Friday, 27 June 2014

आपातकाल की बरसी पर

( Takreeban ek saal ke antral ke baad Zeero hour par fir se hazir hun. Kitna niymit rah paunga kah nahin sakta.)

आपातकाल की बरसी पर फेसबुक पर बड़े भाई शिवानंद तिवारी और चंचल कुमार की टिप्पणियां देखने के बाद कुछ लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. शिवानंद जी की राय से सहमत हूं कि आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के प्रयासों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत है ताकि देश को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े. साथ ही साथ कोई सत्तारूढ़ दल फिर कभी देश में आपातकाल लागू करने जैसी हिमाकत नहीं कर सके. 

दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. आपातकाल को याद करते समय हमारी चिंता इस बात को लेकर कुछ ज्यादा है. 

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. हालाँकि हमने कभी iस बात का जिक्र खासतौर से लिखत पढ़त में तो नहीं ही किया है. तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित साप्ताहिक प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. भारत रक्षा कानून (डीआईआर) के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह-आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र एक ही बैरक में आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे. 

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए. आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों (जेल में और जेल के बाहर भी) के साथ समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी, लोहिया विचार मंच के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता. 

इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’ जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करेते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. उस समय आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. हमारे आग्रह-अनुरोध पर मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र, जान जोखिम में डालकर  काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे. हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए. इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. बाकी लोगों से भी सहयोग-समर्थन मिलने लगा. 

मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी-कर्मचारी नेता नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में हो रहे विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि उनकी राय में चुनाव का बहिष्कार करने से बचे खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था. मधु जी  जेल में संघ के लोगों के बढ़ रहे माफीनामों को लेकर परेशान थे. इसका जिक्र उहोंने एक पत्र में भी किया था.  

हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र उसी पते पर रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे समझ सकते हैं. इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे. आपातकाल में लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह साल किए जाने के विरोध में मधु जी और शरद जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था. लोकसभाध्यक्ष ने उसे स्वीकार भी कर लिया था. त्यागपत्र इलाहाबाद से उपचुनाव जीते जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था. लेकिन उन्होंने लोकसभाध्यक्ष के बजाय अपना त्यागपत्र अपनी पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. यह बात मधु जी को बुरी लगी थी. उन्होंने मुझे लिखे पत्र में कहा कि जाकर नैनी जेल में किसी तरह से जनेश्वर से मिलो और पूछो कि उन्हें क्या लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम? अगर त्यागपत्र देना था तो लोकसभाध्यक्ष के पास भेजते. अन्यथा ढोंग करने की आवश्यकता क्या थी? हम किसी तरह से जुगाड़ करके नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिले. वह भी हमारे नेता थे. संकोच करते हुए हमने उन्हें मधु जी के पत्र के बारे में बताया. जनेश्वर जी की प्रतिक्रिया समझने लायक थी. उन्होंने कहा कि मधु जी को बता दो कि वह अपनी पार्टी के नेता हैं, खुद फैसले ले सकते हैं लेकिन हम लोकदल में हैं जिसके अध्यक्ष चरण सिंह हैं, लिहाजा हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा. जाहिर सी बात है कि उनका त्यागपत्र लोकसभा अध्यक्ष तक नहीं पहुंचा था.

इलाहाबाद में हम ऐसे समाजवादियों का एक ग्रुप बन गया था जो जेल से बाहर थे लेकिन आपातकाल के विरुद्ध अपने अपने हिसाब से सक्रिय थे. कुलभास्कर डिग्री कालेज के दो प्राचार्यों-श्रीबल्लभ जी और ललित मोहन गौतम जी, हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता स्वराज प्रकाश, विनय कुमार सिन्हां, सतीश मिश्र, ब्रजभूशण सिंह, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी भारत भूषण आदि हम लोग अक्सर मिला करते, कभी समूह में और अक्सर अकेले में. संघर्ष समाचार का नियमित प्रकाशन-वितरण करते थे. संघ और जनसंघ के कुछ लोग भी संपर्क में थे. लेकिन उनके साथ अक्सर हमारा वैचारिक विरोध होते रहता था. एक बार मुझे याद है कि इलाहाबाद में छापाखाने की दिक्कत हो जाने पर हम जेल में बंद नेता नरेंद्र गुरु और सिराथू के छोटेलाल यादव से संपर्क सूत्र लेकर बांदा जिले में राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास जी के गांव राजापुर गए थे. इलाहाबाद से एक रिम कागज लिए बस से शाम को राजापुर के इस पार इलाहाबाद जिले की साइड में यमुना नदी के तट पर पहुंचने और मल्लाह से अनुनय-विनय कर नाव से उस पार राजापुर पहुंचने की यात्रा कभी न भूलनेवाली यात्राओं में से एक है. वहां मिले समाजवादी नेता देवनारायण शास्त्री हमारी तरह ही जेल से छूट कर आए थे. उनका अपना छापाखाना था लेकिन वह दोबारा किसी तरह का जोखिम लेने के मूड में नहीं थे. बहुत समझाने पर हमारे ठहरने का इंतजाम तुलसी दास जी के मंदिर में हुआ जहां उस समय भी राम चरित मानस की उनकी हस्तलिखित पांडुलिपि के कुछ पन्ने रखे हुए थे. रात में हम दोनों ने जगकर बुलेटिन तैयार किया. प्रकाशन हुआ और हम अगली सुबह वहां से गायब.
आजमगढ़ जेल से निकलने के बाद दोबारा हम नहीं लौटे. पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों को चकमा देते रहे. एक दो बार सामना भी हुआ लेकिन हम किसी तरह बच निकले. एक बार संभवतः नवंबर 1976 में संजय गांधी का इलाहाबाद में कार्यक्रम था, किसी तरह का विघ्न नहीं पहुंचे इसके लिए नए सिरे से धर पकड़ शुरू हुई थी. खुफिया पुलिस को किसी तरह इलाहाबाद में हमारे दारागंजवाले मकान का पता चल गया था. आधी रात को हमारे घर पुलिस का छापा पड़ा लेकिन हम एक बार फिर उन्हें चकमा देकर निकल भागने में कामयाब रहे. पुलिस की गाज हमारे परिवार, दोनों बड़े भाइयों पर गिरी. उन्हें पुलिसिया गालियों का सामना करना पड़ा. रात दारागंज थाने में गुजारनी पड़ी. बाद में उन्हें छोड़ दिया गया लेकिन जब हम लुकते छिपते वापस घर पहुंचे तो भाइयों ने हाथ जोड़ लिया. कहा पिता जी तो जेल में हैं ही, तुम भी जेल से आए हो, लेकिन हम लोग सरकारी मुलाजिम हैं. हम चले गए तो परिवार का क्या होगा? संकेत साफ था. जरूरी कपड़े और कुछ पैसे लेकर हम घर से बाहर हो लिए. मां और भाभी की आंखें में आंसू थे. घर से निकलने के बाद सीडीएपेंशन में कार्यरत समाजवादी साथी सतीश मिश्र के प्रयास से मुट्ठीगंज स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन के बगल की गली में रहने के लिए कमरे का जुगाड़ हो गया. खाना-पीना साथियों-सहयोगियों के घर परिवारों के जिम्मे था.समाजवादी चिंतक-साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा का निवास भी हमारे ठिकानों में होता.सम्मेलन में समाजवादी साथी, सम्मेलन के मौजूदा प्रधानमंत्री विभूति मिश्र के कहने पर उनके पिता जी, सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रभात मिश्र के आशीर्वाद से वहीं हमारे बैठने और दिहाड़ी के हिसाब से कुछ पैसे मिलने की व्यवस्था भी हो गई. लेकिन एक दिन हमें खोजते खुफिया पुलिस सम्मेलन के कार्यालय भी आ धमकी. हमें सम्मेलन भी छोड़ना पड़ा. इस तरह से पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों के साथ हमारी लुका-छिपी या कहें आंख मिचैनी का खेल चलता रहा. इस बीच  आपातकाल समाप्त हो गया लोकसभा चुनाव कराए गए और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा या कहें दबाव से सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस और भारतीय लोक दल को मिलाकर बनी जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बन गई. 

