Saturday, 15 August 2020

Quit India Movement and Madhuban

याद करो कुरबानी (2)

 मधुबन थाना गोलीकांड

मधुबन थाना गोलीकांड के बारे में प्रामाणिक दस्तावेज-साहित्य बहुत कम मिलता है. बचपन में पिताजी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विष्णुदेव स्वाधीनता संग्राम के अंतिम चरण, अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ और उसमें मधुबन के लोगों और अपने योगदान के बारे में बताते थे, लेकिन तब हमारे पल्ले उनकी बातें कुछ खास नहीं पड़ती थीं. इतना भर जानते थे कि वह स्वतंत्रता सेनानी हैं जिनके कारण हम तीन भाइयों और बहन की शहीद इंटर कॉलेज मधुबन में फीस माफ थी और छात्रवृत्ति भी मिलती थी. बाद में जब समझने, समझाने लायक बना तब भी उनसे छिटपुट जानकारियां ही जमा हो सकीं. पूरा विवरण कलमबद्ध करने का हम पिता-पुत्र का आपसी वादा टलते रहा जो कभी पूरा नहीं हो सका. वर्षों पहले, पिता जी के दिवंगत हो जाने के बाद एक बार मधुबन प्रवास के दौरान दुबारी में जनता इंटर कॉलेज के प्रबंधक, स्वतंत्रता सेनानी मंगलदेव ऋषि से मुलाकात के दौरान जब वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन के योगदान के बारे में सिलसिलेवार बताने लगे तो हमने उसे कलमबद्ध कर लिया था लेकिन वह नोट बुक कहीं दबी पड़ी रही. काफी मशक्कत के बाद कुछ दिन पहले उक्त नोटबुक मिल गई. इसके साथ ही स्वतंत्रता संग्राम में आजमगढ और मधुबन के योगदान के बारे में प्रकाशित एक विशेषांक में आजमगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी सूर्यवंश पुरी जी का एक लेख मिल गया जिससे मधुबन कांड के बारे में जानने-समझने में सहूलत हुई. इस बीच हमारे गांव कठघराशंकर में रह रहे भतीजे रजनीश बरनवाल, एडवोकेट को पिताजी के हस्तलिखित संस्मरण के कुछ पन्ने मिल गये हैं जिनसे उस समय की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों और स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन के लोगों और खासतौर से उनकी भूमिका का पता चलता है. लेकिन उनकी लिखावट को पढ़ पाना दुरूह कार्य है. रजनीश इस काम में लगे हैं. उन्होंने उसमें से कुछ विवरण भेजा भी है. इन सबको संजो, संपादित कर हम यह आलेख प्रस्तुत कर पा रहे हैं. हम इतिहासकार नहीं बल्कि पत्रकार हैं. इस आलेख में कुछ त्रुटियां संभव हैं, कुछ विवरण छूट भी गये हो सकते हैं. सुधार और संशोधन की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी. अगले वर्ष इधर- उधर बिखरे दस्तावेजों को खोज-खंगालकर एक पुस्तिका के प्रकाशन का इरादा है.

 अगस्त क्रांति और पिता जी, विष्णुदेव

पिता जी, विष्णुदेव बताते थे कि किस तरह किशोरावस्था में ही उनपर और उनके साथी युवाओं पर आजादी का जुनून सवार हो गया था. फतेहपुर जूनियर हाई स्कूल से मिडल तक की पढ़ाई के समय से ही वह स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े थे. उनके पिता जी (हमारे दादा जी) चतुरी राम की ननऊर (नंदौर) गांव में कपड़े की बड़ी दुकान थी. लेकिन उनके बड़े बेटे, विष्णुदेव का मन पढ़ाई और दुकानदारी में कम ही लगता था. वह भूमिगत क्रांतिकारियों, कांग्रेस की गतिविधियों में शामिल होने लगे. 1938 में 18 वर्ष की उम्र में वह ब्लाक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बन गए थे. साल भर बाद उनका संपर्क क्रांतिकारी शहीद भगत सिंह और चंद्रेशेखर आजाद के संगठन ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (एसोसिएशन)’ के लोगों से हो गया था. इस संबंध में वह खुद लिखते हैं, “1937 में देश के क्रांतिकारी योगेश चटर्जी, शचीन्द्रनाथ बख्शी, रामदुलारे अंडमान जेल से रिहा होकर गोरखपुर आये थे. मैं, वहां अपनी सास के इलाज के लिए गया था. कौतूहलवश मैं उनके संपर्क में आया और फिर मेरा संबंध ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी' से हो गया. मैं इनके संपर्क में रहकर गुप्त रूप से कार्य करने लगा. उन दिनों दल का काम था, सशस्त्र क्रांति की तैयारी.

वह लिखते हैं, “1940-41 में पूज्य महात्मा गांधी के नेतृत्व में व्यक्तिगत सत्याग्रह आंदोलन चला. आदतन खादी पहनने, सूत कातने व संयमी जीवन व्यतीत करने वाले कांग्रेस के पदाधिकारियों व सदस्यों को ही सत्याग्रह करने की अनुमति मिली थी. उस समय मैं अपने मंडल कांग्रेस कमेटी का कोषाध्यक्ष था. मेरे सत्याग्रह की तिथि 7 अप्रैल निश्चित थी. लेकिन सत्याग्रह के तय समय से पहले ही मुझे मेरे घर से गिरफ्तार कर मधुबन थाने में रखा गया.  दूसरे दिन किरिहड़ापुर रेलवे स्टेशन होकर आजमगढ़ ले जाए गये और जिला जेल में बंद किए गये. यह मेरी पहली जेल यात्रा थी. मुझे छः माह की सख्त कैद व 15 रुपये जुर्माने की सज़ा हुई थी. जेल में मुझे समाजवादी विचारधारा का अध्ययन करने व शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला और मैं समाजवादी हो गया. सितंबर 1941 में मैं जेल से रिहा हुआ. फिर कुछ समय अपनी दुकान का काम देखकर कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय रहता था. इस दौरान समाजवादी नेताओं से मेरा संपर्क बढ़ता रहा. 1942 में पूज्य महात्मा गांधी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय की रजत जयंती समारोह में आए थे. प्रथम बार उन्हें निकट से भी देखने व उनका भाषण सुनने का मुझे सुअवसर मिला था.”

हरहाल, भारत छोड़ो आंदोलन के तहत 16 अगस्त को घोसी और उससे पहले मधुबन थाने पर कब्जा कर तिरंगा फहराने की योजना का पता पुलिस को चल गया था. 13 अगस्त 1942 को मधुबन के थानेदार मुक्तेश्वर सिंह ने दुबारी में कांग्रेस के मंडल कार्यालय पर छापा मारकर उसे ध्वस्त करवा दिया. क्षेत्र के लोगों ने इसे बहुत गंभीरता से लिया. मंगलदेव (शास्त्री) ऋषि के अनुसार जन कार्रवाई की योजना पर चर्चा करने के लिए 13 अगस्त को गोबरही गांव में मंगला सिंह के घर कांग्रेस के नेताओं की बैठक में जिले के वरिष्ठ कांग्रेस समाजवादी नेता राम सुंदर पांडेय, गोरखनाथ शुक्ल, लोची सिंह और मंगलदेव (पांडेय) शास्त्री के साथ ही घोसी तहसील के अधिकांश कांग्रेस नेताओं-कार्यकर्ताओं ने हिस्सा लिया. तय हुआ कि जनता को साथ लेकर घोसी तहसील पर कब्जा किया जाए. श्री ऋषि के अनुसार बैठक के बाद वह कमलसागर आए. वहां राम नक्षत्र पांडेय लाठी में तिरंगा टांगे कहीं जा रहे थे. पूछने पर बताया कि भिसहां गांव में फतेहपुर मंडल के कांग्रेसियों की बैठक हो रही है. शास्त्री भी उनके साथ हो लिए. भिसहां की बैठक में फैसला बदला गया और तय हुआ कि तहसील पर नहीं बल्कि 15 अगस्त को दिन में 2 बजे मधुबन में ही जनता की भीड़ के साथ थाने पर कब्जा कर तिरंगा फहराया जाएगा. इसकी विधिवत घोषणा 14 अगस्त को दुबारी गांव में हुई सभा में रामसुंदर पांडेय ने अपने ओजस्वी भाषण में कर दी थी. इस आशय के संदेश तुरंत सभी पड़ोसी गांवों में भेज दिए गए. 14 अगस्त की सुबह जन कार्रवाई की तैयारी के सिलसिले में बीबीपुर जाने के लिए निकले गोरखनाथ शुक्ल को मूरत गोंड एवं झिनकू चौहान के साथ मधुबन के पास हिराजपट्टी संस्कृत पाठशाला से गिरफ्तार कर लिया गया. उनकी गिरफ्तारी की खबर फैलते ही दुबारी गांव के कई लोग उन्हें पुलिस हिरासत से रिहा कराने के उद्देश्य से इकट्ठा हुए. लेकिन जिला प्रशासन ने जल्दबाजी में उन्हें आजमगढ़ जेल भेज दिया.

14 अगस्त को ही, बनारस-भटनी रेलवे मार्ग पर मधुबन के करीब लेकिन बलिया जिले में स्थित किरिहड़ापुर और बेल्थरा रोड आदि कई स्टेशनों पर जमा जन समूह ने तोड़ फोड़ की. बेल्थरा रोड में रेलवे स्टेशन लूटा जा रहा था, कहीं मालगाड़ी लूटी जा रही थी तो कहीं रेल की पटरी उखाड़ी जा रही थी. टेलीफोन के तार काटे जा रहे थे. उसी दिन घोसी और मधुबन में भी पुलिस के पास सूचनाएं पहुंची कि भारी 'जन समूह' आगे पश्चिम की ओर बढ़ने से पहले मधुबन और घोसी की ओर कूच करेगा. इसकी तथा स्थानीय स्तर पर भी कांग्रेस के आंदोलनकारियों की योजना और तैयारियों की सूचना जिला कलेक्टर और मजिस्ट्रेट आर.एच. निबलेट को भी भेज दी गई. यह सुनकर कि मधुबन थाने पर हमला करने की योजना बनाई गई है, कलेक्टर ने सर्किल अफसर सुदेश्वरी सिंह, दो सब-इंस्पेक्टर, दो अंडर ऑफिसर, 17 कांस्टेबल और 42 चौकीदारों के साथ खुद 15 अगस्त की सुबह से ही मधुबन थाने में डेरा डाल लिया.

धुबन थाने के अपराध विवरण रजिस्टर में लिखा है, ‘‘कौड़ी सिंह जमींदार, दुबारी की मदद से थाने की हिफाजत का इंतजाम रात में ही कर लिया गया और इसकी सूचना जिले के आला अफसरों को भी दे दी गई. रामपुर पुलिस चौकी से असलहे (हथियार) और सिपाही रात में ही हटा लिए गए. 15 अगस्त को सबेरे खबर मिली कि एक बड़ी भीड़ गाते बजाते, नारे लगाते, कांग्रेसी झंडे लिए रामपुर चौकी लूटते-फूंकते गई है. उनका प्रोग्राम फतेहपुर डाकखाना, मधुबन डाकखाना और मधुबन थाना लूटने और फूंकने का है. वहां से बाद कामयाबी घोसी तहसील, रेलवे स्टेशन, डाकखाना लूटते फूंकते मुहम्मदाबाद तहसील पर कब्जा करते सदर आजमगढ़ पर हमला करने का है. थाने की हिफाजत के लिए चौकीदार इकट्ठा किए गए. खुशकिस्मती से जब यह काम हो चुका था, जनाब मिस्टर आर एच निबलेट कलेक्टर साहेब बहादुर भी ठाकुर सुदेश्वरी सिंह हल्का मौजूद डिप्टी सुपरिंटेंडेंट बहादुर दो नफर हथियारबंद सिपाही लेकर मधुबन थाना पर तशरीफ फरमा हुए और वाकयात को सुनकर थाने की सुरक्षा में मशरूफ हुए.”   दूसरी तरफ, आंदोलनकारी भी 15 अगस्त की सुबह ही सक्रिय हो गए थे. मधुबन के रास्ते में जो भी सरकारी कार्यालय, पुलिस चौकी, पोस्ट आफिस मिले, उन्हें नष्ट करते मधुबन पहुंचने का निर्णय लिया गया था. रामवृक्ष चौबे, विष्णुदेव, रामनक्षत्र पांडेय, शंकर वर्मा, ठाकुर तिवारी, रमापति तिवारी और अन्य लोगों ने रामपुर चौकी, डाकघर पर हमला किया और सभी सरकारी कागजात नष्ट कर दिए. जन समूह ने वहां भवन पर तिरंगा फहराकर स्वतंत्र होने और खुद मुख्तारी की घोषणा की. उत्साही भीड़ ने आगे रास्ते में फ़तेहपुर डाकघर को भी तहस-नहस कर दिया. मधुबन पहुंचने से पहले उन्होंने कठघरा शंकर में शराब की दुकान और मवेशी खाने को ध्वस्त किया.

