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Tuesday, 17 August 2021

Hal Filhal: Criminalisation of Politics

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का तमाचा


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/pdxZu1ANxLc
    
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जनीति का तेजी से हो रहा अपराधीकरण पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति और हमारे संसदीय लोकतंत्र को भी डंसे जा रहा है. बार-बार की चेतावनियों और घोषणाओं के बेअसर रहने के बाद अभी एक बार फिर हमारी सर्वोच्च अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण या कहें अपराध के राजनीतिकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की राय में “राजनीतिक व्यवस्था की शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.’’

    वाकई, हाल के दशकों में भारतीय राजनीति और हमारी चुनाव प्रणाली में जाति, धर्म, धन बल और बाहुबल का इस्तेमाल बढ़ा है. यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए अशुभ संकेत है. सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह किसी भी राजनीतिक दल और आम जनता के लिए भी विशेष चिंता का विषय नहीं रह गया है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाले भारत में चुनाव सुधारों की बात तो लंबे समय से होती रही है. लेकिन, आजादी के 74 साल बाद भी यहां 'राजनीति के अपराधीकरण' पर रोक नहीं लग सकी है. भारतीय स्वतंत्रता के 75वें दिवस का जश्न मनाते समय क्या यह हमारी सामूहिक चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि सत्रहवीं लोकसभा के तकरीबन 43 प्रतिशत सदस्यों पर आपराधिक और इन में से 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं.
 
    पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती गई है. 2004 के लोकसभा चुनाव में जीतनेवाले अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162, 2014 में 185 और 2019 के लोकसभा में बढ़कर 233 हो गई. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी सांसदों की संख्या 76 थी, जो 2019 में बढ़कर 159 हो गई. इस तरह से देखें तो 2009-19 के बीच बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 109 फीसदी का इजाफा हुआ. कई राज्यों की विधानसभाओं में तो हालत और भी बदतर है. बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे.

मोदी से जगी थी उम्मीद !


     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि अब राजनीति अपराधियों से मुक्त हो सकेगी. हालांकि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते ऐसा कुछ भी लहीं किया था जिससे अपराधी राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर हो सकें. लेकिन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ रही भाजपा ने जब 7 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के लिए जारी अपने चुनाव घोषणापत्र या कहें संकल्प पत्र में अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के लिए कटिबद्धता जाहिर की, तो आस जगी थी. यही नहीं मोदी जी ने खुद भी राजस्थान में अपने चुनावी भाषणों में कहा था, ‘‘आजकल यह चर्चा जोरों पर है कि अपराधियों को राजनीति में घुसने से कैसे रोका जाए. मेरे पास इसका एक ठोस इलाज है. मैंने भारतीय राजनीति को साफ करने का फैसला कर लिया है. मैं इस बात को लेकर आशान्वित हूं कि हमारे शासन के पांच सालों बाद पूरी राजनीतिक व्यवस्था साफ-सुधरी हो जाएगी और सभी अपराधी जेल में होंगे. इस मामले में कोई भेदभाव नहीं होगा और मैं अपनी पार्टी के दोषियों को भी सजा दिलाने में संकोच नहीं करूंगा.’’

नरेंद्र मोदीः राजनीति के अपराधीकरण का इलाज है, मेरे पास!
    प्रधानमंत्री बनने के बाद 11 जून 2014 को संसद में अपने पहले भाषण में भी मोदी जी ने चुनावी प्रक्रिया से अपराधी छवि के जन प्रतिनिधियों को बाहर करने की प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि उनकी सरकार ऐसे नेताओं के खिलाफ मुकदमों के तेजी से निपटारे की प्रक्रिया बनाएगी. 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव के समय मोदी जी ने मुजफ्फरपुर की सभा में कहा था कि जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध लंबित आपराधिक मामलों की त्वरित अदालतों में सुनावाई के जरिए वह पहले संसद से और फिर विधानमंडलों से भी अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को बाहर करेंगे.

    लेकिन प्रधामंत्री मोदी की इन घोषणाओं का हुआ क्या ! इसे भी देखें. 2014 के लोकसभा चुनाव में जीते भाजपा के 282 सांसदों में से 35 फीसदी (98) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें से 22 फीसदी सांसदों के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें उम्मीदवार किसने और क्यों बनाया था ! यह भी क्या कोई पूछने की बात है ! यही नहीं, मोदी जी की मंत्रिपरिषद में भी 31 फीसदी सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक और इनमें से 18 फीसदी यानी 14 मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें ठोक बजाकर मंत्री भी तो मोदी जी ने ही बनाया होगा ! 14 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताया था कि उस समय 1581 सांसद व विधायकों पर करीब 13500 आपराधिक मामले लंबित हैं और इन मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतों का गठन होगा. इसके तीन महीने बाद, 12 मार्च 2018 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देश के 1,765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. जाहिर सी बात है कि भाजपा और मोदी जी ने भी राजनीति को अपराध मुक्त बनाने के जो वादे और दावे किए थे, वह भी उनके सत्ता संभालने के सवा सात साल बाद भी पूरा होने के बजाय कोरा जुमला ही साबित हुए. इस दौरान उनकी पार्टी के कई सांसदों, मंत्रियों और विधायकों पर भी कई तरह के अपराध कर्म में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की बात तो दूर, उन्होंने सामान्य नैतिकता के आधार पर किसी का इस्तीफ़ा तक नहीं लिया.

    
सुप्रीम कोर्टः राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा
    सच तो यह है कि राजनीति में तेजी से बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई भी राजनीतिक दल ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी और आदेशों के जरिए न सिर्फ सरकार और विपक्ष बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा जड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं करने को अदालत के आदेश की अवमानना मानते हुए बिहार में भाजपा और कांग्रेस समेत आठ राजनीतिक दलों पर एक लाख से लेकर पांच लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया. बिहार विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. लेकिन अदालती के आदेश के बावजूद  इन पार्टियों ने अपने अपराधी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक नहीं किया था. आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ ही सख्त निर्देश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को चयन के 48 घंटों के भीतर अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि को अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करना होगा. उम्मीदवार के चयन के 72 घंटे के अंदर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी सौंपनी होगी. चुनाव आयोग से भी इन सब बातों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग प्रकोष्ठ बनाने को कहा गया है. यह प्रकोष्ठ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन पर निगरानी रखेगा.

हाईकोर्ट की अनुमति के बिना जन प्रतिनिधियों के मुकदमों की वापसी नहीं  ! 


    
चीफ जस्टिस एन वी रमनः माननीयों पर मुकदमों की
वापसी के लिए हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी
    सुप्रीम कोर्ट ने एक और मामले में महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए कहा है कि राज्य सरकारें अब आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकेंगी. अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्याधीश एन वी रमन, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने सितंबर 2020 के बाद सांसदों-विधायकों के विरुद्ध वापस लिए गए मुकदमों को दोबारा खोलने का आदेश भी दिया. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह बड़ा कदम एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) अधिवक्ता विजय हंसारिया की रिपोर्ट के मद्देनजर उठाया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी बीजेपी विधायकों तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ 76 तथा कर्नाटक सरकार अपने विधायकों के खिलाफ 62 मामलों को वापस ले चुकी है. उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इसी तरह अपने लोगों पर चल रहे आपराधिक मामले वापस लेने में लगी हैं. इससे पहले भी राज्य सरकारें अपने करीबी नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों को जनिहत के नाम पर वापस लेती रही हैं. सरकारें अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों- विधायकों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मामले वापस ले लेती हैं, इसलिए भी नेता, जन प्रतिनिधि बेखौफ होकर अपराध करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने तो सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर चल रहे मुकदमों को वापस लेने के साथ ही भाजपा नेता, पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर चल रहे बलात्कार के मामले को वापस ले लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस ताजा आदेश से नेताओं, पार्टियों ओर सरकार के कान कस दिए हैं.

    सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों के बाद कहा जा सकता है कि अपराधी छवि वाले नेताओं के लिए चुनाव लड़ने और राजनीतिक दलों को उन्हें उम्मीदवार बनाने में मुश्किलें होंगी. लेकिन क्या इससे राजनीति में अपराधीकरण पर रोक भी लग सकेगी! दरअसल, दशकों पहले से राजनीति के अपराधीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसमें अपराधियों का राजनीतिकरण अब आम बात हो गई है. पांच दशक पहले तक राजनीतिक दल और उनके नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों, बाहुबलियों और धनबलियों का इस्तेमाल करते थे. बाद में जब इन लोगों को लगा कि वे किसी को चुनाव जिता सकते हैं तो खुद भी तो जीत सकते हैं. इसी सोच के तहत 1980 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तकरीबन डेढ़ दर्जन दुर्दांत अपराधी निर्दलीय चुनाव जीत कर आए. बाद में तकरीबन सभी उस समय के सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस में शामिल हो गए. बिहार प्रवास के दौरान मुझे उस समय का एक मजेदार किस्सा सुनने को मिला. एक चुनावबाज नेता जी ने अपने सहयोगी रहे एक बड़े अपराधी को पत्र लिखा कि इस बार फिर वह चुनाव लड़ रहे हैं. पिछली बार की तरह इस बार भी चुनाव में उनकी जरूरत पड़ेगी. लिहाजा, हरबा- हथियार और गुर्गे लेकर उनके चुनाव क्षेत्र में पहुंच जाएं. उधर से जवाब आया, भाई जी, इस बार तो हम खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं. नतीजा ! अपराधी जीत गया और नेता जी चुनाव हार गए.

    एक समय था जब भ्रष्ट, सांप्रदायिक और अपराधी छवि के लोगों का समाज में हेय या कहें नफरत की निगाह से देखा जाता था. उनके चुनाव लड़ने की बात तो दूर, उनके साथ जुड़ाव भी शर्मिंदगी का कारण बनता था. लेकिन हाल के दशकों में इस तरह के लोगों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है. भ्रष्ट और अपराधी छवि के लोगों-नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलने लगा है. अब इसे उनका डर कहें या उनके पैसों और बाहुबल का प्रभाव, ये लोग किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होकर या निर्दलीय चुनाव लड़कर भी आसानी से जीत जाते हैं. इस दौरान इन पर लगे आपराधिक मामलों के बारे में लोग कतई नहीं सोचते हैं. राजनीति में वोटों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सियासी दलों के बीच आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की होड़ सी लगी रहती है. राजनीतिक दलों में इस बात की प्रतिस्पर्धा रहती है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है. यह भी एक कारण है कि भारत के बड़े हिस्सों में चुनावी राजनीति के मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मूलभूत सुविधाएं न होकर जाति और धर्म होने लगे हैं. इसकी वजह से इन भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की जीत आसान हो जाती है. चुनाव जीतने के बाद ये लोग अपने समर्थकों और विरोधियों का 'ध्यान' भी रखते हैं.

    इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए फैसले और टिप्पणियां करते रहा है. 2002 में सभी तरह के चुनाव में उम्मीदवारों को उनकी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा को अनिवार्य बनाया गया. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा कारावास की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराए गए, सांसदों और विधायकों को उनके पद पर बने रहने की अनुमति के खिलाफ फैसला सुनाया था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम में नोटा का बटन भी जोड़ा गया था. ताकि मतदाताओं को अगर एक भी उम्मीदवार पसंद नहीं हों तो वे नोटा (यानी कोई नहीं) का बटन दबाकर अपनी नपसंदगी जाहिर कर सकते हैं. लेकिन यह उपाय भी ठोस और कारगर साबित नहीं हो सका क्योंकि इसके जरिए मतदाता अपना आक्रोश और नापंसदगी तो व्यक्त कर सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजे को प्रभावित नहीं कर सकते. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से गंभीर अपराध के आरोपों वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने की सिफारिश की थी. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था. कुछ राज्यों में त्वरित अदालतें गठित भी हुईं लेकिन नतीजा क्इया निकला! 

    दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह राज्य की विधायिका के कार्यों पर सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. दागी उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने या उन्हें टिकट नहीं देने का निर्णय राजनीतिक दलों को और उन्हें जिताने-हराने का काम मतदाताओं को करना होता है. अगर राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई पहल नहीं करें तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ! लिहाजा हमारे राजनीतिक दलों को ही एक राय से गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को राजनीति से परे रखने के लिए इस दिशा में ठोस पहल करने के साथ ही संसद से कड़ा कानून भी बनाना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि संसद से कानून बनाकर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राजनीति में आने से रोका जाना चाहिए. अभी जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी और दो वर्ष या उससे अधिक की सजा प्राप्त राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है. लेकिन ऐसे नेता जिन पर कई आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगे आरोप कितने गंभीर हैं. लेकिन कई बार बहुत सारे राजनीतिक दलों के नेता-कार्यकर्ताओं पर राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के क्रम में तथा आंदोलन के दौरान यदा-कदा हुई हिंसक घटनाओं को लेकर भी मुकदमे दर्ज होते रहते हैं. उनका क्या होगा. इस पर भी हमारी सर्वोच्च अदालत, संसद और अन्य संबद्ध संस्थाओं को विचार करने की आवश्यकता है. आजादी के 74 साल बाद भी हमारी राजनीतिक व्यवस्था गंभीर प्रवृत्ति के अपराधियों और राजनीतिक आंदोलनों में निरुद्ध होनेवाले लोगों में फर्क नहीं कर सकी है. अंग्रेजों के जमाने से ही राजनीतिक धरना, प्रदर्शन और आंदोलन में शामिल लोगों को भी अपराध की उन्हीं धाराओं में निरुद्ध किया जाता है जिनके तहत गंभीर किस्म के अपराधियों पर मुकदमें दर्ज होते हैं. राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन से जुड़े मामलों को अपराध की सामान्य परिभाषा से अलग करने पर विचार करना होगा.

    बहरहाल, क्या हमारी सरकार और हमारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों के अनुरूप इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे ! दरअसल, सभी दल चुनाव सुधारों की बात तो जोर शोर से करते हैं लेकिन मौका मिलते ही अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन सभी बुराइयों का लाभ लेने में जुट जाते हैं जिनका चुनाव सुधारों के क्रम में निषेध आवश्यक है. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि डेढ़ साल पहले भाजपा और मोदी जी अपने घोषणापत्र से लेकर भाषणों में भी राजनीति को अपराधमुक्त करने का जो नारा देते थे, 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उसे वे भूल ही गए. मोदी जी के चुनावी भाषणों और भाजपा के घोषणापत्र से भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने की बात गायब हो गई.



Monday, 7 September 2020

CORONA'S (COVID19) Growing Havoc in INDIA ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो हुए हम!

भारत में कोरोना का बढ़ता कहर

ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो पर पहुंचे हम

जयशंकर गुप्त

खुशी मनाएं कि गम. गौरवान्वित हों कि हों शर्मसार. वैश्विक महामारी कोरोना (कोविड 19) के संक्रमितों की संख्या के मामले में हमारा भारत विश्व में नंबर दो के मुकाम पर पहुंच गया है. कुल संक्रमितों की संख्या 42 लाख (6 सितंबर 2020 की शाम तक)  को पार कर जाने के कारण भारत अब ब्राजील से आगे निकल गया है. ब्राजील में कल शाम तक कुल कोरोना संक्रमितों की संख्या थी, तकरीबन 41 लाख 23 हजार. कल शाम तक 71 हजार 687 भारतीय कोरोना की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं. जबकि कोरोना के टेस्ट की रफ्तार अभी भी इस देश में बहुत कम और धीमी है. तकरीबन 138 करोड़ की आबादीवाले इस देश में अभी तक कुल चार करोड़ 88 लाख से कुछ अधिक ही टेस्ट कराए जा चुके हैं. गंभीर चिंता की बात यह है कि पिछले एक सप्ताह में देश में कोरोना से संक्रमित रोगियों की संख्या कम होने के बजाय लगातार रिकार्डतोड़ ढंग से बढ़ते जा रही है. रविवार 6 सितंबर को 91 हजार से अधिक नए मामले दर्ज किए गये. इसके एक दिन पहले, 5 सितंबर को देश में 90 हजार 600 नए मरीज दर्ज हुए थे. 
राहत की बात इतनी भर है कि शनिवार को 73 हजार लोग कोरोना के संक्रमण से मुक्त भी हुए. अभी तक 31 लाख 80 हजार लोग कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके हैं. लेकिन अभी भी देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 9 लाख  कोरोना ग्रस्त मरीज हैं जिनमें से 10 हजार की हालत गंभीर बनी हुई है. चिंता की बात यह भी है कि नये मामले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से अधिक आ रहे हैं. यह दोनों राज्य इस समय भारी बरसात और बाढ़ का सामना अलग से कर रहे हैं. बिहार में तो नवंबर में विधानसभा के चुनाव भी कराए जा रहे हैं. 
 
आश्चर्य और अफसोस की बात यह है कि कोरोना के कहर के इन डरावने आंकड़ों को लेकर हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडिया और हमारे लोग (आम नागरिक) भी अब उतने चिंतित और सचेत नहीं हैं जितना शुरुआती दौर में नजर आते थे जब कोरोना संक्रमितों और उसकी चपेट में आकर मरनेवाले लोगों की संख्या भी बहुत कम थी. लॉाकडाउन के नाम पर सरकारी सख्ती गजब की थी. सरकार ने और मीडिया ने लोगों के बीच भय और दहशत का ऐसा माहौल बना दिया था कि उस समय तो सबकुछ ठप सा हो गया था. हमारा मुख्यधारा का मीडिया इस समय बालीवुड के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत कीआत्महत्या-हत्या की गुत्थी सुलझाने में व्यस्त है और हमारे हुक्मरान इस आपदा को अवसर में बदलकर इसके कैसे और क्या क्या राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं, इसकी जुगत में. मध्य प्रदेश में जनादेश से बनी कांग्रेस की सरकार को पैसे और राजनीतिक प्रलोभन के जरिए अपदस्थ कर वहां अपनी सरकार बनाने में वे सफल हो चुके हैं.राजस्थान में आपदा अवसर में बदलते-बदलते रह गई. कांग्रेस की सरकार को अपदस्थ कर उसके कथित बागियों के सहारे अपनी सरकार बनाने के उनके मंशूबे पूरे नहीं हो सके.  

 बहरहाल, हमने जुलाई महीने में ही आगाह किया था कि अगर अपेक्षित सावधानी और सतर्कता नहीं बरती गई, कोरोना प्रोटोकोल पर पूरी तरह से अमल नहीं हुआ और बड़े पैमाने पर कोरोना टेस्टिंग नहीं हुई तो अगस्त महीने तक देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 20 लाख के आंकड़े को छू लेगी. हम गलत साबित हुए. अगस्त बीतते बीतते तो देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 35 लाख के पार पहुंच गई. अभी भी ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार इस दिशा में विशेष रूप से सक्रिय है. अगर यही हाल रहा और कोरोना संक्रमितों की संख्या इसी रफ्तार से बढ़ती रही (अभी अमेरिका और ब्राजील के मुकाबले भारत में कोरोना संक्रमितों के बढ़ने की रफ्तार दो गुनी से ज्यादा है.)
तो नवंबर महीने तक इस देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक करोड़ के पार और इसके कारण दम तोड़नेवालों की संख्या भी डेढ़ लाख से ऊपर पहुंच सकती है. तकलीफदेह बात यह भी है कि कोरोना से मुक्ति दिलाने के नाम पर विभिन्न देशों में कोई टीका (वेक्सिन) अभी तक निर्णायक और प्रामाणिक रूप से सामने नहीं आ सका है. उसके बारे में अभी तक केवल अटकलें ही सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं.   
  
  वस्तुस्थिति यही है कि एक तरफ डूबती लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था (जून तिमाही में भारत की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि बेरोजगारी के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं. रुपये की कीमत गिर रही है.) को पटरी पर लाने के नाम पर केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा तमाम क्षेत्रों को 'अनलॉक' किया जा रहा है तो दूसरी तरफ भारत में कोरोना का कहर अपने चरम को छूने को आतुर दिख रहा है. अनलॉक प्रक्रिया के तहत होटल-रेस्तरां और बार खोले जा रहे हैं, मेट्रो रेल का परिचालन शुरू होने जा रहा है, रेल गाड़ियां, बसें, टैक्सी और ऑटो रिक्शा दौड़ने लगे हैं (इन सबके परिचालन में कोरोना प्रोटोकोल और अन्य सावधानियों का पालन किस तरह से हो रहा है, इसे सड़क पर दौड़ रहे ऑटो रिक्शा, टैक्सी, बसों, बाजारों में देखा समझा जा सकता है. कई बार तो लगता है कि हमारी लापरवाहियां हमें एक बड़ी त्रासदी की ओर ले जा सकती हैं. 'अन लॉक' भारत में कोरोना का कहर बढ़ते ही जाने के मद्देनजर इस तरह की अटकलें भी लगनी शुरू हो गई हैं कि हालत नहीं सुधरी तो देश को एक बार फिर से 'लॉकडाउन' के हवाले किया जा सकता है! वैसे, 'कोरोना को हराना है' का 'मंत्र वाक्य' देनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अब कहने लगे हैं कि 'अब हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना है!'
 

कोरोना पर शुरुआती गंभीरता नहीं  


अगर हम इस देश में कोरोना के प्रवेश, प्रसार और इसके रौद्र रूप धारण कर देशवासियों की अकाल मौत का सबब बनने के कारणों पर गंभीरता से विवेचन करें तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस मामले में क्या हम अपने हुक्मरानों की 'नासमझी' अथवा उनके 'तुगलकी फैसलों' की कीमत तो नहीं चुका रहे! 30 जनवरी को जब देश में पहला कोरोना मरीज केरल में मिला था, हमें अंतरराष्ट्रीय उड़ानों, खासतौर से कोरोना के उद्गम देश, चीन से आनेवाली उड़ानों को बंद अथवा नियंत्रित करना शुरू कर देना चाहिए था. ऐसा करके चीन के पड़ोसी देश ताईवान ने खुद को करोना के कहर से बचा सा लिया था. लेकिन हमारे हुक्मरानों ने तब इसे गंभीरता से नहीं लिया. फरवरी 2020 के पहले सप्ताह में कांग्रेस के नेता, सांसद राहुल गांधी ने इस महामारी के वैश्विक रूप धारण करने और भारत में भी इसके विस्तार की आशंका व्यक्त करते हुए सरकार से एहतियाती सतर्कता बरतने का आग्रह किया था लेकिन तब भी इसे गंभीरता से नहीं लेकर उनका मजाक बनाया गया. कारण शायद कोरोना से प्रभावित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगवानी का था. जिस समय ट्रंप अपने लाव-लश्कर के साथ भारत आए, अमेरिका के बड़े हिस्से और आबादी को कोरोना अपनी जद में ले चुका था. लेकिन 24 फरवरी को ट्रंप के साथ या उनके आगे-पीछे कितने अमेरिकी यहां आए, उनमें से कितनों की कोरोना जांच हुई! किसी को पता नहीं! 'नमस्ते ट्रंप' के नाम पर एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ जुटाकर अहमदाबाद के मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम में उनका सम्मान किया गया!.
12 मार्च 2020 को कर्नाटक के कलबुर्गी में पहले कोरोना संक्रमित की मौत के साथ जब भारत में भी केसेज बढ़ने लगे और फीजिकल डिस्टैंसिंग जरूरी हुआ तो हमारे शासकों ने आपदा को राजनीतिक अवसर के रूप में भुनाने की रणनीति के तहत मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की 'खरीद-फरोख्त' से 'तख्ता पलट' का इंतजार किया. 12 मार्च को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के विस्तार और तकरीबन पांच हजार मौतों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे  महामारी घोषित करते हुए किसी भी देश के इसकी जद से बाहर नहीं रह पाने की आशंका जताई थी. लेकिन तब भी हमारे शासक इसे गंभीरता से लेने के बजाए, हंसी में टालते रहे.

