहा था कि देश ऐसे कठोर क़ानूनों का उपयोग करने का उदाहरण नहीं बनना चाहता. तो फिर उस धारा 124ए को बनाये रखना कितना उचित है जिसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों पर अत्याचार करने के लिए एक औजार के रूप में उपयोग किया था.

 पूर्व मुख्य न्यायाधीश,सांसद रंजन गोगोईः
राजद्रोह कानून अथवा सरकार की वकालत!
    हालांकि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य ऩ्यायाधीश एवं अभी राज्यसभा के सदस्य रंजन गोगोई का इस मामले में कुछ और ही मानना है. उनकी राय में अगर किसी कानून का दुरुपयोग हो रहा है तो उसके रोकने के तरीके भी हैं, उसे रद्द करना ठीक नहीं. उन्होंने कहा कि अदालत सिर्फ किसी कानून की वैधानिकता का फैसला कर सकती है, उसकी जरूरत पर फैसला सरकार को करना चाहिए.

    बहरहाल, अब सुप्रीम कोर्ट में राजद्रोह कानून की वैधानिकता और प्रासंगिकता को लेकर सुनवाई हो रही रहा है. सरकार से जवाब मांगा गया है. स्वस्थ और मजबूत लोकतंत्र का तकाजा तो यही है कि सरकार भी इस औपनिवेशिक एवं गुलामी के प्रतीक राजद्रोह कानून को रद्द करने के मामले में सकारात्मक रुख अपनाए. लेकिन अगर सरकार इस औपनिवेशिक कानून को बनाए रखने की जिद करती है तो क्या सुप्रीम कोर्ट स्वतः इस कानून को समाप्त कर अथवा इसके लिए मौजूदा संदर्भों के साथ नए पैरामीटर्स और दिशा निर्देश जारी कर इस कानून के तहत निरुद्ध लोगों को रिहा करवा सकती है!

Thursday, 1 November 2018

राम जी फिर एक बार करेंगे बेड़ापार ?

सुप्रीम कोर्ट से झटका मिलने के बाद अध्यादेश - कानून के लिए दबाव 

जयशंकर गुप्त
पांच राज्यों और खासतौर से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों-राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभाओं के आगामी चुनाव में रामलला और अयोध्या में उनके कथित जन्म स्थान पर मंदिर निर्माण का मुद्दा भी भाजपा के लिए खास मददगार साबित होते नहीं दिख रहा है. 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने उसमें फच्चर लगा दिया है. उससे पहले भाजपा और उसे संचालित करनेवाले संघ परिवार और मीडिया के एक बड़े तबके ने ऐसा माहौल बना दिया था कि जैसे सुप्रीम कोर्ट 29 अक्टूबर को ही एक बेंच गठित कर इस सुदीर्घ काल, तकरीबन 123 साल से चले आ रहे कानूनी विवाद के लिए एक बेंच गठित कर इसकी रोजाना सुनवाई कर यथाशीघ्र कोई फैसला सुनाएगा. भाजपा के कुछ वरिष्ठतम नेताओं, सरकार के कुछ मंत्रियों ने सुनवाई शुरू होने से पहले धौंस देने के अंदाज में सुप्रीम कोर्ट पर एक तरह का राजनीतिक दबाव भी बनाना शुरू कर दिया था कि सुप्रीम कोर्ट को जन आस्था का सम्मान करना चाहिए और ऐसा कोई फैसला नहीं करना चाहिए जिससे जन आस्था को चोट लगे और उस पर अमल मुश्किल हो.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट की सेहत पर इस तरह के बयानों का खास असर नहीं पड़ा. मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति संजय किशन कौल एवं न्यायमूर्ति के एम जोसफ की पीठ ने अयोध्या की विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि को तीन भागों में बांटने वाले 2010 के इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर महज दो मिनट की सुनवाई के बाद ही आदेश सुना दिया कि अब अगली सुनवाई के समय का फैसला अगले साल जनवरी में सर्वोच्च अदालत की उपयुक्त पीठ करेगी. उत्तरप्रदेश सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने मामले की गंभीरता और लंबे समय से लंबित होने का हवाला देकर दिवाली की छुट्टी के बाद सुनवाई का अनुरोध किया. वहीं, रामलला विराजमान के वकील सीएस वैद्यनाथन ने नवंबर में सुनवाई की गुहार लगाई. