Thursday, 24 January 2019

यूपी बनेगा 2019 के चुनावी महाभारत का ‘कुरुक्षेत्र’ !

कांग्रेस के लिए प्रियंका साबित होंगी संजीवनी !

जयशंकर गुप्त


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कम करके आंकना गलत होगा. वह वहां सबको चौंका सकते हैं. वाकई, कांग्रेसजनों की लंबे अरसे से चली आ रही मांग के मद्देनजर अपनी बहन प्रियंका -गांधी-वाड्रा को कांग्रेस में महासचिव के रूप में पूर्वी उत्तर प्रदेश और एक अन्य महासचिव के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार देकर उन्होंने चौंकानेवाला राजनीतिक फैसला किया है. उन्होंने साफ किया है कि यूपी में अब वह बैकफुट पर नहीं बल्कि फ्रंट फुटपर खेलेंगे. कयास उनके चचेरे भाई भाजपा सांसद वरुण गांधी के भी साथ आने के लगते रहे हैं.

जाहिर सी बात है कि राहुल 2019 में सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनावी महाभारत में उत्तर प्रदेश की निर्णायक भूमिका को बखूबी समझ रहे हैं क्योंकि हस्तिनापुर की सत्ता के लिए कौरव और पांडवों के बीच का महाभारत अगर कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था तो 2019 में इंद्रप्रस्थ यानी दिल्ली की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए होनेवाले चुनावी महाभारत का फैसला लोकसभा में अस्सी सीटोंवाले उत्तर प्रदेश में ही होने की संभावना है. प्रधानमंत्री पद के तीन-चार घोषित दावेदारों-नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मायावती, मुलायम सिंह यादव के इसी राज्य से चुनाव लड़ने की संभावना है.

इस लिहाज से भी तमाम दलों और गठबंधनों के बीच समीकरण बनने और बिगड़ने लगे हैं. कांग्रेस को बाहर रखकर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने आपस में राजनीतिक गठजोड़ कर लोकसभा की अस्सी सीटों का बंटवारा आपस में कर लिया है. रालोद के लिए तीन-चार सीटें छोड़ने की बात है जबकि रायबरेली और अमेठी की दो सीटें कांग्रेस-सोनिया गांधी या प्रियंका तथा राहुल गांधी के लिए छोड़ी गई हैं. यूपी की राजनीति में हासिए पर धकेल दिए जाने की कोशिशों के एहसास से परेशान कांग्रेस ने भी साफ कर दिया है कि वह तकरीबन 25 करोड़ की आबादी के हिसाब से भी इस सबसे बड़े प्रदेश (अगर उत्तर प्रदेश स्वतंत्र राष्ट्र होता तो दुनिया का सबसे बड़ा पांचवां देश होता) में सभी सीटों पर अपने बूते अकेले चुनाव लड़ेगी.

हालांकि इससे पहले कांग्रेस देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन के बारे में बातें करती रही थी. लेकिन इसके लिए उसने कोई ठोस पहल नहीं की. विपक्ष की एकजुटता के नाम पर सम्मेलन, रैलियां और रात्रिभोज तो हुए लेकिन सीटों के तालमेल के लिए कभी आमने सामने बैठकर कोई बात नहीं हुई. इसकी एक वजह तो यह भी रही कि यूपी में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बेहद खराब परफार्मेंंस के मद्देनजर सपा-बसपा उसके लिए उसकी मर्जी के मुताबिक अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थीं और फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता के बाद कांग्रेस नेताओं का मनोबल और उत्साह कुछ ज्यादा ही बढ़ गया लगता है. इन तीन प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव में भी सपा और बसपा के प्रति कांग्रेस का रुख उपेक्षा और उदासीनता का ही था. इसके बावजूद राजस्थान और मध्यप्रदेश में जरूरत पड़ने पर सपा-बसपा ने कांग्रेस की सरकारें बनवाने में सहयोग किया लेकिन उनका आभार जताने और सरकार में प्रतिनिधित्व देने के बजाय कांग्रेस के नेताओं ने उनकी राजनीतिक हैसियत पर तंज भी कसा. सपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बाद बुरी तरह मुंह की खाने के बाद वैसे भी अखिलेश यादव के प्रति राहुल गांधी का रवैया उदासीन और उपेक्षा का ही रहा. और फिर राहुल गांधी ने पिछले दिनों कहा भी कि भाजपा और नरेंद्र मोदी को हराने के लिए उनकी पार्टी सहयोगी दलों के साथ उन्हीं राज्यों में गठबंधन करेगी जहां वह कमजोर है. जहां मजबूत है या पहले नंबर पर है, वहां अकेले चुनाव लड़ेगी.