आपदा को अवसर (राजनीतिक) में बदलने की कवायद

22 मार्च को जब दुनिया भर में कोरोना से मरनेवालों का आंकड़ा 14647 पहुंच गया, हमारे यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार एक दिन का 'जनता कर्फ्यू' और दो दिन बाद 'लॉकडाउन' घोषित किया. इसके लिए भी 23 मार्च को मध्यप्रदेश में तख्तापलट का इंतजार किया गया. कायदे से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित करने के साथ ही देशवासियों को एहतियाती इंतजाम करने के लिए सचेत कर बताया जाना चाहिए था कि दो-तीन दिन बाद पूरे देश में लॉकडाउन किया जानेवाला है. इससे अफरातफरी के माहौल से बचा जा सकता था. लोग खाने-पीने और जीने के एहतियाती इंतजाम कर सकते थे. उन दो-तीन दिनों में यत्र-तत्र फंसे लोग अपने गंतव्य को पहुंच जाते क्योंकि उस समय आज के मुकाबले कोरोना का कहर भी अपेक्षाकृत बहुत कम था. लेकिन 24 मार्च की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री ने 'आकाशवाणी' कर चार घंटे बाद यानी रात के 12 बजे से देशवासियों को एक झटके में लॉकडाउन और 'सोशल डिस्टैंसिंग' (हालांकि यह गलत शब्द है, सही शब्द है फीजिकल डिस्टैंसिंग) के हवाले कर दिया.

लॉकडाउन घोषित करने से पहले उन्होंने विपक्षी दलों के नेताओं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा प्रशासकीय प्रमुखों (मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों) से सलाह-मशविरा की जरूरत नहीं समझी. यह भी नहीं सोचा कि इस 135-40 करोड़ की आबादी वाले विशाल देश में, जहां 15-20 करोड़ सिर्फ प्रवासी-दिहाड़ी मजदूर, रोज कमाने-खानेवाले लोग हैं, उनका क्या होगा! बिना कोई ठोस योजना बनाये, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया. सभी कल-कारखानों में उत्पादन एवं निर्माण और व्यापार-व्यवसाय ठप हो गया. करोड़ों प्रवासी मजदूर बेरोजगार-बेघरबार हो गए. उनके और वे उनके परिवार के लोगों के सामने दो जून की रोटी के भी लाले पड़ने लगे. नहीं सोचा गया कि रोजी-रोटी का धंधा चौपट या बंद हो जाने के बाद गरीब कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूर जीवन यापन कैसे करेंगे. उनके मकान का किराया कैसे अदा होगा. उनके बच्चों के लिए दवा-दूध का इंतजाम कैसे होगा.

लेकिन तब प्रधानमंत्री के लॉकडाउन पर अमल से 21 दिनों के भीतर कोरोना पर विजय हासिल कर लेने के दावे पर लोगों ने तकलीफ बरदाश्त करके भी भरोसा किया.प्रधानमंत्री ने साफ कहा था कि महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था. कोरोना के खिलाफ जंग हम 21 दिनों में जीत लेंगे. आज महीनों बीत गये कोरोना से जगं जीतना तो दूर की बात, अभी भी साफ पता नहीं चल पा रहा है के इस वैश्विक महामारी से मुक्ति कब मिल गाएगी. शुरुआत में सरकारी एजेंसियों और उससे अधिक हमारी मीडिया के एक बड़े वर्ग के सहयोग से भी दिल्ली और देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी कोरोना का संक्रमण फैलने के लिए मुसलमानों की धार्मिक संस्था 'तबलीगी जमात' को खलनायक के रूप में पेश कर इस मामले को भी समाज को धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर बांटने और इसका राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास हुए. तबलीग के लोगों और इसके प्रमुख मौलाना साद को लेकर तमाम तरह की अफवाहनुमा सूचनाएं-खबरें फैलाई गईं. उनके विरुद्ध नफरत का माहौल बनाया गया. लेकिन आगे चलकर तबलीग का मामला भी ठंडा पड़ते गया (किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. मौलाना साद को अभी तक गिरफ्तार करने की बात तो दूर उनसे किसी तरह की पूछताछ तक नहीं हुई). बाद में अदालती फैसले में कहा गया कि इस मामले में तबलीगी जमात के लोगों को 'बलि का बकरा' बनाया गया.

दूसरी तरफ, हालत बद से बदतर होती गयी. कोरोना के विषाणु घातक बनकर पहले से भी ज्यादा पांव पसारने लगे. लोगों के सामने खाने-पीने के लाले पड़ने लगे. एक मोटे अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के दौरान कम से कम एक करोड़ दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर सीधी चोट लगी. हालांकि केंद्र सरकार ने ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत कोरोना संकट के शुरुआती तीन महीनों तक '80 करोड़' गरीबों के लिए प्रति व्यक्ति पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल प्रति माह दिए जाने की घोषणा की थी. इस योजना का लाभ किन्हें मिला, यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन इससे प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर अपने राज्य, गांव और घर लौटने पर रोका नहीं जा सका.

जांच-इलाज और अस्पतालों की दुर्दशा से हालात बदतर 

दरअसल, मीडिया के सहारे मानसिक तौर पर कोरोना का खौफ इस कदर पैदा कर दिया गया कि छोटे और किराए के कमरों में रह रहे प्रवासी मजदूर डर से गये. एक तो उनके पास कोई काम नहीं था, मकान मालिकों का किराए के बकाए के भुगतान का दबाव अलग से बढ़ रहा था. लेकिन सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके बीच खौफ तारी होने लगा कि अगर वे कोरोना से संक्रमित अथवा किसी और बीमारी से भी पीड़ित हो गये तो इस संवेदनहीन समाज में उनकी देखभाल, तीमारदारी कौन करेगा. उन्हें सामाजिक तौर पर बहिष्कृत होना पड़ेगा और उनके साथ अगर कुछ गलत हो गया, किसी की मौत हो गई तो अपनों के बीच उनकी अंतिम क्रिया भी कैसे संभव हो सकेगी.
  
 सरकारी और निजी अस्पतालों का हाल बुरा था. निजी और बड़े, पांच सितारा अस्पतालों में जहां यकीनन अपेक्षाकृत इलाज और देख रेख की व्यवस्था बेहतर थी, कोरोना के इलाज का 10-15 लाख का पैकेज घोषित था जो गरीब क्या मध्यम वर्ग के लोगों की पहुंच से भी बाहर था. और सरकारी अस्पतालों में उनके लिए टाल मटोल और 'बेड खाली नहीं है' का टका सा जवाब था. उत्तर पूर्वी दिल्ली के मौजपुर में रहनेवाले हमारे रिश्तेदार हरिनारायण राम बरनवाल जून के पहले सप्ताह में कोरोना पाजिटिव होने और हल्के बुखार, खांसी और सांस लेने में दिक्कत बढ़ जाने के बावजूद इलाज के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटकते रहे. आधा दर्जन अस्पतालों में उन्हें बिना किसी तरह की जांच किए 'कोरोना नहीं है' का टका सा जवाब देकर  इस अस्पताल से उस अस्पताल भेजा जाता रहा. उनका दूसरा जवाब होता कि अस्पताल में वेंटिलेटर की सुविधायुक्त बेड खाली नहीं हैं. अंततः किसी तरह की पैरवी सिफारिश से उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कर लिया गया. अगले ही दिन जांच में वह कोरोना पॉजिटिव निकले. इलाज शुरू हुआ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. और 16 जून को उनके निधन की सूचना मिली. इस बीच उनके परिवार के शेष आठ सदस्यों की सुध किसी ने भी नहीं ली. उनके घर सभी के मोबाइल फोन में 'आरोग्य सेतु' नाम का एप  डाउनलोडेड होने के बावजूद कहीं से कोई पता-जांच करने नहीं आया और न ही उनके घर, गली को सैनिटाइज अथवा सील करने की आवश्यकता समझी गई. परिवार के सदस्यों ने खुद ही जाकर पास के किसी सरकारी अस्पताल में जांच करवाई तो पता चला कि आठ में से सात सदस्य पॉजिटिव हैं. हमने 16 जून को उनके बारे में भी ट्वीट किया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी परिवार की मदद की गुहार लगाई. लेकिन केंद्र सरकार के मंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री, कहीं से कोई सहायता-प्रतिक्रिया नहीं मिली. इधर घर में उनकी बहू, हमारी भतीजी (साले की पुत्री) ललिता को भी खांसी और सांस लेने में तकलीफ होने लगी. 17 जून को उनके दोनों बच्चों-श्रवण और संतोष बरनवाल के अपने पिता की अंत्येष्टि कर लौटे थे. ललिता की तकलीफ बढ़ने पर उसे आम आदमी पार्टी के विधायक सोमनाथ भारती के सहयोग से दिलशाद गार्डेन में स्थित राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में ले जाया गया. हालांकि वह डरी हुई थी और रो रोकर अस्पताल जाने से मना कर रही थी लेकिन परिवार और हमारे दबाव पर वह वहां भर्ती हो गई. अगले दिन, 18 जून को अस्पताल से उसके भी निधन की सूचना मिली. अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित रोगियों का क्या और किस तरह का इलाज हो रहा है, यह अभी भी अधिकतर मामलों में रहस्य ही बना हुआ है. यहां तक कि एम्स (अखिल भारतीय आयुर्वज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में एक पत्रकार तरुण सिसोदिया ने पांचवीं मंजिल से नीचे छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली. सरकार में बैठे तमाम बड़े लोगों, केंद्रीय और राज्य सरकारों के मंत्रियों ने सरकारी अस्पतालों के बजाय निजी क्षेत्र के पांच सितारा होनलों में भर्ती होकर इलाज करवाने की एक नई परिपाटी शुरू की जिससे आम लोगों के बीच अपने इलाज को लेकर चिंता और परेशानी औ भी बढ़ी. 

प्रवासियों की घर वापसी, अब शहर वापसी


बहरहाल, बेरोजगारी, भोजन-पानी और सिर ढकने के लिए छत के अभाव के साथ अस्पतालों की दुर्दशा और आम आदमी के इलाज की दुरुहता आदि कारण एक साथ जुटते गये और प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर बेगाना साबित हो रहे शहर-महानगर छोड़कर अपने गांव घर लौटना ही श्रेयस्कर लगा. वे लोग भूखे-प्यासे पैदल या जो भी साधन मिले उससे अपने गांव घर की ओर चल पड़े. जब ढील दिए जाने की जरूरत थी तब सख्ती बरती गई. मार्च-अप्रैल महीने तक कोरोना का कहर और प्रसार इस देश में उतना व्यापक और भयावह नहीं था जितना मई महीने के बाद से बढ़ गया है, लेकिन तब प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक तरफ तो रेल-बसें चलाने के बजाय उन्हें गांव-घर लौटने के लिए हतोत्साहित किया गया, दूसरी तरफ दिल्ली जैसे शहरों में सीमा पर प्रवासी मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने के लिए बसों का इंतजाम करने से संबंधित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के ट्वीट के बाद प्रवासी मजदूर लॉकडाउन और फीजिकल डिस्टैंसिंग को धता बताकर हजारों की संख्या में आनंद विहार रेलवे-बस स्टेशन के पास जमा हो गये, बिना विचारे कि उनकी भीड़ कोरोना के संक्रमण और प्रसार में सहायक सिद्ध हो सकती है. बाद में उन्हें बसों से दिल्ली के बाहर ले जाया गया. इसके साथ ही पैदल यात्रियों को रास्ते में मारा-पीटा, अपमानित भी किया गया. रास्ते में स्थानीय लोगों और कहीं कहीं पुलिस-प्रशासन की मानवीयता के लाभ भी उन्हें हुए. लोगों ने खाने-पीने की सामग्री से लेकर जगह-जगह उन्हें कुछ पैसे भी दिए.
कितने तरह के कष्ट झेलते हुए वे मजदूर और उनके परिवार सैकड़ों (कुछ मामलों में तो हजार से भी ज्यादा) किमी पैदल चलकर, सायकिल, ठेले, ट्रक, यहां तक कि मिक्सर गाड़ियों में छिपकर भी अपने गांव घरों को गये! उनमें से सौ से अधिक लोगों ने रास्ते में सड़कों पर कुचलकर, रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर या फिर भूख-प्यास और बीमारी से दम तोड़ कर जान गंवा दी. भोजन के अधिकार के लिए काम करनेवाले संगठन 'राइट टू फूड' के अनुसार 22 मई तक देश में भूख प्यास, दुर्घटना और इस तरह के अन्य कारणों से 667 लोग काल के मुंह में समा चुके थे. बाद के दिनों में इसमें और इजाफा ही हुआ है.