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए इसे ठुकरा दिया कि ‘‘हमारी अपनी प्राथमिकताएं हैं. हमें नहीं पता कि तारीख क्या होगी. यह जनवरी, मार्च अथवा अप्रैल में भी हो सकती है. जस्टिस गोगोई ने कहा कि मुख्य न्यायाधीश की इस पीठ को यह तय करना था कि इस मामले की कब से सुनवाई की जाए और रोजाना सुनवाई की जाए या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से ही भाजपा और संघ परिवार के साथ ही साधू संतों का भी इस मामले में जमीन अधिग्रहण, अध्यादेश अथवा संसद से कानून बनाकर अयोध्या मे कथित राम जन्मस्थान पर भव्य मंदिर बनाने का दबाव बढ़ गया है. इस आदेश से पहले तक हिंदुओं के सब्र का बांध टूटने और दिसंबर के आगे और इंतजार नहीं करने जैसे बयान देनेवाले भाजपा के बड़बोले नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा, ‘‘अयोध्या मामले में केंद्र सरकार को कानून बनाने का अधिकार है. जिस विवादित भूमि की बात हो रही है, वहां पर भगवान राम का मंदिर था. सुप्रीम कोर्ट संसद से ऊपर नहीं हो सकती है. सर्वोच्च अदालत की अपनी कुछ सीमाएं होती हैं. उन्हें उसी के तहत फैसला करने का अधिकार होता है.’’
भाजपा के भीतर एक अरसे से राजनीतिक बनवास भुगत रहे विनय कटियार जैसे नेताओं ने भी कहना शुरू कर दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के इस मामले की सुनवाई अगले साल जनवरी में शुरू करने के पीछे कांग्रेस का दबाव है जो नहीं चाहते कि शीघ्र कोई फैसला हो. कटियार ने कहा, ‘‘कांग्रेस के दबाव में लेट किया जा रहा है. कपिल सिब्बल और प्रशांत भूषण समेत कांग्रेस के जो वकील हैं, वे नहीं चाहते कि 2019 से पहले इस मामले की सुनवाई हो, वे इसे टालते रहना चाहते हैं. इसी तरह इसे आगे भी टाला जाएगा. ये लोग रामभक्तों के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं. हम कब तक सब्र करें. या तो सब बता दें कि उन्हें कुछ नहीं करना है तो रामभक्तों को जो निर्णय करना है वो कर लेंगे.’’ मोदी सरकार में स्वतंत्र प्रभारवाले एक बड़बोले मंत्री गिरिराज सिंह भी धमकानेवाले अंदाज में ही बोले, ‘‘अब हिंदुओं का सब्र टूट रहा है. मुझे भय है कि अगर हिंदुओं का सब्र टूटा तो क्या होगा.’’ सवाल एक ही है जिसका जवाब किसी नेता और मंत्री के पास नहीं है कि हिंदुओं का ठेका और उनके सब्र का पैमाना तय करने के लिए उन्हें किसने अधिकृत किया. क्या इसके लिए कोई व्याकपक जन्मर संग्रह हुआ है? अगर जन समर्थन और जनादेश के जरिए 2014 में भाजपानीत राजग के सत्तारूढ़ होने को ही पैमाना मान लिया जाए तो उन्हें देश के केवल 31 फीसदी मतदाताओं का ही समर्थन मिला था. बाकी 69 फीसदी मतदाताओं ने उन्हें खारिज ही किया था. विपक्ष के मतों का बिखराव ही उन्हें सत्तारूढ़ बनाने में कारगर हुआ था.
लेकिन अस्सी-नब्बे के दशक से ही अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण को हवा देते आ रही भाजपा सरकार पर रणनीतिक तौर पर ही सही, इस मामले में भी एससी, एसटी ऐक्ट की तरह अध्यादेश लाने का दबाव बढ़ा है. आरएसएस के प्रवक्ता अरुण कुूमार ने कहा है, ‘' केंद्र राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के मार्ग में आनेवाली हर बाधा को दूर करने के लिए कानून लाए.’’ जवाब में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता, पूर्व गृह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम कहते हैंै, ‘‘सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की गरज से भाजपा राम मंदिर का इस्तेमाल करती रही है. राम मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश की मांग करनेवालों को इस बाबत पीएम से पूछना चाहिए. हालांकि वह इस तरह के मामलों पर आमतौर पर चुप ही रहते हैं.’’
