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भारत के कैलाश सत्यार्थी के लिए वर्ष 2014 के शांति के नोबल पुरस्कार के मायने क्या हैं?
भारत में जन्मे किसी भारतीय को पहली बार शांति का नोबल पुरस्कार मिलना भारतीय मूल्यों और परंपराओं का ही सम्मान है. भले ही यह सम्मान काफी वर्षों के बाद मिला है. मुझे बहुत आत्म संतोष कि मेरे माध्यम से यह पुरस्कार हमारे भारत देश को मिला.
दूसरी बात यह भी है कि पहली बार दुनिया भर में सबसे शोषित, वंचित और उपेक्षित बच्चों उनकी समस्याओं और पीड़ा को इस पुरस्कार के जरिए इतनी बड़ी वैश्विक पहचान मिली है. इससे पहले किसी बाल अधिकार कार्यकर्ता को यह सम्मान नहीं मिला, यह सम्मान उनकी ही आवाज है. इसका श्रेय अकेले मेरा नहीं. मैने पहले ही घोषणा कर दी थी कि नोबल पुरस्कार की राशि मुझे अपने अथवा अपने संगठन के ऊपर खर्च नहीं करना है. मैने जिनेवा में नोबल पुरस्कार ग्रहण करने से पहले अपने व्याख्यान में ही साफ कर दिया था कि यह पुरस्कार सभी देशवासियों और दुनिया भर के बच्चों के लिए है. मैने पुरस्कार राशि वहीं जिनेवा में ही यह कहते हुए छोड़ दी थी कि इसका उपयोग वहीं से दुनिया भर के बच्चों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे अन्य जरूरतमंद संगठनों के जरिए खर्च होगी. इसके लिए हमारी सिफारिश भी जरूरी नहीं होगी. इस तरह मैं केवल नोबल पुरस्कार के मेडल के साथ भारत आ गया.
आपने मेडल भी तो राष्ट्रपति भवन को दे दिया!
हां, क्योंकि मेरा मानना था कि मेडल भी मेरा नहीं था. हालांकि उसे मैं अपने अथवा अपने संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के पास रख सकता था. जहां तक मेरी जानकारी है, भारत में इस समय एक भी नोबल मेडल नहीं है जिसे आप चाहें और देख लें. गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर का मेडल भी विश्वभारती से चोरी हो गया. मैंने इसे भारतवासियों को सौंपने का फैसला किया. इसके लिए राष्ट्रपति भवन से मुफीद जगह और कोई नहीं लगी लिहाजा मैंने इसे राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भेंट कर दिया. हालांकि यह भी प्रोटोकॉल के विरुद्ध था क्योंकि राष्ट्रपति तो मेडल और पुरस्कार दूसरों को देते हैं. अंत में उनसे बातचीत के बाद इसे राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में रखने का फैसला हुआ. अब आप की तरह हम भी उसे देख भर सकते हैं, छू नहीं सकते.
नोबल पुरस्कार आपको मिला और आपके गृह प्रदेश मध्यप्रदेश के नेताओं, विधायकों और मंत्रियों तक ने बधाई राज्य सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री कैलाश विजय वर्गीय को देना शुरु कर दिया था! क्या कहेंगे?
इस पर मैं क्या कह सकता हूं. अच्छा है खुद ही बधाई ले दे रहे हैं. मैं तो खुद ही कह रहा हूं कि यह पुरस्कार सभी देशवासियों का है. सभी सांसद, विधायक, मंत्री और आम लोग भी इसे अपना अपना पुरस्कार समझ सकते हैं. हां, लेकिन इसके साथ ही उन्हें बाल दासता के विरुद्ध और बाल अधिकारों के पक्ष में संघर्ष में शामिल होने की नैतिक जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए.
अब नोबल के आगे क्या?
