Saturday, 22 August 2020

Foreign visits with President Dr. APJ Abdul Kalam-Bulgaria

कलाम के साथ विदेश भ्रमण-3

बुल्गारियाः वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर!
 
जयशंकर गुप्त


  

    राष्ट्रपति के रूप में डा. ए पी जे अब्दुल कलाम साहब की आठ दिनों की इस पहली विदेश यात्रा का अंतिम पड़ाव कई हजार वर्षों के इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को सीने में संजोए बुल्गारिया था. 22 अक्टूबर को सूडान की राजधानी खारतूम में दोपहर के भोजन के बाद हम लोग बुलगारिया की राजधानी सोफिया के लिए रवाना हो गये. स्थानीय समय के अनुसार शाम के 7.10 बजे हम सोफिया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे. सूडान से बुल्गारिया जाने के रास्ते में डा. कलाम ने विमान में कहा, “सुना है कि बुल्गारिया और इसकी राजधानी सोफिया बहुत खूबसूरत है. सोवियत संघ के जमाने में उसके अभिन्न एवं महत्वपूर्ण सहयोगी देश रहे बुल्गारिया के साथ भारत के रिश्ते हमेशा से बहुत करीबी और प्रगाढ़ रहे हैं. नए संदर्भों में हम इन रिश्तों को और प्रगाढ़ बनाने के इच्छुक हैं.” उन्होंने बताया कि सोवियत संघ के विखंडन के बाद वह बुल्गारिया में हुए बदलावों, औद्योगिक प्रगति और सांस्कृतिक माहौल का जायजा लेना और समझना चाहते हैं.

    दक्षिण पूर्व यूरोप में स्थित बुल्गारिया की सीमाएं उत्तर में रोमानिया से, पश्चिम में सर्बिया और मेसेडोनिया से, दक्षिण में यूनान और तुर्की से मिलती हैं. पूर्व में इस देश की सीमाएं काला सागर निर्धारित करता है. कला और तकनीक के अलावा राजनैतिक दृष्टि से भी बुल्गारिया का वजूद पांचवीं सदी से नजर आने लगता है. यूनान और इस्ताम्बुल के उत्तर में बसा बुल्गारिया मानव बसावट की दृष्टि से बहुत पुराना देश है. मोंटाना के पास मिले 6800 साल पुराने एक पट्टिकालेख में चार पंक्तियों में कुछ, 24 चिह्न बने पाए गए हैं-इसको पढ़ पाना अभी तक संभव नहीं हुआ है, लेकिन इससे ये अनुमान लगाए जाते हैं कि यहां उस समय मानव रहते होंगे. 1972 में काला सागर के तट पर स्थित वार्ना में सोने का खजाना मिला था जिसपर राजसी चिह्न बने थे. इससे भी अनुमान लगाया जाता है कि बहुत पुराने समय में भी यहां कोई राज्य या सत्ता रही होगी-हांलांकि इस राज्य के जातीय मूल का पता नहीं चल पाया है.

    सामान्यतया थ्रेसियों को बुल्गारों का पूर्ववर्ती माना गया है. थ्रेस के लोगों ने ट्रॉय की लड़ाई (1200 ईसा पूर्व के आसपास) में हिस्सा लिया था. इसके बाद 500 ईसा पूर्व तक उनका एक साम्राज्य स्थापित हुआ था. सिकंदर ने 332 ईसा पूर्व में इस पर अधिकार कर लिया और 46 ईस्वी में रोमनों ने. इसके बाद एशिया से कई समूहों का यहां आगमन आरंभ हुआ. स्लाव जाति के लोगों ने 581 में बिजेन्टाइन के रोमन साम्राज्य के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया. पहले बुल्गारियन साम्राज्य ने न केवल बाल्कन क्षेत्र बल्कि पूरे पूर्वी यूरोप को अनेक तरह से प्रभावित किया. बिजेन्टाइन आक्रमणों से सन 1018 तक बुल्गार साम्राज्य का अंत हो गया. बुल्गारियन साम्राज्य के पतन के बाद इसे ओटोमन शासन के अधीन कर दिया गया. सन् 1185 से 1360 तक दूसरे बुल्गार साम्राज्य की सत्ता कायम रही. उसके बाद उस्मानी (ओटोमन) तुर्क लोगों ने इस पर अधिकार कर लिया. सन 1877 में रूस ने ओटोमन साम्राज्य पर हमला कर उन्हें हरा दिया. इस तरह से 1878 में तीसरे बुल्गार साम्राज्य का उदय हुआ. 1880 में तुर्कों के खिलाफ चलाए गए अभियान में 30 हजार तुर्क बुल्गारिया छोड़कर तुर्की चले गए. इससे दो दशक पहले ग्रीस में भी ऐसा ही अभियान चला था.

    दूसरे विश्व युद्ध के समय बुल्गारिया साम्यवादी राज्य और इस तरह से सोवियत संघ का अभिन्न सहयोगी देश बन गया था. लेकिन 1989 में बदलाव की बयार यहां भी बहनी शुरू हो गई थी. 1989 की शुरुआत में बुल्गारिया में कट्टरपंथियों की जगह नरमपंथी कम्युनिस्टों का शासन हुआ. और फिर 1989-90 में ही ग्लासनोश्त एवं पेरेस्त्रोइका के बाद यहां भी साम्यवादियों का एकाधिकार समाप्त हो गया. और बुल्गारिया 2004 से नाटो तथा 2007 से यूरोपीय यूनियन का सदस्य बन गया. फिर तो सब कुछ बदलने लगा. 


     अपने सीने में कई हजार वर्षों का इतिहास संजोए बुल्गारिया की राजधानी सोफिया में भी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव साफ दिख रहे थे. यहां सोवियत संस्कृति की जगह यूरोपीय और अमेरिकी संस्कृति की छाप साफ नजर आ रही थी. सड़कों और गलियों में भी अमेरिकी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद, शो रूम और विज्ञापनों के बड़े बड़े होर्डिंग नजर आ रहे थे. मैकडॉनल्ड और केंचुकी फ्राएड चिकेन जैसे रेस्तरां और पब, नाइट क्लब भी खुल गए थे. वोदका भी उपलब्ध थी लेकिन तमाम तरह की स्कॉच ह्विस्की और अन्य शराब की बोतलों से दुकानें अटी पड़ी थीं. सड़कों पर टोयोटा, बीएम डब्ल्यू, आउडी और मर्सिडीज जैसी महंगी कारें दौड़ने लगी थींबदलाव के प्रतीक के रूप में सोफिया शहर के बीच में ऊंचे स्तंभ पर खड़ी भाग्य की देवी कही जानेवाली सोफिया की कलात्मक मूर्ति भी देखने को मिली जिसके सिर पर सत्ता और शक्ति के प्रतीक के रूप में ताज, एक हाथ में प्रसिद्धि की प्रतीक माला और दूसरे हाथ में ज्ञान का प्रतीक कहे जानेवाले उल्लू की कलाकृति है. तांबे और कांसे की इस मूर्ति को प्रसिद्ध मूर्तिकार ज्योर्जी चपकनोव ने बनाई थी जिसे सन् 2000 में ठीक उस जगह स्थापित किया गया था जहां उससे पहले कम्युनिस्ट नेता लेनिन की आदमकद प्रतिमा लगी थी. 

    भारत-बुल्गेरियाई संबंध पारंपरिक रूप से बहुत घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण रहे हैं. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध 1954 में स्थापित किए गए थे.  समय-समय पर उच्च स्तरीय यात्राओं के आदान-प्रदान ने इन द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया है. राष्ट्रपति डॉ. कलाम से पहले भारत से  उपराष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन (1954), प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1967), राष्ट्रपति वीवी गिरि (1976), राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी (1980), प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1981), राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन (1985), शंकर दयाल शर्मा (1994) और उप राष्ट्रपति कृष्णकांत (2000) ने बुल्गारिया की उच्च स्तरीय यात्राएं की थीं. बुल्गारिया की तरफ से उनके राष्ट्रपति टोडर झिवकोव ने 1976 और 1983 में और पीटर स्टोयोनोव ने 1998 में, प्रधान मंत्री स्टैंको टोडोरोव ने 1974 और 1980 में भारत की यात्राएं की थी.

    बहरहाल, बुल्गारिया के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्योर्जी परवानोव के आमंत्रण पर सोफिया आए डा. कलाम ने 23 अक्तूबर की सुबह राष्ट्रपति के कार्यालय में अपने समवर्ती परवानोव के साथ अकेले में तकरीबन एक घंटे तक बातचीत की. इससे पहले सेंट अलेक्जेंडर नेवेस्की चौक पर श्री परवानोव ने राजकीय परेड के साथ डा. कलाम का भव्य स्वागत किया.


    वहां काफी ठंड थी, हल्की बारिश भी हो रही थी. लेकिन किसी के पास छाता नहीं था. हमें बताया गया कि यहां के राष्ट्रपति पसंद नहीं करते कि राजकीय परेड के समय बारिश हो रही हो तो आप छाते का इस्तेमाल करें. उनके अनुसार जब हमारे सैनिक बगैर छाते के बारिश में खड़े रह सकते हैं तो फिर नागरिक और वीवीआईपी भी क्यों नहीं. हमारे लिए यह कुछ अजीबोगरीब अनुभव था. हम लोग ठंड से सिकुड़ते यही मनाते रहे कि बारिश तेज न हो और कार्यक्रम जल्दी संपन्न हो जाए. शुक्र था कि बूंदा-बांदी ही होकर रह गयी. डा. कलाम को वहां गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया. शहीदों को श्रद्धांजलि दी गयी. डा. कलाम ने वहां अज्ञात सैनिक की समाधि पर श्रद्धा के फूल चढ़ाए.