लेकिन संसद के मौजूदा स्वरूप, सत्ता पक्ष और विपक्ष के संख्या बल और राजग में भाजपा के कई प्रमुख सहयोगी दलों के रुख को देखते हुए यह विकल्प भी बहुत आसान और व्यावहारिक नजर नहीं आ रहा. इस मुद्दे पर जनता दल (यू) के प्रवक्ता केसी त्यागी ने कहा है कि कोर्ट के फैसले को मानने के अलावा इस समस्या का कोई और समाधान नहीं है. राजग में भाजपा के कई और सहयोगी दल भी इस मामले में अध्यादेश अथवा कानून की पहल का विरोध कर सकते हैं.
लेकिन आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन के नेता, सांसद असदुद्दीन ओवैसी जैसे मुस्लिम समाज के कुछ नेता इस तरह के मामलों पर जहरीले बयान देकर भाजपा और संघ परिवार को राजनीतिक लाभ पहुंचाने के लिए तत्पर रहते हैं. ओवैसी ने फैसले के बाद चुनौती के अंदाज में कहा, ‘‘वे राम मंदिर पर अध्यादेश क्यों नहीं लाते? हर बार वे धमकी देतेे हैं कि वे अध्यादेश लाएंगे. भाजपा, आरएसएस, वीएचपी के हर टॉम, डिक और हैरी इस तरह की बातें कहते रहते हैं. वे सत्ता में हैं, उन्हें ऐसा करने दो. मैं उन्हें, 56 इंच का सीनावाले को ऐसा करने की चुनौती देता हूं. करें, हम भी देखते हैं. मुद्दे को हिंदू-मुस्लिम न बनाएं. देश संविधान से चलेगा.’’ लेकिन मुस्लिम समाज में भी ओवैसी जैसे स्वयंभू प्रवक्ताओं को लेकर विरोध शुरू हो गया है. लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता ओबैद नासिर कहते हैं, ‘‘ओवैसी साहब, ऐसी बचकानी बातें कर के आप मुसलमानों से कौन सी दुश्मनी निकाल रहे हैं ? खुदा के लिए इस मसले पर खामोशी अख्तियार कीजिये और अदालत को अपना काम करने दीजिए. ऐसी बचकाना, गैर जिम्मेदाराना और भड़काऊ बातें संघ परिवार के लिए ऑक्सीजन का काम करती हैं.’’ दरअसल, मीडिया और खासतौर से सोशल मीडिया पर भी संघ परिवार के उत्तेजक और भड़काऊ बयानों पर भी मुस्लिम समाज और खासतौर से युवा पीढ़ी का उत्तेजित होकर उसी तरह की भाषा में जवाब नहीं देना भी संघ परिवार और भाजपा की विफलता का कारण बनते जा रहा है.
 लेकिन भाजपा और संघ परिवार में मंदिर निर्माण के लिए अध्यादेश लाने अथवा संसद से कानून बनवाने के पक्षधर नेताओं का तर्क है कि संसद में सत्तापक्ष का कमजोर संख्या बल इस मार्ग में बड़ी बाधा नहीं बन सकता क्योंकि विपक्ष के लिए खुलकर इसका विरोध करना सहज नहीं होगा. कांग्रेस के लिए यह आसान नहीं होगा कि वह राम मंदिर पर सरकार के प्रस्ताव का खुला विरोध करके अपनी सॉफ्ट हिंदुत्व की छवि पेश करने अपनी पूरी कोशिशों को मिट्टी में मिला दे. इससे विपक्ष में बिखराव भी होगा और सपा, बसपा और राजद जैसी पार्टियों के वोट बैंक में भी सेंध लगेगी.
