Showing posts with label Madhu Limye. Show all posts
Showing posts with label Madhu Limye. Show all posts

Saturday, 1 July 2017

आपातकाल की याद, संघर्ष और सबक

आपातकाल की याद, संघर्ष और सबक

JUN 25 , 2017
आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है।
इस 25-26 जून को आपातकाल की 42वीं बरसी मनाई जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत राजग की सरकार आपातकाल को आजाद भारत में संवैधानिक लोकतंत्र पर काला धब्बा करार देते हुए दोनों दिन पूरे देश में आपातकाल विरोधी दिवस मनाने जा रही है।सूचना और प्रसारण मंत्री एम वेंकैया नायडू ने केंद्र सरकार के सभी मंत्रियों से विभिन्न राज्यों में मनाए जाने वाले आपातकाल विरोधी समारोहों में उपस्थित रहने को लिखा है। वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवाशियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था।
Advertisement
गौरतलब है कि इससे पहले 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर उनकी सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी थी। उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देश व्यापी आंदोलन का आह्वान किया था। यहां तक कि सेना से भी सरकार के गलत आदेशों को नहीं मानने का आह्वान किया गया था। स्थिति से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने अपने करीबी लोगों, खासतौर से छोटे बेटे संजय गांधी, कानून और न्याय मंत्री हरिराम गोखले और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के बाद बाद देश में ’आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आंतरिक आपातकाल लागू करवा दिया था। नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएं समाप्त करने के साथ ही प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तत्कालीन विपक्ष के तमाम नेता-कार्यकर्त्ता आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा ) और भारत रक्षा कानून (डी आई आर) के तहत गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिए गए थे। 
दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है। भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने दो साल पहले हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत देकर इस चर्चा को और भी मौजूं बना दिया था। आज दो साल बाद स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं। देश आज धार्मिक कटृटरपंथके सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है। प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की‘अघोषित सेंसरशिप’ के संकेत साफ दिख रहे हैं। 
आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं बल्कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे। आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे। लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया। हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे। यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे। डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए। सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए। हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे। 
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए। आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों- जेल में और जेल के बाहर भी- से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था। 
मधु लिमये से संपर्क 
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ। वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे। उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए। मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था। मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला।’’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी।’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके। इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ’दमा की दवा मिल गयी है।’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हर संभव मदद करें।’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे। उनके घरों में छिप कर रहना,खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद आम बात थी।
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था। मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहाँ जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए। 
हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे। एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं।’ इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए। आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे। 
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद बढाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम। मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया। जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं। लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा।
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं। लेकिन हमारी चिंता का विषय कुछ और है। आपातकाल की समाप्ति और उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया। और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ़्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी। बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे ’लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की। उन पर अमल भी किया। इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की 42 वीं बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को तानाशाह बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ’एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं। ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं। इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन का जागरूक और तैयार करने की जरूरत है।

