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Wednesday, 1 July 2020

आपातकाल, संघर्ष और सबक


आपातकाल, संघर्ष और सबक

जयशंकर गुप्त
इस 25-26 जून, 2020 को आपातकाल की 45वीं बरसी मनाई जा रही है. इस साल भी पिछले 44 वर्षों की तरह आपातकाल के काले दिनों को याद करने, इस बहाने इंदिरा गांधी के 'अधिनायकवादी रवैए' को कोसने की रस्म निभाने के साथ ही, लोकतंत्र की रक्षा की कसमें खाई जा रही हैं. ऐसा करनेवालों में बहुत सारे वे 'लोकतंत्र प्रहरी' भी हैं जिनमें से कइयों ने और उनके संगठन ने भी आपातकाल में सरकार के सामने घुटने टेक दिए थे या फिर वे जो आज सत्तारूढ़ हो कर अघोषित आपातकाल के जरिए लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के साथ कमोबेस वही सब कर रहे हैं जिनके लिए हम सब इंदिरा गांधी और उनके आपातकाल को कोसते रहे हैं.
वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को आज भी न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवासियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था.
उस कालीरात को देश को आपातकाल और सेंसरशिप के हवाले कर नागरिक अधिकार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रताएं छीन ली गई थीं. लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तमाम राजनीतिक विरोधियों को उनके घरों, ठिकानों से उठाकर जेलों में डाल दिया गया था. अभिव्यक्ति की आजादी पर सेंसरशिप का ताला जड़ दिया गया था. पत्र-पत्रिकाओं में वही सब छपता और आकाशवाणी-दूरदर्शन पर वही प्रसारित होता था जो उस समय की सरकार चाहती थी. प्रकाशन-प्रसारण से पहले सामग्री को प्राधिकृत सेंसर अधिकारी के पास भेज कर उसे सेंसर करवाना पड़ता था.

आपातकाल क्यों!

इंदिरा गांधी ने देश को आपातकाल के हवाले क्यों किया था ! 1971 के आम चुनाव में भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध में भारतीय सेना के हाथों पाकिस्तान की शर्मनाक शिकस्त और पाकिस्तान से अलग बांग्लादेश के निर्माण के साथ ही बैंकों के राष्ट्रीयकरण, राजाओं के प्रिवी पर्स की समाप्ति जैसे अपने लोकलुभावन फैसलों पर आधारित गरीबी हटाओ के नारे के साथ लोकप्रियता के चरम पर पहुंच कर प्रचंड बहुमत के साथ सत्तारूढ़ हुईं श्रीमती गांधी ने अपने सरकारी प्रचारतंत्र और मीडिया का सहारा लेकर आम जनता के बीच अपनी गरीब हितैषी और अमीर विरोधी छवि बनाई थी. लेकिन आगे चलकर गुजरात के एक इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्रावास में बढ़ी फीस और घटिया भोजन की आपूर्ति के विरुद्ध शुरू हुए छात्र आंदोलन ने गुजरात में नव निर्माण आंदोलन का व्यापक रूप धर लिया था. इस आंदोलन की परिणति राज्य में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल कर बाबूभाई जसु भाई पटेल के नेतृत्व में जनता मोर्चे की सरकार के गठन के रूप में हुई थी.
गुजरात के नव निर्माण आंदोलन का विस्तार बिहार आंदोलन के रूप में हुआ जिसने आगे चलकर देश भर में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का रूप धर लिया था. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के चरम पर पहुंचने से क्रुद्ध देश भर के छात्र-युवा और आम जन भी 72 साल के बुजुर्ग समाजवादी-सर्वोदयी नेता, लोकनायक जयप्रकाश नारायण के पीछे अहिंसक और अनुशासित तरीके से लामबंद होने लगे थे. गुजरात और बिहार की परिधि को लांघते हुए सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन देश के अन्य हिस्सों में भी जंगल की आग की तरह फैलने लगा. इस आंदोलन ने न सिर्फ राज्य की कांग्रेसी सरकारों बल्कि केंद्र में सर्व शक्तिमान इंदिरा गांधी की सरकार को भी भीतर से झकझोर दिया था. इस आंदोलन को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को छोड़कर प्रायः सभी गैर कांग्रेसी दलों का सहयोग-समर्थन था. असंतोष के स्वर कांग्रेस के भीतर चंद्रशेखर, मोहन धारिया, रामधन और कृष्णकांत जैसे पूर्व समाजवादी युवा तुर्क नेताओं की ओर से भी उभरने लगे थे. तभी 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हां का ऐतिहासिक फैसला और उसके साथ ही शाम को गुजरात में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करनेवाला विधानसभा के चुनाव का नतीजा भी आ गया. जस्टिस सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को चुनौती देनेवाली समाजवादी नेता राजनारायण की याचिका पर फैसला सुनाते हुए श्रीमती गांधी के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया. उनकी लोकसभा सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया था. 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की आंशिक राहत दे दी थी. वह लोकसभा में जा सकती थीं लेकिन वोट नहीं कर सकती थीं. उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान में संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकाश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया था. मोरारजी देसाई की अध्यक्षता में लोक संघर्ष समिति गठित कर 28 जून से इंदिरा गांधी के त्यागपत्र देने तक देश व्यापी आंदोलन-सत्याग्रह शुरू करने का फैसला हुआ था. इसी मैदान में जेपी ने राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की मशहूर कविता की पंक्ति-‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है,’ का उद्घोष किया था. जेपी ने अपने भाषण में कहा था, ‘‘मेरे मित्र बता रहे हैं कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है क्योंकि हमने सेना और पुलिस को सरकार के गलत आदेश नहीं मानने का आह्वान किया है. मुझे इसका डर नहीं है और मैं आज इस ऐतिहासिक रैली में भी अपने उस आह्वान को दोहराता हूं ताकि कुछ दूर, संसद में बैठे लोग भी सुन लें. मैं आज फिर सभी पुलिस कर्मियों और जवानों का आह्वान करता हूं कि इस सरकार के आदेश नहीं मानें क्योंकि इस सरकार ने शासन करने की अपनी वैधता खो दी है.’’ लेकिन बाहर और अंदर से भी बढ़ रहे राजनीतिक विरोध और दबाव से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने पदत्याग के लोकतांत्रिक रास्ते को चुनने के बजाय अपने छोटे बेटे संजय गांधी, और वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जैसे कुछ खास सलाहकारों से मंत्रणा के बाद ‘आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए आधी रात को तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में ‘आंतरिक आपातकाल’ लागू करने की अधिसूचना जारी करवा दी थी. कैबिनेट की मंजूरी अगली सुबह छह बजे ली गई थी. उसके तुरंत बाद आकाशवाणी पर श्रीमती गांधी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में कहा, ‘‘भाइयों और बहनों, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है. इससे आतंकित होने की जरूरत नहीं है.’’ उन्होंने आपातकाल को जायज ठहराने के इरादे से विपक्ष पर साजिश कर उन्हें सत्ता से हटाने और देश में अव्यवस्था और आंतरिक उपद्रव की स्थिति पैदा करने का आरोप लगाया और कहा कि सेना और पुलिस को भी विद्रोह के लिए उकसाया जा रहा था. उन्होंने कहा, ‘‘जबसे मैंने आम आदमी और देश की महिलाओं के फायदे के लिए कुछ प्रगतिशील कदम उठाए हैं, तभी से मेरे खिलाफ गहरी राजनीतिक साजिश रची जा रही थी.’’

