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Tuesday, 7 September 2021

Hal Filhal : PM MATERIAL NITISH KUMAR !

तो क्या नीतीश कुमार हैं पीएम मटीरियल !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/xXi2Ze03CuQ

तो क्या नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल यानी प्रधानमंत्री पद के काबिल बताया जाना एक राजनीतिक शिगूफा भर है! क्या इसका राजनीतिक मकसद अपने राजनीतिक सहयोगी भाजपा पर दबाव बनाना, जनता दल (यू) को राष्ट्रीय दल की पहिचान दिलाना भर है या नीतीश कुमार एक बार फिर पलटी मारकर 2024 के संसदीय चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा को चुनौती देने के इरादे से विपक्ष का चेहरा बनने की संभावनाओं पर काम कर रहे हैं! या फिर यह जद (यू)  के अंदरूनी मतभेदों को दबाने और खबरों में बने रहने की कवायद भर है!

    इन दिनों बिहार की राजनीति में पीएम यानी प्रधानमंत्री मटीरियल की चर्चा बहुत जोरों पर है. बिहार में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री बने रहने का रिकार्ड बनानेवाले नीतीश कुमार को उनकी पार्टी के लोग एक अरसे से पी एम मटीरियल मानते और बताते रहे हैं लेकिन इस बार जब 29 अगस्त को जनता दल (यू) की राष्ट्रीय परिषद ने इस आशय का एक राजनीतिक प्रस्ताव भी पास कर दिया तो बात में गंभीरता नजर आने लगी है. पक्ष और विपक्ष में भी तर्क कुतर्क दिए जाने लगे हैं. यह बात और है कि अभी प्रधानमंत्री पद के लिए कोई रिक्ति नजर नहीं आ रही है.

नीतीश कुमारः राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल !
    जाहिरा तौर पर नीतीश कुमार पहले भी इससे इनकार करते रहे हैं और इस बार भी उन्होंने यही कहा है कि वह इन बातों पर ध्यान नहीं देते. पार्टी में लोग इस तरह की बातें करते रहते हैं. लेकिन उनकी मौजूदगी में उनकी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद में इस तरह का राजनीतिक प्रस्ताव कैसे पास हो गया ! ऐसा तो संभव ही नहीं है कि उनकी जानकारी और सहमति के बिना यह प्रस्ताव तैयार और पास भी हो गया हो ! हालांकि इस प्रस्ताव को पास करते समय भी उनकी पार्टी के नेताओं ने यह साफ नहीं किया कि वह प्रधानमंत्री कब और कैसे बनेंगे. लोकसभा के चुनाव पौने तीन साल बाद होने हैं और अभी वह जिस राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) में शामिल हैं, उसमें प्रधानमंत्री का पद और भविष्य की दावेदारी भी खाली नहीं है. उनके समर्थक और उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताने वाले उनकी पार्टी के नेता क्या यह सोचते हैं कि 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी भाजपा में उम्र के पैमाने के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं रहेंगे और भाजपानीत, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा संचालित राजग बिहार की बादशाहत की तरह ही लोकसभा में 15-20 सांसद की राजनीतिक ताकतवाले नीतीश कुमार को नेतृत्व की दावेदारी सौंप देगा! फिलहाल तो यह द्विवा स्वप्न से अधिक कुछ और नहीं लगता.
 

कैसे बनेंगे वैकल्पिक चेहरा !


    इसके लिए दूसरा विकल्प 2024 में संयुक्त विपक्ष उन्हें अपना वैकल्पिक चेहरा मानकर चुनाव लड़े. तो क्या उनकी निगाह एक बार फिर से पलटी मार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के विरोध में बननेवाले किसी संभावित राजनीतिक गठबंधन का नेतृत्व करने की ओर लगी है. एक अरसे से उन्हें विपक्षी गठबंधन की ओर से प्रधानमंत्री मोदी के विरुद्ध सर्वमान्य विकल्प के बतौर देखा जाते रहा है. संभव है कि मौजूदा विपक्ष में कांग्रेस के अंदरूनी झगड़ों, वैकल्पिक नेतृत्व पर सहमति के अभाव, ममता बनर्जी और कुछ अन्य क्षेत्रीय नेताओं की संभावित दावेदारी के मद्देनजर उनके भीतर भी एक बार फिर से प्रधानमंत्री बनने की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं हिलोर मारने लगी हों. उनके करीबी लोगों को लगता है कि वह विपक्ष का चेहरा बन सकते हैं. जेल से बाहर आने के बाद से ही हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला गैर कांग्रेसी, गैर भाजपा दलों को जोड़कर तीसरा मोर्चा फिर से खड़ा करने की कवायद में लगे हैं. वह नीतीश कुमार तथा कुछ अन्य नेताओं से मिल भी चुके हैं. अगले 25 सितंबर को उन्होंने अपने पिता, पूर्व उप प्रंधानमंत्री चौधरी देवीलाल की जयंती के अवसर पर हरियाणा के जींद में एक बड़ा समारोह (मिलन समारोह) आयोजित कर उसमें नीतीश कुमार, समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव, जनता दल (एस) के नेता, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा, अकाली दल के नेता प्रकाश सिंह बादल, तेलुगु देशम पार्टीप के चंद्रबाबू नायडू, रालोद के जयंत चौधरी, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कान्फ्रेंस के डा. फारुख अब्दुल्ला और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी को भी बुलाया है. इनमें से कौन कौन वहां जुटता है और आगे की रणनीति क्या बनती है, यह देखने की बात होगी. हालांकि ओमप्रकाश चौटाला इन दिनों स्वयं हरियाणा में अपने राजनीतिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं. उनका राजनीतिक कुनबा बिखर चुका है. उनके पुत्र अजय चौटाला और पौत्र दुष्यंत चौटाला हरियाणा में भाजपा के साथ मिलकर साझा सरकार चला रहे हैं.  

राजीव रंजन उर्फ ललन सिंहः जद (यू) को राष्ट्रीय पहिचान दिलाना है
    नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री मटीरियल बताने के पीछे उनकी और उनके जद (यू) की राष्ट्रीय पहिचान बनाने की कवायद भी हो सकती है. जद (यू) नेताओं की कोशिश उत्तर प्रदेश और मणिपुर विधानसभा के चुनाव में भी अगर भाजपा से बात बन जाती है तो उसके साथ मिलकर और सम्मानजनक सीटें नहीं मिलने पर अपने बूते भी तकरीबन आधी सीटों पर चुनाव लड़ने की लगती है. इसके लिए अभी उनके पास प्रचुर समय भी है. भाजपा के साथ उनकी बात भी हो रही है. अगले साल ही जम्मू-कश्मीर और गुजरात विधानसभा के चुनाव भी होने हैं. जद (यू) की कोशिश इन राज्य विधानसभाओं के चुनाव में कुछ सीटें और अपेक्षित मत प्रतिशत हासिल कर चुनाव आयोग से राष्ट्रीय दल की मान्यता हासिल करने की हो सकती है. मणिपुर, गुजरात और अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में उसकी पहले भी मौजूदगी रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह ने कश्मीर यात्रा कर वहां भी पार्टी के पांव पसारने और चुनाव लड़ने के संकेत दिए हैं. केंद्र सरकार में कृषि, भूतल परिवहन एवं रेल जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय संभाल चुके नीतीश कुमार की राष्ट्रीय राजनीति में अपनी अलग तरह की पहिचान भी रही है.

पहले भी मन में उठी थी हूक !

    
    नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री मटीरियल वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं इससे पहले भी कई बार हिलोर मार चुकी हैं. 2014 के संसदीय चुनाव के समय भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए जाने के विरोध में उनकी पार्टी ने भाजपा और राजग से अलग होकर चुनाव लड़ा था. उनकी कोशिश कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के साथ मिलकर लोकसभा का चुनाव लड़ने की थी लेकिन बात नहीं बनी और लोकसभा चुनाव में उनके हिस्से में केवल दो ही सीटें आई थीं. भाजपा, लोजपा ओर रालोसपा का गठबंधन बिहार में तीन चौथाई सीटें जीतने में कामयाब हुआ था. लेकिन इसके बाद 2015 में बिहार विधानसभा का चुनाव उन्होंने कांग्रेस और अपने राजनीतिक विरोधी लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ मिलकर लड़ा और शानदार जीत हासिल कर एक बार फिर वह बिहार के मुख्यमंत्री बने. हालांकि विधानसभा में उनकी पार्टी के पास राजद से कुछ कम सीटें थीं और इसको लेकर वह कुछ दबाव भी महसूस करते थे. उस समय भी, 2019 के संसदीय चुनाव में कुछ विपक्षी दलों की ओर से उन्हें मोदी के विकल्प के रूप में पेश करने की कवायद शुरू हुई. कुछ समाजवादी बौद्धिकों ने भी उनके पक्ष में दिल्ली से माहौल बनान शुरू किया था. लेकिन नीतीश कुमार चाहते थे कि उन्हें यूपीए में संयोजक जैसा कोई पद देकर यूपीए उनके नेतृत्व में ही लोकसभा का चुनाव लड़े. लेकिन यह कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाले यूपीए को मंजूर नहीं था. और भी कुछ बातें थीं जिनसे उनका कांग्रेस और राजद के साथ मोहभंग सा होता गया. और इसी क्रम में विधानसभा के भीतर यह कहने के बावजूद कि रहें या मिट्टी में मिल जाएं, अब कभी भाजपा से हाथ नहीं मिलाएंगे, उन्होंने 2017 में दोबारा भाजपा से हाथ मिलाते हुए 2015 के जनादेश को दरकिनार कर भाजपा के साथ साझा सरकार बना ली. इससे विपक्षी खेमे में उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता संदिग्ध हुई. अभी भी कोई यकीनी तौर पर नहीं कह सकता कि उनका अगला राजनीतिक कदम क्या होगा!
 

भाजपा के रहमो करम पर मुख्यमंत्री !


    लेकिन उनके भाजपा के साथ एक बार फिर गलबहियां करने के 2017 के राजनीतिक फैसले का उन्हें भरपूर चुनावी लाभ मिला. मोदी लहर एक तरह से बिहार में स्वीप कर गई. 40 में से 30 सीटें राजग के खाते में गई. जद (यू) के भी 16 सांसद जीते. विपक्ष के नाम पर केल कांग्रेस को एक सीट मिल सकी थी. विधानसभा का पिछला, 2020 का चुनाव भी उन्होंने भाजपा के साथ ही मिलकर लड़ा. लेकिन इस बार भाजपा की सीटें तो बढ़कर 74 हो गईं, नीतीश कुमार के जद (यू) के खाते में केवल 43 सीटें ही आ सकीं. नीतीश कुमार के लिए यह एक राजनीतिक झटका था. हालांकि वादे के मुताबिक भाजपा ने नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही साझा सरकार बनवाई लेकिन क्रमशः इसकी कीमत भी वसूलने लगी. नीतीश कुमार के सामने एक बार फिर 2015 के बाद वाली ही स्थिति उभरकर सामने आने लगी है. भाजपा की तरफ से अपने हितों की पूर्ति और संघ परिवार के एजेंडे पर अमल के लिए दबाव बढ़ने लगा. भाजपा के विभागीय मंत्री अपने हिसाब से काम करने लगे. इसके साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा के लोगों की तरफ से उन्हें इस बात का एहसास भी कराया जाने लगा है कि वह भाजपा के रहमो करम पर ही मुख्यमंत्री बने हुए हैं.

लालू प्रसाद यादवः  सरकार पर समाजवादी नेताओं को
विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों से हटाने का आरोप
    पिछले सप्ताह बिहार के छपरा में लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नाम पर बने जेपी विश्वविद्यालय में गुपचुप ढंग से भाजपा का एजेंडा लागू करने की साजिश उजागर हुई. वहां राजनीति शास्त्र के पोस्ट ग्रेजुएट पाठ्यक्रम में समाज सुधारक स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक और नीतीश कुमार के राजनीतिक आराध्य और आदर्श रहे समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की के व्यक्तित्व और विचारों की जगह नेताजी सुभाष चंद्र बोस, ज्योतिबा फुले और जनसंघ के अध्यक्ष रहे दीन दयाल उपाध्याय को शामिल किया गया. नेताजी और ज्योतिबा फुले और यहां तक कि दीन दयाल उपाध्याय (हालांकि उपाध्याय का राष्ट्रीय आंदोलन अथवा सामाजिक आंदोलनों में भी क्या योगदान है, यह विवाद का विषय भी हो सकता है.) के बारे में भी पढ़ाया जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी. लेकिन स्वामी दयानंद सरस्वती, राजा राममोहन राय, लोकमान्य तिलक, डा. राममनोहर लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश नारायण की कीमत पर. जिस जेपी के नाम पर विश्वविद्यालय बना, उन्हें ही पाठ्यक्रम से बाहर कर दिया! आश्चर्यजनक बात तो यह है कि बिहार में शिक्षामंत्री नीतीश कुमार की पार्टी के ही विजय कुमार चौधरी हैं. चौधरी और नीतीश कुमार की आंख तब खुली जब विपक्ष ने और खासतौर से लालू प्रसाद यादव ने लालू प्रसाद ने ट्वीट कर आरोप लगाया कि संघी मानसिकता की सरकार समाजवादी नेताओं के विचार पाठ्यक्रमों से हटा रही है. बिहार सरकार के जगने एवं कड़े निर्देश जारी करने के बाद अब पाठ्यक्रम में फिर से सुधार हो रहा है. अब इस बात की जांच करने की मांग हो रही है कि ऐसी खुराफात की किसने ? क्या यह करामात शिक्षा मंत्रालय के किसी अफसर की थी या फिर सीधे राजभवन से इसके लिए निर्देश था.
 