Tuesday, 9 May 2017

कौन बनेगा राष्ट्रपति

कौन बनेगा राष्ट्रपति

राष्ट्रपत‌ि भवन
PHOTOGRAPHY BY

कौन बनेगा, देश का अगला यानी 14वां राष्ट्रपति! मौजूदा राष्ट्रपति, 81 वर्षीय प्रणब मुखर्जी को दूसरा कार्यकाल मिलेगा या फिर अगले जुलाई महीने में उनके उत्तराधिकारी का चुनाव होगा। इस छोटे लेकिन जटिल सवाल का सटीक जवाब फिलहाल किसी के पास अभी नहीं दिख रहा है। अटकलों के बाजार में रोज कुछ नाम तेजी से उभरते हैं और फिर कई कारणों से दब भी जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पिछली गुजरात (सोमनाथ) यात्रा के दौरान उनका एक कथित बयान मीडिया की सुर्खियां बना जिसमें उन्होंने अपने सिपहसालार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में कहा था कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा देने जैसा होगा। लेकिन उनके इस कथित बयान के 20 दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में आडवाणी के साथ ही भाजपा के मार्गदर्शक बना दिए गए पार्टी के एक और पूर्व अध्यक्ष मुरली मनेाहर जोशी तथा केंद्रीय मंत्री उमा भारती के खिलाफ साजिश का मुकदमा चलाए जाने से संबंधित याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि मामले की सुनवाई त्वरित गति से होनी चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत के इस रुख के बाद आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम कुछ मद्धिम सी पड़ गई लगती है। हालांकि कई बार राजनीतिक फैसले अदालती रुख पर भारी भी पड़ सकते हैं।
आडवाणी हों या कोई और, खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा को मिली प्रचंड जीत और मणिपुर और गोवा में येन-केन प्रकारेण भाजपा की सरकारें बन जाने के कारण अगले राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा और इसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा पहले से कुछ भारी हो गया है। यह भी तय-सा हो गया है कि अगला राष्ट्रपति भाजपा का और वह भी प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह की पसंद का ही होगा। इस लिहाज से भी कभी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद जैसे बहुतेरे नाम हवा में उछल रहे हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो सभी लोग मोदी जी का मूड भांपने में लगे हैं और मोदी जी हैं कि इस बारे में अपने पत्ते नहीं खोल रहे। यहां तक कि करीबी होने का दावा करने वाले नेताओं को भी इस संबंध में कोई भनक नहीं लगने दे रहे।
मोदी की कार्यशैली पर गहरी नजर रखने वाले राजनीति विज्ञानियों का मानना है कि मोदी इस मामले में भी कोई 'सरप्राइज’ दे सकते हैं। वह रायसीना हिल पर स्थित राष्ट्रपति भवन के लिए ऐसा नाम तय कर सकते हैं जिसके व्यक्तित्व से एक खास तरह का सामाजिक संदेश जाए और जो उनकी भावी राजनीति के हिसाब से भी फिट बैठता हो। ऐसे में झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का नाम प्रमुखता से सामने आता है। वह आदिवासी महिला हैं और ओडिशा की रहनेवाली हैं। प्रतिभा पाटिल के रूप में देश को महिला राष्ट्रपति तो मिल चुका है लेकिन द्रौपदी अगला राष्ट्रपति बनती हैं तो उन्हें पहली आदिवासी 'महिला’ राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल हो सकेगा। उन्हें राष्ट्रपति बनवाने का राजनीतिक लाभ मोदी ओडिशा विधानसभा के चुनाव में भी ले सकेंगे।
उम्मीदवार चाहे कोई भी हो नरेन्द्र मोदी और भाजपा किसी भी कीमत पर अपना राष्ट्रपति बनवाना चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इसके लिए अगर किसी स्वतंत्र और गैर विवादित नाम पर विपक्ष के साथ आम राय बनाने की जरूरत पड़ती है तो वह इसके लिए भी तैयार हो सकते हैं। इसकी कवायद उन्होंने अभी से शुरू भी कर दी है। पिछले दिनों इस कवायद के तहत ही उन्होंने राजग के तमाम छोटे-बड़े 33 घटक एवं समर्थक दलों की बैठक बुलाई थी। इसमें उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचक मंडल में राजग की स्थिति का आकलन किया था कि कौन-कौन साथ आ सकता है और कौन विरोध में जा सकता है। राजग के सबसे पुराने सहयोगी, केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में भी साझीदार शिवसेना के राजनीतिक रुख को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकार अक्सर सशंकित रहते हैं। महाराष्ट्र विधानसभा और फिर मुंबई नगर महापालिका के साथ ही राज्य के अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव में शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा। शिवसेना का राष्ट्रपति के दो चुनावों में भी भाजपा से अलग रुख रहा है। एक बार महाराष्ट्र गौरव के नाम पर शिवसेना कांग्रेस की प्रतिभा पाटिल का समर्थन कर चुकी है तो पिछले चुनाव में उसने कांग्रेस के ही प्रणब मुखर्जी को खुलेआम समर्थन दिया था। इस बार भी शिवसेना ने अगले राष्ट्रपति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत का नाम उछालकर भाजपा और मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। ऐसे में जबकि भाजपा राष्ट्रपति के चुनाव के लिए एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी है, शिवसेना की राजनीतिक पैंतरेबाजियां उसे परेशान कर रही हैं। भाजपा ने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर ही अपने दो नव निर्वाचित मुख्यमंत्रियों योगी आदित्यनाथ और मनोहर पर्रीकर तथा उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सांसद भी बने रहने को कहा है क्योंकि राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में एक सांसद के वोट की कीमत 708 की होती है और चुनावी गणित को देखते हुए मोदी और भाजपा किसी तरह का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी भाजपा की प्रचंड विजय के बावजूद राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा है। यानी भाजपा को अपनी खांटी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने के लिए तकरीबन 25 हजार अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के साथ ही राज्य विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं। चुनावी गणित के मद्देनजर मोदी और भाजपा की नजर शिवसेना को अपने पाले में रखने के साथ ही बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों पर टिकी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी से भाजपा ओडिशा और झारखंड से भी कुछ अतिरिक्त वोट बटोर सकती है। लेकिन इससे भी बात नहीं बनते देख मोदी आम राय बनाने के नाम पर किसी स्वतंत्र और तटस्थ नाम को भी आगे बढ़ा सकते हैं।
दूसरी तरफ, गैर-भाजपाई विपक्ष राष्ट्रपति के चुनावी गणित में भाजपा की कमजोरी को अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की जुगत में लगा है। विपक्ष के रणनीतिकार एक तरफ तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपानीत राजग के साथ भावी राष्ट्रपति के नाम पर आम राय कायम करने की प्रक्रिया में अपनी राय को अहमियत दिलाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ पक्ष के साथ बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनकी रणनीति एक ऐसे उम्मीदवार को मैदान में उतारने की लगती है जो न सिर्फ तमाम गैर-भाजपा दलों को इस चुनाव में एकजुट रखने में कामयाब हो सके बल्कि चुनाव की स्थिति में भाजपा और राजग के मतदाताओं में भी सेंध लगा सके। विपक्ष के खेमे में ऐसे दो नाम हवा में हैं। एक, एनसीपी के अध्यक्ष और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार का है और दूसरा जनता दल यू के पूर्व अध्यक्ष और कभी राजग के संयोजक रहे शरद यादव का। यह दोनों न सिर्फ विपक्ष के अंतर्विरोधों पर काबू पा सकते हैं बल्कि सत्ता पक्ष के मतदाता वर्ग में सेंध भी लगा सकते हैं। पिछले दिनों मोदी सरकार द्वारा पद्म विभूषण से अलंकृत शरद पवार की उम्मीदवारी के बाद राजग में शिवसेना के सामने एक बार फिर मराठा गौरव के नाम पर उनका समर्थन करने का दबाव और तर्क बढ़ सकता है, वहीं अपने जोड़तोड़ के राजनीतिक कौशल का इस्तेमाल कर वह राजग के मतदाता वर्ग में से कुछ को अपनी ओर खींच सकते हैं। शरद यादव के बारे में कहा जा रहा है कि मंडल राजनीति का पुरोधा होने की उनकी राजनीतिक छवि राजग के सांसदों और विधायकों को आकर्षित करने में कारगर साबित हो सकती है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों की रणनीति थोड़ी अलग तरह की हो सकती है। फिलहाल तो दोनों पक्ष इस संबंध में एक-दूसरे की राजनीतिक चाल और पहल का इंतजार करते ही नजर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से साथ भाजपा अध्यक्ष अम‌ित शाह
उपराष्ट्रपति तो भाजपा का ही
सात अगस्त को देश के उपराष्ट्रपति का चुनाव भी होने जा रहा है। लोकसभा में भाजपानीत राजग के प्रचंड बहुमत को देखते हुए साफ है कि उपराष्ट्रपति भाजपा का ही होगा। उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य मतदान करते हैं। भाजपा सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति के चुनाव में भले ही विपक्ष के साथ किसी तरह की आम राय पर सहमत हो सकें, उपराष्ट्रपति के नाम पर वह किसी भी तरह की आम राय या दबाव में नहीं आने वाले हैं। अगले उपराष्ट्रपति के रूप में भाजपा खेमे से एक बार फिर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सूचना प्रसारण एवं शहरी विकास मंत्री एम वेंकैया नायडू, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन तथा समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के नाम लिए जा रहे हैं।