आपातकाल के विरुद्ध हमारा संघर्ष

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज में कला स्नातक के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के साप्ताहिक अखबार 'प्रतिपक्ष' के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित 'प्रतिपक्ष' बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. पुलिस की चार्जशीट के मुताबिक यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद, 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे.

भूमिगत जीवन और मधुलिमये से संपर्क

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पैरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा लौटने के बजाय आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों-जेल में और जेल के बाहर भी-से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह-जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा, लोहिया विचार मंच और छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, कुंवर सुरेश सिंह, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन मोहन लाल श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता.
इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते नरसिंह गढ़ और बाद में भोपाल जेल में बंद रहे समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ. वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए’. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी उनके साथ जेल में बंद आरएसएस पलट समाजवादी अध्येता विनोद कोचर की खूबसूरत स्तलिखित प्रति हमारे पास भी भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ‘दमा की दवा मिल गयी है.’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. उनके घरों में छिप कर रहना, खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद मिलनी आम बात थी.
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी. हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं, लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार की बात करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था.
मधु जी का पत्र आया कि तुम लोग चौधरी साहेब के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहां जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए. गौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन सरसंघचालक मधुकर दत्तात्रेय उर्फ बालासाहेब देवरस ने इंदिरा गांधी को एक नहीं कई 'माफीनामानुमा' पत्र लिखकर आपातकाल में हुए संविधान संशोधन पर आधारित सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्याधीश अजितनाथ रे की अध्यक्षतावाली संविधान पीठ के द्वारा श्रीमती गांधी के रायबरेली के संसदीय चुनाव को वैध ठहरानवाले फैसले पर बधाई देने के साथ ही उनकी सरकार के साथ संघ के प्रचारकों और स्वयंसेवकों के सहयोग करने की इच्छा जताई थी. यहां तक कि उन्होंने कहा था कि बिहार आंदोलन और जेपी आंदोलन से संघ का कुछ भी लेना-देना नहीं है. उन्होंने संघ पर से प्रतिबंध हटाने और उसके प्रचारकों-स्वयंसेवकों को जेल से रिहा करने का अनुरोध भी किया था ताकि वे सरकार के विकास कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा सकें. इससे पहले भी उन्होंने 15 अगस्त को लालकिला की प्राचीर से श्रीमती गांधी के भाषण की भरपूर सराहना की थी. लेकिन इंदिरा गांधी ने उनके पत्रों पर नोटिस नहीं लिया था और ना ही कोई जवाब दिया था. बाद में श्री देवरस ने इस मामले पर आपातकाल को 'अनुशासन पर्व' कहनेवाले सर्वोदयी नेता विनोवा भावे को पत्र लिखकर उनसे श्रीमती गांधी के साथ अपने करीबी संबंधों का इस्तेमाल करते हुए संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने और प्रचारकों-स्वयंसेवकों की रिहाई सुनिश्चित करवाने के लिए हस्तक्षेप करने का आग्रह किया था. लेकिन उन्होंने भी कोई जवाब नहीं दिया था. महाराष्ट्र विधानसभा के पटल पर रखे गये आपातकालीन दस्तावेजों के अनुसार श्री देवरस ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चह्वाण को भी इसी तरह का पत्र जुलाई 1975 में लिखा था.
बाद में अनौपचारिक तौर पर तय हुआ था कि सामूहिक माफी तो संभव नहीं, अलबत्ता माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर अलग अलग भरे जाएं तो सरकार उन पर विचार कर सकती है. एक बिना शर्त वचन पत्र (अन्क्वालिफाईड अंडरटेकिंग) भरने की बात तय हुई थी जिसके लिए एक प्रोफार्मा भेजा गया था. इसके बाद से जेलों में माफीनामे भरने का क्रम शुरु हो गया था. जिनके पास प्रोफार्मा नहीं पहुंच सका, वे लोग एक पंक्ति के माफीनामे निजी और स्थानीय स्तर पर भर-भर कर जमा करने लगे. इसमें लिखा होता था, "हम सरकार के बीस सूत्री कार्यक्रमों का समर्थन करते हैं."
बहरहाल, इलाहाबाद से हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिये से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं.’’ इसके बाद मधु जी के पत्र दिए पते पर जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे, कई बार अपनी पत्नी चम्पा लिमये जी के हाथों भी.
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम! मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया. जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं. लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा.
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जो आपातकाल पर हमारी आनेवाली पुस्तक में देखने को मिल सकते हैं. (पुस्तक का लेखन अपने अंतिम चरण में है.)

आपातकाल के सबक!

लेकिन यहां हमारी चिंता का विषय कुछ और है. दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी, अधिनायकवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने पांच साल पहले एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत दिया था. आज स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं. देश आज धार्मिक कट्टरपंथ और 'उग्र राष्ट्रवाद' के सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है. प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों और यहां तक कि अदालतों का भी इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की ‘अघोषित सेंसरशिप’ के अक्स साफ दिख रहे हैं. राजनीतिक विरोधियों के विरुद्ध बदले या कहें बैर भाव से प्रेरित कार्रवाइयां हो रही हैं. मणिपुर में सत्ता पक्ष के कई विधायकों के सरकार से समर्थन वापस ले लेने के बाद राज्य में वैकल्पिक सरकार बनाने का दावा करने वाले कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री इबोबी सिंह के घर अगले ही दिन सीबीआई की टीम पहुंच गई.
वैसे, आपातकाल की समाप्ति के बाद उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम कांग्रेस की नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया. और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ. यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी. बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे इस तरह के तमाम प्रसंग हैं जब ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए और ज्यादा घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की. उन पर अमल भी किया. अभी सीएए और एनआरसी का विरोध करनेवालों को यूएपीए जैसे कठोर कानून के तहत निरुद्ध किया गया. कई मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को राजद्रोह जैसे खतरनाक कानूनों के तहत जेल में कैद किया गया. जेल में उन्हें यातनाएं दिए जाने की सूचनाएं भी मिल रही हैं. इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना होगा जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को 'तानाशाह' बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ‘एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं. ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहमति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं. इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन को जागरूक और तैयार करने की जरूरत है.