    भाजपा के दबाव से मुक्ति की कवायद !


     भाजपा और संघ परिवार के इस तरह के दबावों के कारण बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार चलाते हुए भी नीतीश कुमार खुद को असहज महसूस कर रहे हैं. लेकिन राजनीति के चतुर खिलाड़ी नीतीश कुमार अभी तक इन दबावों को झेलते और भरसक परे करते हैं. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को जद (यू) में विलीन करवाने के साथ ही बसपा, लोजपा के इक्का-दुक्का विधायकों को अपने दल में शामिल कर वह एक तरफ तो अपनी राजनीतिक मजबूती के संकेत देते हैं. दूसरी तरफ वह बीच-बीच में अपनी और अपने दल की स्वतंत्र-धर्मनिरपेक्ष छवि के साथ समझौता नहीं करने और भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के संकेत भी देते रहते हैं. भाजपा के जन संख्या नियंत्रण कानून पर उन्होंने साफ कर दिया कि उनकी राय भाजपा से अलग है. इसी तरह से पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की विपक्ष की मांग का समर्थन कर उन्होंने भाजपा और मोदी सरकार पर एक तरह का दबाव ही बनाया. उन्होंने भाजपा के राजनीतिक रुख की परवाह किए बिना जातीय जनगणना पर विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र लिखा और सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिलकर इसके लिए दबाव भी बनाया. प्रधानमंत्री के साथ बातचीत में उन्होंने इसके लिए विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव को श्रेय देकर लालू प्रसाद यादव के यहां भी एक खिड़की खुली रखने की कोशिश की. पेट्रोलियम पदार्थों और खासतौर से रसोई गैस की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया. देखना यही है कि जातिगत आधार पर जनगणना के मामले में नीतीश कुमार और बिहार के मुख्य विपक्ष के दबाव पर भाजपा और मोदी सरकार का रुख क्या होता है. क्योंकि कुछ ही दिनों में होनेवाले पंचायत चुनावों में बाढ़, पेट्रोल-डीजल और खासतौर से रसोई गैस के बढ़ते दाम के साथ जातीय जनगणना भी एक बड़ा मुद्दा हो सकता है. साथ ही भविष्य में भाजपा से अलग होने के लिए नीतीश कुमार के पास ठोस बहाना भी!

    इस तरह से भाजपा के लोग नीतीश कुमार और उनकी सरकार पर दबाव बनाने में लगे हैं और कसमसाहट महसूस करते हुए नीतीश कुमार भी इससे मुक्त होने के प्रयास में लगे रहते हैं. तो क्या उनके प्रधानमंत्री मटीरियल होने की बात इस समय भाजपा पर जवाबी दबाव बनाने के लिए भी कही जा रही है! इसके साथ ही पिछले दिनों जनता दल यू की अंदरूनी कलह भी खुल कर आने लगी थी. नीतीश कुमार के खासुल खास रहे आरसीपी सिंह के केंद्र में मंत्री बन जाने के बाद उनकी जगह सांसद राजीव रंजन उर्फ ललन सिंह को राष्ट्रीय अध्यक्ष और हाल ही में जद यू में शामिल उपेंद्र कुशवाहा को संसदीय बोर्ड का अध्यक्ष बनाए जाने के बाद स्वागत समारोहों के जरिए जनता दल यू की गुटबाजी और नेताओं के अंदरूनी मतभेद खुलकर सामने आने लगे हैं. पूर्व नौकरशाह आरसीपी के करीबी लोग चाहते थे कि वह केंद्र में मंत्री के साथ ही राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहें, वहीं आरसीपी सिंह के विरोधियों का कहना है कि मंत्री बनने के बाद से उनका भाजपा के प्रति झुकाव कुछ ज्यादा ही दिख रहा है. जातीय जनगणना पर पार्टी के अधिकृत रुख से अलग वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं. राष्ट्रीय अध्यक्ष रहते खुद मंत्री बन जाने के मामले पर वह कह रहे हैं कि ऐसा उन्होंने नीतीश कुमार के कहने पर ही किया. प्रधानमंत्री मटीरियल का शिगूफा छेड़कर अंदरूनी मतभेदों पर काबू पाने की कोशिश भी हो सकती है. अब सभी नेता एक स्वर से नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बताने के काम में जुट गए हैं. कुल मिलाकर नीतीश कुमार के पीएम मटीरियल होने का खेल जारी है. इस खेल में बहुत कुछ अगले साल होनेवाले यूपी, उत्तराखंड, पंजाब, मणिपुर, गोवा और फिर गुजरात और जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावी नतीजों पर भी निर्भर करेगा.

नोटः तस्वीरें इंटरनेट के सौजन्य से.  

Tuesday, 17 August 2021

Hal Filhal: Criminalisation of Politics

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का तमाचा


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/pdxZu1ANxLc
    
रा
जनीति का तेजी से हो रहा अपराधीकरण पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति और हमारे संसदीय लोकतंत्र को भी डंसे जा रहा है. बार-बार की चेतावनियों और घोषणाओं के बेअसर रहने के बाद अभी एक बार फिर हमारी सर्वोच्च अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण या कहें अपराध के राजनीतिकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की राय में “राजनीतिक व्यवस्था की शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.’’

    वाकई, हाल के दशकों में भारतीय राजनीति और हमारी चुनाव प्रणाली में जाति, धर्म, धन बल और बाहुबल का इस्तेमाल बढ़ा है. यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए अशुभ संकेत है. सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह किसी भी राजनीतिक दल और आम जनता के लिए भी विशेष चिंता का विषय नहीं रह गया है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाले भारत में चुनाव सुधारों की बात तो लंबे समय से होती रही है. लेकिन, आजादी के 74 साल बाद भी यहां 'राजनीति के अपराधीकरण' पर रोक नहीं लग सकी है. भारतीय स्वतंत्रता के 75वें दिवस का जश्न मनाते समय क्या यह हमारी सामूहिक चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि सत्रहवीं लोकसभा के तकरीबन 43 प्रतिशत सदस्यों पर आपराधिक और इन में से 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं.
 
    पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती गई है. 2004 के लोकसभा चुनाव में जीतनेवाले अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162, 2014 में 185 और 2019 के लोकसभा में बढ़कर 233 हो गई. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी सांसदों की संख्या 76 थी, जो 2019 में बढ़कर 159 हो गई. इस तरह से देखें तो 2009-19 के बीच बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 109 फीसदी का इजाफा हुआ. कई राज्यों की विधानसभाओं में तो हालत और भी बदतर है. बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे.

मोदी से जगी थी उम्मीद !


     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि अब राजनीति अपराधियों से मुक्त हो सकेगी. हालांकि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते ऐसा कुछ भी लहीं किया था जिससे अपराधी राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर हो सकें. लेकिन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ रही भाजपा ने जब 7 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के लिए जारी अपने चुनाव घोषणापत्र या कहें संकल्प पत्र में अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के लिए कटिबद्धता जाहिर की, तो आस जगी थी. यही नहीं मोदी जी ने खुद भी राजस्थान में अपने चुनावी भाषणों में कहा था, ‘‘आजकल यह चर्चा जोरों पर है कि अपराधियों को राजनीति में घुसने से कैसे रोका जाए. मेरे पास इसका एक ठोस इलाज है. मैंने भारतीय राजनीति को साफ करने का फैसला कर लिया है. मैं इस बात को लेकर आशान्वित हूं कि हमारे शासन के पांच सालों बाद पूरी राजनीतिक व्यवस्था साफ-सुधरी हो जाएगी और सभी अपराधी जेल में होंगे. इस मामले में कोई भेदभाव नहीं होगा और मैं अपनी पार्टी के दोषियों को भी सजा दिलाने में संकोच नहीं करूंगा.’’

नरेंद्र मोदीः राजनीति के अपराधीकरण का इलाज है, मेरे पास!
    प्रधानमंत्री बनने के बाद 11 जून 2014 को संसद में अपने पहले भाषण में भी मोदी जी ने चुनावी प्रक्रिया से अपराधी छवि के जन प्रतिनिधियों को बाहर करने की प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि उनकी सरकार ऐसे नेताओं के खिलाफ मुकदमों के तेजी से निपटारे की प्रक्रिया बनाएगी. 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव के समय मोदी जी ने मुजफ्फरपुर की सभा में कहा था कि जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध लंबित आपराधिक मामलों की त्वरित अदालतों में सुनावाई के जरिए वह पहले संसद से और फिर विधानमंडलों से भी अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को बाहर करेंगे.

    लेकिन प्रधामंत्री मोदी की इन घोषणाओं का हुआ क्या ! इसे भी देखें. 2014 के लोकसभा चुनाव में जीते भाजपा के 282 सांसदों में से 35 फीसदी (98) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें से 22 फीसदी सांसदों के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें उम्मीदवार किसने और क्यों बनाया था ! यह भी क्या कोई पूछने की बात है ! यही नहीं, मोदी जी की मंत्रिपरिषद में भी 31 फीसदी सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक और इनमें से 18 फीसदी यानी 14 मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें ठोक बजाकर मंत्री भी तो मोदी जी ने ही बनाया होगा ! 14 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताया था कि उस समय 1581 सांसद व विधायकों पर करीब 13500 आपराधिक मामले लंबित हैं और इन मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतों का गठन होगा. इसके तीन महीने बाद, 12 मार्च 2018 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देश के 1,765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. जाहिर सी बात है कि भाजपा और मोदी जी ने भी राजनीति को अपराध मुक्त बनाने के जो वादे और दावे किए थे, वह भी उनके सत्ता संभालने के सवा सात साल बाद भी पूरा होने के बजाय कोरा जुमला ही साबित हुए. इस दौरान उनकी पार्टी के कई सांसदों, मंत्रियों और विधायकों पर भी कई तरह के अपराध कर्म में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की बात तो दूर, उन्होंने सामान्य नैतिकता के आधार पर किसी का इस्तीफ़ा तक नहीं लिया.

    
सुप्रीम कोर्टः राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा
    सच तो यह है कि राजनीति में तेजी से बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई भी राजनीतिक दल ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी और आदेशों के जरिए न सिर्फ सरकार और विपक्ष बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा जड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं करने को अदालत के आदेश की अवमानना मानते हुए बिहार में भाजपा और कांग्रेस समेत आठ राजनीतिक दलों पर एक लाख से लेकर पांच लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया. बिहार विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. लेकिन अदालती के आदेश के बावजूद  इन पार्टियों ने अपने अपराधी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक नहीं किया था. आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ ही सख्त निर्देश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को चयन के 48 घंटों के भीतर अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि को अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करना होगा. उम्मीदवार के चयन के 72 घंटे के अंदर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी सौंपनी होगी. चुनाव आयोग से भी इन सब बातों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग प्रकोष्ठ बनाने को कहा गया है. यह प्रकोष्ठ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन पर निगरानी रखेगा.

हाईकोर्ट की अनुमति के बिना जन प्रतिनिधियों के मुकदमों की वापसी नहीं  ! 


    
चीफ जस्टिस एन वी रमनः माननीयों पर मुकदमों की
वापसी के लिए हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी
    सुप्रीम कोर्ट ने एक और मामले में महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए कहा है कि राज्य सरकारें अब आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकेंगी. अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्याधीश एन वी रमन, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने सितंबर 2020 के बाद सांसदों-विधायकों के विरुद्ध वापस लिए गए मुकदमों को दोबारा खोलने का आदेश भी दिया. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह बड़ा कदम एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) अधिवक्ता विजय हंसारिया की रिपोर्ट के मद्देनजर उठाया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी बीजेपी विधायकों तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ 76 तथा कर्नाटक सरकार अपने विधायकों के खिलाफ 62 मामलों को वापस ले चुकी है. उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इसी तरह अपने लोगों पर चल रहे आपराधिक मामले वापस लेने में लगी हैं. इससे पहले भी राज्य सरकारें अपने करीबी नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों को जनिहत के नाम पर वापस लेती रही हैं. सरकारें अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों- विधायकों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मामले वापस ले लेती हैं, इसलिए भी नेता, जन प्रतिनिधि बेखौफ होकर अपराध करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने तो सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर चल रहे मुकदमों को वापस लेने के साथ ही भाजपा नेता, पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर चल रहे बलात्कार के मामले को वापस ले लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस ताजा आदेश से नेताओं, पार्टियों ओर सरकार के कान कस दिए हैं.

    सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों के बाद कहा जा सकता है कि अपराधी छवि वाले नेताओं के लिए चुनाव लड़ने और राजनीतिक दलों को उन्हें उम्मीदवार बनाने में मुश्किलें होंगी. लेकिन क्या इससे राजनीति में अपराधीकरण पर रोक भी लग सकेगी! दरअसल, दशकों पहले से राजनीति के अपराधीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसमें अपराधियों का राजनीतिकरण अब आम बात हो गई है. पांच दशक पहले तक राजनीतिक दल और उनके नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों, बाहुबलियों और धनबलियों का इस्तेमाल करते थे. बाद में जब इन लोगों को लगा कि वे किसी को चुनाव जिता सकते हैं तो खुद भी तो जीत सकते हैं. इसी सोच के तहत 1980 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तकरीबन डेढ़ दर्जन दुर्दांत अपराधी निर्दलीय चुनाव जीत कर आए. बाद में तकरीबन सभी उस समय के सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस में शामिल हो गए. बिहार प्रवास के दौरान मुझे उस समय का एक मजेदार किस्सा सुनने को मिला. एक चुनावबाज नेता जी ने अपने सहयोगी रहे एक बड़े अपराधी को पत्र लिखा कि इस बार फिर वह चुनाव लड़ रहे हैं. पिछली बार की तरह इस बार भी चुनाव में उनकी जरूरत पड़ेगी. लिहाजा, हरबा- हथियार और गुर्गे लेकर उनके चुनाव क्षेत्र में पहुंच जाएं. उधर से जवाब आया, भाई जी, इस बार तो हम खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं. नतीजा ! अपराधी जीत गया और नेता जी चुनाव हार गए.

    एक समय था जब भ्रष्ट, सांप्रदायिक और अपराधी छवि के लोगों का समाज में हेय या कहें नफरत की निगाह से देखा जाता था. उनके चुनाव लड़ने की बात तो दूर, उनके साथ जुड़ाव भी शर्मिंदगी का कारण बनता था. लेकिन हाल के दशकों में इस तरह के लोगों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है. भ्रष्ट और अपराधी छवि के लोगों-नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलने लगा है. अब इसे उनका डर कहें या उनके पैसों और बाहुबल का प्रभाव, ये लोग किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होकर या निर्दलीय चुनाव लड़कर भी आसानी से जीत जाते हैं. इस दौरान इन पर लगे आपराधिक मामलों के बारे में लोग कतई नहीं सोचते हैं. राजनीति में वोटों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सियासी दलों के बीच आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की होड़ सी लगी रहती है. राजनीतिक दलों में इस बात की प्रतिस्पर्धा रहती है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है. यह भी एक कारण है कि भारत के बड़े हिस्सों में चुनावी राजनीति के मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मूलभूत सुविधाएं न होकर जाति और धर्म होने लगे हैं. इसकी वजह से इन भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की जीत आसान हो जाती है. चुनाव जीतने के बाद ये लोग अपने समर्थकों और विरोधियों का 'ध्यान' भी रखते हैं.

    इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए फैसले और टिप्पणियां करते रहा है. 2002 में सभी तरह के चुनाव में उम्मीदवारों को उनकी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा को अनिवार्य बनाया गया. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा कारावास की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराए गए, सांसदों और विधायकों को उनके पद पर बने रहने की अनुमति के खिलाफ फैसला सुनाया था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम में नोटा का बटन भी जोड़ा गया था. ताकि मतदाताओं को अगर एक भी उम्मीदवार पसंद नहीं हों तो वे नोटा (यानी कोई नहीं) का बटन दबाकर अपनी नपसंदगी जाहिर कर सकते हैं. लेकिन यह उपाय भी ठोस और कारगर साबित नहीं हो सका क्योंकि इसके जरिए मतदाता अपना आक्रोश और नापंसदगी तो व्यक्त कर सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजे को प्रभावित नहीं कर सकते. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से गंभीर अपराध के आरोपों वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने की सिफारिश की थी. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था. कुछ राज्यों में त्वरित अदालतें गठित भी हुईं लेकिन नतीजा क्इया निकला! 

    दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह राज्य की विधायिका के कार्यों पर सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. दागी उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने या उन्हें टिकट नहीं देने का निर्णय राजनीतिक दलों को और उन्हें जिताने-हराने का काम मतदाताओं को करना होता है. अगर राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई पहल नहीं करें तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ! लिहाजा हमारे राजनीतिक दलों को ही एक राय से गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को राजनीति से परे रखने के लिए इस दिशा में ठोस पहल करने के साथ ही संसद से कड़ा कानून भी बनाना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि संसद से कानून बनाकर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राजनीति में आने से रोका जाना चाहिए. अभी जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी और दो वर्ष या उससे अधिक की सजा प्राप्त राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है. लेकिन ऐसे नेता जिन पर कई आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगे आरोप कितने गंभीर हैं. लेकिन कई बार बहुत सारे राजनीतिक दलों के नेता-कार्यकर्ताओं पर राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के क्रम में तथा आंदोलन के दौरान यदा-कदा हुई हिंसक घटनाओं को लेकर भी मुकदमे दर्ज होते रहते हैं. उनका क्या होगा. इस पर भी हमारी सर्वोच्च अदालत, संसद और अन्य संबद्ध संस्थाओं को विचार करने की आवश्यकता है. आजादी के 74 साल बाद भी हमारी राजनीतिक व्यवस्था गंभीर प्रवृत्ति के अपराधियों और राजनीतिक आंदोलनों में निरुद्ध होनेवाले लोगों में फर्क नहीं कर सकी है. अंग्रेजों के जमाने से ही राजनीतिक धरना, प्रदर्शन और आंदोलन में शामिल लोगों को भी अपराध की उन्हीं धाराओं में निरुद्ध किया जाता है जिनके तहत गंभीर किस्म के अपराधियों पर मुकदमें दर्ज होते हैं. राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन से जुड़े मामलों को अपराध की सामान्य परिभाषा से अलग करने पर विचार करना होगा.

    बहरहाल, क्या हमारी सरकार और हमारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों के अनुरूप इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे ! दरअसल, सभी दल चुनाव सुधारों की बात तो जोर शोर से करते हैं लेकिन मौका मिलते ही अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन सभी बुराइयों का लाभ लेने में जुट जाते हैं जिनका चुनाव सुधारों के क्रम में निषेध आवश्यक है. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि डेढ़ साल पहले भाजपा और मोदी जी अपने घोषणापत्र से लेकर भाषणों में भी राजनीति को अपराधमुक्त करने का जो नारा देते थे, 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उसे वे भूल ही गए. मोदी जी के चुनावी भाषणों और भाजपा के घोषणापत्र से भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने की बात गायब हो गई.



Monday, 9 August 2021

Hal Filhal : AGGRESSIVE OPPOSITION AND ARROGANT GOVERNMENT

आक्रामक विपक्ष और बौखलाती सरकार


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2MXvfVUG-6E
    
    पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. बिना किसी चर्चा और बहस के पास हुए कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा और इसकी स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर विपक्ष के हल्ला-हंगामे के कारण संसद के मानसून सत्र का तीसरा सप्ताह भी बाधित ही रहा. विधिवत विधायी कार्य नहीं हो सके. इस बीच मामले की स्वतंत्र जांच से संबंधित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य ऩ्याधीश एन वी रमण ने मीडिया रिपोर्ट्स के मद्देनजर पेगासस जासूसी मामले को अत्यंत गंभीर मामला बताया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है.

    दूसरी तरफ, संसद से लेकर सड़क तक पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ ही किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी के सवाल पर आक्रामक विपक्ष की एकजुटता के प्रयास तेज हो रहे हैं. विपक्ष की आक्रामकता और एकजुटता की कवायद को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता इन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के बजाए संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे ही कोस रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर संसदीय गतिरोध के जरिए देश हित विरोधी राजनीति तथा संसद का अपमान करने का आरोप भी लगाया है. ओलंपिक खेलों का संदर्भ लेकर उन्होंने कहा है कि एक तरफ देश जीत के गोल पर गोल कर रहा है, वहीं कुछ लोग ‘सेल्फ गोल’ करने में लगे हैं.
 
    
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: विपक्ष 'सेल्फ गोल' कर रहा है!
    जब देश के प्रधानमंत्री विपक्ष के बारे में इस तरह की भाषा बोल रहे हों तो भला उनके मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता पीछे कैसे रह सकते हैं. कल तक केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस के डीएनए में संसद के सम्मान के संस्कार ही नहीं हैं. ऐसा कहते हुए वे और उनके नेता भूल जा रहे हैं कि उनकी पार्टी ने संप्रग सरकार के जमाने में किस तरह से संसद के सत्र दर सत्र बाधित किए थे. तब उन्हें संसद में हल्ला-हंगामा विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार लगता था लेकिन अब विपक्ष की वही, संसद में विपक्ष में रहते भाजपावाली भूमिका उन्हें देश हित के विरुद्ध और संसद का अपमान नजर आ रही है.

    लेकिन सत्ता पक्ष के इस अहंकार और बौखलाहट का विपक्ष की आक्रामकता पर खास असर नहीं पड़ रहा है. तकरीबन एकजुट विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा होने तक 13 अगस्त तक के लिए निर्धारित मालसून सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों को बाधित करने पर अडिग है. और अब तो विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को इसके साथ जोड़ते हुए सड़क पर भी उतरने लगा है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चाय-नाश्ते पर आयोजित बैठक के बाद इन दलों के नेता-सांसद संसद भवन तक साइकिल यात्रा लेकर गए. जासूसी प्रकरण से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के प्रतीकात्मक विरोध के रूप में हुई इस साइकिल यात्रा में शामिल राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के अन्य सांसदों के पास प्लेकार्ड्स थे जिन पर पेगासस जासूसी प्रकरण से लेकर महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में नारे लिखे थे.

राहुल गांधी का सड़क से संसद तक का साइकिल मार्च

    इससे पहले वह ट्रैक्टर पर सवार होकर भी संसद गए थे. साइकिल मार्च के दो दिन बाद इन्हीं मांगों के साथ युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में संसद भवन के पास पुलिस की तरफ से तेज धार पानी की बौछारों के बीच भारी विरोध प्रदर्शन किया. अगले दिन राहुल गांधी के साथ इन दलों के नेता और सांसद किसानों के धरने में भी शामिल हुए. देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के विरोध में और किसान आंदोलन के समर्थन में साइकिल ट्रैक्टर मार्च किया.


    ममता की जीत से विपक्ष को मिली ताकत ! 


    दरअसल, एक अरसे तक पस्तहाल लग रहे विपक्षी दलों के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने एक तरह के राजनीतिक आक्सीजन का काम किया है. उनके भीतर यह एहसास भरने लगा है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गई है. बिहार में तो बहुत कम अंतर से विपक्ष सरकार बनाने से चूक गया लेकिन पश्चिम बंगाल में एक बार फिर खुद के बूते विजेता के रूप में उभर कर आई ममता बनर्जी में विपक्ष को एकजुटता के लिए एक सीमेंटिंग फोर्स के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे सकनेवाली जुझारू नेता भी नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल से बाहर निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनके लिए चुनावी रणनीतिकार की भूमिका निभानेवाले प्रशांत किशोर अलग से सक्रिय हैं. उन्होंने शरद पवार से लेकर विपक्ष के अन्य प्रमुख नेताओं से मिलना जुलना और उनकी नब्ज टटोलना शुरू कर दिया है. शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मुलाकातों में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की गरज से विपक्ष की एकजुटता और मोर्चा बनाने पर बल दिया है. ममता बनर्जी ने अपनी हाल की दिल्ली यात्रा में अन्य नेताओं के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी: 
 विपक्ष को एकजुट करने की कवायद
    विपक्ष को एकजुट करने की इस मुहिम के कुछ गलत अर्थ नहीं निकलें, इसके लिए शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी ने भी यह साफ करने की कोशिश की है कि कांग्रेस को परे रखकर विपक्ष की कोई एकजुटता कारगर नहीं हो सकेगी. लोकसभा की तकरीबन आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही है. इस सबसे उत्साहित होकर ही राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 16 विपक्षी दलों के नेताओं को चाय नाश्ते पर बुलाया. इनमें से विपक्ष की छोटी-बड़ी 14 पार्टियों के नेता तो बैठक में आए लेकिन बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता-प्रतिनिधि इस बैठक से दूर ही रहे. इनके बैठक में शामिल नहीं होने के अन्य कारणों के साथ एक कारण यह भी है कि ये लोग उत्तर प्रदेश और दिल्ली तथा पंजाब में विपक्ष की एकजुटता के स्वरूप को लेकर संशय में दिखते हैं. कभी विपक्षी एकता या कहें तीसरे मोर्चे की धुरी रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के नेता भी इस बैठक में नहीं दिखे. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाय एस आर कांग्रेस ने भी फिलहाल विपक्षी एकजुटता की इस कवायद से दूरी बनाकर रखी है. ये दल अभी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर ही चल रहे हैं.

