Sunday, 28 April 2013

चिट फंड के नाम पर कब तलक लुटते रहेंगे!



जयशंकर गुप्त
श्चिम बंगाल इन दिनों अजीब से राजनीतिक और सामाजिक उथल पुथल के दौर से गुजर रहा है. एक बार फिर पैरा बैंकिंग के नाम पर सक्रिय चिट फंड कंपनियों ने न सिर्फ सुदूर ग्रामीण इलाकों के भोले भाले किसान मजदूरों, छोटे व्यापारियों बल्कि शहरी इलाकों के पढ़े लिखे कहे जाने वाले लोगों को भी ठगी का शिकार बनाया है. लोग सड़कों पर उतर कर सरकार से और इस कंपनी के साथ जुड़े रहे बड़े नामों से इन्साफ मांग रहे हैं. लाखों की संख्या में लोगों ने इन कंपनियों के अविश्वसनीय मगर बेहद लुभावने वायदों-आश्वासनों, उनके कार्यक्रमों में शिरकत करने, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाने, यहां तक कि उनके विज्ञापनों की शोभा भी बढ़ाने वाली सत्तारूढ़ राजनीतिक शख्सियतों के भंवरजाल में फंसकर अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा, यहां तक कि कर्ज लेकर भी पैसे सुपरिचित एजेंटों के जरिए इन कंपनियों के पास जमा कर दिए थे, इस उम्मीद के साथ कि उनकी जमाओं पर बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ब्याज से कहीं ज्यादा, दो गुना-तीन गुना ब्याज मिलेगा और जरूरत पड़ने पर सस्ता ऋण भी.

  बेरोजगारी की मार झेल रहे ग्रामीण इलाकों के प्रभावशाली परिवारों के युवा भी इन कंपनियों के प्रचार, विज्ञापनों के जरिए दिखाए जा रहे सपनों के झांसे में आकर इनके एजेंट बनते चले गए. उन्हें 20 से 50 फीसदी तक का कमीशन जो मिलने लगा था.यानी आम निवेशकों को बहला फुसलाकर उनसे एकत्र रकम कंपनी के पास जमा करवाने से पहले ही अपना मोटा कमीशन पहले ही उसमें से काट लो. बेरोजगार या कहें छोटे-मोटे धंधों में लगे लोगों के लिए भी यह धंधा बुरा नहीं था. लोग एक-एक कर इन चिट फंड कंपनियों के झांसे में आकर उनसे जुड़ते और उनके खातों में करोड़ों रु. जमा करवाते गए. कोलकाता में इसी तरह की एक सारधा चिट फंड कंपनी और उसके कारनामे इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं. इस कंपनी पर न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि झारखंड, ओडिशा और उत्तर पूर्व के राज्यों में लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई को चूना लगाते हुए तकरीबन 20 हजार करोड़ रु. का घोटाला करने का आरोप है. कंपनी के पास पैसा जमा करने वाले लाखों हताश निवेशक एजेंटों को ढूंढ़ते उनके आगे पीछे भाग रहे हैं, एजेंट मुंह छिपाए जहां तहां भाग छिप रहे हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि जल्दी कुछ नहीं किया गया तो संबद्ध राज्यों में कानून व्यवस्था का सवाल खड़ा हो सकता है. कर्ज में डूबे लोगों की ‘आत्म हत्या’ जैसी खबरें आनी शुरू हो सकती हैं. ऐसा वहां अस्सी और नब्बे के दशक में हो भी चुका है.

कंपनी के संचालक सुदीप्तो सेन और उनके दो सहयोगी-देबजानी मुखर्जी और अरविंद सिंह चैहान पुलिस की हिरासत में हैं. जम्मू-कश्मीर के सोनमर्ग में दोनों सहयोगियों के साथ गिरफ्तारी से पहले सेन द्वारा सीबीआई को लिखे लंबे चौड़े पत्र ने न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि उत्तर पूर्व के राजनीतिकों और केंद्र सरकार में बैठे लोगों, उनके रिश्तेदारों, वकीलों और पत्रकारों को भी विवादों के कठघरे में खड़ा कर दिया है. तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख सांसदों, उत्तर पूर्व के कांग्रेसी नेताओं और यहां तक कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिंदबरम को भी विभिन्न कामों के एवज में लाखों-करोड़ों रु. देने की बात सेन ने लिखी है.

खुद को रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्नी मां शारदा का अनन्य भक्त कहने वाले और छात्र-युवा अवस्था में नक्सलवादी आंदोलन और उसके जनक चारू मजुमदार से प्रभावित सुदीप्तो सेन ने 1995 में मां शारदा के नाम से ही अपनी 'सारधा चिट फंड कंपनी' बड़े ताम झाम के साथ खोली. तब राज्य में वाम दलों की सत्ता थी लेकिन ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य में उनकी तृणमूल कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने के बाद इस कंपनी की सफलता में जैसे चार चांद लगने शुरू हो गए और देखते ही देखते कई बड़े अखबार, पत्रिकाएं, खबरिया से लेकर मनोरंजन के क्षेत्र में सक्रिय टी वी चैनल तथा दर्जनों और कंपनियां इस कंपनी के नाम से जुड़ती चली गईं. लेकिन पिछले साल नवंबर महीने में अचानक पता चला कि कंपनी के कर्मचारियों को वेतन मिलने में असुविधा हो रही है. तीन चार महीने से वेतन भत्तों का भुगतान नहीं हो पा रहा था. और एक दिन पता चला कि इसके द्वारा संचालित तमाम टीवी चैनल एक झटके में बंद कर दिए गए. दो हजार से अधिक स्त्री-पुरुष, पत्रकार गैर पत्रकार बेरोजगार हो सड़क पर आ गए. इसी बीच पिछले 10 अप्रैल को जब सुदीप्तो सेन और उसके दोनों सहयोगी रहस्यमय परिस्थितियों में कोलकाता से गायब हो गए, सबको पता चल गया कि सारधा चिट फंड कंपनी का बेड़ा गर्क हो चुका है. निवेशकों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रु. एक बड़े घोटाले की भेंट चढ़ चुके हैं.