Saturday, 1 July 2017

आपातकाल की याद, संघर्ष और सबक

आपातकाल की याद, संघर्ष और सबक

JUN 25 , 2017
आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है।
इस 25-26 जून को आपातकाल की 42वीं बरसी मनाई जा रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपानीत राजग की सरकार आपातकाल को आजाद भारत में संवैधानिक लोकतंत्र पर काला धब्बा करार देते हुए दोनों दिन पूरे देश में आपातकाल विरोधी दिवस मनाने जा रही है।सूचना और प्रसारण मंत्री एम वेंकैया नायडू ने केंद्र सरकार के सभी मंत्रियों से विभिन्न राज्यों में मनाए जाने वाले आपातकाल विरोधी समारोहों में उपस्थित रहने को लिखा है। वाकई आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवाशियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था।
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गौरतलब है कि इससे पहले 12 जून को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति जस्टिस जगमोहनलाल सिन्हां ने अपने ऐतिहासिक फैसले में रायबरेली से श्रीमती गांधी के लोकसभा चुनाव को अवैध घोषित कर उनकी सदस्यता रद्द करने के साथ ही उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया था। 24 जून को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा भी इस फैसले पर मुहर लगा दी गयी थी। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने की छूट दे दी थी। उधर उनके पद त्याग नहीं करने की स्थिति में अगले दिन 25 जून को संपूर्ण क्रांति आंदोलन का नेतृत्व कर रहे समाजवादी-सर्वोदयी नेता लोकनायक जयप्रकश नारायण एवं सम्पूर्ण विपक्ष ने अनिश्चितकालीन देश व्यापी आंदोलन का आह्वान किया था। यहां तक कि सेना से भी सरकार के गलत आदेशों को नहीं मानने का आह्वान किया गया था। स्थिति से निबटने के नाम पर श्रीमती गांधी ने अपने करीबी लोगों, खासतौर से छोटे बेटे संजय गांधी, कानून और न्याय मंत्री हरिराम गोखले और वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थशंकर रे से मंत्रणा के बाद बाद देश में ’आंतरिक उपद्रव’ की आशंका के मद्देनजर संविधान की धारा 352 का इस्तेमाल करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से देश में आंतरिक आपातकाल लागू करवा दिया था। नागरिक अधिकार और स्वतंत्रताएं समाप्त करने के साथ ही प्रेस और मीडिया पर सेंसरशिप लगा दी गयी थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण सहित तत्कालीन विपक्ष के तमाम नेता-कार्यकर्त्ता आंतरिक सुरक्षा कानून (मीसा ) और भारत रक्षा कानून (डी आई आर) के तहत गिरफ्तार कर जेलों में ठूंस दिए गए थे। 
दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था। जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था, लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है। भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने दो साल पहले हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत देकर इस चर्चा को और भी मौजूं बना दिया था। आज दो साल बाद स्थितियां ठीक उसी दिशा में जाते हुए दिख रही हैं। देश आज धार्मिक कटृटरपंथके सहारे एक अराजक माहौल और अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी साफ दिख रही है। प्रेस और मीडिया पर भी सरकारी विज्ञापनों, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय और आयकर विभाग जैसी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल कर असहमति के स्वरों को दबाने के जरिए एक अलग तरह तरह की‘अघोषित सेंसरशिप’ के संकेत साफ दिख रहे हैं। 
आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम पत्रकार नहीं बल्कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी सक्रिय थे। आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे। लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें गिरफ्तार कर लिया गया। हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे। यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे। डी आई आर और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए। सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए। हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे। 
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए। आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए। उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों- जेल में और जेल के बाहर भी- से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था। 
मधु लिमये से संपर्क 
इलाहाबाद में हमारा परिवार था। वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधु लिमये से पत्र संपर्क हुआ। वह हमें पुत्रवत स्नेह देते थे। उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए। मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था। मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला।’’ पत्र में अन्य ब्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी।’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमये का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे। एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए। यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया।’
जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके। इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा कि अगर हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की ’दमा की दवा मिल गयी है।’ उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी। मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र’ जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है। इसकी हर संभव मदद करें।’ इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे। उनके घरों में छिप कर रहना,खाना और मौके बे मौके भाभियों से भी कुछ आर्थिक मदद आम बात थी।
मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे। हम लोग चौधरी साहब के एक राजनीतिक फैसले से सख्त नाराज थे। उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था। हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था। जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं। हमारा आक्रोश समझा जा सकता था। लेकिन मधु जी का आदेश था, सो हम चौधरी साहब से मिलने गए। उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा। हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं। हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था। मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहाँ जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए। 
हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे। अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे। एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया। उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया। हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी। आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं।’ इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए। आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे। वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे। 
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद बढाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्र ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था। मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम। मैं उनके पत्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया। जनेश्वर जी कुछ उखड़ से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं। लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा।
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं। लेकिन हमारी चिंता का विषय कुछ और है। आपातकाल की समाप्ति और उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे ‘लोकतंत्र प्रेमियों’ ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया। और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ। यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ़्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुई थी और उसी के साथ सक्रिय राजनीति से एक तरह का मोहभंग भी। बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे ’लोकतंत्र प्रेमियों’ ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की। उन पर अमल भी किया। इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की 42 वीं बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ भारी बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को तानाशाह बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी ’एको अहं द्वितीयो नास्ति’ का एहसास भर देती हैं। ये प्रवृत्तियां भी अमीर बनाम गरीब की लड़ाई का झांसा देकर, धार्मिक कट्टरपंथ पर आधारित अंध राष्ट्रवाद को सामने रखकर अपने विरोधियों और असहति के स्वरों को दबाने के रास्ते पर चल रही हैं। इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से न सिर्फ सावधान रहने की बल्कि उनका मुकाबला करने के लिए आमजन का जागरूक और तैयार करने की जरूरत है।

