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Tuesday, 21 September 2021

Hal Filhal : Congress Master Stroke In Punjab !


पंजाब में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2DV4tvcoloo

   
     
इस समय राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन का दौर सा चल रहा है. एक सप्ताह पहले ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ वाली राजनीतिक शैली में भाजपा के आलाकमान ने गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी समेत उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में 24 सदस्यों की नई मंत्रि परिषद बनवा दी. उसके सप्ताह भर बाद ही विधायकों के भारी विरोध के मद्देनजर कांग्रेस के आलाकमान ने भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह अपेक्षाकृत युवा, दलित सिख नेता चरणजीत सिंह चन्नी के हाथों में पंजाब की कमान देकर ‘राजनीतिक खेला’ कर दिया है.
    
चरणजीत सिंह चन्नी के साथ राहुल गांधी : पंजाब में पहले
 दलित मुख्यमंत्री का 'मास्टर स्ट्रोक'
    पहली बार किसी दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाए जाने को कांग्रेस या कहें राहुल गांधी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा रहा है. तीन बार विधायक, एक बार नेता विरोधी दल और हाल तक अमरिंदर सिंह की सरकार में मंत्री रहे चन्नी के नाम और चेहरे को न सिर्फ पंजाब के 32 फीसदी अनुसूचित जाति के मतदाताओं के बीच बल्कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भी भुनाया जा सकता है. उनके साथ जाट सिख नेता सुखजिंदर सिंह उर्फ सुक्खी रंधावा और हिंदू नेता ओमप्रकाश सोनी को उपमुख्यमंत्री का भी शपथ ग्रहण करवा कर पंजाब में सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन बिठाने की कोशिश भी की गई है. एक और जाट सिख नवजोत सिंह सिद्धू को पहले ही पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा चुका है. अब पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के लिए भी एक दलित सिख समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री का विरोध मुश्किल होगा. चन्नी को कांग्रेस आलाकमान का वरदहस्त भी प्राप्त है. उनके शपथग्रहण कार्यक्रम में राहुल गांधी खुद भी शामिल हुए.

   चुनावों के मद्देनजर नेतृत्व परिवर्तन !

    
    
भूपेंद्र पटेल के साथ नरेंद्र मोदी : नए मुख्यमंत्री के साथ नई मंत्रिपरिषद
पंजाब 
के साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी चार-पांच महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं. गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा के चुनाव अगले साल ही नवंबर-दिसंबर में कराए जाएंगे. इन नेतृत्व परिवर्तनों को आगामी विधानसभा चुनावों के साथ जोड़कर भी देखा जा रहा है. 2022 के विधानसभा चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहे हैं, राजनीतिक दल चुनावी जीत सुनिश्चित करने की गरज से अपने संगठन और सरकार को चुस्त-दुरुस्त करने और आवश्यक होने पर नेतृत्व में फेरबदल की कवायद में भी जुट गए हैं. भाजपा के आलाकमान ने इन चुनावों के मद्देनजर ही पहले उत्तराखंड में दो-दो मुख्यमंत्री बदल दिए. और अभी एक सप्ताह पहले गुजरात में न सिर्फ अपने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी बल्कि उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को ही नाकारा और नाकाबिल मान कर उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया. यहीं नहीं उनके लिए 24 सदस्यों की नई मंत्रिपरिषद भी बनवा दी गई जिसमें रूपाणी मंत्रिपरिषद के एक भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया. हालांकि इस नेतृत्व परिवर्तन के समय किसी का जाहिरा विरोध सामने नहीं आया था, मीडिया से बातें करते समय रूपाणी सरकार में उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे पाटीदार समाज के कद्दावर नेता नितिन पटेल की आंखों में आंसू छलक आए थे. पार्टी में अंदरूनी विरोध को लेकर ही मंत्रिपरिषद की घोषणा और मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह को एक दिन के लिए टालना पड़ गया था.
आहत मन नितिन पटेल: इस बार भी सिली मायूशी

    उत्तराखंड, असम और कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के बाद भाजपा आलाकमान की इच्छा तो उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन की थी लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आलाकमान के सामने झुकने के बजाय तनकर खड़े हो जाने के कारण यह संभव नहीं हो सका. यहां तक कि आलाकमान की इच्छानुसार वह अपनी मंत्रिपरिषद में फेरबदल को भी राजी नहीं हुए. विवश होकर भाजपा आलाकमान को कहना पड़ा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. भाजपा में अभी हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें लगाई जा रही हैं. देर-सबेर उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन के अनुमान भी लगाए जा रहे हैं. इसका कारण चाहे चुनावों से पहले पार्टी और सरकार में ‘ओवरहालिंग’ रहा हो या फिर पश्चिम बंगाल में चुनावी हार और वहां लगातार हो रही दुर्गति के कारण प्रधानमंत्री मोदी की चुनाव जितानेवाली साख में आ रही कमी, भाजपा आलाकमान राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन के जरिए संगठन और सरकार पर भी उनकी मजबूत पकड़ के संकेत देना चाहता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पार्टी और संघ परिवार में भी गाहे-बगाहे हिंदुत्व के एक अन्य ‘पोस्टर ब्वॉय’ के रूप में उभर रहे या उभारे जा रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भविष्य में उन्हें राजनीतिक चुनौती मिलने के कयास भी लगते रहते हैं. हालांकि केंद्र से लेकर राज्यों में भी सत्तारूढ़, भाजपा के आलाकमान और संघ के नेतृत्व की मजबूती और अंदरूनी अनुशासन के चलते भी भाजपा शासित राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन बहुत खामोशी और सुगमता के साथ संपन्न हो गया लेकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं हो सका.

कांग्रेस को करनी पड़ी मशक्कत     


    
नवजोत सिंह सिद्धू के साथ चरणजीत सिंह चन्नी:आगे क्या !
    गुजरात में भाजपा का नेतृत्व परिवर्तन जितनी सहजता से संपन्न हो गया, कांग्रेस को पंजाब में इसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी. पद से हटने या हटाए जाने के बाद से ही खुद को अपमानित महसूस करते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बागी तेवर अपना लिया. वह सोमवार को चरणजीत सिंह चन्नी, रंधावा और उनके करीबी कहे जानेवाले सोनी के शपथग्रण समारोह में भी नहीं आए. अपने उसी फार्म हाउस में बैठे रहे, जहां से उन पर हाल तक अपनी सरकार चलाते रहने के आरोप लगते रहे. उनके त्यागपत्र के बाद पहले तो उनकी सरकार में असंतुष्ट मंत्री रहे सुखजिंदर सिंह रंधावा को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुने जाने और उनके साथ दलित महिला अरुणा चौधरी और हिंदू समाज से भारत भूषण ‘आशु’ को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की बात सामने आई लेकिन रंधावा ने जिस प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के साथ मिलकर कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ खुली बगावत की, आखिरी समय में उन्हीं के विरोध की वजह से वह मुख्यमंत्री नहीं बन सके. उनका नाम सामने आने पर सिद्धू ने मुंह फुला लिया था. सिद्धू खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष रहते आलाकमान उन्हें मुख्यमंत्री बनाने को राजी नहीं था और फिर उनके नाम पर अमरिंदर सिंह ने वीटो भी लगा दिया था. सिद्धू को अभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता, यह स्पष्ट होने के बाद उन्होंने किसी और जाट सिख नेता के बजाय किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की बात चलाई जिस पर कांग्रेस आलाकमान भी राजी हो गया. और इस तरह से कांग्रेस विधायक दल में चरणजीत सिंह चन्नी के नाम पर सहमति बनाई गई. इसके साथ ही सुखजिंदर सिंह रंधावा और अमृतसर से लगातार पांचवीं बार विधायक ओमप्रकाश सोनी को उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात तय हुई.