लेकिन सुदीप्तो सेन और उसकी सारधा चिट फंड कंपनी का मामला न तो नया है और ना ही अकेला ही. पश्चिम बंगाल में इससे पहले अस्सी-नब्बे के दशक में भूदेव सेन की संचयिता और फिर पियरलेस और राज्य से बाहर निकलकर देखें तो कुबेर, जे वी जी जैसी कंपनियां भी लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई पर डाका डाल चुकी हैं. लेकिन शायद अतीत के इन घोटालों से किसी ने, न तो सरकार ने और न ही इसके जाल में फंसते रहे लोगों ने ही कोई सबक नहीं लिया और बीच-बीच में इस तरह की चिट फंड और पैरा बैंकिंग कंपनियां नए नामों, नई तरकीबों और नए लुभावने आश्वासनों के साथ बाजार में आती और आम लोगों तथा बिना कुछ खास किए रकम दोगुनी, चौगुनी करने के ख्वाहिशमंद लोगों को अपने जाल में फंसाते रही हैं. देश के विभिन्न हिस्सों से इस तरह की कंपनियों के उदय और लाखों-करोड़ों रु. डकारने के बाद अस्त होने के समाचार आते रहते रहते हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार अकेले पश्चिम बंगाल में इस समय इस तरह की 400 कंपनियां भविष्य के सुनहरे सपनों और आश्वासनों के सहारे लोगों को लूटने-ठगने में लगी हैं. इनमें टाटा की नैनो कार के लिए आवंटित जमीन के खिलाफ आंदोलने कर उसे खदेड़ने में सफल रहे सिंगूर के इलाके में सक्रिय तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद से जुड़ी कंपनी भी शामिल है. केंद्र सरकार के आदेश पर सीरियस फ्राड इन्वेस्टिगेशन की स्पेशल टास्क फोर्स ने इस तरह की 87 कंपनियों की जांच शुरू की है.

वाल एक ही है कि अतीत के घटनाक्रमों के मद्देनजर इस तह की कंपनियों को यह सब करने की छूट अथवा लाइसेंस कैसे मिल जाता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस समय देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 34754 चिट फंड एवं पैरा बैंकिंग कंपनियां सक्रिय हैं. इनमें से केवल 12375 कंपनियों को ही भारतीय रिजर्व बैंक से गैर बैंकिंग कारोबार की अनुमति मिली हुई है. लेकिन इस अनुमति की आड़ में ये कंपनियां और बाकी 22 हजार से अधिक गैर अनुमति प्राप्त कंपनियां किस किस तरह के गुल खिला रही  हैं, इस पर भी किसी की नजर रहती है क्या? अगर सुदीप्तो सेन की मानें तो वह इस तरह के मामलों की नियामक संस्था सेबी के संबद्ध अधिकारियों को प्रति माह 70 लाख रु. और असम के पुलिस अधिकारियों को 40 लाख रु. दिया करता था. इसके अलावा आयकर अधिकारियों, नेताओं, सांसदों और मीडिया के लोगों को भी भारी रकम अदा करते रहता था. उसकी कंपनी में तमाम तरह के रिटायर्ड पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार वेतन भोगी थे. इस तरह के कामों में खर्च का उसका बजट करोडों रु. का था.

 स कंपनी तथा इस तरह की कुछ अन्य कंपनियों के मायाजाल में फंसकर अपना सब कुछ लुटा चुके लाखों लोगों का क्या होगा. अपने 23 महीनों के शासनकाल में सब बुराइयों और कमियों की जड़ वाम मोर्चा सरकार में ही खोजने की आदी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस घोटाले से बुरी तरह हिल गई लगती हैं. उनकी पार्टी के कई नेता, सांसद और मंत्री इस घोटाले के साथ परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से साफ जुड़े नजर आ रहे हैं. उनके लिए सुकून की बात सिर्फ वित्त मंत्री चिदंबरम की पत्नी नलिनी का इस कंपनी के साथ वकील के रूप में जुड़ना और उससे भारी रकम और सुविधाएं प्राप्त करना हो सकता है. ममता बनर्जी ने घोटाले की जांच के लिए एक आयोग और विशेष जांच टीम घोषित की है. उन्होंने पीड़ित निवेशकों की राहत के लिए 500 करोड़ रु. के एक पैकेज की घोषणा करते हुए कहा है कि इसका एक हिस्सा सिगरेट की बिक्री पर 10 फीसदी अधिशेष के जरिए जमा किया जाएगा. इसके साथ ही उन्होंने राज्य के लोगों से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और मौत का कारण भी साबित होने वाली वैधानिक चेतावनी के साथ बेची जाने वाली सिगरेट का सेवन ज्यादा करने की ‘हास्यास्पद' अपील भी कर डाली है. जाहिर सी बात है कि राज्य में चिट फंड घोटाले की मार झेल रहे लोगों पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. इसकी बानगी शायद कुछ ही महीनों में पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों में भी देखने को मिल सकती है, जब लोग अपने हुक्मरानों से पूछना शुरू कर देंगे कि ‘‘कब तलक लुटते रहेंगे, लोग मेरे गांव के.’’