Tuesday, 9 May 2017

कौन बनेगा राष्ट्रपति

कौन बनेगा राष्ट्रपति

राष्ट्रपत‌ि भवन
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कौन बनेगा, देश का अगला यानी 14वां राष्ट्रपति! मौजूदा राष्ट्रपति, 81 वर्षीय प्रणब मुखर्जी को दूसरा कार्यकाल मिलेगा या फिर अगले जुलाई महीने में उनके उत्तराधिकारी का चुनाव होगा। इस छोटे लेकिन जटिल सवाल का सटीक जवाब फिलहाल किसी के पास अभी नहीं दिख रहा है। अटकलों के बाजार में रोज कुछ नाम तेजी से उभरते हैं और फिर कई कारणों से दब भी जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पिछली गुजरात (सोमनाथ) यात्रा के दौरान उनका एक कथित बयान मीडिया की सुर्खियां बना जिसमें उन्होंने अपने सिपहसालार कहे जानेवाले भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल की मौजूदगी में कहा था कि आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनवाना उनके लिए गुरु दक्षिणा देने जैसा होगा। लेकिन उनके इस कथित बयान के 20 दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के मामले में आडवाणी के साथ ही भाजपा के मार्गदर्शक बना दिए गए पार्टी के एक और पूर्व अध्यक्ष मुरली मनेाहर जोशी तथा केंद्रीय मंत्री उमा भारती के खिलाफ साजिश का मुकदमा चलाए जाने से संबंधित याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि मामले की सुनवाई त्वरित गति से होनी चाहिए। देश की सर्वोच्च अदालत के इस रुख के बाद आडवाणी जी को राष्ट्रपति बनाने की मुहिम कुछ मद्धिम सी पड़ गई लगती है। हालांकि कई बार राजनीतिक फैसले अदालती रुख पर भारी भी पड़ सकते हैं।
आडवाणी हों या कोई और, खासतौर से उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभाओं के चुनाव में भाजपा को मिली प्रचंड जीत और मणिपुर और गोवा में येन-केन प्रकारेण भाजपा की सरकारें बन जाने के कारण अगले राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा और इसके नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का पलड़ा पहले से कुछ भारी हो गया है। यह भी तय-सा हो गया है कि अगला राष्ट्रपति भाजपा का और वह भी प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार अमित शाह की पसंद का ही होगा। इस लिहाज से भी कभी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन, झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू, बिहार के राज्यपाल रामनाथ कोविंद जैसे बहुतेरे नाम हवा में उछल रहे हैं। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता की मानें तो सभी लोग मोदी जी का मूड भांपने में लगे हैं और मोदी जी हैं कि इस बारे में अपने पत्ते नहीं खोल रहे। यहां तक कि करीबी होने का दावा करने वाले नेताओं को भी इस संबंध में कोई भनक नहीं लगने दे रहे।
मोदी की कार्यशैली पर गहरी नजर रखने वाले राजनीति विज्ञानियों का मानना है कि मोदी इस मामले में भी कोई 'सरप्राइज’ दे सकते हैं। वह रायसीना हिल पर स्थित राष्ट्रपति भवन के लिए ऐसा नाम तय कर सकते हैं जिसके व्यक्तित्व से एक खास तरह का सामाजिक संदेश जाए और जो उनकी भावी राजनीति के हिसाब से भी फिट बैठता हो। ऐसे में झारखंड की राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू का नाम प्रमुखता से सामने आता है। वह आदिवासी महिला हैं और ओडिशा की रहनेवाली हैं। प्रतिभा पाटिल के रूप में देश को महिला राष्ट्रपति तो मिल चुका है लेकिन द्रौपदी अगला राष्ट्रपति बनती हैं तो उन्हें पहली आदिवासी 'महिला’ राष्ट्रपति बनने का गौरव हासिल हो सकेगा। उन्हें राष्ट्रपति बनवाने का राजनीतिक लाभ मोदी ओडिशा विधानसभा के चुनाव में भी ले सकेंगे।
उम्मीदवार चाहे कोई भी हो नरेन्द्र मोदी और भाजपा किसी भी कीमत पर अपना राष्ट्रपति बनवाना चाहते हैं। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार इसके लिए अगर किसी स्वतंत्र और गैर विवादित नाम पर विपक्ष के साथ आम राय बनाने की जरूरत पड़ती है तो वह इसके लिए भी तैयार हो सकते हैं। इसकी कवायद उन्होंने अभी से शुरू भी कर दी है। पिछले दिनों इस कवायद के तहत ही उन्होंने राजग के तमाम छोटे-बड़े 33 घटक एवं समर्थक दलों की बैठक बुलाई थी। इसमें उन्होंने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचक मंडल में राजग की स्थिति का आकलन किया था कि कौन-कौन साथ आ सकता है और कौन विरोध में जा सकता है। राजग के सबसे पुराने सहयोगी, केंद्र और महाराष्ट्र सरकार में भी साझीदार शिवसेना के राजनीतिक रुख को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकार अक्सर सशंकित रहते हैं। महाराष्ट्र विधानसभा और फिर मुंबई नगर महापालिका के साथ ही राज्य के अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव में शिवसेना ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा। शिवसेना का राष्ट्रपति के दो चुनावों में भी भाजपा से अलग रुख रहा है। एक बार महाराष्ट्र गौरव के नाम पर शिवसेना कांग्रेस की प्रतिभा पाटिल का समर्थन कर चुकी है तो पिछले चुनाव में उसने कांग्रेस के ही प्रणब मुखर्जी को खुलेआम समर्थन दिया था। इस बार भी शिवसेना ने अगले राष्ट्रपति के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत का नाम उछालकर भाजपा और मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है। ऐसे में जबकि भाजपा राष्ट्रपति के चुनाव के लिए एक-एक वोट के जुगाड़ में लगी है, शिवसेना की राजनीतिक पैंतरेबाजियां उसे परेशान कर रही हैं। भाजपा ने राष्ट्रपति के चुनाव के मद्देनजर ही अपने दो नव निर्वाचित मुख्यमंत्रियों योगी आदित्यनाथ और मनोहर पर्रीकर तथा उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य को सांसद भी बने रहने को कहा है क्योंकि राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में एक सांसद के वोट की कीमत 708 की होती है और चुनावी गणित को देखते हुए मोदी और भाजपा किसी तरह का जोखिम लेने की स्थिति में नहीं हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी भाजपा की प्रचंड विजय के बावजूद राष्ट्रपति के निर्वाचक मंडल में भाजपा और इसके सहयोगी-समर्थक दलों का समर्थन आधार 49 फीसदी से कुछ कम ही बन पा रहा है। यानी भाजपा को अपनी खांटी पसंद का राष्ट्रपति बनवाने के लिए तकरीबन 25 हजार अतिरिक्त मतों का जुगाड़ करना पड़ सकता है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के साथ ही राज्य विधानसभाओं (विधान परिषद नहीं) के निर्वाचित सदस्य ही मतदान कर सकते हैं। चुनावी गणित के मद्देनजर मोदी और भाजपा की नजर शिवसेना को अपने पाले में रखने के साथ ही बीजू जनता दल और अन्ना द्रमुक के दोनों धड़ों पर टिकी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी से भाजपा ओडिशा और झारखंड से भी कुछ अतिरिक्त वोट बटोर सकती है। लेकिन इससे भी बात नहीं बनते देख मोदी आम राय बनाने के नाम पर किसी स्वतंत्र और तटस्थ नाम को भी आगे बढ़ा सकते हैं।
दूसरी तरफ, गैर-भाजपाई विपक्ष राष्ट्रपति के चुनावी गणित में भाजपा की कमजोरी को अवसर के रूप में इस्तेमाल करने की जुगत में लगा है। विपक्ष के रणनीतिकार एक तरफ तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपानीत राजग के साथ भावी राष्ट्रपति के नाम पर आम राय कायम करने की प्रक्रिया में अपनी राय को अहमियत दिलाने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, दूसरी तरफ सत्तारूढ़ पक्ष के साथ बात नहीं बन पाने की स्थिति में उनकी रणनीति एक ऐसे उम्मीदवार को मैदान में उतारने की लगती है जो न सिर्फ तमाम गैर-भाजपा दलों को इस चुनाव में एकजुट रखने में कामयाब हो सके बल्कि चुनाव की स्थिति में भाजपा और राजग के मतदाताओं में भी सेंध लगा सके। विपक्ष के खेमे में ऐसे दो नाम हवा में हैं। एक, एनसीपी के अध्यक्ष और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके पूर्व रक्षा मंत्री शरद पवार का है और दूसरा जनता दल यू के पूर्व अध्यक्ष और कभी राजग के संयोजक रहे शरद यादव का। यह दोनों न सिर्फ विपक्ष के अंतर्विरोधों पर काबू पा सकते हैं बल्कि सत्ता पक्ष के मतदाता वर्ग में सेंध भी लगा सकते हैं। पिछले दिनों मोदी सरकार द्वारा पद्म विभूषण से अलंकृत शरद पवार की उम्मीदवारी के बाद राजग में शिवसेना के सामने एक बार फिर मराठा गौरव के नाम पर उनका समर्थन करने का दबाव और तर्क बढ़ सकता है, वहीं अपने जोड़तोड़ के राजनीतिक कौशल का इस्तेमाल कर वह राजग के मतदाता वर्ग में से कुछ को अपनी ओर खींच सकते हैं। शरद यादव के बारे में कहा जा रहा है कि मंडल राजनीति का पुरोधा होने की उनकी राजनीतिक छवि राजग के सांसदों और विधायकों को आकर्षित करने में कारगर साबित हो सकती है। ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी और उनके रणनीतिकारों की रणनीति थोड़ी अलग तरह की हो सकती है। फिलहाल तो दोनों पक्ष इस संबंध में एक-दूसरे की राजनीतिक चाल और पहल का इंतजार करते ही नजर आ रहे हैं।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से साथ भाजपा अध्यक्ष अम‌ित शाह
उपराष्ट्रपति तो भाजपा का ही
सात अगस्त को देश के उपराष्ट्रपति का चुनाव भी होने जा रहा है। लोकसभा में भाजपानीत राजग के प्रचंड बहुमत को देखते हुए साफ है कि उपराष्ट्रपति भाजपा का ही होगा। उपराष्ट्रपति के चुनाव में संसद के दोनों सदनों के सभी सदस्य मतदान करते हैं। भाजपा सूत्रों की मानें तो प्रधानमंत्री मोदी राष्ट्रपति के चुनाव में भले ही विपक्ष के साथ किसी तरह की आम राय पर सहमत हो सकें, उपराष्ट्रपति के नाम पर वह किसी भी तरह की आम राय या दबाव में नहीं आने वाले हैं। अगले उपराष्ट्रपति के रूप में भाजपा खेमे से एक बार फिर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, सूचना प्रसारण एवं शहरी विकास मंत्री एम वेंकैया नायडू, लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन तथा समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ सांसद हुकुमदेव नारायण यादव के नाम लिए जा रहे हैं।