लेकिन जब देश और प्रदेशों की अर्थव्यवस्था भी दम तोड़ने और खस्ताहाल होने लगी, सरकारी खजाना खाली होने लगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने पर देशवासियों ने ताली-थाली बजा ली, एक घंटे घरों में अंधकार किया, मोम बत्ती और दिए भी जला लिए, देश के बड़े हिस्से में कोरोना का कहर भी रौद्र रूप धारण कर चुका है, हमारे हुक्मरान लॉकडाउन में ढील पर ढील दिए जा रहे हैं. शुरुआत शराब की दुकानें खोलने के साथ हुई. प्रदेशों की सीमाएं खोल दी गईं. रेल, बस, टैक्सी और विमानसेवाएं भी शुरू की जा रही हैं. हालांकि श्रमिक स्पेशल रेल गाड़ियों के कुप्रबंध के कारण इन रेल गाड़ियों के विलंबित गति से नियत स्टेशन के बजाय कहीं और पहुंचने की शिकायतें भी मिलीं. मुंबई से गोरखपुर के लिए निर्धारित स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंचा दी गई. इसमें लंबा समय लगा लेकिन रेलवे ने कहा कि ऐसा रूट कंजेशन को देखते हुए जानबूझकर मार्ग बदले जाने के कारण हुआ. लेकिन न तो इसकी पूर्व सूचना यात्रियों को दी गई और ना ही उनके लिए रास्ते में खाने-पीने के उचित प्रबंध ही किए गये. नतीजतन रेल सुरक्षा बल (आरपीएफ) के आंकड़ों के अनुसार ही अस्सी से अधिक लोग रेल गाड़ियों में ही मर गये.

 प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के साथ कोरोना अब देश के अन्य सुदूरवर्ती और ग्रामीण इलाकों में भी फैलने लगा है.वहां कोरोना की जांच, चिकित्सा और उन्हें क्वैरेंटाइन करने के पर्याप्त संसाधन और केंद्र भी नहीं हैं. फसलों की कटाई समाप्त हो जाने के कारण अब उनके लिए, गांव-घर के पास, जिले अथवा प्रदेशों में भी रोजी-रोटी के पर्याप्त साधन नहीं रह गये हैं. कहीं कहीं धान की रोपनी (बुआई) के काम हैं तो कहीं मनरेगा भी लेकिन यह सब प्रवासी मजदूरों को गांव घर में रोके रखने के लिए नाकाफी साबित हो रहे हैं. अगर रोजगार के उचित और पर्सायाप्त साधन होते ही तो इन्हें गांव-घर छोड़कर दूसरे राज्यों में क्यों जाना पड़ता! इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया है कि राज्य में एक करोड़ लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जा रही है. 70-80 लाख लोगों को रोजगार दिए भी जा चुके हैं. दरअसल, मनरेगा में पहले से ही लगे मजदूरों को उन्होंने नवश्रृजित रोजगार बताकर वाह वाही लूटने की कोशिश की. सच तो यह है कि अगर अपने ही राज्य में कायदे के रोजगार उपलब्ध हैं तो लोग दूसरे राज्यों के शहरों और महानगरों की ओर क्यों लौट रहे हैं. दावे चाहे कैसे भी किए जा रहे हों, लोगों के पास स्थानीय स्तर पर रोजगार नहीं मिल रहे हैं और लोग महानगरों की ओर लौट रहे हैं. 

   लॉकडाउन से ढील बढ़ने, अधिकतर राज्यों-इलाकों में अनलॉक होते जाने, कल-कारखाने, दुकानें खुलने, टैक्सी, ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा और रिक्शा चलने लगने और निर्माण कार्य शुरू होने के कारण शहरों-महानगरों में श्रमिक-मजदूरों की किल्लत शुरू होने लगी है. पहले से भी ज्यादा मजदूरी देने के वादे किए जाने लगे हैं. जाहिर सी बात है कि बेहतर मजदूरी के साथ रोजगार के अवसर बढ़ने के कारण प्रवासी मजदूरों का बड़ा तबका शहरों-महानगरों की ओर वापसी कर रहा है. आंकड़े बता रहे हैं कि रोजाना शहरों-महानगरों में प्रवासी मजदूरों की आमद हजारों के हिसाब से बढ़ रही है. लेकिन आते समय वह अपने साथ कोरोना के वायरस नहीं लाएंगे, इसकी गारंटी कोई दे सकता है! साफ है कि हमारे शासकों-प्रशासकों में दूर दृष्टि के अभाव और उनके तुगलकी फैसलों के कारण पहले कोरोना का अदृश्य वायरस शहरों से गांवों में गया और अब वह ग्रामीण इलाकों से शहरों में लौट रहा है! शहरों में नए सिरे से कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी है. 


Saturday, 29 August 2020

Foreign Visits with President Dr. APJ Abdul Kalam



मास्को और पीटर्सबर्ग

जयशंकर गुप्त

मेरे लिए तो यह किसी बड़े और सुखद आश्चर्य से कम नहीं था. राष्ट्रपति भवन से सूचित किया गया कि राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम चार देशों (रूस, स्विट्जरलैंड, आईसलैंड और यूक्रेन) की यात्रा पर निकल रहे हैं. उनके साथ जानेवाली मीडिया टीम में हमारा नाम भी शामिल है. कुछ देर बाद राष्ट्रपति भवन से औपचारिक आमंत्रण भी मिल गया. राष्ट्रपति के रूप में डा. कलाम की यह तीसरी विदेश यात्रा थी जबकि डेढ़ साल के अंतराल के बाद हमारे लिए उनके साथ यह दूसरी विदेश यात्रा होनेवाली थी. छात्र-युवा जीवन से ही मन में जिन देशों और शहरों को देखने की सपने जैसी तमन्ना थी, उसमें रूस और खासतौर से उसका राजधानी शहर मास्को भी था. इसकी खास वजह कभी कम्युनिस्टों, खासतौर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों का ‘मक्का’ कहे जानेवाले रूस और उसके राजधानी शहर मास्को में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक बदलावों को जानने समझने की ललक भी थी. पत्रकार के बतौर पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोश्त के बाद हुए बदलावों, कम्युनिस्ट शासन के पटाक्षेप और रूस में हुए वैश्वीकरण और उदारीकरण के प्रभावों को लेकर मन में तमाम तरह के सवाल और जिज्ञासाएं थीं जो मास्को, पीटर्सबर्ग और यूक्रेन यात्रा के दौरान पूरी हो सकती थीं. यूक्रेन भी कभी कम्युनिस्ट सोवियत संघ का अभिन्न हिस्सा था.

 लेकिन, तकरीबन चौदह दिनों (22 मई 2005 से लेकर 4 जून 2015) की इन चार देशों की यात्राओं के दौरान डा. कलाम की चिंता का विषय भूकम्प और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान की संभावनाओं एवं उससे बचाव के उपायों पर शोध और विचार करना भी था. गौरतलब है कि 26 दिसंबर 2004 को हिंद महासागर में आए भूकंप-सुनामी से उठी ऊंची लहरों ने कई देशों सहित भारत के समुद्रतटीय इलाकों में जान माल की भारी तबाही मचाई थी. इसके अलावा देश की सुरक्षा जरूरतों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के लिए समर्थन जुटाना भी डा. कलाम की इन चार देशों की यात्रा की प्राथमिकताओं में था. सभी जगह छात्रों, प्रोफेसरों और वैज्ञानिकों से मिलना और उनसे सीधा संवाद कायम करना, उनके एजेंडे में वैसे भी प्रमुखता से रहता.

इस यात्रा में शामिल 50 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल में अनिवासी भारतीय मामलों के तत्कालीन राज्यमंत्री जगदीश टाइटलर, सांसद द्वय-मिलिंद देवड़ा एवं एन पी दुर्गा के साथ ही संबद्ध विषयों से जुड़े वैज्ञानिक, सरकार के आलाअफसर, राष्ट्रपति के सचिव पी एम नायर, प्रेस सचिव एस एम खान, सुरक्षा अधिकारी तथा मीडियाकर्मी के रूप में हम, यूएनआई के नीरज वाजपेयी, पीटीआई समीर कौल और छायाकार शिरीष शेट्टी, आईएनएस के शिबी अलेक्स चेंडी, आकाशवाणी की अल्पना पंत शर्मा-नीरज पाठक, डीडी न्यूज की मधु नाग और कैमरामैन बी ए नवीन, दैनिक भास्कर के कुमार राकेश, कन्नड़ दैनिक विजय कर्नाटक के विशेश्वर भट्ट, दि हिंदू के के वी प्रसाद, इंडियन एक्सप्रेस की रितु सरीन, मिड डे-इन्किलाब के खालिद अंसारी, दिनमलार के मालिक संपादक आर कृष्णमूर्ति जी, एएनआई के राजेश सिन्हां और एएनआई के फोटोग्राफर अजय शर्मा भी थे. इस बार भी उनके काफिले में उनका कोई अपना रिश्तेदार-नातेदार शामिल नहीं था.

 एयर इंडिया के विशेष विमान ‘तंजौर’ में उनके पसंदीदा भोजन तैयार करने के लिए खासतौर से दक्षिण भारतीय सब्जियों और करी पत्ते के बंडल जरूर लद रहे थे. टेकऑफ के तुरंत बाद, कलाम मीडिया सेक्शन में चले आए, और बोले, “अपने भोजन और प्रिय पेय पदार्थों का आनंद लें.” यह एक ऐसा वाक्य था जिसे वह दो सप्ताह की लंबी यात्रा के दौरान तकरीबन हर उड़ान में दोहराते थे. वैसे, पिछली यात्रा की तरह ही इस बार भी एयर इंडिया के विशेष विमान ‘तंजौर’ में ‘महाराजा’ का आतिथ्य लाजवाब था. खाने-पीने की हर ख्वाहिश बड़ी विनम्रता के साथ पूरी की जाती थी. खाने-पीने की जो चीज विमान में उपलब्ध नहीं होती थी, उसका इंतजाम अगली उड़ान में अवश्य कर दिया जाता. 

 नई दिल्ली से मास्को तक की उड़ान में डा. कलाम ने मीडिया के लोगों को अपनी यात्रा के मकसद के बारे में समझाते हुए कहा था, “रूसी नेताओं और वैज्ञानिकों से उनकी मुलाकात के केंद्र में सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ‘ब्रह्मोस’ को तीसरी दुनिया के बाजार में उतारना भी होगा. उन्होंने बताया कि वह भारत और रूस के द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित ब्रह्मोस का निर्माण करनेवाले रूसी सैन्य प्रतिष्ठान में भी जाएंगे. इसके अलावा वह विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष रूप से आपसी सहयोग के बारे में बात करेंगे. केवल रूस ही नहीं, स्विट्जरलैंड, आइसलैंड और यूक्रेन से भी वैज्ञानिक सहयोग बढ़ाने पर बल देंगे.