    विपक्ष की एकजुटता कुछ खास मुद्दों पर मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित होगी या फिर इसके आगे चुनावी मैदान में भी एक सशक्त वैकल्पिक चेहरे को सामने रखकर सामूहिक रणनीति तैयार करने की दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाएगी! क्या वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रमों पर भी विचार होगा. तकरीबन सभी दल किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन कृषि कानूनों के भविष्य पर कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. इस तरह के कई और सवालों पर भी विपक्ष के नेताओं को मिल-बैठकर विचार करना और एकजुट विपक्ष के लिए आम राय पर आधारित एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तौयार करना होगा, जो सिर्फ कागजों पर ही नहीं होगा, सत्तारूढ़ होने पर उस पर अमल का आश्वासन भी होगा. वैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस काम के लिए विपक्ष के पास अभी काफी समय है. लेकिन तैयारियां तो अभी से करनी होंगी. ममता बनर्जी ने कहा भी है, "मैं नहीं जानती कि 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." जहां तक एकजुट विपक्ष के नेतृत्व का सवाल है, ममता साफ साफ कुछ कहने के बजाय गोल मोल बातें करती हैं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया है कि उनके लिए विपक्ष की एकजुटता महत्वपूर्ण है, चेहरा नहीं. 

    बदले से नजर आते हैं नीतीश कुमार !

    
ओमप्रकाश चौटाला के साथ नीतीश कुमार (बीच में) और उनकी पार्टी
के महासचिव के सी त्यागी:
 तीसरे मोर्चे की कवायद!

    इस बीच हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जेल से बाहर आने के बाद बढ़ी राजनीतिक सक्रियता को भी विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों की कड़ी में भी देखा जा रहा है. इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष चौटाला ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद तीसरे मोर्चे के गठन पर बल दिया. इसी कड़ी में उन्होंने जनता दल (एस) के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, सांसद मुलायम सिंह यादव से भी मुलाकात की. इन मुलाकातों में भी चर्चा किसान आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे के पुनर्जीवन को लेकर ही प्रमुख रही.  वहीं सोनिया गांधी के करीबी कहे जानेवाले लालू प्रसाद ने भी पिछले दिनों शरद पवार, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के साथ लंबी मुलाकातें की. ममता बनर्जी के साथ भी लालू प्रसाद और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के करीबी संबंध हैं. तेजस्वी और राजद ने चुनाव में ममता बनर्जी को खुला समर्थन दिया था. लालू प्रसाद की सक्रियता के मद्देनजर बिहार में राजनीतिक उलटफेर के कयास भी लगने लगे हैं. लेकिन  नीतीश कुमार किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे कि नहीं, यह कह पाना किसी के लिए भी अभी दुरूह कार्य हो सकता है. लेकिन यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी वे खुद को पहले की तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी तरफ, भाजपा भी उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. जद यू के नेताओं का बड़ा तबका बिहार में अपने खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए चिराग पासवान के साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा को भी जिम्मेदार मानते हैं. वे सवाल करते हैं कि साझा सरकार चलानेवाले दोनों दलों में से एक को विधानसभा की 74 और दूसरे को केवल 43 सीटें कैसे मिल सकीं.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के साथ लालू प्रसादः
 पारिवारिक मिलन से आगे भी कुछ और!

    बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही समय बाद अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक जरूरत नहीं होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू के सात में से छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा का यह राजनीतिक फैसला भी जद यू नेतृत्व के गले नहीं उतर सका. यही नहीं, गाहे बगाहे भाजपा अपने राजनीतिक मुद्दों को भी बिहार में उछालने-थोपने की कवायद में लगी रहती है. चुनाव से पहले बिहार में राजग की सरकार बनने पर हर हाल में नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की प्रतिबद्धता जतानेवाली भाजपा के नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा की तुलना में आधी से कुछ ही अधिक सीटें जीतनेवाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़प्पन था. इस सबके संकेत नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग भी बखूबी समझ रहे हैं. बीच-बीच में राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं भी हिलोर मारने लगती हैं.    
    
उपेंद्र कुशवाहाः पीएम मटीरियल हैं,नीतीश कुमार
    अभी
जद यू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने उन्हें पीएम मटीरियल बताया है. पार्टी के नये अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की ताजपोशी के अवसर पर नीतीश कुमार की मौजूदगी में भी जद यू के लोगों ने नारा लगाया, ‘2024 का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो.’ अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा के साथ सम्मानजनक गठबंधन नहीं होने पर उनकी पार्टी वहां 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

    हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ राजनीतिक फैसलों और बयानों को भी भाजपा के साथ उनकी मौजूदा असहजता के रूप में ही देखा जा रहा है. उन्होंने भाजपा के जनसंख्या नियंत्रण कानून के खिलाफ सख्त बयान दिया है. भाजपा की राय के विपरीत देश में जाति आधारित जनगणना की पुरजोर वकालत करते हुए उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा है. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस पेगासस जासूसी प्रकरण ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नाक में दम करके रखा है, नीतीश कुमार ने इस मामले में विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए उसकी जांच तथा संसद में उस पर चर्चा कराए जाने के पक्ष में बयान दिया है. भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के बाद सत्ता पक्ष के एक और बड़े नेता, नीतीश कुमार के इस बयान को लेकर अब भाजपा असहज दिखने लगी है. तो क्या वाकई नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा से अलग होकर विपक्ष की कतार में शामिल होने का मन बना रहे हैं! ऐसा वह तभी सोच सकते हैं जब उन्हें 2024 में विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बताकर पेश किया जाए.

     लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को लेकर हो सकती है. जिस तरह से उन्होंने विधानसभा के भीतर कहा था कि वह मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और इसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने न सिर्फ भाजपा से हाथ मिला लिया, जनादेश को ताक पर रखकर उसके साथ सरकार साझा की. 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े और अल्पमत में होने के बावजूद वह भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करने को राजी हो गए, उसे देखते हुए विपक्षी दल उन पर आसानी से भरोसा करने को राजी नहीं. उपेंद्र कुशावाहा के नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बतानेवाले बयान पर बिहार विधानसभा में विपक्ष (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा भी है कि, वह पीएम (पलटी मार) मटीरियल तो हैं ही. इसका इलहाम नीतीश कुमार को भी तो होगा ही. लेकिन इस सबसे परे राजनीति आवश्यकता, संभावनाओं और परिस्थितियों का खेल भी होती है. इसमें बहुत कुछ तत्कालीन परिस्थिति के मद्देनजर भी तय होता है. कट्टर विरोधी होने के बावजूद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और सरकार बनाए और फिर मिट्टी में मिलना पसंद करने लेकिन भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाने की बात करनेवाले नीतीश कुमार इस समय भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे हैं !

Monday, 2 August 2021

Pegasus Snoopgate and Parliamentry Disruptions in India

पेगासस जासूसी प्रकरण और संसदीय गतिरोध


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/QZlM_UHarlM

    पेगासस जासूसी प्रकरण मोदी सरकार के गले की हड्डी बन गया दिखता है जिसे सरकार न तो उगल पा रही है और ना ही निगल पा रही. इस सवाल पर 19 जुलाई को शुरू हुए मानसून सत्र के दो सप्ताह संसद के दोनों सदनों में नारेबाजी, शोरगुल और हंगामे की भेंट चढ़ गए. प्रश्नकाल और ध्यानाकर्षण प्रस्ताव से लेकर कोई भी विधायी कार्य विधिवत संपन्न नहीं कराया जा सका है. सरकार और विपक्ष के बीच किसी तरह के सम्मानजनक समझौता होने तक इस गतिरोध के टूटने के आसार भी कम ही दिख रहे हैं. मानसून सत्र के तीसरे सप्ताह के पहले दिन यानी सोमवार को भी संसद बाधित ही नजर आई. इस बीच सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भाजपा के सबसे पुराने और महत्वपूर्ण घटक जनता दल (यू) के वरिष्ठ नेता एवं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच कराए जाने की मांग का समर्थन कर मोदी सरकार की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं.

   इस बीच, सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस संसदीय गतिरोध के लिए एक दूसरे को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं. विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण की जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में स्वतंत्र जांच करवाने और दोनों सदनों में कार्यस्थगन प्रस्ताव के तहत चर्चा कराने की मांग पर अड़ा है. दूसरी ओर, इसके लिए राजी नहीं हो रही मोदी सरकार संसदीय गतिरोध का ठीकरा विपक्ष के सिर फोड़ते हुए कह रही है कि विपक्ष जन सरोकार से जुड़े महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा नहीं होने दे रहा है. संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा है कि विपक्ष बेवजह पेगासस जासूसी प्रकरण जैसे गैर जरूरी मुद्दे को तूल दे रहा है जबकि सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव इस मुद्दे पर संसद के दोनों सदनों में जवाब दे चुके हैं.

    
पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा के लिए
 राज्यसभा में हंगामा
    वैसे, भारतीय संसद में हंगामे और शोर-शराबे के कारण गतिरोध कोई नई बात नहीं है. सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच नोक-झोंक, बहसबाज़ी, परस्पर दोषारोपण या फिर यदा-कदा सदन में हंगामा और बहिर्गमन तो पहले भी होता रहा है. लेकिन हाल के दशकों में उत्तेजित सदस्यों के सदन के बीच में आकर शोरगुल और नारेबाजी करना आम बात हो गई है. और अब तो पीठासीन अधिकारियों की चेतावनी के बावजूद सदन में मंत्री से सरकारी कागज छीनकर उसे फाड़ देने, सदन के बीच में खड़े होकर नारेबाजी, पर्चे और कागज हवा में और यदा कदा आसंदी की तरफ भी उछाल देने का चलन भी शुरू हो गया है. इसे स्वस्थ और पारदर्शी संसदीय लोकतंत्र के लिए कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता. लेकिन इसके लिए किसी एक पक्ष को जिम्मेदार भी तो नहीं ठहराया जा सकता. जिस पेगासस जासूसी मामले को सरकार गैर जरूरी बता रही है, उसे एकजुट विपक्ष अत्यंत महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दा मानते हुए उस पर संसद में चर्चा की मांग को लेकर दोनों सदनों में हंगामा कर रहा है.

  
सुप्रीम कोर्टः पेगासस स्पाईवेयर की स्वतंत्र जांच
की मांग पर होगी सुनवाई
    सर्वोच्च न्यायालय ने भी इसे एक गंभीर मामला मानते हुए इसकी स्वतंत्र जांच कराने से संबंधित वरिष्ठ पत्रकार एन राम तथा अन्य की याचिका पर इसी सप्ताह, 5 अगस्त से सुनवाई की मंजूरी दे दी है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी सीमित दायरे में इस मामले की जांच की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर और कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य को सौंपी है.

    इस बीच फ्रांस सरकार की साइबर सुरक्षा एजेंसी ने अपनी जांच के बाद पेगासस स्पाईवेयर के जरिए पेरिस के मीडिया संगठन ‘मीडिया पॉर्ट’ के दो पत्रकारों लीनैग ब्रेडॉक्स और एडवी प्लेनेल के टेलीफोन हैक किए जाने की पुष्टि कर मामले को और गंभीर बना दिया है. गौरतलब बात यह भी है कि इसी मीडिया पॉर्ट ने राफेल युद्धक विमानों की खरीद में हुए कथित भ्रष्टाचार का रहस्योद्घाटन किया है. फ्रांस की सरकार इन रहस्योद्घाटनों के मद्देनजर ही इस मामले की जांच नए सिरे से करवा रही है.
 
  
 
 नैग ब्रेडॉक्स और एड्वी प्लेनेल (दाएं)
पेगासस स्पाईवेयर का राफेल कनेक्शन!