सुखजिंदर सिंह रंधावा: मुख्यमंत्री बनते-बनते
बन गए उप मुख्यमंत्री
    राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह ही कांग्रेस आलाकमान पर एक अरसे से पंजाब में भी नेतृत्व परिवर्तन के लिए अंदरूनी दबाव बना हुआ था. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस का आलाकमान अभी तक कोई निर्णय नहीं कर सका है लेकिन पंजाब आसन्न विधानसभा के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान को फैसला करना ही पड़ा. 80 सदस्यों के कांग्रेस विधायक दल में 50-60 विधायकों के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विरोध में लामबंद हो जाने और 17 सितंबर को नेतृत्व परिवर्तन के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने के बाद आलाकमान को भी लगने लगा कि विधायकों का विश्वास खोते जा रहे अमरिंदर सिंह की कप्तानी में कांग्रेस की चुनावी नाव पार नहीं लग सकेगी. हालांकि गांधी परिवार और खासतौर से सोनिया गांधी के साथ उनके पति स्व. राजीव गांधी के जमाने से ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के पारिवारिक रिश्ते बहुत करीबी रहे हैं. पंजाब में वह कांग्रेस के सबसे बड़े जनाधारवाले कद्दावर लेकिन बुजुर्ग नेता भी हैं. अन्य राज्यों में भाजपा की मोदी लहर के बावजूद अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हो सकी थी. श्रीमती गांधी के कहने पर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते अमृतसर में अरुण जेटली के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़कर उन्हें धूल भी चटाई थी. 

कैप्टन के विरोध में अपने ही लामबंद 

    
    लेकिन अगले साल मार्च महीने में उम्र के 80 साल पूरा करनेवाले कांग्रेस के इस कैप्टन के खिलाफ पिछले कई महीनों से उनकी अपनी ही पार्टी के नेता-विधायकों का बड़ा तबका लामबंद हो रहा था. पार्टी के नेता, विधायक और मंत्री भी उनके खिलाफ कांग्रेस के चुनावी वादों को पूरा नहीं करने, ड्रग्स रैकेट के साथ ही बेअदबी मामले में विपक्षी अकाली दल के नेतृत्व के प्रति नरमी बरतने, पार्टी के विधायकों की उपेक्षा, नौकरशाही के भरोसे ‘महाराजा स्टाइल’ में अपने फार्म हाउस से सरकार चलाने के गंभीर आरोप खुलेआम लगा रहे थे. भाजपा से कांग्रेस में आए पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू अपने सहयोगी विधायक, भारतीय हाकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह के साथ मिलकर असंतुष्ट विधायकों को लामबंद करने के साथ ही उनके असंतोष को लगातार हवा दे रहे थे. हालांकि गांधी परिवार के साथ उनकी करीबी के कारण उनके विरुद्ध अंदरूनी कलह और पार्टी के विधायकों के विरोध के हर दाव विफल साबित हो रहे थे.

कैप्टन अमरिंदर सिंह: अपमानित !
    लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आलाकमान से अपनी करीबी का लाभ लेकर समय रहते असंतुष्टों के साथ सुलह-सफाई की कोशिश नहीं की. यहां तक कि कई बार बुलाकर समझाने और अपनी कार्यशैली में सुधार करने के कांग्रेस आलाकमान के निर्देशों की भी वह अनदेखी ही करते रहे. वह पंजाब में दो-तीन नौकरशाहों के भरोसे एक स्वतंत्र, स्वेच्छाचारी क्षत्रप की तरह से अपने फार्म हाउस से सरकार चला रहे थे. किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री को पार्टी चलाने के लिए दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय को फंड देना होता है, लेकिन पंजाब से उन्होंने एक धेला भी नहीं दिया. आम जनता तो दूर पार्टी के विधायक भी उनसे मिल नहीं पाते थे. कांग्रेस के नेता बताते हैं कि उनके सुबह सो कर उठने, तैयार होकर किसी से मिलने का समय दोपहर बारह बजे के बाद शुरू होता है. यह बात भाजपा नेता अरुण जेटली ने भी 2014 में अमृतसर से उनके विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ते समय एक प्रेस कान्फ्रेंस में कही थी. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसके जवाब में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “जेटली गलत बोल रहा है, मैं दिन में एक बजे के बाद ही किसी से मिलता हूं.” पिछले दिनों केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग को नया रंग रूप दिया तो राहुल गांधी ने यह कहकर उसका विरोध किया था कि शहीदों की निशानियों के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इस मामले में राहुल गांधी के बयान का समर्थन करने के बजाय केंद्र सरकार के पक्ष में बयान दिया. और भी कई अवसरों पर वह प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के पक्ष में बोलते रहे. वह जब भी दिल्ली आते, प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से अवश्य मिलते थे. हाल के महीनों में राहुल गांधी और प्रियंका वैसे भी उन्हें पसंद नहीं करते थे, जलियांवाला बाग प्रकरण में अमरिंदर के सरकार समर्थक बयान को लेकर उनके प्रति आलाकमान की नाराजगी और बढ़ गई.

आलाकमान का भरोसा भी टूटा

    
    
सोनिया गांधी और राहुल: भारी मन से कहना पड़ा 'सारी अमरिंदर'
इस
बीच बड़बोले और वाचाल छवि के नवजोत सिंह सिद्धू लगातार अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री के विरुद्ध विपक्ष के किसी नेता से भी तीखी और आक्रामक भाषा में आरोप लगाते रहे. उन्हें शांत करने की गरज से कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को अध्यक्ष बनाकर प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप दी. लेकिन सिद्धू के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी कैप्टन और क्रिकेटर का झगड़ा सुलझ नहीं सका. कई बार एक मंच पर होने के बावजूद दोनों के बीच के रिश्तों की कड़वाहट खुलकर सामने आते रही. अमरिंदर सरकार के खिलाफ सिद्धू की बयानबाजी जारी रही तो अमरिंदर सिंह भी उनके विरुद्ध अपनी भड़ांस निकालते रहे. इस क्रम में सिद्धू अमरिंदर विरोधी विधायकों को एकजुट करते हुए आलाकमान तक यह बात पहुंचाने में कामयाब रहे कि कैप्टन के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस पंजाब का चुनाव नहीं जीत सकती. कई बार की चेतावनियों के बाद भी जब बात नहीं बनी और 50-60 विधायकों ने अमरिंदर के विरोध में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अल्टीमेटम सा दे दिया तो सोनिया गांधी ने उन्हें भारी मन से ‘आइ एम सॉरी अमरिंदर’ कहा और चंडीगढ़ में विधायक दल की बैठक बुलाए जाने की बात बताई.आलाकमान के इस फैसले से आहत और अपमानित महसूस करते हुए अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया और उससे पहले ही राजभवन जाकर राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को अपना त्यागपत्र थमा दिया. हालांकि विधायक दल की बैठक में कांग्रेस के 80 में से 78 विधायक शामिल हुए. बैठक में अमरिंदर सिंह के कार्यकाल और उनके कामकाज की सराहना का एक प्रस्ताव भी पारित करते हुए भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन मिलते रहने की उम्मीद जाहिर की गई.
अमरिंदर सिंह: बागी तेवर !