 22 मई, 2005 को हम डा. कलाम के साथ राष्ट्रपति के साथ मास्को में व्नूकोवा हवाई अड्डे पर पहुंचे. रूस के वित्त मंत्री अलेक्सेई कुद्रिन ने पूरे लाव लश्कर के साथ रेड कार्पेट बिछाए हवाई अड्डे पर उनका भव्य स्वागत किया. 

 पूर्वी यूरोप और उत्तर एशिया में स्थित रूस की ख्याति विश्व के सबसे बड़े क्षेत्रफल (17075400 वर्ग किमी) वाले देश के रूप में है. आकार की दृष्टि से यह भारत से पांच गुना से भी बड़ा है. इतना विशाल देश होने के बाद भी रूस की जनसंख्या विश्व में सातवें स्थान पर है. रूस की सीमाएं नार्वे, फ़िनलैंड, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैंड, बेलारूस, यूक्रेन, जॉर्जिया, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, चीन, मंगोलिया और उत्तर कोरिया के साथ लगती हैं.

 प्रथम विश्वयुद्ध और बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ विश्व का सबसे बड़ा साम्यवादी देश बना. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया में सोवियत संघ एक प्रमुख सामरिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा. अमेरिकी ब्लाक (नाटो) के मुकाबले सोवियत ब्लाक (सीटो) का नेतृत्व यूएसएसआर (युनियन ऑफ  सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स) करने लगा. संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ शीत युद्ध, सामरिक, आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी क्षेत्रों में एक-दूसरे से आगे निकलने की वर्षों तक चली होड़ के कारण यह आर्थिक रूप से कमजोर होता चला गया. लोकतंत्र विहीन साम्यवाद और सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर कम्युनिस्टों के एकाधिकारवादी शासन और मानवाधिकारों के दमन के विरुद्ध अस्सी के दशक में जनता के बड़े हिस्से में असंतोष व्यापक होने लगा. इसी के क्रम में रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति मिख़ाइल गोर्बाच्योव के दिमाग में सोवियत संघ के लोकतांत्रिक और उदारवादी कायापलट की एक से एक योजनाएं कुलबुला रही थीं.

उन्होंने पाया कि अमेरिका के नेतृत्ववाले पश्चिमी गुट के साथ हथियारों की होड़ से सोवियत अर्थव्यवस्था बहुत ख़स्ता हो चली है. उन्होंने अपने सुधारों को पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) और ग्लासनोस्त (पारदर्शिता) का नाम दिया. उन्होंने सोवियत गुट के वार्सा संधि वाले देशों को यह छूट भी दे दी कि वे अपनी नीतियां अब मॉस्को के हस्तक्षेप के बिना स्वयं तय कर सकते हैं. लोकतंत्र के एकबारगी प्रस्फुटन के इस क्रम में ही 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और इस तरह से सोवियत संघ के घटक देशों में कम्युनिस्ट शासन के अंत की शुरुआत भी हो गई.


राजधानी शहर मास्को की 'सेवेन सिस्टर्स' 


 इन बदलावों का साक्षी रूस का राजधानी शहर मास्को भी रहा है. ऐतिहासिक वोल्गा नदी की कंट्रीब्यूटरी मोस्कवा नदी के तट पर बसा मास्को रूस की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक गतिविधियों का केंद्र माना जाता है. ऐतिहासिक रूप से पुराने सोवियत संघ एवं प्राचीन रूसी साम्राज्य की राजधानी भी रहे मास्को शहर को 1237-38 के आक्रमण के बाद, मंगोलों ने आग के हवाले कर दिया था. बड़े पैमाने पर लोग मारे गये थे. मास्को दुबारा विकसित हुआ और 1327 में व्लादिमीर सुज्दाल रियासत की राजधानी बना. मई, 1703 में बाल्टिक तट पर जार पीटर महान द्वारा सेंट पीटर्सबर्ग के निर्माण के बाद (उससे पहले वह कस्बा-शहर पेट्रोग्राद के नाम से जाना जाता था), 1712 से रूस की राजधानी मास्को से स्थानांतरित होकर सेंट पीटर्सबर्ग चली गई. लेकिन 1917 के रूसी (बोलशेविक) क्रांति के बाद मास्को को सोवियत संघ की राजधानी बनाया गया.
 विश्व प्रसिद्ध स्थापत्य के लिए मशहूर मास्को ‘सेंट बेसिल केथेड्रल’, ‘क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल’ और सेवेन सिस्टर्स जैसी इमारतों के लिए भी प्रसिद्ध है. लंबे समय तक मास्को पर रूढ़िवादी चर्चों का प्रभाव रहा. हालांकि, शहर के समग्र रूप 
में सोवियत काल से भारी परिवर्तन हुए. खासतौर से जोसेफ स्टालिन के शहर के आधुनिकीकरण के बड़े पैमाने पर किये प्रयास के कारण यह परिवर्तन हुआ. स्टालिनवादी अवधि का सबसे प्रसिद्ध योगदान 'सेवेन सिस्टर्स' (सात बहनें) का निर्माण माना जा सकता है. सेवेन सिस्टर्स यानी सात गगनचुम्बी इमारतें हैं, जो क्रेमलिन से समान दूरी पर शहर भर में फैली हुईं हैं. ओस्तान्कियो टॉवर के अलावा ये सात टॉवर मध्य मास्को की सबसे ऊंची इमारतों में से हैं. इन सात टावरों को शहर के सभी ऊंचे स्थानों से देखा जा सकता है. ओस्तान्कियो टॉवर का निर्माण 1967 में पूरा हुआ था, उस समय यह दुनिया की सबसे ऊंची भूमि संरचना थी. आज भी यह बुर्ज खलीफा (दुबई), केंतून टॉवर (ग्वांगझू-चीन) और सी.एन. टॉवर (टोरोंटो) के बाद दुनिया में चौथे स्थान पर है.

 सोवियत संघ के जमाने से ही रूस और भारत के संबंध बहुत प्रगाढ़ और सहयोगी रहे हैं. नेहरू-इंदिरा युग में भारत में हुए औद्योगीकरण में भी सोवियत रूस का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के समय सोवियत रूस चट्टान की तरह भारत के साथ खड़ा रहा. अभी भी तमाम मामलों में रूस की भूमिका भारत के घनिष्ठ सहयोगी देश के रूप में ही नजर आती है. डा. कलाम की रूस यात्रा इन संबंधों को और मजबूती प्रदान करने की गरज से भी महत्वपूर्ण कही जा सकती थी.

सोवियत संघ के विखंडन के बाद रूस की यात्रा पर पहुंचनेवाले डा. कलाम भारत के पहले राष्ट्रपति थे. इससे पहले तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने 1988 में तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा की थी. 22 मई को मास्को पहुंचने के साथ ही डा. कलाम को अपने जमाने के मशहूर फिल्म अभिनेता, केंद्रीय मंत्री सुनील दत्त के असामयिक निधन के दुखद समाचार से अवगत होना पड़ा. उसी रात उन्हें केंद्र सरकार के बिहार विधानसभा को भंग करने के अप्रिय और विवादित फैसले पर मुहर भी लगानी पड़ी जिसके लिए बाद में उनकी काफी किरकिरी भी हुई. 

 मास्को में विमान से बाहर निकलने पर अजीब तरह के मौसम से सामना हुआ. नई दिल्ली में हमें बताया गया था कि मास्को में उस समय बहुत ठंड पड़ती है. इस लिहाज से हम सबने गरम कपड़े धारण कर लिए थे. साथ चल रहे एक उत्साही पत्रकार सहयोगी ने तो कुछ ज्यादा ही गरम कपड़े, सूट-बूट के ऊपर ओवरकोट भी पहन लिए थे. लेकिन बाहर का मौसम हमारे दिल्ली के जैसा ही था. तकरीबन पौन घंटे की बस यात्रा के बाद मास्को में ठहरने के लिए निर्धारित जगहहोटल रसियामें पहुंचने तक सभी पत्रकार पसीने से लथपथ थे. मौसम का मिजाज होटल में बने मीडिया रूम में मीडिया को राष्ट्रपति डा. कलाम की रूस यात्रा के कार्यक्रमों, उद्देश्य और उससे जुड़े पहलुओं के बारे में ब्रीफ करते समय मास्को स्थित भारत के राजदूत कंवल सिब्बल के चेहरे पर पसीने की लकीरों के रूप में भी समझा जा सकता था. 

 होटल था कि ‘भूल भुलैया’

 मोस्कवा नदी के तट पर ऐतिहासिक रेड स्क्वायर, क्रेमलिन और सेंट ब्रासिल कैथेड्रल के पास स्थित होटल रसिया भी क्या था-विशालकाय भूल भुलैया. बताया गया कि उस होटल के निर्माण की भी एक ऐतिहासिक कथा है. 1947 में मास्को शहर की स्थापना की आठ सौवीं सालगिरह को यादगार बनाने के लिए शहर के विभिन्न इलाकों में आठ ऐतिहासिक इमारतें बनाने का फैसला हुआ था. सात इमारतें तो 1945-55 तक बनकर तैयार हो गईं लेकिन आठवीं इमारत नहीं बन सकी. कारण, बताया गया कि मोस्कवा नदी के किनारे रेखांकित जमीन पर खड़ी की जानेवाली भव्य अट्टालिका के धंस जाने की आशंका थी. बाद में (1964-67) में उसी जगह विशालकाय होटल रसिया बनाया गया. 1990 में लासबेगास में होटल एक्स कैलिबर के बनने तक यह दुनिया में सबसे बड़ा होटल था, जिसका जिक्र गिनिज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज किया गया. एक्स कैलिबर के बनने के बाद भी होटल रसिया, 2006 में बंद होने तक, यूरोप का सबसे बड़ा होटल बताया जाता था. 21 मंजिले इस होटल में तीन हजार कमरे, 245 हाफ स्युट्स, पोस्ट आफिस, हेल्थ क्लब, नाइट क्लब, मूवी थिएटर, पुलिस थाना और उसके साथ कुछ बैरकें भी थीं. तकरीबन 2500 लोगों के एक साथ बैठने की क्षमता का स्टेट सेंट्रल कंसर्ट हाल भी था. 25 फरवरी 1977 को इस होटल में लगी भीषण आग में 42 लोगों ने झुलसकर दम तोड़ दिया था जबकि 50 लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए थे.

  इस होटल के एक कमरे से बाहर निकलकर कहीं जाने और फिर उसी कमरे में लौटने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती थी. एक बार तो हम और हमारे मित्र कुमार राकेश को इसके लिए लंबी कवायद करनी पड़ी. होटल के अधिकतर कर्मचारी रूसी भाषा ही जानते, समझते और बोलते थे. हम अपने कमरे का लोकेशन भूल गए. सभी कमरे एक ही समान थे. हम जिधर से भी जाते, घूम फिर कर पुरानी जगह चले आते. कर्मचारियों से पूछने पर केहुनी से दायीं अथवा बायीं तरफ जाने का इशारा मिल जाता. काफी परेशान होने के बाद हमने तय किया कि होटल से बाहर निकलकर जिस दिशा के गेट से प्रवेश हुआ था, वहां पहुंचा जाए. सभी चार दिशाओं में एक गेट था. जिस गेट से हमारा प्रवेश हुआ था, उसी गेट से अंदर जाने पर तीसरी मंजिल पर हमारा मीडिया रूम था, वहां से हमें मदद मिल सकती थी. इस क्रम में तकरीबन डेढ़ किमी. का चक्कर लग गया. तब कहीं दुभाषिया लड़की के सहारे हम अपने कमरे तक पहुंच सके. होटल में डांस बार और बेसेमेंट में नाइट क्लब भी था. एक बार तो लिफ्ट में कुछ बार बालाओं या कहें ‘काल गर्ल्स’ से भी सामना हो गया. उनसे बच निकलना ही मुनासिब लगा. हालांकि एक राजनयिक के सहयोग से हम बेसमेंट में स्थित ‘ब्लू एलीफेंट’ के नाम से ‘नाइट क्लब’ में नग्न नृत्य और अन्य तरह की गतिविधियों के गवाह जरूर बने.