देखिए, इससे पहले भी मुझे डिफेंडर्स आॅफ डेमोक्रेसी एवार्ड (2009 अमेरिका), मेडल आॅफ द इटालियन सीनेट (2007 इटली), रॉबर्ट एफ. केनेडी इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड (अमेरिका) और फ्रेडरिक एबर्ट इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स अवार्ड (जर्मनी) मिल चुका है. लेकिन मुझे शांति का नोबल पुरस्कार मिलने की घोषणा के साथ ही दुनिया भर में बाल अधिकारों को लेकर बहुत बड़ा परिवर्तन नजर आने लगा. चंद घंटों में ही बाल दासता, बच्चों के शोषण, बाल मजदूरी, शिक्षा जैसे मुद्दों पर जिस व्यापक पैमाने पर चर्चा शुरु हो गई जिसे मैं जीवन भर के अपने प्रयासों से भी नहीं कर सकता था. पुरस्कार की घोषणा होते ही संयुक्त राष्ट्र संघ और इससे जुड़ी संस्थाओं के प्रमुखों, तमाम राष्ट्राध्यक्षों के बधाई संदेशों से भी पूरी दुनिया में बाल दासता और बाल अधिकारों को लेकर चेतना फैली. अब वह चेतना और जानकारी लोगों के सरोकार में भी बदल रही है. नोबल पुरस्कार मिलने के बाद से अब तक दुनिया भर से 11 हजार से भी अधिक आमंंत्रण मुझे मिल चुके हैं, इस विषय पर अपनी बात रखने के लिए. आज बाल दासता और बाल अधिकारों का मुद्दा बेहद महत्वपूर्ण बन गया है जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती.
आपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी तो मुलाकात की थी. क्या आपने उन्हें कोई कार्य योजना भी पेश की थी?
नोबल पुरस्कार मिलने के बाद प्रधानमंत्री मोदी से हमारी मुलाकात शिष्टाचारवश हुई थी. इस मुलाकात में हमारे मुद्दों पर भी चर्चा हुई. हमने उन्हें जोर देकर आग्रह किया कि हम लोग मिलकर संपन्न, स्वच्छ भारत के साथ साथ बाल मित्र भारत भी बनाएं. भारत आर्थिक शक्ति के साथ ही दुनिया में राजनीतिक शक्ति के रूप में भी उभरे, यह हमारी भी मंशा है लेकिन भारत में नैतिक शक्ति बनने की भी पूरी क्षमता है. कम से कम एक नोबल मेडल भारत में आया है जिससे इस बात की पुष्टि होती है. प्रधानमंत्री काफी उत्साहित थे. तय हुआ कि भविष्य में हम ठोस कार्य योजना के साथ फिर मिलेंगे.
प्रधानमंत्री से मुलाकात में हमने उन्हें बताया कि सांसद आदर्र्श ग्राम तब तक आदर्र्श नहीं हो सकता जब तक वह बाल मित्र नहीं बनता. हमने सैकड़ों बाल मित्र गांव बनाए हैं, जिसमें गांव के सभी बच्चे बाल शोषण, बाल विवाह से मुक्त होते हैं. सभी धर्म जाति के बच्चे, खासतौर से बच्चियां स्कूल जाएं और पढ़ें. बाल मित्र गांव में सभी बच्चे मिलकर बाल पंचायत चुनते हैं जहां से बच्चों में प्रजातांत्रिक मूल्यों का प्रशिक्षण शुरु होता है. बाल पंचायत और ग्राम पंचायत मिलकर काम करती हैं. ग्राम पंचायत की बैठकों में बाल मित्र पंचायतों के प्रतिनिधि भी भाग लेते हैं. बचपन कें द्रित ग्रामीण विकास की अवधारणा सांसद आदर्श ग्राम का हिस्सा बननी चाहिए. प्रधानमंत्री ने कहा प्रस्ताव बहुत अच्छा है, इस पर आगे भी चर्चा करेंगे.
आपने बाल मजदूरी रोकने के लिए अधिनियम बनाने की बात भी तो कही थी. सभी सांसदों को इसके लिए पत्र भी लिखा था, उसका क्या हुआ?
बाल मजदूरी रोकने के लिए संसद में संविधान संशोधन विधेयक पहले से ही लंबित है. अभी जो कानून है, काफी पुराना है. 1986 के कानून के तहत 14 साल तक के बच्चों को सिर्फ खतरनाक उद्योगों में काम करने पर प्रतिबंध है. बाकी जगहों पर वे काम कर सकते हैं जबकि शिक्षा का अधिकार के तहत 14 साल तक के बच्चों को स्कूल में होना चाहिए. अंतर्विरोध साफ दिखता है. अगर 14 साल की उम्र तक कोई बच्चा काम करेगा तो वह स्कूल कैसे जा सकेगा. पिछली सरकार ने हमारी बात सैद्धांतिक रूप से मान ली थी. लेकिन तब तक लोकसभा के चुनाव हो गए और नई सरकार आ गई. ऐसा लगता है कि न तो पिछली सरकार की और नाही इस सरकार की राजनीतिक प्राथमिकता शोषण और उत्पीड़न के शिकार बच्चे हैं.
