जयशंकर गुप्त
पश्चिम बंगाल इन दिनों अजीब से राजनीतिक और सामाजिक उथल पुथल के दौर से गुजर रहा है. एक बार फिर पैरा बैंकिंग के नाम पर सक्रिय चिट फंड कंपनियों ने न सिर्फ सुदूर ग्रामीण इलाकों के भोले भाले किसान मजदूरों, छोटे व्यापारियों बल्कि शहरी इलाकों के पढ़े लिखे कहे जाने वाले लोगों को भी ठगी का शिकार बनाया है. लोग सड़कों पर उतर कर सरकार से और इस कंपनी के साथ जुड़े रहे बड़े नामों से इन्साफ मांग रहे हैं. लाखों की संख्या में लोगों ने इन कंपनियों के अविश्वसनीय मगर बेहद लुभावने वायदों-आश्वासनों, उनके कार्यक्रमों में शिरकत करने, उनके साथ तस्वीरें खिंचवाने, यहां तक कि उनके विज्ञापनों की शोभा भी बढ़ाने वाली सत्तारूढ़ राजनीतिक शख्सियतों के भंवरजाल में फंसकर अपनी गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा, यहां तक कि कर्ज लेकर भी पैसे सुपरिचित एजेंटों के जरिए इन कंपनियों के पास जमा कर दिए थे, इस उम्मीद के साथ कि उनकी जमाओं पर बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ब्याज से कहीं ज्यादा, दो गुना-तीन गुना ब्याज मिलेगा और जरूरत पड़ने पर सस्ता ऋण भी.
बेरोजगारी की मार झेल रहे ग्रामीण इलाकों के प्रभावशाली परिवारों के युवा भी इन कंपनियों के प्रचार, विज्ञापनों के जरिए दिखाए जा रहे सपनों के झांसे में आकर इनके एजेंट बनते चले गए. उन्हें 20 से 50 फीसदी तक का कमीशन जो मिलने लगा था.यानी आम निवेशकों को बहला फुसलाकर उनसे एकत्र रकम कंपनी के पास जमा करवाने से पहले ही अपना मोटा कमीशन पहले ही उसमें से काट लो. बेरोजगार या कहें छोटे-मोटे धंधों में लगे लोगों के लिए भी यह धंधा बुरा नहीं था. लोग एक-एक कर इन चिट फंड कंपनियों के झांसे में आकर उनसे जुड़ते और उनके खातों में करोड़ों रु. जमा करवाते गए. कोलकाता में इसी तरह की एक सारधा चिट फंड कंपनी और उसके कारनामे इन दिनों चर्चा का विषय बने हुए हैं. इस कंपनी पर न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि झारखंड, ओडिशा और उत्तर पूर्व के राज्यों में लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई को चूना लगाते हुए तकरीबन 20 हजार करोड़ रु. का घोटाला करने का आरोप है. कंपनी के पास पैसा जमा करने वाले लाखों हताश निवेशक एजेंटों को ढूंढ़ते उनके आगे पीछे भाग रहे हैं, एजेंट मुंह छिपाए जहां तहां भाग छिप रहे हैं. कहा तो यह भी जा रहा है कि जल्दी कुछ नहीं किया गया तो संबद्ध राज्यों में कानून व्यवस्था का सवाल खड़ा हो सकता है. कर्ज में डूबे लोगों की ‘आत्म हत्या’ जैसी खबरें आनी शुरू हो सकती हैं. ऐसा वहां अस्सी और नब्बे के दशक में हो भी चुका है.