दरअसल, कांग्रेस को मिलनसार, मेहनती और न सिर्फ कांग्रेसजनों बल्कि आम लोगों के साथ भी सीधा संवाद कायम करने में सक्षम हाजिरजवाब प्रियंका के रूप में राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई लगती है. कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता इससे बेहद उत्साहित हैं. बदले राजनीतिक परिदृश्य और खासतौर से राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में शानदार वापसी, राहुल गांधी को चहुंओर मिल रहे जनसमर्थन और प्रियंका-ज्योतिरादित्य के भरोसे कांग्रेस को लगता है कि अकेले चुनाव लड़ने पर यूपी में वह 2009 में जीती 21 सीटों के आंकड़े को छू सकती है या फिर उससे तो अधिक सीटें वह जीत ही सकती है जितनी उसे सपा-बसपा गठबंधन देता. उसका फोकस अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, गैर जाटव दलित और कुर्मी, सहित गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों तथा मुसलमानों पर होगा. 2009 में इन तबकों के समर्थन से ही कांग्रेस राज्य में लोकसभा की 21 सीटें अपने बूते जीत सकी थी.

लेकिन उसके बाद केे चुनावों के आंकड़े कांग्रेस की इस सोच का समर्थन नहीं करते. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 7.5 फीसदी वोट ही मिले थे और केवल सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही रायबरेली और अमेठी से चुनाव जीत सके थे. इसके उम्मीदवार केवल छह सीटों-सहारनपुर, कानपुर, गाजियाबाद, कुशीनगर, बाराबंकी और लखनऊ में ही दूसरे नंबर पर थे. इनमें से भी कुशीनगर और सहारनपुर को छोड़ दें तो बाकी चार सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार दो लाख से लेकर साढ़े पांच लाख से अधिक मतों के अंतर से हारे थे. बाकियों में अधिकतर की जमानतें भी जब्त हो गई थीं. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बावजूद केवल 6.2 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस के सात उम्मीदवार ही जीत सके थे. हालांकि कांग्रेस के लोग अपनी सोच के समर्थन में कहते हैं कि 2009 में अकेले लड़ने पर वह 11.65 फीसदी वोट पाकर भी 21 सीटों पर जीत गई थी. लेकिन तब सपा और बसपा के अलग अलग लड़ने के कारण मत विभाजन का लाभ कांग्रेस को मिला था.
राहुल गांधी, प्रियंका और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस के यूपी में अलग चुनाव लड़ने पर एक संभावना तो यह भी बनती है कि उसके उम्मीदवार भाजपा के सवर्ण जनाधार में सेंध लगाकर उसे कमजोर कर सकते हैं लेकिन अगर उसे अन्य पिछड़ी जातियों, गैर जाटव दलितों और मुसलमानों के बड़े तबके का समर्थन भी मिला तो इसका नुकसान सपा-बसपा गठबंधन को और लाभ भाजपा को मिल सकता है. हालांकि भाजपा ने पिछला चुनाव गैर जाटव दलितों और गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों को लामबंद करने की रणनीति के तहत ही लड़कर सफलता पाई थी.