    लेकिन कैप्टन ने अपने राजनीतिक भविष्य का विकल्प खुला होने और कोई भी फैसला अपने साथियों-सहयोगियों से मंत्रणा के बाद ही करने की बात कही. जब उनके उत्तराधिकारी के चुनाव की बात चल रही थी, उन्होंने साफ कर दिया था कि मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धू उन्हें कतई कबूल नहीं. उन्होंने सिद्धू को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा का मित्र भी बताते हुए कहा कि उनकी राय में सीमावर्ती राज्य पंजाब में सिद्धू का मुख्यमंत्री बनना देश हित में नहीं होगा. यह कह कर एक तरह से कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिद्धू के नाम पर न सिर्फ वीटो सा लगा दिया बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य का संकेत भी दे दिया है. उन्होंने परोक्ष रूप से भाजपा की भाषा बोलते हुए राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अपने प्रदेश अध्यक्ष और कांग्रेस को भी घेरने की कोशिश की क्योंकि सिद्धू मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो हैं ही. भाजपा ने इस बात को लेकर कांग्रेस की आलोचना भी की. लेकिन कांग्रेस नेताओं का एक बड़ा तबका और राजनीतिक प्रेक्षक भी सिद्धू के बारे में अमरिंदर सिंह के द्वारा कही गई बातों को जायज नहीं मानते. सिद्धू के विरोध में तमाम बातें कही जा कती हैं लेकिन उन पर इस तरह का आरोप चस्पा नहीं होता. कुछेक कार्यक्रमों में शिरकत और मुलाकातों के आधार पर किसी को पाकिस्तान, उसके प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष का मित्र नहीं कहा जा सकता. वैसे भी सिद्धू और इमरान खान क्रिकेटर रह चुके हैं और इस लिहाज से उनकी पहले से ही मेल-मुलाकात स्वाभाविक है. पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भाजपा पर पलटवार करते हुए कहा कि इमरान खान के साथ सिद्धू की मित्रता तब से है जब वह भाजपा में थे. और करतारपुर साहिब कारिडोर खोले जाते समय अगर पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बाजवा और सिद्धू गले मिले तो इसमें गलत क्या था. हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी तो उनके घर जाकर पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से गले मिले थे. उनके साथ बिरयानी खाई थी. कांग्रेस के एक और नेता याद दिलाते हैं कि कैप्टन पर भी तो उनके राजनीतिक विरोधी पाकिस्तान की एक प्रभावशाली डिफेंस जर्नलिस्ट अरूसा आलम के साथ वर्षों से गहरे और अंतरंग रिश्ते होने के आरोप लगते रहे हैं. इससे उनकी देशभक्ति पर सवाल तो नहीं किए जा सकते.

चन्नी के सामने चुनौतियां


    देखने वाली बात यह होगी कि पंजाब में पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में सरकार की कमान संभाल चुके चरणजीत सिंह चन्नी के बारे में कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुख क्या होता है. आज वह उनके शपथग्रहण समारोह में नहीं आ सके. अभी भी कांग्रेस के एक-डेढ़ दर्जन विधायकों के उनके साथ होने की बात कही जा रही है. हालांकि नेतृत्व परिवर्तन के बाद इनमें से कितने उनके साथ रह जाएंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन इससे इतर नये मुख्यमंत्री  चन्नी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगले चार-पांच महीनों में ही होनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करने की होगी. इसके लिए न सिर्फ कैप्टन अमरिंदर सिंह बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और कई खेमों में बंटी कांग्रेस के गुटबाज नेताओं को भी साधना होगा. बड़बोले सिद्धू को नियंत्रित रखना अपनेआप में ही एक बड़ी चुनौती होगी. अभी उन्हें अपनी मंत्रिपरिषद का गठन भी करना होगा. उनके दो उपमुख्यमंत्रियों में से एक सिद्धू के तो दूसरे कैप्टन अमरिंदर सिंह के करीबी बताए जाते हैं. चन्नी खुद भी सिद्धू के साथ मिलकर अमरिंदर सिंह के विरुद्ध झंडा उठाए रहते थे. उन्हें संगठन और सरकार में तालमेल बिठाना पड़ेगा. अमरिंदर सिंह की सरकार के रहते कांग्रेस के तकरीबन डेढ़ दर्जन अधूरे वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी चन्नी सरकार पर होगी. इन अधूरे वादों को लेकर विपक्ष से अधिक कांग्रेस के चन्नी सहित तमाम असंतुष्ट नेता, विधायक अमरिंदर सरकार के विरुद्ध हमलावर रहे हैं. इसके अलावा उनका खुद का दामन भी बेदाग नहीं रहा है. अमरिंदर सरकार में मंत्री रहते कई तरह के आरोपों के साथ उनको लेकर विवाद खड़े होते रहे हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद विपक्ष उन्हें मुद्दा बना सकता है. एक महिला आइएएस अधिकारी को उनके द्वारा अतीत में अश्लील मेसेज भेजने का मामला भी तूल पकड़ सकता है. भाजपा की नेता और महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने इस मुद्दे को अभी से उछालना शुरू कर दिया है. 

    
हरीश रावत: बयान को लेकर गलतफहमी!
    इस बीच पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत के एक बयान को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया है. रावत ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि पंजाब में विधानसभा का अगला चुनाव प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो क्या चन्नी केवल चुनाव तक ही मुख्यमंत्री रहेंगे! इसको लेकर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने आपत्ति की है. नेतृत्व परिवर्तन के समय मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए जाखड़ ने ट्वीट कर कहा कि रावत का यह बयान चौंकाने वाला है. मुख्यमंत्री के अधिकार और उनकी राजनीतिक हैसियत को कमजोर करने की कोशिश है. हालांकि इसके तुरंत बाद ही कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष रणदीप सिंह सुरजेवाला ने आधिकारिक रूप से स्पष्ट किया कि विधानसभा के चुनाव मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़े जाएंगे. चुनाव अभियान में पार्टी के अन्य बड़े नेता भी शामिल होंगे. 

कारगर होगा मास्टर स्ट्रोक !