    राष्ट्रपति कार्यालय में श्री परवानोव और डा. कलाम के बीच अकेले में हुई मुलाकात के दौरान ही दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण संधि और कुछ और द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए. बाद में दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने संवाददाताओं से बातचीत में दोनों देशों के बीच कृषि, खाद्य प्रसंस्करण के साथ ही सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर बल दिया. दोनों ने सभी तरह के आतंकवाद को मानव जाति का सबसे बड़ा और घातक दुश्मन करार देते हुए इस अंतर्राष्ट्रीय बुराई को समूल नष्ट करने की प्रतिबद्धता और एकजुटता का इजहार किया. हालांकि बुल्गारिया के राष्ट्रपति परानोव का कहना था कि आतंकवाद को जड़ से मिटाने के लिए इसके सामाजिक, आर्थिक कारणों को जानने, उनका विश्लेषण करने और उनका समाधान ढूंढने की भी जरूरत है.  


     राष्ट्रपति के कार्यालय से निकलने के बाद डा. कलाम ने बुल्गारिया की नेशनल एसेंबली में जाकर अध्यक्ष एवं कुछ चुनिंदा सांसदों के साथ बातचीत की. वहां से हम लोग गेस्ट हाउस, बोएना रेसीडेंस में आ गये, जहां बुल्गारिया के प्रधानमंत्री ने हमारे लिए दोपहर के भोज का आयोजन कर रखा थाअपने राजकीय कार्यक्रमों के अलावा डा.कलाम शाम को सोफिया विश्वविद्यालय भी गए. बुल्गारिया के इस प्राचीनतम और सबसे बड़े विश्वविद्यालय में डा. कलाम ने छात्रों के साथ सीधा संवाद भी किया. खचाखच भरे हाल में काफी उत्साह का माहौल था. भारत के 55 छात्र-छात्राएं यहां अध्ययन कर रहे थे. डा. कलाम ने बुल्गारिया के साथ भारत के संबंधों को याद करते हुए कहा कि बुल्गारिया के साथ भारत के संबंध 8वीं सदी में ही शुरू हो गये थे. उन्होंने 1926 में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर की बुल्गारिया यात्रा का स्मरण भी किया. उल्लेखनीय है कि बुल्गारिया में रवींद्रनाथ ठाकुर की कई रचनाओं का अनुवाद किया जा चुका है. रामायण, महाभारत तथा पंचतंत्र भी यहां काफी लोकप्रिय हैं. सोफिया विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी के अध्ययन का एक अलग विभाग भी है जिसकी स्थापना 1983 में की गयी थी. डा. कलाम ने इच्छा व्यक्त की कि इस विश्वविद्यालय के साथ भारत के जो पुराने संबंध रहे हैं, वे और भी पुख्ता और प्रगाढ़ होंगे.

    साथ चल रहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद सरला महेश्वरी बताती हैं, “बुल्गारिया प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक और फासीवाद के विरुद्ध अथक योद्धा ज्योर्जी दिमित्रोव की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है. मैं बहुत उत्सुक थी कि उनके बारे में कुछ जानूं-समझूं. खोजबीन के बाद मुझे पता चला कि वहां कभी दिमित्रोव का मुसोलियन (समाधिस्थल) था जिसे अब हटा दिया गया है. मैंने पूछा कि क्या उनके बारे में स्कूलों-कॉलेजों में कुछ पढ़ाया नहीं जाता? जवाब मिला कि पहले पढ़ाया जाता था लेकिन अब नहीं. जवाब देते समय सोफिया विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के चेहरे पर दु:ख की रेखाएं स्पष्ट नजर आ रही थी.’’ सोफिया में डा. कलाम राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालय और आर्ट गैलरी भी देखने गये. राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालय 533000 वस्तुओं और सबसे बड़े पुरातात्विक और ऐतिहासिक संग्रह के साथ बाल्कन के इतिहास के सबसे बड़े संग्रहालयों में से एक है. 

    23 अक्टूबर की रात को बुल्गारिया के राष्ट्रपति परवानोव ने डा. कलाम के सम्मान में राजकीय भोज (बैंक्वेट डिनर दिया. इस अवसर पर डा. कलाम ने अभिभाषण में कहा, “ऐतिहासिक राजधानी शहर सोफिया में आपके बीच होना मेरे लिए एक सम्मान और खुशी की बात है. प्राचीन देश बुल्गारिया के पास एक लंबा इतिहास और एक शानदार सांस्कृतिक विरासत है. हम इसकी साहित्यिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपरा को जानते हैं. इस खूबसूरत शहर के केंद्र में प्रसिद्धि और ज्ञान के प्रतीक को अपने हाथों में थामे भाग्य की देवी सोफिया की मुकुट (सत्ता का प्रतीक) धारण किए हुए मूर्ति सही मायने में सभी मानव जाति की आकांक्षाओं का चित्रण है.”
    उन्होंने भारत और बुल्गारिया के साथ भारत के बहुत पुराने और प्रगाढ़ संबंधों का जिक्र करते हुए कहा कि दोनों देशों में प्राचीन सभ्यताएं हैं और हमारे इतिहास में कई अन्य समाजों के साथ संपर्क शामिल हैं. हम अपनी संस्कृतियों में अन्य सभ्यताओं के विभिन्न पहलुओं को आत्मसात करके इसका लाभ उठाने में सफल रहे हैं. इसने विभिन्न धार्मिक, जातीय और भाषाई समूहों से आत्मसात की गई भारत और बुल्गारिया की बहु-संस्कृति के विकास को सक्षम बनाया है. यह हमारी पिछली पीढ़ियों से हमें मिला उपहार है, जिसे हम भविष्य के लिए संरक्षित कर रहे हैं. भारत और बुल्गारिया का सरकारों और जनता के स्तर पर भी हमेशा से व्यापक संपर्क रहा है. हमारा आपसी सहयोग बहुआयामी है जो राजनीति, व्यापार, अर्थशास्त्र, विज्ञान-प्रौद्योगिकी और संस्कृति के क्षेत्रों तक फैला हुआ है. यह संबंध निरंतरता और आपसी समझ पर आधारित है. 1994 में सोफिया और 1998 में नई दिल्ली में राष्ट्रपति के दौरे के आदान-प्रदान ने हमारे संपर्कों को मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया. मेरी यह यात्रा इसी क्रम में है और मुझे उम्मीद है कि यह हमारे द्विपक्षीय सहयोग को और अधिक बढ़ाने का काम करेगी. समय आ गया है कि बुल्गारिया और भारत  विशिष्ट क्षेत्रों में अपनी मुख्य क्षमताओं की पहचान करें और समयबद्ध तरीके से संयुक्त डिजाइन, विकास, उत्पादन और विपणन के लिए महत्व की परियोजनाओं का चयन करें. मुझे खुशी है कि दोनों देशों ने भारत-बुल्गारियाई विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग के तहत कई वैज्ञानिक अनुसंधान परियोजनाओं की पहचान की है. मैं कह सकता हूं कि इंडो-बुल्गारियाई भागीदारी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है.
    नई सहस्राब्दी में, पूरी दुनिया स्वतंत्र और लोकतांत्रिक प्रणालियों की दिशा में आगे बढ़ रही है. भारत-और बुल्गारिया इन मूल्यों को साझा करते हैं. पिछले पचास वर्षों और अधिक के अपने स्वयं के अनुभव में, हमने संसदीय लोकतंत्र को अपने लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बेहद उपयुक्त पाया है. भारत में, हम अपने आर्थिक सुधारों की दूसरी पीढ़ी के साथ आगे बढ़ रहे हैं. विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, नैनो और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताओं के साथ भारत की वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में तेजी से पहचान बढ़ी है. हमने देखा है कि बुल्गारिया ने उदारीकरण की प्रक्रिया में बड़े कदम उठाए हैं और यह तेजी से एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा है. मुझे यकीन है कि इससे हमारे आर्थिक और वाणिज्यिक संबंधों को आगे बढ़ाने के अवसर खुलेंगे. दोनों देशों में शिक्षा से जुड़े उच्च मूल्य और मजबूत मानव पूंजी आधार जिसे हम बनाने में सफल रहे हैं, निश्चित रूप से पारस्परिक रूप से लाभप्रद सहयोग को मजबूत करेगा. हमारा द्विपक्षीय व्यवसाय वर्तमान में बहुत सीमित है. हमें अपने द्विपक्षीय व्यापार को आगामी कुछ वर्षों में एक अरब डॉलर तक बढ़ाना चाहिए. भारत में, हम मानते हैं कि आर्थिक प्रगति का फल व्यापक रूप से और विशेष रूप से हमारी आबादी के वंचित तबकों को उपलब्ध होना चाहिए. दुनिया में गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी उन्मूलन के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. इस साझा जिम्मेदारी को वैश्विक समुदाय को समग्रता में निभानी होगी.