Sunday, 18 January 2015

नोबल मिलने के बाद बाल अधिकार आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली है-कैलाश सत्यार्थी

 लोकमत समाचारलोकमत (मराठी) और LOKMAT TIMES 
पुरस्कार और सम्मान तो उन्हें पहले भी बहुत मिलते रहे हैं लेकिन पिछले अक्तूबर महीने में पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता मलाला यूसुफ जई के साथ भारत में बाल अधिकार कार्यकर्ता, बचपन बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी के संयुक्त रूप से वर्ष 2014 के शांति के नोबल पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद से उनकी दुनिया ही बदल सी गई है. आज वह भारत के व्यस्ततम लोगों में से हैं. उनसे मिलने, साक्षात्कार मांगने, उन्हें सुनने के लिए अनुरोध-आमंत्रणों की भरमार सी लगने लगी   है. वह खुद बताते हैं कि नोबल पुरस्कार  मिलने के बाद उन्हें पूरी दुनिया से 11 हजार से अधिक आमंत्रण मिल चुके हैं. अपने व्यस्त  कार्यक्रमों के बीच कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार और बाल दासता के विरुद्ध उनके बाल अधिकार अभियान से जुड़े तमाम मुद्दों पर बातचीत के अंश: 

Friday, 27 June 2014

आपातकाल की बरसी पर

( Takreeban ek saal ke antral ke baad Zeero hour par fir se hazir hun. Kitna niymit rah paunga kah nahin sakta.)