    
    पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ कितना कारगर होगा, इसका पता विधानसभा के अगले चुनाव में ही चल सकेगा. नया नेतृत्व कांग्रेस की चुनावी नाव को पार लगा सकेगा या इसका हश्र भी वैसा ही होगा जैसा अप्रैल 1996 में पंजाब में ही चुनाव से 10-11 महीने पहले कांग्रेस के हरचरण सिंह बराड़ की जगह राजेंद्र कौर भट्टल को मुख्यमंत्री बनाने के बाद हुआ था. उस चुनाव में कांग्रेस को बुरी पराजय का सामना करना पड़ा था. हालांकि कांग्रेस आलाकमान और उसके रणनीतिकारों का मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन से अमरिंदर सिंह और उनकी सरकार के विरुद्ध ‘ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ काफी हद तक निष्प्रभावी हो सकेगा. चन्नी सरकार अमरिंदर सरकार के कुछ महत्वपूर्ण अधूरे कार्यों को पूरा करके पंजाब के लोगों का दिल जीत सकती है. चरणजीत सिंह चन्नी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेंस में केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खुला विरोध, किसान हितों के लिए कुरसी क्या जान भी कुरबान करने, बेअदबी और ड्रग रैकेट के गुनहगारों को उनके किए की कड़ी सजा दिलाने, किसानों के बिजली के बकाया बिल माफ करने, कमजोर तबके के लोगों के लिए बिजली पानी मुफ्त करने जैसी घोषणाएं करके सकारात्मक पहल की है. उनके पास समय कम है और काम अधिक लेकिन वह इस तरह की ठोस शुरुआत के जरिए अपनी और अपनी सरकार की प्राथमिकताओं को सामने रखकर पंजाब के मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश कर सकते हैं. पंजाब में पहली बार किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने न सिर्फ पंजाब में अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की बल्कि किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने के भाजपा के और किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने के आम आदमी पार्टी के चुनावी वादे की भी हवा निकाल दी है. कांग्रेस की कोशिश चरणजीत सिंह चन्नी को घुमाकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी अपने परंपरागत जनाधार रहे अनुसूचित जाति के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की भी हो सकती है. इसके मद्देनजर उत्तर प्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बसपा सुप्रीमो मायावती के वक्तव्यों और ट्वीट में अभी से बेचैनी नजर आने लगी है. भाजपा कांग्रेस के दलित प्रेम को चुनावी बता रही है. लेकिन कांग्रेस ते पहले भी कई दलित नेताओं को कई राज्यों में मुख्यमंत्री बना चुकी है, भाजपा ने अभी तक किसी राज्य में किसी दलित को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया ! जाहिर सी बात है कि पंजाब में कांग्रेस के इस दलित कार्ड या कहें मास्टर स्ट्रोक का जवाब भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के पास भी नहीं दिख रहा है.








Monday, 9 August 2021

Hal Filhal : AGGRESSIVE OPPOSITION AND ARROGANT GOVERNMENT

आक्रामक विपक्ष और बौखलाती सरकार


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2MXvfVUG-6E
    
    पेगासस जासूसी प्रकरण को लेकर मोदी सरकार की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रहीं. बिना किसी चर्चा और बहस के पास हुए कुछ विधेयकों को छोड़ दें तो पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा और इसकी स्वतंत्र जांच की मांग को लेकर विपक्ष के हल्ला-हंगामे के कारण संसद के मानसून सत्र का तीसरा सप्ताह भी बाधित ही रहा. विधिवत विधायी कार्य नहीं हो सके. इस बीच मामले की स्वतंत्र जांच से संबंधित याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य ऩ्याधीश एन वी रमण ने मीडिया रिपोर्ट्स के मद्देनजर पेगासस जासूसी मामले को अत्यंत गंभीर मामला बताया है. सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी है.

    दूसरी तरफ, संसद से लेकर सड़क तक पेगासस जासूसी प्रकरण के साथ ही किसान आंदोलन, महंगाई और बेरोजगारी के सवाल पर आक्रामक विपक्ष की एकजुटता के प्रयास तेज हो रहे हैं. विपक्ष की आक्रामकता और एकजुटता की कवायद को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी, उनकी सरकार के मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता इन मुद्दों पर संसद में चर्चा कराने के बजाए संसद नहीं चलने देने के लिए विपक्ष को जिम्मेदार ठहराते हुए उसे ही कोस रहे हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्ष पर संसदीय गतिरोध के जरिए देश हित विरोधी राजनीति तथा संसद का अपमान करने का आरोप भी लगाया है. ओलंपिक खेलों का संदर्भ लेकर उन्होंने कहा है कि एक तरफ देश जीत के गोल पर गोल कर रहा है, वहीं कुछ लोग ‘सेल्फ गोल’ करने में लगे हैं.
 
    
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी: विपक्ष 'सेल्फ गोल' कर रहा है!
    जब देश के प्रधानमंत्री विपक्ष के बारे में इस तरह की भाषा बोल रहे हों तो भला उनके मंत्री और पार्टी के प्रवक्ता पीछे कैसे रह सकते हैं. कल तक केंद्र सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे भाजपा के प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा है कि कांग्रेस के डीएनए में संसद के सम्मान के संस्कार ही नहीं हैं. ऐसा कहते हुए वे और उनके नेता भूल जा रहे हैं कि उनकी पार्टी ने संप्रग सरकार के जमाने में किस तरह से संसद के सत्र दर सत्र बाधित किए थे. तब उन्हें संसद में हल्ला-हंगामा विपक्ष का संसदीय दायित्व और लोकतांत्रिक अधिकार लगता था लेकिन अब विपक्ष की वही, संसद में विपक्ष में रहते भाजपावाली भूमिका उन्हें देश हित के विरुद्ध और संसद का अपमान नजर आ रही है.

    लेकिन सत्ता पक्ष के इस अहंकार और बौखलाहट का विपक्ष की आक्रामकता पर खास असर नहीं पड़ रहा है. तकरीबन एकजुट विपक्ष पेगासस जासूसी प्रकरण पर चर्चा होने तक 13 अगस्त तक के लिए निर्धारित मालसून सत्र के दौरान संसद के दोनों सदनों को बाधित करने पर अडिग है. और अब तो विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी के सवाल को इसके साथ जोड़ते हुए सड़क पर भी उतरने लगा है. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी की चाय-नाश्ते पर आयोजित बैठक के बाद इन दलों के नेता-सांसद संसद भवन तक साइकिल यात्रा लेकर गए. जासूसी प्रकरण से लेकर पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि के प्रतीकात्मक विरोध के रूप में हुई इस साइकिल यात्रा में शामिल राहुल गांधी से लेकर विपक्ष के अन्य सांसदों के पास प्लेकार्ड्स थे जिन पर पेगासस जासूसी प्रकरण से लेकर महंगाई और बेरोजगारी के विरोध में नारे लिखे थे.

राहुल गांधी का सड़क से संसद तक का साइकिल मार्च

    इससे पहले वह ट्रैक्टर पर सवार होकर भी संसद गए थे. साइकिल मार्च के दो दिन बाद इन्हीं मांगों के साथ युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने नई दिल्ली में संसद भवन के पास पुलिस की तरफ से तेज धार पानी की बौछारों के बीच भारी विरोध प्रदर्शन किया. अगले दिन राहुल गांधी के साथ इन दलों के नेता और सांसद किसानों के धरने में भी शामिल हुए. देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्य वृद्धि के विरोध में और किसान आंदोलन के समर्थन में साइकिल ट्रैक्टर मार्च किया.


    ममता की जीत से विपक्ष को मिली ताकत ! 