2 8 अप्रैल 2 0 1 3  के लोकमत समाचार में प्रकाशित 
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Sunday, 14 April 2013

ममता, मोदी और मार्क्सवादी



लोकतंत्र में सबको अपनी बातें कहने, मांगें मनवाने, उसके लिए दबाव बनाने और विरोध प्रदर्शन का अधिकार है लेकिन पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में और फिर कोलकाता में जिस तरह के धरना-विरोध प्रदर्शन और जवाबी हिंसक प्रदर्शन हुए उन्हें किसी भी लिहाज से जायज करार नहीं दिया जा सकता. योजना आयोग के समक्ष अपनी मांगें पेश करने आईं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा के साथ योजना भवन के दरवाजे पर माकपा की छात्र इकाई स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया -एसएफआई- के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन के नाम पर जो अभद्रता की, अमित मित्रा के कुर्ते फाड़ डाले, हाथापाई भी की, वह कतई निंदनीय था. अच्छी बात है कि माकपा के पोलित ब्यूरो ने भी इसकी भर्त्सना की. एसएफआई के प्रदर्शनकारी पश्चिम बंगाल में अपने नेता सुदीप्तो गुप्ता की पुलिस हिरासत में अदालत ले जाते समय हुई संदिग्ध मौत और उसके बारे में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ‘ओछी प्रतिक्रिया’ का विरोध कर रहे थे.

सके एक दो दिन बाद ही अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कर आरक्षण की सुविधा दिए जाने की मांग कर रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दो सौ से अधिक जाट किसान विदेश -रूस-प्रवास पर गए गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के सरकारी निवास पर तोड़ फोड़ करते हुए अंदर घुस गए. जाट किसानों को आरक्षण मिलना चाहिए कि नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है. सच तो यह है की 1 9 9 0 में जिस समय मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई थी, इसका सबसे भारी और तीव्र विरोध जाट किसानों ने ही किया था. समाजवादी नेता मधुलिमए सरीखे कुछ लोगों द्वारा उन्हें भी अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किए जाने के प्रस्ताव का तब अपने इलाकों में चौधरी कहलानेवाले जाट किसानों ने यह कह कर उसका पुरजोर विरोध किया था कि वे लोग क्योंकर दलितों और पिछड़ों की कतार में बैठने लगे. लेकिन अब उन्हें यह एहसास होने लगा है कि सामाजिक दृष्टि से वे भी पिछड़े हैं और उन्हें भी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए. उनकी मांगों पर सरकार विचार कर सकती है. लेकिन इस तरह किसी मंत्री के निवास में घुसकर तोड़-फोड़ की इजाजत किसी को भी कैसे दी जा सकती है.

हां तक ममता बनर्जी और अमित मित्रा के साथ बदसलूकी की बात है, उनकी टिप्पणी से नाराज एसएफआई अथवा किसी और संगठन के लोगों को भी कोलकाता हो अथवा दिल्ली, कहीं भी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का अधिकार है. ममता जी को भी समझना होगा कि जब आप राजनीति में हैं, मंत्री मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार संवैधानिक पदों पर हैं तो तालियों और फूल मालाओं के साथ ही काले झंडों और विरोध प्रदर्शनों का सामना करने के लिए भी आपको तैयार रहना चाहिए. और फिर इस तरह के उग्र और हिंसक प्रदर्शनों की तो कोलकाता और पश्चिम बंगाल में लंबी और पुरानी परंपरा सी रही है. वाम मार्चा शासन के दौरान पश्चिम बंगाल की बाघिन कही जाने वाली ममता के विरोध प्रदर्शन भी कई बार कुछ इसी तरह के रहे हैं. एक बार तो कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग के पास प्रदर्शन के दौरान ममता बनर्जी ने रोकने की कोशिश कर रहे पुलिस के एक जवान की उंगली ही चबा ली थी. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इस आधार पर एसएफआई के उग्र और हिंसक प्रदर्शन को जायज ठहराया जा सकता है.