    इसके साथ ही जैसा कि आप जानते हैं, नई चुनौतियां और खतरे उभरे हैं. वर्तमान में हम जिस गंभीर मुद्दे से जूझ रहे हैं, वह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद है. आतंकवाद अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को खतरे में डालने वाला एक प्रमुख कारक बन गया है. ऐसा लगता है कि कोई देश या आबादी इस खतरे से मुक्त नहीं हैं. इस खतरे से उत्पन्न खतरों पर भारत और बुल्गारिया दोनों की समान धारणा है. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को ऐसे आतंकवादी कृत्यों के स्रोतों को अलग-थलग और खत्म करने के लिए ठोस कार्रवाई करनी होगी. किसी भी आधार पर किसी भी आतंकवादी कार्य को उचित नहीं ठहराया जा सकता है. मुझे उम्मीद है कि हम संयुक्त रूप से दुनिया से इस बुराई को खत्म करने के लिए नए सिरे से काम करना जारी रखेंगे. महान बुल्गेरियाई क्रांतिकारी जॉर्जी रकोवस्की ने लिखा है कि “दुनिया में सबसे पुरानी सभ्यता भारत की थी और विभिन्न विश्वास और रीति-रिवाज इससे उत्पन्न हुए थे.” गांधी, टैगोर और नेहरू की रचनाओं का बुल्गारियाई भाषा में अनुवाद किया गया है जो यहां काफी लोकप्रिय हैं. बुल्गारियाई कवि ह्रिस्तो बोतेव और ह्रिस्तो स्मिरेंस्की ने भारतीय लेखकों पर प्रभाव डाला है. 19वीं शताब्दी के दौरान, बुल्गेरियाई साहित्य ने राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति की भावनाओं को प्रतिबिंबित किया, यही भूमिका हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के में भी लेखन ने किया था. सांस्कृतिक क्षेत्र में भी आदान प्रदान जारी है. मुझे पता है कि कई बुल्गेरियाई साहित्य, नृत्य, संगीत और दर्शन का अध्ययन करने के लिए भारत आते हैं. मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि सोफिया विश्वविद्यालय का एक अलग इंडोलॉजी विभाग है जो भारत की भाषाओं, इतिहास और दर्शन में पाठ्यक्रम प्रदान करता है. 

    अपनी ओर से हम सहयोग के कुछ नए क्षेत्रों का सुझाव दे सकते हैं जिनमें भारत ने अनुभव प्राप्त किया है. इनमें फार्मास्यूटिकल्स, खाद्य प्रसंस्करण, बिजली और निजीकरण के हमारे अनुभव का एक हिस्सा शामिल हो सकता है. मैं आशावादी हूं कि आर्थिक और वैज्ञानिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए अधिक से अधिक भारतीयों और बुल्गारियाई लोगों को एक-दूसरे के देश में ले जाना होगा और हमारी दोस्ती के बंधन को आगे बढ़ाना होगा.”

प्रकृति की सुरम्य गोद में रिला मोनेस्ट्री    


अगले दिन, 24 अक्टूबर को हम लोग सड़क मार्ग से सोफिया से तकरीबन 120 किलोमीटर दूर प्रकृति का अद्भुत नजारा देखते हुए यूनान की सीमा से लगनेवाली रिला की खूबसूरत पहाड़ियों पर ईसाइयों की ऐतिहासिक रिला मोनेस्ट्रीगए. डा. कलाम के साथ ही अरुण शौरी, सुरेश प्रभु एवं सरला महेश्वरी हेलीकॉप्टर से गये. बाकी, हम लोगों का काफिला सड़क मार्ग से कारों में.

     श्रीमती महेश्वरी याद करती हैं, “24 अक्टूबर का दिन बहुत ही यादगार रहा. इस दिन हम लोग प्रसिद्ध रिला मोनेस्ट्री देखने गये. इस मोनेस्ट्री का बहुत गहरा संबंध बुल्गारिया के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ रहा हैहेलीकॉप्टर से रिला मोनेस्ट्री का यह रास्ता इतना सुंदर दिखता था कि शब्दों में बयान करना मुश्किल है. रंगों के इतने शेड्स, लाल, भूरी, पीली, हरी, काली, न जाने कितने रंगों की पत्तियों से लदे पेड़ एक अजीब रोमांचक दृश्य पैदाकर रहे थे. मेरी इच्छा हो रही थी कि हमारा हेलीकॉप्टर रुक जाए और हम करीब से जाकर प्रकृति के इस मनोहारी रूप का दर्शन लाभ कर सकें. लेकिन जाहिर है, वहां हेलीकॉप्टर रुक नहीं सकता था.” 

    जब हेलीकॉप्टर से इस तरह का मनोहारी दृश्य दिख रहा था तो समझा जा सकता है कि हम लोगों ने सड़क मार्ग से क्या अनुभव किया होगा. रास्ते में सड़क के दोनों तरफ जंगली पेड़-पौधे और फूल अपने रंगों से इस तरह की छटा बिखेर रहे थे, मानो समूचे पहाड़ पर किसी ने रंगों के मिश्रण से बेहतरीन पेंटिंग्स की हों. लौटते समय जगह-जगह काफिले को रुकवाकर हम सबने तस्वीरें उतरवाईं

 

    हरमिट संत इवान रिल्स की स्मृति में नौवीं-दसवीं शताब्दी में बनी इस मोनेस्ट्री में मुख्य पादरी बिशप जॉन के आतिथ्य में डा. कलाम वहां तकरीबन एक घंटे तक रहे और मोनेस्ट्री के इतिहास, भूगोल और इसके स्थापत्य आदि के बारे में जानकारी लेते रहे. शहर से दूर इतनी सुनसान और अलग-थलग जगह में इतनी बड़ी, सुंदर और कलात्मक मोनास्ट्री‍! बिशप जॉन ने हम सबको पूरी मोनेस्ट्री में घुमाया. वहां स्कूलों से आए बच्चे-बच्चियां भी घूम देख रहे थे.

     मोनेस्ट्री के नीचे दोनों तरफ रिल्सका और ड्रुसियावित्सा नदियों की कल-कल बहती धारा बरबस ही ध्यान आकर्षित कर रही थी. पता चला कि बुल्गारिया के दक्षिण पश्चिम में स्थित यह मोनेस्ट्री कभी, 14वीं-15वीं सदी में ओटोमन तुर्क शासकों के जमाने में जल कर राख हो गई थी लेकिन बाद में इसका भव्य जीर्णोद्धार किया गया था. कलाम साहब के थोड़ा परे हटते ही मोनास्ट्री के लोग हम, मीडिया के लोगों को बिशप जॉन के कार्यालय में ले गए. 80-90 साल के इस बिशप से मिलना भी एक सुखद संयोग ही कहा जा सकता है. उनके साथ बैठकर हम लोगों को मठ के प्रसाद के बतौर पेश की गई शराब नीटही गटकनी पड़ी थी.

    डा. कलाम ने बिशप जॉन की अनुमति से मोनेस्ट्री में प्रार्थना की कि दुनिया में सभी धर्मों को एक साथ आकर अच्छाई, दया और परोपकार को बढ़ावा देना चाहिए. उन्होंने संत फ्रांसिस की दो पंक्तियों का उच्चारण कर वहां मौजूद सभी लोगों से उसे दोहराने को कहा. डा. कलाम ने कहा, “हे ईश्वर, मुझे अपना शांतिदूत बनाओ ताकि जहां नफरत हो, वहां मैं प्यार और दया के बीज बो सकूं.’’ इससे प्रभावित बुजुर्ग बिशप जॉन ने डा. कलाम से कहा, “आप विश्व शांति के लिए काम करें.” इससे पहले डा. कलाम ने वहां कहा कि धर्म नहीं बल्कि धर्मांधता और धार्मिक कठमुल्लापन के चलते दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तमाम तरह के संघर्ष और विवाद हो रहे हैं. धर्मांधता और कट्टरपंथ के चलते ही दुनिया भर में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, और जुडाइज्म के समर्थकों के बीच युद्ध और हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं. उन्होंने कहा कि धर्म को अध्यात्म की ओर बढ़ना चाहिए ताकि दुनिया में शांति कायम हो सके. प्रगति, विकास और संपन्नता के लिए शांति आवश्यक शर्त है. यह सब मिलकर ही दुनिया को खूबसूरत और खुशहाल बना सकते हैं

    सरला महेश्वरी याद करती हैं, “इसी दिन रात को वहां हिलटन होटल में भारत के राजदूत द्वारा हमारे सम्मान में रात्रिभोज था. भोजन के बाद हमें आज ही लौटना था, दिल्ली के लिए. भोजन के दौरान ही राष्ट्रपति जी ने मुझे कहा कि देखो हमारी यात्रा के बारे में आप मुझे आज ही एक नोट बनाकर दे दो क्योंकि सुबह मैं प्रधानमंत्री जी से इस बाबत मिलना चाहता हूं ताकि इस यात्रा के बारे में कुछ ठोस सुझाव हम उनके सामने रख सकें. मैंने पूछा कि क्या आपको आज ही चाहिए. उन्होंने कहा कि आप आज ही, सोने से पहले मुझे विमान में दे दें. मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया. रास्ते में एक छोटा-सा नोट तैयार करके विमान में थमा दिया, काफी खुश हुए. मैंने उनसे कहा कि सर आपकी टीम बहुत अच्छी थी. उन्होंने कहा कि नहीं, आपका साथ भी अच्छा था. इस यात्रा के दौरान वास्तव में भारत के राष्ट्रपति का एक बिल्कुल नया परिचय हुआ. एक जमीन से उठा हुआ व्यक्ति जो इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर भी अपनी जड़ों से विलग नहीं हुआ. और एक लक्ष्य को लेकर किस तरह समर्पित भाव से बिना थके उस ओर तेजी से बढ़ने के लिये बेचैन है.”