    इजराइल की कंपनी एनएसओ ग्रुप के पेगासस स्पाईवेयर को लेकर न सिर्फ दुनिया के कई और देशों बल्कि इजराइल में भी विरोध के स्वर तेज हो रहे हैं. इजराइल की सरकार ने उसके ठिकानों पर छापेमारी भी की है. अब तो एनएसओ की तरफ से भी कहा जा रहा है कि उसके जासूसी उपकरण के दुरुपयोग के मद्देनजर कुछ सरकारी एजेंसियों को पेगासस स्पाईवेयर के इस्तेमाल पर रोक लगा दी गई है. ऐसे में भारत सरकार यह कह कर नहीं निकल सकती कि यह एक गैर जरूरी या अगंभीर मुद्दा है. जाहिर सी बात है कि महंगाई, बेरोजगारी, सीमाओं की सुरक्षा, कोरोना महामारी से निबटने में कथित लापरवाही जैसे जन सरोकार से जुड़े कई ऐसे मुद्दे हैं जिन पर संसद में चर्चा होनी ही चाहिए लेकिन इसके बहाने पेगासस जासूसी मामले पर चर्चा नहीं कराने की सरकार की बात आसानी से हजम नहीं होती. अगर इस मामले में मोदी सरकार का दामन पाक-साफ है तो वह इसकी स्वतंत्र जांच और सदन में उचित नियम के तहत चर्चा करवाने को राजी क्यों नहीं हो रही !

    विपक्ष भी इसके जरिए मोदी सरकार को कठघरे में खड़ा करने का अवसर हाथ से जाने देना नहीं चाहता. विपक्ष के रणनीतिकारों को लगता है कि संसदीय गतिरोध के जरिए वे देशवासियों को बताने में सफल हो रहे हैं कि जासूसी मामले में घिर गई सरकार के पास कुछ बताने को नहीं है और वह इसकी जांच इसलिए भी नहीं करवाना चाहती है क्योंकि इससे जासूसी प्रकरण और राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित भ्रष्टाचार का सच सामने आ सकता है. आम जन को भी लगने लगा है कि सरकार कहीं न कहीं इस मामले में गलत है तभी तो जांच और चर्चा से भाग रही है. उसे यह बताने में क्या हर्ज है कि उसने एनएसओ ग्रुप से पेगासस स्पाईवेयर खरीदा है कि नहीं. और अगर खरीदा है तो इसके जरिए वह किसकी जासूसी करवा रही थी. यही मांग तो भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मणयम स्वामी भी कर रहे हैं. मीडिया रिपोर्टों में पेगासस स्पाईवेयर के जरिए भारत में जिन तकरीबन 300 लोगों के फोन हैककर उनकी जासूसी करने की बात सामने आ रही है, उनमें न सिर्फ विपक्ष के बड़े नेता, केंद्र सरकार में मंत्री, पत्रकार, वकील, सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ता बल्कि कुछ उद्यमी और वरिष्ठ अधिकारी भी हैं. राज्यसभा में कांग्रेस यानी विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे के अनुसार पेगासस जासूसी प्रकरण बहुत गंभीर मामला है. इस पर चर्चा के बाद ही संसद में हंगामा थमेगा और दूसरे विषयों पर चर्चा हो सकेगी.

मल्लिकार्जुन खरगेः पेगासस जासूसी प्रकरण पर
चर्चा होने तक जाम रहेगी संसद !
 
  बदली भूमिका में विपक्ष

    दरअसल, संसद में हल्ला हंगामा और गतिरोध हमारे राजनीतिक तंत्र का अनिवार्य अंग बन गया है. कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भाजपा के नेतृत्ववाली राजग सरकार के खिलाफ संसद में गतिरोध पैदा करने की जो रणनीति अभी अपनाई है, यही रणनीति 2004 से लेकर 2014 तक यूपीए सरकार के जमाने में भाजपा और उसके सहयोगी दल अपनाते रहे हैं. उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान कोयला ब्लॉक आवंटन और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में हुए कथित घोटाले और मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर भाजपा के नेतृत्व में हुए हंगामों के कारण संसद के सत्र दर सत्र बाधित हो रहे थे. इसके चलते पंद्रहवीं लोकसभा और राज्यसभा का भी अधिकतर समय भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे की भेंट चढ़ गया था. आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा के लोग कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं, तब, संप्रग सरकार के जमाने में उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार मानते थे.

राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडूः
 सरकार बदली, भाषा भी बदली !
 

     राजग शासन में सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई की चेतावनी देने में लगे राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु यूपीए शासन के दौरान खुद हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते थे. उस समय जब उनसे यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था कि हम नए तरीके ईजाद करेंगे ताकि सरकार की जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. इस लड़ाई को संसद से बाहर जनता के बीच भी ले जाएंगे.
    कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में कथित घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों को जाम करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली कह रहे थे कि ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर संसद में हंगामा शुरू किया है, उसे निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल होने तक जनता के बीच ले जाएंगे. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इस मुद्दे को समाप्त करने के लिए की जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते हुए इसे अत्यंत महत्वपूर्ण संसदीय कार्य बता रहे थे. यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ अभी लोकसभाध्यक्ष ओम बिरला से लेकर सत्तापक्ष के अन्य नेता भी संसदीय गतिरोध से देश को हो रहे करोड़ों रु. के नुकसान का विवरण दे रहे हैं लेकिन संप्रग सरकार के जमाने में संसद जॉम होने पर राजकोष को हो रहे आर्थिक नुकसान के बारे में जब लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष (भाजपा) की नेता सुषमा स्वराज से पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने कहा था, ‘‘अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ रु. का नुकसान हुआ और हम सरकार पर अपनी मांग के पक्ष में दबाव बना सके तो यह हमें स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’.

विपक्ष में रहते लालकृष्ण आडवाणीः 
संसदीय गतिरोध से भी नतीजे मिलते हैं
    उस समय भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी इसमें जोड़ा था कि ‘‘मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जेपीसी जांच की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ जाहिर है कि अब, पिछले सात वर्षों में हमारे राजनीतिक दलों की भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेता अब वही भाषा बोल रहे हैं जो उस समय संप्रग शासन में कांग्रेस के लोग बोलते थे. दूसरी तरफ विपक्ष की भूमिका में आ चुकी कांग्रेस अब एकजुट विपक्ष को साथ लेकर अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत राजग सरकार को घेरने में लगी है. पेगासस जासूसी प्रकरण की जांच और संसद में इस पर विधिवत चर्चा होने तक गतिरोध जारी रहने की बात कर रही है. विपक्ष का आरोप है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष की रणनीति अब पेगासस जासूसी प्रकरण पर संसद को जाम रखने के साथ ही इसे सड़कों पर, जनता के बीच ले जाने की भी लगती है.

    संसद चलाने की जिम्मेदारी किसकी

    
    लेकिन दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. दरअसल, सरकार भी संसद को सुचारु रूप से चलने देने में बहुत ज्यादा उत्सुक नहीं लगती. उसकी रणनीति एक तरफ तो संसदीय गतिरोध के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराकर उसे जनता की नजरों में गिराने की लगती है (इसका जिक्र स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा संसदीय दल की बैठक में कर चुके हैं. और दूसरी बात यह भी कि संसद के पिछले कुछ सत्रों की तरह इस बार भी वह शोरगुल और हंगामे के बीच अपने जरूरी विधायी कार्य बिना चर्चा और बहस के ही संपन्न करा सकेगी. ऐसा वह अतीत में करती भी रही है. इस मामले में सरकार मोदी जी के गुजरात में मुख्यमंत्री रहते किए प्रयोगों पर ही अमल कर रही है. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री रहते मोदी जी को जब गुजरात विधानसभा में कोई जरूरी विधेयक पास करवाना होता तो किसी न किसी बहाने सदन में हंगामा करवाकर विपक्ष के प्रमुख विधायकों का थोकभाव से निलंबन करवा देते या फिर हल्ला हंगामे के बीच ही बिना किसी चर्चा और बहस के अपने विधेयक पास करवा लेते.
 
    संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम, प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला-हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. दूसरी तरफ, संसद को चलाने की मुख्य जिम्मेदारी सत्तापक्ष की होती. इस काम में उसे विपक्ष को अपने साथ लेकर चलना होता है, कभी समझा-बुझाकर, कभी बहला-फुसलाकर, तो कभी थकाकर और कभी नर्म पड़कर भी. सरकार का संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लाकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका और उसके संसदीय अधिकारों को को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिश करते ही नजर आ रही हैं. पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर बने गतिरोध के मामले में भी यही दिख रहा है.




Monday, 12 July 2021

Haal Filhal 'Mahangaee Dayan Khaye jaat hai'

हाल फिलहाल

जयशंकर गुप्त

   
     
कोरोनाकाल में अपने ब्लॉग पर अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूं. पिछले दिनों तमाम मित्रों के आग्रह पर हमने यू ट्यूब पर सात रंग न्यूज और फिर अपने देशबंधु अखबार के यू ट्यूब चैनल, डीबी लाइव पर 'हाल फिलहाल' के नाम से वीडियो अपलोड करना शुरू किया है. देश के ताजा तरीन सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक घटनाक्रमों पर आधारित गंभीर विवेचन का हमारा 'हाल फिलहाल' हर सप्ताह शनिवार शाम को देखने सुनने को मिल सकेगा. दो दिन बाद सोमवार को  थोड़ा और विस्तार के साथ देशबंधु के पाठकों के लिए यह संपादकीय पृष्ठ पर तथा हमारे ब्लॉग पर भी उपलब्ध रहेगा. उम्मीद है कि हमारे पाठकों, मित्रों और शुभचिंतकों का समर्थन सहयोग हमें पूर्ववत मिलते रहेगा.

महंगाई डायन खाए जात है!

        'हाल फिलहाल' में इस बार चर्चा हम एक ऐसे विषय के बारे में कर रहे हैं जो न सिर्फ हमारी सरकार बल्कि हमारे राजनीतिक दलों और मुख्य धारा की मीडिया के एजेंडे से भी गायब सा है. आम आदमी इस समस्या से बेतरह परेशान और हलाकान है लेकिन इसको लेकर वह भी आंदोलित नहीं होता. कसमसा कर रह जाता है. कारण चाहे कोरोना प्रोटोकोल के मद्देनजर बड़े जनसमूह के साथ सड़कों पर उतरकर आंदोलित होने की संभावनाओं का सीमित हो जाना हो या कुछ और, हमारे विपक्षी दल भी इस विषय को मौजूदा सरकार के विरुद्ध अपना मुख्य राजनीतिक एजेंडा नहीं बना पा रहे हैं. वैसी आक्रामकता नहीं बना पा रहे हैं जितनी हमें यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा के जरिए देखने को मिलती थी. वे इस मसले पर ट्वीट करने भर से अपने दायित्वों की इति मान लेते हैं.

        
राम देवः मोदी राज में 35 रु. पेट्रोल दिलाने का 'दावा'
हम बात कर रहे हैं, पेट्रोलियम पदार्थों के दाम लगातार बढ़ते जाने और उससे जुड़ी बेतहाशा महंगाई की. आपको याद है, आज से 11 साल पहले एक फिल्म आई थी, ‘पीपली लाइव.’ उसका एक गाना बहुत चर्चित और लोकप्रिय हुआ था, “सखी सैयां तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है.” उस समय केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्ववाले यूपीए की सरकार थी और भाजपा विपक्ष में थी. भाजपा ने इस गाने को मनमोहन सरकार के विरुद्ध अपने राजनीतिक अभियान का मुख्य अस्त्र बनाया था. उस समय गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा की तरफ से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी महंगाई और खासतौर से पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में वृद्धि को लेकर बहुत उद्वेलित थे. उन्होंने कहा था कि पेट्रोल और डीजल के दाम में वृद्धि सरकार की नाकामी का प्रतीक है. सरकार कसाईखानों को तो सबसिडी देती है लेकिन डीजल के दाम बढ़ाती है. उस समय भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह, प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर, स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद और शाहनवाज हुसेन से लेकर तमाम नेताओं ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को आम आदमी पर करारी चोट करार देते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से बढ़ी हुई कीमतें वापस लेने और पेट्रोलियम पदार्थों पर एक्साइज ड्यूटी कम करने की मांग भी की थी. श्री जावडेकर ने तो दावे के साथ कहा था, “हम चुनौती के साथ कह सकते हैं कि पूरी तरह से रिफाइंड पेट्रोल दिल्ली में 34 रु. और मुंबई में 36 रु. प्रति लीटर मिल सकता है.” इसी तरह के दावे के साथ उस समय खुद को अर्थशास्त्री बतानेवाले योग गुरु या कहें योग के व्यवसाई बाबा रामदेव ने भी एक टीवी शो में 35 रु. लीटर के भाव पेट्रोल और 300 रु. प्रति सिलेंडर रसोई गैस देनेवाली मोदी जी की सरकार बनवाने का न सिर्फ आग्रह किया था बल्कि उस कार्यक्रम में बैठे युवाओं से इसके समर्थन में ताली भी बजवाई थी.
    