लेकिन शायद सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है. जनता पार्टी के सत्तारूढ़ नेताओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगी. हमारे जैसे लोगों के पास सच पूछें तो कोई काम नहीं था. चुनाव हम लड़ नहीं सकते थे, उस समय हमारी उम्र महज 21 साल की थी. पिता जी ने संसाधनों के अभाव और पूरे संसदीय क्षेत्र में काम नहीं होने की दुहाई देकर लोकसभा का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और विधानसभा चुनाव में उनका टिकट जनता पार्टी के हमारे पड़ोसी अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने काट दिया था. पिता जी बगावत कर चुनाव लड़ गए थे. चंद्रशेखर जी और रामधन जी के हर संभव विरोध के बावजूद बहुत कम मतों से चुनाव हार गए थे. इलाहाबाद में हम युवा जनता के बैनर तले सक्रिय थे. लेकिन अपनी सरकार और अपने नेताओं के रहन सहन व्यवहार और काम काज को लेकर जनता पार्टी या कहें कि राजनीति से भी मन उचटने और झुकाव पत्रकारिता की ओर बढ़ने लगा. सरकार पर दबाव बनाने की गरज से हम लोगों ने इलाहाबाद में ‘बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो’ के नारे के साथ आंदोलन शुरू किया. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. हम भी सत्तारूढ़ दल की युवा शाखा के पदाधिकारी रहते हुए भी जेल गए. बहुत जल्दी ही समझ में आने लगा कि सत्ता का चरित्र वाकई एक जैसा ही होता है. आश्चर्य तो तब शुरू हुआ जब जनता पार्टी की सरकार ने, उसमें शामिल समाजवादियों ने एक भी ठोस काम ऐसा नहीं किया, जिससे देश में भविष्य में फिर कभी कोई दल अथवा नेता आपातकाल लागू करने का दुस्साहस नहीं कर सके.

 और नहीं तो लाकतंत्र की दुहाई देकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की सरकार ने कुछ ही महीनों बाद ‘जनादेश’ के नाम पर पहले अलोकतांत्रिक कार्य के रूप में नौ राज्यों की कांग्रेस की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त कर दिया. आपातकाल के बदनाम मीसा-आंतरिक सुरक्षा कानून-के विरुद्ध संघर्ष कर सत्तारूढ़ हुए लोगों को ‘मिनी मीसा’ की जरूरत महसूस होने में जरा भी लाज नहीं आई. संघ और पुराने कांग्रेसियों के दबाव में जनता पार्टी की सरकार और उसकी राज्य सरकारों ने ऐसे कई काम किए जिन्हें भ्रष्ट एवं स्वस्थ लोकतंत्र पर आघात पहुंचानेवाला ही कहा जा सकता था. जाहिर है जनता पार्टी की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले दबकर अकाल मौत का शिकार हो गई. बाद के वर्षों में भी आपातकाल के विरोध में या कहें जबरन आपातकाल और उसके कानूनों की ज्यादतियों का शिकार हुए लोगों ने मीसा जैसे खतरनाक प्रावधानों वाले टाडा और पोटा जैसे कानूनों की वकालत की. कई नेताओं को तो नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटनेवाले पोटा जैसे कानूनों के प्रावधान भी कमजोर नजर आने लगे. इसलिए जब शिवानंद जी आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के उपायों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत बताते हैं तो सोचने का मन होता है कि क्या आज हमारे प्रायः सभी राजनीतिक दलों और नेताओं की राजनीतिक कार्यशैली को देखकर एक अदृश्य आपातकाल का एहसास नहीं होता. आज कौन दल अथवा नेता अपने आचरण से अपने लोकतांत्रिक होने का दावा कर सकता है. किस दल में आज अंदरूनी लोकतंत्र है जिसके बूते हम उम्मीद कर सकें कि इस देश में दोबारा आपातकाल लागू करने की हिमाकत नहीं होगी. 

हां, हम इस तरह की किसी भी स्थिति का विरोध करने के लिए खुद को तैयार तो कर ही सकते हैं. इस साल 25-26 जून को आपातकाल की बरसी पर इसका संकल्प तो ले ही सकते हैं क्योंकि हमारे पास और कुछ हो न हो, गांधी लोहिया और जयप्रकाश की वैचारिक थाती और गलत को गलत कहने और उसका विरोध करने की उनकी सीख और प्रेरणा तो है ही. इसे ही संजोकर जिन्दा रखने की जरूरत आज का hamara संकल्प है. यह बात तो हमारे चंचल जी भी मानेंगे ही जो शरीर से भले ही कोंग्रेसी हो गए हों, विचारों से समाजवादी और लोकतान्त्रिक ही हैं.  

Tuesday, 4 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 3: हम तो मर मर के जीते हैं




जयशंकर गुप्त


जैसलमेर से बाहर उत्तर पश्चिम की ओर निकलते ही कंकरीली-रेतीली झाड़ियों से भरे मैदान दूर दूर तक दिखाई देते हैं. सड़क सीमा संगठन द्वारा बनाई सड़क सीधे जैसलमेर से 130 किमी दूर पाकिस्तान सीमा के पास स्थित तनोट तक जाती है. कहीं कहीं सड़क पर रेत भर जाने से कठिनाई होती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर बड़े बड़े दैत्याकार पंखों वाले मोटे खंभों की कतार दिखती है. ये खंभे यहां बड़े पैमाने पर पवन ऊर्जा (विंड एनर्जी) के उत्पादन में लगी कंपनियों सुजलान एनर्जी और एनरकान के हैं. जैसलमेर और बाड़मेर जिलों में पवन ऊर्जा के क्षेत्र में बड़े काम हो रहे हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार इससे तकरीबन 500 मेगावाट बिजली पैदा हो रही है. पवन ऊर्जा के उत्पादन में लगी कंपनियों की मानें तो अगर स्थापित क्षमता का संपूर्ण उपयोग हो जाए तो पूरे देश का बिजली संकट इससे दूर हो सकता है. कहीं-कहीं सौर ऊर्जा के संयंत्र भी दिखते हैं.