हमने सभी सांसदों से संसद के शीत सत्र में अपील की थी ऐसा कानून बनाने के लिए जिसके जरिए 14 साल तक सभी प्र्रकार की बाल मजदूरी पर प्रतिबंध लगे. 18 साल तक खतरनाक उद्योगों में मजूदरी, बाल वेश्यावृत्ति, बच्चों को अपराध कार्यों में संलिप्त करना प्रतिबंधित किया जाए़ इस कानून में बाल श्रम से मुक्त बच्चों के पुनर्वास का प्रावधान हो. अधिकतर सांसदों ने कहा ‘आइडिया अच्छा है’, लेकिन इससे संबंधित कोई विधेयक तो संसद के शीत सत्र में आया नहीं.
सरकारी नौकरी, आर्य समाज, समाजवादी आंदोलन, बंधुआ मुक्ति और फिर बचपन बचाओ आंदोलन तक की आपकी लंबी यात्रा के बारे में क्या कुछ कहेंगे?
हम कभी किसी राजनीतिक दल के सदस्य अथवा कार्यकर्ता नहीं रहे. छात्र जीवन में डा. राममनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित हुआ. खासतौर से उनके अंग्रेजी हटाओ आंदोलन ने उस समय के छात्र-युवाओं को बहुत प्रभावित और आकर्षित किया था. हम भी उस आंदोलन से जुड़े थे. अंग्रेजियत की दासता हमारी मानसिक दासता का ही एक रूप है. किसी भाषा से प्रेम, भाषा को सीखना, उसमें पारंगत होना अलग और अच्छी बात है लेकिन उसकी मानसिक गुलामी हमारे स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध करती है. छात्र युवा जीवन में ही आर्य समाज के साथ जुड़ा. स्वामी दयानंद से बहुत प्रभावित हुआ. भारतीय हिंदू समाज में जो जाति के नाम पर जो पाखंड था, मृतक भोज, श्राद्ध कर्म आदि के विरुद्ध आर्य समाज के आंदोलन ने प्रभावित किया. स्वामी विवेकानंद से भी प्रभावित हुआ. इसी क्रम में महात्मा गांधी को पढ़ा और उनसे भी बेतरह प्रभावित हुआ. आज भी प्रभावित हूं. 1981 में दिल्ली आने के बाद स्वामी अग्निवेश के साथ मिलकर बंधुआ मुक्ति मोर्चा के बैनर तले बंधुआ मुक्ति का आंदोलन साथ साथ शुरु किया. उसी क्रम में लगा कि बेजुबान बच्चों की गुलामी ज्यादा अमानवीय है और इस तरह से मेरे सोच और काम का फोकस बचपन बचाओ आंदोलन की ओर होते गया. अभी 140 देशों में हमारा काम चल रहा है. ‘ग्लोबल मूवमेंट अगेंस्ट चाइल्ड लेबर’ यानी बाल दासता विरोधी विश्व आंदोलन का मैं संस्थापक अध्यक्ष भी हूं.
कैलाश शर्मा से कैलाश सत्यार्थी कब और कैसे बन गए?
1969 में जब मैं 15 साल का था, हमारा देश महात्मा गांधी की जन्म शताब्दी मना रहा था. पुस्तकों के सहारे महात्मा गांधी से तो प्रभावित था ही, हमारे यहां के सभी दलों के गांधीवादियों के विचारों से भी बहुत प्रभावित था कि ये लोग कितने महान हैं जो छुआछूत नहीं मानते, सबसे दबे, कुचले, पिछड़े अंतिम आदमी की वकालत करते हैं और उनके लिए ही इन लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया था. हमारे लिए ये नेता हमारे परिवार से भी बड़े और महान लगते थे. उनसे प्रेरणा लेकर हमने सोचा कि हमें भी इस तरह का राजनीतिक कार्यकर्ता बनना चाहिए. मेरे मन में एक विचार आया कि क्यों न अपने शहर विदिशा में सभी नेताओं को एकत्र कर सामूहिक भोज का आयोजन किया जाए जिसमें दलित और खासतौर से माथे पर मैला ढोनेवाली सफाईकर्मी महिलाएं भोजन पकाएं और ऊंच नीच का भेद त्यागकर सभी लोग एक साथ मिलकर भोजन करें.
