लोकतंत्र में सबको अपनी बातें कहने, मांगें मनवाने, उसके लिए दबाव बनाने और विरोध प्रदर्शन का अधिकार है लेकिन पिछले दिनों राजधानी दिल्ली में और फिर कोलकाता में जिस तरह के धरना-विरोध प्रदर्शन और जवाबी हिंसक प्रदर्शन हुए उन्हें किसी भी लिहाज से जायज करार नहीं दिया जा सकता. योजना आयोग के समक्ष अपनी मांगें पेश करने आईं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनके वित्त मंत्री अमित मित्रा के साथ योजना भवन के दरवाजे पर माकपा की छात्र इकाई स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया -एसएफआई- के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन के नाम पर जो अभद्रता की, अमित मित्रा के कुर्ते फाड़ डाले, हाथापाई भी की, वह कतई निंदनीय था. अच्छी बात है कि माकपा के पोलित ब्यूरो ने भी इसकी भर्त्सना की. एसएफआई के प्रदर्शनकारी पश्चिम बंगाल में अपने नेता सुदीप्तो गुप्ता की पुलिस हिरासत में अदालत ले जाते समय हुई संदिग्ध मौत और उसके बारे में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की ‘ओछी प्रतिक्रिया’ का विरोध कर रहे थे.
इसके एक दो दिन बाद ही अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कर आरक्षण की सुविधा दिए जाने की मांग कर रहे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दो सौ से अधिक जाट किसान विदेश -रूस-प्रवास पर गए गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे के सरकारी निवास पर तोड़ फोड़ करते हुए अंदर घुस गए. जाट किसानों को आरक्षण मिलना चाहिए कि नहीं, यह विवाद का विषय हो सकता है. सच तो यह है की 1 9 9 0 में जिस समय मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू की गई थी, इसका सबसे भारी और तीव्र विरोध जाट किसानों ने ही किया था. समाजवादी नेता मधुलिमए सरीखे कुछ लोगों द्वारा उन्हें भी अन्य पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल किए जाने के प्रस्ताव का तब अपने इलाकों में चौधरी कहलानेवाले जाट किसानों ने यह कह कर उसका पुरजोर विरोध किया था कि वे लोग क्योंकर दलितों और पिछड़ों की कतार में बैठने लगे. लेकिन अब उन्हें यह एहसास होने लगा है कि सामाजिक दृष्टि से वे भी पिछड़े हैं और उन्हें भी शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सुविधा मिलनी चाहिए. उनकी मांगों पर सरकार विचार कर सकती है. लेकिन इस तरह किसी मंत्री के निवास में घुसकर तोड़-फोड़ की इजाजत किसी को भी कैसे दी जा सकती है.
जहां तक ममता बनर्जी और अमित मित्रा के साथ बदसलूकी की बात है, उनकी टिप्पणी से नाराज एसएफआई अथवा किसी और संगठन के लोगों को भी कोलकाता हो अथवा दिल्ली, कहीं भी शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन का अधिकार है. ममता जी को भी समझना होगा कि जब आप राजनीति में हैं, मंत्री मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार संवैधानिक पदों पर हैं तो तालियों और फूल मालाओं के साथ ही काले झंडों और विरोध प्रदर्शनों का सामना करने के लिए भी आपको तैयार रहना चाहिए. और फिर इस तरह के उग्र और हिंसक प्रदर्शनों की तो कोलकाता और पश्चिम बंगाल में लंबी और पुरानी परंपरा सी रही है. वाम मार्चा शासन के दौरान पश्चिम बंगाल की बाघिन कही जाने वाली ममता के विरोध प्रदर्शन भी कई बार कुछ इसी तरह के रहे हैं. एक बार तो कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग के पास प्रदर्शन के दौरान ममता बनर्जी ने रोकने की कोशिश कर रहे पुलिस के एक जवान की उंगली ही चबा ली थी. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि इस आधार पर एसएफआई के उग्र और हिंसक प्रदर्शन को जायज ठहराया जा सकता है.