Wednesday, 24 June 2015

आपातकाल की बरसी पर कुछ विचारणीय सवाल

इस 25 जून की  रात को आपातकाल की 40वीं बरसी पर आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के स्वरों और शब्दों को दबाने के प्रयासों को न सिर्फ याद रखने बल्कि उनके प्रति चौकस रहने की भी जरूरत है ताकि देश और देशवाशियों को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े और भविष्य में भी कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत की हिमाकत नहीं कर सके. दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह एकाधिकारवादी प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. एक तरह  देखें तो देश आज एक अघोषित आपातकाल की ओर ही बढ़ रहा है जब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में पड़ी दिख रही है. भाजपा के वरिष्ठ और बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी ने हमारी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में ही इन प्रवृत्तियों के मौजूद रहने और आपातकाल के भविष्य में भी लागू किये जाने की आशंकाएं बरकार रहने का संकेत देकर इस चर्चा को और भी मौजूं बना दिया है.

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. डी आई आर (भारत रक्षा कानून ) और 120 बी के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र आजमगढ़ जेल की एक ही बैरक में महीनों आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे. 
कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए. आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों- जेल में और जेल के बाहर भी- से समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युवजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता. 



इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’ जब इंदिरा गांधी ने संविधान संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करेते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. इसके साथ उन्होंने पत्र लिखा की अगर  हस्तलिपि मिल जाये तो लिखना की 'दमा की दवा मिल गयी है.' उस समय हमारे सामने आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र', जान जोखिम में डालकर काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे. हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए. इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. बाकी लोगों से भी सहयोग समर्थन मिलने लगा. 

मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि चुनाव का बहिष्कार बचे-खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था. मधु जी का पत्र आया कि चौधरी के पीछे बेमतलब पड़े हो, यहाँ जेलों में संघ के लोग जिस तरह से माफीनामे लिखने में लगे हैं, उस पर चिंता करनी चाहिए. 

हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे बेहतर समझ सकते हैं.' इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल की समाप्ति के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह बाहर भिजवाते थे. 
आपातकाल में जब लोकसभा की मियाद बढाकर पांच से छह वर्ष कर दी गयी तो विरोधस्वरूप मधु जी और शरद यादव ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया था. त्यागपत्र तो समाजवादी नेता जनेश्वर मिश्रा ने भी दिया था लेकिन उन्होंने अपना त्यागपत्र लोकसभाध्यक्ष के पास भेजने के बजाय चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. मधु जी ने मुझे पत्र लिखकर कहा कि नैनी जेल में जाकर जनेश्वर से मिलो और पूछो कि क्या उन्हें लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम. मैं उनके पात्र के साथ किसी तरह मुलाकाती बनकर नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिला और उन्हें मधु जी का सन्देश दिया. जनेश्वर जी कुछ उखड से गए और बोले, मधु जी अपनी पार्टी के नेता हैं लेकिन हमारी पार्टी (लोकदल) के नेता, अध्यक्ष चरण सिंह हैं. लिहाजा, हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा. 
इस तरह के तमाम प्रसंग हैं. जिनपर तफ्सील से लिखा जा सकता है. लेकिन हमारी चिंता का विषय कुछ और है. आपातकाल की समाप्ति और उसके गर्भ से निकली जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद हमारे लोकतंत्र प्रेमियों ने सम्भवतः पहला अलोकतांत्रिक काम नौ राज्यों की चुनी हुई राज्य सरकारों को बर्खास्त करवाकर किया. और नहीं तो मीसा के विरोध में सत्तारूढ़ हुए लोगों को देश में मिनी मीसा लगाने का प्रस्ताव करने में जरा भी संकोच नहीं हुआ. यह बताने में कोई हर्ज नहीं कि हमारी अंतिम गिरफ़्तारी जनता पार्टी के शासन में ही हुयी थी और उसी के साथ एक तरह का मोहभंग भी. बाद के दिनों में भी इस तरह के कई प्रसंग आये जब आपातकाल के गर्भ से निकले हमारे 'लोकतंत्र प्रेमियों' ने अपनी सत्ता को मिलनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए घातक और खूंखार कानूनों की खुलेआम वकालत की. इसलिए भी 25-26 जून को हमें आपातकाल की 40वीं बरसी मनाते समय आमजन को न सिर्फ आपातकाल बल्कि उन खतरनाक राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में भी आगाह करना चाहिए जो गरीबी हटाओ के नारे के साथ  बहुमत लेकर सत्तारूढ़ हुई इंदिरागांधी जैसी नेता को तानाशाह बना देती हैं और आज भी कुछ लोगों के भीतर एकाधिकारवादी 'एको अहं द्वितियो नास्ति' का एहसास भर देती हैं. हमें इन लोगों और इन प्रवृत्तियों से सावधान रहने की जरूरत है.  

Sunday, 18 January 2015

नोबल मिलने के बाद बाल अधिकार आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली है-कैलाश सत्यार्थी

 लोकमत समाचारलोकमत (मराठी) और LOKMAT TIMES 
पुरस्कार और सम्मान तो उन्हें पहले भी बहुत मिलते रहे हैं लेकिन पिछले अक्तूबर महीने में पाकिस्तान की मानवाधिकार कार्यकर्ता मलाला यूसुफ जई के साथ भारत में बाल अधिकार कार्यकर्ता, बचपन बचाओ आंदोलन के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी के संयुक्त रूप से वर्ष 2014 के शांति के नोबल पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद से उनकी दुनिया ही बदल सी गई है. आज वह भारत के व्यस्ततम लोगों में से हैं. उनसे मिलने, साक्षात्कार मांगने, उन्हें सुनने के लिए अनुरोध-आमंत्रणों की भरमार सी लगने लगी   है. वह खुद बताते हैं कि नोबल पुरस्कार  मिलने के बाद उन्हें पूरी दुनिया से 11 हजार से अधिक आमंत्रण मिल चुके हैं. अपने व्यस्त  कार्यक्रमों के बीच कैलाश सत्यार्थी के साथ नोबल पुरस्कार और बाल दासता के विरुद्ध उनके बाल अधिकार अभियान से जुड़े तमाम मुद्दों पर बातचीत के अंश: 

Friday, 27 June 2014

आपातकाल की बरसी पर

( Takreeban ek saal ke antral ke baad Zeero hour par fir se hazir hun. Kitna niymit rah paunga kah nahin sakta.)