सड़क किनारे झोंपड़े में लू से बचाव और चाय की तैयारी में चरवाहे 

थोड़ा और आगे सोनु गांव के पास लाइम स्टोन की खदानें एवं लाइम स्टोन क्रशर दिखते हैं. बताते हैं कि यहां उच्च गुणवत्ता वाले चूना पत्थर मिलते हैं जिनका इस्तेमाल इस्पात कारखानों में होता है. जैसलमेर में बड़े पैमाने पर जिप्सम की खदानें भी हैं. कुछ जगहों पर तेल के भंडार भी मिले हैं. रामगढ़ के पास रिफाइनरी भी बन रही है. जैसलमेर और तनोट से समान (65 किमी) दूरी पर स्थित रामगढ़ कस्बेनुमा ग्राम पंचायत है जो आसपास के ग्रामीण इलाकों के लिए हर तरह की सुविधों की आपूर्ति का केंद्र और बाजार भी है. रामगढ़ के थोड़ा आगे बढ़ने पर पानी से भरी नहर मिलती है जिसके चलते आसपास के इलाकों में हरियाली और खेत भी नजर आते हैं. लेकिन उससे 25-30 किमी और आगे रणाऊ की ढाणी तक एक बार फिर रेतीले बंजर में कीकर, खेजरी और जाल घास के अलावा कुछ नहीं दिखता. रास्ते में एक जगह फूस के झोंपड़े में कुछ लोग बैठे हैं. पता चला कि आसपास के गांवों के चरवाहे हैं. मवेशी तो मैदान में चर रहे या पेड़ों, घास के झुरमुटों में छांह खोज रहे हैं जबकि चरवाहे इसी तरह के झोंपड़ों में बैठे आराम कर रहे होते हैं. कई बार ये लोग रात को भी यहीं कहीं सो जाते हैं. झोंपड़े में कुल तीन लोग हैं और साथ में भेड़ का एक मेमना भी. लकड़ी सुलगाकर चाय बन रही है.

 रणाऊ में बेकार खड़ा पवन ऊर्जा का खंभा 
गे दूर से ही रणाऊ गांव नजर आता है जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ भी नजर नहीं आता. सड़क से 300-350 मीटर दूर बसे सोलंकी राजपूतों के इस गांव में प्रवेश करते समय हमारी गाड़ी रेतीले रास्ते में फंस गई. ड्राइवर के लाख जतन करने पर भी रेत में धंसे कार के पहिए आगे-पीछे होने का नाम न लें. तपती रेत पर पैदल ही गांव में जाना पड़ा. रेत पर बसे गांव में एक महिला घर में भर गई रेत निकाल कर बाहर रख रही थी. पूछने पर बताती है कि यह तो आए दिन की बात है. जब भी तेज हवा या आंधी चलती है घरों में रेत भर जाती है. कुछ महिलाएं गांव से नीचे सड़क के पास टैंक से सिर पर घड़ों में पानी भरकर ला रही हैं. पता चला कि ट्यूबवेल में खराबी के कारण सात आठ दिन तक पानी नहीं आया था. रघुनाथ सिंह बताते हैं कि पानी के बिना बड़ी मुश्किल हुई थी. काफी अनुनय-विनय के बाद सीमा सुरक्षा बल के लोगों ने कुछ पानी दिया था. वह बताते हैं कि 70-80 घरों की इस ढाणी को आयल इंडिया ने गोद लिया है. ट्यूबवेल भी उसी ने लगाया है. उसके सौजन्य से कुछ साल पहले पवन ऊर्जा का एक खंभा भी गड़ा था लेकिन उससे बिजली आज तक नहीं मिली. बेकार खड़ा है. गांव में स्कूल है जहां आठवीं तक की पढ़ाई होती है. आसपास कोई अस्पताल नहीं है. न ही कोई डाक्टर-कंपाउंडर या एएनएम कभी इधर का रुख करता है.

 रेत के उपर बने घरों के सामने बात करती कमला देवी-
हम तो मर मर के जीते हैं
भी हमारी बात चल ही रही थी कि एक बुजुर्ग सी महिला कमला देवी सामने आती हैं और हमारा ही इंटरव्यू लेना शुरू कर देती हैं. बाद में कहती हैं, इस तरह के पूछने वाले बहुतेरे आते हैं लेकिन कुछ करते नहीं. लौटने के बाद सब भूल जाते हैं. आप भी भूल जाओगे. हमारी परेशानी ऐसे ही रहेगी. वह कहती हैं, ‘‘हम लोग तो यहां मर-मर के जीते हैं. गर्मी में गर्मी और लू सताती है. बरसात में मिट्टी-गोबर के घर गिरने लग जाते हैं. सर्दियों में ठंड सताती है. सर्दियों में रेत एकदम से ठंडी हो जाती और कई बार तापमान शून्य तक पहुंच जाता है. वह बताती हैं कि सिरदर्द की टिकिया से लेकर बुखार और डिलीवरी तक के लिए रामगढ़ जाना या फिर डाक्टर को फोन करके बुलाना पड़ता है. इस सड़क पर केवल एक बस चलती है. सुबह तनोट से रामगढ़ होकर जैसलमेर जाती है और फिर शाम को वही बस लौटती है. बाकी समय के लिए रामगढ़ से फोन करके टैक्सी बुलानी पड़ती है जो इमरजेंसी में एक हजार रु. भाड़ा लेता है. कई बार मरीज रास्ते में ही दम तोड़ देते हैं. यहां लैंड लाइन नहीं. मोबाइल फोन की सुविधा भी नहीं के बराबर है. बीएसएनएल का टावर तनोट में है लेकिन कनेक्टिविटी नहीं. ऊपर टीले पर जाने और मौसम साफ होने पर ही बातचीत हो पाती है. राशन से लेकर सब्जी या कोई अन्य सामान रामगढ़ से ही मंगाना पड़ता है. पूरा गांव जीविका के लिए पशुपालन पर ही निर्भर करता है. लेकिन इस गांव में बच्चों में पढ़ने की ललक दिखती है.