आपातकाल की बरसी पर फेसबुक पर बड़े भाई शिवानंद तिवारी और चंचल कुमार की टिप्पणियां देखने के बाद कुछ लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. शिवानंद जी की राय से सहमत हूं कि आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के प्रयासों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत है ताकि देश को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े. साथ ही साथ कोई सत्तारूढ़ दल फिर कभी देश में आपातकाल लागू करने जैसी हिमाकत नहीं कर सके. 

दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. आपातकाल को याद करते समय हमारी चिंता इस बात को लेकर कुछ ज्यादा है. 

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. हालाँकि हमने कभी iस बात का जिक्र खासतौर से लिखत पढ़त में तो नहीं ही किया है. तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित साप्ताहिक प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. भारत रक्षा कानून (डीआईआर) के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह-आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र एक ही बैरक में आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे. 

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए. आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों (जेल में और जेल के बाहर भी) के साथ समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी, लोहिया विचार मंच के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता. 

इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’ जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करेते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. उस समय आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. हमारे आग्रह-अनुरोध पर मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र, जान जोखिम में डालकर  काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे. हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए. इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. बाकी लोगों से भी सहयोग-समर्थन मिलने लगा. 

मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी-कर्मचारी नेता नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में हो रहे विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि उनकी राय में चुनाव का बहिष्कार करने से बचे खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था. मधु जी  जेल में संघ के लोगों के बढ़ रहे माफीनामों को लेकर परेशान थे. इसका जिक्र उहोंने एक पत्र में भी किया था.  

हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र उसी पते पर रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे समझ सकते हैं. इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे. आपातकाल में लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह साल किए जाने के विरोध में मधु जी और शरद जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था. लोकसभाध्यक्ष ने उसे स्वीकार भी कर लिया था. त्यागपत्र इलाहाबाद से उपचुनाव जीते जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था. लेकिन उन्होंने लोकसभाध्यक्ष के बजाय अपना त्यागपत्र अपनी पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. यह बात मधु जी को बुरी लगी थी. उन्होंने मुझे लिखे पत्र में कहा कि जाकर नैनी जेल में किसी तरह से जनेश्वर से मिलो और पूछो कि उन्हें क्या लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम? अगर त्यागपत्र देना था तो लोकसभाध्यक्ष के पास भेजते. अन्यथा ढोंग करने की आवश्यकता क्या थी? हम किसी तरह से जुगाड़ करके नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिले. वह भी हमारे नेता थे. संकोच करते हुए हमने उन्हें मधु जी के पत्र के बारे में बताया. जनेश्वर जी की प्रतिक्रिया समझने लायक थी. उन्होंने कहा कि मधु जी को बता दो कि वह अपनी पार्टी के नेता हैं, खुद फैसले ले सकते हैं लेकिन हम लोकदल में हैं जिसके अध्यक्ष चरण सिंह हैं, लिहाजा हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा. जाहिर सी बात है कि उनका त्यागपत्र लोकसभा अध्यक्ष तक नहीं पहुंचा था.