हमने अपने यहां सभी दलों के नेताओं से चर्चा की. सबने कहा बहुत प्रंशसनीय पहल है. महिलाएं शुरुआती संकोच के बाद सहमते सहमते नहा धोकर नए कपड़े पहनकर नए बरतन के साथ विदिशा के गांधी उद्यान में गांधी प्रतिमा के पास आर्इं. चंदा चुटकी से जुटाई सामग्री से खिचड़ी तैयार हुई लेकिन रात में उसे खाने किसी भी पार्टी और संगठन का कोई नेता नहीं आया. हम इंतजार करते रहे. मन में तमाम तरह के तूफान उठ रहे थे. नेताओं के बारे में बनी धारणाएं मोम की तरह पिघल रही थीं. दो ढाई घंटों के इंतजार के बाद हमने हिम्मत जुटाकर खिचड़ी खानी शुरु कर दी. एक बूढ़ी दलित महिला मेरे पास आई और बोली, बेटा मुझे पहले से ही पता था कि कोई नहीं आएगा लेकिन तुम क्यों घबरा रहे हो. तुमने तो अपना वह काम पूरा कर दिया जो हमारे जीवन में अब तक किसी ने नहीं किया.
घर लौटा तो आधी रात को वहां अजीब नजारा था. आंगन में आधीरात में भी लाइट जल रही थी. ऊंची जाति (ब्राह्मण) के दस-बारह बड़े लोग, पुजारी हमारे परिवार के लोगों को बहुत बुरा भला कह रहे थे कि कैलाश की वजह से पूरा शहर बदनाम हो रहा है. बड़े भाई नाराज थे, मां रो रही थी. भाई कह रहे थे कि तुम्हें जाति निकाला करेंगे, ये लोग़ . खूब डांट पड़ी. पंडित पुरोहितों ने रास्ता निकाला कि कैलाश घर में प्रवेश करने के बजाए बाहर से ही हरिद्वार जाकर गंगा नहाए. शुद्ध होने के बाद यहां आए और 101 ब्राह्मणों को भोज करवाएं और उनके पैर धोकर पानी पिए तभी इसकी पूर्ण शुद्धि संभव है. मैंने कठोरता से मना कर दिया और कहा था कि गंदगी तो आप लोग करते हैं. वे तो इसकी सफाई करते हैं. फिर सफाई करने वाले गंदे कैसे हुए. इससे और कु्रद्ध हुए लोगों ने मेरे परिवार को तो माफ कर दिया लेकिन मुझे घर और जाति से बाहर करवा दिया. मेरे रहने के लिए घर से बाहर एक छोटे कमरे की व्यवस्था की गई. सबके साथ बैठकर खाना भी नहीं खा सकता था. पीने के पानी के लिए भी अलग व्यवस्था थी. रात भर मैं सो नहीं सका. मेरे मन में यह विचार आया कि ये लोग मुझे जाति से क्या निकालेंगे, मुझे खुद ही जाति के बंधन से निकल जाना चाहिए. जाति का सबसे बड़ा सूचक मेरे नाम के साथ लगा उप नाम ही है. सो, मैने अपने नाम के साथ न्लगा शर्मा का उप नाम हटा दिया. काफी दिनों तक कैलाश नाम ही चलता रहा. इस बीच हमने कुछ लेख सत्यार्थी के नाम से लिखना शुरु किया और फिर सत्यार्थी का उपनाम मेरे नाम के साथ जुड़ गया.
बंधुआ या कहें बाल मजदूरी से मुक्ति आंदोलन के दौरान आप पर प्राणघातक हमले भी हुए?
जब हमने 35 साल पहले यह काम शुरु किया, उस समय सबसे बड़ी चुनौती हमारे सामने यही थी कि कैसे इसे पूरी दुनिया के सामने एक समस्या के रूप में स्थापित किया जाए. इसे सामाजिक बुराई और अपराध साबित करना मुश्किल भरा काम था, क्योंकि तब इस तरह का कोई कानून नहीं था. हमने इसे एक चुनौती के रूप में स्वीकार किया. कीमत भी चुकाई. हमारे दो साथी इस आंदोलन में शहीद हो गए. खुद मेरे ऊपर भी कई बार प्राणघातक हमले किए गए. मेरा बायां पैर टूट गया. दाहिना कंधा टूटा, सिर पर भी गंभीर चोटें आर्इं. कई बार मरते मरते बचा था. मुझे याद है कि किस तरह 2004 के जून महीने में उत्तर प्रदेश के कर्नेलगंज (गोंडा) में ‘ग्रेट रोमन सर्कस’ में नाचने और यौन शोषण का शिकार बनाई जानेवाली नेपाली बच्चियों को मुक्त कराने हम उनके परिवारवालों और स्थानीय प्रशासन को लेकर पहुंच गए थे. सर्कस के मालिक ने मुझे लोहे के डंडों आर क्रिकेट के बल्लों से पिटवाया था. हम लहू लुहान हो गए लेकिन हमने हार नहीं मानी थी. वहीं आमरण अनशन शुरु कर दिया था. नतीजे के तौर पर सर्कस से नेपाल से ट्रैफिकिंग के जरिए लाई गई 17 बच्चियों को मुक्त कराया गया था.