लेकिन उसके जवाब में ममता जी का आचरण कैसा था? एक राज्य के सम्मानित और जिम्मेदार मुख्यमंत्री की तरह तो कतई नहीं. वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और केंद्र सरकार में राज्य मंत्री राजीव शुक्ला पर इस तरह बिफर रही थीं जैसे सब कुछ उनका ही किया धरा था. उन्होंने बीमार हो जाने के नाम पर उसी शाम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ और अगले दिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के साथ अपनी मुलाकात रद्द कर दी. वह कोलकाता लौट गईं, यह कहते हुए कि दिल्ली आम लोगों के लिए ही नहीं मुख्यमंत्रियों के लिए भी सुरक्षित नहीं. यह गंभीर बात है. दिल्ली पुलिस ने योजना भवन के पास उनकी सुरक्षा व्यवस्था में किसी तरह की कोताही नहीं की. उन्हें कार में बैठे ही योजना भवन के अंदर पोर्टिको तक जाने की सलाह दी गई थी लेकिन सीधे जनता की राजनीति करने वाली ममता प्रदर्शनकारियों के बीच से ही अंदर जाने की जिद कर गईं. दिल्ली में उनके साथ जो हुआ वह निंदनीय था लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में कोलकाता और पश्चिम बंगाल के कुछ अन्य हिस्सों में जो हुआ वह क्या कम शर्मनाक था? माकपा कार्यकर्ताओं के साथ मार पीट, कोलकाता के ऐतिहासिक प्रेसीडेंसी कालेज में तोड़ फोड़ की गई. छात्राओं के साथ बदसलूकी हुई. उनके साथ बलात्कार की धमकियां दी गईं. वहां उस बेकर लेबोरेटरी को तहस नहस किया गया जहां बैठकर कभी सत्येंद्रनाथ बोस और जगदीश चंद्र बोस जैसे विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध किया करते थे. इस सबको रोकने की संवैधानिक जिम्मेदारी क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नहीं थी?

जिस समय ममता बनर्जी दिल्ली में थीं, उसी दिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी और मजबूत करने की गरज से कोलकाता में ममता दीदी की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए नए राजनीतिक समीकरण की दिशा में आगे बढ़ने के संकेत दे रहे थे. मोदी को और उनकी भाजपा को भी इस बात का एहसास हो चला है कि केंद्र में सरकार बनाना अकेले भाजपा तो क्या राजग के मौजूदा स्वरूप के बूते की बात भी नहीं. इसके लिए राजग के विस्तार की जरूरत होगी. ममता और जयललिता कभी राजग के साथ रह चुकी हैं. एक बार फिर साथ आने के लिए उन पर राजनीतिक डोरे डाले जा सकते हैं. हालांकि पश्चिम बंगाल संभवतः देश का अकेला बड़ा राज्य है जहां अल्पसंख्यक मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक तकरीबन 27 फीसदी है. भाजपा और वह भी नरेंद्र मोदी के साथ जुड़कर ममता अल्पसंख्यकों के साथ कैसे सामंजस्य बिठा सकेंगी, यह समझने वाली बात है. उनके सामने अतीत का उदाहरण भी है. 2004 में जब उनकी पार्टी राजग -भाजपा-के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी तो उसे सिर्फ एक ममता बनर्जी की सीट से ही संतोष करना पड़ा था जबकि 2009 में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर उनकी तृणमूल कांग्रेस को 19 सीटें मिल गईं. राज्य में भी वह अपने बूते अपनी सरकार बनाने में कामयाब रहीं. ऐसे में मोदी और भाजपानीत राजग के साथ जुड़ने से पहले वह लाख दफे इसके राजनीतिक नफा-नुकसान के बारे में सोचेंगी. वैसे भी हाल के दिनों-महीनों में राज्य में उनकी लोकप्रियता का राजनीतिक ग्राफ जिस रफ़्तार से गिर रहा है, उससे वह काफी परेशान हैं. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं. ममता नहीं तो माकपा एवं उसके सहयोगी सही. वाम दलों ने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आश्वस्त कर रखा है कि उनके कारण सरकार गिरने नहीं दी जाएगी. वाम दल समय से पहले चुनाव के पक्षधर नहीं हैं. उनकी समझ से लोकसभा चुनाव जितनी भी देरी से होंगे, ममता कमजोर होंगी और वाम दल फायदे में रहेंगे.

 मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात का कर्ज उतारने -हालांकि जब मोदी मुख्यमंत्री बने थे उस समय गुजरात पर कुल कर्ज 45 हजार 301 करोड़ रु. का था जो उनके दस-ग्यारह वर्षों के शासन में बढ़कर एक लाख 38 हजार करोड़ रु. तक पहुंच गया-के बाद प्रधानमंत्री के रूप में देश का कर्ज भी उतारने पर आमादा नरेंद्र मोदी की विडंबना यही है कि अभी तक राजग से बाहर की बात तो छोड़ ही दें राजग के घटक दलों और यहां तक कि उनकी अपनी भाजपा में भी उनकी दावेदारी पर आम राय नहीं बन पा रही है. वह भाजपा के संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति में तो आ गए लेकिन उन्होंने पार्टी की केंद्रीय चुनाव अभियान समिति की कमान संभालने के लिए हाथ खड़े कर दिए. क्या वह भाजपा के लिए कर्नाटक विधानसभा के अपेक्षित या कहें आशंकित नतीजों से डर गए़ ? यहां तक कि सदस्य होने के बावजूद वह चुनाव समिति की पहली बैठक में शामिल नहीं हुए क्योंकि उसमें कर्नाटक विधानसभा के लिए भाजपा के उम्मीदवारों का चयन होना था. यही नहीं वह कर्नाटक में भाजपा के चुनाव अभियान के शुभारंभ के अवसर पर भी बेंगलुरु से गायब रहे. संकेत यह भी हैं कि वह कर्नाटक में भाजपा के मुख्य प्रचारक नहीं रहेंगे. भाजपा के एक बड़े नेता की मानें तो मोदी नहीं चाहते कि कर्नाटक में पार्टी की आशंकित हार का ठीकरा उनके भविष्य की राह में रोड़ा साबित हो सके.