इलाहाबाद में हम ऐसे समाजवादियों का एक ग्रुप बन गया था जो जेल से बाहर थे लेकिन आपातकाल के विरुद्ध अपने अपने हिसाब से सक्रिय थे. कुलभास्कर डिग्री कालेज के दो प्राचार्यों-श्रीबल्लभ जी और ललित मोहन गौतम जी, हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता स्वराज प्रकाश, विनय कुमार सिन्हां, सतीश मिश्र, ब्रजभूशण सिंह, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी भारत भूषण आदि हम लोग अक्सर मिला करते, कभी समूह में और अक्सर अकेले में. संघर्ष समाचार का नियमित प्रकाशन-वितरण करते थे. संघ और जनसंघ के कुछ लोग भी संपर्क में थे. लेकिन उनके साथ अक्सर हमारा वैचारिक विरोध होते रहता था. एक बार मुझे याद है कि इलाहाबाद में छापाखाने की दिक्कत हो जाने पर हम जेल में बंद नेता नरेंद्र गुरु और सिराथू के छोटेलाल यादव से संपर्क सूत्र लेकर बांदा जिले में राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास जी के गांव राजापुर गए थे. इलाहाबाद से एक रिम कागज लिए बस से शाम को राजापुर के इस पार इलाहाबाद जिले की साइड में यमुना नदी के तट पर पहुंचने और मल्लाह से अनुनय-विनय कर नाव से उस पार राजापुर पहुंचने की यात्रा कभी न भूलनेवाली यात्राओं में से एक है. वहां मिले समाजवादी नेता देवनारायण शास्त्री हमारी तरह ही जेल से छूट कर आए थे. उनका अपना छापाखाना था लेकिन वह दोबारा किसी तरह का जोखिम लेने के मूड में नहीं थे. बहुत समझाने पर हमारे ठहरने का इंतजाम तुलसी दास जी के मंदिर में हुआ जहां उस समय भी राम चरित मानस की उनकी हस्तलिखित पांडुलिपि के कुछ पन्ने रखे हुए थे. रात में हम दोनों ने जगकर बुलेटिन तैयार किया. प्रकाशन हुआ और हम अगली सुबह वहां से गायब.
आजमगढ़ जेल से निकलने के बाद दोबारा हम नहीं लौटे. पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों को चकमा देते रहे. एक दो बार सामना भी हुआ लेकिन हम किसी तरह बच निकले. एक बार संभवतः नवंबर 1976 में संजय गांधी का इलाहाबाद में कार्यक्रम था, किसी तरह का विघ्न नहीं पहुंचे इसके लिए नए सिरे से धर पकड़ शुरू हुई थी. खुफिया पुलिस को किसी तरह इलाहाबाद में हमारे दारागंजवाले मकान का पता चल गया था. आधी रात को हमारे घर पुलिस का छापा पड़ा लेकिन हम एक बार फिर उन्हें चकमा देकर निकल भागने में कामयाब रहे. पुलिस की गाज हमारे परिवार, दोनों बड़े भाइयों पर गिरी. उन्हें पुलिसिया गालियों का सामना करना पड़ा. रात दारागंज थाने में गुजारनी पड़ी. बाद में उन्हें छोड़ दिया गया लेकिन जब हम लुकते छिपते वापस घर पहुंचे तो भाइयों ने हाथ जोड़ लिया. कहा पिता जी तो जेल में हैं ही, तुम भी जेल से आए हो, लेकिन हम लोग सरकारी मुलाजिम हैं. हम चले गए तो परिवार का क्या होगा? संकेत साफ था. जरूरी कपड़े और कुछ पैसे लेकर हम घर से बाहर हो लिए. मां और भाभी की आंखें में आंसू थे. घर से निकलने के बाद सीडीएपेंशन में कार्यरत समाजवादी साथी सतीश मिश्र के प्रयास से मुट्ठीगंज स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन के बगल की गली में रहने के लिए कमरे का जुगाड़ हो गया. खाना-पीना साथियों-सहयोगियों के घर परिवारों के जिम्मे था.समाजवादी चिंतक-साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा का निवास भी हमारे ठिकानों में होता.सम्मेलन में समाजवादी साथी, सम्मेलन के मौजूदा प्रधानमंत्री विभूति मिश्र के कहने पर उनके पिता जी, सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रभात मिश्र के आशीर्वाद से वहीं हमारे बैठने और दिहाड़ी के हिसाब से कुछ पैसे मिलने की व्यवस्था भी हो गई. लेकिन एक दिन हमें खोजते खुफिया पुलिस सम्मेलन के कार्यालय भी आ धमकी. हमें सम्मेलन भी छोड़ना पड़ा. इस तरह से पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों के साथ हमारी लुका-छिपी या कहें आंख मिचैनी का खेल चलता रहा. इस बीच  आपातकाल समाप्त हो गया लोकसभा चुनाव कराए गए और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा या कहें दबाव से सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस और भारतीय लोक दल को मिलाकर बनी जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बन गई. 