मंगलदेव शास्त्री के अनुसार चारों दिशाओं से जनता के जत्थे मधुबन थाने की ओर बढ़ने लगे थे. दुबारी से रामसुंदर पांडेय, मंगलदेव तो फतेहपुर की ओर से रामबृक्ष चौबे, रामनक्षत्र पांडेय और विष्णुदेव गुप्ता, के साथ सैकडों लोगों का हुजूम रामपुर का डाकखाना, फतेहपुर की पुलिस चौकी लूटते हुए गांगेबीर गांव के पास जमा हुआ. वहां से लोग जुलूस की शक्ल में थाने की ओर बढ़े. पश्चिम की ओर से राम विलास पांडेय और श्यामसुंदर मिश्र के नेतृत्व में जन समूह दोहरीघाट और घोसी, बीबीपुर, सिपाह, सूरजपुर, दरगाह होते हुए मधुबन पहुंचे. दोपहर 2 बजे तक मधुबन में तकरीबन दस हजार लोग जमा हो गए थे.

नता का जुलूस मधुबन थाने के पास जाकर रुक गया. विष्णुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं, “तय हुआ कि दो नेता, मंगलदेव शास्त्री (ऋषि जी) और रामवृक्ष चौबे जी थाने में जाकर बात करें. ये लोग थाने में गये और सर्किल इंस्पेक्टर सुदीश्वर सिंह से कहा, ‘देश आजाद हो गया है. जनता का राज कायम हो गया है. आप लोग आत्मसमर्पण करो. हम थाने पर तिरंगा (राष्ट्रीय ध्वज) फहराएंगे.’ लेकिन सर्किल इंस्पेक्टर ने कहा कि आज आप लोग प्रदर्शनकारियों के साथ लौट जाएं. कलेक्टर पूरी फोर्स-तैयारी के साथ थाने में हैं. दूसरे दिन जो चाहे कीजिएगा. हमारे नेताओं ने कहा हमारे साथ इतने लोग हैं, हम तो झंडा फहराएंगे. अंत में सर्किल इंस्पेक्टर ने कहा,  अच्छा जाइए, इसे चौरी चौरा अथवा जलियांवाला कांड मत बनाइए. बातचीत से निराश हो दोनों नेता थाने से यह कहते हुए बाहर निकले कि अफसरों का अगर यही रुख है तो फिर यहां भी हमें वही करना होगा जो हमने दूसरी जगहों पर किया है.”

 इस बीच साहस और दृढ़ संकल्प के साथ जुलूस 'वंदे मातरम', 'इंकलाब जिंदाबाद', ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’, ‘अंग्रेजों वापस जाओ’ और 'गांधी जी की जय' के नारों के साथ थाने की ओर बढ़ा. भीड़ में शामिल कुछ लोगों के हाथों में लाठियां और रास्ते में चुने गए कंकर-पत्थर के टुकड़े थे. भीड़ अपने नेताओं के आदेश की प्रतीक्षा में थी. भीड़ का सामना करने के लिए पुलिस के अधिकारी और हथियारबंद जवान भी पूरी तरह से तैयार थे. थाने की छतों पर हथियारबंद पुलिस के जवान मंडराने लगे थे. थाने की खिड़कियों और सुराखों से बंदूकों की नली बाहर झांकने लगी थीं. लेकिन इसका उत्साहित और उत्तेजित जनता पर खास असर नहीं पड़ रहा था. गांधी जी के ‘करो या मरो’ मंत्र ने उनके भीतर का डर गायब कर दिया था. लोग थाने के मुख्य दरवाजे के पास तक पहुंच गए थे. रामबृक्ष चौबे और मंगलदेव ऋषि को बाहर निकलते देख दाढ़ी, जटा रखे कैथौली गांव के एक उत्साही युवक रामनरायन उर्फ बहादुरलाल श्रीवास्तव ने मंगलदेव शास्त्री को कंधे पर उठा लिया और जोर से चिल्लाया, ‘आदेश हो गया है. आगे बढ़ो.’ भीड़ तो जैसे यही सुनने को ब्याकुल थी. थाने पर सबसे पहले झंडा फहराने का गौरव हासिल करने के लिए कई दिशाओं से नौजवान आगे बढ़े. उनके पीछे 'इन्कलाब जिंदाबाद', 'अंग्रेजों वापस जाओ', 'करेंगे या मरेंगे', 'भारत माता की जय' और 'महात्मा गांधी' की जय के नारे लगाते हुए हजारों लोगों का जन समूह भी थाने की ओर चल पड़ा. भीड़ से कुछ लोग थाने को लक्ष्य कर ढेला पत्थर भी चलाने लगे. यह देख जिला कलेक्टर निबलेट ने ‘फायर’ कहकर गोली चलाने का आदेश दे दिया. इसके साथ ही थाने की छत और दीवारों के पीछे से पुलिस की बंदूकें गरज उठीं. पूरब की ओर से हाथ में तिरंगा लिए थाने में घुस रहे राम नक्षत्र पांडेय को पहली गोली लगी और मधुबन में मातृभूमि के लिए प्रथम शहीद होने का गौरव उन्हें ही प्राप्त हुआ. उसके बाद उत्तर की ओर से रमापति तिवारी आगे बढ़े और पुलिस की गोलियों से छलनी होकर शहीद हो गए. फिर तो तिरंगा लिए आगे बढ़ने की होड़ सी लग गई. लोग पुलिस की अंधाधुंध गोलियों से घायल होकर गिरने लगे. कौन किधर गिरकर मर रहा है और कौन घायल पड़ा है किसी को सुध ही नहीं रही. भीड़ से जवाबी पत्थरबाजी भी हो रही थी. एक पत्थर थाने की छत से घात लगाकर गोलियां बरसा रहे रहे सिपाही हासिम को लगा. वह वहीं गिर गया. उसके हाथ से बंदूक छूट कर नीचे गिर गई. भीड़ ने विजय प्रतीक के रूप में बंदूक ले ली लेकिन अहिंसा व्रत के पालन की शपथ के कारण किसी ने हासिम को हाथ भी नहीं लगाया. उसके गिरते ही जन समूह नये जोश के साथ थाने की ओर बढ़ चला. लगातार दो-तीन घंटे तक जन समूह की पत्थरबाजी और पुलिस की गोलीबारी चलती रहा. कितने मरे, कितने घायल हुए, किसी को सुध नहीं थी. विष्णुदेव अपने संस्मरण में लिखते हैं, “पुलिस की गोलियों से करीब 15 लोग शहीद हुए. सैकड़ों गोली से घायल हुए. मैं उस समय लाल रंग का हाफ पैंट-कमीज़ पहने था. मेरे बगल से धांय की आवाज करते पुलिस की गोली निकल गई. मैं गिर पड़ा लेकिन चोट नहीं लगी थी. फिर उठकर देखा कि भीड़ पीछे हट रही है. मैं भी भीड़ के साथ पीछे चला गया. उधर थाने से गोली चलते देखकर एक चौकीदार यादव थाने से भागने लगा तो उसे भी गोली मार दी गई. वह वहीं ढेर हो गया.”  

 जिला कलेक्टर निबलेट के अनुसार, '119 राउंड (मस्कट से 86रिवाल्वर से 27निजी बंदूकों से 6 राउंड) से अधिक फायरिंग की गई थी.' जमीन लहू लुहान थी. थोड़ी देर बाद, रात के आठ बजे से भीड़ छंटने लगी. लोग शहीद सेनानियों और घायलों की पहिचान कर सुरक्षित और उपयुक्त स्थान पर ले जाने लगे. उधर थाने में भी गोलियों का स्टॉक कम होते जाने से गोलीबारी धीमी पड़ने लगी. लेकिन थाने की घेरा बंदी थोड़ी दूर से भी जारी रही. ताकि जिला कलेक्टर एवं अन्य अधिकारी निकल कर भाग न सकें. थाने के बाहर सड़क पर सभी तरफ के रास्ते और पुलिया काट दी गई. यह स्थिति अगले दो तीन दिनों तक बनी रही. निबलेट और अन्य अधिकारी वस्तुतः दो रात और तीन दिनों के लिए थाने के भीतर ही कैद से रहे. बाद में आजमगढ़ से फौज की टुकड़ी और अतिरिक्त पुलिस के आने के बाद ही वे लोग बाहर आ सके. निबलेट 17 अगस्त की रात को आजमगढ़ पहुंचे.

    धुबन थाने में इस घटना के बारे में दर्ज रिकार्ड के अनुसार “उत्तेजित भीड़ का रुख देखकर जिला मजिस्ट्रेट बहादुर को गोली चलाने का हुक्म देना पड़ा और गोली चलनी शुरू हो गई. करीब दो घंटे तक बाकायदा जंग रही जिसमें कई कांस्टेबिल भी घायल हुए. बलवाइयों के बहुत सारे आदमी घायल और हलाक हुए (मारे गये). रात के नौ बजे के करीब मैदान साफ हो गया. लेकिन तब भी हालत खतरे से खाली नहीं थी. बलवाइयों ने मधुबन-घोसी रोड को भी काट डाला था ताकि कलेक्टर साहब बाहर नहीं जा सकें. यह सूरत महसूरी (घेराव) दो रात तीन दिन तक कायम रही जब तक कि सदर (आजमगढ़) से काफी फोर्स-इमदाद नहीं पहुंच गई. जुमला इलाका (संपूर्ण क्षेत्र) बागी हो गया था. फौजी इमदाद पहुंचने तक मुलाजिमान (कर्मचारियों) का थाने से बाहर निकलना खतरनाक रहा.”

 छह-सात घंटे के थाने के घेराव और संघर्ष में कितने सेनानी शहीद हुए और कितने घायल हुए, इसकी सही और प्रामाणिक संख्या का पता नहीं. शवों की पहिचान के आधार पर कुछ लोगों के नाम मिले हैं. इन वीर शहीदों के नाम मधुबन और कठघराशंकर में भी बने शहीद स्मारकों पर अंकित हैं. इनमें बनवारी यादव (कठघरा), हनीफ दर्जी (गुरुम्हा), कुमार मांझी (मर्यादपुर), लखनपति कोइरी (नेवादा), मुन्नी कुंवर (तिघरा), रामनक्षत्र पांडे (कंधरापुर), राजदेव कांदू (रामपुर), रघुनाथ भर (तकिया), रमापति तिवारी (तिनहरी), सोमर गड़ेरी (मर्यादपुर), शिवदान हरिजन (पहाड़ीपुर), भागवत सिंह (कुचाई), बंधु नोनिया (माछिल) तथा कैथौली के रामनारायण उर्फ ​​बहादुर लाल श्रीवास्तव (इनका नाम शहीद स्मारक पर अंकित नहीं है लेकिन इनकी शहादत की पुष्टि अन्य कई सरकारी दस्तावेजों और स्वतंत्रता सेनानियों के संस्मरणों से भी हुई है). घायलों में से कम से कम दो स्वतंतत्रता सेनानी हमारे पिता जी के बेहद करीबी राजनीतिक सहयोगियों, पांती गांव के जामवंत प्रसाद गुप्ता और अहिरौली के कन्हई भर को तो हमने बाद के वर्षों में भी देखा था. जामवंत प्रसाद के गले के पास की हड्डी को पार करते हुए गोली निकल गई थी जबकि कन्हई भर को गोली पैर में लगी थी. घाव इतना गहरा था कि वह जीवन पर्यंत लंगड़ाकर ही चलते रहे. लोग उन्हें लंगड़ कह कर भी बुलाते थे. पांती गांव के राम नरायन मल्ल भी घायल हुए थे. घायलों की पूरी सूची हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है. लेकिन मधुबन के शहीद और घायल सेनानियों के नाम देखने से पता चलता है कि उनमें सभी धर्म और जातियों के लोग थे. सही मायने में वह साझी शहादत पर आधारित जनांदोलन था.