    अपनी सात-आठ दिनों की इस यात्रा में डा. कलाम जहां-जहां गए, वहां रह रहे भारतीयों, बच्चों और छात्रों से अवश्य मिले. बच्चों और छात्रों के बीच सभी तरह की औपचारिकताओं को छोड़कर वह एक स्कूल टीचर अथवा प्रोफेसर के रूप में ही मिलते, अपनी बातें सुनाते और फिर बच्चों-छात्रों को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित करते. वह प्रायः सभी सवालों के जवाब भी देते. अगर समय समाप्त हो रहा हो और प्रश्न बाकी रह रहे हों तो वह बाकायदा अपने राष्ट्रपति भवन के वेबसाइट और ईमेल का पता देकर कहते कि आप अपने सवाल मेल कर दो, जवाब वह अवश्य भेजेंगे

    एक देश से दूसरे देश जाने के क्रम में विमान यात्राओं के दौरान वह दिन में एक बार जरूर आकर मीडिया के लोगों से मुखातिब होते, उनका कुशल क्षेम जानते और बातें भी करते. एक बार तो वह जब विमान में हम लोगों के बीच आए तो हम सब प्रायः खा-पीकर सोने की तैयारी में थे. आकर उन्होंने पूछा सब ठीक है न! हक्के-बक्के हम लोगों ने उन्हें बिठाया और कुछ बातें भी की

 

Saturday, 15 August 2020

Quit India Movement and Madhuban

याद करो कुरबानी (2)

 मधुबन थाना गोलीकांड

मधुबन थाना गोलीकांड के बारे में प्रामाणिक दस्तावेज-साहित्य बहुत कम मिलता है. बचपन में पिताजी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विष्णुदेव स्वाधीनता संग्राम के अंतिम चरण, अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ और उसमें मधुबन के लोगों और अपने योगदान के बारे में बताते थे, लेकिन तब हमारे पल्ले उनकी बातें कुछ खास नहीं पड़ती थीं. इतना भर जानते थे कि वह स्वतंत्रता सेनानी हैं जिनके कारण हम तीन भाइयों और बहन की शहीद इंटर कॉलेज मधुबन में फीस माफ थी और छात्रवृत्ति भी मिलती थी. बाद में जब समझने, समझाने लायक बना तब भी उनसे छिटपुट जानकारियां ही जमा हो सकीं. पूरा विवरण कलमबद्ध करने का हम पिता-पुत्र का आपसी वादा टलते रहा जो कभी पूरा नहीं हो सका. वर्षों पहले, पिता जी के दिवंगत हो जाने के बाद एक बार मधुबन प्रवास के दौरान दुबारी में जनता इंटर कॉलेज के प्रबंधक, स्वतंत्रता सेनानी मंगलदेव ऋषि से मुलाकात के दौरान जब वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन के योगदान के बारे में सिलसिलेवार बताने लगे तो हमने उसे कलमबद्ध कर लिया था लेकिन वह नोट बुक कहीं दबी पड़ी रही. काफी मशक्कत के बाद कुछ दिन पहले उक्त नोटबुक मिल गई. इसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में आजमगढ और मधुबन के योगदान के बारे में प्रकाशित एक विशेषांक में आजमगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी सूर्यवंश पुरी जी का एक लेख मिल गया जिससे मधुबन कांड के बारे में जानने-समझने में सहूलत हुई. इस बीच हमारे गांव कठघराशंकर में रह रहे भतीजे रजनीश बरनवाल, एडवोकेट को पिताजी के हस्तलिखित संस्मरण के कुछ पन्ने मिल गये हैं जिनसे उस समय की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन के लोगों और खासतौर से उनकी भूमिका का पता चलता है. लेकिन उनकी लिखावट को पढ़ पाना दुरूह कार्य है. रजनीश इस काम में लगे हैं. उन्होंने उसमें से कुछ विवरण भेजा भी है. इन सबको संजो, संपादित कर हम यह आलेख प्रस्तुत कर पा रहे हैं. हम इतिहासकार नहीं बल्कि पत्रकार हैं. इस आलेख में कुछ त्रुटियां संभव हैं, कुछ विवरण छूट भी गये हो सकते हैं. सुधार और संशोधन की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी. अगले वर्ष इधर- उधर बिखरे दस्तावेजों को खोज-खंगालकर एक पुस्तिका के प्रकाशन का इरादा है.

 अगस्त क्रांति और पिता जी, विष्णुदेव

पिता जी, विष्णुदेव बताते थे कि किस तरह किशोरावस्था में ही उनपर और उनके साथी युवाओं पर आजादी का जुनून सवार हो गया था. फतेहपुर जूनियर हाई स्कूल से मिडल तक की पढ़ाई के समय से ही वह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. उनके पिता जी (हमारे दादा जी) चतुरी राम की ननऊर (नंदौर) गांव में कपड़े की बड़ी दुकान थी. लेकिन उनके बड़े बेटे, विष्णुदेव का मन पढ़ाई और दुकानदारी में कम ही लगता था. वह भूमिगत क्रांतिकारियों, कांग्रेस की गतिविधियों में शामिल होने लगे. 1938 में 18 वर्ष की उम्र में वह ब्लाक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बन गए थे. साल भर बाद उनका संपर्क क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह और चंद्रेशेखर आजाद के संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एसोसिएशन)’ के लोगों से हो गया था. इस संबंध में वह खुद लिखते हैं, “1937 में देश के क्रांतिकारी योगेश चटर्जी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामदुलारे अंडमान जेल से रिहा होकर गोरखपुर आये थे. मैं, वहां अपनी सास के इलाज के लिए गया था. कौतूहलवश मैं उनके संपर्क में आया और फिर मेरा संबंध ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' से हो गया. मैं इनके संपर्क में रहकर गुप्त रूप से कार्य करने लगा. उन दिनों दल का काम था, सशस्त्र क्रांति की तैयारी.

वह लिखते हैं, “1940-41 में पूज्य महात्मा गांधी के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन चला. आदतन खादी पहनने, सूत कातने व संयमी जीवन व्यतीत करने वाले कांग्रेस के पदाधिकारियों व सदस्यों को ही सत्याग्रह करने की अनुमति मिली थी. उस समय मैं अपने मंडल कांग्रेस कमेटी का कोषाध्यक्ष था. मेरे सत्याग्रह की तिथि 7 अप्रैल निश्चित थी. लेकिन सत्याग्रह के तय समय से पहले ही मुझे मेरे घर से गिरफ्तार कर मधुबन थाने में रखा गया.  दूसरे दिन किरिहड़ापुर रेलवे स्टेशन होकर आजमगढ़ ले जाए गये और जिला जेल में बंद किए गये. यह मेरी पहली जेल यात्रा थी. मुझे छः माह की सख्त कैद व 15 रुपये जुर्माने की सज़ा हुई थी. जेल में मुझे समाजवादी विचारधारा का अध्ययन करने व शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला और मैं समाजवादी हो गया. सितंबर 1941 में मैं जेल से रिहा हुआ. फिर कुछ समय अपनी दुकान का काम देखकर कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय रहता था. इस दौरान समाजवादी नेताओं से मेरा संपर्क बढ़ता रहा. 1942 में पूज्य महात्मा गांधी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की रजत जयंती समारोह में आए थे. प्रथम बार उन्हें निकट से भी देखने व उनका भाषण सुनने का मुझे सुअवसर मिला था.”

हरहाल, भारत छोड़ो आंदोलन के तहत 16 अगस्त को घोसी और उससे पहले मधुबन थाने पर कब्जा कर तिरंगा फहराने की योजना का पता पुलिस को चल गया था. 13 अगस्त 1942 को मधुबन के थानेदार मुक्तेश्वर सिंह ने दुबारी में कांग्रेस के मंडल कार्यालय पर छापा मारकर उसे ध्वस्त करवा दिया. क्षेत्र के लोगों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया. मंगलदेव (शास्त्री) ऋषि के अनुसार जन कार्रवाई की योजना पर चर्चा करने के लिए 13 अगस्त को गोबरही गांव में मंगला सिंह के घर कांग्रेस के नेताओं की बैठक में जिले के वरिष्ठ कांग्रेस समाजवादी नेता राम सुंदर पांडेय, गोरखनाथ शुक्ल, लोची सिंह और मंगलदेव (पांडेय) शास्त्री के साथ ही घोसी तहसील के अधिकांश कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. तय हुआ कि जनता को साथ लेकर घोसी तहसील पर कब्जा किया जाए. श्री ऋषि के अनुसार बैठक के बाद वह कमलसागर आए. वहां राम नक्षत्र पांडेय लाठी में तिरंगा टांगे कहीं जा रहे थे. पूछने पर बताया कि भिसहां गांव में फतेहपुर मंडल के कांग्रेसियों की बैठक हो रही है. शास्त्री भी उनके साथ हो लिए. भिसहां की बैठक में फैसला बदला गया और तय हुआ कि तहसील पर नहीं बल्कि 15 अगस्त को दिन में 2 बजे मधुबन में ही जनता की भीड़ के साथ थाने पर कब्जा कर तिरंगा फहराया जाएगा. इसकी विधिवत घोषणा 14 अगस्त को दुबारी गांव में हुई सभा में रामसुंदर पांडेय ने अपने ओजस्वी भाषण में कर दी थी. इस आशय के संदेश तुरंत सभी पड़ोसी गांवों में भेज दिए गए. 14 अगस्त की सुबह जन कार्रवाई की तैयारी के सिलसिले में बीबीपुर जाने के लिए निकले गोरखनाथ शुक्ल को मूरत गोंड एवं झिनकू चौहान के साथ मधुबन के पास हिराजपट्टी संस्कृत पाठशाला से गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी गिरफ्तारी की खबर फैलते ही दुबारी गांव के कई लोग उन्हें पुलिस हिरासत से रिहा कराने के उद्देश्य से इकट्ठा हुए. लेकिन जिला प्रशासन ने जल्दबाजी में उन्हें आजमगढ़ जेल भेज दिया.