इसके साथ ही मुझ पर चरित्रहनन से लेकर अन्य तरह के आरोप लगाए गए. यह काम आज भी जारी है. आप समझ सकते हैं कि शारीरिक हमलों से ज्यादा घातक होता है चरित्रहनन का प्रयास. लेकिन जब जब हम पर शारीरिक अथवा मानसिक हमले किए गए, हम और हमारे इरादे और मजबूत होते गए. हमें लगा कि हम जो कर रहे हैं, वह सही है तभी तो बच्चों का शोषण-उत्पीड़न करनेवाले अपने वजूद पर खतरा महसूस कर हम पर हमले कर-करा रहे हैं.
मगर देश में गरीबी और बेरोजगारी के रहते बाल मजूदरी पर रोक कैसे लग सकती है?
पहली बात तो यह कि गरीब के बच्चे अगर इसी तरह बाल मजदूरी करते रहेंगे तो शिक्षा और तरक्की के दूसरे सभी अवसरों से भी तो वे वंचित होते रहेंगे. वे सारी जिंदगी कमजोर, बीमार, लाचार और गरीब ही बने रहेंगे. यह भी कहा जाता है कि बाल मजदूरी करनेवाले अधिकतर बच्चों के माता पिता बेरोजगार अथवा अल्प रोजगारी होते हैं. भारत में जहां तकरीबन छह करोड़ बाल मजदूर हैं, वहीं साढ़े छह करोड़ वयस्क बेरोजगार हैं. तमाम अध्ययनों से साबित हो चुका है कि बाल मजदूरों के माता-पिता इसलिए बेरोजगार रह जाते हैं क्योंकि उनके सस्ता अथवा मुफ्त का श्रमिक होने की वजह से मालिक बच्चों को ही काम पर रखना पसंद करते हैं. यह स्थिति अकेले हमारे भारत में ही नहीं है. दुनिया भर में 21 करोड़ बाल श्रमिक हैं जबकि 20 करोड़ से ज्यादा वयस्क बेरोजगार हैं. एक बात और जान लें कि एक हजार में से केवल तीन बाल मजदूर ही ऐसे होते हैं जिनके माता पिता या कोई भी अभिभावक जीवित नहीं है. इसलिए कुछ बच्चों की मजबूरी का तर्क सभी के साथ लागू नहीं किया जा सकता.
सच तो यह है कि गरीबी और बाल मजदूरी का रिश्ता मुर्गी और अंडे की तरह का है. बाल मजदूरी के कारण गरीबी और गरीबी के कारण बाल मजदूरी पनपती और चलती है. हम यह कभी नहीं कहते कि गरीबी उन्मूलन और आर्थिक समानता लाने के सभी प्रयास बंद कर दिए जाने चाहिए. लेकिन यह जान लेना भी जरूरी है कि गरीबी का खात्मा भी बाल मजदूरी को समाप्त किए बिना संभव नहीं है. दरअसल, बाल मजदूरी, गरीबी और अशिक्षा के बीच एक प्रकार का त्रिकोणात्मक रिश्ता है. यह तीनों एक दूसरे के कारण और परिणाम बनकर बचपन विरोधी दुष्चक्र बनाते हैं. गरीबी से अशिक्षा और बाल मजदूरी, बाल मजदूरी से गरीबी और अशिक्षा और अशिक्षा के कारण बाल मजदूरी और गरीबी चलती और पनपती है.
आपकी राय में बाल मजदूरी के क्या कारण हो सकते हैं?
सबसे बड़ा कारण समाज में बचपन के के प्रति गरिमा और सम्मान का अभाव है. यह हमारी सामाजिक मानसिकता से जुड़ी कमी है. इसी की उपज निर्धन और उपेक्षित बच्चों के प्रति सरोकारों व संवेदनशीलता का अभाव है. दूसरा कारण, पर्याप्त राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी का है. इसके चलते हमारे देश में बाल मजदूरी पर रोक के लिए अच्छे और कठोर कानून नहीं बन सके हैं. और जो कानून हैं भी उनका सही तरीके से पालन नहीं हो रहा है.
नए साल 2015 के लिए आपका संकल्प क्या है?
नए साल का संकल्प नया नहीं है. इस साल हमारा ज्यादा फोकस बच्चों के लिए हिंसा मुक्त समाज के लिए होगा ताकि बच्चे शांति और सुरक्षा के माहौल में जी सकें.
नोट - यह साक्षात्कार 16 जनवरी 2015 के लोकमत समाचार, लोकमत (मराठी) और LOKMAT TIMES में प्रकाशित हुआ है।
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