    दरअसल, एक अरसे तक पस्तहाल लग रहे विपक्षी दलों के लिए बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजों ने एक तरह के राजनीतिक आक्सीजन का काम किया है. उनके भीतर यह एहसास भरने लगा है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी अपराजेय नहीं रह गई है. बिहार में तो बहुत कम अंतर से विपक्ष सरकार बनाने से चूक गया लेकिन पश्चिम बंगाल में एक बार फिर खुद के बूते विजेता के रूप में उभर कर आई ममता बनर्जी में विपक्ष को एकजुटता के लिए एक सीमेंटिंग फोर्स के अलावा प्रधानमंत्री मोदी को चुनौती दे सकनेवाली जुझारू नेता भी नजर आने लगी है. ममता बनर्जी ने खुद भी बंगाल से बाहर निकल कर राष्ट्रीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के संकेत देने शुरू कर दिए हैं. उनके लिए चुनावी रणनीतिकार की भूमिका निभानेवाले प्रशांत किशोर अलग से सक्रिय हैं. उन्होंने शरद पवार से लेकर विपक्ष के अन्य प्रमुख नेताओं से मिलना जुलना और उनकी नब्ज टटोलना शुरू कर दिया है. शरद पवार और ममता बनर्जी ने भी विपक्ष के नेताओं से अलग अलग मुलाकातों में भाजपा को मजबूत चुनौती देने की गरज से विपक्ष की एकजुटता और मोर्चा बनाने पर बल दिया है. ममता बनर्जी ने अपनी हाल की दिल्ली यात्रा में अन्य नेताओं के साथ ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और निवर्तमान अध्यक्ष सोनिया गांधी से भी मुलाकात की.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के साथ ममता बनर्जी: 
 विपक्ष को एकजुट करने की कवायद
    विपक्ष को एकजुट करने की इस मुहिम के कुछ गलत अर्थ नहीं निकलें, इसके लिए शरद पवार से लेकर ममता बनर्जी ने भी यह साफ करने की कोशिश की है कि कांग्रेस को परे रखकर विपक्ष की कोई एकजुटता कारगर नहीं हो सकेगी. लोकसभा की तकरीबन आधी सीटें ऐसी हैं जिन पर भाजपा का सीधा मुकाबला कांग्रेस से ही है. इस सबसे उत्साहित होकर ही राहुल गांधी ने नई दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में 16 विपक्षी दलों के नेताओं को चाय नाश्ते पर बुलाया. इनमें से विपक्ष की छोटी-बड़ी 14 पार्टियों के नेता तो बैठक में आए लेकिन बहुजन समाज पार्टी और आम आदमी पार्टी के नेता-प्रतिनिधि इस बैठक से दूर ही रहे. इनके बैठक में शामिल नहीं होने के अन्य कारणों के साथ एक कारण यह भी है कि ये लोग उत्तर प्रदेश और दिल्ली तथा पंजाब में विपक्ष की एकजुटता के स्वरूप को लेकर संशय में दिखते हैं. कभी विपक्षी एकता या कहें तीसरे मोर्चे की धुरी रहे चंद्र बाबू नायडू की तेलुगु देशम पार्टी के नेता भी इस बैठक में नहीं दिखे. ओडिशा, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में सत्तारूढ़ बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाय एस आर कांग्रेस ने भी फिलहाल विपक्षी एकजुटता की इस कवायद से दूरी बनाकर रखी है. ये दल अभी भाजपा और कांग्रेस से समान दूरी बनाए रखने की नीति पर ही चल रहे हैं.

    विपक्ष की एकजुटता कुछ खास मुद्दों पर मोदी और भाजपा विरोध तक ही सीमित होगी या फिर इसके आगे चुनावी मैदान में भी एक सशक्त वैकल्पिक चेहरे को सामने रखकर सामूहिक रणनीति तैयार करने की दिशा में ठोस कदम भी बढ़ाएगी! क्या वैकल्पिक नीतियों और कार्यक्रमों पर भी विचार होगा. तकरीबन सभी दल किसान आंदोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन कृषि कानूनों के भविष्य पर कोई खुलकर कुछ नहीं बोल रहा है. इस तरह के कई और सवालों पर भी विपक्ष के नेताओं को मिल-बैठकर विचार करना और एकजुट विपक्ष के लिए आम राय पर आधारित एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम तौयार करना होगा, जो सिर्फ कागजों पर ही नहीं होगा, सत्तारूढ़ होने पर उस पर अमल का आश्वासन भी होगा. वैसे, 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इस काम के लिए विपक्ष के पास अभी काफी समय है. लेकिन तैयारियां तो अभी से करनी होंगी. ममता बनर्जी ने कहा भी है, "मैं नहीं जानती कि 2024 में क्या होगा? लेकिन इसके लिए अभी से तैयारियाँ करनी होंगी. हम जितना समय नष्ट करेंगे, उतनी ही देरी होगी. बीजेपी के ख़िलाफ़ तमाम दलों को मिल कर एक मोर्चा बनाना होगा." जहां तक एकजुट विपक्ष के नेतृत्व का सवाल है, ममता साफ साफ कुछ कहने के बजाय गोल मोल बातें करती हैं. लेकिन कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने साफ किया है कि उनके लिए विपक्ष की एकजुटता महत्वपूर्ण है, चेहरा नहीं. 

    बदले से नजर आते हैं नीतीश कुमार !

    
ओमप्रकाश चौटाला के साथ नीतीश कुमार (बीच में) और उनकी पार्टी
के महासचिव के सी त्यागी:
 तीसरे मोर्चे की कवायद!

    इस बीच हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद की जेल से बाहर आने के बाद बढ़ी राजनीतिक सक्रियता को भी विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों की कड़ी में भी देखा जा रहा है. इंडियन नेशनल लोकदल के अध्यक्ष चौटाला ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मुलाकात के बाद तीसरे मोर्चे के गठन पर बल दिया. इसी कड़ी में उन्होंने जनता दल (एस) के अध्यक्ष, पूर्व प्रधानमंत्री एच डी देवेगौड़ा और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, सांसद मुलायम सिंह यादव से भी मुलाकात की. इन मुलाकातों में भी चर्चा किसान आंदोलन से लेकर तीसरे मोर्चे के पुनर्जीवन को लेकर ही प्रमुख रही.  वहीं सोनिया गांधी के करीबी कहे जानेवाले लालू प्रसाद ने भी पिछले दिनों शरद पवार, मुलायम सिंह यादव और शरद यादव के साथ लंबी मुलाकातें की. ममता बनर्जी के साथ भी लालू प्रसाद और उनके पुत्र तेजस्वी यादव के करीबी संबंध हैं. तेजस्वी और राजद ने चुनाव में ममता बनर्जी को खुला समर्थन दिया था. लालू प्रसाद की सक्रियता के मद्देनजर बिहार में राजनीतिक उलटफेर के कयास भी लगने लगे हैं. लेकिन  नीतीश कुमार किसी विपक्षी गठबंधन में शामिल होंगे कि नहीं, यह कह पाना किसी के लिए भी अभी दुरूह कार्य हो सकता है. लेकिन यह बात तो दावे के साथ कही जा सकती है कि बिहार में भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करते हुए भी वे खुद को पहले की तरह सहज महसूस नहीं कर पा रहे हैं. दूसरी तरफ, भाजपा भी उन्हें राजनीतिक रूप से घेरने और कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही. जद यू के नेताओं का बड़ा तबका बिहार में अपने खराब चुनावी प्रदर्शन के लिए चिराग पासवान के साथ ही परोक्ष रूप से भाजपा को भी जिम्मेदार मानते हैं. वे सवाल करते हैं कि साझा सरकार चलानेवाले दोनों दलों में से एक को विधानसभा की 74 और दूसरे को केवल 43 सीटें कैसे मिल सकीं.

मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के साथ लालू प्रसादः
 पारिवारिक मिलन से आगे भी कुछ और!

    बिहार विधानसभा चुनाव के कुछ ही समय बाद अरुणाचल प्रदेश में राजनीतिक जरूरत नहीं होने के बावजूद भाजपा ने जनता दल यू के सात में से छह विधायकों को तोड़कर अपनी पार्टी में शामिल कर लिया. भाजपा का यह राजनीतिक फैसला भी जद यू नेतृत्व के गले नहीं उतर सका. यही नहीं, गाहे बगाहे भाजपा अपने राजनीतिक मुद्दों को भी बिहार में उछालने-थोपने की कवायद में लगी रहती है. चुनाव से पहले बिहार में राजग की सरकार बनने पर हर हाल में नीतीश कुमार को ही मुख्यमंत्री बनाने की प्रतिबद्धता जतानेवाली भाजपा के नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि भाजपा की तुलना में आधी से कुछ ही अधिक सीटें जीतनेवाले नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना भाजपा का बड़प्पन था. इस सबके संकेत नीतीश कुमार और उनके करीबी लोग भी बखूबी समझ रहे हैं. बीच-बीच में राष्ट्रीय स्तर पर उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का विकल्प बनने की संभावनाएं भी हिलोर मारने लगती हैं.    
    