आपातकाल की बरसी पर फेसबुक पर बड़े भाई शिवानंद तिवारी और चंचल कुमार की टिप्पणियां देखने के बाद कुछ लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूं. शिवानंद जी की राय से सहमत हूं कि आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के प्रयासों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत है ताकि देश को दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े. साथ ही साथ कोई सत्तारूढ़ दल फिर कभी देश में आपातकाल लागू करने जैसी हिमाकत नहीं कर सके. 

दरअसल, आपातकाल एक खास तरह की राजनीतिक संस्कृति और प्रवृत्ति का परिचायक था. जिसे लागू तो इंदिरा गांधी ने किया था लेकिन बाद के दिनों-वर्षों में और आज भी वह प्रवृत्ति कमोबेस सभी राजनीतिक दलों और नेताओं में देखने को मिलती रही है. आपातकाल को याद करते समय हमारी चिंता इस बात को लेकर कुछ ज्यादा है. 

आपातकाल के शिकार या कहें उसका सामना करनेवालों में हम भी थे. हालाँकि हमने कभी iस बात का जिक्र खासतौर से लिखत पढ़त में तो नहीं ही किया है. तब हम इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्ध ईविंग क्रिश्चियन कालेज के छात्र थे और समाजवादी युवजन सभा के बैनर तले समाजवादी आंदोलन और उस बहाने जेपी आंदोलन में भी शामिल थे. आपातकाल की घोषणा के बाद हम मऊ जनपद (उस समय के आजमगढ़) में स्थित अपने गांव कठघराशंकर-मधुबन चले गए थे. लेकिन ख़ुफ़िया पुलिस ने वहां भी पीछा नहीं छोड़ा. जार्ज फर्नांडिस के प्रतिपक्ष अखबार के साथ जुलाई 1975 के पहले सप्ताह में हमें मंत्री जी के नाम से मशहूर स्थानीय समाजवादी नेता रामाधीन सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिया गया. हमारे ऊपर पुलिस का इलजाम था कि हम प्रतिबंधित साप्ताहिक प्रतिपक्ष अखबार बेच रहे थे, आपातकाल के विरुद्ध नारे लगा रहे थे और मधुबन थाने के बगल में स्थित यूनियन बैंक में डकैती की योजना बना रहे थे. यह सारे काम हम एक साथ कर रहे थे. भारत रक्षा कानून (डीआईआर) के तहत निरुद्ध कर हम आजमगढ़ जनपद कारागार के सिपुर्द कर दिए गए. सवा महीने बाद 15 अगस्त 1975 को पिता जी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी विष्णुदेव भी अपने समर्थकों के साथ आपातकाल के विरुद्ध सत्याग्रह-आंदोलन करते हुए गिरफ्तार होकर आजमगढ़ जेल में आ गए. हम पिता-पुत्र एक ही बैरक में आमने-सामने सीमेंट के स्लीपर्स पर सोते थे. 

कई महीने जेल में बिताने के बाद परीक्षा के नाम पर हमें पेरोल-जमानत मिल गई लेकिन हम एक बार जो जेल से निकले तो दोबारा वापस नहीं गए. आपातकाल के विरुद्ध भूमिगत आंदोलन में सक्रिय हो गए. उस क्रम में इलाहाबाद, वाराणसी और दिल्ली सहित देश के विभिन्न हिस्सों में आना-जाना, संघर्ष के साथियों (जेल में और जेल के बाहर भी) के साथ समन्वय और सहयोग के साथ ही आपातकाल के विरोध में जगह -जगह से निकलनेवाले समाचार बुलेटिनों के प्रकाशन और वितरण में योगदान मुख्य काम बन गया था. वाराणसी में हम जेल में निरुद्ध साथी, समाजवादी युवजन सभा के नेता (अभी कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव) मोहन प्रकाश से मिले. उनसे कुछ पते लेकर वाराणसी में ही समाजवादी युजन सभा और फिर छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी, लोहिया विचार मंच के साथियों अशोक मिश्र, योगेंद्र नारायण, नचिकेता, देवाशीष भट्टाचार्य, चंचल मुखर्जी, मदन श्रीवास्तव आदि से लगातार संपर्क में रहा. वाराणसी प्रवास के दौरान अशोक मिश्र जी का चेतगंज के पास हबीबपुरा स्थित निवास हमारा ठिकाना होता. 

इलाहाबाद में हमारा परिवार था. वहीं रहते भोपाल जेल में बंद समाजवादी नेता मधुलिमए से पत्र संपर्क हुआ. उनसे हमने देश भर में तमाम समाजवादी नेताओं-कार्यकर्ताओं के पते लिए. मधु जी के साथ हमारा पत्राचार ‘कोड वर्ड्स’ में होता था. मसलन, हमारे एक पत्र के जवाब में मधु जी ने लिखा, ‘‘पोपट के पिता को तुम्हारा पत्र मिला.’’ पत्र में अन्य व्यौरों के साथ अंत में उन्होंने लिखा, ‘तुम्हारा बांके बिहारी.’ यह बात समाजवादी आंदोलन में मधु जी के करीबी लोगों को ही पता थी कि उनके पुत्र अनिरुद्ध लिमए का घर का नाम पोपट था और मधु जी बिहार में बांका से सांसद थे. एक और पत्र में उन्होंने बताया कि ‘शरदचंद इंदौर गए. यानी उनके साथ बंद रहे सांसद शरद यादव का तबादला इंदौर जेल में हो गया.’ जब इंदिरा गांधी ने संविधान में 42वां संशोधन किया तो उसकी आलोचनात्मक व्याख्या करेते हुए मधु जी ने उसके खिलाफ एक लंबी पुस्तिका लिखी और उसकी हस्तलिखित प्रति हमारे पास भिजवा दी ताकि उसका प्रकाशन-प्रसारण हो सके. उस समय आर्थिक संसाधनों की कमी भी थी. हमारे आग्रह-अनुरोध पर मधु जी ने इलाहाबाद के कुछ वरिष्ठ अधिवक्ताओं (अधिकतर समाजवादी पृष्ठभूमि के) रामभूषण मेहरोत्रा, अशोक मोहिले, रविकिरण जैन, सत्येंद्रनाथ वर्मा, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राजनारायण जी के अधिवक्ता रहे शांतिभूषण और रमेश चंद्र श्रीवास्तव के साथ ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देनेवाले कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हेमवती नंदन बहुगुणा, उनके साथ प्रदेश के महाधिवक्ता रहे श्यामनाथ कक्कड़ के नाम भी पत्र लिखा कि ‘विष्णु पुत्र, जान जोखिम में डालकर  काम कर रहा है. इसकी हर संभव मदद करें.’ सारे पत्र हमारे पते पर ही आए थे. हमने ये सारे पत्र इन लोगों तक पहुंचाए. इनमें से समाजवादी पृष्ठभूमि के नेता-अधिवक्ता तो वैसे भी निरंतर हमारी मदद कर रहे थे. बाकी लोगों से भी सहयोग-समर्थन मिलने लगा. 