कंपनी के संचालक सुदीप्तो सेन और उनके दो सहयोगी-देबजानी मुखर्जी और अरविंद सिंह चैहान पुलिस की हिरासत में हैं. जम्मू-कश्मीर के सोनमर्ग में दोनों सहयोगियों के साथ गिरफ्तारी से पहले सेन द्वारा सीबीआई को लिखे लंबे चौड़े पत्र ने न सिर्फ पश्चिम बंगाल बल्कि उत्तर पूर्व के राजनीतिकों और केंद्र सरकार में बैठे लोगों, उनके रिश्तेदारों, वकीलों और पत्रकारों को भी विवादों के कठघरे में खड़ा कर दिया है. तृणमूल कांग्रेस के प्रमुख सांसदों, उत्तर पूर्व के कांग्रेसी नेताओं और यहां तक कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम की पत्नी नलिनी चिंदबरम को भी विभिन्न कामों के एवज में लाखों-करोड़ों रु. देने की बात सेन ने लिखी है.
खुद को रामकृष्ण परमहंस और उनकी पत्नी मां शारदा का अनन्य भक्त कहने वाले और छात्र-युवा अवस्था में नक्सलवादी आंदोलन और उसके जनक चारू मजुमदार से प्रभावित सुदीप्तो सेन ने 1995 में मां शारदा के नाम से ही अपनी 'सारधा चिट फंड कंपनी' बड़े ताम झाम के साथ खोली. तब राज्य में वाम दलों की सत्ता थी लेकिन ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य में उनकी तृणमूल कांग्रेस के सत्तारूढ़ होने के बाद इस कंपनी की सफलता में जैसे चार चांद लगने शुरू हो गए और देखते ही देखते कई बड़े अखबार, पत्रिकाएं, खबरिया से लेकर मनोरंजन के क्षेत्र में सक्रिय टी वी चैनल तथा दर्जनों और कंपनियां इस कंपनी के नाम से जुड़ती चली गईं. लेकिन पिछले साल नवंबर महीने में अचानक पता चला कि कंपनी के कर्मचारियों को वेतन मिलने में असुविधा हो रही है. तीन चार महीने से वेतन भत्तों का भुगतान नहीं हो पा रहा था. और एक दिन पता चला कि इसके द्वारा संचालित तमाम टीवी चैनल एक झटके में बंद कर दिए गए. दो हजार से अधिक स्त्री-पुरुष, पत्रकार गैर पत्रकार बेरोजगार हो सड़क पर आ गए. इसी बीच पिछले 10 अप्रैल को जब सुदीप्तो सेन और उसके दोनों सहयोगी रहस्यमय परिस्थितियों में कोलकाता से गायब हो गए, सबको पता चल गया कि सारधा चिट फंड कंपनी का बेड़ा गर्क हो चुका है. निवेशकों की गाढ़ी कमाई के हजारों करोड़ रु. एक बड़े घोटाले की भेंट चढ़ चुके हैं.
लेकिन सुदीप्तो सेन और उसकी सारधा चिट फंड कंपनी का मामला न तो नया है और ना ही अकेला ही. पश्चिम बंगाल में इससे पहले अस्सी-नब्बे के दशक में भूदेव सेन की संचयिता और फिर पियरलेस और राज्य से बाहर निकलकर देखें तो कुबेर, जे वी जी जैसी कंपनियां भी लाखों लोगों की गाढ़ी कमाई पर डाका डाल चुकी हैं. लेकिन शायद अतीत के इन घोटालों से किसी ने, न तो सरकार ने और न ही इसके जाल में फंसते रहे लोगों ने ही कोई सबक नहीं लिया और बीच-बीच में इस तरह की चिट फंड और पैरा बैंकिंग कंपनियां नए नामों, नई तरकीबों और नए लुभावने आश्वासनों के साथ बाजार में आती और आम लोगों तथा बिना कुछ खास किए रकम दोगुनी, चौगुनी करने के ख्वाहिशमंद लोगों को अपने जाल में फंसाते रही हैं. देश के विभिन्न हिस्सों से इस तरह की कंपनियों के उदय और लाखों-करोड़ों रु. डकारने के बाद अस्त होने के समाचार आते रहते रहते हैं. सरकारी सूत्रों के अनुसार अकेले पश्चिम बंगाल में इस समय इस तरह की 400 कंपनियां भविष्य के सुनहरे सपनों और आश्वासनों के सहारे लोगों को लूटने-ठगने में लगी हैं. इनमें टाटा की नैनो कार के लिए आवंटित जमीन के खिलाफ आंदोलने कर उसे खदेड़ने में सफल रहे सिंगूर के इलाके में सक्रिय तृणमूल कांग्रेस के एक सांसद से जुड़ी कंपनी भी शामिल है. केंद्र सरकार के आदेश पर सीरियस फ्राड इन्वेस्टिगेशन की स्पेशल टास्क फोर्स ने इस तरह की 87 कंपनियों की जांच शुरू की है.