गाय दूध रही एक महिला
णाऊ से थोड़ा आगे बढ़ने पर एक रास्ता गुर्दूवाला गांव की तरफ जाता है. तीन किमी के रास्ते में सेना के दस्ते और रेतीली पहाड़ियों पर उनके बंकर भी नजर आते हैं. गुर्दूवाला रेत के टीले पर बसा राजपूतों का गांव है. नीचे प्राइमरी स्कूल के पास खेल रहे बच्चों में स्वरूप सिंह भी है जो सातवीं में पढ़ने के लिए सोनु जाकर रहता है. वह नंगे पावं तपती रेत में दौड़कर गांव वालों को बुलाकर लाता है. सभी लोग स्कूल में जमा होते हैं. एक और युवक भूर सिंह 70 किमी दूर अपनी बहन के गांव हावुर (पूनमनगर) में जाकर दसवीं की पढ़ाई कर रहा है. छुट्टियों में गांव आया है. वह बताता है कि गांव तक सड़क है लेकिन बस नहीं आती. पानी के लिए जल दाय विभाग का ट्यूबवेल है जिसे चलाने की जिम्मेदारी गांव के ही दो युवकों पर है. सरकारी कर्मचारी कभी नहीं आता. इन्हें अपने वेतन से कुछ रु. देकर काम करवाता है. भूर सिंह बताता है कि गांव में रेत उड़ते रहती है. जवान लोग तो मवेशियों के साथ बाहर निकल जाते हैं. रात को जंगल में ही रह जाते, रोटियां सेंकते और बकरी के दूध में मिलाकर पी जाते हैं. कई बार आटे में रेत भी मिल जाती है. ये लोग भी रणाऊ  के लोगों की तरह ही यहां चार पीढियों से रह रहे हैं. गर्मी से बचाव के लिए क्या करते हैं? पूछने पर भूर सिंह बताता है कि भोगोलिक परिस्थितियां सब कुछ सहने के लायक बना देती हैं. लोग अपनी आवश्यकताओं को उपलब्ध संसाधनों के हिसाब से ढाल लेते हैं. ग्रामीण इलाकों में जो पानी मिलता है वह खारा, नमकीन होता है. उसमें फ्लोराइड की मात्रा अधिक होती है लेकिन गांव के लोग उसी का इस्तेमाल नहाने और पीने के लिए भी करते हैं. जिनके पास पैसे हैं वे मीठा पानी खरीदकरमंगाते हैं. गांव के बुजुर्ग कर्ण सिंह इस बात से खफा हैं कि अभी तक गुर्दूवाला को राजस्व गांव का दर्जा नहीं मिल सका है. हर छोटे बड़े काम के लिए रामगढ़ या जैसलमेर के चक्कर लगाने पड़ते हैं. सरकारी योजनाओं का उन्हें पता भी नहीं लगता, लाभ मिलना तो दूर बात है. किसी भी स्कूल में यहां मिड डे मील जैसी योजना का अता-पता नहीं.

माता तनोट राय का मंदिर

 तनोट की देवी का मंदिर
गुर्दूवाला से हम तनोट की तरफ बढ़ते हैं. ग्रामीणों की मदद से कार सड़क पर पहुंच जाती है. तनोट भी एक छोटी सी बस्ती है, दलित मेघवालों की. तनोट की ख्याति 1965 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध के कारण हुई थी. पाकिस्तानी फौज यहां लोंगेवाला होते हुए अंदर तनोट तक आ गई थी. सीमा सुरक्षा बल के लोगों का कहना है कि कम संख्या में मौजूद भारतीय जवान घिर गए थे. तभी वहां प्रकट सी हुई किसी महिला (देवी) ने उनसे मंदिर की ओट में आ जाने को कहा था. बताते हैं कि पाकिस्तानी सैनिकों ने वहां तकरीबन तीन हजार बम गोले बरसाए. 450 गोले मंदिर के पास भी गिरे लेकिन किसी का बाल भी बांका नहीं हुआ. बहुत सारे गोले तो फटे ही नहीं. उन्हें मंदिर प्रांगण में ही सहेजकर रख गया है. इसी तरह 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तानी सेना की एक टुकड़ी लोंगेवाला पोस्ट तक घुस आई थी लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी और भारतीय सेना ने उन्हें मारते, वापस
 1965 के भारत-पाक युद्ध के समय मंदिर के पास गिराए 
पाकिस्तानी गोले जो फूट नहीं सके थे.
मंदिर में अन्य स्मृति चिह्नों, तस्वीरों के साथ उन्हें भी 
सहेजकर रखा गया है

खदेड़ते हुए उनके टैंक व गाड़ियां कब्जे में ले लिया था. इसे भी सेना और सीमा सुरक्षा बल के लोग देवी के चमत्कार से ही जोड़कर देखते हैं. बताते हैं कि उस समय वहां पोस्ट पर रहे जवान और अफसर साल में एक बार जरूर तनोट की देवी का दर्शन करने यहां आते हैं. अब तो वहां सीमा सुरक्षा बल की देख रेख और प्रबंधन में भव्य मंदिर, धर्मशाला और कार्यालय भी खुल गए हैं. देश भर से श्रद्धालुओं का यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है.

नोट से लौटते समय हम लोंगेवाला पोस्ट होकर रामगढ़ आते हैं. लोंगेवाला में उस विजय स्तंभ और भारतीय सैनिकों द्वारा कब्जा किए गए पाकिस्तानी टैंक को देखते हैं. रास्ते में जगह-जगह मुख्य नहर से जोड़ने के नाम पर बनाई गई पक्की नालियां दिखती हैं जो जगह-जगह से टूटी-फटी हैं और सरकारी कामों की गुणवत्ता का बयान करती हैं. नहर का पानी अभी तक इन इलाकों में नहीं पहुंचा है और ना ही आजाद भारत के विकास की कोई किरण. जाहिर सी बात है कि जैसलमेर में दूर दराज के अनेक सीमावर्ती गांव अभी भी पिछड़ेपन का भूगोल बने हैं. चाहे गर्मी हो अथवा सर्दी और बरसात, उन्हें तो मर-मर के ही जीना पड़ता है.