उपेंद्र कुशवाहाः पीएम मटीरियल हैं,नीतीश कुमार
    अभी
जद यू के संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने उन्हें पीएम मटीरियल बताया है. पार्टी के नये अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह की ताजपोशी के अवसर पर नीतीश कुमार की मौजूदगी में भी जद यू के लोगों ने नारा लगाया, ‘2024 का पीएम कैसा हो, नीतीश कुमार जैसा हो.’ अध्यक्ष बनने के बाद ललन सिंह ने कहा है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में भाजपा के साथ सम्मानजनक गठबंधन नहीं होने पर उनकी पार्टी वहां 200 सीटों पर चुनाव लड़ेगी.

    हाल के दिनों में नीतीश कुमार के कुछ राजनीतिक फैसलों और बयानों को भी भाजपा के साथ उनकी मौजूदा असहजता के रूप में ही देखा जा रहा है. उन्होंने भाजपा के जनसंख्या नियंत्रण कानून के खिलाफ सख्त बयान दिया है. भाजपा की राय के विपरीत देश में जाति आधारित जनगणना की पुरजोर वकालत करते हुए उन्होंने इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी को पत्र भी लिखा है. सबसे बड़ी बात यह है कि जिस पेगासस जासूसी प्रकरण ने प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की नाक में दम करके रखा है, नीतीश कुमार ने इस मामले में विपक्ष के सुर में सुर मिलाते हुए उसकी जांच तथा संसद में उस पर चर्चा कराए जाने के पक्ष में बयान दिया है. भाजपा सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी के बाद सत्ता पक्ष के एक और बड़े नेता, नीतीश कुमार के इस बयान को लेकर अब भाजपा असहज दिखने लगी है. तो क्या वाकई नीतीश कुमार एक बार फिर भाजपा से अलग होकर विपक्ष की कतार में शामिल होने का मन बना रहे हैं! ऐसा वह तभी सोच सकते हैं जब उन्हें 2024 में विपक्ष का सर्वमान्य चेहरा बताकर पेश किया जाए.

     लेकिन इसमें सबसे बड़ी बाधा उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को लेकर हो सकती है. जिस तरह से उन्होंने विधानसभा के भीतर कहा था कि वह मिट्टी में मिल जाएंगे लेकिन भाजपा से फिर कभी हाथ नहीं मिलाएंगे और इसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने न सिर्फ भाजपा से हाथ मिला लिया, जनादेश को ताक पर रखकर उसके साथ सरकार साझा की. 2020 के विधानसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े और अल्पमत में होने के बावजूद वह भाजपा के साथ साझा सरकार का नेतृत्व करने को राजी हो गए, उसे देखते हुए विपक्षी दल उन पर आसानी से भरोसा करने को राजी नहीं. उपेंद्र कुशावाहा के नीतीश कुमार को पीएम मटीरियल बतानेवाले बयान पर बिहार विधानसभा में विपक्ष (राजद) के नेता तेजस्वी यादव ने कटाक्ष करते हुए कहा भी है कि, वह पीएम (पलटी मार) मटीरियल तो हैं ही. इसका इलहाम नीतीश कुमार को भी तो होगा ही. लेकिन इस सबसे परे राजनीति आवश्यकता, संभावनाओं और परिस्थितियों का खेल भी होती है. इसमें बहुत कुछ तत्कालीन परिस्थिति के मद्देनजर भी तय होता है. कट्टर विरोधी होने के बावजूद 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद और कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़े और सरकार बनाए और फिर मिट्टी में मिलना पसंद करने लेकिन भाजपा से फिर हाथ नहीं मिलाने की बात करनेवाले नीतीश कुमार इस समय भाजपा के साथ सरकार साझा कर रहे हैं !

Monday, 26 July 2021

HAL FILHAL: PEGASUS SPYWARE PROJECT and RAID ON MEDIA

जासूसी का जाल और मीडिया पर छापेमारी


जयशंकर गुप्त


    क्या कोई सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों, असहमति रखनेवाले पत्रकारों, वकीलों, उद्यमियों और नागरिकों की जासूसी करवा सकती है! और क्या स्वतंत्र और तटस्थ पत्रकारिता कर रहे अखबारों, टीवी चैनलों और पत्रकारों के यहां आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी से उन्हें डराया-धमकाया जा सकता है ! हम बात कर रहे हैं, भारत सहित दुनिया के कई और देशों में भी ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए स्मार्ट फोन हैक कर जासूसी करने के संबंध में मीडिया रिपोर्ट्स की और देश के सबसे बड़े अखबारों में शुमार ‘दैनिक भास्कर’ और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ और इसके संपादक के कार्यालयों, ठिकानों पर पिछले सप्ताह बड़े पैमाने पर हुई आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी की.

  
राज्यसभा में पेगासस जासूसी को लेकर हंगामा (तस्वीरः राज्यसभा टीवी)
    मानसून सत्र का पहला सप्ताह कथित जासूसी प्रकरण और मीडिया संस्थानों छापेमारी पर संसद में चर्चा कराने, इसकी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में विशेष जांच दल (एसआइटी) से जांच करवाने की मांग कर रहे विपक्ष के हंगामे और सरकार के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया. एक दिन राज्य सभा में विपक्ष के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे के बीच पेगासस जासूसी मामले पर जवाब दे रहे सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव से जवाब की प्रति छीनने के आरोप में तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन को पूरे मानसून सत्र के लिए निलंबित किया जा चुका है. लेकिन मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा है.इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन भीमराव लोकुर एवं कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के दो सदस्यीय जांच आयोग से इस मामले की न्यायिक जांच कराने की घोषणा की है. सुश्री बनर्जी के अनुसार उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में इस मामले की जांच करवाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

    इस बीच देश और दुनिया के कई और देशों में भी इजरायल की कंपनी एनएसओ के जासूसी उपकरण ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए की गई जासूसी के संबंध में नित नए खुलासे हो रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, सांसद अभिषक बनर्जी, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, युद्धक विमान राफेल की खरीद से जुड़े उद्योगपति अनिल अंबानी, उनकी कंपनी के कुछ बड़े अधिकारी, राफेल कंपनी के कुछ अधिकारियों से लेकर जम्मू कश्मीर के कुछ बड़े नेताओं और देश के चार दर्जन पत्रकारों के साथ ही केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद पटेल के नाम भी अब तक सामने आ चुके हैं जिनके स्मार्ट मोबाइल फोन नंबरों को हैक कर उनकी जासूसी की बात कही जा रही है. फ्रांस में खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर संस्था ‘मीडियापार’ के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उनकी सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडॉ के नाम भी उस लिस्ट में हैं, जिनके फोन की पेगासस के जरिए जासूसी कराए जाने की बातें कही जा रही हैं. मीडियापार वही संस्था है, जिसकी शिकायत पर फ्रांस में राफेल विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार की जांच नए सिरे से शुरू हुई है.