 खूबसूरत दुभाषिया लड़कियों से हमारी बातचीत अंग्रेजी में होती थी लेकिन वे लोग हिंदी भी बखूबी जानती, समझती ही नहीं बल्कि बोलती भी थीं. यह बात हममें से किसी को मालूम न थी. खूबसूरत और गहरी मगर नीले पानीवाली साफ-सुथरी मोस्कवा नदी में नौकायन के समय नाच-गाने के क्रम में खाते-पीते समय हममें से कुछ पत्रकार साथियों ने उन लड़कियों के बारे में कुछ मजाकनुमा या वहां के हिसाब से कहें तो कुछ अमर्यादित टिप्पणियां की, जिनके बाद उनमें से एक ने हमसे पूछा, ‘सर, क्या आप लोग हमारे बारे में इस तरह की बातें भी करते हैं.हम तो अवाक रह गए, उसके मुंह से खालिस हिंदी सुनकर बड़ा अजीब लगा. हमने पूछा कि हिंदी कहां से सीखी, पता चला कि वह कई बार भारत आ चुकी थी और आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान से बाकायदा हिंदी की पढ़ाई भी कर चुकी है. उसके बाद से तो दुभाषिया लड़कियों के साथ बातचीत का हमारा लहजा ही बदल गया. शादी-विवाह के बारे में पूछे जाने पर उनमें से एक ने कहा कि बेरोजगार लड़की से कौन विवाह करेगा. दुभाषिये का काम उन्हें अनुबंध पर मिला था. 

 राजकपूर और ‘गणेश जी’

 मास्को में कभी, सोवियत संघ के जमाने में स्व. राजकपूर का बड़ा जलवा था. लोगमेरा जूता है जापानी’...., ‘आवारा हूंजैसे उनके फिल्मी गानों को गुनगुनाते मिल जाते थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद उनके सिर से लाल टोपी तो गायब हो गई लेकिन मोस्कवा नदी में क्रूजर पर घूमते समय रूसी छात्र-युवाओं के द्वारा भारतीय मीडियाकर्मियों के समक्ष पेश किए गए सांस्कृतिक कार्यक्रम में ठेठ रूसी अंदाज में सुनने को मिला, ‘सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी.बताया गया कि रूस में और खासतौर से मास्को में पहले से कम मगर बालीवुड और हिंदी फिल्मों का आकर्षण अभी भी है. लोगों में शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन और मिथुन चक्रवर्ती अभी भी खासे लोकप्रिय हैं. बताया गया कि चैनल 2 पर खासतौर से रविवार के दिन रूसी भाषा में रूपांतरित हिंदी फिल्में दिखाई जाती हैं. मास्को शहर में घूमते समय हमें लेनिनिस्की प्रास्पेक्ट हाइवे पर एक बैनर में टंगे अपने प्रिय देवता गणेश जी के दर्शन हो गए. उनकी तस्वीर के साथ रूसी भाषा में कुछ लिखा था. दुभाषिए से पूछने पर पता चला कि गणेश जीबकारा कैसिनोका प्रचार कर रहे हैं. यह बताने की जरूरत नहीं कि वह कैसिना यानी जुए का अड्डा किसी भारतीय का ही था. पता चला कि मास्को में उस समय चार-पांच हजार भारतीय रह रहे थे. 

 मास्को में सोवियत संघ के विघटन के बाद आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के निशान साफ नजर आ रहे थे. रूसी लिपि में लिखे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भव्य और आकर्षक विज्ञापन आंखें चुंधिया दे रहे थे. मैकडॉनल्ड्स, केएफसी, एलजी, नेसकैफे, पेप्सी और कोका कोला की दुकानों-रेस्तराओं में रूसी छात्र-युवाओं की खासी भीड़ नजर आ रही थी. एक बदलाव और नजर आ रहा था. सोवियत संघ और कम्युनिस्ट सत्ता के दौरान रूस में चर्चों की हालत बहुत खस्ता थी. कई चर्च बंद हो गए थे तो कई के इस्तेमाल बदल गए थे. ऐतिहासिक किले क्रेमलिन के सामने 17वीं सदी में बने ‘क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल चर्च’ को 1960 में स्टालिन ने ध्वस्त कर वहां स्वीमिंग पुल बनवा दिया था. लेकिन पेरेस्त्रोइका के बाद, 1993 में इस चर्च का जीर्णोद्धार कराया गया. इसी तरह से शहर के अन्य प्रमुख चर्च रंग रोगन से चमकने लगे थे जहां न सिर्फ पर्यटक बल्कि श्रद्धालुओं की आमद भी बढ़ रही थी.

इस तरह के तीन बड़े चर्च क्रेमलिन में ही हैं. वैसे, क्रेमलिन में घूमने के लिए पर्यटकों अथवा श्रद्धालुओं से 30 डालर वसूल किए जा रहे थे. वोदका अभी भी मास्को में सबसे प्रिय शराब बताई गई. लेकिन वह अब अनिवार्य नहीं रह गई थी. मनपसंद के ब्रांडवाली सभी तरह की शराब अब वहां आसानी से उपलब्ध थी.

नोटः अगले सप्ताह क्रेमलिन में आधुनिक रूस के निर्माता कहे जानेवाले रूसी परिसंघ के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के साथ डा. कलाम की द्विपक्षीय बातचीत, पुतिन द्वारा डा. कलाम के सम्मान में दिए गए राजकीय भोज के अवसर पर डा. कलाम का भाषण, रूस और भारत के संयुक्त उपक्रम में बननेवाली सुपरसोनिक मिसाइल 'ब्रह्मोस' की निर्माता कंपनी में डा. कलाम के स्वागत के साथ ही 25 मार्च को उनकी सेंट पीटर्सबर्ग की यात्रा से जुड़े रोचक संस्मरण.
इसके साथ ही बिहार विधानसभा भंग करने के यूपीए सरकार के विवादित फैसले पर डा. कलाम ने मुहर क्यों लगाई थी ! इसकी भी तफसील से चर्चा.

 

Saturday, 22 August 2020

Foreign visits with President Dr. APJ Abdul Kalam-Bulgaria

कलाम के साथ विदेश भ्रमण-3

बुल्गारियाः वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर!
 
जयशंकर गुप्त


  

    राष्ट्रपति के रूप में डा. ए पी जे अब्दुल कलाम साहब की आठ दिनों की इस पहली विदेश यात्रा का अंतिम पड़ाव कई हजार वर्षों के इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को सीने में संजोए बुल्गारिया था. 22 अक्टूबर को सूडान की राजधानी खारतूम में दोपहर के भोजन के बाद हम लोग बुलगारिया की राजधानी सोफिया के लिए रवाना हो गये. स्थानीय समय के अनुसार शाम के 7.10 बजे हम सोफिया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे. सूडान से बुल्गारिया जाने के रास्ते में डा. कलाम ने विमान में कहा, “सुना है कि बुल्गारिया और इसकी राजधानी सोफिया बहुत खूबसूरत है. सोवियत संघ के जमाने में उसके अभिन्न एवं महत्वपूर्ण सहयोगी देश रहे बुल्गारिया के साथ भारत के रिश्ते हमेशा से बहुत करीबी और प्रगाढ़ रहे हैं. नए संदर्भों में हम इन रिश्तों को और प्रगाढ़ बनाने के इच्छुक हैं.” उन्होंने बताया कि सोवियत संघ के विखंडन के बाद वह बुल्गारिया में हुए बदलावों, औद्योगिक प्रगति और सांस्कृतिक माहौल का जायजा लेना और समझना चाहते हैं.

    दक्षिण पूर्व यूरोप में स्थित बुल्गारिया की सीमाएं उत्तर में रोमानिया से, पश्चिम में सर्बिया और मेसेडोनिया से, दक्षिण में यूनान और तुर्की से मिलती हैं. पूर्व में इस देश की सीमाएं काला सागर निर्धारित करता है. कला और तकनीक के अलावा राजनैतिक दृष्टि से भी बुल्गारिया का वजूद पांचवीं सदी से नजर आने लगता है. यूनान और इस्ताम्बुल के उत्तर में बसा बुल्गारिया मानव बसावट की दृष्टि से बहुत पुराना देश है. मोंटाना के पास मिले 6800 साल पुराने एक पट्टिकालेख में चार पंक्तियों में कुछ, 24 चिह्न बने पाए गए हैं-इसको पढ़ पाना अभी तक संभव नहीं हुआ है, लेकिन इससे ये अनुमान लगाए जाते हैं कि यहां उस समय मानव रहते होंगे. 1972 में काला सागर के तट पर स्थित वार्ना में सोने का खजाना मिला था जिसपर राजसी चिह्न बने थे. इससे भी अनुमान लगाया जाता है कि बहुत पुराने समय में भी यहां कोई राज्य या सत्ता रही होगी-हांलांकि इस राज्य के जातीय मूल का पता नहीं चल पाया है.

    सामान्यतया थ्रेसियों को बुल्गारों का पूर्ववर्ती माना गया है. थ्रेस के लोगों ने ट्रॉय की लड़ाई (1200 ईसा पूर्व के आसपास) में हिस्सा लिया था. इसके बाद 500 ईसा पूर्व तक उनका एक साम्राज्य स्थापित हुआ था. सिकंदर ने 332 ईसा पूर्व में इस पर अधिकार कर लिया और 46 ईस्वी में रोमनों ने. इसके बाद एशिया से कई समूहों का यहां आगमन आरंभ हुआ. स्लाव जाति के लोगों ने 581 में बिजेन्टाइन के रोमन साम्राज्य के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया. पहले बुल्गारियन साम्राज्य ने न केवल बाल्कन क्षेत्र बल्कि पूरे पूर्वी यूरोप को अनेक तरह से प्रभावित किया. बिजेन्टाइन आक्रमणों से सन 1018 तक बुल्गार साम्राज्य का अंत हो गया. बुल्गारियन साम्राज्य के पतन के बाद इसे ओटोमन शासन के अधीन कर दिया गया. सन् 1185 से 1360 तक दूसरे बुल्गार साम्राज्य की सत्ता कायम रही. उसके बाद उस्मानी (ओटोमन) तुर्क लोगों ने इस पर अधिकार कर लिया. सन 1877 में रूस ने ओटोमन साम्राज्य पर हमला कर उन्हें हरा दिया. इस तरह से 1878 में तीसरे बुल्गार साम्राज्य का उदय हुआ. 1880 में तुर्कों के खिलाफ चलाए गए अभियान में 30 हजार तुर्क बुल्गारिया छोड़कर तुर्की चले गए. इससे दो दशक पहले ग्रीस में भी ऐसा ही अभियान चला था.

    दूसरे विश्व युद्ध के समय बुल्गारिया साम्यवादी राज्य और इस तरह से सोवियत संघ का अभिन्न सहयोगी देश बन गया था. लेकिन 1989 में बदलाव की बयार यहां भी बहनी शुरू हो गई थी. 1989 की शुरुआत में बुल्गारिया में कट्टरपंथियों की जगह नरमपंथी कम्युनिस्टों का शासन हुआ. और फिर 1989-90 में ही ग्लासनोश्त एवं पेरेस्त्रोइका के बाद यहां भी साम्यवादियों का एकाधिकार समाप्त हो गया. और बुल्गारिया 2004 से नाटो तथा 2007 से यूरोपीय यूनियन का सदस्य बन गया. फिर तो सब कुछ बदलने लगा. 