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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Monday, 3 June 2013

तपती गर्मी में जैसलमेर 2: सम के पास सूर्यास्त का सौंदर्य

सम के पास रेत के टीबों पर सूर्यास्त का सौंदर्य और ऊँट की सवारी 
जैसलमेर रेलवे स्टेशन पर दिन के 12 बजे रेल गाड़ी से बाहर निकलते ही शहर में मौसम का मिजाज समझ में आने लगता है. मटमैली रेतीली धूल से ढके आसमान से लगता था कि अंगारे बरस रहे हैं. दिन का तापमान 46-47 डिग्री सेल्यिस को छूने को बेकरार था (कभी-कभी तो यहां तापमान 50 के पार भी पहुंच जाता है.शहर में कर्फ्यू जैसा सन्नाटा पसरा है. स्टेशन से यात्रियों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने में लगे आटो रिक्शा और टैक्सियों के अलावा सड़कों पर बहुत कम वाहन दिखते हैं. बाजार में भी चहल-पहल गायब है. शाम को हम जैसलमेर से 45 किमी दूर सम के लिए रवाना होते हैं. सम के पास रेत के टीबों या कहें टीलों (सैंड ड्यून्स) से सूर्यास्त के सौंदर्य का नजारा बेहद मनमोहक लगता है. इसे देखने के लिए देश और दुनिया भर से हजारों पर्यटक यहां खिंचे चले आते हैं. लेकिन गर्मी के दिनों में पर्यटकों की आमद कम हो जाती है. सम के पास सड़क से अक्सर स्थान बदलते रहते रेत के टीबों तक जाने के लिए ऊंट की सवारी करनी पड़ती है. तपती धरती-रेत और आग के गोले बरसाते आसमान के बावजूद कुछ देसी-विदेशी पर्यटक  ऊंटों पर सवार होकर रेत के टीबों तक पहुंचते हैं. शाम शुरू होने के साथ ही रेत की गरमी भी कम होनी शुरू हो जाती है. रात दस-ग्यारह बजे तक रेत ठंडी होने लगती है. मौसम का मिजाज भी बदल जाता है. दिन की तपिश सुहानी ठंड में बदल जाती है. आधी रात होने तक तो कंबल-रजाई ओढ़ने की नौबत आ जाती है.

 म के पास सूर्यास्त तकरीबन 7.40 बजे होता है लेकिन आसमान में उस दिन छाई रेतीली धूल के कारण सूर्य देवता सूर्यास्त से कुछ मिनट पहले ही आंखों से ओझल हो गए. कुछ लोग वापस लौटते हैं तो कुछ मौज मस्ती के मूड में रेत पर लोटते-पोटते, खेलते नजर आते हैं. यहां की रेत शरीर और कपड़ों से चिपकती नहीं है. जानकार लोग बताते हैं कि एक जमाने में रेत के टीबों का क्षेत्रफल और उनकी ऊंचाई काफी अधिक होती थी लेकिन अब बदलते पर्यावरण, जिले में नहर आदि से बढ़ रही हरियाली आदि के कारण भी रेत के टीबों की ऊंचाई और क्षेत्रफल कम होते जा रहा है.

सम के आगे अंधेरा है 

म सम से आगे बढ़ते हैं. रास्ते में पर्यटक मौसम में गुलजार रहने वाले बहुत सारे होटल, रिजार्ट, हट्स-स्विस टेंट्स वीरान नजर आते हैं. सूर्यास्त के बाद सम के आगे एक अजीबोगरीब अंधेरे से सामना होता है जो न सिर्फ इस इलाके में पिछड़ेपन के भूगोल और जीवन की बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित गांवों-ढाणियों के दर्शन कराता है, देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाता है. सबरों की ढाणी से पगडंडी रास्ते से होते हुए हम मेण़ुवों की ढाणी पहुंचते हैं. पूरा इलाका अंधकार में डूबा है. दूर दूर तक रोशनी का नामो निशां भी नहीं. कार की हेडलाइट्स देख कुछ लोग पास जमा हो जाते हैं. मिट्टी-पत्थरों से बनी दीवारों और एक खास तरह के फूस से बनी छत वाले छोटे से कमरे में 12-13 साल की बच्ची झिमा खान लकड़ी के चूल्हे में फूंक मारकर रोटियां सेंक रही है. एक अन्य कमरे से निकले प्यारे खान बताते हैं कि दस साल पहले गांव में बिजली के कुछ खंभे गाड़े गए थे लेकिन उनमें तार और बिजली कनेक्शन नहीं जोड़े जाने के कारण गांव में आज तक रोशनी नहीं आ सकी. बिजली नहीं तो पंखे-कूलर की बात बेमानी है. गर्मी का सामना कैसे करते हैं? प्यारे खान बताते हैं कि दिन में आमतौर पर घर से बाहर लोग, खासतौर से बूढ़े और बच्चे कम ही निकलते हैं. शरीर पर पानी भिंगोए कपड़े लपटते रहते हैं. ठंडा रखने के लिए मिट्टी के घड़ों-मटकों में पानी भरकर रखते हैं. पानी कम पीने की आदत बन गई है. गर्मी के दिनों में गाय का छाछ-मट्ठा, बकरी का दूध सबसे सुलभ और स्वास्थ्यकर पेय है. तकरीबन एक सौ घरों और 300 लोगों की इस बस्ती में पानी या तो 27 किमी दूर नहर से या फिर नौ किमी दूर सम से टैंकर में आता है. घर के पास बने टंका-सीमेंट की टंकी-में पानी जमा करते हैं. उसी से पानी पीते, नहाते और मवेशियों को भी पिलाते हैं. कुछ गांवों में ट्यूबवेल से पानी जीएलआर (ग्राउंड लेबल रिजर्वायर) में जमा होता है, उससे ग्रामीण घड़ों और पखालों-ऊंट की खाल से बने हौदों-में पानी भरकर घर के पास बनी टंकियों में जमा करते हैं. मिश्री खान बताते हैं कि सप्ताह में एक बार ही वे लोग नहा पाते हैं. पूरी बस्ती में शौचालय का कोई इंतजाम नहीं, लोग और महिलाएं भी खुले में ही शौच के लिए जाते हैं. गांव में एक भी पढ़ा-लिखा, साक्षर नहीं है. प्राइमरी स्कूल है लेकिन बकौल करमाली खान, टीचर कभी आते ही नहीं, पढ़ाई कैसे हो. वैसे, स्थानीय लोग बच्चों और खासतौर से बच्चियों को तालीम देने में ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आते. यही हाल बगल की मतुओं की बस्ती और सगरों की बस्ती का भी है. बीमार पड़ने पर नौ किमी दूर सम में स्थित प्राथमिक चिकित्सा केंद्र पर जाना पड़ता है या फिर जैसलमेर. मोबाइल फोन अधिकतर लोगों के पास हैं. लेकिन नेटवर्क कनेक्शन की और बिजली के अभाव में फोन को चार्ज करने की समस्या आम रहती है. इन गांवों में लोगों की जीविका का मुख्य साधन कैमल सफारी-ऊंट की सवारी-और मवेशी पालन होता है. लोग बड़े पैमाने पर गाय-भेड और बकरियां पालते हैं. इन इलाकों में भैंसें नहीं के बराबर दिखती हैं क्योंकि उन्हें पानी की अधिक दरकार होती है. बरसात के बाद ग्वार-बाजरा की खेती भी हो जाती है.

नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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तपती गर्मी में जैसलमेर 1: प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी

जयशंकर गुप्त

प्रकृति की मार और अभाव की जिंदगी  



'सोने का किला !'
पिछले सप्ताह राजस्थान के जैसलमेर जिले में जाना हुआ. जैसलमेर हम पहले भी जा चुके हैं लेकिन इस बार की बात कुछ और थी. ऐसे समय में जबकि दिन का तापमान तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, थार मरुस्थल वाले जैसलमेर की यात्रा! अटपटी सी बात लगती है. लेकिन चहुंओर मरुस्थल, रेत के टीबों (धोरों), कीकर (बबूल)- और खेजरी के सूखे-हरे दरख्तों, जालों और जहा-तहां भेड़-बकरियों, गायों के अलावे और कुछ भी नहीं दिखनेवाले जैसलमेर के भारत-पाकिस्तान सीमा से लगे ग्रामीण इलाकों में भी तो लोग जीते हैं. कैसे? यह जानना ही अपनी यात्रा का मकसद था.

जैसलमेर की ख्याति यहां सुनहरे किले और खासतौर से यहां से 45 किमी दूर सम के पास रेत के टीबों से सूर्यास्त के मनमोहक सौंदर्य के नजारे के लिए ही रही है. जैसलमेर का किला सोने का नहीं बना है और न ही इसकी दीवारों पर सोने का रंग चढ़ा है. लेकिन यहां 25 किमी के दायरे में स्थित 20 फुट गहरी खदानों से निकलने वाले सुनहरे रंग के रेतीले पत्थरों (सैंड स्टोन्स) से बना होने के कारण दूर से, और खासतौर से चटखती धूप अथवा रात में बिजली की रोशनी में भी यह किला सोने की तरह दमकता है. और अब तो शहर में तथा जिले में भी अधिकतर इमारतों के भी इन्हीं पत्थरों से बनी होने के कारण जैसलमेर को स्वर्णनगरी भी कहा जाने लगा है. प्रख्यात फिल्मकार स्व. सत्यजित रे ने किले की इसी खूबी के कारण एक फिल्म बनाई थी, ‘सोनार किल्ला’ यानी सोने का किला. इन पत्थरों की खासियत अपेक्षाकृत कमजोर होने और धूप में सोने जैसे दमकने के साथ ही ईंट के मुकाबले सस्ते, गर्मी में अपेक्षाकृत ठंडे और सर्दियों में गरम होने की भी है. किले की एक खासियत और भी है. देश और दुनिया में भी यह शायद पहला किला है जहां भरी पूरी आबादी और बाजार भी है. इसलिए भी देश और विदेश से बड़े पैमाने पर पर्यटक यहां हर साल आते हैं. पर्यटकों का मौसम यहां जुलाई-अगस्त से लेकर मार्च-अप्रैल तक होता है. पाकिस्तान की सीमा से लगा होने के कारण जैसलमेर और आसपास की आबादी का बड़ा हिस्सा सीमा सुरक्षा बल, भारतीय सेना और वायुसेना के लोगों का है. एक तरह से देखें तो जैसलमेर की अर्थव्यवस्था मुख्यरूप से पर्यटकों और सेनाओं तथा सीमा सुरक्षा बल के जवानों-अफसरों पर ही टिकी है.

सड़क किनारे झोंपड़े में गर्मी से बचाव और चूल्हे पर पकती चाय 
हाल के वर्षों में जैसलमेर में कई तरह के बदलाव आए हैं. इंदिरा गांधी नहर के प्रवेश के कारण कई इलाकों में पानी पहुंचने लगा है. कहीं कहीं हरियाली भी दिखने लगी है. इसके चलते बरसात की मात्रा भी बढ़ी है,  (एक जमाने में बरसात यहां नहीं के बराबर होती थी. कहा तो यह भी जाता है कि एक बार गांव में बरसात हुई तो एक आठ-दस साल का बच्चा डर कर घर में घुस गया क्योंकि उसने कभी आसमान से पानी बरसते देखा ही नहीं था. इसी तरह से कुछ वर्षों पूर्व अचानक भारी बरसात के कारण जैसलमेर में आयी बाढ़ से डरकर लोग घरों में छिप गए थे), रेगिस्तान या कहें रेत के टीबे भी सिमटने लगे हैं. सैंड स्टोंस, लाइम स्टोन, जिप्सम जैसे खनिजों के कारण और फिर हाल के वर्षों में पवन ऊर्जा और सौर ऊर्जा के संयंत्रों के कारण और इन सबके अलावा अब दिल्ली से सीधी रेल सेवा जैसलमेर तक पहुंचने के कारण पर्यटकों की आमद लगातार बढ़ते जाने से यहां आर्थिक गतिविधियां बढ़ी हैं. इससे पहले हवाई जहाज से अथवा रेलगाड़ी से भी जोधपुर और वहां से तकरीबन 300 किमी तक की जैसलमेर की दूरी टैक्सी, बस अथवा छोटी लाइन की छुकछुक रेलगाड़ी से तय करनी पड़ती थी.

लेकिन इन सारी गतिविधियों और विकास कार्यों का जैसे जिले के दूर दराज के, पाकिस्तान की सीमा से सटे गांवों-ढाणियों-बस्तियों में रहने वाले ग्रामीणों की सामाजिक-आर्थिक सेहत पर खास असर नहीं पड़ा है. चरम को छूती गर्मी हो अथवा बरसात या फिर सर्दियों में हाड़ कंपाने और शून्य डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने वाली ठंड, दूर दराज के गांवों और ढाणियों में रहने वालों के लिए मुश्किलें बढ़ा देती है. गर्मी तो इन दिनों दिल्ली और  देश के अन्य हिस्सों में भी तकरीबन इसी हिसाब से पड़ रही है लेकिन अभाव की जिंदगी जैसलमेर के मरुस्थली इलाकों में गर्मी को और भी मारक बना देती है. दूर दूर तक आबादी का नामो निशां नहीं. चारों तरफ रेतीले बंजर में कीकर (बबूल),खेजरी और जाल की घासें. कहीं कहीं गाय, भेड़-बकरियों के झुंड नजर आ सकते हैं. या फिर फूस के झोंपड़ों में गर्मी से पनाह लेते चरवाहे. यहां भी शहर-कस्बों में जहां पक्के मकान हैं और बिजली-पानी की सुविधा उपलब्ध है, लोग पंखे, एसी, कूलर के जरिए गर्मी से बचाव कर लेते हैं लेकिन ग्रामीण इलाकों में ऐसे कई गांव और ढाणियां हैं जहां अभी तक सड़क, बिजली पहुंची ही नहीं. पानी का भी अभाव है. सूर्य की तपिश बढ़ने पर लोग गोबर मिश्रित मिट्टी से बने घरों में दुबके रहते, भींगे कपड़ों से तन को लपेटकर गर्मी से बचाव करते हैं. अगर बाहर निकल गए हैं तो हरे-सूखे दरख्तों अथवा घास-जालोंकी छांह या उसका एहसास ही रक्षा कर सकती है. छांह की तलाश में मवेशी भी भटकते रहते हैं. इन सबके बीच रेतीली आंधी लोगों की दुश्वारियों को और बढ़ा देती है. आंधी के कारण तापमान में थोड़ी कमी जरूर आ जाती है लेकिन इससे रेत घरों में घुस जाती है. जब आंधी चलती है, पास से भी कुछ भी दिखाई नहीं देता.