    जिला कलेक्टर और फौज के लौट जाने के बाद पूरे मधुबन इलाके में पुलिस का भारी दमन चक्र चला. शहीदों और घायलों की खोज कर उनके परिवारवालों को प्रताड़ित किया गया. नेताओं की खोज में गांव-गांव पुलिस की दबिश बढ़ी. शक की बिना और चौकीदारों की सूचना पर भी उनके घर, मकानों को जलाना-फूंकना और लूटना शुरू हुआ. लोग गिरफ्तार किए जाने लगे. स्थानीय नेता फरार हो गए जबकि घायलों और शहीदों के परिवारों के लोग चुपचाप गम के आंसू पी गए. भेद खुल जाने के भय से उन्होंने आह भी नहीं भरी. इस क्रम में हमारे पिताजी (विष्णुदेव गुप्त) का ननऊर (नंदौर) का घर जला दिया गया था. गांव से नंदलाल मल्ल और लाली गड़ेरी गिरफ्तार किए गए थे. भूमिगत होकर आंदोलन में सक्रिय रहे विष्णुदेव अपनी फरारी और भूमिगत जीवन के बारे में लिखते हैं, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक आर्मी से संबंध के कारण मेरे पास पिस्तौल थी. कुछ फरार क्रांतिकारियों के साथ कई योजनाएं बनीं. उन दिनों मैं देवरिया जिले के कपड़वार में स्थित अपनी ससुराल में रह रहा था. देवरिया के कलेक्टर को गोली मारने की योजना में मैं भी शामिल था लेकिन वह योजना सफल नहीं हो सकी. कपड़वार में फरारी के दिनों में एक दिन सवेरे नदी किनारे टहलते समय गांव के चौकीदार व सिपाहियों से भेंट हो गई. उन्होंने मुझे पहचान लिया और पकड़ना चाहा. मैंने पिस्तौल तान दिया और गोली मार देने का डर दिखा कर वहां से बच निकला. इस बीच सूचना मिली कि मुझे हाज़िर करवाने की गरज से  घर के लोगों को बहुत तंग किया जा रहा था.” 

16 नवंबर 1942 को ‘अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट दो’ के आह्वानवाले पर्चों के साथ विष्णुदेव गिरफ्तार कर लिए गए. इस मुकदमे में उन्हें दो वर्ष की तथा मधुबन थाना कांड में शामिल होने के आरोप में दस और तीन साल की सजा हुई. जेल में रहते ही 1944 में उनके पिता चतुरी राम का निधन हो गया लेकिन वह जेल से बाहर नहीं आ सके. उनकी रिहाई 1946 में ही संभव हो सकी थी.   

आजमगढ़ के तत्कालीन जिलाधिकारी आर. एच. निबलेट की निगाह में मधुबन की लड़ाई ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ देश के विभिन्न हिस्सों में लड़े जा रहे युद्धों की तुलना में किसी से कम नहीं थी. तत्कालीन वायसराय लिनलिथगो ने अपने नोटिंग में बताया कि मधुबन की घटना के बारे में निबलेट से मिले विवरण ने 1857 की याद दिला दी.

नोटः 15 अगस्त 1942 को और उसके बाद मधुबन थाना कांड की प्रतिक्रिया में आजमगढ़ जिले और खासतौर से मधुबन के आसपास के इलाकों में हुई जन प्रतिक्रिया के बारे में अगली कड़ी में..

Friday, 14 August 2020

Quit India Movement : August Kranti and Madhuban

याद करो कुर्बानी

स्वाधीनता संग्राम में पूर्वी उत्तर प्रदेश

आजमगढ़, मधुबन का अमिट योगदान

जयशंकर गुप्त

भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और करो या मरो के नारे के साथ अगस्त क्रांति के नाम से पूरी दुनिया में चर्चित 'भारत छोड़ो' जनांदोलन में पूर्वी उत्तर प्रदेश और खासतौर से आजमगढ़ जिले का और उसमें भी मधुबन (अभी मऊ जिले में) इलाके का योगदान अभूतपूर्व रहा है. 1857 की गदर या कहें विद्रोह अथवा देश के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भी आजमगढ़ के लोगों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पूर्वी उत्तर प्रदेश में गदर के नायकों में से एक, फैजाबाद के मौलवी अहमद शाह का आजमगढ़ में बहुत प्रभाव था. अतरौलिया के राजा बेनी माधव, इरादत जहान और उनके बेटे मुजफ्फर जहान और हीरा पट्टी के ठाकुर परगन सिंह ने आजादी के इस पहले युद्ध में उनकी मदद की. तीन जून 1857 को रात 10 बजे, आजमगढ़ को स्वतंत्र घोषित कर बंधु सिंह के नेतृत्व में भारतीय ध्वज फहराया गया. प्रशासन का प्रबंधन ठाकुर पृथ्वीपाल सिंह द्वारा संभाला गया था. इन नेताओं के अलावा, सरायमीर के मीर मंसब अली, मोहब्बतपुर के जगबंधन सिंह, रमाक दास, मोतीलाल अहीर, कुंजन सिंह, भैरव सिंह, रामगुलाम सिंह और कई अन्य लोगों ने भारत को औपनिवेशिक शिकंजे से मुक्त करने के अपने प्रयासों को जारी रखा.

बताते हैं कि 1857 में मधुबन अंचल में बिहार से स्वाधीनता संग्राम के महान सेनानी बाबू कुंवर सिंह भी आए थे. स्थानीय लोगों ने बढ़-चढ़ कर उनका साथ दिया था. लेकिन इसका परिणाम भी उन्हें भुगतना पड़ा. चंदेल ज़मींदारों की सात कोस की ज़मींदारी छीनकर उस अंग्रेज महिला को दे दी गयी जिसका पति इस आन्दोलन में मारा गया था. वीर कुंवर सिंह का साथ देने के आरोप में गांव के हरख सिंह, हुलास सिंह एवं बिहारी सिंह को बंदी बनाकर उन्हें सरेआम फांसी देने का हुक्म हुआ. बिहारी सिंह तो चकमा देकर भाग निकले लेकिन अन्य दो वीर सपूतों-हरख सिंह व हुलास सिंह को ग्राम दुबारी के बाग में नीम के पेड़ पर लटका कर फांसी दे दी गई थी.

इस घटना की समूचे क्षेत्र में प्रतिक्रिया हुई. दोहरीघाट, परदहां, अमिला, सूरजपुर आदि गांवों के लोगों ने माल गुजारी देनी बंद कर दी. इस दौरान स्वाधीनता की लड़ाई को संगठित स्वरूप देने का प्रयास किया जनपद के परदहा विकास खण्ड के ठाकुर जालिम सिंह ने. उन्होंने पृथ्वीपाल सिंह, राजा बेनी प्रसाद, इरादत जहां, मुहम्मद जहां, परगट सिंह आदि के साथ घूम-घूम कर स्वाधीनता की अलख जगायी. बाद में 03 जून,1857 को अपने सहयोगी सेनानियों के साथ जालिम सिंह ने आज़मगढ़ कलेक्ट्ररी कचहरी पर कब्जा कर उसे अंग्रेजों से मुक्त करा दिया. 22 दिनों तक आज़मगढ़ स्वतंत्र रहा. 26 जून को दोहरीघाट में रह रहे नील गोदाम के मालिक बेनीबुल्स ने बाहर से आयी अंग्रेजी फौज और अपनी कूटनीति से पुनः इस जिले पर कब्जा कर लिया और शुरू किया क्रूर दमन का सिलसिला. क्रांतिकारियों को सरेआम गोली से उड़ा देना, सार्वजनिक स्थानों पर फांसी और क्रूर यातनाएं आम बात हो गयी थीं. इसके बावजूद आजादी के दीवानों का अदम्य उत्साह कम नहीं हुआ और न ही उन्होंने संघर्ष की मशाल को मद्धिम होने दिया.

 3 अक्टूबर, 1929 को महात्मा गांधी के दौरे से आजमगढ़ जिले में कांग्रेस संगठन, आंदोलन को काफी मजबूती मिली. 1930 में 7 सदस्यों की जिला परिषद गठित की गई जिसमें सीताराम अस्थाना (अध्यक्ष जिला कांग्रेस कमेटी), ठाकुर सूर्यनाथ सिंह (प्रधान महाससचिव, जिला कांग्रेस कमेटी), भवानी प्रसाद, मुकुंद राय शर्मा, रामसुंदर सिंह, शिवफेर सिंह और रमाशंकर रावत सदस्य बनाए गये. विश्राम राय और शिवराम राय जैसे स्थानीय नेताओं ने कांग्रेस के आंदोलन को आजमगढ़ के ग्रामीण हिस्सों में फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 1942 तक, पूरा जिला राजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय हो गया था.

अगस्त क्रांतिःअंग्रेजों भारत छोड़ो

आठ अगस्त,1942 को बंबई के गवालिया टैंक मैदान में कांग्रेस महासमिति की बैठक में महात्मा गांधी के अंग्रेजों ‘भारत छोड़ो’ और 'करो या मरो' के आह्वान के बाद अहिंसक क्रांति की ज्वाला पूरे देश में धधक उठी थी. नौ अगस्त को बंबई में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक के बाद महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि कांग्रेस के तमाम बड़े नेता और कार्य समिति के सदस्य गिरफ्तार कर लिए गये. कुछ भूमिगत हो गए थे. गांधी जी के आह्वान और नेताओं की गिरफ्तारी के बाद पूरे देश में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई. आम जनता सड़कों पर आ गई. यह मान लिया गया कि भारतीय स्वतंत्रता के लिए यह निर्णायक लड़ाई है. देश भर के छात्र-युवा, किसान, मजदूर, कार्यकर्ता हड़तालों और तोड़फ़ोड़ की कार्रवाइयों के जरिए सविनय अवज्ञा आंदोलन में शामिल होकर जगह-जगह इलाके की स्वतंत्रता और खुद मुख्तारी की घोषणा करने लगे. इसे अगस्त क्रांति आंदोलन का नाम दिया गया. इस आंदोलन की बागडोर मुख्य रूप से भूमिगत हो गए कांग्रेस के डा. राममनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, हजारीबाग जेल से भागे जयप्रकाश नारायण और रामनंदन मिश्र, अरुणा आसफ अली, उषा मेहता, यूसुफ मेहर अली, अशोक मेहता, श्रीधर महादेव जोशी और जीजी पारिख सरीखे, कांग्रेस समाजवादी युवा नेताओं ने संभाल ली थी. अरुणा आसफ अली ने 9 अगस्त को सबसे पहले गवालिया टैंक मैदान में तिरंगा फहराया था. डा. लोहिया ने उषा मेहता एवं कुछ अन्य सहयोगियों के साथ भूमिगत रेडियो की व्यवस्था भी कायम कर ली थी. खुद को राष्ट्रवादी, हिंदुत्ववादी कहनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसंवक संघ, हिन्दू महा सभा के साथ ही मुस्लिम लीग भी इस जनांदोलन से अलग रहे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अपने ही कारणों से अगस्त क्रांति आंदोलन से दूरी बना ली थी. आरएसएस के लोगों की इस आंदोलन में भूमिका को लेकर पूछे गये एक सवाल के जवाब में गुरु जी के नाम से चर्चित इसके तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिव गोलवलकर ने कहा था कि अभी हमें अंग्रेजों के बजाय अपने अंदरूनी शत्रुओं-कम्युनिस्टों और अल्पसंख्यकों से लड़ना है. उस समय बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ सरकार साझा कर रहे हिन्दू महासभा के नेता, फजलुल हक की सरकार में वित्त मंत्री डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो अंग्रेज सरकार को पत्र लिखकर भारत छोड़ो आंदोलन और आंदोलनकारियों से सख्ती से निबटने के सुझाव भी दिए थे. गौरतलब है कि उस सरकार के प्रधानमंत्री फजलुल हक ने ही उससे पहले 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर सम्मेलन में मुसलमानों के लिए अलग देश बनाने का प्रस्ताव पेश किया था.