14 अगस्त को ही, बनारस-भटनी रेलवे मार्ग पर मधुबन के करीब लेकिन बलिया जिले में स्थित किरिहड़ापुर और बेल्थरा रोड आदि कई स्टेशनों पर जमा जन समूह ने तोड़ फोड़ की. बेल्थरा रोड में रेलवे स्टेशन लूटा जा रहा था, कहीं मालगाड़ी लूटी जा रही थी तो कहीं रेल की पटरी उखाड़ी जा रही थी. टेलीफोन के तार काटे जा रहे थे. उसी दिन घोसी और मधुबन में भी पुलिस के पास सूचनाएं पहुंची कि भारी 'जन समूह' आगे पश्चिम की ओर बढ़ने से पहले मधुबन और घोसी की ओर कूच करेगा. इसकी तथा स्थानीय स्तर पर भी कांग्रेस के आंदोलनकारियों की योजना और तैयारियों की सूचना जिला कलेक्टर और मजिस्ट्रेट आर.एच. निबलेट को भी भेज दी गई. यह सुनकर कि मधुबन थाने पर हमला करने की योजना बनाई गई है, कलेक्टर ने सर्किल अफसर सुदेश्वरी सिंह, दो सब-इंस्पेक्टर, दो अंडर ऑफिसर, 17 कांस्टेबल और 42 चौकीदारों के साथ खुद 15 अगस्त की सुबह से ही मधुबन थाने में डेरा डाल लिया.

धुबन थाने के अपराध विवरण रजिस्टर में लिखा है, ‘‘कौड़ी सिंह जमींदार, दुबारी की मदद से थाने की हिफाजत का इंतजाम रात में ही कर लिया गया और इसकी सूचना जिले के आला अफसरों को भी दे दी गई. रामपुर पुलिस चौकी से असलहे (हथियार) और सिपाही रात में ही हटा लिए गए. 15 अगस्त को सबेरे खबर मिली कि एक बड़ी भीड़ गाते बजाते, नारे लगाते, कांग्रेसी झंडे लिए रामपुर चौकी लूटते-फूंकते गई है. उनका प्रोग्राम फतेहपुर डाकखाना, मधुबन डाकखाना और मधुबन थाना लूटने और फूंकने का है. वहां से बाद कामयाबी घोसी तहसील, रेलवे स्टेशन, डाकखाना लूटते फूंकते मुहम्मदाबाद तहसील पर कब्जा करते सदर आजमगढ़ पर हमला करने का है. थाने की हिफाजत के लिए चौकीदार इकट्ठा किए गए. खुशकिस्मती से जब यह काम हो चुका था, जनाब मिस्टर आर एच निबलेट कलेक्टर साहेब बहादुर भी ठाकुर सुदेश्वरी सिंह हल्का मौजूद डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बहादुर दो नफर हथियारबंद सिपाही लेकर मधुबन थाना पर तशरीफ फरमा हुए और वाकयात को सुनकर थाने की सुरक्षा में मशरूफ हुए.”   दूसरी तरफ, आंदोलनकारी भी 15 अगस्त की सुबह ही सक्रिय हो गए थे. मधुबन के रास्ते में जो भी सरकारी कार्यालय, पुलिस चौकी, पोस्ट आफिस मिले, उन्हें नष्ट करते मधुबन पहुंचने का निर्णय लिया गया था. रामवृक्ष चौबे, विष्णुदेव, रामनक्षत्र पांडेय, शंकर वर्मा, ठाकुर तिवारी, रमापति तिवारी और अन्य लोगों ने रामपुर चौकी, डाकघर पर हमला किया और सभी सरकारी कागजात नष्ट कर दिए. जन समूह ने वहां भवन पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्र होने और खुद मुख्तारी की घोषणा की. उत्साही भीड़ ने आगे रास्ते में फ़तेहपुर डाकघर को भी तहस-नहस कर दिया. मधुबन पहुंचने से पहले उन्होंने कठघरा शंकर में शराब की दुकान और मवेशी खाने को ध्वस्त किया.

मंगलदेव शास्त्री के अनुसार चारों दिशाओं से जनता के जत्थे मधुबन थाने की ओर बढ़ने लगे थे. दुबारी से रामसुंदर पांडेय, मंगलदेव तो फतेहपुर की ओर से रामबृक्ष चौबे, रामनक्षत्र पांडेय और विष्णुदेव गुप्ता, के साथ सैकडों लोगों का हुजूम रामपुर का डाकखाना, फतेहपुर की पुलिस चौकी लूटते हुए गांगेबीर गांव के पास जमा हुआ. वहां से लोग जुलूस की शक्ल में थाने की ओर बढ़े. पश्चिम की ओर से राम विलास पांडेय और श्यामसुंदर मिश्र के नेतृत्व में जन समूह दोहरीघाट और घोसी, बीबीपुर, सिपाह, सूरजपुर, दरगाह होते हुए मधुबन पहुंचे. दोपहर 2 बजे तक मधुबन में तकरीबन दस हजार लोग जमा हो गए थे.

नता का जुलूस मधुबन थाने के पास जाकर रुक गया. विष्णुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं, “तय हुआ कि दो नेता, मंगलदेव शास्त्री (ऋषि जी) और रामवृक्ष चौबे जी थाने में जाकर बात करें. ये लोग थाने में गये और सर्किल इंस्पेक्टर सुदीश्वर सिंह से कहा, ‘देश आजाद हो गया है. जनता का राज कायम हो गया है. आप लोग आत्मसमर्पण करो. हम थाने पर तिरंगा (राष्ट्रीय ध्वज) फहराएंगे.’ लेकिन सर्किल इंस्पेक्टर ने कहा कि आज आप लोग प्रदर्शनकारियों के साथ लौट जाएं. कलेक्टर पूरी फोर्स-तैयारी के साथ थाने में हैं. दूसरे दिन जो चाहे कीजिएगा. हमारे नेताओं ने कहा हमारे साथ इतने लोग हैं, हम तो झंडा फहराएंगे. अंत में सर्किल इंस्पेक्टर ने कहा,  अच्छा जाइए, इसे चौरी चौरा अथवा जलियांवाला कांड मत बनाइए. बातचीत से निराश हो दोनों नेता थाने से यह कहते हुए बाहर निकले कि अफसरों का अगर यही रुख है तो फिर यहां भी हमें वही करना होगा जो हमने दूसरी जगहों पर किया है.”

 इस बीच साहस और दृढ़ संकल्प के साथ जुलूस 'वंदे मातरम', 'इंकलाब जिंदाबाद', ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘अंग्रेजों वापस जाओ’ और 'गांधी जी की जय' के नारों के साथ थाने की ओर बढ़ा. भीड़ में शामिल कुछ लोगों के हाथों में लाठियां और रास्ते में चुने गए कंकर-पत्थर के टुकड़े थे. भीड़ अपने नेताओं के आदेश की प्रतीक्षा में थी. भीड़ का सामना करने के लिए पुलिस के अधिकारी और हथियारबंद जवान भी पूरी तरह से तैयार थे. थाने की छतों पर हथियारबंद पुलिस के जवान मंडराने लगे थे. थाने की खिड़कियों और सुराखों से बंदूकों की नली बाहर झांकने लगी थीं. लेकिन इसका उत्साहित और उत्तेजित जनता पर खास असर नहीं पड़ रहा था. गांधी जी के ‘करो या मरो’ मंत्र ने उनके भीतर का डर गायब कर दिया था. लोग थाने के मुख्य दरवाजे के पास तक पहुंच गए थे. रामबृक्ष चौबे और मंगलदेव ऋषि को बाहर निकलते देख दाढ़ी, जटा रखे कैथौली गांव के एक उत्साही युवक रामनरायन उर्फ बहादुरलाल श्रीवास्तव ने मंगलदेव शास्त्री को कंधे पर उठा लिया और जोर से चिल्लाया, ‘आदेश हो गया है. आगे बढ़ो.’ भीड़ तो जैसे यही सुनने को ब्याकुल थी. थाने पर सबसे पहले झंडा फहराने का गौरव हासिल करने के लिए कई दिशाओं से नौजवान आगे बढ़े. उनके पीछे 'इन्कलाब जिंदाबाद', 'अंग्रेजों वापस जाओ', 'करेंगे या मरेंगे', 'भारत माता की जय' और 'महात्मा गांधी' की जय के नारे लगाते हुए हजारों लोगों का जन समूह भी थाने की ओर चल पड़ा. भीड़ से कुछ लोग थाने को लक्ष्य कर ढेला पत्थर भी चलाने लगे. यह देख जिला कलेक्टर निबलेट ने ‘फायर’ कहकर गोली चलाने का आदेश दे दिया. इसके साथ ही थाने की छत और दीवारों के पीछे से पुलिस की बंदूकें गरज उठीं. पूरब की ओर से हाथ में तिरंगा लिए थाने में घुस रहे राम नक्षत्र पांडेय को पहली गोली लगी और मधुबन में मातृभूमि के लिए प्रथम शहीद होने का गौरव उन्हें ही प्राप्त हुआ. उसके बाद उत्तर की ओर से रमापति तिवारी आगे बढ़े और पुलिस की गोलियों से छलनी होकर शहीद हो गए. फिर तो तिरंगा लिए आगे बढ़ने की होड़ सी लग गई. लोग पुलिस की अंधाधुंध गोलियों से घायल होकर गिरने लगे. कौन किधर गिरकर मर रहा है और कौन घायल पड़ा है किसी को सुध ही नहीं रही. भीड़ से जवाबी पत्थरबाजी भी हो रही थी. एक पत्थर थाने की छत से घात लगाकर गोलियां बरसा रहे रहे सिपाही हासिम को लगा. वह वहीं गिर गया. उसके हाथ से बंदूक छूट कर नीचे गिर गई. भीड़ ने विजय प्रतीक के रूप में बंदूक ले ली लेकिन अहिंसा व्रत के पालन की शपथ के कारण किसी ने हासिम को हाथ भी नहीं लगाया. उसके गिरते ही जन समूह नये जोश के साथ थाने की ओर बढ़ चला. लगातार दो-तीन घंटे तक जन समूह की पत्थरबाजी और पुलिस की गोलीबारी चलती रहा. कितने मरे, कितने घायल हुए, किसी को सुध नहीं थी. विष्णुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं, “पुलिस की गोलियों से करीब 15 लोग शहीद हुए. सैकड़ों गोली से घायल हुए. मैं उस समय लाल रंग का हाफ पैंट-कमीज़ पहने था. मेरे बगल से धांय की आवाज करते पुलिस की गोली निकल गई. मैं गिर पड़ा लेकिन चोट नहीं लगी थी. फिर उठकर देखा कि भीड़ पीछे हट रही है. मैं भी भीड़ के साथ पीछे चला गया. उधर थाने से गोली चलते देखकर एक चौकीदार यादव थाने से भागने लगा तो उसे भी गोली मार दी गई. वह वहीं ढेर हो गया.”  