दरअसल, हर बड़े चुनाव से पहले अयोध्या विवाद और वहां राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मुद्दा गरम करने और इस मामले में बढ़ चढ़ कर दावे करने की आदी रही भाजपा पर इस मामले में उसका अब तक का ढुलमुल रुख उस पर भारी पड़ते दिख रहा है. चाहे केंद्र में हो या राज्य में, चुनाव से पहले ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ जैसे नारे और मंदिर निर्माण के लिए तमाम तरह की प्रतिबद्धताएं जतानेवाली भाजपा सत्तारूढ़ हो जाने के बाद मंदिर निर्माण की दिशा में एक भी कदम आगे नहीं बढ़ा पाने के लिए नए नए बहाने ढूंढने लग जाती है. मुझे याद है कि अतीत में जब भाजपा की वरिष्ठ नेता सुषमा स्वराज ने पूछे जाने पर कहा था कि राम जन्मभूमि मंदिर का मुद्दा तो बैंक के एक बेयरर चेक की तरह था जिसे बार बार नहीं भुनाया जा सकता. यही नहीं भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष स्व. कुशाभाऊ ठाकरे ने दैनिक हिन्दुस्ताने के लिए इस लेखक को दिए साक्षात्कार में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के बारे में पूछे जाने पर कहा था कि ‘‘नदी पार करने के लिए नाव की आश्यकता होती है. नदी पार कर लेने के बाद आवश्यक तो नहीं कि नाव को कंधे पर लाद कर निकला जाए.'' और तो और दिसंबर 2000 के अंतिम दिनों में चेन्नई में हुई भाजपा की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में भाजपा के तत्कालीन संगठन प्रभारी महासचिव और आज के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीतिक प्रस्ताव पेश करते हुए कहा था कि ‘‘अब भाजपा के नेताओं-कार्यकर्ताओं के एक हाथ में पार्टी का झंडा और दूसरे हाथ में एनडीए का एजेंडा होना चाहिए. हमें अयोध्याा में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण, कामन सिविल कोड और संविधान से कश्मीर को विशेष अधिकार देनेवाली धारा 370 को हटाने जैसे अपने विवादित मुद्दों को ठंडे बस्ते में रख देने चाहिए''.
हालांकि उसके बाद भी विभिन्न चुनावों से पहले भाजपा और संघ परिवार ने इन मुद्दों को गरमाने की भरपूर कोशिशें की. इस बार भी पांच राज्यों में अगले नवंबर-दिसंबर महीनों में होनेवाले विधानसभा और उसके कुछ ही महीनों बाद लोकसभा के आमचुनाव से पहले आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत ने भी नागपुर में संघ के विजय दशमी पर आयोजित होनेवाले विजय पर्व कार्यक्रम में अपने संबोधन में कहा था कि राम मंदिर के लिए कानून बनाना चाहिए. यह सीधे तौर पर इशारा था कि संघ और भाजपा के समर्थकों और राम मंदिर के प्रति आस्था रखने वालों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार को अध्यादेश लाने से लेकर सदन में राम मंदिर के लिए कानून बनाने के विकल्प पर अमल करना चाहिए.
वैसे भी, मोदी सरकार के पास अपने पिछले साढ़े चार साल के शासन की उपलब्धियां बताने के लिए कुछ ठोस नहीं है. उसके 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले मतदाताओं से किए गए अधिकतर चुनावी वादे हवाई अथवा जुमले साबित हो चुके हैं. दूसरी तरफ, बेरोजगारी, महंगाई, रफायेल, पेट्रोलियम पदार्थों के आसमान छूते दाम, अमेरिकी डालर के मुकाबले भारतीय रुपये की लगातार गोता लगाती कीमत, किसानों की आत्महत्याओं में कमी नहीं आने, महिलाओं, अबोध बच्चियों के उत्पीड़न, बर्बर बलात्कार और नृशंस हत्या की बढ़ती घटनाएं, दलितों और अल्पसंख्यकों पर बढ़ रहे हमले, बेरोक टोक माॅब लिंचिंग आदि तमाम मुद्दों पर मोदी सरकार लगातार घिरती और कठघरे में नजर आ रही है.