सवाल एक ही है कि अतीत के घटनाक्रमों के मद्देनजर इस तह की कंपनियों को यह सब करने की छूट अथवा लाइसेंस कैसे मिल जाता है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार इस समय देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 34754 चिट फंड एवं पैरा बैंकिंग कंपनियां सक्रिय हैं. इनमें से केवल 12375 कंपनियों को ही भारतीय रिजर्व बैंक से गैर बैंकिंग कारोबार की अनुमति मिली हुई है. लेकिन इस अनुमति की आड़ में ये कंपनियां और बाकी 22 हजार से अधिक गैर अनुमति प्राप्त कंपनियां किस किस तरह के गुल खिला रही हैं, इस पर भी किसी की नजर रहती है क्या? अगर सुदीप्तो सेन की मानें तो वह इस तरह के मामलों की नियामक संस्था सेबी के संबद्ध अधिकारियों को प्रति माह 70 लाख रु. और असम के पुलिस अधिकारियों को 40 लाख रु. दिया करता था. इसके अलावा आयकर अधिकारियों, नेताओं, सांसदों और मीडिया के लोगों को भी भारी रकम अदा करते रहता था. उसकी कंपनी में तमाम तरह के रिटायर्ड पुलिस-प्रशासनिक अधिकारी, पत्रकार वेतन भोगी थे. इस तरह के कामों में खर्च का उसका बजट करोडों रु. का था.
इस कंपनी तथा इस तरह की कुछ अन्य कंपनियों के मायाजाल में फंसकर अपना सब कुछ लुटा चुके लाखों लोगों का क्या होगा. अपने 23 महीनों के शासनकाल में सब बुराइयों और कमियों की जड़ वाम मोर्चा सरकार में ही खोजने की आदी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस घोटाले से बुरी तरह हिल गई लगती हैं. उनकी पार्टी के कई नेता, सांसद और मंत्री इस घोटाले के साथ परोक्ष अथवा प्रत्यक्ष रूप से साफ जुड़े नजर आ रहे हैं. उनके लिए सुकून की बात सिर्फ वित्त मंत्री चिदंबरम की पत्नी नलिनी का इस कंपनी के साथ वकील के रूप में जुड़ना और उससे भारी रकम और सुविधाएं प्राप्त करना हो सकता है. ममता बनर्जी ने घोटाले की जांच के लिए एक आयोग और विशेष जांच टीम घोषित की है. उन्होंने पीड़ित निवेशकों की राहत के लिए 500 करोड़ रु. के एक पैकेज की घोषणा करते हुए कहा है कि इसका एक हिस्सा सिगरेट की बिक्री पर 10 फीसदी अधिशेष के जरिए जमा किया जाएगा. इसके साथ ही उन्होंने राज्य के लोगों से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और मौत का कारण भी साबित होने वाली वैधानिक चेतावनी के साथ बेची जाने वाली सिगरेट का सेवन ज्यादा करने की ‘हास्यास्पद' अपील भी कर डाली है. जाहिर सी बात है कि राज्य में चिट फंड घोटाले की मार झेल रहे लोगों पर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी. इसकी बानगी शायद कुछ ही महीनों में पश्चिम बंगाल में होने वाले पंचायत और स्थानीय निकायों के चुनावों में भी देखने को मिल सकती है, जब लोग अपने हुक्मरानों से पूछना शुरू कर देंगे कि ‘‘कब तलक लुटते रहेंगे, लोग मेरे गांव के.’’
2 8 अप्रैल 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित
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