 जिला कलेक्टर निबलेट के अनुसार, '119 राउंड (मस्कट से 86रिवाल्वर से 27निजी बंदूकों से 6 राउंड) से अधिक फायरिंग की गई थी.' जमीन लहू लुहान थी. थोड़ी देर बाद, रात के आठ बजे से भीड़ छंटने लगी. लोग शहीद सेनानियों और घायलों की पहिचान कर सुरक्षित और उपयुक्त स्थान पर ले जाने लगे. उधर थाने में भी गोलियों का स्टॉक कम होते जाने से गोलीबारी धीमी पड़ने लगी. लेकिन थाने की घेरा बंदी थोड़ी दूर से भी जारी रही. ताकि जिला कलेक्टर एवं अन्य अधिकारी निकल कर भाग न सकें. थाने के बाहर सड़क पर सभी तरफ के रास्ते और पुलिया काट दी गई. यह स्थिति अगले दो तीन दिनों तक बनी रही. निबलेट और अन्य अधिकारी वस्तुतः दो रात और तीन दिनों के लिए थाने के भीतर ही कैद से रहे. बाद में आजमगढ़ से फौज की टुकड़ी और अतिरिक्त पुलिस के आने के बाद ही वे लोग बाहर आ सके. निबलेट 17 अगस्त की रात को आजमगढ़ पहुंचे.

    धुबन थाने में इस घटना के बारे में दर्ज रिकार्ड के अनुसार “उत्तेजित भीड़ का रुख देखकर जिला मजिस्ट्रेट बहादुर को गोली चलाने का हुक्म देना पड़ा और गोली चलनी शुरू हो गई. करीब दो घंटे तक बाकायदा जंग रही जिसमें कई कांस्टेबिल भी घायल हुए. बलवाइयों के बहुत सारे आदमी घायल और हलाक हुए (मारे गये). रात के नौ बजे के करीब मैदान साफ हो गया. लेकिन तब भी हालत खतरे से खाली नहीं थी. बलवाइयों ने मधुबन-घोसी रोड को भी काट डाला था ताकि कलेक्टर साहब बाहर नहीं जा सकें. यह सूरत महसूरी (घेराव) दो रात तीन दिन तक कायम रही जब तक कि सदर (आजमगढ़) से काफी फोर्स-इमदाद नहीं पहुंच गई. जुमला इलाका (संपूर्ण क्षेत्र) बागी हो गया था. फौजी इमदाद पहुंचने तक मुलाजिमान (कर्मचारियों) का थाने से बाहर निकलना खतरनाक रहा.”

 छह-सात घंटे के थाने के घेराव और संघर्ष में कितने सेनानी शहीद हुए और कितने घायल हुए, इसकी सही और प्रामाणिक संख्या का पता नहीं. शवों की पहिचान के आधार पर कुछ लोगों के नाम मिले हैं. इन वीर शहीदों के नाम मधुबन और कठघराशंकर में भी बने शहीद स्मारकों पर अंकित हैं. इनमें बनवारी यादव (कठघरा), हनीफ दर्जी (गुरुम्हा), कुमार मांझी (मर्यादपुर), लखनपति कोइरी (नेवादा), मुन्नी कुंवर (तिघरा), रामनक्षत्र पांडे (कंधरापुर), राजदेव कांदू (रामपुर), रघुनाथ भर (तकिया), रमापति तिवारी (तिनहरी), सोमर गड़ेरी (मर्यादपुर), शिवदान हरिजन (पहाड़ीपुर), भागवत सिंह (कुचाई), बंधु नोनिया (माछिल) तथा कैथौली के रामनारायण उर्फ ​​बहादुर लाल श्रीवास्तव (इनका नाम शहीद स्मारक पर अंकित नहीं है लेकिन इनकी शहादत की पुष्टि अन्य कई सरकारी दस्तावेजों और स्वतंत्रता सेनानियों के संस्मरणों से भी हुई है). घायलों में से कम से कम दो स्वतंतत्रता सेनानी हमारे पिता जी के बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगियों, पांती गांव के जामवंत प्रसाद गुप्ता और अहिरौली के कन्हई भर को तो हमने बाद के वर्षों में भी देखा था. जामवंत प्रसाद के गले के पास की हड्डी को पार करते हुए गोली निकल गई थी जबकि कन्हई भर को गोली पैर में लगी थी. घाव इतना गहरा था कि वह जीवन पर्यंत लंगड़ाकर ही चलते रहे. लोग उन्हें लंगड़ कह कर भी बुलाते थे. पांती गांव के राम नरायन मल्ल भी घायल हुए थे. घायलों की पूरी सूची हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है. लेकिन मधुबन के शहीद और घायल सेनानियों के नाम देखने से पता चलता है कि उनमें सभी धर्म और जातियों के लोग थे. सही मायने में वह साझी शहादत पर आधारित जनांदोलन था.

    जिला कलेक्टर और फौज के लौट जाने के बाद पूरे मधुबन इलाके में पुलिस का भारी दमन चक्र चला. शहीदों और घायलों की खोज कर उनके परिवारवालों को प्रताड़ित किया गया. नेताओं की खोज में गांव-गांव पुलिस की दबिश बढ़ी. शक की बिना और चौकीदारों की सूचना पर भी उनके घर, मकानों को जलाना-फूंकना और लूटना शुरू हुआ. लोग गिरफ्तार किए जाने लगे. स्थानीय नेता फरार हो गए जबकि घायलों और शहीदों के परिवारों के लोग चुपचाप गम के आंसू पी गए. भेद खुल जाने के भय से उन्होंने आह भी नहीं भरी. इस क्रम में हमारे पिताजी (विष्णुदेव गुप्त) का ननऊर (नंदौर) का घर जला दिया गया था. गांव से नंदलाल मल्ल और लाली गड़ेरी गिरफ्तार किए गए थे. भूमिगत होकर आंदोलन में सक्रिय रहे विष्णुदेव अपनी फरारी और भूमिगत जीवन के बारे में लिखते हैं, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी से संबंध के कारण मेरे पास पिस्तौल थी. कुछ फरार क्रांतिकारियों के साथ कई योजनाएं बनीं. उन दिनों मैं देवरिया जिले के कपड़वार में स्थित अपनी ससुराल में रह रहा था. देवरिया के कलेक्टर को गोली मारने की योजना में मैं भी शामिल था लेकिन वह योजना सफल नहीं हो सकी. कपड़वार में फरारी के दिनों में एक दिन सवेरे नदी किनारे टहलते समय गांव के चौकीदार व सिपाहियों से भेंट हो गई. उन्होंने मुझे पहचान लिया और पकड़ना चाहा. मैंने पिस्तौल तान दिया और गोली मार देने का डर दिखा कर वहां से बच निकला. इस बीच सूचना मिली कि मुझे हाज़िर करवाने की गरज से  घर के लोगों को बहुत तंग किया जा रहा था.” 

16 नवंबर 1942 को ‘अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट दो’ के आह्वानवाले पर्चों के साथ विष्णुदेव गिरफ्तार कर लिए गए. इस मुकदमे में उन्हें दो वर्ष की तथा मधुबन थाना कांड में शामिल होने के आरोप में दस और तीन साल की सजा हुई. जेल में रहते ही 1944 में उनके पिता चतुरी राम का निधन हो गया लेकिन वह जेल से बाहर नहीं आ सके. उनकी रिहाई 1946 में ही संभव हो सकी थी.   

आजमगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी आर. एच. निबलेट की निगाह में मधुबन की लड़ाई ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में लड़े जा रहे युद्धों की तुलना में किसी से कम नहीं थी. तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो ने अपने नोटिंग में बताया कि मधुबन की घटना के बारे में निबलेट से मिले विवरण ने 1857 की याद दिला दी.

नोटः 15 अगस्त 1942 को और उसके बाद मधुबन थाना कांड की प्रतिक्रिया में आजमगढ़ जिले और खासतौर से मधुबन के आसपास के इलाकों में हुई जन प्रतिक्रिया के बारे में अगली कड़ी में..