दूसरी तफ, राजग के विस्तार की तस्वीर तो अभी साफ हो नहीं रही, इस बीच राजग के महत्वपूर्ण घटक जनता दल (यू) और उसके नेता नीतीश कुमार ने उनके मामले में फच्चर फंसा दिया है. 13-14 अप्रैल को यहां हुई जद-यू- की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में नीतीश कुमार ने नाम लिए बगैर मोदी पर कटाक्ष किया कि देश को जोड़ने वाले धर्मनिरपेक्ष नेता की जरूरत  है, तोड़नेवाले की नहीं. उन्होंने कहा कि देश को अटल बिहारी वाजपेयी जैसी सोच की जरूरत जो सबको साथ लेकर चलते थे और हरवक्त 'राजधर्म' का पालन करने की बात करते थे.जनता दल (यू)  ने भाजपा नेतृत्व से साफ कहा कि उसे इस साल दिसंबर महीने तक प्रधानमंत्री के दावेदार का नाम घोषित कर देना चाहिए, साथ ही यह जाता भी दिया गया की सांप्रदायिक छवि के मोदी उन्हें कतई कबूल नहीं. अब मोदी को अपनी दावेदारी के बारे में एक बार फिर से गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि कम से कम उनकी अपनी पार्टी तो उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करे ही. लेकिन क्या भाजपा इसके लिए तैयार है?
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Sunday, 7 April 2013

राहुल बनाम मोदी ! चुनावी अक्स में उभरती तस्वीरें


गली लोकसभा के लिए चुनाव समय से पहले इस साल अक्टूबर-नवंबर में हों अथवा समय पर अगले साल अप्रैल-मई महीने में, चुनावी महाभारत की विभाजन रेखाएं साफ खिंचती नजर आने लगी हैं और यह भी स्पष्ट होने लगा है कि अगला लोकसभा चुनाव दलों के बीच नहीं बल्कि उनके नेताओं-कांग्रेस के राहुल गांधी और गुजरात के भाजपाई मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच ही होने वाला है. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव कुछ गैर कांग्रेसी-गैर भाजपा दलों के भरोसे तीसरे मोर्चे के काल्पनिक अस्तित्व के सहारे इस चुनावी महाभारत को त्रिकोणीय बनाने की कवायद में जुटे हैं. इस लिहाज से देखें तो हमारे राजनीतिक महारथी अपने-अपने तरीके से राजनीतिक पेशबंदी में जुट गए हैं.

क तरफ कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैं जो फिलहाल जब भी चाहें मंत्री-प्रधानमंत्री बन सकते हैं. लेकिन वह अगले लोकसभा चुनाव के बाद भी प्रधानमंत्री बनने का विकल्प यह कह कर खुला रखना चाहते हैं कि उनकी प्राथमिकता में सत्ता नहीं बल्कि कांग्रेस संगठन को मजबूत करना और जनता की सेवा करना सर्वोपरि है. प्रधानमंत्री बनना अथवा नहीं बनना उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता. दूसरी तरफ गुजरात विधानसभा के चुनाव में जीत की तिकड़ी बनाने वाले नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री बने बगैर वह देश का ‘कर्ज’ नहीं उतार सकते. उनकी भाषा में कहें तो तीन बार मुख्यमंत्री रहकर वह गुजरात का ‘कर्ज’ उतार चुके हैं और अब उनके देश का कर्ज उतारने की बारी है. हालांकि उनके प्रधानमंत्री बनने अथवा नहीं बनने की बात तो भविष्य के गर्त में है, उन्हें इसके लिए दावेदार घोषित किए जाने को लेकर भी न सिर्फ राजग में बल्कि उनकी अपनी पार्टी में भी एक राय नहीं है. उनकी दावेदारी को लेकर अभी तक सारी सक्रियता कुछ निगमित घरानों एवं मीडिया के एक हिस्से में ही ज्यादा दिखती है.

 मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को अपने बाहरी समर्थन की बैसाखी पर टिकाए हैं और कहते हैं कि ऐसा करना उनकी मजबूरी है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर सरकार सीबीआई और आयकर विभाग से परेशान कर सकती है, उन्हें जेल भिजवा सकती है. इसके साथ ही वह तथाकथित तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना भी संजोए हैं और समझते हैं कि अगले चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा के उभरने की स्थिति में कांग्रेस अथवा भाजपा के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने का उनका बहुत पुराना, सुंदर सपना साकार हो सकता है. एक चौथे महारथी भी हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जो पिछले नौ साल से कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार चला रहे हैं. वह प्रधानमंत्री के रूप में किसी भी दिन, किसी भी क्षण राहुल गांधी को स्वीकार करने की बात करते हैं लेकिन इस मामले में राहुल गांधी के संकोची या कहें सुविचारित वक्तव्यों के आलोक में यह कहना भी नहीं भूलते कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ से न तो बाहर हैं और ना ही अंदर. जाहिर सी बात है कि उनका इशारा अगले लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली राजनीतिक परिस्थिति की ओर है. वह अपने पत्ते तभी, उस समय की राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए ही खोलेंगे. वैसे, 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी द्वारा उन्हें नामित किये जाने से पहले भी उन्हें कहां उम्मीद थी कि वह इस देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. इस बार भी दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से लौटते समय तीसरी बार उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने यही कहा कि जब ऐसी परिस्थिति आएगी तो तय करेंगे.