बहरहाल, अंग्रेजों ने भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति काफ़ी सख्त रवैया अपनाया. भारी दमन चक्र चला. ऐसा माना जाता है कि यह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का आखिरी सबसे बड़ा और निर्णायक जनांदोलन था, जिसमें सभी भारतवासियों ने जाति, धर्म और ऊंच-नीच का भेद मिटाकर एक साथ बड़े पैमाने पर एकजुट होकर भाग लिया था. कई जगह समानांतर सरकारें भी बनाकर खुद मुख्तारी भी घोषित की गई.

सुलग उठा पूर्वी उत्तर प्रदेश

जब पूरे देश में क्रांति और जनांदोलन की ज्वाला धधक रही हो, पूर्वी उत्तर प्रदेश की वीर वसुंधरा खामोश कैसे रह सकती थी. बनारस, गाजीपुर, बागी बलिया और आजमगढ़ के शहरी ही नहीं ग्रामीण इलाकों में भी अंग्रेजी राज के प्रति असंतोष, आक्रोश और जनांदोलन का ज्वार चरम पर था. भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत के साथ पूरा आजमगढ़ जिला जन कार्रवाइयों की जद में आ गया था. सभी औपनिवेशिक प्रतीक और खासतौर से संचार माध्यम और पुलिस थाने आंदोलनकारियों के निशाने पर थे. थाना, पोस्ट आफिस, तहसील पर कब्जाकर तिरंगा फहराया जाने लगा. टेलीफोन के तार काट कर संचार प्रणाली को बाधित कर संबद्ध इलाके और जिले को शेष भारत से काट देने की कोशिश की गई.

आजमगढ़ में जनांदोलन कितना प्रबल था, इसे तत्कालीन जिला कलेक्टर आर. एच. निबलेट के इन शब्दों से भी समझ सकते हैं, “हर जगह परेशानी थी; लेकिन मुख्यतः जिले के पूर्वी हिस्से में समस्या अधिक थी. मधुबन और तरवा के पुलिस हलकों में नागरिक प्रशासन पूरी तरह से बाधित था और पुलिस अपने मुख्यालय की सीमाओं से बाहर कार्य नहीं कर सकती थी.”

9 अगस्त, 1942 को, आजमगढ़ में जिला कांग्रेस कार्यालय को जब्त कर लिया गया था. कई गिरफ्तारियां की गई थीं, जिला कांग्रेस के अध्यक्ष सीता राम अस्थाना और सच्चिदानंद पांडे को भी हिरासत में ले लिया गया. कांग्रेस के कई नेता और सक्रिय सदस्य गिरफ्तारी से बचने के लिए गांवों में चले गए. 10 अगस्त को कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी की ख़बरों से भड़क उठी जनता ने जगह-जगह हड़तालें आयोजित कीं और जुलूस निकालकर अंग्रेजी राज के खिलाफ अपनी नाराजगी व्यक्त की. शिबली जॉर्ज इंटरमीडिएट कॉलेज को छोड़कर सभी शैक्षणिक संस्थानों ने हड़ताल में भाग लिया. इस दिन कप्तानगंज के उमा शंकर मिश्रा, नेवादा के कृष्ण माधव लाल और आजमगढ़ के लल्लन प्रसाद वर्मा को गिरफ्तार किया गया. इन गिरफ्तारियों ने जिले में तनावपूर्ण स्थिति पैदा कर दी और वे नेता जिन पर पुलिस को संदेह नहीं था और जो अभी तक गुप्त रूप से आंदोलन में सक्रिय थे, उन्होंने समन्वित कार्रवाई के लिए लोगों को तैयार करना शुरू किया. जुलूस और प्रदर्शन 11 अगस्त को भी जारी रहा. सीता राम अस्थाना की रिहाई के लिए प्रशासन पर दबाव बनाने के लिए कई छात्र जेल के गेट के सामने धरना देकर बैठ गए. 11 अगस्त की शाम तक, जिले के एक बड़े कांग्रेसी नेता, अलगू राय शास्त्री बंबई में कांग्रेस महाधिवेशन में भाग लेकर अपने गृह नगर अमिला (अभी मऊ जिले में) लौट आए थे. उन्होंने कुछ छात्र नेताओं से मुलाकात की और उन्हें कांग्रेस के कार्यक्रम के बारे में बताया. इससे पहले कि कोई कार्य-योजना चाक-चौबंद हो पाती, 12 अगस्त को काशी विद्यापीठ से चंद्रशेखर अस्थाना आजमगढ़ पहुंचे. वह अपने साथ एक पुस्तिका की प्रतियां लेकर आए, जिसमें गांधी जी के 'करो या मरो’ की सीमाएं बताई गई थीं. हालांकि वह बातें अलगू राय शास्त्री ने पहले ही समझा दी थी. भारत छोड़ो आंदोलन के लिए निर्देश स्पष्ट थे;

1. सभा और जुलूस आयोजित करना प्रांत के कार्यकर्ताओं-निवासियों का सर्वोपरि कर्तव्य है. पोस्टर-पर्चों के जरिए कांग्रेस के कार्यक्रम को जनता तक प्रसारित करना चाहिए.

2. सरकारी मशीनरी को पंगु बनाने के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए.

3. एक निश्चित समय और तिथि पर प्रत्येक प्रांत को अपनी स्वतंत्रता, खुद मुख्तारी की घोषणा करनी चाहिए.

4. स्वतंत्रता की घोषणा के बाद परिस्थितियों के अनुसार प्रत्येक प्रांत में आवश्यक निर्देश जारी किए जाने चाहिए.

5. कार्यक्रम को इसके विभिन्न चरणों के माध्यम से लागू किया जाना चाहिए और सितंबर के अंत तक समाप्त किया जाना चाहिए.

उपरोक्त निर्देशों के आलोक में श्रीकृष्ण पाठशाला के छात्रावास में रात 12 बजे एक बैठक आयोजित की गई. बैठक में अर्जुन सिंह, शिवराम राय, अक्षयवर शास्त्री, फूलबदन सिंह, रामधन राम, रामअधार और अन्य उपस्थित थे. सर्वसम्मति से तय हुआ कि तहसीलों और मंडलों में पूरे जिले में एक साथ विद्रोह करने के लिए लोगों को तैयार करना चाहिए ताकि आजमगढ़ में ब्रिटिश साम्राज्य की जड़ें और शाखाओं को एक बार में उखाड़ फेंका जा सके. बैठक में नेताओं को अलग-अलग तहसीलों में जनांदोलन का नेतृत्व करने की जिम्मेदारी तय कर रवाना कर दिया गया. अर्जुन सिंह, राघवराम सिंह, रामधन राम, बनारसी सोनार और शिव कुमार राय अपने छात्रों के समूह के साथ उत्तर में सगड़ी तहसील की ओर चले गए. उनका उद्देश्य रौनापार और जियनपुर पुलिस चौकी पर कब्जा करना था. उसके बाद उनका उद्देश्य डाकघर और तहसील कार्यालय पर कब्जा करना था. रामधारी राय और गोविंद राय के साथ एक और समूह रानी की सराय के लिए रवाना हुआ। मार्कंडेय सिंह के नेतृत्व में मुक्तिनाथ राय, अवधनाथ सिंह, माताभीख सिंह, राम समर सिंह और कुछ अन्य लोग पश्चिम की ओर चले गए. उनका उद्देश्य अतरौलिया क्षेत्र में डाकघरों को नष्ट करने के बाद कंधरापुर, महराजगंज और अतरौलिया पुलिस स्टेशन पर कब्जा करने का था.

हरि प्रसाद गुप्ता, श्यामरथी सिंह और विंध्याचल सिंह के नेतृत्व में एक चौथे समूह ने मुहम्मदाबाद और खुरहट की ओर कूच किया. लालगंज तहसील की जिम्मेदारी सूर्यवंश पुरी पर थी. अक्षयवर शास्त्री, लाल सिंह और जगन्नाथ राय को घोसी की महत्वपूर्ण तहसील सौंपी गई थी जिसमें मधुबन पुलिस थाना था.

शहरी क्षेत्रों में जुलूस-प्रदर्शन और हड़ताल के रूप में जन कार्रवाई जारी रही लेकिन आजमगढ़ में आंदोलन की एक दिलचस्प विशेषता यह थी कि जन कार्रवाई की बड़ी घटनाएं ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक हुईं.

 मधुबन में थाने पर ‘जनता राज’

 मधुबन आजमगढ़ जिले का सबसे दूरस्थ सर्कल था. यह तत्कालीन गोरखपुर और बलिया जिलों की सीमाओं के साथ लगा अत्यंत पिछड़ा इलाका था. यहां पक्की सड़कों और रेलवे से संपर्क नहीं था (रेल संपर्क तो अब भी नहीं है). निकटतम रेलवे स्टेशन घोसी (10 मील) और बेल्थरा रोड (14 मील) था. इस इलाके में कांग्रेस और समाजवादियों का मजबूत आधार था. मधुबन किसान आंदोलनों के कारण भी चर्चित था. भारत छोड़ो आंदोलन के तहत कांग्रेस और इसके भीतर सक्रिय समाजवादियों के नेतृत्व में 15 अगस्त 1942 को पूर्व निर्धारित और पूर्व घोषित कार्यक्रम के तहत हजारों छात्र-युवा, ग्रामीण किसानों की भीड़ ने मधुबन थाने को घेर लिया था. थाने पर तिरंगा फहराने को उद्धत भीड़ पर जिला कलेक्टर और थानेदार की उपस्थिति में पुलिस ने कई चक्र गोलियां चलाई. एक दर्जन से अधिक लोग मौके पर ही शहीद हो गये. दर्जनों लोग गंभीर और कुछ मामूली रूप से भी घायल हुए. बहुत सारे लोग गिरफ्तार हुए. कुछ भूमिगत हो गये. उनके घर परिवार को तंग तबाह किया गया. कई लोगों के घर जला दिए गये. उनमें से एक घर मधुबन से दो ढाई किमी दूर हमारे पुश्तैनी गांव नंदौर में पिताजी, समाजवादी नेता, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकतंत्र सेनानी एवं पूर्व विधायक दिवंगत विष्णुदेव का भी था.

मधुबन के शहीद, स्वतंत्रता सेनानियों की याद में वहां शहीद इंटर कालेज मधुबन बना और आजादी के बाद 'शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले' की तर्ज पर मधुबन, अस्पताल वाली बाग (अब बाग तो रहा नहीं) में हर साल 15 अगस्त को शहीद मेला लगता रहा. इसे संयोग मात्र भी कह सकते हैं कि 1975 में देश में लागू आपातकाल के विरुद्ध दूसरी आजादी की लड़ाई के सिलसिले में 15 अगस्त 1975 को पिता जी अपने दर्जनों समर्थकों के साथ इसी शहीद मेले में सभा-सत्याग्रह करते हुए गिरफ्तार हुए थे.

 चौरी चौरा और मधुबन थाना कांड

  लेकिन यह अफसोस की बात है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में मधुबन का इतना बड़ा योगदान राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर भी अचर्चित सा रहा. उसे वैसी प्रसिद्धि और ख्याति नहीं मिल सकी जैसी प्रसिद्धि बलिया की घटना और गोरखपुर के चौरी चौरा कांड को मिली. चौरी चौरा और मधुबन थानाकांडों में मूलभूत फर्क यह था कि गोरखपुर के पास चौरी चौरा में 5 फ़रवरी 1922 को असहयोग आंदोलन के क्रम में आंदोलनकारियों ने पुलिस चौकी को आग लगा दी थी जिससे उसमें छुपे हुए 22 पुलिस कर्मचारी जिन्दा जलकर मर गए थे. इससे दुखी होकर गांधीजी ने यह कहते हुए असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था कि अब यह आंदोलन अहिंसक नहीं रह गया है.