Friday, 14 August 2020

Quit India Movement : August Kranti and Madhuban

याद करो कुर्बानी

स्वाधीनता संग्राम में पूर्वी उत्तर प्रदेश

आजमगढ़, मधुबन का अमिट योगदान

जयशंकर गुप्त

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और करो या मरो के नारे के साथ अगस्त क्रांति के नाम से पूरी दुनिया में चर्चित 'भारत छोड़ो' जनांदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश और खासतौर से आजमगढ़ जिले का और उसमें भी मधुबन (अभी मऊ जिले में) इलाके का योगदान अभूतपूर्व रहा है. 1857 की गदर या कहें विद्रोह अथवा देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी आजमगढ़ के लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गदर के नायकों में से एक, फैजाबाद के मौलवी अहमद शाह का आजमगढ़ में बहुत प्रभाव था. अतरौलिया के राजा बेनी माधव, इरादत जहान और उनके बेटे मुजफ्फर जहान और हीरा पट्टी के ठाकुर परगन सिंह ने आजादी के इस पहले युद्ध में उनकी मदद की. तीन जून 1857 को रात 10 बजे, आजमगढ़ को स्वतंत्र घोषित कर बंधु सिंह के नेतृत्व में भारतीय ध्वज फहराया गया. प्रशासन का प्रबंधन ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह द्वारा संभाला गया था. इन नेताओं के अलावा, सरायमीर के मीर मंसब अली, मोहब्बतपुर के जगबंधन सिंह, रमाक दास, मोतीलाल अहीर, कुंजन सिंह, भैरव सिंह, रामगुलाम सिंह और कई अन्य लोगों ने भारत को औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्त करने के अपने प्रयासों को जारी रखा.

बताते हैं कि 1857 में मधुबन अंचल में बिहार से स्वाधीनता संग्राम के महान सेनानी बाबू कुंवर सिंह भी आए थे. स्थानीय लोगों ने बढ़-चढ़ कर उनका साथ दिया था. लेकिन इसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा. चंदेल ज़मींदारों की सात कोस की ज़मींदारी छीनकर उस अंग्रेज महिला को दे दी गयी जिसका पति इस आन्दोलन में मारा गया था. वीर कुंवर सिंह का साथ देने के आरोप में गांव के हरख सिंह, हुलास सिंह एवं बिहारी सिंह को बंदी बनाकर उन्हें सरेआम फांसी देने का हुक्म हुआ. बिहारी सिंह तो चकमा देकर भाग निकले लेकिन अन्य दो वीर सपूतों-हरख सिंह व हुलास सिंह को ग्राम दुबारी के बाग में नीम के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई थी.

इस घटना की समूचे क्षेत्र में प्रतिक्रिया हुई. दोहरीघाट, परदहां, अमिला, सूरजपुर आदि गांवों के लोगों ने माल गुजारी देनी बंद कर दी. इस दौरान स्वाधीनता की लड़ाई को संगठित स्वरूप देने का प्रयास किया जनपद के परदहा विकास खण्ड के ठाकुर जालिम सिंह ने. उन्होंने पृथ्वीपाल सिंह, राजा बेनी प्रसाद, इरादत जहां, मुहम्मद जहां, परगट सिंह आदि के साथ घूम-घूम कर स्वाधीनता की अलख जगायी. बाद में 03 जून,1857 को अपने सहयोगी सेनानियों के साथ जालिम सिंह ने आज़मगढ़ कलेक्ट्ररी कचहरी पर कब्जा कर उसे अंग्रेजों से मुक्त करा दिया. 22 दिनों तक आज़मगढ़ स्वतंत्र रहा. 26 जून को दोहरीघाट में रह रहे नील गोदाम के मालिक बेनीबुल्स ने बाहर से आयी अंग्रेजी फौज और अपनी कूटनीति से पुनः इस जिले पर कब्जा कर लिया और शुरू किया क्रूर दमन का सिलसिला. क्रांतिकारियों को सरेआम गोली से उड़ा देना, सार्वजनिक स्थानों पर फांसी और क्रूर यातनाएं आम बात हो गयी थीं. इसके बावजूद आजादी के दीवानों का अदम्य उत्साह कम नहीं हुआ और न ही उन्होंने संघर्ष की मशाल को मद्धिम होने दिया.

 3 अक्टूबर, 1929 को महात्मा गांधी के दौरे से आजमगढ़ जिले में कांग्रेस संगठन, आंदोलन को काफी मजबूती मिली. 1930 में 7 सदस्यों की जिला परिषद गठित की गई जिसमें सीताराम अस्थाना (अध्यक्ष जिला कांग्रेस कमेटी), ठाकुर सूर्यनाथ सिंह (प्रधान महाससचिव, जिला कांग्रेस कमेटी), भवानी प्रसाद, मुकुंद राय शर्मा, रामसुंदर सिंह, शिवफेर सिंह और रमाशंकर रावत सदस्य बनाए गये. विश्राम राय और शिवराम राय जैसे स्थानीय नेताओं ने कांग्रेस के आंदोलन को आजमगढ़ के ग्रामीण हिस्सों में फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1942 तक, पूरा जिला राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय हो गया था.

अगस्त क्रांतिःअंग्रेजों भारत छोड़ो

आठ अगस्त,1942 को बंबई के गवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस महासमिति की बैठक में महात्मा गांधी के अंग्रेजों ‘भारत छोड़ो’ और 'करो या मरो' के आह्वान के बाद अहिंसक क्रांति की ज्वाला पूरे देश में धधक उठी थी. नौ अगस्त को बंबई में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के बाद महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और कार्य समिति के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गये. कुछ भूमिगत हो गए थे. गांधी जी के आह्वान और नेताओं की गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. आम जनता सड़कों पर आ गई. यह मान लिया गया कि भारतीय स्वतंत्रता के लिए यह निर्णायक लड़ाई है. देश भर के छात्र-युवा, किसान, मजदूर, कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल होकर जगह-जगह इलाके की स्वतंत्रता और खुद मुख्तारी की घोषणा करने लगे. इसे अगस्त क्रांति आंदोलन का नाम दिया गया. इस आंदोलन की बागडोर मुख्य रूप से भूमिगत हो गए कांग्रेस के डा. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, हजारीबाग जेल से भागे जयप्रकाश नारायण और रामनंदन मिश्र, अरुणा आसफ अली, उषा मेहता, यूसुफ मेहर अली, अशोक मेहता, श्रीधर महादेव जोशी और जीजी पारिख सरीखे, कांग्रेस समाजवादी युवा नेताओं ने संभाल ली थी. अरुणा आसफ अली ने 9 अगस्त को सबसे पहले गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराया था. डा. लोहिया ने उषा मेहता एवं कुछ अन्य सहयोगियों के साथ भूमिगत रेडियो की व्यवस्था भी कायम कर ली थी. खुद को राष्ट्रवादी, हिंदुत्ववादी कहनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसंवक संघ, हिन्दू महा सभा के साथ ही मुस्लिम लीग भी इस जनांदोलन से अलग रहे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने ही कारणों से अगस्त क्रांति आंदोलन से दूरी बना ली थी. आरएसएस के लोगों की इस आंदोलन में भूमिका को लेकर पूछे गये एक सवाल के जवाब में गुरु जी के नाम से चर्चित इसके तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने कहा था कि अभी हमें अंग्रेजों के बजाय अपने अंदरूनी शत्रुओं-कम्युनिस्टों और अल्पसंख्यकों से लड़ना है. उस समय बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार साझा कर रहे हिन्दू महासभा के नेता, फजलुल हक की सरकार में वित्त मंत्री डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो अंग्रेज सरकार को पत्र लिखकर भारत छोड़ो आंदोलन और आंदोलनकारियों से सख्ती से निबटने के सुझाव भी दिए थे. गौरतलब है कि उस सरकार के प्रधानमंत्री फजलुल हक ने ही उससे पहले 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने का प्रस्ताव पेश किया था.

बहरहाल, अंग्रेजों ने भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया. भारी दमन चक्र चला. ऐसा माना जाता है कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का आखिरी सबसे बड़ा और निर्णायक जनांदोलन था, जिसमें सभी भारतवासियों ने जाति, धर्म और ऊंच-नीच का भेद मिटाकर एक साथ बड़े पैमाने पर एकजुट होकर भाग लिया था. कई जगह समानांतर सरकारें भी बनाकर खुद मुख्तारी भी घोषित की गई.

सुलग उठा पूर्वी उत्तर प्रदेश

जब पूरे देश में क्रांति और जनांदोलन की ज्वाला धधक रही हो, पूर्वी उत्तर प्रदेश की वीर वसुंधरा खामोश कैसे रह सकती थी. बनारस, गाजीपुर, बागी बलिया और आजमगढ़ के शहरी ही नहीं ग्रामीण इलाकों में भी अंग्रेजी राज के प्रति असंतोष, आक्रोश और जनांदोलन का ज्वार चरम पर था. भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के साथ पूरा आजमगढ़ जिला जन कार्रवाइयों की जद में आ गया था. सभी औपनिवेशिक प्रतीक और खासतौर से संचार माध्यम और पुलिस थाने आंदोलनकारियों के निशाने पर थे. थाना, पोस्ट आफिस, तहसील पर कब्जाकर तिरंगा फहराया जाने लगा. टेलीफोन के तार काट कर संचार प्रणाली को बाधित कर संबद्ध इलाके और जिले को शेष भारत से काट देने की कोशिश की गई.

आजमगढ़ में जनांदोलन कितना प्रबल था, इसे तत्कालीन जिला कलेक्टर आर. एच. निबलेट के इन शब्दों से भी समझ सकते हैं, “हर जगह परेशानी थी; लेकिन मुख्यतः जिले के पूर्वी हिस्से में समस्या अधिक थी. मधुबन और तरवा के पुलिस हलकों में नागरिक प्रशासन पूरी तरह से बाधित था और पुलिस अपने मुख्यालय की सीमाओं से बाहर कार्य नहीं कर सकती थी.”