लेकिन उसके जवाब में ममता जी का आचरण कैसा था? एक राज्य के सम्मानित और जिम्मेदार मुख्यमंत्री की तरह तो कतई नहीं. वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया और केंद्र सरकार में राज्य मंत्री राजीव शुक्ला पर इस तरह बिफर रही थीं जैसे सब कुछ उनका ही किया धरा था. उन्होंने बीमार हो जाने के नाम पर उसी शाम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ और अगले दिन वित्त मंत्री पी चिदंबरम के साथ अपनी मुलाकात रद्द कर दी. वह कोलकाता लौट गईं, यह कहते हुए कि दिल्ली आम लोगों के लिए ही नहीं मुख्यमंत्रियों के लिए भी सुरक्षित नहीं. यह गंभीर बात है. दिल्ली पुलिस ने योजना भवन के पास उनकी सुरक्षा व्यवस्था में किसी तरह की कोताही नहीं की. उन्हें कार में बैठे ही योजना भवन के अंदर पोर्टिको तक जाने की सलाह दी गई थी लेकिन सीधे जनता की राजनीति करने वाली ममता प्रदर्शनकारियों के बीच से ही अंदर जाने की जिद कर गईं. दिल्ली में उनके साथ जो हुआ वह निंदनीय था लेकिन उसकी प्रतिक्रिया में कोलकाता और पश्चिम बंगाल के कुछ अन्य हिस्सों में जो हुआ वह क्या कम शर्मनाक था? माकपा कार्यकर्ताओं के साथ मार पीट, कोलकाता के ऐतिहासिक प्रेसीडेंसी कालेज में तोड़ फोड़ की गई. छात्राओं के साथ बदसलूकी हुई. उनके साथ बलात्कार की धमकियां दी गईं. वहां उस बेकर लेबोरेटरी को तहस नहस किया गया जहां बैठकर कभी सत्येंद्रनाथ बोस और जगदीश चंद्र बोस जैसे विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक शोध किया करते थे. इस सबको रोकने की संवैधानिक जिम्मेदारी क्या मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की नहीं थी?
जिस समय ममता बनर्जी दिल्ली में थीं, उसी दिन गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी और मजबूत करने की गरज से कोलकाता में ममता दीदी की तारीफ में कसीदे पढ़ते हुए नए राजनीतिक समीकरण की दिशा में आगे बढ़ने के संकेत दे रहे थे. मोदी को और उनकी भाजपा को भी इस बात का एहसास हो चला है कि केंद्र में सरकार बनाना अकेले भाजपा तो क्या राजग के मौजूदा स्वरूप के बूते की बात भी नहीं. इसके लिए राजग के विस्तार की जरूरत होगी. ममता और जयललिता कभी राजग के साथ रह चुकी हैं. एक बार फिर साथ आने के लिए उन पर राजनीतिक डोरे डाले जा सकते हैं. हालांकि पश्चिम बंगाल संभवतः देश का अकेला बड़ा राज्य है जहां अल्पसंख्यक मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक तकरीबन 27 फीसदी है. भाजपा और वह भी नरेंद्र मोदी के साथ जुड़कर ममता अल्पसंख्यकों के साथ कैसे सामंजस्य बिठा सकेंगी, यह समझने वाली बात है. उनके सामने अतीत का उदाहरण भी है. 2004 में जब उनकी पार्टी राजग -भाजपा-के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी तो उसे सिर्फ एक ममता बनर्जी की सीट से ही संतोष करना पड़ा था जबकि 2009 में कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ने पर उनकी तृणमूल कांग्रेस को 19 सीटें मिल गईं. राज्य में भी वह अपने बूते अपनी सरकार बनाने में कामयाब रहीं. ऐसे में मोदी और भाजपानीत राजग के साथ जुड़ने से पहले वह लाख दफे इसके राजनीतिक नफा-नुकसान के बारे में सोचेंगी. वैसे भी हाल के दिनों-महीनों में राज्य में उनकी लोकप्रियता का राजनीतिक ग्राफ जिस रफ़्तार से गिर रहा है, उससे वह काफी परेशान हैं. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, उसके तो दोनों हाथों में लड्डू हैं. ममता नहीं तो माकपा एवं उसके सहयोगी सही. वाम दलों ने केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को आश्वस्त कर रखा है कि उनके कारण सरकार गिरने नहीं दी जाएगी. वाम दल समय से पहले चुनाव के पक्षधर नहीं हैं. उनकी समझ से लोकसभा चुनाव जितनी भी देरी से होंगे, ममता कमजोर होंगी और वाम दल फायदे में रहेंगे.
मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात का कर्ज उतारने -हालांकि जब मोदी मुख्यमंत्री बने थे उस समय गुजरात पर कुल कर्ज 45 हजार 301 करोड़ रु. का था जो उनके दस-ग्यारह वर्षों के शासन में बढ़कर एक लाख 38 हजार करोड़ रु. तक पहुंच गया-के बाद प्रधानमंत्री के रूप में देश का कर्ज भी उतारने पर आमादा नरेंद्र मोदी की विडंबना यही है कि अभी तक राजग से बाहर की बात तो छोड़ ही दें राजग के घटक दलों और यहां तक कि उनकी अपनी भाजपा में भी उनकी दावेदारी पर आम राय नहीं बन पा रही है. वह भाजपा के संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति में तो आ गए लेकिन उन्होंने पार्टी की केंद्रीय चुनाव अभियान समिति की कमान संभालने के लिए हाथ खड़े कर दिए. क्या वह भाजपा के लिए कर्नाटक विधानसभा के अपेक्षित या कहें आशंकित नतीजों से डर गए़ ? यहां तक कि सदस्य होने के बावजूद वह चुनाव समिति की पहली बैठक में शामिल नहीं हुए क्योंकि उसमें कर्नाटक विधानसभा के लिए भाजपा के उम्मीदवारों का चयन होना था. यही नहीं वह कर्नाटक में भाजपा के चुनाव अभियान के शुभारंभ के अवसर पर भी बेंगलुरु से गायब रहे. संकेत यह भी हैं कि वह कर्नाटक में भाजपा के मुख्य प्रचारक नहीं रहेंगे. भाजपा के एक बड़े नेता की मानें तो मोदी नहीं चाहते कि कर्नाटक में पार्टी की आशंकित हार का ठीकरा उनके भविष्य की राह में रोड़ा साबित हो सके.
दूसरी तफ, राजग के विस्तार की तस्वीर तो अभी साफ हो नहीं रही, इस बीच राजग के महत्वपूर्ण घटक जनता दल (यू) और उसके नेता नीतीश कुमार ने उनके मामले में फच्चर फंसा दिया है. 13-14 अप्रैल को यहां हुई जद-यू- की राष्ट्रीय कार्यकारिणी और राष्ट्रीय परिषद की बैठक में नीतीश कुमार ने नाम लिए बगैर मोदी पर कटाक्ष किया कि देश को जोड़ने वाले धर्मनिरपेक्ष नेता की जरूरत है, तोड़नेवाले की नहीं. उन्होंने कहा कि देश को अटल बिहारी वाजपेयी जैसी सोच की जरूरत जो सबको साथ लेकर चलते थे और हरवक्त 'राजधर्म' का पालन करने की बात करते थे.जनता दल (यू) ने भाजपा नेतृत्व से साफ कहा कि उसे इस साल दिसंबर महीने तक प्रधानमंत्री के दावेदार का नाम घोषित कर देना चाहिए, साथ ही यह जाता भी दिया गया की सांप्रदायिक छवि के मोदी उन्हें कतई कबूल नहीं. अब मोदी को अपनी दावेदारी के बारे में एक बार फिर से गंभीरता से सोचना पड़ेगा कि कम से कम उनकी अपनी पार्टी तो उन्हें अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश करे ही. लेकिन क्या भाजपा इसके लिए तैयार है?
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