ऊपर से मंदिर निर्माण के लिए इसी तरह के दबाव अब उन तमाम साधु संतों और हिंदू संगठनों की तरफ से भी बन रहे हैं जिनकी भावनाओं को अपने राजनीतिक लाभ के मद्देनजर हवा देने में भाजपा ने कभी कोताही नहीं की थी. अब इन संतों ने भी सरकार को इस मुद्दे पर घेरना शुरू कर दिया है कि मंदिर निर्माण में देरी वे बर्दाश्त नहीं करेंगे. संतों का कहना है कि क्या भाजपा मंदिर निर्माण का अपना वादा भूल गई है और क्यों सुप्रीम कोर्ट के फैसले के इंतजार का बयान पार्टी की ओर से बार-बार दिया जा रहा है. सुनवाई टलने के बाद अयोध्या के संतों ने भी पूछा कि बार-बार क्यों सुनवाई टल रही है. ध्यान रहे कि संतों के एक बड़े वर्ग और राम मंदिर आंदोलन से जुड़े महंतों ने इस वर्ष 6 दिसंबर से अयोध्या में मंदिर निर्माण की घोषणा कर दी है. संत समाज का कहना है कि वे मंदिर निर्माण का काम शुरू कर देंगे, सरकार रोकना चाहती है तो रोके.ध्यान रहे कि संतों और मतदाताओं के बीच संदेश देने के लिए चुनाव से ठीक पहले मोदी सरकार के सामने यह एक अहम और अंतिम मौका है. जनवरी से प्रयाग में शुरू हो रहे कुंभ के दौरान भी सरकार को संत समाज के सामने मंदिर के प्रति अपनी जवाबदेही स्पष्ट करनी होगी.
संतों का यह आह्वान सरकार के लिए गले की फांस बनते दिख रहा है. केंद्र की मोदी सरकार और राज्य में योगी सरकार के लिए यह बहुत मुश्किल होगा कि संतों को रोकने के लिए वे किसी भी प्रकार का बल प्रयोग करें. इससे भाजपा को अपने समर्थकों के बीच खासा नुकसान झेलना पड़ सकता है. दिसंबर के बाद ही जनवरी से इलाहाबाद, माफ कीजिए प्रयागराज में कुंभ भी लगने जा रहा है.
कुल मिलाकर अब गेंद पूरी तरह से सरकार के पाले में है. भाजपा के भीतर एक बड़ा तबका इस राय का भी है कि जनवरी में सुप्रीम कोर्ट के रुख का इंतजार करना चाहिए क्योंकि जनवरी में भी अयोध्या विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट के रुख को कुछ महीनों बाद ही होनेवाले लोकसभा चुनाव में अपने ढंग से भुनाया जा सकता है. इस बीच शुरू होनेवाले सर्दियों के मौसम में भी मंदिर मुद्दे को गरमाने के प्रयास किए जा सकते हैं. लेकिन भाजपा के भीतर एक तबका ऐसा भी है जो मानता है कि सरकार के पास लोकसभा चुनाव से पहले संसद का केवल शीत सत्र ही बचा है जिसमें कानून बनाने की कवायद अथवा दिखावा भी किया जा सकता है.
सुप्रीम कोर्ट के ताजा रुख के मद्देनजर उन्हें नहीं लगता कि सर्वोच्च अदालत से उन्हें किसी तरह की उपयोगी मदद मिल सकती है. हालांकि इससे पहले शीर्ष अदालत के 27 सितंबर के मस्जिद और नमाज के इस्लाम का अभिन्न अंग नहीं मानने के फैसले के बाद मंदिर समर्थकों को लगा था कि मूल मुकदमे में भी सर्वोच्च अदाालत इसी तरह जल्द ही उनके पक्ष में कोई फैसला सुना सकती है.

यह मुद्दा उस वक्त उठा जब तीन न्यायाधीशों की पीठ इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ दायर अपीलों पर सुनवाई कर रही थी. उच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितंबर, 2010 को 2-1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि अयोध्या की 2.77 एकड़ विवादित जमीन को तीनों पक्षों-सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला विराजमान में बराबर-बराबर बांट दिया जाये. इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 13 याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान मई 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगाते हुए कोई फैसला होने तक अयोध्या में यथास्थिति बनाए रखने को कहा था.