     अपने सीने में कई हजार वर्षों का इतिहास संजोए बुल्गारिया की राजधानी सोफिया में भी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव साफ दिख रहे थे. यहां सोवियत संस्कृति की जगह यूरोपीय और अमेरिकी संस्कृति की छाप साफ नजर आ रही थी. सड़कों और गलियों में भी अमेरिकी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद, शो रूम और विज्ञापनों के बड़े बड़े होर्डिंग नजर आ रहे थे. मैकडॉनल्ड और केंचुकी फ्राएड चिकेन जैसे रेस्तरां और पब, नाइट क्लब भी खुल गए थे. वोदका भी उपलब्ध थी लेकिन तमाम तरह की स्कॉच ह्विस्की और अन्य शराब की बोतलों से दुकानें अटी पड़ी थीं. सड़कों पर टोयोटा, बीएम डब्ल्यू, आउडी और मर्सिडीज जैसी महंगी कारें दौड़ने लगी थींबदलाव के प्रतीक के रूप में सोफिया शहर के बीच में ऊंचे स्तंभ पर खड़ी भाग्य की देवी कही जानेवाली सोफिया की कलात्मक मूर्ति भी देखने को मिली जिसके सिर पर सत्ता और शक्ति के प्रतीक के रूप में ताज, एक हाथ में प्रसिद्धि की प्रतीक माला और दूसरे हाथ में ज्ञान का प्रतीक कहे जानेवाले उल्लू की कलाकृति है. तांबे और कांसे की इस मूर्ति को प्रसिद्ध मूर्तिकार ज्योर्जी चपकनोव ने बनाई थी जिसे सन् 2000 में ठीक उस जगह स्थापित किया गया था जहां उससे पहले कम्युनिस्ट नेता लेनिन की आदमकद प्रतिमा लगी थी. 

    भारत-बुल्गेरियाई संबंध पारंपरिक रूप से बहुत घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण रहे हैं. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध 1954 में स्थापित किए गए थे.  समय-समय पर उच्च स्तरीय यात्राओं के आदान-प्रदान ने इन द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया है. राष्ट्रपति डॉ. कलाम से पहले भारत से  उपराष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन (1954), प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1967), राष्ट्रपति वीवी गिरि (1976), राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी (1980), प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1981), राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन (1985), शंकर दयाल शर्मा (1994) और उप राष्ट्रपति कृष्णकांत (2000) ने बुल्गारिया की उच्च स्तरीय यात्राएं की थीं. बुल्गारिया की तरफ से उनके राष्ट्रपति टोडर झिवकोव ने 1976 और 1983 में और पीटर स्टोयोनोव ने 1998 में, प्रधान मंत्री स्टैंको टोडोरोव ने 1974 और 1980 में भारत की यात्राएं की थी.

    बहरहाल, बुल्गारिया के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्योर्जी परवानोव के आमंत्रण पर सोफिया आए डा. कलाम ने 23 अक्तूबर की सुबह राष्ट्रपति के कार्यालय में अपने समवर्ती परवानोव के साथ अकेले में तकरीबन एक घंटे तक बातचीत की. इससे पहले सेंट अलेक्जेंडर नेवेस्की चौक पर श्री परवानोव ने राजकीय परेड के साथ डा. कलाम का भव्य स्वागत किया.


    वहां काफी ठंड थी, हल्की बारिश भी हो रही थी. लेकिन किसी के पास छाता नहीं था. हमें बताया गया कि यहां के राष्ट्रपति पसंद नहीं करते कि राजकीय परेड के समय बारिश हो रही हो तो आप छाते का इस्तेमाल करें. उनके अनुसार जब हमारे सैनिक बगैर छाते के बारिश में खड़े रह सकते हैं तो फिर नागरिक और वीवीआईपी भी क्यों नहीं. हमारे लिए यह कुछ अजीबोगरीब अनुभव था. हम लोग ठंड से सिकुड़ते यही मनाते रहे कि बारिश तेज न हो और कार्यक्रम जल्दी संपन्न हो जाए. शुक्र था कि बूंदा-बांदी ही होकर रह गयी. डा. कलाम को वहां गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया. शहीदों को श्रद्धांजलि दी गयी. डा. कलाम ने वहां अज्ञात सैनिक की समाधि पर श्रद्धा के फूल चढ़ाए.

    राष्ट्रपति कार्यालय में श्री परवानोव और डा. कलाम के बीच अकेले में हुई मुलाकात के दौरान ही दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण संधि और कुछ और द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए. बाद में दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने संवाददाताओं से बातचीत में दोनों देशों के बीच कृषि, खाद्य प्रसंस्करण के साथ ही सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर बल दिया. दोनों ने सभी तरह के आतंकवाद को मानव जाति का सबसे बड़ा और घातक दुश्मन करार देते हुए इस अंतर्राष्ट्रीय बुराई को समूल नष्ट करने की प्रतिबद्धता और एकजुटता का इजहार किया. हालांकि बुल्गारिया के राष्ट्रपति परानोव का कहना था कि आतंकवाद को जड़ से मिटाने के लिए इसके सामाजिक, आर्थिक कारणों को जानने, उनका विश्लेषण करने और उनका समाधान ढूंढने की भी जरूरत है.  


     राष्ट्रपति के कार्यालय से निकलने के बाद डा. कलाम ने बुल्गारिया की नेशनल एसेंबली में जाकर अध्यक्ष एवं कुछ चुनिंदा सांसदों के साथ बातचीत की. वहां से हम लोग गेस्ट हाउस, बोएना रेसीडेंस में आ गये, जहां बुल्गारिया के प्रधानमंत्री ने हमारे लिए दोपहर के भोज का आयोजन कर रखा थाअपने राजकीय कार्यक्रमों के अलावा डा.कलाम शाम को सोफिया विश्वविद्यालय भी गए. बुल्गारिया के इस प्राचीनतम और सबसे बड़े विश्वविद्यालय में डा. कलाम ने छात्रों के साथ सीधा संवाद भी किया. खचाखच भरे हाल में काफी उत्साह का माहौल था. भारत के 55 छात्र-छात्राएं यहां अध्ययन कर रहे थे. डा. कलाम ने बुल्गारिया के साथ भारत के संबंधों को याद करते हुए कहा कि बुल्गारिया के साथ भारत के संबंध 8वीं सदी में ही शुरू हो गये थे. उन्होंने 1926 में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर की बुल्गारिया यात्रा का स्मरण भी किया. उल्लेखनीय है कि बुल्गारिया में रवींद्रनाथ ठाकुर की कई रचनाओं का अनुवाद किया जा चुका है. रामायण, महाभारत तथा पंचतंत्र भी यहां काफी लोकप्रिय हैं. सोफिया विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी के अध्ययन का एक अलग विभाग भी है जिसकी स्थापना 1983 में की गयी थी. डा. कलाम ने इच्छा व्यक्त की कि इस विश्वविद्यालय के साथ भारत के जो पुराने संबंध रहे हैं, वे और भी पुख्ता और प्रगाढ़ होंगे.

    साथ चल रहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद सरला महेश्वरी बताती हैं, “बुल्गारिया प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक और फासीवाद के विरुद्ध अथक योद्धा ज्योर्जी दिमित्रोव की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है. मैं बहुत उत्सुक थी कि उनके बारे में कुछ जानूं-समझूं. खोजबीन के बाद मुझे पता चला कि वहां कभी दिमित्रोव का मुसोलियन (समाधिस्थल) था जिसे अब हटा दिया गया है. मैंने पूछा कि क्या उनके बारे में स्कूलों-कॉलेजों में कुछ पढ़ाया नहीं जाता? जवाब मिला कि पहले पढ़ाया जाता था लेकिन अब नहीं. जवाब देते समय सोफिया विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के चेहरे पर दु:ख की रेखाएं स्पष्ट नजर आ रही थी.’’ सोफिया में डा. कलाम राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालय और आर्ट गैलरी भी देखने गये. राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालय 533000 वस्तुओं और सबसे बड़े पुरातात्विक और ऐतिहासिक संग्रह के साथ बाल्कन के इतिहास के सबसे बड़े संग्रहालयों में से एक है. 

    23 अक्टूबर की रात को बुल्गारिया के राष्ट्रपति परवानोव ने डा. कलाम के सम्मान में राजकीय भोज (बैंक्वेट डिनर दिया. इस अवसर पर डा. कलाम ने अभिभाषण में कहा, “ऐतिहासिक राजधानी शहर सोफिया में आपके बीच होना मेरे लिए एक सम्मान और खुशी की बात है. प्राचीन देश बुल्गारिया के पास एक लंबा इतिहास और एक शानदार सांस्कृतिक विरासत है. हम इसकी साहित्यिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपरा को जानते हैं. इस खूबसूरत शहर के केंद्र में प्रसिद्धि और ज्ञान के प्रतीक को अपने हाथों में थामे भाग्य की देवी सोफिया की मुकुट (सत्ता का प्रतीक) धारण किए हुए मूर्ति सही मायने में सभी मानव जाति की आकांक्षाओं का चित्रण है.”
    उन्होंने भारत और बुल्गारिया के साथ भारत के बहुत पुराने और प्रगाढ़ संबंधों का जिक्र करते हुए कहा कि दोनों देशों में प्राचीन सभ्यताएं हैं और हमारे इतिहास में कई अन्य समाजों के साथ संपर्क शामिल हैं. हम अपनी संस्कृतियों में अन्य सभ्यताओं के विभिन्न पहलुओं को आत्मसात करके इसका लाभ उठाने में सफल रहे हैं. इसने विभिन्न धार्मिक, जातीय और भाषाई समूहों से आत्मसात की गई भारत और बुल्गारिया की बहु-संस्कृति के विकास को सक्षम बनाया है. यह हमारी पिछली पीढ़ियों से हमें मिला उपहार है, जिसे हम भविष्य के लिए संरक्षित कर रहे हैं. भारत और बुल्गारिया का सरकारों और जनता के स्तर पर भी हमेशा से व्यापक संपर्क रहा है. हमारा आपसी सहयोग बहुआयामी है जो राजनीति, व्यापार, अर्थशास्त्र, विज्ञान-प्रौद्योगिकी और संस्कृति के क्षेत्रों तक फैला हुआ है. यह संबंध निरंतरता और आपसी समझ पर आधारित है. 1994 में सोफिया और 1998 में नई दिल्ली में राष्ट्रपति के दौरे के आदान-प्रदान ने हमारे संपर्कों को मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया. मेरी यह यात्रा इसी क्रम में है और मुझे उम्मीद है कि यह हमारे द्विपक्षीय सहयोग को और अधिक बढ़ाने का काम करेगी. समय आ गया है कि बुल्गारिया और भारत  विशिष्ट क्षेत्रों में अपनी मुख्य क्षमताओं की पहचान करें और समयबद्ध तरीके से संयुक्त डिजाइन, विकास, उत्पादन और विपणन के लिए महत्व की परियोजनाओं का चयन करें. मुझे खुशी है कि दोनों देशों ने भारत-बुल्गारियाई विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग के तहत कई वैज्ञानिक अनुसंधान परियोजनाओं की पहचान की है. मैं कह सकता हूं कि इंडो-बुल्गारियाई भागीदारी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है.
    नई सहस्राब्दी में, पूरी दुनिया स्वतंत्र और लोकतांत्रिक प्रणालियों की दिशा में आगे बढ़ रही है. भारत-और बुल्गारिया इन मूल्यों को साझा करते हैं. पिछले पचास वर्षों और अधिक के अपने स्वयं के अनुभव में, हमने संसदीय लोकतंत्र को अपने लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बेहद उपयुक्त पाया है. भारत में, हम अपने आर्थिक सुधारों की दूसरी पीढ़ी के साथ आगे बढ़ रहे हैं. विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, नैनो और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताओं के साथ भारत की वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में तेजी से पहचान बढ़ी है. हमने देखा है कि बुल्गारिया ने उदारीकरण की प्रक्रिया में बड़े कदम उठाए हैं और यह तेजी से एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा है. मुझे यकीन है कि इससे हमारे आर्थिक और वाणिज्यिक संबंधों को आगे बढ़ाने के अवसर खुलेंगे. दोनों देशों में शिक्षा से जुड़े उच्च मूल्य और मजबूत मानव पूंजी आधार जिसे हम बनाने में सफल रहे हैं, निश्चित रूप से पारस्परिक रूप से लाभप्रद सहयोग को मजबूत करेगा. हमारा द्विपक्षीय व्यवसाय वर्तमान में बहुत सीमित है. हमें अपने द्विपक्षीय व्यापार को आगामी कुछ वर्षों में एक अरब डॉलर तक बढ़ाना चाहिए. भारत में, हम मानते हैं कि आर्थिक प्रगति का फल व्यापक रूप से और विशेष रूप से हमारी आबादी के वंचित तबकों को उपलब्ध होना चाहिए. दुनिया में गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी उन्मूलन के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. इस साझा जिम्मेदारी को वैश्विक समुदाय को समग्रता में निभानी होगी.

