पिछले नौ वर्षों में यूपीए सरकार पर आए तमाम राजनीतिक संकटों के समय मुख्य संकट मोचन की भूमिका में नजर आते रहे समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव के बोल अचानक उनके नाम के विपरीत कठोर होने लगे हैं. कांग्रेस को कभी वह धोखेबाजों की पार्टी करार दे रहे हैं तो कभी उस पर सीबीआई और आयकर विभाग के जरिए विरोधियों, यहां तक कि समर्थकों को को भी डराने-धमकाने और उसके राजनीतिक दुरुपयोग के आरोप भी लगा रहे हैं. राजनीतिक ज्योतिषी की तरह वह लोकसभा के चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में ही कराए जाने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं. लेकिन पल-पल में पाला बदलने के लिए मशहूर मुलायम इसके साथ ही यह कहना भी नहीं भूल रहे कि सरकार से वह फिलहाल अपना समर्थन वापस नहीं लेने जा रहे हैं.
तृणमूल कांग्रेस के बाद द्रविड़ मुनेत्र कझगम के भी यूपीए-सरकार से अलग हो जाने के बाद संसद में सरकार अल्पमत में आ गई साफ नजर आ रही है. एक तरह से सरकार मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजन समाज पार्टी के सहयोग-समर्थन पर पहले से कहीं ज्यादा आश्रित नजर आ रही है. मुलायम सिंह इस स्थिति को पूरी तरह से भुनाने की कोशिश में जुटे हैं. अतीत का विषय बन चुके तथाकथित तीसरे मोर्चे को वह नए सिरे से खड़ा करने और उसकी धुरी खुद बनने के सपने भी देखने-दिखाने लगे हैं. यहां तक कि भाजपा और उसके लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेताओं के प्रति भी उनका प्रेम अचानक उमड़ने लगा है.
दरअसल, श्रीलंका में तमिलों के ‘जन संहार’ या कहें मानवाधिकार हनन के सवाल पर सरकार से मनचाही प्रतिक्रिया नहीं मिल पाने से नाराज द्रमुक के यूपीए-सरकार से अलग हो जाने के बाद से केवल मुलायम ही नहीं देश में बहुत सारे लोगों को लगने लगा है कि लोकसभा के चुनाव इस साल अक्टूबर-नवंबर में होने वाले दिल्ली, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और मिजोरम विधानसभा के चुनावों के साथ ही कराए जा सकते हैं. मुलायम को इसमें राजनीतिक लाभ भी नजर आ रहा है. उन्हें लगता है कि उत्तर प्रदेश में दिनों दिन बिगड़ती कानून व्यवस्था की हालत के कारण उनके पुत्र अखिलेश यादव की सरकार के साथ जिस रफ्तार से लोगों का मोहभंग होने लगा है, लोकसभा के चुनाव जितनी देरी से होंगे, राजनीतिकतौर पर उनके लिए उतना ही नुकसानदेह होगा. इसके विपरीत उन्हें उम्मीद है कि चुनाव जल्दी होने पर पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को मिले प्रचंड जनसमर्थन की पुनरावृत्ति संभव है.
और अगर वह 40-50 सीटें जीत पाते हैं तो अन्य क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर तीसरे मोर्चे की सरकार बनाने की पहल उनके हाथ आ सकती है. उनके सामने बार-बार 1996 में एच डी देवेगौड़ा के नेतृत्व में बनी संयुक्त मोर्चा की सरकार का उदाहरण घूमते रहता है जब बहुमत के अभाव में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली सरकार के 13 दिन बाद ही धराशायी हो जाने के बाद कांग्रेस के समर्थन से बनी संयुक्त मोर्चा सरकार में 46 सीटों वाले जनता दल के नेता एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री और 17 सीटों वाली सपा के नेता मुलायम सिंह रक्षा मंत्री बन गए थे. एक समय ऐसा भी आया था जब देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री पद से हटने के समय वह प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए थे. तब से नेताजी प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं. जब भी लोकसभा चुनाव की आहट तेज होती है, प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा जोर मारने लगती है. उन्हें लगता है कि अगले चुनाव में दोनों तथाकथित राष्ट्रीय दलों-कांग्रेस और भाजपा का राजनीतिक ग्राफ बहुत ऊंचा चढ़ने वाला नहीं है. क्षेत्रीय दल ही सरकार बनाने-बनवाने की निर्णायक भूमिका में होंगे. उनकी निगाहें ममता बनर्जी और वामदलों, जनता दल (यू), बीजू जनता दल, एनसीपी, इंडियन नेशनल लोकदल, द्रमुक, अन्ना द्रमुक, अकाली दल, तेलुगु देशम, असम गण परिषद एवं अन्य क्षेत्रीय दलों के उनके साथ एकजुट होने और इस एकजुट मोर्चे को कांग्रेस अथवा भाजपा का समर्थन हासिल हो जाने पर टिकी हैं. यह भी एक कारण हो सकता है कि इन दिनों उनके मुंह से अचानक भाजपा और उसके नेताओं के बारे में अच्छी-अच्छी ‘मुलायम’ बातें निकल रही हैं. लेकिन उनके सामने कई बाधाएं हैं. वामदलों और ममता तथा द्रमुक और अन्ना द्रमुक के एक साथ किसी मोर्चे में आने की संभावना द्विवा स्वप्न ही लगती है. कांग्रेस और भाजपा खुद भी गठबंधन राजनीति कर रही हैं. कई बड़े और महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दल पहले से ही कांग्रेस अथवा भाजपा गठबंधन के साथ हैं. जनता दल (यू) एवं अकाली दल इस समय भाजपानीत राजग के महत्वपूर्ण घटक हैं जबकि एनसीपी यूपीए का घटक है.