 इसके उलट मधुबन में थाने का घेराव कर वहां तिरंगा फहराने की कोशिश में जमा भीड़ अहिंसक थी और पुलिस ने निहत्थी भीड़ पर गोलियां बरसाई थीं जिसमें सरकारी आंकड़ों के अनुसार भी एक दर्जन से अधिक लोग मौके पर ही शहीद हो गये थे. 

नोटः अगली कड़ी में मधुबन थाने पर जनता के घेराव, अहिंसक भीड़ पर पुलिस की गोलीबारी और साझी शहादत के बारे में विस्तार से.



Sunday, 2 August 2020

डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण-2 : नील नदियों के संगम वाले शहर खारतूम में

सूडानः नील नदियों का संगम

जयशंकर गुप्त




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0 अक्टूबर, सोमवार को हम लोग दिन में ढ़ाई बजे दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे. वहां डा. कलाम को विदा करने के लिए दुबई के शाही राजकुमार एवं रक्षा मंत्री मोहम्मद बिन राशिद अल मखतूम सदल बल मौजूद थे. दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से राष्ट्रपति के विशेष विमान से हम लोग जब सूडान की राजधानी खारतूम पहुंचे, स्थानीय समय के मुताबिक वहां शाम के बजे थे. 

दुबई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर डा. कलाम को विदा करते हुए शाही राजकुमार एवं रक्षा मंत्री मोहम्मद बिन राशिद अल मखतूम (तस्वीर गल्फ न्यूज).

खारतूम अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर सूडान के राष्ट्रपति ओमर हसन अल बशीर द्वारा रेड कार्पेट स्वागत (तस्वीर इंटरनेट से).खारतूम अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर बिछे रेड कार्पेट पर भारतीय राष्ट्रपति डा. कलाम का स्वागत सूडान के राष्ट्रपति ओमर हसन अल बशीर ने बैंड बाजेपर बजती दोनों देशों की राष्ट्रीय धुनों के बीच गार्ड आफ ऑनर के साथ किया. डा. कलाम की सूडान यात्रा से 28 साल पहले भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति के रूप में फखरुद्दीन अली अहमद 1975 में सूडान आए थे. उसके 28 साल बाद खारतूम पहुंचनेवाले डा. कलाम पहले राष्ट्रपति थे.

    सूडान अफ्रीका और अरब जगत का सबसे बड़ा देश है, इसके अलावा क्षेत्रफल के लिहाज से दुनिया का दसवां सबसे बड़ा देश भी है. इसका क्षेत्रफल इंग्लैंड से 10 गुना बड़ा है. इसके उत्तर में मिस्र, उत्तर पूर्व में लाल सागर, पूरब में इरिट्रिया और इथियोपिया, दक्षिण पूर्व में युगांडा और केन्या, दक्षिण पश्चिम में कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य और मध्य अफ्रीकी गणराज्य, पश्चिम में चाड और पश्चिमोत्तर में लीबिया स्थित है. सूडान दुनिया के उन गिने-चुने देशों में शामिल है, जहां आज भी 3000 ईसा पूर्व बसी बस्तियां अपना वजूद बचाए हुए हैं. दुनिया की सबसे लंबी नील नदी, देश को पूर्वी और पश्चिमी हिस्सों में विभाजित करती है. उत्तर से विक्टोरिया झील से आती श्वेत नील और पश्चम में इथोपिया से आती ब्लू नील नदियों के संगम पर स्थित है, सूडान का राजधानी शहर खारतूम. 

 नील नदी के तट पर

    भारत और सूडान के बीच संबंधों का लंबा इतिहास रहा है. दोनों देशों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक संबंधों की भी लंबी परंपरा है. दोनों देशों ने उपनिवेशवाद के खिलाफ लम्बी लड़ाइयां लड़ी हैं. साथ चल रहीं सांसद सरला महेश्वरी याद करती हैं, “अफ्रीका के साथ हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का गहरा संबंध था. इसलिए भी अफ्रीका के लोगों के साथ हमारी आत्मीयता और भी गहरी है. रात के लिए खारतूम में कोई विशेष आधिकारिक कार्यक्रम नहीं था. लिहाजा हमने और सुरेश प्रभु ने शहर घूमने का कार्यक्रम बनाया. दिमाग में नील नदी को देखने का आकर्षण इतना गहरा था कि मैं अपने को रोक नहीं पा रही थी और इस बात का भी मुझे पूरा डर था कि यूएई में अबू धाबी और दुबई की तरह यहां भी घूमने के लिये समय तो मिलने वाला नहीं है. सुरेश प्रभु भी समान रूप में उत्साही थे, सो, हम दोनों एक ही गाड़ी में निकल पड़े. खारतूम का नजारा अबू धाबी और दुबई से कतई अलग था. छोटे-छोटे पुराने टूटे-फूटे घर, दुबली-पतली सड़कें. सौभाग्य से हमें एक भारतीय मिल गये जो वहां शुगर फैक्ट्री में मैनेजर थे और अब सेवानिवृत्त होकर उनके कंसलटेंट बने हुए थे.

    सूडान की राजधानी, खारतूम कोई खास बड़ा शहर नहीं था और भीड़-भाड़ और ट्रैफिक भी नहीं इसलिए आप तीन-चार घंटों में आराम से पूरा शहर घूम सकते हैं. हम लोग उस पुल पर गये जहां से दोनों नदियों के मिलन स्थल (संगम) को देखा जा सकता था. हालांकि यह रात का समय था इसलिए वो नजारा हमें देखने को नहीं मिला. हमारे स्थानीय मित्र पूरे रास्ते हमें यहां का इतिहास और यहां के लोगों की संस्कृति के बारे में बताते रहे. अपने एक अनुभव का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि एक बार वे और उनकी पत्नी कहीं से आ रहे थे तो देखा कि सड़क पर सब लोग जमा हैं, खाने-पीने का कार्यक्रम चल रहा है. अचानक कुछ लोग उनकी गाड़ी के सामने खड़े हो गये और मनुहार करने लगे कि उन लोगों को कुछ तो खाकर ही जाना पड़ेगा. उन्होंने बताया कि यहां रिवाज है कि रमजान के महीने में सभी लोग इसी तरह रोजा एक साथ खोलते हैं और जो भी उनके मोहल्ले से या रास्ते से गुजरता है, उसे इसी तरह निमंत्रण देकर अपने साथ खिलाते हैं.”

    20 अक्तूबर की शाम सूडान में भारत के राजदूत अशोक कुमार ने डा. कलाम के सम्मान में हमारे और वहां रह रहे प्रमुख भारतीयों के लिए रात्रिभोज का आयोजन किया था. वहां माइक्रो लैब्स के भारतीय मूल के वाइस प्रेसीडेंट भास्कर चक्रवर्ती मिल गये. उन्होंने डा. कलाम के साथ उनकी पुस्तक ‘इंडिया 2020’ पर चर्चा की थी.

 श्री चक्रवर्ती (सबसे बाएं भूरे रंग के सूट में)  इस मुलाकात को यादगार और ऐतिहसिक मानते हैं. उन्होंने उस मौके की तस्वीर और यहां तक कि भारतीय राजदूत के निवास पर रात्रिभोज का निमंत्रण पत्र भी सहेजकर रखा है.

अगली सुबह, 21 अक्टूबर को सुनहरे अतीत और तमाम तरह की ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासतें संजोए खारतूम शहर में हमने उस जगह को भी देखा जहां नीले और सफेद जलवाली दोनों नील नदियों का संगम होता है. इस जगह को ‘अल मोर्गन’ कहते हैं. यहीं से ग्रेट (मुख्य) नील नदी उत्तरावर्ती होकर मिश्र और अंततः भूमध्यसागर की यात्रा करती है. 21 अक्तूबर की अल्लसुबह डा. कलाम के साथ ‘ग्रेट नील नदी’ में नौकायन करते हुए हम सबको वहां सूर्योदय का नयनाभिराम नजारा देखने को मिला.

नील नदी के तट से सूर्योदय से पहले की छटा





ह्वाईट और ब्लू नील नदियों के संगम के पास नौकायन

संगम स्थल पर दोनों नील नदियों की विभाजन रेखा सी साफ नजर आ रही थी. हमारे लिए तो कुछ कुछ हमारे इलाहाबाद (प्रयाग) में संगम की छटा जैसा अनुभव था जहां यमुना और गंगा नदियों का संगम होता है. यमुना नदी का नीला जल, गंगा के सफेद (बरसात में भूरे जल) से मिलने के बाद एककार होकर गंगा पूरब की ओर मिर्जापुर, वाराणसी होते हुए बिहार के रास्ते पश्चिम बंगाल में समुद्र में मिलती है. पश्चिम बंगाल में गंगा का नाम बदलकर भागीरथी और हुगली भी हो जाता है. लेकिन नील नदी की यात्रा ज्यादा लंबी होती है.

    लेकिन सूडान और इसके राजधानी शहर खारतूम में पिछले दो दशकों से राजनीतिक अस्थिरता, उत्तरी और दक्षिणी सूडान के लोगों के बीच सतत जारी रहनेवाले गृह युद्ध, आतंकवाद, भूख और अकाल के साथ ही अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक प्रतिबंधों की मार भी साफ दिख रही थी. यूनाइटेड किंगडम यानी ब्रिटिश साम्राज्य से 1956 में स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद सूडान को 17 साल तक चले लंबे गृह युद्ध का सामना करना पड़ा, जिसके बाद अरबी और न्यूबियन मूल की बहुतायत आबादीवाले उत्तरी सूडान और ईसाई और एनिमिस्ट निलोट्स बहुल आबादीवाले दक्षिणी सूडान के बीच जातीय, धार्मिक और आर्थिक युद्ध छिड़ गया. इसकी वजह से 1983 में दूसरा गृह युद्ध भी शुरू हुआ. इन लड़ाइयों के बीच कर्नल उमर अल बशीर ने 1989 में रक्तविहीन तख्तापटल कर सत्ता हथिया ली.

    प्राकृतिक संसाधन के रूप में पेट्रोलियम और कच्चे तेल से भरे-पूरे सूडान गणराज्य की राजधानी खारतूम शहर में घूमते समय पिछड़ेपन का भूगोल और दहशत का माहौल साफ नजर आया. देर रात को एक सुनसान सी सड़क पर टहलते समय स्थानीय सुरक्षा बलों के जवानों ने रोक लिया. उनकी भाषा अपने पल्ले तो पड़ नहीं रही थी, पूछताछ के क्रम में हमने अपना पासपोर्ट दिखा दिया. फिर उनके सार्जेंट ने मुस्कराते हुए अंग्रेजी में कहा कि आप खुशकिस्मत हैं कि आपके साथ कुछ नहीं हुआ. लेकिन इस तरह से आप लोगों का अकेले सुनसान जगहों पर घूमना ठीक नहीं. कभी भी, कहीं कुछ भी घटित हो सकता है. बाद में पता चला कि राहजनी और छिनताई वहां आम बात है. सही मायने में खारतूम भारत के किसी छोटे शहर जैसा ही लगा. ऑटो रिक्शा, खटारा बसें और टैक्सियां, सब भारत की तरह ही. बताया गया कि सूडान में तकरीबन 2500 भारतीय परिवार दशकों से रह रहे हैं. वे लोग यहां के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन के साथ पूरी तरह से रच बस गए हैं. इनमें से अधिकतर व्यवसाई हैं.