    इसके साथ ही जैसा कि आप जानते हैं, नई चुनौतियां और खतरे उभरे हैं. वर्तमान में हम जिस गंभीर मुद्दे से जूझ रहे हैं, वह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद है. आतंकवाद अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को खतरे में डालने वाला एक प्रमुख कारक बन गया है. ऐसा लगता है कि कोई देश या आबादी इस खतरे से मुक्त नहीं हैं. इस खतरे से उत्पन्न खतरों पर भारत और बुल्गारिया दोनों की समान धारणा है. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को ऐसे आतंकवादी कृत्यों के स्रोतों को अलग-थलग और खत्म करने के लिए ठोस कार्रवाई करनी होगी. किसी भी आधार पर किसी भी आतंकवादी कार्य को उचित नहीं ठहराया जा सकता है. मुझे उम्मीद है कि हम संयुक्त रूप से दुनिया से इस बुराई को खत्म करने के लिए नए सिरे से काम करना जारी रखेंगे. महान बुल्गेरियाई क्रांतिकारी जॉर्जी रकोवस्की ने लिखा है कि “दुनिया में सबसे पुरानी सभ्यता भारत की थी और विभिन्न विश्वास और रीति-रिवाज इससे उत्पन्न हुए थे.” गांधी, टैगोर और नेहरू की रचनाओं का बुल्गारियाई भाषा में अनुवाद किया गया है जो यहां काफी लोकप्रिय हैं. बुल्गारियाई कवि ह्रिस्तो बोतेव और ह्रिस्तो स्मिरेंस्की ने भारतीय लेखकों पर प्रभाव डाला है. 19वीं शताब्दी के दौरान, बुल्गेरियाई साहित्य ने राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति की भावनाओं को प्रतिबिंबित किया, यही भूमिका हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के में भी लेखन ने किया था. सांस्कृतिक क्षेत्र में भी आदान प्रदान जारी है. मुझे पता है कि कई बुल्गेरियाई साहित्य, नृत्य, संगीत और दर्शन का अध्ययन करने के लिए भारत आते हैं. मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि सोफिया विश्वविद्यालय का एक अलग इंडोलॉजी विभाग है जो भारत की भाषाओं, इतिहास और दर्शन में पाठ्यक्रम प्रदान करता है. 

    अपनी ओर से हम सहयोग के कुछ नए क्षेत्रों का सुझाव दे सकते हैं जिनमें भारत ने अनुभव प्राप्त किया है. इनमें फार्मास्यूटिकल्स, खाद्य प्रसंस्करण, बिजली और निजीकरण के हमारे अनुभव का एक हिस्सा शामिल हो सकता है. मैं आशावादी हूं कि आर्थिक और वैज्ञानिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए अधिक से अधिक भारतीयों और बुल्गारियाई लोगों को एक-दूसरे के देश में ले जाना होगा और हमारी दोस्ती के बंधन को आगे बढ़ाना होगा.”

प्रकृति की सुरम्य गोद में रिला मोनेस्ट्री    


अगले दिन, 24 अक्टूबर को हम लोग सड़क मार्ग से सोफिया से तकरीबन 120 किलोमीटर दूर प्रकृति का अद्भुत नजारा देखते हुए यूनान की सीमा से लगनेवाली रिला की खूबसूरत पहाड़ियों पर ईसाइयों की ऐतिहासिक रिला मोनेस्ट्रीगए. डा. कलाम के साथ ही अरुण शौरी, सुरेश प्रभु एवं सरला महेश्वरी हेलीकॉप्टर से गये. बाकी, हम लोगों का काफिला सड़क मार्ग से कारों में.

     श्रीमती महेश्वरी याद करती हैं, “24 अक्टूबर का दिन बहुत ही यादगार रहा. इस दिन हम लोग प्रसिद्ध रिला मोनेस्ट्री देखने गये. इस मोनेस्ट्री का बहुत गहरा संबंध बुल्गारिया के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ रहा हैहेलीकॉप्टर से रिला मोनेस्ट्री का यह रास्ता इतना सुंदर दिखता था कि शब्दों में बयान करना मुश्किल है. रंगों के इतने शेड्स, लाल, भूरी, पीली, हरी, काली, न जाने कितने रंगों की पत्तियों से लदे पेड़ एक अजीब रोमांचक दृश्य पैदाकर रहे थे. मेरी इच्छा हो रही थी कि हमारा हेलीकॉप्टर रुक जाए और हम करीब से जाकर प्रकृति के इस मनोहारी रूप का दर्शन लाभ कर सकें. लेकिन जाहिर है, वहां हेलीकॉप्टर रुक नहीं सकता था.” 

    जब हेलीकॉप्टर से इस तरह का मनोहारी दृश्य दिख रहा था तो समझा जा सकता है कि हम लोगों ने सड़क मार्ग से क्या अनुभव किया होगा. रास्ते में सड़क के दोनों तरफ जंगली पेड़-पौधे और फूल अपने रंगों से इस तरह की छटा बिखेर रहे थे, मानो समूचे पहाड़ पर किसी ने रंगों के मिश्रण से बेहतरीन पेंटिंग्स की हों. लौटते समय जगह-जगह काफिले को रुकवाकर हम सबने तस्वीरें उतरवाईं

 

    हरमिट संत इवान रिल्स की स्मृति में नौवीं-दसवीं शताब्दी में बनी इस मोनेस्ट्री में मुख्य पादरी बिशप जॉन के आतिथ्य में डा. कलाम वहां तकरीबन एक घंटे तक रहे और मोनेस्ट्री के इतिहास, भूगोल और इसके स्थापत्य आदि के बारे में जानकारी लेते रहे. शहर से दूर इतनी सुनसान और अलग-थलग जगह में इतनी बड़ी, सुंदर और कलात्मक मोनास्ट्री‍! बिशप जॉन ने हम सबको पूरी मोनेस्ट्री में घुमाया. वहां स्कूलों से आए बच्चे-बच्चियां भी घूम देख रहे थे.

     मोनेस्ट्री के नीचे दोनों तरफ रिल्सका और ड्रुसियावित्सा नदियों की कल-कल बहती धारा बरबस ही ध्यान आकर्षित कर रही थी. पता चला कि बुल्गारिया के दक्षिण पश्चिम में स्थित यह मोनेस्ट्री कभी, 14वीं-15वीं सदी में ओटोमन तुर्क शासकों के जमाने में जल कर राख हो गई थी लेकिन बाद में इसका भव्य जीर्णोद्धार किया गया था. कलाम साहब के थोड़ा परे हटते ही मोनास्ट्री के लोग हम, मीडिया के लोगों को बिशप जॉन के कार्यालय में ले गए. 80-90 साल के इस बिशप से मिलना भी एक सुखद संयोग ही कहा जा सकता है. उनके साथ बैठकर हम लोगों को मठ के प्रसाद के बतौर पेश की गई शराब नीटही गटकनी पड़ी थी.

    डा. कलाम ने बिशप जॉन की अनुमति से मोनेस्ट्री में प्रार्थना की कि दुनिया में सभी धर्मों को एक साथ आकर अच्छाई, दया और परोपकार को बढ़ावा देना चाहिए. उन्होंने संत फ्रांसिस की दो पंक्तियों का उच्चारण कर वहां मौजूद सभी लोगों से उसे दोहराने को कहा. डा. कलाम ने कहा, “हे ईश्वर, मुझे अपना शांतिदूत बनाओ ताकि जहां नफरत हो, वहां मैं प्यार और दया के बीज बो सकूं.’’ इससे प्रभावित बुजुर्ग बिशप जॉन ने डा. कलाम से कहा, “आप विश्व शांति के लिए काम करें.” इससे पहले डा. कलाम ने वहां कहा कि धर्म नहीं बल्कि धर्मांधता और धार्मिक कठमुल्लापन के चलते दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तमाम तरह के संघर्ष और विवाद हो रहे हैं. धर्मांधता और कट्टरपंथ के चलते ही दुनिया भर में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, और जुडाइज्म के समर्थकों के बीच युद्ध और हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं. उन्होंने कहा कि धर्म को अध्यात्म की ओर बढ़ना चाहिए ताकि दुनिया में शांति कायम हो सके. प्रगति, विकास और संपन्नता के लिए शांति आवश्यक शर्त है. यह सब मिलकर ही दुनिया को खूबसूरत और खुशहाल बना सकते हैं

    सरला महेश्वरी याद करती हैं, “इसी दिन रात को वहां हिलटन होटल में भारत के राजदूत द्वारा हमारे सम्मान में रात्रिभोज था. भोजन के बाद हमें आज ही लौटना था, दिल्ली के लिए. भोजन के दौरान ही राष्ट्रपति जी ने मुझे कहा कि देखो हमारी यात्रा के बारे में आप मुझे आज ही एक नोट बनाकर दे दो क्योंकि सुबह मैं प्रधानमंत्री जी से इस बाबत मिलना चाहता हूं ताकि इस यात्रा के बारे में कुछ ठोस सुझाव हम उनके सामने रख सकें. मैंने पूछा कि क्या आपको आज ही चाहिए. उन्होंने कहा कि आप आज ही, सोने से पहले मुझे विमान में दे दें. मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया. रास्ते में एक छोटा-सा नोट तैयार करके विमान में थमा दिया, काफी खुश हुए. मैंने उनसे कहा कि सर आपकी टीम बहुत अच्छी थी. उन्होंने कहा कि नहीं, आपका साथ भी अच्छा था. इस यात्रा के दौरान वास्तव में भारत के राष्ट्रपति का एक बिल्कुल नया परिचय हुआ. एक जमीन से उठा हुआ व्यक्ति जो इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर भी अपनी जड़ों से विलग नहीं हुआ. और एक लक्ष्य को लेकर किस तरह समर्पित भाव से बिना थके उस ओर तेजी से बढ़ने के लिये बेचैन है.”

    अपनी सात-आठ दिनों की इस यात्रा में डा. कलाम जहां-जहां गए, वहां रह रहे भारतीयों, बच्चों और छात्रों से अवश्य मिले. बच्चों और छात्रों के बीच सभी तरह की औपचारिकताओं को छोड़कर वह एक स्कूल टीचर अथवा प्रोफेसर के रूप में ही मिलते, अपनी बातें सुनाते और फिर बच्चों-छात्रों को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित करते. वह प्रायः सभी सवालों के जवाब भी देते. अगर समय समाप्त हो रहा हो और प्रश्न बाकी रह रहे हों तो वह बाकायदा अपने राष्ट्रपति भवन के वेबसाइट और ईमेल का पता देकर कहते कि आप अपने सवाल मेल कर दो, जवाब वह अवश्य भेजेंगे

    एक देश से दूसरे देश जाने के क्रम में विमान यात्राओं के दौरान वह दिन में एक बार जरूर आकर मीडिया के लोगों से मुखातिब होते, उनका कुशल क्षेम जानते और बातें भी करते. एक बार तो वह जब विमान में हम लोगों के बीच आए तो हम सब प्रायः खा-पीकर सोने की तैयारी में थे. आकर उन्होंने पूछा सब ठीक है न! हक्के-बक्के हम लोगों ने उन्हें बिठाया और कुछ बातें भी की