तपती रेत में नीचे ट्यूबवेल से पानी लाती महिलाएं 


लेकिन देश के अन्य हिस्सों की गर्मी और यहां रेगिस्तानी इलाकों की गर्मी में एक बुनियादी फर्क है. अगर हवा चल रही है और आप पेड़-दरख्त की आड़ में हैं तो रहत महसूस कर सकते हैं. और फिर यहां सूर्योदय के साथ ही रेत जिस रफ्तार से गरम होती है, सांझ ढलने के साथ ही उसी रफ्तार से ठंडी भी होने लगती है. रात होने तक तो पूरे इलाके में तापमान इतना ठंडा (25-26 डिग्री सेल्सियस अथवा इससे कम भी) हो जाता है कि बाहर मैदान में सोने वाले को कंबल अथवा रजाई के बगैर रात काटनी दूभर हो जाती है. इलाके के ग्रामीण बताते हैं कि उन्होंने अभाव की जिंदगी के साथ यहां मौसम का मुकाबला करना सीख लिया है. ठंडे पानी के लिए रेतीली मिट्टी में धंसाकर रखे घड़ों-मटकों में भरा पानी ठंडा रहता है. पीने का हो अथवा नहाने का, आदमी के लिए हो अथवा मवेशी के लिए, पानी के लिए लोगों को सरकारी ट्यूबवेल से भरे टैंक और टैंकरों पर ही निर्भर रहना पड़ता है. लोग अपने घरों के सामने सीमेंट, चूने की टंकी बना कर उसमें पानी जमा कर लेते हैं. पानी कम पीने और कई कई दिन बाद नहाने की आदत सी बन गई है. अधिकतर इलाकों में पानी खारा और नमकीन तथा फ्लोराइडयुक्त होता है. अक्सर तमाम तरह की मौसम और जल जनित बीमारियों का सामना भी ग्रामीणों को करना पड़ता है. आसपास प्रशिक्षित डाक्टर और नर्सों वाले सरकारी अस्पताल नहीं. मामूली बीमारी के लिए भी जैसलमेर और जोधपुर तक जाना ग्रामीणें की नियति है. रास्ते में मरीज का दम तोड़ देना आम बात है. ग्रामीण इलाकों, खासतौर से पंचायत और प्रखंड मुख्यालयों पर प्राथमिक चिकित्सा केंद्र हैं भी तो वहां डाक्टर नहीं मिलते. गांवों में और वह भी गर्मियों में सरकारी डाक्टरों का इन इलाकों में मिलना किसी देवी देवता के दर्शन से कम नहीं. यही हालत स्कूलों की भी है. ग्रामीण इलाकों में अधिकतर स्कूलों में शिक्षक आते ही नहीं तो बच्चे भी नदारद ही रहते हैं. गांवों-ढाणियों में कुछ पैसेवालों को छोड़ दें तो शौचालय की सुविधा नहीं के बराबर नजर आती है. शौच के लिए खुले में ही जाना पड़ता है. खासतौर से औरतों को रात के अंधेरे में ही खुले मैदान में जाना पड़ता है. दिन में उन्हें झुरमुटों की आड़ की तलाश में बहुत दूर तक जाना पड़ता है. जैसलमेर के ग्रामीण इलाकों में अभाव की यह जिंदगी देश की 66-67 वर्षों की आजादी पर प्रश्नचिह्न भी लगाती है. क्या दिल्ली के वातानुकूलित कमरों-कार्यालयों में बैठे हमारे योजना आयोग और उसके कर्ता -धर्ताओं को इसका एहसास है?


नोट: इस लेख, यात्रा वृतांत के सम्पादित अंश लोकमत, लोकमत समाचार में प्रकाशित.

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Sunday, 26 May 2013

बीत गए चार साल आगे कौन हवाल



जयशंकर गुप्त

बीते 22 मई को कांग्रेसनीत संप्रग2 सरकार के चार साल बीत गए. एक तरह से कहें तो केंद्र में संप्रग सरकार के लगातार सत्ता में नौ साल बीत गए. इसको एक और तरह से देखें तो भारतीय जनता पार्टी और इसके नेतृत्ववाले राजग की भी लगातार मुख्य विपक्षी दल या कहें मुख्य विपक्षी गठबंधन बन रहने की उस दिन नौवीं वर्षगांठ थी. कांग्रेस और संप्रग सरकार ने उस दिन अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाया. अखबारों में लंबे चौड़े इश्तिहार छपे. रात को प्रधानमंत्री निवास पर सरकारी उपलब्धियों का रिपोर्ट कार्ड जारी होने के साथ ही भव्य भोज भी हुआ. भाजपा ने लगातार मुख्य विपक्ष बने रहने की अपनी नौवीं वर्षगांठ पर अपनी ‘उपलब्धियों का जश्न’ मनाने के बजाए अपनी राजनीतिक ऊर्जा सरकार को उसकी नाकामियों, भ्रष्टाचार और महंगाई जैसे मुद्दों पर अपने रटे रटाए अंदाज में घेरने में ही खपाई.

 ही मायने में कांग्रेसनीत सत्तारूढ़ संप्रग और भाजपानीत विपक्षी राजग की इन चार या कहें नौ वर्षों की उपलब्धियां क्या रहीं. कांग्रेस और संप्रग के लिए तो सबसे बड़ी उपलब्धि लगातार नौ वर्षों तक कई बार अल्पमत में होते हुए भी गठबंधन सरकार चलाते रहने की कही जा सकती है. इस मामले में मनमोहन सिंह पंडित जवाहरलाल नेहरू के बाद ऐसे दूसरे प्रधानमंत्री कहे जा सकते हैं जिन्होंने लगातार नौ साल किसी सरकार का नेतृत्व किया और दसवां साल पूरा करने जा रहे हैं. उनके पहले कार्यकाल में सरकार ने सूचना का अधिकार कानून, मनरेगा, किसानों की कर्जमाफी, अमेरिका के साथ परमाणु करार जैसे कई उल्लेखनीय काम किए. इन कामों के सहारे संप्रग2 भी सत्तारूढ़ हो सका. उनके पहले कार्यकाल में भ्रष्टाचार के ऐसे कोई बड़े मामले भी सार्वजनिक नहीं हुए जिनके चलते सरकार की थू-थू होती, जैसी आज गाहे बगाहे हो रही है. इसका एक कारण शायद वाम दलों का सरकार को बाहर से समर्थन भी था जो सरकार और उसके फैसलों पर एक तरह का अदृश्य सा नियंत्रण भी रखते थे. लेकिन अमेरिका के साथ असैन्य परमाणु करार के विरोध में वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया. हालांकि इसका खामियाजा कांग्रेस और संप्रग के बजाय वामदलों को ही लोकसभा और फिर विधानसभा के चुनावों में भी करारी हार के रूप में भुगतना पड़ा था.

लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग 2 की सरकार ऐसी कोई छाप नहीं छोड़ सकी. हालांकि कांग्रेस को 2004 में 141 के मुकाबले 2009 में लोकसभा की अधिक (206) सीटें मिली थीं. सरकार पर इसकी पकड़ भी पहले से कहीं ज्यादा थी. लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून बनाने और मल्टीब्रांड खुदरा बाजार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी और कैश सबसिडी ट्रान्सफर योजना के अलावा सरकार ने ऐसा कोई बड़ा काम नहीं किया जो जनमानस पर सकारात्मक छाप छोड़ सके. मल्टी ब्रांड खुदरा बाज़ार में  प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का लाभ भी आमजन को मिलते नहीं दिखा. दूसरी तरफ विभिन्न कारणों से तेलंगाना राष्ट्र कांग्रेस, आल इंडिया मजलिसे मुत्ताहिदा मुसलमीन, झारखंड विकास मोर्चा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक जैसे तकरीबन आधा दर्जन घटक दल संप्रग से अलग होते गए. एकमात्र नई एंट्री अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल की हुई. सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की लड़खड़ाती बैसाखी के सहारे टिकी है. भ्रष्टाचार के नित नए किस्से उजागर होते रहे जिनके चलते तकरीबन आधा दर्जन केंद्रीय मंत्रियों को सरकार से बाहर होना और कुछ को जेल भी जाना पड़ा. संवैधानिक पदों और संस्थाओं में नियुक्ति से लेकर अन्य बातों पर टकराव विवाद का विषय बनते रहे. संसद में विपक्ष लगातार नकारात्मक रुख के साथ सरकार के विरुद्ध हमलावर रहा जिससे मौजूदा लोकसभा का अधिकतर समय हल्ला-हंगामे की भेंट ही चढ़ते रहा. यहां तक कि सरकार और कांग्रेस के लिए भी ‘गेम चेंजर’ कहे जाने वाले खाद्य सुरक्षा, भूमि अधिग्रहण और लोकपाल जैसे विधेयक पारित नहीं कराए जा सके जबकि इन विधेयकों पर विपक्ष की असहमति नहीं के बराबर रही है. और अब जबकि लोकसभा चुनाव में साल भर से भी कम का समय ही रह गया है, कांग्रेस के लिए ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ साबित होने वाले इन विधेयकों का कानून बन पाना संदिग्ध ही लगता है. बचे समय में बमुश्किल मानसून सत्र और शीतकालीन सत्र की गुंजाइश ही बचती है. चुनाव जब सिर पर हों, विपक्ष कांग्रेस के इन ‘गेम चेंजर’ विधेयकों को पारित कराने के लिए सहयोग भला क्यों करेगा?
पलब्धियों की कसैटी पर देखें तो भाजपा का रेकार्ड भी बहुत बेहतर नहीं रहा है. मुख्य विपक्षी दल के नाते उसकी एक भी सकारात्मक भूमिका या कहें ठोस विकल्प पेश करने की कोशिश नहीं दिखी जिसका जनमानस पर सकारात्मक असर देखने को मिला हो. कुल मिलाकर पिछले नौ सालों में विपक्ष और खासतौर से भाजपा की छवि नकारात्मक रवैए और बात बेबात संसद को जाम करते रहने वाले विपक्ष के रूप में ही उभर कर आती रही है. मतभेदों और अंतर्विरोधों वाले राजग में शिवसेना, जद (यू), अकाली दल और हरियाणा जनहित कांग्रेस जैसे दल ही रह गए हैं. संप्रग सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ भाजपा ने संसद में जितना आक्रामक तेवर दिखाया, वही तेवर सड़कों पर दिखाने में वह विफल सी रही. भ्रष्टाचार के विरुद्ध भाजपा अथवा राजग के बजाय अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ज्यादा सक्रिय दिखे. दिल्ली में एक पैरा मेडिकल छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार के बाद उसकी हत्या के विरोध में सड़कों पर उमड़े जानाक्रोश और जनांदोलन को भी भाजपा कोई दिशा नहीं दे सकी. यहां तक कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर ही उसे अपने दो मुख्यमंत्री या कहें दो राज्यसरकारें और एक राष्ट्रीय अध्यक्ष की राजनीतिक बलि देनी पड़ी. उसे उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और अभी कर्नाटक विधानसभा के चुनावों में करारी हार का सामना करना पड़ा जबकि  झारखंड में उसके नेतृत्ववाली साझा सरकार उसके हाथ से निकल गई. इस लिहाज से देखें तो भाजपा की पिछले चार साल की राजनीतिक उपलब्धि नकारात्मक ही रही.

ब अगले कुछ ही महीनों बाद दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों में और उसके साथ अथवा कुछ ही महीनों बाद होने वाले लोकसभा चुनाव में भी भाजपा और कांग्रेस को भी अपने सहयोगी दलों के साथ मैदान में उतरकर अपनी उपलब्धियों का लेखा जोखा करना होगा. कांग्रेस को आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में किसी ने किसी सहयोगी दल के सहारे की जरूरत होगी. इन तीन बड़े राज्यों में लोकसभा की तकरीबन सवा सौ सीटें हैं. बिहार में तो कांग्रेस का लालू प्रसाद और रामविलास पासवान के साथ चुनावी तालमेल तय सा लगता है. ठीक इसी तरह भाजपा को भी तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश       ( अब तो कर्नाटक में भी इसकी हालत पतली सी हो गई है), पश्चिम बंगाल और ओडिशा में नए-पुराने सहयोगी दलों को फिर से राजग के साथ जोड़ना पड़ेगा. तब कहीं जाकर लड़ाई बराबर के स्तर पर हो सकेगी लेकिन इससे पहले भाजपा को अपना घर भी व्यवस्थित करना पड़ेगा.


(इस लेख के सम्पादित अंश  26 मई  2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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Sunday, 19 May 2013

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग

Articles: सूखी धरती प्यासे लोग:  महाराष्ट्र में प्रकृति ही नहीं जल कुप्रबंधन की देन भी है सूखा उ म्मीदें आसमान पर टंगी हैं. शायद इस बार अच्छा और कुछ जल्दी मानसून आएगा औ...