    
राहुल गांधीः फोन हैक हुआ
    राहुल गांधी ने अपने स्मार्ट फोन को हैक होने की पुष्टि की है. उन्होंने इस जासूसी प्रकरण को ‘राजद्रोह’ करार देते हुए इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है और उनके त्यागपत्र की मांग की है. उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका की जांच भी सुप्रीम कोर्ट से कराने की मांग की है. लेकिन सरकार ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर विपक्ष की इस मांग को निराधार करार देते हुए कथित जासूसी प्रकरण को संसद के मानसून सत्र के ठीक एक दिन पहले सार्वजनिक करने के पीछे भारत की प्रगति और विकास के रास्ते में अवरोध पैदा करने की गरज से अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र की आशंका जाहिर की है. सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 19 जुलाई को लोकसभा में कहा, "एक वेब पोर्टल पर कल रात एक अति संवेदनशील रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर कई आरोप लगाए गए. ये रिपोर्ट संसद के मॉनसून सत्र के एक दिन पहले प्रकाशित हुई. यह संयोग मात्र नहीं हो सकता." इसी तरह की बात करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने भी इसकी क्रोनोलॉजी समझाने की कोशिश की है. सरकार की तरफ से यह भी साफ करने की कोशिश की गई कि सरकार अवैधानिक तरीके से किसी की जासूसी नहीं करवाती है. यानी वैधानिक तरीके से जासूसी कराई जा सकती है. अगर सरकार इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के रहस्योद्घाटनों को निराधार और अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मानती है तो फिर इस मामले की संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच को तैयार क्यों नहीं हो जाती.  

    यह मांग केवल विपक्ष के नेता, वकील और पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं, भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कहा है कि “अगर छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह इजराइली प्रधानमंत्री को चिट्‌ठी लिखें और एनएसओ के पेगासस प्रोजेक्ट का पता लगाएं. यह भी पता लगाया जाए कि इसके लिए पैसे किसने खर्च किया.” स्वामी ने ट्विटर पर लिखा कि पेगासस स्पाईवेयर एक व्यावसायिक कंपनी है, जो पैसा लेकर ही काम करती है. इसलिए यह सवाल लाज़मी है कि भारतीय लोगों पर जासूसी के लिए पैसे अगर भारत सरकार ने नहीं दिए, तो आख़िर किसने दिए. मोदी सरकार को इसका जवाब देश की जनता को देना चाहिए. अपने विरोधियों की जासूसी कराने के इस मामले में सरकार पर शक की सुई इसलिए भी उठ रही है क्योंकि एनएसओ ने साफ कहा है कि उसका जासूसी सॉफ्टवेयर अपराध और आतंकवादी गतिविधियों को रोकने और लोगों के जीवन बचाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए केवल सरकारों और उनकी खुफिया एजेंसियों को ही बेचा जाता है. इसे किसी निजी व्यक्ति अथवा संस्थान को नहीं बेचा जाता. मजे की बात यह भी है कि अभी तक भारत में जितने भी फोन नंबरों की जासूसी पेगासस के स्पाईवेयर से कराए जाने की बातें सामने आ रही हैं, उनमें से एक भी फोन नंबर किसी आतंकवादी अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अपराधी का नहीं है. 

  
भाजपा नेता स्वामीः छिपाने को कुछ नहीं तो जांच करवा लें
    इस संदर्भ में मीडिया रिपोर्ट्स सार्वजनिक होने से पहले ही भाजपा नेता स्वामी ने ट्वीट कर बताया था कि वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन तथा कुछ और मीडिया संस्थान एक रिपोर्ट सार्वजनिक करने जा रहे हैं, जिसमें इजराइल की फर्म पेगासस को मोदी कैबिनेट के मंत्री, आरएसएस के नेता, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और पत्रकारों के फ़ोन टैप करने के लिए हायर किए जाने का भंडाफोड़ होगा. 18 जुलाई को वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में बताया गया कि शुरुआती रिपोर्ट में दुनिया भर में 189 पत्रकारों, 600 से अधिक राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों और 60 से अधिक व्यावसायिक अधिकारियों को एनएसओ के ग्राहकों (क्लाइंट्स) द्वारा लक्षित किया गया था. 18 जुलाई की देर शाम यहां दिल्ली में न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज खुलासा किया कि भारत सरकार ने 2017 से 2019 के बीच करीब 300 भारतीयों की जासूसी करवाई है. इन 300 लोगों में विपक्ष के नेता पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और बिजनेसमैन भी शामिल हैं. दि वायर ने दावा किया कि सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए इन लोगों के फोन हैक किए थे.

क्या है पेगासस जासूसी प्रकरण


    इजराइल की कंपनी एनएसओ का पेगासस स्पाईवेयर एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो बिना सहमति के आपके स्मार्ट फोन तक पहुंच हासिल करने, व्यक्तिगत और संवेदनशील जानकारी इकट्ठा कर जासूसी करने वाले यूजर यानी ग्राहक को देने के लिए बनाया गया है. यह अगर किसी स्मार्ट फोन में डाल दिया जाए तो कोई हैकर उस आईफोन, एन्ड्राएड फोन के माइक्रोफोन, कैमरा, आडियो और टेक्स्ट मेसेजेज, ईमेल और लोकेशन तक की सभी तरह की जानकारियां हासिल कर सकता है. 

  दरअसल, फ़्रांसीसी मीडिया संस्थान, फॉरबिडन स्टोरीज और मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े एमनेस्टी इंटरनेशनल को 45 देशों के तकरीबन 50 हजार स्मार्ट फोन नंबर्स की एक लिस्ट मिली थी जिनको पेगासस स्पाईवेयर के जरिए हैक करने की आशंका जताई गई थी. 'फ़ॉरबिडन स्टोरीज़' ने इनमें से 67 फोन नंबरों के उपयोगकर्ताओं से अनुमति लेकर उनके नंबरों की फ़ॉरेंसिक जांच करवाई. इनमें से 37 लोगों के फ़ोन में एमनेस्टी इंटरनेशनल सिक्योरिटी लैब्स को पेगासस स्पाईवेयर द्वारा संभावित रूप से टारगेट बनाये जाने के सबूत मिले. इसके बाद ही इन संस्थाओं ने पूरी सूची को दि गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, फ्रंटलाइन, ली मॉंड, रेडियो फ्रांस, हारेट्ज (इजराइल) जैसे दुनियाभर के 17 बड़े और नामचीन मीडिया संस्थानों के साथ शेयर किया. इन मीडिया संस्थानों में भारत से ‘दि वायर’ भी शामिल था. इन मीडिया संस्थानों और उनके 80 खोजी पत्रकारों की महीनों की मेहनत और गहन जांच के बाद बताया गया कि पेगासस के जरिए अलग-अलग देशों की सरकारें पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, बिजनेसमैन, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और वैज्ञानिकों समेत कई लोगों की जासूसी कर रही हैं. इस सूची में भारत का भी नाम है.

    वैसे, इससे पहले भी तमाम सरकारों पर अपने विरोधियों की जासूसी करने के आरोप लगते रहे हैं. कई सरकारों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है लेकिन आश्चर्यजनक बात यही है कि पेगासस जासूसी प्रकरण को पूरी तरह से निराधार और भारत की प्रगति और विकास को अवरुद्ध करने के अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मान रही मोदी सरकार इसकी संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में किसी तरह की जांच करने को राजी क्यों नहीं हो रही. इतना भी नहीं बता रही कि उसने पेगासस की सेवाएं ली या नहीं.