नेशनल असेंबली में संबोधन

     21 अक्टूबर की सुबह ही हम लोग ‘फ्रेंडशिप हाल’ में पहुंचे, जहां राष्ट्रपति ओमर हसन अहमद अल बशीर तथा उनके मंत्रिमंडल के साथियों के साथ डा. कलाम की प्रतिनिधि स्तर की बातचीत हुई. सूडान के राष्ट्रपति अल बशीर डा. कलाम की इस यात्रा से बहुत खुश थे और चाहते थे कि कलाम साहब हमारे प्रधानमंत्री, अटल बिहारी वाजपेयी से बात करें ताकि दोनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग की दिशा में कामों को और तेजी से आगे बढ़ाया जा सके. सूडानी ऊर्जा मंत्री ने राष्ट्रपति जी से कहा कि वे चाहते हैं कि यहां भारत 714 कि.मी. लम्बी तेल की पाइप लाइन बनाये तथा सूडान के बंदरगाह पर तेल शोधन संयंत्र को और आधुनिक बनाये. इस द्विपक्षीय बातचीत के अलावा डा. कलाम ने सूडान की संसद (नेशनल एसेंबली) को भी संबोधित किया. हम लोग भी उनके साथ सूडान की नेशनल एसेंबली में गये, जहां डा. कलाम का सारगर्भित दार्शनिक भाषण हुआ. उन्होंने धर्म और अध्यात्म के साथ ही आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भी अपने बेबाक विचार रखे. सूडान के राजनेता, सांसद डा. कलाम की सादगी और साफगोई से बेहद प्रभावित हुए. डा. कलाम ने कहा कि गृह युद्ध, अराजकता, अशांति और राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे सूडान को अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों को भी झेलते रहना पड़ा है. लेकिन अब सूडान में भी राजनीतिक स्थिरता बनते दिख रही है. शांति प्रक्रिया अंतिम चरण में है. उन्होंने बताया कि सूडान में भी दौलत और प्राकृतिक संसाधनों की कमी नहीं है. लेकिन सुनियोजित ढंग से इनका दोहन और देश की प्रगति और विकास में इनका इस्तेमाल नहीं हो सका है. सूडान के लोग मदद के लिए हमारी ओर देख रहे हैं. सूडान में तेल और प्राकृतिक गैस के अकूत भंडार हैं. द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग बढ़ने की स्थिति में भारत अपनी तेल और प्राकृतिक गैस की जरूरतों का बड़ा हिस्सा सूडान से भी पूरा कर सकता है. भारत के ओएनजीसी (विदेश लि.) ने वहां तेल और गैस की खोज और उत्पादन, विपणन और निर्यात में साझीदारी शुरू की है. सूडान की सबसे बड़ी और प्राकृतिक गैस परियोजना को संचालित करनेवाली ग्रेटर नील पेट्रोलियम ऑपरेटिंग कंपनी में 75 करोड़ अमेरिकी डालर के निवेश की हिस्सा पूंजी के साथ ओएनजीसी ने एक चौथाई हिस्सेदारी खरीद ली है. डा. कलाम ने इस तरह के निवेश और सहयोग को और बढ़ाने पर जोर दिया. उन्होंने नेशनल एसेंबली में सूडान के राजनेताओं को संबोधित करते हुए कहा कि भारत और सूडान में तमाम तरह की समानताएं हैं. दोनों देशों को और बहुत पहले एक दूसरे के करीब आना चाहिए था. उन्होंने वर्ष 2020 तक भारत को विकसित देश बनाने के अपने ‘विजन 2020’ को समझाते हुए कहा कि यह विजन सूडान और अन्य विकासशील देशों के आर्थिक विकास में भी बहुत सहायक हो सकता है. उन्होंने कहा, ‘‘आपके पास प्राकृतिक संसाधन हैं और हमारे पास विजन (दृष्टिकोण) और अपार मानव शक्ति. इनके आपसी समन्वय और सहयोग से हम दोनों देश फायदा उठा सकते हैं.” अबू धाबी और दुबई की तरह खारतूम में भी डा. कलाम का जोर इस बात पर था कि विकास के लिए शांति एक आवश्यक शर्त है. साथ चल रहे केंद्रीय मंत्री अरुण शौरी ने बाद में बताया कि दोनों देशों ने आतंकवाद को कैंसर करार देते हुए इसके खिलाफ संघर्ष में परस्पर सहयोग पर सहमति जताई.

 दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय बातचीत में भी यह बात उभर कर आई कि जब तक दुनिया के सभी देश आतंकवाद की बीमारी के खिलाफ संघर्ष में एकजुट नहीं होंगे तब तक इसका समूल सफाया कर पाना नामुमकिन होगा. रात को सूडान के राष्ट्रपति द्वारा रात्रिभोज था, जिसका हम सबने बहुत आनन्द उठाया. सूडानी नृत्य और गीत के अलावा हमें हिंदी गीत भी यहां सुनने को मिले.

    सूडान यात्रा के दौरान तीन समझौतों पर हस्ताक्षर भी किए गए. सूडान और भारत के बीच द्विपक्षीय व्यापार लगातार बढ़ रहा है. 2002-03 के दौरान यह 129 मिलियन अमेरिकी डॉलर (भारतीय निर्यात 105 मिलियन और भारतीय आयात तकरीबन 24 मिलियन अमेरिकी डालर डालर) का था. इस वर्ष सूडान के हाइड्रोकार्बन क्षेत्र में ओएनजीसी विदेश लिमिटेड द्वारा 750 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश दोनों देशों के बीच आर्थिक और वाणिज्यिक सहयोग में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. सूडान भारतीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग (ITEC) कार्यक्रम के तहत विशेष प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों के प्रमुख लाभार्थियों में से एक है. द्विपक्षीय सहयोग भी फार्मास्यूटिकल्स, सूचना प्रौद्योगिकी, मानव संसाधन विकास और शैक्षणिक और संस्कृति एक्सचेंज जैसे क्षेत्रों तक फैला हुआ है.    

22 अक्तूबर की सुबह 9.30 बजे डा. कलाम ने खारतूम विश्वविद्यालय के शिक्षाविदों और छात्रों के साथ भी लंबी बातचीत की. उन्होंने और भारतीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त चुके सूडान के पूर्व छात्रों से भी मुलाकात की. इस समय, 2003 में भी सूडान के 2,500 छात्र भारत में पढ़ रहे हैं. खारतूम विश्वविद्यालय के शिक्षाविदों और छात्रों को संबोधित करते हुए डा. कलाम ने शिक्षा और राष्ट्रीय विकास, प्रौद्योगिकी का विकास, सामाजिक समृद्धि के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी की भूमिका, भारत-सूडान के बीच आपसी सहयोग के बिंदुओं, छात्र-युवाओं के समक्ष वैश्विक चुनौतियों, 21वीं सदी में वैश्विक विकास की चुनौतियों आदि गूढ़ विषयों पर चर्चा की. उन्होंने विकास के लिए देश-समाज में स्थिरता को जरूरी बताया. इस अवसर पर उन्होंने सूडान के शिक्षकों और छात्रों के जरिए पूरी दिनया के लिए भी एक काव्य संदेश भी दिया.

    खारतूम विश्वविद्यालय से फारिग होकर दोपहर का भोजन हम लोगों ने हड़बड़ी में पूरा किया क्योंकि विश्वविद्यालय में तय समय से ज्यादा समय बीत गया और हम लोगों को बुल्गारिया की राजधानी सोफिया के लिए निकलना था. जाना तो राष्ट्रपति के विशेष विमान से ही था, इसलिए समय की कोई बात नहीं थी. लेकिन डा. कलाम इस मामले में समय के बहुत पाबंद थे कि जहां जाना है, समय पर ही पहुंचें.

 नोटः अगली कड़ी बुल्गारिया में तीन दिनों के प्रवास पर

 


Monday, 27 July 2020

Foreign visits with President Dr. APJ Abdul Kalam (राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण)

डा. कलाम के साथ विदेश भ्रमण (1)

जयशंकर गुप्त

दुनिया भर में 'मिसाइल मैन' के नाम से मशहूर, भारत रत्न, पूर्व
राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम ने भारत के राष्ट्रपति के रूप में पहली विदेश यात्रा अबू धाबी, दुबई, सूडान और बुल्गारिया की थी. मेरा सौभाग्य था कि इन देशों की यात्रा में मैं उनके साथ था. डा. कलाम के साथ अपनी विदेश यात्रओं के संस्मरणों की पहली किश्त के रूप में हम अबू धाबी और दुबई की उनकी यात्रा और उनसे जुड़े कुछ संस्मरण साझा कर रहे हैं.


पहला पड़ाव अबू धाबी             और दुबई


जयशंकर गुप्त


    जिंदगी में जिन कुछ लोगों ने मुझे अपने विचारों और उससे भी अधिक अपने व्यक्तित्व से बेतरह प्रभावित किया, उनमें देश के पूर्व राष्ट्रपति डा. कलाम भी एक थे. वह कोई राजनीतिज्ञ नहीं थे और न ही राजनीतिक विचारक अथवा समाज विज्ञानी. विज्ञान और तकनीक में मेरी अपनी कुछ समझ और दखल नहीं के बराबर होने के कारण उनके इस गुण से बहुत ज्यादा प्रभावित होने का प्रश्न भी नहीं था. लेकिन राष्ट्रपति के रूप में उनके व्यक्तित्व, उनकी सादगी और साफगोई, देश और समाज के साथ ही गांव और गरीब के लिए हर पल कुछ करने की उनके अंदर की बेचैनी जैसी कुछ बातें ऐसी थीं जिनके कारण मैं उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. जिस राष्ट्रपति भवन को खाली करते समय देश के एक पूर्व राष्ट्रपति दो बोइंग विमानों में सामान भरकर अपने साथ घर ले गए थे, उसी राष्ट्रपति भवन में डॉक्टर कलाम एक बैग के साथ पहुंचे और लौटते समय भी एक ही बैग उनके साथ गया. राष्ट्रपति भवन से विदा लेने के अगले ही दिन से वह अध्यापन में जुट गये. यह महज संयोग भर नहीं था कि 27 जुलाई 2015 की शाम उनका इंतकाल भी मेघालय की राजधानी शिलांग में भारतीय प्रबंधन संस्थान में 'रहने योग्य ग्रह' जैसे गूढ़ विषय पर व्याख्यान देते समय दिल का दौरा पड़ने के बाद ही हुआ था.

    डा. कलाम के इंतकाल के बाद नई दिल्ली के 10 राजाजी मार्ग पर स्थित उनके सरकारी निवास पर मिली उनकी जमा पूंजी दशकों नहीं बल्कि सदियों तक किसी पूर्व राष्ट्रपति की सादगी और उनके मितव्ययी जीवन के रूप में हमारी आनेवाली पीढियों को प्रेरित करती रहेगी. एक रिपोर्ट के अनुसार डॉक्टर कलाम के पास निजी तौर पर कोई भी चल अचल संपत्ति नहीं थी. उनके पास जो चीजें थी उसमें 2500 किताबें, एक रिस्टवॉच, छह शर्ट, चार पायजामा, तीन सूट और मोजे की कुछ जोड़ियां थी. हैरानी की बात तो यह कि उनके पास टीवी, फ्रिज, कार और एयर कंडीशनर तक भी अपना नहीं था. डॉक्टर कलाम को करीब से जानने का अवसर मुझे उनके साथ हुई दो विदेश यात्राओं के क्रम में मिला. तब मैं दैनिक हिन्दुस्तान में विशेष संवाददाता के पद पर कार्यरत था. उनके या कहें किसी भी राष्ट्रपति के साथ विदेश जाने और उन्हें करीब से देखने-जानने का मेरे लिए पहला सुअवसर 18 से 25 अक्टूबर 2003 तक उनकी संयुक्त अरब अमीरात (अबूधाबी और दुबई), सूडान और बुल्गारिया की विदेश यात्रा पर जाने के रूप में मिला.

    राष्ट्रपति भवन से डा. कलाम के साथ विदेश यात्रा का निमंत्रण हमारे लिए किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं था, शायद इसलिए भी कि राष्ट्रपति के रूप में डा. कलाम की वह पहली विदेश यात्रा थी जिसमें मुझे बतौर पत्रकार शामिल होने का सुअवसर मिल रहा था. राष्ट्रपति बनने के बाद एक बार उन्होंने कहा भी था कि विदेश की तरफ रुख करने से पहले वह हिन्दुस्तान को देख लेना चाहेंगे. और यह सच भी है कि भारत भ्रमण के बाद ही वह अपनी पहली विदेश यात्रा पर निकले. साथ में सूचना तकनीक एवं विनिवेश मंत्री अरुण शौरी, शिवसेना के सांसद सुरेश प्रभु, माकपा की सांसद सरला महेश्वरी, डा. कलाम के सचिव पी एम नायर और मीडिया सलाहकार एस एम खान,पत्रकारों में पीटीआई के श्रीकृष्णा और विजय जोशी, यूएन आई के प्रदीप कश्यप, ए एनआई के वैभव वर्मा, हिंदू की नीना व्यास, हिन्दुस्तान टाइम्स के सौरभ शुक्नला, सकाल के विजय नाईक, एशियन एज की सीमा मुस्तफा, इंडियन एक्सप्रेस के समरहरलंकर, दि टेलीग्राफ के के सुब्रमण्णा, मलयालम मनोरमा के सच्चिदानंद मूर्ति, आकाशवाणी के ए के हांडू, डीडी न्यूज के सेंथिल राजन, दिनमणि के आरएमटी संबंदन, इन्किलाब के फुजैल जाफरी एवं राष्ट्रपति भवन के छायाकार, पत्रकार साथी, राष्ट्रपति कार्यालय, विदेश मंत्रालय के संबद्ध वरिष्ठ अधिकारी एवं आवश्यक सरकारी लवाजमा भी था.