शायद इसलिए भी सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन इससे ज्यादा परेशान नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की लहर के बावजूद सपा को 22 तथा बसपा को 19.6 फीसदी यानी कुल 41.6 फीसदी वोट मिले थे. हालांकि सपा के केवल पांच उम्मीदवार ही जीत सके थे जबकि बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका था. हालांकि 34 सीटों पर उसके और 31 सीटों पर सपा के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे. भाजपानीत गठबंधन को 43.30 फीसदी वोट मिले थे जबकि सीटें मिल गई थीं 73. इसी तरह से विधानसभा के चुनाव में भी सपा और बसपा को क्रमशः 21.8 तथा 22.2 फीसदी यानी कुल 44 फीसदी वोट मिले थे लेकिन अलग अलग लड़ने के कारण उन्हें सीटें केवल 47 और 19 ही मिल सकी थीं जबकि भाजपा गठबंधन 39.7 फीसदी मत लेेकर भी 325 सीटों पर कब्जा जमा सका था. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में रालोद को भी एक-डेढ़ फीसदी वोट मिले थे.
इन नतीजों के विश्लेषण के बाद सपा, बसपा और रालोद को इस बात का एहसास हुआ कि अगर वे साथ चुनाव लड़ें तो न सिर्फ लोकसभा की अधिकतम सीटों पर जीत सकते हैं बल्कि प्रदेश में भी वे अपनी सरकार बना सकते हैं क्योंकि मोदी-योगी और भाजपा लहर होने और अमित शाह के गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों की सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद दोनों चुनावों में सपा-बसपा और रालोद को मिले मत प्रतिशत को जोड़कर देखें तो भाजपा गठबंधन पर भारी पड़ते हैं. इसका प्रयोग करके ही उन्होंने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के त्यागपत्र से रिक्त गोरखपुर और फूलपुर के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना में हुए संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा को पटखनी दे दी थी. फूलपुर और गोरखपुर में कांग्रेस ने भी उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन मुकि जमानतें जब्त हो गयीं और उन्हें 20 हजार से भी कम मत मिले थे.

सपा-बसपा और रालोद के बीच गठबंधन की नींव उत्तर प्रदेश के इन तीन संसदीय उपचुनावों के साथ ही राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव के समय ही पड़ गई जब तीनों ने आपसी सहयोग किया. इससे पहले, 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तथाकथित राम लहर के बावजूद 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सपा और बसपा के बीच चुनावी गठबंधन हुआ था जिसके चलते उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा-बसपा की सरकार बनी थी. उस चुनाव में एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था, ‘‘मिले मुलायम, कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.’ उस चुनाव में 425 सदस्यों की विधानसभा में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 178 सीटें मिली थीं लेकिन कांग्रेस के 28 विधायकों के समर्थन से मुलायम सिंह की सरकार बनी थी. लेकिन सपा-बसपा गठबंधन का यह प्रयोग लंबा नहीं चल सका था. जून 1995 में लखनऊ के बदनाम ‘स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के बाद, जिसमें सपा के लोगों ने मायावती के साथ अभद्रता और धक्का मुक्की की थी, उसके बाद ही कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. और फिर राज्य में भाजपा के सहयोग से मायावती के नेतृत्व में सरकार बनी थी. हालांकि वह गठबंधन भी टिकाऊ नहीं रह सका था. लेकिन ‘लखनऊ गेस्ट हाउस कांड’ के बाद सपा और बसपा के बीच रिश्ते इतने कटु हो गए कि हालिया समझौतों से पहले दोनों दलों के नेता आपस में आंख मिलाने से भी कतराते थे. मायावती को पता था कि समाजवादी पार्टी के साथ ताजा गठबंधन के बाद यह सवाल जरूर उठेगा, शायद इसीलिए इस बार 12 जनवरी को सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा करते समय संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में टंगे बैनर पर कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के बजाय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया की तस्वीरें लगी थीं. मायावती ने इसका जिक्र भी किया कि किस तरह 1956 में डा. अंबेडकर और डा. लोहिया के बीच आपसी तालमेल बढ़ा था लेकिन दोनों दलों-भारतीय रिपब्लिकन पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय का औपचारिक फैसला होने से पहले ही डा. अंबेडकर का निधन हो गया था. उन्होंने उसी कड़ी में 1993 में हुए सपा-बसपा गठबंधन को भी देखते हुए इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे अप्रिय ‘लखनऊ स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के चलते वह गठबंधन टूट गया था. उन्होंने खुद ही साफ किया कि जनहित और देशहित के साथ ही सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में दोबारा आने से रोकने की गरज से ही उन्होंने जून 1995 के अप्रिय प्रकरण को भुलाकर यह गठबंधन किया है. उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का एक कारण यह भी बताया कि यूपी में कांग्रेस का बचा खुचा जनाधार या कहें वोट बसपा के उम्मीदवारों को स्थानांतरित नहीं हो पाता जबकि बसपा के वोट आसानी से उन्हें मिल जाते हैं. उन्होंने 1996 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस बसपा गठबंधन का उदाहरण भी दिया. इसके साथ उन्होंने 1993 के सपा -बसपा गठबंधन के हवाले से समझाने की कोशिश की कि सपा और बसपा के वोट एक दूसरे को स्थानांतरित हुए थे.कांग्रेस को अलग रख कर गठबंधन के पीछे त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में मायावती के मन में प्रधानमंत्री बन सकने की उम्मीद भी हो सकती है. हालांकि यह पूछे जाने पर कि क्या सपा मायावती की दावेदारी का समर्थन करेगी? अखिलेश यादव ने गोलमोल जवाब दिया, ‘‘इतना तय है कि अगला प्रधानमंत्री यूपी से ही होगा.’’ 2019 में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में सरकार बनाने के लिए किसको किसके समर्थन की जरूरत पड़ सकती है, यह अभी से कह पाना मुश्किल है. शायद इसलिए भी सपा-बसपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस भविष्य के सहयोग की संभावना को ध्यान में रखकर ही एक दूसरे के विरुद्ध ‘हमलावर’ होंगे. उनके निशाने पर भाजपा ही होगी.