मधु जी के पत्र के साथ हम और समाजवादी-कर्मचारी नेता नेता विनय कुमार सिन्हां लखनऊ में चौधरी चरण सिंह और चंद्रभानु गुप्त से भी मिले थे. हम लोग चौधरी साहब के एक फैसले से सख्त नाराज थे. उन्होंने आपातकाल में हो रहे विधान परिषद के चुनाव में भाग लेने की घोषणा की थी हमारा मानना था कि विधान परिषद का चुनाव करवाकर इंदिरा गांधी आपातकाल में भी लोकतंत्र के जीवित रहने का दिखावा करना चाहती थीं लिहाजा विपक्ष को उसका बहिष्कार करना चाहिए था. हमने और विनय जी ने इस आशय का एक पत्र भी चौधरी चरण सिंह को लिखा था. जवाब में चौधरी साहब का पत्र आया कि चुनाव में शामिल होनेवाले नहीं बल्कि विधान परिषद के चुनाव का बहिष्कार करनेवाले लोकतंत्र के दुश्मन हैं. हमारा आक्रोश समझा जा सकता था. लेकिन मधु जी का आदेश था सो हम चौधरी साहब से मिलने गए. उन्होंने हमें समझाने की कोशिश की कि उनकी राय में चुनाव का बहिष्कार करने से बचे खुचे लोकतंत्र को भी मिटाने में सहयोग करने जैसा होगा. हमारी समझ में उनकी बातें नहीं आनलेवाली थीं. हमने इस बारे में मधु जी को भी लिखा था. मधु जी  जेल में संघ के लोगों के बढ़ रहे माफीनामों को लेकर परेशान थे. इसका जिक्र उहोंने एक पत्र में भी किया था.  

हम मधु जी को अपने पत्र रविशंकर के नाम से भेजते थे. अपने पते की जगह अपने निवास के पास अपने मित्र अशोक सोनी के घर का पता देते थे. एक बार मधु जी ने जवाबी पत्र उसी पते पर रविशंकर के नाम से ही भेज दिया. उससे हम परेशानी में पड़ने ही वाले थे कि डाकिए से मुलाकात हो गई और मित्र का पत्र बताकर हमने वह पत्र ले लिया. हमने मधु जी को लिखा कि ‘प्रयाग में रवि का उदय होता है, भोपाल में अस्त होना चाहिए, भोपाल से शंकर की जय होगी तब बात बनेगी. आप जैसे मनीषी इसे समझ सकते हैं. इसके बाद मधु जी के पत्र जयशंकर के नाम से आने शुरु हो गए. आपातकाल के बाद मधु जी ने बताया था कि किस तरह वे हमारे पत्र जेल में बिना सेंसर के हासिल करते (खरीदते) थे. वे अपने पत्रों को भी कुछ इसी तरह स्मगल कर बाहर भिजवाते थे. आपातकाल में लोकसभा की मियाद पांच से बढ़ाकर छह साल किए जाने के विरोध में मधु जी और शरद जी ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था. लोकसभाध्यक्ष ने उसे स्वीकार भी कर लिया था. त्यागपत्र इलाहाबाद से उपचुनाव जीते जनेश्वर मिश्र जी ने भी दिया था. लेकिन उन्होंने लोकसभाध्यक्ष के बजाय अपना त्यागपत्र अपनी पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष चौधरी चरण सिंह के पास भेज दिया था. यह बात मधु जी को बुरी लगी थी. उन्होंने मुझे लिखे पत्र में कहा कि जाकर नैनी जेल में किसी तरह से जनेश्वर से मिलो और पूछो कि उन्हें क्या लोकसभाध्यक्ष का पता नहीं मालूम? अगर त्यागपत्र देना था तो लोकसभाध्यक्ष के पास भेजते. अन्यथा ढोंग करने की आवश्यकता क्या थी? हम किसी तरह से जुगाड़ करके नैनी जेल में जनेश्वर जी से मिले. वह भी हमारे नेता थे. संकोच करते हुए हमने उन्हें मधु जी के पत्र के बारे में बताया. जनेश्वर जी की प्रतिक्रिया समझने लायक थी. उन्होंने कहा कि मधु जी को बता दो कि वह अपनी पार्टी के नेता हैं, खुद फैसले ले सकते हैं लेकिन हम लोकदल में हैं जिसके अध्यक्ष चरण सिंह हैं, लिहाजा हमने त्यागपत्र उनके पास ही भेजा. जाहिर सी बात है कि उनका त्यागपत्र लोकसभा अध्यक्ष तक नहीं पहुंचा था.

इलाहाबाद में हम ऐसे समाजवादियों का एक ग्रुप बन गया था जो जेल से बाहर थे लेकिन आपातकाल के विरुद्ध अपने अपने हिसाब से सक्रिय थे. कुलभास्कर डिग्री कालेज के दो प्राचार्यों-श्रीबल्लभ जी और ललित मोहन गौतम जी, हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता स्वराज प्रकाश, विनय कुमार सिन्हां, सतीश मिश्र, ब्रजभूशण सिंह, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के साथी भारत भूषण आदि हम लोग अक्सर मिला करते, कभी समूह में और अक्सर अकेले में. संघर्ष समाचार का नियमित प्रकाशन-वितरण करते थे. संघ और जनसंघ के कुछ लोग भी संपर्क में थे. लेकिन उनके साथ अक्सर हमारा वैचारिक विरोध होते रहता था. एक बार मुझे याद है कि इलाहाबाद में छापाखाने की दिक्कत हो जाने पर हम जेल में बंद नेता नरेंद्र गुरु और सिराथू के छोटेलाल यादव से संपर्क सूत्र लेकर बांदा जिले में राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसी दास जी के गांव राजापुर गए थे. इलाहाबाद से एक रिम कागज लिए बस से शाम को राजापुर के इस पार इलाहाबाद जिले की साइड में यमुना नदी के तट पर पहुंचने और मल्लाह से अनुनय-विनय कर नाव से उस पार राजापुर पहुंचने की यात्रा कभी न भूलनेवाली यात्राओं में से एक है. वहां मिले समाजवादी नेता देवनारायण शास्त्री हमारी तरह ही जेल से छूट कर आए थे. उनका अपना छापाखाना था लेकिन वह दोबारा किसी तरह का जोखिम लेने के मूड में नहीं थे. बहुत समझाने पर हमारे ठहरने का इंतजाम तुलसी दास जी के मंदिर में हुआ जहां उस समय भी राम चरित मानस की उनकी हस्तलिखित पांडुलिपि के कुछ पन्ने रखे हुए थे. रात में हम दोनों ने जगकर बुलेटिन तैयार किया. प्रकाशन हुआ और हम अगली सुबह वहां से गायब.
आजमगढ़ जेल से निकलने के बाद दोबारा हम नहीं लौटे. पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों को चकमा देते रहे. एक दो बार सामना भी हुआ लेकिन हम किसी तरह बच निकले. एक बार संभवतः नवंबर 1976 में संजय गांधी का इलाहाबाद में कार्यक्रम था, किसी तरह का विघ्न नहीं पहुंचे इसके लिए नए सिरे से धर पकड़ शुरू हुई थी. खुफिया पुलिस को किसी तरह इलाहाबाद में हमारे दारागंजवाले मकान का पता चल गया था. आधी रात को हमारे घर पुलिस का छापा पड़ा लेकिन हम एक बार फिर उन्हें चकमा देकर निकल भागने में कामयाब रहे. पुलिस की गाज हमारे परिवार, दोनों बड़े भाइयों पर गिरी. उन्हें पुलिसिया गालियों का सामना करना पड़ा. रात दारागंज थाने में गुजारनी पड़ी. बाद में उन्हें छोड़ दिया गया लेकिन जब हम लुकते छिपते वापस घर पहुंचे तो भाइयों ने हाथ जोड़ लिया. कहा पिता जी तो जेल में हैं ही, तुम भी जेल से आए हो, लेकिन हम लोग सरकारी मुलाजिम हैं. हम चले गए तो परिवार का क्या होगा? संकेत साफ था. जरूरी कपड़े और कुछ पैसे लेकर हम घर से बाहर हो लिए. मां और भाभी की आंखें में आंसू थे. घर से निकलने के बाद सीडीएपेंशन में कार्यरत समाजवादी साथी सतीश मिश्र के प्रयास से मुट्ठीगंज स्थित हिंदी साहित्य सम्मेलन के बगल की गली में रहने के लिए कमरे का जुगाड़ हो गया. खाना-पीना साथियों-सहयोगियों के घर परिवारों के जिम्मे था.समाजवादी चिंतक-साहित्यकार लक्ष्मीकांत वर्मा का निवास भी हमारे ठिकानों में होता.सम्मेलन में समाजवादी साथी, सम्मेलन के मौजूदा प्रधानमंत्री विभूति मिश्र के कहने पर उनके पिता जी, सम्मेलन के तत्कालीन प्रधानमंत्री प्रभात मिश्र के आशीर्वाद से वहीं हमारे बैठने और दिहाड़ी के हिसाब से कुछ पैसे मिलने की व्यवस्था भी हो गई. लेकिन एक दिन हमें खोजते खुफिया पुलिस सम्मेलन के कार्यालय भी आ धमकी. हमें सम्मेलन भी छोड़ना पड़ा. इस तरह से पुलिस और खुफिया विभाग के लोगों के साथ हमारी लुका-छिपी या कहें आंख मिचैनी का खेल चलता रहा. इस बीच  आपातकाल समाप्त हो गया लोकसभा चुनाव कराए गए और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की प्रेरणा या कहें दबाव से सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ, संगठन कांग्रेस और भारतीय लोक दल को मिलाकर बनी जनता पार्टी की केंद्र में सरकार बन गई. 