यूपीए शासन में पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ भाजपा का प्रदर्शन

    2014 के लोकसभा चुनाव में महंगाई डायनवाला गाना काफी हिट हुआ था. उस समय भाजपा का एक चुनावी पोस्टर भी काफी चर्चित हुआ था, ‘बहुत हुई जनता पर महंगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार.’ अन्य कारणों के अलावा महंगाई ने भी मई 2014 में हुए सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. अभी पिछले सवा सात साल से केंद्र में भाजपा और उसके नेतृत्ववाले राजग की सरकार है. प्रधानमंत्री हैं, नरेंद्र मोदी. लेकिन तबकी परिस्थिति और आज के हालात का तुलनात्मक अध्ययन करें तो हालात तकरीबन वैसे ही हैं, बल्कि उससे भी बदतर हुए हैं, जैसे 2010 से लेकर मई 2014 तक थे. फर्क बस इतना ही हुआ है कि नोट बंदी और अभी कोरोना महामारी के कारण पिछले वर्षों में बेरोजगारी बढ़ी है, लोगों की नौकरियां गई हैं, वेतन मिलना बंद या कहें कम हो गया है. लोगों की आमदनी कम हुई है लेकिन खर्चों में कोई कमी नहीं हो रही. इस सबके साथ ही चरम को छूती महंगाई कहर ढा रही है. आज उस गाने में थोड़ा संशोधन कर हम कह सकते हैं, “सखी सैंयां तो कम ही कमात हैं, महंगाई सबकुछ खाए जात है.”

कौन नसीबवाला है और कौन है बदनसीब!

    ऐसा नहीं है कि मोदी जी के सवा सात साल के शासन में पेट्रोल-डीजल के दाम कभी कम ही नहीं हुए. 2015 में दिल्ली विधानसभा के चुनाव के समय पेट्रोल और डीजल के दाम कम हुए थे. तब इसका श्रेय और वाहवाही लेते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि वह नसीबवाला हैं, इसलिए पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए. उन्होंने एक फरवरी 2015 को दिल्ली में हुई एक चुनावी रैली में कहा था, “पेट्रोल-डीजल के दाम कम हुए कि नहीं. आपकी जेब में पैसा बचने लगा है कि नहीं... अब हमारे विरोधी कहते हैं कि मोदी तो नसीबवाला है...तो भाई अगर मोदी का नसीब जनता के काम आता है तो इससे बढ़िया नसीब की बात और क्या हो सकती है....आपको नसीबवाला चाहिए या बदनसीब! उनका कटाक्ष दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल  पर था. हालांकि दिल्लीवाले मोदी जी के झांसे में नहीं आए. दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया.

        इन दिनों राजधानी दिल्ली में पेट्रोल एक सौ और डीजल नब्बे रुपए प्रति लीटर के पार चला गया है. रसोई गैस का सिलेंडर 834.50 रुपए, पीएनजी (पाइप्ड नेचुरल गैस) 29.61 रु. प्रति घन मीटर तथा सीएनजी 44.30 रु. प्रति किलोग्राम के भाव बिक रहा है. इस सबके चलते खाने-पीने की वस्तुओं-नमक, खाद्य तेल, दूध, दाल और अंडे से लेकर सब्जियों के भाव आसमान छूने लगे हैं. अमूल के बाद अब मदर डेयरी ने भी दूध के दाम में तकरीबन दो रु. की वृद्धि कर दी है. दिल्ली और आसपास के इलाकों में गर्मी के दिनों में 120 रु. प्रति क्रेट (30 अंडों का एक क्रेट) मिलनेवाला अंडा 180 से 200 रु. की दर से मिल रहा है. पेट्रोल-डीजल और सीएनजी की दरें लगातार बढ़ते जाने के कारण न सिर्फ निजी बल्कि सार्वजनिक परिवहन भी प्रभावित हुआ है. इसकी दरों में वृद्धि भी अवश्यंभावी है. उसके बाद आम आदमी की मुश्किलें और बढ़ सकती हैं. पता नहीं मोदी जी को अपना नसीबवाला जुमला याद है कि नहीं. उन्हें खुद ही तय कर लेना चाहिए कि वह नसीबवाला हैं या बदनसीब!

    हैरानी की बात है कि जिन लोगों को मई 2014 से पहले महंगाई 'डायन' लगती थी, अब उन्हें वह 'डार्लिंग' लगने लगी है. जो लोग पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि के खिलाफ सड़कों पर रसोई गैस के सिलेंडर और अन्य प्रतीक चिन्हों के साथ धरना प्रदर्शन करते थे. सायकिल और बैलगाड़ी पर चलने की बातें करते थे, अब महंगाई की चर्चा करने से भी कतराते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने ‘मन की बात’ में भी इसका जिक्र नहीं करते. अलबत्ता उनकी पार्टी के नेता और मंत्री और रामदेव भी महंगाई और पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बेतहाशा बढ़ने का औचित्य साबित करने के लिए तरह-तरह के तर्क-कुतर्क देते हैं. छत्तीसगढ़ सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के वरिष्ठ नेता बृजमोहन अग्रवाल तो कहते हैं कि “जिन्हें महंगाई राष्ट्रीय आपदा लगती है, वे लोग खाना-पीना बंद कर दें, अन्न त्याग दें, पेट्रोल का इस्तेमाल करना बंद कर दें और मुझे लगता है कि अगर कांग्रेसी और कांग्रेस को वोट देनेवाले लोग ही ऐसा कर दें तो महंगाई कम हो जाएगी.”

भाजपा नेता अग्रवाल अन्न त्याग देने से महंगाई कम हो जाएगी
    उस समय पेट्रोलियम पदार्थों पर लगनेवाले करों को हटाने अथवा कम करने और आम आदमी को सबसिडी देने की बढ़ चढ़कर मांग करनेवाले लोग अब कह रहे हैं कि देश के विकास के लिए पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने और लगातार बढनेवाले उत्पाद शुल्क यानी एक्साइज ड्यूटी देश के विकास को गति देने के लिए परम आवश्यक है. तो क्या मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार के जमाने में पेट्रोलियम पदार्थों पर उत्पाद शुल्क नहीं लगते थे और उससे मिलनेवाला पैसा विकास कार्यों के बजाय कहीं और खर्च होता था! 

    कुछ दिनों पहले तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि अभी सरकार की आमदनी काफी कम हो गई है और इसके 2021-22 में भी कम ही रहने के आसार हैं. सरकार की आमदनी कम हुई है जबकि खर्चे बढ़ गए हैं. उनकी यह बात सच हो सकती है लेकिन उन्हें यह भी बताना चाहिए कि इस कोरोनाकाल में क्या आम आदमी की आमदनी बढ़ गई है, जिससे उस पर करों का बोझ लगातार बढ़ते जा रहा है. सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि कोरोनाकाल में महंगाई से पीड़ित लोगों ने घर में पड़े सोने और उसके जेवर गिरवी रखकर कर्ज लिए जबकि सबसे अधिक कर्ज महिलाओं ने अपने मंगलसूत्र गिरवी रखकर लिए हैं. 
    
    
सरकार की आमदनी कम हो गई हैः धर्मेंद्र प्रधान
    धर्मेंद्र प्रधान ने पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि को जायज ठहराने के पक्ष में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्धि का तर्क दिया और कहा कि कच्चे तेल की कीमत 70 डालर प्रति बैरल हो गई है. कमोबेस इसी तरह के तर्क यूपीए सरकार के समय कांग्रेस के नेता और मंत्री भी देते थे. अब इसे भी समझते हैं. 2014 में जब मनमोहन सिंह की सरकार थी, उस समय कच्चे तेल की कीमत 108 डालर प्रति बैरल हो गई थी जबकि उस समय पेट्रोल की अधिकतम कीमत 71.51 रुपए और डीजल 57.27 रुपए प्रति लीटर था. तो फिर क्या कारण है कि आज जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत 70 से 75 डालर प्रति बैरल है तो पेट्रोल 100 रु. और डीजल 90 रु. के पार बिक रहा है!

    दरअसल पेट्रोलियम पदार्थों की इस मूल्यवृद्धि का कारण इस पर लगने वाले केंद्र सरकार के उत्पाद शुल्क और राज्य सरकारों के वैट हैं. 2014 में पेट्रोल पर 9.48 रु. तथा डीजल पर 3-56 रु. केंद्रीय उत्पाद शुल्क लगता था जो अब बढ़कर क्रमशः तकरीबन 33 रु. और 32 रु. हो गया है. इस पर तकरीबन 20-22 रु. राज्य सरकारों का वैट भी लगता है. यही कारण है कि जब अप्रैल 2020 में अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमत न्यूनतम 20 डालर प्रति बैरल के आसपास आ गई थी तब भी पेट्रोल और डीजल के दाम कम नहीं हुए थे. सरकार चाहती तो कच्चे तेल की कीमतों में ऐतिहासिक कमी का फायदा आम आदमी को पेट्रोल-डीजल की कीमतें कम करके दे सकती थी. आर्थिक रूप से कंगाली के कगार पर पहुंच चुके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने उस समय एक महीने के भीतर पेट्रोल और डीजल की कीमतों में क्रमशः 30 और 42 रु. की कमी करते हुए अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में हुई भारी कमी का लाभ अपने उपभोक्ताओं को दिया था. लेकिन हमारी सरकार ने ऐसा करने के बजाए अपना खजाना भरना जरूरी समझा. 5 मई 2020 को पेट्रोल पर 10 और डीजल पर 13 रु. का उत्पाद शुल्क और बढ़ा दिया गया. इससे दो महीने पहले भी सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क में तीन-तीन रु. की वृद्धि की थी.

    जब भी पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में कमी करने की मांग उठती है भाजपा के नेता इसकी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर डालते हुए कहते हैं कि राज्य सरकारें चाहें तो वैट में कमी करके पेट्रोल-डीजल के दाम कम कर सकती हैं जबकि राज्य सरकारों और खासतौर से गैर भाजपा दलों के द्वारा शासित राज्यों के प्रतिनिधि इसके उलट कहते हैं कि केंद्र सरकार को एक्साइज ड्यूटी में कमी करके आम आदमी को राहत देना चाहिए. इस तरह दोनों ही अपनी जिम्मेदारी दूसरे पर थोपने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं करते. अभी अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कच्चे तेल की कीमतें और बढ़ने की आशंका जताई जा रही है. इसका मतलब साफ है कि आम आदमी को फिलहाल महंगाई से राहत मिलने के आसार कम ही हैं. भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने सरकार को सुझाव दिया है कि करों में कटौती कर आम आदमी को कुछ राहत दी जा सकती है लेकिन क्या हमारी सरकार उनकी बात को भी सुनेगी. नए पेट्रोलियम मंत्री हरदीप सिंह पुरी का कहना है कि वह अभी इस मामले को समझने में लगे हैं. इसके बाद ही कुछ कह पाएंगे. तो क्या आम आदमी को सात-आठ महींनों बाद होनेवाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड सहित पांच राज्य विधानसभाओं के चुनाव का इंतजार करना होगा क्योंकि चुनाव सामने हों तो हमारी सरकार कीमतों में कमी या फिर कीमतों को स्थिर रखने के जतन करती है. ऐसा ही पश्चिम बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरि विधानसभा के चुनाव के समय देखा गया था. चुनाव संपन्न होने तक पेट्रोलियम पदार्थों के दाम तकरीबन स्थिर ही रहे लेकिन चुनाव संपन्न होने के बाद ही इनमें वृद्धि जो शुरू हुई तो फिर रुकने का नाम ही नहीं ले रही.

Monday, 7 September 2020

CORONA'S (COVID19) Growing Havoc in INDIA ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो हुए हम!