 बहरहाल, सपा-बसपा और रालोद के बीच चुनावी गठबंधन और फिर प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के कारण सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर बेचैनी और बौखलाहट बढ़ी है. यह बेचैनी प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ ंिसंह और वित मंत्री अरुण जेटली से लेकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ एवं अन्य कई नेताओं के भाषणों और बयानों में भी साफ दिख रही है. मोदी और शाह ने इसे अवसरवादी और भ्रष्ट नेताओं का सत्ता पाने के लिए गठबंधन तथा कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति का विस्तार करार दिया. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने को भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने तंज करते हुए कहा, ‘‘कांग्रेस ने मान लिया है कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं. नेहरू के बाद इंदिरा, उनके बाद राजीव. फिर सोनिया और राहुल और अब प्रियंका. कांग्रेस का इतिहास ही परिवारवाद का रहा है.’’ गठबंधन के बारे में अमित शाह ने कहा, ‘‘कल तक एक दूसरे की शक्ल नहीं देखनेवाले आज हार के डर से एक साथ आ गए हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अकेले मोदी को हरा पाना मुमकिन नहीं है. उन्होंने दावा किया, ‘‘यूपी में 73 से 74 होंगे, 72 नहीं’’

गौरतलब है कि पिछली बार उत्तर प्रदेश से मिली 73 सीटों के बूते ही भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हुई थी. स्वयं नरेंद्र मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से ही सांसद हैं. इसका लाभ भाजपा और उसके सहयोगी दलों को विधानसभा के चुनाव में 325 सीटें जीतने के रूप में मिला था. लेकिन समय बीतने और केंद्र तथा राज्य में भी भाजपानीत गठबंधन सरकार के विफल होते जाने, चुनाव पूर्व के वायदों के जुमला भर साबित होने, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के रफाएल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घोटाले में घिरते जाने, नोट बंदी, जीएसटी के कुप्रभावों, एससी एसटी ऐक्ट में संशोधन से सवर्णों, किसानों और बेरोजगार युवाओं की सरकार से नाराजगी आदि के कारण भाजपा का जनाधार इससे दूर छिटकने लगा है. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक जाने के बाद सहयोगी दल आंखें तरेरते हुए बिहार की तर्ज पर अपनी राजनीतिक सौदेबाजी मजबूत करने में लगे हैं. नतीजतन भाजपा अपने बिदक रहे सहयोगी दलों को साधने और बिखर रहे जनाधार को समेटने में जुट गई है. भाजपा नेतृत्व को लगता है कि आठ लाख रु. से कम आमदनीवाले सामान्य वर्ग-सवर्णों-के लिए दस फीसदी आरक्षण एवं आनेवाले दिनों में कुछ और जन लुभावन घोषणाओं तथा विपक्ष के नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में बदनाम एवं गिरफ्तार करवाकर अपने छीजते जनाधार को बचाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश में वह फिर एक बार गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर सकती है. हालांकि लगातार घट रही सरकारी नौकरियों के मद्देनजर चुनाव से ठीक पहले दस फीसदी आरक्षण के बेमानी साबित होने और इसके चलते दलितों-आदिवासियों और पिछड़ी जातियों में बढ़नेवाली आशंकित नाराजगी का खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ सकता है. पिछले पिछले विधानसभा चुनाव से सबक लेकर सपा और बसपा भी भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की काट कर सकते हैं.चुनाव के समय अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए बनाया जा रहा दबाव भी भाजपा को भारी पड़ सकता है.