हालांकि कांग्रेस परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से भी साफ कर चुकी है कि अगला लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. अपने हिसाब से वह इसकी तैयारी में भी जुटे हैं. उनके बारे में अभी तक यही कहा जाता रहा है कि नौ साल से संसदीय राजनीति और कांग्रेस संगठन में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के साथ सक्रिय राहुल अपनी बातें, राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक सोच, देश के युवाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि वंचित तबकों की समस्याओं के समाधान के बारे में अपने सपनों पर आधारित कार्य योजनाओं के बारे में विस्तार से खुलकर कुछ बोलते नहीं. लेकिन पिछले गुरुवार को राजधानी दिल्ली में भारतीय उद्योग परिसंघ -कन्फेडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्रीज-के मंच पर उन्होंने देश के निगमित क्षेत्र के  धुरंधरों के सामने बड़े आत्मविश्वास और बेबाकी के साथ अपनी बातें रखीं. तकरीबन एक घंटे के भाषण में श्रोताओं के साथ जीवंत संवादवाली शैली में उन्होंने हाल के दिनों में अपनी रेल यात्राओं और देश के विभिन्न हिस्सों-शहरों में तमाम तरह के लोगों से हुई मुलाकातों के जरिए देश को जानने-समझने की कोशिशों और अनुभवों को भी बांटने की कोशिश की. उनका जोर देश के आर्थिक विकास और प्रगति के साथ ही इसे समावेशी बनाने पर है जिसमें युवाओं, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों एवं अन्य वंचित तबकों की सहभागिता भी सुनिश्चित हो. इशारों में ही उन्होंने नरेंद्र मोदी की एकाधिकारवादी कार्यशैली पर प्रहार करते हुए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बातें कही.

यपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के बाद यह उनका पहला लंबा सार्वजनिक संबोधन था जिसे सुनकर लगा कि वाकई वह दिल से बोल रहे हैं. वह राजनीति, शासन-व्यवस्था और यहां तक कि कांग्रेस में कमियां भी गिनाते नजर आए लेकिन जयपुर की तरह एक बार फिर यहां भी वह समाधान सुझाने और देश और समाज को बदलने की अपनी भावी कार्ययोजनाओं का खाका पेश करने में विफल रहे जबकि मंच के सामने बैठे देश के शीर्षस्थ उद्योगपति एवं उनके प्रतिनिधि उनसे देश की अर्थव्यवस्था के भविष्य के बारे में उनका सोच जानना चाहते थे. ऐसा वह शायद इसलिए भी नहीं कर सके क्योंकि वह वहां सरकार के मुखिया अथवा प्रवक्ता की हैसियत से नहीं बल्कि कांग्रेस के भावी नेता के रूप में गए थे. वह काम एक दिन पहले उसी मंच पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरा कर गए थे. लेकिन राहुल गांधी कब तक कांग्रेस के ‘युवा तुर्क नेता’ की तरह संगठन, सरकार और व्यवस्था में खामियां ही गिनाते रहेंगे. लोग अब उनसे समस्याओं के समाधान के बारे में उनके सोच और उनकी कार्य योजनाओं के बारे में जानना चाहते हैं.

दूसरी तरफ, गांधीनगर में हों अथवा दिल्ली में या फिर देश के किसी अन्य हिस्से और शहर में, नरेंद्र मोदी ऐसा कोई अवसर नहीं खोना चाहते जब उन्हें अपने ‘सुशासन और विकास के गुजरात माडल’ के आधार पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को मजबूती से पेश करने का मौका मिल सके. राहुल गांधी ने भारतीय उद्योग परिसंघ की द्विवार्षिक सालाना बैठक में जहां उनके एकाधिकारवादी कार्यशैली पर प्रहार किया, मोदी ने उसी दिन गांधीनगर में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में यह जताने की कोशिश की कि वह ‘भाषणवीर’ नहीं ‘कर्मवीर’ हैं. सिर्फ बोलते नहीं बल्कि करके दिखाते हैं. उनकी सरकार ने पिछले दस वर्षों में गुजरात में जो विकास कार्य किए हैं उस पर दुनिया भर से लोग रिसर्च करने आ रहे हैं. देश के आर्थिक विकास के बारे में अपने रोड मैप को समझाने के लिए मोदी आठ अप्रैल को राजधानी दिल्ली में उद्योगपतियों के एक दूसरे मजबूत संगठन फिक्की की महिला शाखा के सम्मेलन को संबोधित करने आ रहे हैं.

हालांकि गुजरात अपनी स्थापना के समय से ही देश के विकसित राज्यों की सूची में रहा है. मोदी के विकास माडल से विकसित राज्यों की सूची में उसके 'नंबर वन' हो जाने की बात तो अब भी नहीं कही जाती. और फिर, जब भी उनके गुजरात माडल की चर्चा होती है, उनके शासन में 2002 में गुजरात में हुए गोधरा कांड और उसकी प्रतिक्रिया में शासन-प्रशासन द्वारा 'प्रायोजित-समर्थित' कहे जानेवाले सांप्रदायिक दंगों की चर्चा भी अनिवार्य रूप से होती है जिसमें हजारों लोग मारे गए और बेसहारा हो गए थे. यह भी एक कारण हो सकता है कि कई धुर गैर कांग्रेसी दल और  नीतीश कुमार जैसे नेता भी उनके नेतृत्व में राजग सरकार की कल्पना मात्र पर विचार करने के लिए भी तैयार नहीं होते. नीतीश कुमार को तो मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाना भी कबूल नहीं.

