Sunday, 7 April 2013

राहुल बनाम मोदी ! चुनावी अक्स में उभरती तस्वीरें


गली लोकसभा के लिए चुनाव समय से पहले इस साल अक्टूबर-नवंबर में हों अथवा समय पर अगले साल अप्रैल-मई महीने में, चुनावी महाभारत की विभाजन रेखाएं साफ खिंचती नजर आने लगी हैं और यह भी स्पष्ट होने लगा है कि अगला लोकसभा चुनाव दलों के बीच नहीं बल्कि उनके नेताओं-कांग्रेस के राहुल गांधी और गुजरात के भाजपाई मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच ही होने वाला है. समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव कुछ गैर कांग्रेसी-गैर भाजपा दलों के भरोसे तीसरे मोर्चे के काल्पनिक अस्तित्व के सहारे इस चुनावी महाभारत को त्रिकोणीय बनाने की कवायद में जुटे हैं. इस लिहाज से देखें तो हमारे राजनीतिक महारथी अपने-अपने तरीके से राजनीतिक पेशबंदी में जुट गए हैं.

क तरफ कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी हैं जो फिलहाल जब भी चाहें मंत्री-प्रधानमंत्री बन सकते हैं. लेकिन वह अगले लोकसभा चुनाव के बाद भी प्रधानमंत्री बनने का विकल्प यह कह कर खुला रखना चाहते हैं कि उनकी प्राथमिकता में सत्ता नहीं बल्कि कांग्रेस संगठन को मजबूत करना और जनता की सेवा करना सर्वोपरि है. प्रधानमंत्री बनना अथवा नहीं बनना उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता. दूसरी तरफ गुजरात विधानसभा के चुनाव में जीत की तिकड़ी बनाने वाले नरेंद्र मोदी हैं जिन्हें लगता है कि प्रधानमंत्री बने बगैर वह देश का ‘कर्ज’ नहीं उतार सकते. उनकी भाषा में कहें तो तीन बार मुख्यमंत्री रहकर वह गुजरात का ‘कर्ज’ उतार चुके हैं और अब उनके देश का कर्ज उतारने की बारी है. हालांकि उनके प्रधानमंत्री बनने अथवा नहीं बनने की बात तो भविष्य के गर्त में है, उन्हें इसके लिए दावेदार घोषित किए जाने को लेकर भी न सिर्फ राजग में बल्कि उनकी अपनी पार्टी में भी एक राय नहीं है. उनकी दावेदारी को लेकर अभी तक सारी सक्रियता कुछ निगमित घरानों एवं मीडिया के एक हिस्से में ही ज्यादा दिखती है.

 मुलायम सिंह यादव कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को अपने बाहरी समर्थन की बैसाखी पर टिकाए हैं और कहते हैं कि ऐसा करना उनकी मजबूरी है क्योंकि ऐसा नहीं करने पर सरकार सीबीआई और आयकर विभाग से परेशान कर सकती है, उन्हें जेल भिजवा सकती है. इसके साथ ही वह तथाकथित तीसरे मोर्चे के सहारे प्रधानमंत्री बनने का सपना भी संजोए हैं और समझते हैं कि अगले चुनाव में त्रिशंकु लोकसभा के उभरने की स्थिति में कांग्रेस अथवा भाजपा के समर्थन से प्रधानमंत्री बनने का उनका बहुत पुराना, सुंदर सपना साकार हो सकता है. एक चौथे महारथी भी हैं, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जो पिछले नौ साल से कांग्रेसनीत यूपीए की सरकार चला रहे हैं. वह प्रधानमंत्री के रूप में किसी भी दिन, किसी भी क्षण राहुल गांधी को स्वीकार करने की बात करते हैं लेकिन इस मामले में राहुल गांधी के संकोची या कहें सुविचारित वक्तव्यों के आलोक में यह कहना भी नहीं भूलते कि वह प्रधानमंत्री पद की दौड़ से न तो बाहर हैं और ना ही अंदर. जाहिर सी बात है कि उनका इशारा अगले लोकसभा चुनाव के बाद बनने वाली राजनीतिक परिस्थिति की ओर है. वह अपने पत्ते तभी, उस समय की राजनीतिक परिस्थिति को देखते हुए ही खोलेंगे. वैसे, 2004 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी द्वारा उन्हें नामित किये जाने से पहले भी उन्हें कहां उम्मीद थी कि वह इस देश के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं. इस बार भी दक्षिण अफ्रीका के डरबन में ब्रिक्स देशों के सम्मेलन से लौटते समय तीसरी बार उनके प्रधानमंत्री बनने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने यही कहा कि जब ऐसी परिस्थिति आएगी तो तय करेंगे.

हालांकि कांग्रेस परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से भी साफ कर चुकी है कि अगला लोकसभा चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. अपने हिसाब से वह इसकी तैयारी में भी जुटे हैं. उनके बारे में अभी तक यही कहा जाता रहा है कि नौ साल से संसदीय राजनीति और कांग्रेस संगठन में भी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों के साथ सक्रिय राहुल अपनी बातें, राजनीतिक,आर्थिक और सामाजिक सोच, देश के युवाओं, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों आदि वंचित तबकों की समस्याओं के समाधान के बारे में अपने सपनों पर आधारित कार्य योजनाओं के बारे में विस्तार से खुलकर कुछ बोलते नहीं. लेकिन पिछले गुरुवार को राजधानी दिल्ली में भारतीय उद्योग परिसंघ -कन्फेडरेशन आफ इंडियन इंडस्ट्रीज-के मंच पर उन्होंने देश के निगमित क्षेत्र के  धुरंधरों के सामने बड़े आत्मविश्वास और बेबाकी के साथ अपनी बातें रखीं. तकरीबन एक घंटे के भाषण में श्रोताओं के साथ जीवंत संवादवाली शैली में उन्होंने हाल के दिनों में अपनी रेल यात्राओं और देश के विभिन्न हिस्सों-शहरों में तमाम तरह के लोगों से हुई मुलाकातों के जरिए देश को जानने-समझने की कोशिशों और अनुभवों को भी बांटने की कोशिश की. उनका जोर देश के आर्थिक विकास और प्रगति के साथ ही इसे समावेशी बनाने पर है जिसमें युवाओं, दलितों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों एवं अन्य वंचित तबकों की सहभागिता भी सुनिश्चित हो. इशारों में ही उन्होंने नरेंद्र मोदी की एकाधिकारवादी कार्यशैली पर प्रहार करते हुए सत्ता के विकेंद्रीकरण की बातें कही.