सबसे बड़ी बाधा मुलायम सिंह की अपनी विश्वसनीयता को लेकर है. अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने की खातिर उनके मौके बे मौके पाला बदलते रहने और किसी को भी गच्चा देते रहने के कारण उन पर कोई भरोसा करने की स्थिति में नहीं है. दूसरे, कांग्रेस और भाजपा से इतर कोई भी मोर्चा इन दलों के सहयोग-समर्थन के बिना सरकार बनाने की सोच भी नहीं सकता. कांग्रेस और भाजपा एकाधिक बार स्पष्ट कर चुके हैं कि किसी भी हालत में वे किसी तीसरे-चौथे मोर्चे को सरकार बनाने के लिए समर्थन देने वाले नहीं हैं. भाजपा ने तो सवाल भी किया है कि नेताजी कांग्रेस से इतना ही त्रस्त हैं तो उसका साथ छोड़ क्यों नहीं देते.
राजनीति में कड़ी सौदेबाजी (हार्ड बार्गेनिंग) और कभी नरम तो कभी गरम रुख के लिए मशहूर मुलायम सिंह संभव है कि पर्दे के पीछे से कांग्रेस और यूपीए सरकार से कोई सौदा पटाने में लगे हों. संभव है कि वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने अपनी हाल की लखनऊ यात्रा के दौरान उन्हें और उनके मुख्यमंत्री पुत्र अखिलेश को किसी तरह का लालीपाप भी दिखाया हो. यह भी संभव है कि सीबीआई का डर उन्हें और मायावती को सरकार का समर्थन जारी रखने के लिए बाध्य कर रहा हो. उन्होंने कहा भी है कि सरकार का समर्थन करने वालों और उससे समर्थन वापस लेने वालों के पीछे सीबीआई और आयकर विभाग को लगा दिया जाता है. लेकिन जाहिरा तौर पर उन्हें यह भी पता है कि उनके समर्थन वापस ले लेने के बावजूद सरकार कम से कम संसद के चालू बजट सत्र में तो गिरने वाली नहीं है. उनके समर्थन वापस लेते ही मायावती सरकार के साथ और मजबूती से खड़ा हो सकती हैं. राष्ट्रपति के चुनाव के समय मुलायम सिंह से गच्चा खा चुकी ममता बनर्जी उनसे राजनीतिक बदला सधाने के लिए सरकार का ‘संकट मोचन’ बन सकती हैं और फिर सरकार से समर्थन वापस लेने के बावजूद श्रीलंका में तमिलों के साथ हो रही ज्यादतियों के मुद्दे पर कुछ खास हासिल नहीं कर पाने की सार्वजनिक चिंता जताने वाले द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि के ताजा राजनीतिक संकेत भी बताते हैं कि सरकार में शामिल भले न हों, ठोस विकल्प के अभाव में वह प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से यूपीए का साथ दे सकते हैं. करूणानिधि हवा का रुख भांप लेनेवाले उन गिने चुने नेताओं में से हैं जिनकी पार्टी द्रमुक 1 9 9 6 से लेकर अबतक प्रायः सभी केंद्र सरकारों (1 9 98 से 19 99 के बीच की राजग सरकार अपवाद कही जा सकती है) में शामिल रही है. सरकार के राजनीतिक प्रबंधक जनता दल (यू) के संपर्क में भी हैं.
इस स्थिति की कल्पना भाजपा को भी है, इसलिए भी वह सरकार के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव लाने के लिए ज्यादा उत्साहित नजर नहीं आती. उसे यह भी एहसास है कि सरकार पर वास्तविक संकट खड़ा होने की स्थिति में मुलायम सिंह एक बार फिर उसके संकटमोचन नहीं बनेंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है. और फिर उसे लगता है कि आने वाले दिनों में सरकार अपने अंतर्विरोधों के बोझ तले और दबती और कमजोर होती जाएगी. इससे बचने के लिए वह लोकसभा चुनाव समय से पहले भी करा सकती है. पिछले दिनों कांग्रेस संसदीय दल की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और फिर एक दिन बाद राहुल गांधी के द्वारा भी सांसदों से लोकसभा चुनाव के लिए तैयार रहने के आह्वान इस तरह के अनुमानों को और हवा देते हैं.
इन सबके बावजूद दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से लौटते समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का आत्म विश्वास गजब का नजर आया. उन्हें भी इस बात का एहसास तो है कि मुलायम सिंह कभी भी उनकी सरकार को गच्चा दे सकते हैं. लेकिन वह अपनी सरकार का कार्यकाल पूरा कर लेने और लोकसभा चुनाव समय पर यानी अगले साल अप्रैल-मई में ही कराए जाने को लेकर बेहद आश्वस्त नजर आए. इस हद तक कि अगला चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़े जाने और उन्हें ही अगला प्रधानमंत्री बनाए जाने के कांग्रेस के तमाम बड़े नेताओं के समवेत सुरों के बीच ही उन्होंने तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर मना करने के बजाए यह कहा कि वैसी स्थिति आने दीजिए, तब देखेंगे! उनका यह ‘आत्म विश्वास’ कांग्रेस के एक बड़े तबके में बेचैनी पैदा कर रहा है.
( 3 1 मार्च 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित )
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