हाल के दिनों में एक सकारात्मक बात यह उभरकर आई है कि प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार अपनी सोच और कार्ययोजनाओं के साथ शिक्षण संस्थानों से लेकर उद्योगपतियों के मंचों पर भी सार्वजनिक बहस में शामिल होने लगे हैं. आने वाले दिनों में इन मंचों पर और खबरिया चैनलों पर भी  यह क्रमऔर तेज होने की उम्मीद की जा सकती है, जब एकल भाषण के बजाए हमारे भावी कर्णधार आमने-सामने की बहस में शामिल होंगे और उनसे और उनकी सोच से जुड़े सवालों से भी दो चार होने लगेंगे.
jaishankargupta@gmail.com / jaishankar.gupta@lokmat.com

(7 अप्रैल 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित साप्ताहिक स्तम्भ )    

Thursday, 4 April 2013

गरम, नरम, मुलायम


 पिछले नौ वर्षों में यूपीए सरकार पर आए तमाम राजनीतिक संकटों के समय मुख्य संकट मोचन की भूमिका में नजर आते रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के बोल अचानक उनके नाम के विपरीत कठोर होने लगे हैं. कांग्रेस को कभी वह धोखेबाजों की पार्टी करार दे रहे हैं तो कभी उस पर सीबीआई और आयकर विभाग के जरिए विरोधियों, यहां तक कि समर्थकों को को भी डराने-धमकाने और उसके राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप भी लगा रहे हैं. राजनीतिक ज्योतिषी की तरह वह लोकसभा के चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में ही कराए जाने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं. लेकिन पल-पल में पाला बदलने के लिए मशहूर मुलायम इसके साथ ही यह कहना भी नहीं भूल रहे कि सरकार से वह फिलहाल अपना समर्थन वापस नहीं लेने जा रहे हैं.

तृणमूल कांग्रेस के बाद द्रविड़ मुनेत्र कझगम के भी यूपीए-सरकार से अलग हो जाने के बाद संसद में सरकार अल्पमत में आ गई साफ नजर आ रही है. एक तरह से सरकार मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के सहयोग-समर्थन पर पहले से कहीं ज्यादा आश्रित नजर आ रही है. मुलायम सिंह इस स्थिति को पूरी तरह से भुनाने की कोशिश में जुटे हैं. अतीत का विषय बन चुके तथाकथित तीसरे मोर्चे को वह नए सिरे से खड़ा करने और उसकी धुरी खुद बनने के सपने भी देखने-दिखाने लगे हैं. यहां तक कि भाजपा और उसके लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के प्रति भी उनका प्रेम अचानक उमड़ने लगा है.

रअसल, श्रीलंका में तमिलों के ‘जन संहार’ या कहें मानवाधिकार हनन के सवाल पर सरकार से मनचाही प्रतिक्रिया नहीं मिल पाने से नाराज द्रमुक के यूपीए-सरकार से अलग हो जाने के बाद से केवल मुलायम ही नहीं देश में बहुत सारे लोगों को लगने लगा है कि लोकसभा के चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में होने वाले दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों के साथ ही कराए जा सकते हैं. मुलायम को इसमें राजनीतिक लाभ भी नजर आ रहा है. उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश में दिनों दिन बिगड़ती कानून व्यवस्था की हालत के कारण उनके पुत्र अखिलेश यादव की सरकार के साथ जिस रफ्तार से लोगों का मोहभंग होने लगा है, लोकसभा के चुनाव जितनी देरी से होंगे, राजनीतिकतौर पर उनके लिए उतना ही नुकसानदेह होगा. इसके विपरीत उन्हें उम्मीद है कि चुनाव जल्दी होने पर पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिले प्रचंड जनसमर्थन की पुनरावृत्ति संभव है.

 र अगर वह 40-50 सीटें जीत पाते हैं तो अन्य क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने की पहल उनके हाथ आ सकती है. उनके सामने बार-बार 1996 में एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकार का उदाहरण घूमते रहता है जब बहुमत के अभाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार के 13 दिन बाद ही धराशायी हो जाने के बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी संयुक्त मोर्चा सरकार में 46 सीटों वाले जनता दल के नेता एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री और 17 सीटों वाली सपा के नेता मुलायम सिंह रक्षा मंत्री बन गए थे. एक समय ऐसा भी आया था जब देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के समय वह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे. तब से नेताजी प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं. जब भी लोकसभा चुनाव की आहट तेज होती है, प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा जोर मारने लगती है. उन्हें लगता है कि अगले चुनाव में दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बहुत ऊंचा चढ़ने वाला नहीं है. क्षेत्रीय दल ही सरकार बनाने-बनवाने की निर्णायक भूमिका में होंगे. उनकी निगाहें ममता बनर्जी और वामदलों, जनता दल (यू), बीजू जनता दल, एनसीपी, इंडियन नेशनल लोकदल, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, अकाली दल, तेलुगु देशम, असम गण परिषद एवं अन्य क्षेत्रीय दलों के उनके साथ एकजुट होने और इस एकजुट मोर्चे को कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन हासिल हो जाने पर टिकी हैं. यह भी एक कारण हो सकता है कि इन दिनों उनके मुंह से अचानक भाजपा और उसके नेताओं के बारे में अच्छी-अच्छी ‘मुलायम’ बातें निकल रही हैं. लेकिन उनके सामने कई बाधाएं हैं. वामदलों और ममता तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक के एक साथ किसी मोर्चे में आने की संभावना  द्विवा स्वप्न ही लगती है. कांग्रेस और भाजपा खुद भी गठबंधन राजनीति कर रही हैं. कई बड़े और महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल पहले से ही कांग्रेस अथवा भाजपा गठबंधन के साथ हैं. जनता दल (यू) एवं अकाली दल इस समय भाजपानीत राजग के महत्वपूर्ण घटक हैं जबकि एनसीपी यूपीए का घटक है.