9 अगस्त, 1942 को, आजमगढ़ में जिला कांग्रेस कार्यालय को जब्त कर लिया गया था. कई गिरफ्तारियां की गई थीं, जिला कांग्रेस के अध्यक्ष सीता राम अस्थाना और सच्चिदानंद पांडे को भी हिरासत में ले लिया गया. कांग्रेस के कई नेता और सक्रिय सदस्य गिरफ्तारी से बचने के लिए गांवों में चले गए. 10 अगस्त को कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी की ख़बरों से भड़क उठी जनता ने जगह-जगह हड़तालें आयोजित कीं और जुलूस निकालकर अंग्रेजी राज के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त की. शिबली जॉर्ज इंटरमीडिएट कॉलेज को छोड़कर सभी शैक्षणिक संस्थानों ने हड़ताल में भाग लिया. इस दिन कप्तानगंज के उमा शंकर मिश्रा, नेवादा के कृष्ण माधव लाल और आजमगढ़ के लल्लन प्रसाद वर्मा को गिरफ्तार किया गया. इन गिरफ्तारियों ने जिले में तनावपूर्ण स्थिति पैदा कर दी और वे नेता जिन पर पुलिस को संदेह नहीं था और जो अभी तक गुप्त रूप से आंदोलन में सक्रिय थे, उन्होंने समन्वित कार्रवाई के लिए लोगों को तैयार करना शुरू किया. जुलूस और प्रदर्शन 11 अगस्त को भी जारी रहा. सीता राम अस्थाना की रिहाई के लिए प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए कई छात्र जेल के गेट के सामने धरना देकर बैठ गए. 11 अगस्त की शाम तक, जिले के एक बड़े कांग्रेसी नेता, अलगू राय शास्त्री बंबई में कांग्रेस महाधिवेशन में भाग लेकर अपने गृह नगर अमिला (अभी मऊ जिले में) लौट आए थे. उन्होंने कुछ छात्र नेताओं से मुलाकात की और उन्हें कांग्रेस के कार्यक्रम के बारे में बताया. इससे पहले कि कोई कार्य-योजना चाक-चौबंद हो पाती, 12 अगस्त को काशी विद्यापीठ से चंद्रशेखर अस्थाना आजमगढ़ पहुंचे. वह अपने साथ एक पुस्तिका की प्रतियां लेकर आए, जिसमें गांधी जी के 'करो या मरो’ की सीमाएं बताई गई थीं. हालांकि वह बातें अलगू राय शास्त्री ने पहले ही समझा दी थी. भारत छोड़ो आंदोलन के लिए निर्देश स्पष्ट थे;

1. सभा और जुलूस आयोजित करना प्रांत के कार्यकर्ताओं-निवासियों का सर्वोपरि कर्तव्य है. पोस्टर-पर्चों के जरिए कांग्रेस के कार्यक्रम को जनता तक प्रसारित करना चाहिए.

2. सरकारी मशीनरी को पंगु बनाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए.

3. एक निश्चित समय और तिथि पर प्रत्येक प्रांत को अपनी स्वतंत्रता, खुद मुख्तारी की घोषणा करनी चाहिए.

4. स्वतंत्रता की घोषणा के बाद परिस्थितियों के अनुसार प्रत्येक प्रांत में आवश्यक निर्देश जारी किए जाने चाहिए.

5. कार्यक्रम को इसके विभिन्न चरणों के माध्यम से लागू किया जाना चाहिए और सितंबर के अंत तक समाप्त किया जाना चाहिए.

उपरोक्त निर्देशों के आलोक में श्रीकृष्ण पाठशाला के छात्रावास में रात 12 बजे एक बैठक आयोजित की गई. बैठक में अर्जुन सिंह, शिवराम राय, अक्षयवर शास्त्री, फूलबदन सिंह, रामधन राम, रामअधार और अन्य उपस्थित थे. सर्वसम्मति से तय हुआ कि तहसीलों और मंडलों में पूरे जिले में एक साथ विद्रोह करने के लिए लोगों को तैयार करना चाहिए ताकि आजमगढ़ में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें और शाखाओं को एक बार में उखाड़ फेंका जा सके. बैठक में नेताओं को अलग-अलग तहसीलों में जनांदोलन का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी तय कर रवाना कर दिया गया. अर्जुन सिंह, राघवराम सिंह, रामधन राम, बनारसी सोनार और शिव कुमार राय अपने छात्रों के समूह के साथ उत्तर में सगड़ी तहसील की ओर चले गए. उनका उद्देश्य रौनापार और जियनपुर पुलिस चौकी पर कब्जा करना था. उसके बाद उनका उद्देश्य डाकघर और तहसील कार्यालय पर कब्जा करना था. रामधारी राय और गोविंद राय के साथ एक और समूह रानी की सराय के लिए रवाना हुआ। मार्कंडेय सिंह के नेतृत्व में मुक्तिनाथ राय, अवधनाथ सिंह, माताभीख सिंह, राम समर सिंह और कुछ अन्य लोग पश्चिम की ओर चले गए. उनका उद्देश्य अतरौलिया क्षेत्र में डाकघरों को नष्ट करने के बाद कंधरापुर, महराजगंज और अतरौलिया पुलिस स्टेशन पर कब्जा करने का था.

हरि प्रसाद गुप्ता, श्यामरथी सिंह और विंध्याचल सिंह के नेतृत्व में एक चौथे समूह ने मुहम्मदाबाद और खुरहट की ओर कूच किया. लालगंज तहसील की जिम्मेदारी सूर्यवंश पुरी पर थी. अक्षयवर शास्त्री, लाल सिंह और जगन्नाथ राय को घोसी की महत्वपूर्ण तहसील सौंपी गई थी जिसमें मधुबन पुलिस थाना था.

शहरी क्षेत्रों में जुलूस-प्रदर्शन और हड़ताल के रूप में जन कार्रवाई जारी रही लेकिन आजमगढ़ में आंदोलन की एक दिलचस्प विशेषता यह थी कि जन कार्रवाई की बड़ी घटनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक हुईं.

 मधुबन में थाने पर ‘जनता राज’

 मधुबन आजमगढ़ जिले का सबसे दूरस्थ सर्कल था. यह तत्कालीन गोरखपुर और बलिया जिलों की सीमाओं के साथ लगा अत्यंत पिछड़ा इलाका था. यहां पक्की सड़कों और रेलवे से संपर्क नहीं था (रेल संपर्क तो अब भी नहीं है). निकटतम रेलवे स्टेशन घोसी (10 मील) और बेल्थरा रोड (14 मील) था. इस इलाके में कांग्रेस और समाजवादियों का मजबूत आधार था. मधुबन किसान आंदोलनों के कारण भी चर्चित था. भारत छोड़ो आंदोलन के तहत कांग्रेस और इसके भीतर सक्रिय समाजवादियों के नेतृत्व में 15 अगस्त 1942 को पूर्व निर्धारित और पूर्व घोषित कार्यक्रम के तहत हजारों छात्र-युवा, ग्रामीण किसानों की भीड़ ने मधुबन थाने को घेर लिया था. थाने पर तिरंगा फहराने को उद्धत भीड़ पर जिला कलेक्टर और थानेदार की उपस्थिति में पुलिस ने कई चक्र गोलियां चलाई. एक दर्जन से अधिक लोग मौके पर ही शहीद हो गये. दर्जनों लोग गंभीर और कुछ मामूली रूप से भी घायल हुए. बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए. कुछ भूमिगत हो गये. उनके घर परिवार को तंग तबाह किया गया. कई लोगों के घर जला दिए गये. उनमें से एक घर मधुबन से दो ढाई किमी दूर हमारे पुश्तैनी गांव नंदौर में पिताजी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकतंत्र सेनानी एवं पूर्व विधायक दिवंगत विष्णुदेव का भी था.

मधुबन के शहीद, स्वतंत्रता सेनानियों की याद में वहां शहीद इंटर कालेज मधुबन बना और आजादी के बाद 'शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले' की तर्ज पर मधुबन, अस्पताल वाली बाग (अब बाग तो रहा नहीं) में हर साल 15 अगस्त को शहीद मेला लगता रहा. इसे संयोग मात्र भी कह सकते हैं कि 1975 में देश में लागू आपातकाल के विरुद्ध दूसरी आजादी की लड़ाई के सिलसिले में 15 अगस्त 1975 को पिता जी अपने दर्जनों समर्थकों के साथ इसी शहीद मेले में सभा-सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार हुए थे.

 चौरी चौरा और मधुबन थाना कांड

  लेकिन यह अफसोस की बात है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन का इतना बड़ा योगदान राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर भी अचर्चित सा रहा. उसे वैसी प्रसिद्धि और ख्याति नहीं मिल सकी जैसी प्रसिद्धि बलिया की घटना और गोरखपुर के चौरी चौरा कांड को मिली. चौरी चौरा और मधुबन थानाकांडों में मूलभूत फर्क यह था कि गोरखपुर के पास चौरी चौरा में 5 फ़रवरी 1922 को असहयोग आंदोलन के क्रम में आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी को आग लगा दी थी जिससे उसमें छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जलकर मर गए थे. इससे दुखी होकर गांधीजी ने यह कहते हुए असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था कि अब यह आंदोलन अहिंसक नहीं रह गया है.

 इसके उलट मधुबन में थाने का घेराव कर वहां तिरंगा फहराने की कोशिश में जमा भीड़ अहिंसक थी और पुलिस ने निहत्थी भीड़ पर गोलियां बरसाई थीं जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी एक दर्जन से अधिक लोग मौके पर ही शहीद हो गये थे. 

नोटः अगली कड़ी में मधुबन थाने पर जनता के घेराव, अहिंसक भीड़ पर पुलिस की गोलीबारी और साझी शहादत के बारे में विस्तार से.