राजधानी अबू धाबी में


    हमारी यात्रा का पहला पड़ाव संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) था. हालांकि सरकारी सूत्र बता रहे थे कि यूएई के राष्ट्रपति शेख जाएद बिन सुल्तान अल नहयान अपने आपरेशन के लिए दो दिन पहले ही लंदन गये थे. प्रधानमंत्री भी देश के बाहर थे. इन्हीं कारणों से इस यात्रा की तिथियों को स्थगित करने के बारे में भी विचार चल रहा था. यह भी एक कारण था कि विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा यात्रा की तिथियों के बारे में हमें अंतिम समय तक असमंजस में रखा गया था. लेकिन अंत में कलाम साहब ने किसी तरह के प्रोटोकोल की चिंता न करते हुए यही निर्देश दिया कि यात्रा की तिथियां बदली न जाएं.

    अबू धाबी के रास्ते में साथ चल रहे पत्रकारों के साथ विमान में बातचीत में उन्होंने अपनी इस यात्रा को अपनी इस यात्रा को voyage of learning (ज्ञान का संधान) कहा था. उन्होंने बता दिया था कि वह तीन देशों की नहीं बल्कि तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका और यूरोप (पूर्वी) की अध्ययन यात्रा पर जा रहे हैं. वह इन देशों और महाद्वीपों में हुए अथवा हो रहे बदलावों को करीब से देखना-समझना चाहते हैं. इन देशों के वैज्ञानिकों, शिक्षाविदों, राजनीतिकों, अर्थशास्त्रियों, अध्यापकों और छात्रों से मिलकर वह उनके देश के आर्थिक आधार के बारे में जानना चाहेंगे और यह पता करेंगे कि कैसे हम एक दूसरे की प्रगति और विकास में सहयोगी भूमिका निभा सकते हैं. उन्होंने कहा, “इन तीनों देशों को मैंने विशेष कारणों से चुना है क्योंकि इन तीनों के साथ हमारे परस्पर सहयोग की अपार संभावनाएं हैं, एक-दूसरे की क्षमताओं और संसाधनों का सही इस्तेमाल करके हम एक-दूसरे के विकास में बहुत मददगार हो सकते हैं.” विकसित भारत, शक्तिशाली भारत, दुनिया में सबके सामने सर ऊंचा करके खड़ा हो सके, ऐसे भारतवर्ष का सपना देखने वाले कलाम साहब की पूरी यात्रा उनके इसी सपने के इर्द-गिर्द बुनी हुई थी.

    मन बहुत प्रफुल्लित था. सुन रखा था कि राष्ट्रपति के साथ विदेश यात्रा काफी आनंददायी यानी ‘प्लेजर ट्रिप’ जैसी ही होती है. लेकिन कलाम साहब के साथ यात्रा में ऐसा कतई नहीं लगा. उनके कार्यक्रम तो सुबह आठ-नौ बजे ही शुरू हो जाते और रात आठ-नौ बजे तक चलते रहते. पूरी यात्रा के दौरान शायद ही कोई कार्यक्रम उन्होंने रद्द किया हो या कहीं देर से पहुंचे हों. पता चला कि वह देर रात बल्कि सुबह के दो-तीन बजे तक जागते और अध्ययन-मनन के अलावा ई मेल पर आए संदेशों, मीडिया-अखबारी खबरों का जायजा लेते, ई मेल संदेशों का जवाब देते. साथ चल रहे विशेषज्ञ सलाहकारों से विभिन्न विषयों, अगले दिन के कार्यक्रमों आदि के बारे में मंत्रणा करते और महज चार-पांच घंटे ही सोते. यात्रा दल में उनके परिवार का कोई सदस्य-रिश्तेदार कभी नहीं रहा. विमान में हों अथवा होटल और अतिथिगृह में, वह बहुत हल्का फुल्का, दक्षिण भारतीय शाकाहारी भोजन ही करते. उनके प्रिय भोजन में शामिल था-दही-भात, इडली, बड़ा और सांभर. वे रोजाना तकरीबन एक घंटे शारीरिक व्यायाम, योग आदि करते. सुबह की सैर उनके दैनंदिन कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा होती. शायद इसलिए भी उनके निजी चिकित्सक 73 साल की उम्र में भी उन्हें पूरी तरह से स्वस्थ-निरोगी और फिट बताते. वे छोटी सी छोटी इबारत भी बिना चश्मा लगाए पढ़ लेते थे. इतना फिट और सक्रिय कैसे रह पाते हैं, थकते नहीं? डा. कलाम का जवाब था, “मेरा एक मिशन है. मैं अपने विजन इंडिया 2020 के तहत 2020 तक भारत को विकसित राष्ट्र के रूप में देखना चाहता हूं. इसके साथ ही मैं अपने देश में गरीबी रेखा के नीचे रह रहे 26 करोड़ भारतीयों के चेहरों पर चमक देखना चाहता हूं. जब तक मेरा यह मिशन पूरा नहीं हो जाता, मैं थकनेवाला नहीं हूं. और इस मिशन को पूरा करने के लिए फिट तो रहना ही है.”

18 अक्टूबर 2003 की शाम को हम लोग उनके साथ फारस की खाड़ी यानी पश्चिम एशिया में स्थित सात अमीरातों-राज्यों-दुबई, अबू धाबी, शारजाह, फुजैरा, रस अल खैम, अल आईन, अजमान और उम अल क्वैन-को मिलाकर बने संयुक्त अरब अमीरात की राजधानी अबू धाबी पहुंचे. समुद्र, रेगिस्तान और पहाड़ों से घिरा अबू धाबी शाम के समय ऊपर विमान से देखने पर जगमगाते विद्युत प्रकाश में टी शक्ल का सुनहरा टापू नजर आ रहा था. शहर में जल रहे बिजली के बल्ब ऊपर से देखने पर सुनहरी छवि पेश कर रहे थे. डा. कलाम यहां के राष्ट्रपति शेख जाएद बिन सुल्तान अल नहयान के निमंत्रण पर आए थे. इलाज के सिलसिले में उनके लंदन में होने के कारण हवाई अड्डे पर उनके साहबजादे यानी अबू धाबी के शाही राजकुमार और संयुक्त अरब अमीरात के उप प्रधान मंत्री, सेनाओं के सुप्रीम कमांडर शेख खलीफा बिन जाएद अल नहयान पूरे लाव लश्कर के साथ रेड कारपेट बिछाए खड़े थे. औपचारिक स्वागत-सत्कार के बाद हम लोग ठहरने के निर्धारित होटल पहुंच गए. लेकिन डा. कलाम, अरुण शौरी, सुरेश प्रभु और सरला महेश्वरी देर रात लौटे.

    श्रीमती महेश्वरी के अनुसार हवाई अड्डे पर कुछ सामान्य औपचारिकताओं के बाद ही बिना किसी विश्राम के डा. कलाम के साथ हम लोग अबूधाबी में दुनिया के सबसे बड़े 'डिसैलिनेशन प्लांट' को देखने चले गये. समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने का यह एक विशाल संयत्र था. वहां हम लोग तकरीबन एक घंटे तक रहे. जल शोधन संयंत्र की कार्य प्रणाली, लागत, बिजली उत्पादन आदि के बारे में जानकारी हासिल की. कलाम साहब और हम सबने देखा कि किस तरह अपने संसाधनों का सूझ-बूझ से इस्तेमाल करके इस मरूभूमि की प्यास बुझाई जा रही थी. अबू धाबी जैसी जगह, जो अभी 40 वर्ष पहले तक एक छोटा-सा दीन-दुनिया से कटा हुआ द्वीप जैसा था, जिसे खाड़ी के बाहर कोई जानता भी नहीं था, आज यूएई की राजधानी है तथा गल्फ की गार्डन सिटी और पश्चिम एशिया का मेनहट्टन भी कहा जाता है. कुछ सौ लोगों का यह द्वीप आज 10 लाख से भी अधिक लोगों का आधुनिक जगमगाता शहर बन गया है. सभी जानते हैं कि इस छोटे से देश के पास तेल के रूप में ऊर्जा का अकूत खजाना होने पर भी पीने के पानी का भारी अभाव है. तेल सस्ता लेकिन पीने का पानी महंगा. यहां एक से बढ़कर एक अत्याधुनिक, सुंदर कलात्मक इमारतें, बड़ी-बड़ी चौड़ी सड़कें, पार्क, फव्वारे-वास्तव में यह तो रेगिस्तान में एक नखलिस्तान ही है.”

समुद्र के खारे पानी को पेयजल बनाने का संयंत्र


    अगली सुबह डा. कलाम ने भी मीडिया को बताया कि वह ‘उम्म अल नार डिसैलिनेशन प्लांट’ देखने गए थे जहां समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाया जाता था. डा. कलाम ने बताया कि भारत के कई इलाकों में पेय जल का गंभीर संकट है. देश में समुद्री क्षेत्रफल को देखते हुए इस तरह के प्लांट लग जाएं तो हमारे यहां पेय जल की समस्या सुलझ सकती है. लेकिन, उन्होंने यह भी बताया कि अबू धाबी के प्लांट में 'डिसैलिनेशन' से बननेवाले पेय जल की लागत ज्यादा आ रही है. इसे और सस्ता कैसे बनाया जा सकता है. इस पर वह सोच रहे हैं. उन्होंने बताया कि इस तरह के संयंत्रों को सौर ऊर्जा से संचालित कर इसकी लागत में कमी की जा सकती है. उस रात उन्होंने अबू धाबी में एक भारतीय बी आर शेट्टी द्वारा ढाई करोड़ अमेरिकी डालर की लागत से संयुक्त उपक्रम के रूप में स्थापित अत्याधुनिक औषधि कारखाना ‘नियो फार्मा’ का उद्घाटन भी किया था. दवाइयों पर शोध की इस एक आधुनिक प्रयोगशाला में उनका स्वागत बी आर शेट्टी के अलावा यूएई के उच्च शिक्षा एवं वैज्ञानिक शोध मंत्री एवं नियो फार्मा के चेयरमैन शेख नहयान बिन मुबारक अल नहयान ने किया.

भारतीय मूल के बी आर शेट्टी के संयुक्त उपक्रम 'नियो फार्मा' का उद्घाटन
करते डा. कलाम, सबसे बाएं बीआर शेट्टी
    हमारे लिए यह एक अलग तरह का अनुभव था कि राष्ट्रपति किसी देश में पहुंचने के साथ ही अपने देश की पेयजल समस्या के समाधान के लिए देर रात तक ‘डिसैलिनेशन प्लांट’ देखते रहें. रात में ही डा. कलाम ने खाड़ी के देशों में स्थित भारतीय राजनयिकों के साथ मंत्रणा कर इन देशों के सामाजिक, राजनीतिक माहौल का जायजा लेने के साथ ही इन देशों के साथ विभिन्न क्षेत्रों में सहयोग की संभावनाओं की जानकारी ले ली थी. अगले दिन अबू धाबी में डा. कलाम ‘इंडियन लेडीज एसोसिएशन’ द्वारा संचालित ‘स्पेशल केयर होम’ गये. यहां विकलांग बच्चों का प्रशिक्षण केंद्र था. कलाम साहब यहां खुद बच्चों के प्रशिक्षक बन गये थे. बच्चों के साथ बैठकर उनको सिखाने की चीजें लेकर खुद ही उनसे प्रश्न-उत्तर कर रहे थे. सरला महेश्वरी बताती हैं, “लगता था कि कलाम साहब राष्ट्रपति के अपने पद का भार कहीं बहुत दूर छोड़ आये थे. इतनी आत्मीयता, इतनी निश्छलता वास्तव में उसी में देखी जा सकती है जहां दिलो-दिमाग में एक बच्चे सी पाक आत्मा बसती हो. उसी दिन हम लोग हायर कालेज ऑफ टेक्नालॉजी एवं नॉलेज पार्क में भी गए. डा. कलाम वहां भी विद्यार्थियों से मिले. उनके बीच उन्होंने न सिर्फ प्रेरणादायक भाषण दिया बल्कि विद्यार्थियों को अपने विचारों का सहभागी भी बनाया." उन्होंने राष्ट्राध्यक्षों के औपचारिक भाषण की परंपरा को तोड़ते हुए कहा, "मेरे पास लिखा हुआ भाषण है लेकिन इसे तो आप लोग मेरे वेबसाइट पर भी देख सकते हैं. मैं यहां आपसे सीधी और खुली बातचीत करना चाहता हूं."
    