यपुर में कांग्रेस के चिंतन शिविर के बाद यह उनका पहला लंबा सार्वजनिक संबोधन था जिसे सुनकर लगा कि वाकई वह दिल से बोल रहे हैं. वह राजनीति, शासन-व्यवस्था और यहां तक कि कांग्रेस में कमियां भी गिनाते नजर आए लेकिन जयपुर की तरह एक बार फिर यहां भी वह समाधान सुझाने और देश और समाज को बदलने की अपनी भावी कार्ययोजनाओं का खाका पेश करने में विफल रहे जबकि मंच के सामने बैठे देश के शीर्षस्थ उद्योगपति एवं उनके प्रतिनिधि उनसे देश की अर्थव्यवस्था के भविष्य के बारे में उनका सोच जानना चाहते थे. ऐसा वह शायद इसलिए भी नहीं कर सके क्योंकि वह वहां सरकार के मुखिया अथवा प्रवक्ता की हैसियत से नहीं बल्कि कांग्रेस के भावी नेता के रूप में गए थे. वह काम एक दिन पहले उसी मंच पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पूरा कर गए थे. लेकिन राहुल गांधी कब तक कांग्रेस के ‘युवा तुर्क नेता’ की तरह संगठन, सरकार और व्यवस्था में खामियां ही गिनाते रहेंगे. लोग अब उनसे समस्याओं के समाधान के बारे में उनके सोच और उनकी कार्य योजनाओं के बारे में जानना चाहते हैं.

दूसरी तरफ, गांधीनगर में हों अथवा दिल्ली में या फिर देश के किसी अन्य हिस्से और शहर में, नरेंद्र मोदी ऐसा कोई अवसर नहीं खोना चाहते जब उन्हें अपने ‘सुशासन और विकास के गुजरात माडल’ के आधार पर प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को मजबूती से पेश करने का मौका मिल सके. राहुल गांधी ने भारतीय उद्योग परिसंघ की द्विवार्षिक सालाना बैठक में जहां उनके एकाधिकारवादी कार्यशैली पर प्रहार किया, मोदी ने उसी दिन गांधीनगर में एक पुस्तक के लोकार्पण समारोह में यह जताने की कोशिश की कि वह ‘भाषणवीर’ नहीं ‘कर्मवीर’ हैं. सिर्फ बोलते नहीं बल्कि करके दिखाते हैं. उनकी सरकार ने पिछले दस वर्षों में गुजरात में जो विकास कार्य किए हैं उस पर दुनिया भर से लोग रिसर्च करने आ रहे हैं. देश के आर्थिक विकास के बारे में अपने रोड मैप को समझाने के लिए मोदी आठ अप्रैल को राजधानी दिल्ली में उद्योगपतियों के एक दूसरे मजबूत संगठन फिक्की की महिला शाखा के सम्मेलन को संबोधित करने आ रहे हैं.

हालांकि गुजरात अपनी स्थापना के समय से ही देश के विकसित राज्यों की सूची में रहा है. मोदी के विकास माडल से विकसित राज्यों की सूची में उसके 'नंबर वन' हो जाने की बात तो अब भी नहीं कही जाती. और फिर, जब भी उनके गुजरात माडल की चर्चा होती है, उनके शासन में 2002 में गुजरात में हुए गोधरा कांड और उसकी प्रतिक्रिया में शासन-प्रशासन द्वारा 'प्रायोजित-समर्थित' कहे जानेवाले सांप्रदायिक दंगों की चर्चा भी अनिवार्य रूप से होती है जिसमें हजारों लोग मारे गए और बेसहारा हो गए थे. यह भी एक कारण हो सकता है कि कई धुर गैर कांग्रेसी दल और  नीतीश कुमार जैसे नेता भी उनके नेतृत्व में राजग सरकार की कल्पना मात्र पर विचार करने के लिए भी तैयार नहीं होते. नीतीश कुमार को तो मोदी को भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया जाना भी कबूल नहीं.

हाल के दिनों में एक सकारात्मक बात यह उभरकर आई है कि प्रधानमंत्री पद के संभावित दावेदार अपनी सोच और कार्ययोजनाओं के साथ शिक्षण संस्थानों से लेकर उद्योगपतियों के मंचों पर भी सार्वजनिक बहस में शामिल होने लगे हैं. आने वाले दिनों में इन मंचों पर और खबरिया चैनलों पर भी  यह क्रमऔर तेज होने की उम्मीद की जा सकती है, जब एकल भाषण के बजाए हमारे भावी कर्णधार आमने-सामने की बहस में शामिल होंगे और उनसे और उनकी सोच से जुड़े सवालों से भी दो चार होने लगेंगे.
jaishankargupta@gmail.com / jaishankar.gupta@lokmat.com

(7 अप्रैल 2 0 1 3 के लोकमत समाचार में प्रकाशित साप्ताहिक स्तम्भ )    

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