भारत में कोरोना का बढ़ता कहर

ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो पर पहुंचे हम

जयशंकर गुप्त

खुशी मनाएं कि गम. गौरवान्वित हों कि हों शर्मसार. वैश्विक महामारी कोरोना (कोविड 19) के संक्रमितों की संख्या के मामले में हमारा भारत विश्व में नंबर दो के मुकाम पर पहुंच गया है. कुल संक्रमितों की संख्या 42 लाख (6 सितंबर 2020 की शाम तक)  को पार कर जाने के कारण भारत अब ब्राजील से आगे निकल गया है. ब्राजील में कल शाम तक कुल कोरोना संक्रमितों की संख्या थी, तकरीबन 41 लाख 23 हजार. कल शाम तक 71 हजार 687 भारतीय कोरोना की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं. जबकि कोरोना के टेस्ट की रफ्तार अभी भी इस देश में बहुत कम और धीमी है. तकरीबन 138 करोड़ की आबादीवाले इस देश में अभी तक कुल चार करोड़ 88 लाख से कुछ अधिक ही टेस्ट कराए जा चुके हैं. गंभीर चिंता की बात यह है कि पिछले एक सप्ताह में देश में कोरोना से संक्रमित रोगियों की संख्या कम होने के बजाय लगातार रिकार्डतोड़ ढंग से बढ़ते जा रही है. रविवार 6 सितंबर को 91 हजार से अधिक नए मामले दर्ज किए गये. इसके एक दिन पहले, 5 सितंबर को देश में 90 हजार 600 नए मरीज दर्ज हुए थे. 
राहत की बात इतनी भर है कि शनिवार को 73 हजार लोग कोरोना के संक्रमण से मुक्त भी हुए. अभी तक 31 लाख 80 हजार लोग कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके हैं. लेकिन अभी भी देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 9 लाख  कोरोना ग्रस्त मरीज हैं जिनमें से 10 हजार की हालत गंभीर बनी हुई है. चिंता की बात यह भी है कि नये मामले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से अधिक आ रहे हैं. यह दोनों राज्य इस समय भारी बरसात और बाढ़ का सामना अलग से कर रहे हैं. बिहार में तो नवंबर में विधानसभा के चुनाव भी कराए जा रहे हैं. 
 
आश्चर्य और अफसोस की बात यह है कि कोरोना के कहर के इन डरावने आंकड़ों को लेकर हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडिया और हमारे लोग (आम नागरिक) भी अब उतने चिंतित और सचेत नहीं हैं जितना शुरुआती दौर में नजर आते थे जब कोरोना संक्रमितों और उसकी चपेट में आकर मरनेवाले लोगों की संख्या भी बहुत कम थी. लॉाकडाउन के नाम पर सरकारी सख्ती गजब की थी. सरकार ने और मीडिया ने लोगों के बीच भय और दहशत का ऐसा माहौल बना दिया था कि उस समय तो सबकुछ ठप सा हो गया था. हमारा मुख्यधारा का मीडिया इस समय बालीवुड के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत कीआत्महत्या-हत्या की गुत्थी सुलझाने में व्यस्त है और हमारे हुक्मरान इस आपदा को अवसर में बदलकर इसके कैसे और क्या क्या राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं, इसकी जुगत में. मध्य प्रदेश में जनादेश से बनी कांग्रेस की सरकार को पैसे और राजनीतिक प्रलोभन के जरिए अपदस्थ कर वहां अपनी सरकार बनाने में वे सफल हो चुके हैं.राजस्थान में आपदा अवसर में बदलते-बदलते रह गई. कांग्रेस की सरकार को अपदस्थ कर उसके कथित बागियों के सहारे अपनी सरकार बनाने के उनके मंशूबे पूरे नहीं हो सके.  

 बहरहाल, हमने जुलाई महीने में ही आगाह किया था कि अगर अपेक्षित सावधानी और सतर्कता नहीं बरती गई, कोरोना प्रोटोकोल पर पूरी तरह से अमल नहीं हुआ और बड़े पैमाने पर कोरोना टेस्टिंग नहीं हुई तो अगस्त महीने तक देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 20 लाख के आंकड़े को छू लेगी. हम गलत साबित हुए. अगस्त बीतते बीतते तो देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 35 लाख के पार पहुंच गई. अभी भी ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार इस दिशा में विशेष रूप से सक्रिय है. अगर यही हाल रहा और कोरोना संक्रमितों की संख्या इसी रफ्तार से बढ़ती रही (अभी अमेरिका और ब्राजील के मुकाबले भारत में कोरोना संक्रमितों के बढ़ने की रफ्तार दो गुनी से ज्यादा है.)
तो नवंबर महीने तक इस देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक करोड़ के पार और इसके कारण दम तोड़नेवालों की संख्या भी डेढ़ लाख से ऊपर पहुंच सकती है. तकलीफदेह बात यह भी है कि कोरोना से मुक्ति दिलाने के नाम पर विभिन्न देशों में कोई टीका (वेक्सिन) अभी तक निर्णायक और प्रामाणिक रूप से सामने नहीं आ सका है. उसके बारे में अभी तक केवल अटकलें ही सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं.   
  
  वस्तुस्थिति यही है कि एक तरफ डूबती लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था (जून तिमाही में भारत की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि बेरोजगारी के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं. रुपये की कीमत गिर रही है.) को पटरी पर लाने के नाम पर केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा तमाम क्षेत्रों को 'अनलॉक' किया जा रहा है तो दूसरी तरफ भारत में कोरोना का कहर अपने चरम को छूने को आतुर दिख रहा है. अनलॉक प्रक्रिया के तहत होटल-रेस्तरां और बार खोले जा रहे हैं, मेट्रो रेल का परिचालन शुरू होने जा रहा है, रेल गाड़ियां, बसें, टैक्सी और ऑटो रिक्शा दौड़ने लगे हैं (इन सबके परिचालन में कोरोना प्रोटोकोल और अन्य सावधानियों का पालन किस तरह से हो रहा है, इसे सड़क पर दौड़ रहे ऑटो रिक्शा, टैक्सी, बसों, बाजारों में देखा समझा जा सकता है. कई बार तो लगता है कि हमारी लापरवाहियां हमें एक बड़ी त्रासदी की ओर ले जा सकती हैं. 'अन लॉक' भारत में कोरोना का कहर बढ़ते ही जाने के मद्देनजर इस तरह की अटकलें भी लगनी शुरू हो गई हैं कि हालत नहीं सुधरी तो देश को एक बार फिर से 'लॉकडाउन' के हवाले किया जा सकता है! वैसे, 'कोरोना को हराना है' का 'मंत्र वाक्य' देनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अब कहने लगे हैं कि 'अब हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना है!'
 

कोरोना पर शुरुआती गंभीरता नहीं  


अगर हम इस देश में कोरोना के प्रवेश, प्रसार और इसके रौद्र रूप धारण कर देशवासियों की अकाल मौत का सबब बनने के कारणों पर गंभीरता से विवेचन करें तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस मामले में क्या हम अपने हुक्मरानों की 'नासमझी' अथवा उनके 'तुगलकी फैसलों' की कीमत तो नहीं चुका रहे! 30 जनवरी को जब देश में पहला कोरोना मरीज केरल में मिला था, हमें अंतरराष्ट्रीय उड़ानों, खासतौर से कोरोना के उद्गम देश, चीन से आनेवाली उड़ानों को बंद अथवा नियंत्रित करना शुरू कर देना चाहिए था. ऐसा करके चीन के पड़ोसी देश ताईवान ने खुद को करोना के कहर से बचा सा लिया था. लेकिन हमारे हुक्मरानों ने तब इसे गंभीरता से नहीं लिया. फरवरी 2020 के पहले सप्ताह में कांग्रेस के नेता, सांसद राहुल गांधी ने इस महामारी के वैश्विक रूप धारण करने और भारत में भी इसके विस्तार की आशंका व्यक्त करते हुए सरकार से एहतियाती सतर्कता बरतने का आग्रह किया था लेकिन तब भी इसे गंभीरता से नहीं लेकर उनका मजाक बनाया गया. कारण शायद कोरोना से प्रभावित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगवानी का था. जिस समय ट्रंप अपने लाव-लश्कर के साथ भारत आए, अमेरिका के बड़े हिस्से और आबादी को कोरोना अपनी जद में ले चुका था. लेकिन 24 फरवरी को ट्रंप के साथ या उनके आगे-पीछे कितने अमेरिकी यहां आए, उनमें से कितनों की कोरोना जांच हुई! किसी को पता नहीं! 'नमस्ते ट्रंप' के नाम पर एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ जुटाकर अहमदाबाद के मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम में उनका सम्मान किया गया!.
12 मार्च 2020 को कर्नाटक के कलबुर्गी में पहले कोरोना संक्रमित की मौत के साथ जब भारत में भी केसेज बढ़ने लगे और फीजिकल डिस्टैंसिंग जरूरी हुआ तो हमारे शासकों ने आपदा को राजनीतिक अवसर के रूप में भुनाने की रणनीति के तहत मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की 'खरीद-फरोख्त' से 'तख्ता पलट' का इंतजार किया. 12 मार्च को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के विस्तार और तकरीबन पांच हजार मौतों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे  महामारी घोषित करते हुए किसी भी देश के इसकी जद से बाहर नहीं रह पाने की आशंका जताई थी. लेकिन तब भी हमारे शासक इसे गंभीरता से लेने के बजाए, हंसी में टालते रहे.

आपदा को अवसर (राजनीतिक) में बदलने की कवायद

22 मार्च को जब दुनिया भर में कोरोना से मरनेवालों का आंकड़ा 14647 पहुंच गया, हमारे यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार एक दिन का 'जनता कर्फ्यू' और दो दिन बाद 'लॉकडाउन' घोषित किया. इसके लिए भी 23 मार्च को मध्यप्रदेश में तख्तापलट का इंतजार किया गया. कायदे से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित करने के साथ ही देशवासियों को एहतियाती इंतजाम करने के लिए सचेत कर बताया जाना चाहिए था कि दो-तीन दिन बाद पूरे देश में लॉकडाउन किया जानेवाला है. इससे अफरातफरी के माहौल से बचा जा सकता था. लोग खाने-पीने और जीने के एहतियाती इंतजाम कर सकते थे. उन दो-तीन दिनों में यत्र-तत्र फंसे लोग अपने गंतव्य को पहुंच जाते क्योंकि उस समय आज के मुकाबले कोरोना का कहर भी अपेक्षाकृत बहुत कम था. लेकिन 24 मार्च की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री ने 'आकाशवाणी' कर चार घंटे बाद यानी रात के 12 बजे से देशवासियों को एक झटके में लॉकडाउन और 'सोशल डिस्टैंसिंग' (हालांकि यह गलत शब्द है, सही शब्द है फीजिकल डिस्टैंसिंग) के हवाले कर दिया.

लॉकडाउन घोषित करने से पहले उन्होंने विपक्षी दलों के नेताओं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा प्रशासकीय प्रमुखों (मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों) से सलाह-मशविरा की जरूरत नहीं समझी. यह भी नहीं सोचा कि इस 135-40 करोड़ की आबादी वाले विशाल देश में, जहां 15-20 करोड़ सिर्फ प्रवासी-दिहाड़ी मजदूर, रोज कमाने-खानेवाले लोग हैं, उनका क्या होगा! बिना कोई ठोस योजना बनाये, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया. सभी कल-कारखानों में उत्पादन एवं निर्माण और व्यापार-व्यवसाय ठप हो गया. करोड़ों प्रवासी मजदूर बेरोजगार-बेघरबार हो गए. उनके और वे उनके परिवार के लोगों के सामने दो जून की रोटी के भी लाले पड़ने लगे. नहीं सोचा गया कि रोजी-रोटी का धंधा चौपट या बंद हो जाने के बाद गरीब कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूर जीवन यापन कैसे करेंगे. उनके मकान का किराया कैसे अदा होगा. उनके बच्चों के लिए दवा-दूध का इंतजाम कैसे होगा.

लेकिन तब प्रधानमंत्री के लॉकडाउन पर अमल से 21 दिनों के भीतर कोरोना पर विजय हासिल कर लेने के दावे पर लोगों ने तकलीफ बरदाश्त करके भी भरोसा किया.प्रधानमंत्री ने साफ कहा था कि महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था. कोरोना के खिलाफ जंग हम 21 दिनों में जीत लेंगे. आज महीनों बीत गये कोरोना से जगं जीतना तो दूर की बात, अभी भी साफ पता नहीं चल पा रहा है के इस वैश्विक महामारी से मुक्ति कब मिल गाएगी. शुरुआत में सरकारी एजेंसियों और उससे अधिक हमारी मीडिया के एक बड़े वर्ग के सहयोग से भी दिल्ली और देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी कोरोना का संक्रमण फैलने के लिए मुसलमानों की धार्मिक संस्था 'तबलीगी जमात' को खलनायक के रूप में पेश कर इस मामले को भी समाज को धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर बांटने और इसका राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास हुए. तबलीग के लोगों और इसके प्रमुख मौलाना साद को लेकर तमाम तरह की अफवाहनुमा सूचनाएं-खबरें फैलाई गईं. उनके विरुद्ध नफरत का माहौल बनाया गया. लेकिन आगे चलकर तबलीग का मामला भी ठंडा पड़ते गया (किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. मौलाना साद को अभी तक गिरफ्तार करने की बात तो दूर उनसे किसी तरह की पूछताछ तक नहीं हुई). बाद में अदालती फैसले में कहा गया कि इस मामले में तबलीगी जमात के लोगों को 'बलि का बकरा' बनाया गया.