लेकिन शायद सत्ता का चरित्र एक जैसा ही होता है. जनता पार्टी के सत्तारूढ़ नेताओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगी. हमारे जैसे लोगों के पास सच पूछें तो कोई काम नहीं था. चुनाव हम लड़ नहीं सकते थे, उस समय हमारी उम्र महज 21 साल की थी. पिता जी ने संसाधनों के अभाव और पूरे संसदीय क्षेत्र में काम नहीं होने की दुहाई देकर लोकसभा का चुनाव लड़ने से मना कर दिया था और विधानसभा चुनाव में उनका टिकट जनता पार्टी के हमारे पड़ोसी अध्यक्ष चंद्रशेखर जी ने काट दिया था. पिता जी बगावत कर चुनाव लड़ गए थे. चंद्रशेखर जी और रामधन जी के हर संभव विरोध के बावजूद बहुत कम मतों से चुनाव हार गए थे. इलाहाबाद में हम युवा जनता के बैनर तले सक्रिय थे. लेकिन अपनी सरकार और अपने नेताओं के रहन सहन व्यवहार और काम काज को लेकर जनता पार्टी या कहें कि राजनीति से भी मन उचटने और झुकाव पत्रकारिता की ओर बढ़ने लगा. सरकार पर दबाव बनाने की गरज से हम लोगों ने इलाहाबाद में ‘बेकारों को काम दो या बेकारी का भत्ता दो’ के नारे के साथ आंदोलन शुरू किया. बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियां हुईं. हम भी सत्तारूढ़ दल की युवा शाखा के पदाधिकारी रहते हुए भी जेल गए. बहुत जल्दी ही समझ में आने लगा कि सत्ता का चरित्र वाकई एक जैसा ही होता है. आश्चर्य तो तब शुरू हुआ जब जनता पार्टी की सरकार ने, उसमें शामिल समाजवादियों ने एक भी ठोस काम ऐसा नहीं किया, जिससे देश में भविष्य में फिर कभी कोई दल अथवा नेता आपातकाल लागू करने का दुस्साहस नहीं कर सके.

 और नहीं तो लाकतंत्र की दुहाई देकर केंद्र में सत्तारूढ़ हुई जनता पार्टी की सरकार ने कुछ ही महीनों बाद ‘जनादेश’ के नाम पर पहले अलोकतांत्रिक कार्य के रूप में नौ राज्यों की कांग्रेस की चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त कर दिया. आपातकाल के बदनाम मीसा-आंतरिक सुरक्षा कानून-के विरुद्ध संघर्ष कर सत्तारूढ़ हुए लोगों को ‘मिनी मीसा’ की जरूरत महसूस होने में जरा भी लाज नहीं आई. संघ और पुराने कांग्रेसियों के दबाव में जनता पार्टी की सरकार और उसकी राज्य सरकारों ने ऐसे कई काम किए जिन्हें भ्रष्ट एवं स्वस्थ लोकतंत्र पर आघात पहुंचानेवाला ही कहा जा सकता था. जाहिर है जनता पार्टी की सरकार अपने ही अंतर्विरोधों के बोझ तले दबकर अकाल मौत का शिकार हो गई. बाद के वर्षों में भी आपातकाल के विरोध में या कहें जबरन आपातकाल और उसके कानूनों की ज्यादतियों का शिकार हुए लोगों ने मीसा जैसे खतरनाक प्रावधानों वाले टाडा और पोटा जैसे कानूनों की वकालत की. कई नेताओं को तो नागरिक स्वतंत्रताओं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटनेवाले पोटा जैसे कानूनों के प्रावधान भी कमजोर नजर आने लगे. इसलिए जब शिवानंद जी आपातकाल और उस अवधि में हुए दमन-उत्पीड़न और असहमति के प्रयासों को दबाने के उपायों को याद रखने और चौकस रहने की जरूरत बताते हैं तो सोचने का मन होता है कि क्या आज हमारे प्रायः सभी राजनीतिक दलों और नेताओं की राजनीतिक कार्यशैली को देखकर एक अदृश्य आपातकाल का एहसास नहीं होता. आज कौन दल अथवा नेता अपने आचरण से अपने लोकतांत्रिक होने का दावा कर सकता है. किस दल में आज अंदरूनी लोकतंत्र है जिसके बूते हम उम्मीद कर सकें कि इस देश में दोबारा आपातकाल लागू करने की हिमाकत नहीं होगी. 

हां, हम इस तरह की किसी भी स्थिति का विरोध करने के लिए खुद को तैयार तो कर ही सकते हैं. इस साल 25-26 जून को आपातकाल की बरसी पर इसका संकल्प तो ले ही सकते हैं क्योंकि हमारे पास और कुछ हो न हो, गांधी लोहिया और जयप्रकाश की वैचारिक थाती और गलत को गलत कहने और उसका विरोध करने की उनकी सीख और प्रेरणा तो है ही. इसे ही संजोकर जिन्दा रखने की जरूरत आज का hamara संकल्प है. यह बात तो हमारे चंचल जी भी मानेंगे ही जो शरीर से भले ही कोंग्रेसी हो गए हों, विचारों से समाजवादी और लोकतान्त्रिक ही हैं.