लेकिन शायद सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है. जनता पार्टी के सत्तारूढ़ नेताओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगी. हमारे जैसे लोगों के पास सच पूछें तो कोई काम नहीं था. चुनाव हम लड़ नहीं सकते थे, उस समय हमारी उम्र महज 21 साल की थी. पिता जी ने संसाधनों के अभाव और पूरे संसदीय क्षेत्र में काम नहीं होने की दुहाई देकर लोकसभा का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और विधानसभा चुनाव में उनका टिकट जनता पार्टी के हमारे पड़ोसी अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने काट दिया था. पिता जी बगावत कर चुनाव लड़ गए थे. चंद्रशेखर जी और रामधन जी के हर संभव विरोध के बावजूद बहुत कम मतों से चुनाव हार गए थे. इलाहाबाद में हम युवा जनता के बैनर तले सक्रिय थे. लेकिन अपनी सरकार और अपने नेताओं के रहन सहन व्यवहार और काम काज को लेकर जनता पार्टी या कहें कि राजनीति से भी मन उचटने और झुकाव पत्रकारिता की ओर बढ़ने लगा. सरकार पर दबाव बनाने की गरज से हम लोगों ने इलाहाबाद में ‘बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो’ के नारे के साथ आंदोलन शुरू किया. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. हम भी सत्तारूढ़ दल की युवा शाखा के पदाधिकारी रहते हुए भी जेल गए. बहुत जल्दी ही समझ में आने लगा कि सत्ता का चरित्र वाकई एक जैसा ही होता है. आश्चर्य तो तब शुरू हुआ जब जनता पार्टी की सरकार ने, उसमें शामिल समाजवादियों ने एक भी ठोस काम ऐसा नहीं किया, जिससे देश में भविष्य में फिर कभी कोई दल अथवा नेता आपातकाल लागू करने का दुस्साहस नहीं कर सके.

 और नहीं तो लाकतंत्र की दुहाई देकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की सरकार ने कुछ ही महीनों बाद ‘जनादेश’ के नाम पर पहले अलोकतांत्रिक कार्य के रूप में नौ राज्यों की कांग्रेस की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त कर दिया. आपातकाल के बदनाम मीसा-आंतरिक सुरक्षा कानून-के विरुद्ध संघर्ष कर सत्तारूढ़ हुए लोगों को ‘मिनी मीसा’ की जरूरत महसूस होने में जरा भी लाज नहीं आई. संघ और पुराने कांग्रेसियों के दबाव में जनता पार्टी की सरकार और उसकी राज्य सरकारों ने ऐसे कई काम किए जिन्हें भ्रष्ट एवं स्वस्थ लोकतंत्र पर आघात पहुंचानेवाला ही कहा जा सकता था. जाहिर है जनता पार्टी की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले दबकर अकाल मौत का शिकार हो गई. बाद के वर्षों में भी आपातकाल के विरोध में या कहें जबरन आपातकाल और उसके कानूनों की ज्यादतियों का शिकार हुए लोगों ने मीसा जैसे खतरनाक प्रावधानों वाले टाडा और पोटा जैसे कानूनों की वकालत की. कई नेताओं को तो नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटनेवाले पोटा जैसे कानूनों के प्रावधान भी कमजोर नजर आने लगे. इसलिए जब शिवानंद जी आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के उपायों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत बताते हैं तो सोचने का मन होता है कि क्या आज हमारे प्रायः सभी राजनीतिक दलों और नेताओं की राजनीतिक कार्यशैली को देखकर एक अदृश्य आपातकाल का एहसास नहीं होता. आज कौन दल अथवा नेता अपने आचरण से अपने लोकतांत्रिक होने का दावा कर सकता है. किस दल में आज अंदरूनी लोकतंत्र है जिसके बूते हम उम्मीद कर सकें कि इस देश में दोबारा आपातकाल लागू करने की हिमाकत नहीं होगी. 

हां, हम इस तरह की किसी भी स्थिति का विरोध करने के लिए खुद को तैयार तो कर ही सकते हैं. इस साल 25-26 जून को आपातकाल की बरसी पर इसका संकल्प तो ले ही सकते हैं क्योंकि हमारे पास और कुछ हो न हो, गांधी लोहिया और जयप्रकाश की वैचारिक थाती और गलत को गलत कहने और उसका विरोध करने की उनकी सीख और प्रेरणा तो है ही. इसे ही संजोकर जिन्दा रखने की जरूरत आज का hamara संकल्प है. यह बात तो हमारे चंचल जी भी मानेंगे ही जो शरीर से भले ही कोंग्रेसी हो गए हों, विचारों से समाजवादी और लोकतान्त्रिक ही हैं.