डा. कलाम के साथ भारतीय मूल के उद्यमी यूसुफ अली
    रात को होटल में भारत के राजदूत सुधीर व्यास की ओर से रात्रि भोज था जिसमें बहुत बड़ी संख्या में वहां रहने वाले भारतीयों को आमंत्रित किया गया था. यहां भी कलाम साहब ने सबको संबोधित किया और श्रोताओं के प्रश्नों का जवाब दिया. अबू धाबी में हमें एम के ग्रुप के भारतीय मूल के प्रबंध निदेशक, बड़े उद्योगपति-व्यवसाई यूसुफ अली एम.ए. से मिलने का अवसर भी मिला. उन्होंने डा.कलाम के साथ चल रहे लोगों, मीडिया कर्मियों को काफी उपहार दिए. हमें इस बात का अनुभव नहीं था, शायद इसलिए भी हमने कोई बड़ा सूटकेस साथ नहीं रखा था लेकिन हमारे कुछ साथियों को इसका खासा अनुभव था. दिल्ली में हवाई अड्डे पर एक साथी पत्रकार ने हमारे छोटे सूटकेस को देख कर कटाक्ष भी किया. विमान में खाने और पीने के हर तरह के इंतजाम के साथ हम जहां जहां
गए, दूतावास के लोगों ने ‘जॉनी वाकर’ की ‘ब्लैक लेबल’ या ‘रेड लेबल’ का इंतजाम अलग से किया था. हमारे लिए वह भी एक अतिरिक्त बोझ ही साबित हो रहा था जिसे हम अपने सामान के साथ ठूंस कर भर रहे थे. अबू धाबी के प्रिंस ने यात्री दल को काफी बेसकीमती उपहार दिए थे. मीडिया के लोगों के हिस्से में एक-एक घड़ी आई थी. उस घड़ी की दिल्ली में कीमत सुनकर हमारे तो होश ही उड़ गए. उस समय उसकी कीमत एक लाख रु. से अधिक थी हालांकि हमारे लिए उसका खास महत्व नहीं रहा. घर में रखे रखे कब वह बंद हो गई, पता ही नहीं चला. बैटरी बदलने में ही 500 रु. की चपत लग गई.

व्यावसायिक राजधानी दुबई में


    हमारा अगला पड़ाव संयुक्त अरब अमीरात की व्यावसायिक राजधानी दुबई में था. संयुक्त अरब अमीरात की शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति और उप प्रधानमंत्री अबू धाबी के शाही परिवार का और प्रधानमंत्री तथा उप राष्ट्रपति दुबई के शाही परिवार से होता है. दुबई और शारजाह हम पहले भी जा चुके थे. लेकिन इस बार की बात कुछ और थी. अबू धाबी से दुबई की तकरीबन 150 किलोमीटर की यात्रा सड़क मार्ग से तय की गई. क्या सड़कें थीं. उन पर हवा से बातें करती कारों का काफिला कब दुबई पहुंच गया, कुछ पता ही नहीं चला. वहां डा. कलाम का स्वागत प्रधानमंत्री मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम ने किया.

दुबई में डा. कलाम अपने काफिले के साथ सीधे इंडियन हाई स्कूल पहुंचे. वहां उन्होंने छात्रों और अध्यापकों के साथ सीधा संवाद किया. उन्होंने किशोर वय के छात्रों को सपने देखने की आवश्यकता समझाते हुए बताया कि वैज्ञानिकों और इंजीनियरों जैसे हजारों स्वप्नदर्शियों के अथक प्रयासों की मदद से ही भारत विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में आगे बढ़ सका और अंतरिक्ष में अपना यान भेजने में सफल रहा है. उन्होंने कहा कि ज्ञान इतना शक्तिशाली है कि यह न केवल आपके दिमाग को तीक्ष्ण बनाता है बल्कि सही गलत का भेद समझने का विवेक और चारित्रिक दृढ़ता भी प्रदान करता है जो कि जीवन में बहुत महत्व रखती है. उन्होंने विद्यालय में अध्ययनरत छात्रों से अध्ययन के बल पर श्रेष्ठता हासिल करने और भारत लौटने पर अपने अनुभवों को साझा करने को कहा.

  
होटल, बुर्ज अल अरब (तस्वीर इंटरनेट से)
 
डा. कलाम ने दुबई में अन्य कार्यक्रमों के अलावा विश्व प्रसिद्ध बुर्ज अल अरब होटल में, जिसकी कुछ मंजिलें गहरे समुद्र में भी हैं, ‘दुबई चैंबर्स ऑफ कामर्स’ के प्रतिनिधियों को भी संबोधित किया. इस होटल के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था. करीब से देखने समझने के बाद यह होटल किसी बड़े आश्चर्य से कम नहीं लगा. किसी समय दुनिया का इकलौता सात सितारा होटल कहे जाने वाले बुर्ज अल अरब का निर्माण जुमैरा बीच के पास समुद्र के बीच में बने कृत्रिम आईलैंड पर किया गया है. समुद्री नौका या कहें जहाज की शक्ल में बने इस होटल में 270 मीटर की ऊंचाई पर हेलीपैड भी बना है, जहां कोई सीधे हेलीकॉप्टर से उतर सकता है. 56 मंजिला इस होटल को इस समय दुनिया में तीसरा सबसे ऊंचा होटल कहा जाता है.

अरब शेखों को बताई ज्ञान की ताकत

    होटल अल बुर्ज के भव्य सभागार में डा. कलाम ने ‘दुबई चैंबर्स ऑफ कामर्स’ के प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए भारत और संयुक्त अरब अमीरात के बीच के प्रगाढ़ संबंधों का हवाला दिया और कहा कि एक समय (30-40 साल पहले) ऐसा भी था, जब यहां तपते रेगिस्तान और समुद्र के खारे पानी के अलावा कुछ भी नहीं था. अबू धाबी को पहले समुद्र से निकलनेवाले मोतियों के अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र के रूप में जाना जाता था. लेकिन अबू धाबी और दुबई के दो शेखों-शेख जाएद अल नहयान एवं शेख राशिद अल मकतूम के विजन ने इन इलाकों में तेल और प्राकृतिक गैस के अकूत भंडारों की खोज और उसके उत्पादन, विपणन और निर्यात के जरिए इन बंजर और रेगिस्तानी इलाकों का काया पलट ही कर दिया. खाड़ी के देश पेट्रो डालर कमानेवाले देश बन गए. डा. कलाम ने अरब शेखों और उनकी नयी पीढ़ी से मुखातिब होकर कहा, “आज आपके पास पेट्रोल है, गैस है, सोना और डालर भी है. लेकिन इसके भरोसे आप कब तक रहेंगे. यह नवीकरणीय (रिन्यूवेबल) नहीं है. यह एक दिन खत्म हो जाएगा. तब क्या होगा.” उन्होंने ऊपर आसमान की ओर दिखाते हुए कहा, “हमें सूर्य के प्रकाश और उसकी ऊर्जा के उपयोग के बारे में सोचना होगा जिसे कहते हैं कि यह दस अरब वर्षों तक सुरक्षित रहेगी. हालांकि यह भी अक्षुण्ण नहीं है. इसका भी आधा समय बीत चुका है.” फिर अक्षुण्ण और रिन्यूवेबल क्या है, पूछते हुए उन्होंने खुद ही जवाब दिया था, ‘ज्ञान. आपको ज्ञान की खोज और विकास की तरफ देखना होगा.’ उन्होंने बताया कि भारत ने 2020 तक विकसित राष्ट्र बनने के लिए विजन 2020 बनाया है. आप (अरब के शेखों) के पास दौलत है और हमारे (भारत) पास ज्ञान और विजन. दोनों मिलकर, एक दूसरे से सहयोग कर एक नया और खुशहाल जहां (विश्व) बना सकते हैं. उनके इतना भर कहते ही पूरा सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा. कई मिनट तक तालियां बजती ही रहीं. उस समय मुझे लगा कि प्रेसीडेंट डा. कलाम के मायने क्या हैं.

    वहां से हम लोग ‘नालेज विलेज’ गये, छात्रों से मुलाकात की. सूचना तकनीक के क्षेत्र में क्या-क्या हो रहा है, किस तरह दोनों देशों के बीच इस तकनीक को लेकर आपसी सहयोग बढ़ाया जा सकता है, यही उनकी चिंता के केंद्र में रहा. यहां पर उन्होंने ‘साइबर यूनिवर्सिटी’ की अपनी परिकल्पना भी रखी. दुबई में एक अन्य एकेडेमिक कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि जिस तरह से कंप्यूटर का विकास हो रहा है, वर्ष 2009 तक कंप्यूटर मानव मस्तिष्क से आगे निकल जाएगा. लेकिन तब भी एक फर्क रहेगा. कंप्यूटर श्रृजन नहीं कर सकता जबकि मनुष्य श्रृजन कर सकता है. उन्होंने कहा कि शांति और विकास को अलग-अलग नहीं कर सकते. दोनों को साथ-साथ चलना होगा.

    डा. कलाम ने कंप्यूटर स्लाइडों और लेजर प्वाइंट प्रेजेंटेशन के जरिए छात्रों को ज्ञान और विकास के बारे में समझाया. शिक्षक की भूमिका में उन्होंने छात्रों एवं वहां बैठे लोगों से खुद को जोड़ते हुए कहा, ‘जो मैं कहूंगा उसे आप सब दोहराएंगे?’ सबके हामी भरने पर उन्होंने कहा, ‘‘ड्रीम, ड्रीम, ड्रीम. ट्रांस्फार्म योर ड्रीम इनटू थाट्स एवं ट्रांस्फार्म योर थाट्स इनटू ऐक्शन.” यानी सपने देखिए. सपने को विचार में और विचार को क्रियान्वयन में बदलिए. उन्होंने छात्रों से कहा कि वे खुद से सवाल पूछें कि वे अपने देश और समाज के लिए ऐसा क्या कर सकते हैं जिसके लिए उन्हें भविष्य में याद किया जाएगा. सवाल-जवाब के क्रम में एक सवाल के जवाब में उन्होंने अपने स्कूली जीवन को याद करते हुए बताया कि कैसे उनके गुरु ने स्कूल से बाहर समुद्र किनारे पक्षियों की उड़ान के बारे में ज्ञान दिया था. इस ज्ञान को आधार बनाकर अपनी शिक्षा के क्रम से लेकर ‘राकेट और मिसाइल मैन’ बनने तक की सफलता के बारे में समझाते हुए उन्होंने बताया, ‘उस ज्ञान की बदौलत ही मैं इस (राष्ट्रपति) रूप में उड़ते हुए आपके बीच आ सका हूं.’ दुबई में हमने एक और ब्रीफ केस खरीद लिया लेकिन बाद में वह भी छोटा ही साबित होने लगा. फिर हमारे एक पत्रकार मित्र का कटाक्ष सुनने को मिला, " कभी बड़ा भी सोचो." अब उन्हें हम यह कैसे बताते कि बड़ा रखने और सोचने की अपनी कभी हैसियत ही नहीं रही.

नोटः यात्रा के इस क्रम में अब अगले पड़ाव, सूडान के बारे में चर्चा होगी. अगले सप्ताह किसी और दिन!