दूसरी तरफ, हालत बद से बदतर होती गयी. कोरोना के विषाणु घातक बनकर पहले से भी ज्यादा पांव पसारने लगे. लोगों के सामने खाने-पीने के लाले पड़ने लगे. एक मोटे अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के दौरान कम से कम एक करोड़ दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर सीधी चोट लगी. हालांकि केंद्र सरकार ने ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत कोरोना संकट के शुरुआती तीन महीनों तक '80 करोड़' गरीबों के लिए प्रति व्यक्ति पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल प्रति माह दिए जाने की घोषणा की थी. इस योजना का लाभ किन्हें मिला, यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन इससे प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर अपने राज्य, गांव और घर लौटने पर रोका नहीं जा सका.

जांच-इलाज और अस्पतालों की दुर्दशा से हालात बदतर 

दरअसल, मीडिया के सहारे मानसिक तौर पर कोरोना का खौफ इस कदर पैदा कर दिया गया कि छोटे और किराए के कमरों में रह रहे प्रवासी मजदूर डर से गये. एक तो उनके पास कोई काम नहीं था, मकान मालिकों का किराए के बकाए के भुगतान का दबाव अलग से बढ़ रहा था. लेकिन सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके बीच खौफ तारी होने लगा कि अगर वे कोरोना से संक्रमित अथवा किसी और बीमारी से भी पीड़ित हो गये तो इस संवेदनहीन समाज में उनकी देखभाल, तीमारदारी कौन करेगा. उन्हें सामाजिक तौर पर बहिष्कृत होना पड़ेगा और उनके साथ अगर कुछ गलत हो गया, किसी की मौत हो गई तो अपनों के बीच उनकी अंतिम क्रिया भी कैसे संभव हो सकेगी.
  
 सरकारी और निजी अस्पतालों का हाल बुरा था. निजी और बड़े, पांच सितारा अस्पतालों में जहां यकीनन अपेक्षाकृत इलाज और देख रेख की व्यवस्था बेहतर थी, कोरोना के इलाज का 10-15 लाख का पैकेज घोषित था जो गरीब क्या मध्यम वर्ग के लोगों की पहुंच से भी बाहर था. और सरकारी अस्पतालों में उनके लिए टाल मटोल और 'बेड खाली नहीं है' का टका सा जवाब था. उत्तर पूर्वी दिल्ली के मौजपुर में रहनेवाले हमारे रिश्तेदार हरिनारायण राम बरनवाल जून के पहले सप्ताह में कोरोना पाजिटिव होने और हल्के बुखार, खांसी और सांस लेने में दिक्कत बढ़ जाने के बावजूद इलाज के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटकते रहे. आधा दर्जन अस्पतालों में उन्हें बिना किसी तरह की जांच किए 'कोरोना नहीं है' का टका सा जवाब देकर  इस अस्पताल से उस अस्पताल भेजा जाता रहा. उनका दूसरा जवाब होता कि अस्पताल में वेंटिलेटर की सुविधायुक्त बेड खाली नहीं हैं. अंततः किसी तरह की पैरवी सिफारिश से उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कर लिया गया. अगले ही दिन जांच में वह कोरोना पॉजिटिव निकले. इलाज शुरू हुआ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. और 16 जून को उनके निधन की सूचना मिली. इस बीच उनके परिवार के शेष आठ सदस्यों की सुध किसी ने भी नहीं ली. उनके घर सभी के मोबाइल फोन में 'आरोग्य सेतु' नाम का एप  डाउनलोडेड होने के बावजूद कहीं से कोई पता-जांच करने नहीं आया और न ही उनके घर, गली को सैनिटाइज अथवा सील करने की आवश्यकता समझी गई. परिवार के सदस्यों ने खुद ही जाकर पास के किसी सरकारी अस्पताल में जांच करवाई तो पता चला कि आठ में से सात सदस्य पॉजिटिव हैं. हमने 16 जून को उनके बारे में भी ट्वीट किया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी परिवार की मदद की गुहार लगाई. लेकिन केंद्र सरकार के मंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री, कहीं से कोई सहायता-प्रतिक्रिया नहीं मिली. इधर घर में उनकी बहू, हमारी भतीजी (साले की पुत्री) ललिता को भी खांसी और सांस लेने में तकलीफ होने लगी. 17 जून को उनके दोनों बच्चों-श्रवण और संतोष बरनवाल के अपने पिता की अंत्येष्टि कर लौटे थे. ललिता की तकलीफ बढ़ने पर उसे आम आदमी पार्टी के विधायक सोमनाथ भारती के सहयोग से दिलशाद गार्डेन में स्थित राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में ले जाया गया. हालांकि वह डरी हुई थी और रो रोकर अस्पताल जाने से मना कर रही थी लेकिन परिवार और हमारे दबाव पर वह वहां भर्ती हो गई. अगले दिन, 18 जून को अस्पताल से उसके भी निधन की सूचना मिली. अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित रोगियों का क्या और किस तरह का इलाज हो रहा है, यह अभी भी अधिकतर मामलों में रहस्य ही बना हुआ है. यहां तक कि एम्स (अखिल भारतीय आयुर्वज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में एक पत्रकार तरुण सिसोदिया ने पांचवीं मंजिल से नीचे छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली. सरकार में बैठे तमाम बड़े लोगों, केंद्रीय और राज्य सरकारों के मंत्रियों ने सरकारी अस्पतालों के बजाय निजी क्षेत्र के पांच सितारा होनलों में भर्ती होकर इलाज करवाने की एक नई परिपाटी शुरू की जिससे आम लोगों के बीच अपने इलाज को लेकर चिंता और परेशानी औ भी बढ़ी. 

प्रवासियों की घर वापसी, अब शहर वापसी


बहरहाल, बेरोजगारी, भोजन-पानी और सिर ढकने के लिए छत के अभाव के साथ अस्पतालों की दुर्दशा और आम आदमी के इलाज की दुरुहता आदि कारण एक साथ जुटते गये और प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर बेगाना साबित हो रहे शहर-महानगर छोड़कर अपने गांव घर लौटना ही श्रेयस्कर लगा. वे लोग भूखे-प्यासे पैदल या जो भी साधन मिले उससे अपने गांव घर की ओर चल पड़े. जब ढील दिए जाने की जरूरत थी तब सख्ती बरती गई. मार्च-अप्रैल महीने तक कोरोना का कहर और प्रसार इस देश में उतना व्यापक और भयावह नहीं था जितना मई महीने के बाद से बढ़ गया है, लेकिन तब प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक तरफ तो रेल-बसें चलाने के बजाय उन्हें गांव-घर लौटने के लिए हतोत्साहित किया गया, दूसरी तरफ दिल्ली जैसे शहरों में सीमा पर प्रवासी मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने के लिए बसों का इंतजाम करने से संबंधित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के ट्वीट के बाद प्रवासी मजदूर लॉकडाउन और फीजिकल डिस्टैंसिंग को धता बताकर हजारों की संख्या में आनंद विहार रेलवे-बस स्टेशन के पास जमा हो गये, बिना विचारे कि उनकी भीड़ कोरोना के संक्रमण और प्रसार में सहायक सिद्ध हो सकती है. बाद में उन्हें बसों से दिल्ली के बाहर ले जाया गया. इसके साथ ही पैदल यात्रियों को रास्ते में मारा-पीटा, अपमानित भी किया गया. रास्ते में स्थानीय लोगों और कहीं कहीं पुलिस-प्रशासन की मानवीयता के लाभ भी उन्हें हुए. लोगों ने खाने-पीने की सामग्री से लेकर जगह-जगह उन्हें कुछ पैसे भी दिए.
कितने तरह के कष्ट झेलते हुए वे मजदूर और उनके परिवार सैकड़ों (कुछ मामलों में तो हजार से भी ज्यादा) किमी पैदल चलकर, सायकिल, ठेले, ट्रक, यहां तक कि मिक्सर गाड़ियों में छिपकर भी अपने गांव घरों को गये! उनमें से सौ से अधिक लोगों ने रास्ते में सड़कों पर कुचलकर, रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर या फिर भूख-प्यास और बीमारी से दम तोड़ कर जान गंवा दी. भोजन के अधिकार के लिए काम करनेवाले संगठन 'राइट टू फूड' के अनुसार 22 मई तक देश में भूख प्यास, दुर्घटना और इस तरह के अन्य कारणों से 667 लोग काल के मुंह में समा चुके थे. बाद के दिनों में इसमें और इजाफा ही हुआ है.

लेकिन जब देश और प्रदेशों की अर्थव्यवस्था भी दम तोड़ने और खस्ताहाल होने लगी, सरकारी खजाना खाली होने लगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने पर देशवासियों ने ताली-थाली बजा ली, एक घंटे घरों में अंधकार किया, मोम बत्ती और दिए भी जला लिए, देश के बड़े हिस्से में कोरोना का कहर भी रौद्र रूप धारण कर चुका है, हमारे हुक्मरान लॉकडाउन में ढील पर ढील दिए जा रहे हैं. शुरुआत शराब की दुकानें खोलने के साथ हुई. प्रदेशों की सीमाएं खोल दी गईं. रेल, बस, टैक्सी और विमानसेवाएं भी शुरू की जा रही हैं. हालांकि श्रमिक स्पेशल रेल गाड़ियों के कुप्रबंध के कारण इन रेल गाड़ियों के विलंबित गति से नियत स्टेशन के बजाय कहीं और पहुंचने की शिकायतें भी मिलीं. मुंबई से गोरखपुर के लिए निर्धारित स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंचा दी गई. इसमें लंबा समय लगा लेकिन रेलवे ने कहा कि ऐसा रूट कंजेशन को देखते हुए जानबूझकर मार्ग बदले जाने के कारण हुआ. लेकिन न तो इसकी पूर्व सूचना यात्रियों को दी गई और ना ही उनके लिए रास्ते में खाने-पीने के उचित प्रबंध ही किए गये. नतीजतन रेल सुरक्षा बल (आरपीएफ) के आंकड़ों के अनुसार ही अस्सी से अधिक लोग रेल गाड़ियों में ही मर गये.

 प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के साथ कोरोना अब देश के अन्य सुदूरवर्ती और ग्रामीण इलाकों में भी फैलने लगा है.वहां कोरोना की जांच, चिकित्सा और उन्हें क्वैरेंटाइन करने के पर्याप्त संसाधन और केंद्र भी नहीं हैं. फसलों की कटाई समाप्त हो जाने के कारण अब उनके लिए, गांव-घर के पास, जिले अथवा प्रदेशों में भी रोजी-रोटी के पर्याप्त साधन नहीं रह गये हैं. कहीं कहीं धान की रोपनी (बुआई) के काम हैं तो कहीं मनरेगा भी लेकिन यह सब प्रवासी मजदूरों को गांव घर में रोके रखने के लिए नाकाफी साबित हो रहे हैं. अगर रोजगार के उचित और पर्सायाप्त साधन होते ही तो इन्हें गांव-घर छोड़कर दूसरे राज्यों में क्यों जाना पड़ता! इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया है कि राज्य में एक करोड़ लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जा रही है. 70-80 लाख लोगों को रोजगार दिए भी जा चुके हैं. दरअसल, मनरेगा में पहले से ही लगे मजदूरों को उन्होंने नवश्रृजित रोजगार बताकर वाह वाही लूटने की कोशिश की. सच तो यह है कि अगर अपने ही राज्य में कायदे के रोजगार उपलब्ध हैं तो लोग दूसरे राज्यों के शहरों और महानगरों की ओर क्यों लौट रहे हैं. दावे चाहे कैसे भी किए जा रहे हों, लोगों के पास स्थानीय स्तर पर रोजगार नहीं मिल रहे हैं और लोग महानगरों की ओर लौट रहे हैं. 

   लॉकडाउन से ढील बढ़ने, अधिकतर राज्यों-इलाकों में अनलॉक होते जाने, कल-कारखाने, दुकानें खुलने, टैक्सी, ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा और रिक्शा चलने लगने और निर्माण कार्य शुरू होने के कारण शहरों-महानगरों में श्रमिक-मजदूरों की किल्लत शुरू होने लगी है. पहले से भी ज्यादा मजदूरी देने के वादे किए जाने लगे हैं. जाहिर सी बात है कि बेहतर मजदूरी के साथ रोजगार के अवसर बढ़ने के कारण प्रवासी मजदूरों का बड़ा तबका शहरों-महानगरों की ओर वापसी कर रहा है. आंकड़े बता रहे हैं कि रोजाना शहरों-महानगरों में प्रवासी मजदूरों की आमद हजारों के हिसाब से बढ़ रही है. लेकिन आते समय वह अपने साथ कोरोना के वायरस नहीं लाएंगे, इसकी गारंटी कोई दे सकता है! साफ है कि हमारे शासकों-प्रशासकों में दूर दृष्टि के अभाव और उनके तुगलकी फैसलों के कारण पहले कोरोना का अदृश्य वायरस शहरों से गांवों में गया और अब वह ग्रामीण इलाकों से शहरों में लौट रहा है! शहरों में नए सिरे से कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी है.