 बसे बड़ी बाधा मुलायम सिंह की अपनी विश्वसनीयता को लेकर है. अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने की खातिर उनके मौके बे मौके पाला बदलते रहने और किसी को भी गच्चा देते रहने के कारण उन पर कोई भरोसा करने की स्थिति में नहीं है. दूसरे, कांग्रेस और भाजपा से इतर कोई भी मोर्चा इन दलों के सहयोग-समर्थन के बिना सरकार बनाने की सोच भी नहीं सकता. कांग्रेस और भाजपा एकाधिक बार स्पष्ट कर चुके हैं कि किसी भी हालत में वे किसी तीसरे-चौथे मोर्चे को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने वाले नहीं हैं. भाजपा ने तो सवाल भी किया है कि नेताजी कांग्रेस से इतना ही त्रस्त हैं तो उसका साथ छोड़ क्यों नहीं देते.

राजनीति में कड़ी सौदेबाजी (हार्ड बार्गेनिंग) और कभी नरम तो कभी गरम रुख के लिए मशहूर मुलायम सिंह संभव है कि पर्दे के पीछे से कांग्रेस और यूपीए सरकार से कोई सौदा पटाने में लगे हों. संभव है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपनी हाल की लखनऊ यात्रा के दौरान उन्हें और उनके मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश को किसी तरह का लालीपाप भी दिखाया हो. यह भी संभव है कि सीबीआई का डर उन्हें और मायावती को सरकार का समर्थन जारी रखने के लिए बाध्य कर रहा हो. उन्होंने कहा भी है कि सरकार का समर्थन करने वालों और उससे समर्थन वापस लेने वालों के पीछे सीबीआई और आयकर विभाग को लगा दिया जाता है. लेकिन जाहिरा तौर पर उन्हें यह भी पता है कि उनके समर्थन वापस ले लेने के बावजूद सरकार कम से कम संसद के चालू बजट सत्र में तो गिरने वाली नहीं है. उनके समर्थन वापस लेते ही मायावती सरकार के साथ और मजबूती से खड़ा हो सकती हैं. राष्ट्रपति के चुनाव के समय मुलायम सिंह से गच्चा खा चुकी ममता बनर्जी उनसे राजनीतिक बदला सधाने के लिए सरकार का ‘संकट मोचन’ बन सकती हैं और फिर सरकार से समर्थन वापस लेने के बावजूद श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रही ज्यादतियों के मुद्दे पर कुछ खास हासिल नहीं कर पाने की सार्वजनिक चिंता जताने वाले द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि के ताजा राजनीतिक संकेत भी बताते हैं कि सरकार में शामिल भले न हों, ठोस विकल्प के अभाव में वह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से यूपीए का साथ दे सकते हैं. करूणानिधि हवा का रुख भांप लेनेवाले उन गिने चुने नेताओं में से हैं जिनकी पार्टी द्रमुक 1 9 9 6  से लेकर अबतक प्रायः सभी केंद्र सरकारों (1 9 98 से 19 99  के बीच की राजग सरकार अपवाद कही जा सकती है)  में शामिल रही है. सरकार के राजनीतिक प्रबंधक जनता दल (यू) के संपर्क में भी हैं.

 स स्थिति की कल्पना भाजपा को भी है, इसलिए भी वह सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आती. उसे यह भी एहसास है कि सरकार पर वास्तविक संकट खड़ा होने की स्थिति में मुलायम सिंह एक बार फिर उसके संकटमोचन नहीं बनेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. और फिर उसे लगता है कि आने वाले दिनों में सरकार अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले और दबती और कमजोर होती जाएगी. इससे बचने के लिए वह लोकसभा चुनाव समय से पहले भी करा सकती है. पिछले दिनों कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और फिर एक दिन बाद राहुल गांधी के द्वारा भी सांसदों से लोकसभा चुनाव के लिए तैयार रहने के आह्वान इस तरह के अनुमानों को और हवा देते हैं.

 न सबके बावजूद दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से लौटते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आत्म विश्वास गजब का नजर आया. उन्हें भी इस बात का एहसास तो है कि मुलायम सिंह कभी भी उनकी सरकार को गच्चा दे सकते हैं. लेकिन वह अपनी सरकार का कार्यकाल पूरा कर लेने और लोकसभा चुनाव समय पर यानी अगले साल अप्रैल-मई में ही कराए जाने को लेकर बेहद आश्वस्त नजर आए. इस हद तक कि अगला चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जाने और उन्हें ही अगला प्रधानमंत्री बनाए जाने के कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के समवेत सुरों के बीच ही उन्होंने तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर मना करने के बजाए यह कहा कि वैसी स्थिति आने दीजिए, तब देखेंगे! उनका यह ‘आत्म विश्वास’ कांग्रेस के एक बड़े तबके में बेचैनी पैदा कर रहा है.
( 3 1 मार्च 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )

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