    भारत और फ्रांस में जिन लोगों की जासूसी कराए जाने के विवरण सामने आ रहे हैं, उनमें से कइयों के नाम किसी न किसी रूप में युद्धक विमान राफेल की खरीद से भी जुड़े हैं. जाहिर सी बात है कि इसके मद्देनजर राफेल युद्धक विमानों की खरीद और उसमें कथित तौर पर ली अथवा दी गई दलाली का मामला भी नए सिरे से तूल पकड़ सकता है. फ्रांस ने तो इस प्रकरण को अपराध मानते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन भारत सरकार अभी भी इसे नकारने के मूड में ही दिख रही है.

मीडिया पर सरकारी शिकंजा !

  
    अब बात करते हैं, मीडिया और खासतौर से हाल के दिनों में सच को सामने लानेवाले मीडिया संस्थानों और उनके पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा कसते जाने के बारे में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर एक अरसे से सरकार से असहमति रखने और किन्हीं मामलों में सरकार की गलत नीतियों के विरोध में लिखने, बोलने और सरकार की गलतियों, नाकामियों को उजागर करनेवाले पत्रकारों-मीडिया संस्थानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे कुछ मीडिया संस्थानों को सरकारी विज्ञापनों की सूची से बाहर रखने, उन्हें न्यूनतम विज्ञापन जारी कर उन्हें आर्थिक रूप से कृपण बनाने से लेकर पत्रकारों को नौकरी से बाहर करवाने, कइयों को रासुका और राजद्रोह जैसे मुकदमों में फंसाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन अभी 22 जुलाई को एक साथ दैनिक भास्कर और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल भारत समाचार के कार्यालयों और अन्य ठिकानों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापा मारा. आमतौर पर सत्तामुखी या कहें सरकार समर्थक ही कहे जाते रहे दैनिक भास्कर ने हाल के महीनों में खासतौर से कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस महामारी से मौत का शिकार हुए लोगों की संख्या पर सरकार के आंकड़ों का सच उजागर करने से लेकर गंगा नदी में बहते और नदी किनारे दफनाए गए शवों, आक्सीजन के अभाव में मरे लोगों पर सरकार की गलत बयानी का सच दिखाने, चित्रकूट में हुई आरएसएस की गोपनीय बैठक से जुड़ी अंदरूनी खबरें सामने लाने, चरम छूती महंगाई और बेरोजगारी के आंकड़ों को प्रमुखता से प्रकाशित करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सिरदर्द बनने लगा था. दैनिक भास्कर का प्रबंधन इस छापेमारी को, जो 24 जुलाई को भी जारी रही, अखबार के सच दिखाने के प्रतिशोध में की गई कार्रवाई करार दिया है. दूसरी तरफ सत्ता पक्ष इससे पल्ला झाड़ते हुए इसे रूटीन कार्यवाही मान रहा है.

    अगर किसी व्यक्ति, संस्था, अखबार और मीडिया संस्थान ने भी आयकर अथवा किसी और मामले में कुछ गलत या अनियमित किया है, मनी लांड्रिंग की है तो उसकी जांच होनी ही चाहिए. उसके खिलाफ कानून और जांच एजेंसियों को अपना काम करना ही चाहिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन सवाल इस छापेमारी की टाइमिंग और अमित शाह जी की भाषा में कहें तो क्रोनोलॉजी को लेकर है. हाल के महीनों में यह बात अक्सर और अधिकतर मामलों में देखी गई है कि हमारे आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों के निशाने पर सरकार के विरोध में बोलने, लिखने, छापने और दिखानेवाले लोग ही ज्यादा होते हैं. अगर दैनिक भास्कर अखबार ने कुछ भी गलत किया है तो उसकी जांच अथवा इसके कार्यालयों पर आयकर के छापे तबभी पड़ सकते थे जब यह सत्तामुखी था. ऐसे समय में ही उस पर छापे क्यों पड़े जब वह सरकार की गलतियों, नाकामियों को सामने ला रहा है.

    
भारत समाचार के संपादक-ऐंकर ब्रजेश मिश्रः सच के साथ
    
सी दिन उत्तर प्रदेश के एक बेबाक टीवी चैनल भारत समाचार और उसके प्रधान संपादक ब्रजेश मिश्रा, तेजतर्रार पत्रकार विरेंद्र सिंह तथा चैनल से जुड़े कुछ अन्य लोगों के कार्यालय और ठिकानों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापेमारी की. दिल्ली पुलिस की एक टीम भारत में पेगासस जासूसी प्रकरण को उजागर करनेवाले न्यूज पोर्टल ‘दि वायर’ के कार्यालय में भी पहुंच गई. पूछने पर बताया गया कि पुलिस वहां 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस समारोह के मद्देनजर रूटीन जांच के लिए गई थी. इससे पहले इसी तरह की छापेमारी एक और न्यूज पोर्टल-यू ट्यूब चैनल ‘न्यूज क्लिक’ के साथ भी हुई थी. भारत समाचार की तरह ही न्यूज क्लिक भी यूपी सरकार से लेकर केंद्र सरकार के गलत कार्यों, कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की लापरवाही और नाकामियों को उजागर करते रहा है. अच्छी बात यह है कि इन पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इस तरह की सरकारी कार्रवाइयों और छापेमारी से डर कर घुटने टेकने के बजाय सच के साथ खड़े रहने का संकल्प जाहिर किया है. हालांकि भारतीय मीडिया का एक वर्ग इन छापों पर या तो तटस्थ है या फिर इनके औचित्य साबित करने में लगा है. सरकार को भी अब जाहिरा तौर पर कह देना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर उसके तमाम नेता चाहे कितना भी मजबूत लोकतंत्र की दुहाई देते रहें, लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व असहमति उन्हें हर्गिज बर्दाश्त नहीं होगी. उसके विरुद्ध कोई कुछ लिखेगा, बोलेगा और छापेगा तो उसके यहां छापे भी पड़ेंगे.

Thursday, 24 January 2019

यूपी बनेगा 2019 के चुनावी महाभारत का ‘कुरुक्षेत्र’ !

कांग्रेस के लिए प्रियंका साबित होंगी संजीवनी !

जयशंकर गुप्त


कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कुछ दिनों पहले कहा था कि उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी को कम करके आंकना गलत होगा. वह वहां सबको चौंका सकते हैं. वाकई, कांग्रेसजनों की लंबे अरसे से चली आ रही मांग के मद्देनजर अपनी बहन प्रियंका -गांधी-वाड्रा को कांग्रेस में महासचिव के रूप में पूर्वी उत्तर प्रदेश और एक अन्य महासचिव के रूप में ज्योतिरादित्य सिंधिया को पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रभार देकर उन्होंने चौंकानेवाला राजनीतिक फैसला किया है. उन्होंने साफ किया है कि यूपी में अब वह बैकफुट पर नहीं बल्कि फ्रंट फुटपर खेलेंगे. कयास उनके चचेरे भाई भाजपा सांसद वरुण गांधी के भी साथ आने के लगते रहे हैं.

जाहिर सी बात है कि राहुल 2019 में सत्रहवीं लोकसभा के लिए चुनावी महाभारत में उत्तर प्रदेश की निर्णायक भूमिका को बखूबी समझ रहे हैं क्योंकि हस्तिनापुर की सत्ता के लिए कौरव और पांडवों के बीच का महाभारत अगर कुरुक्षेत्र में लड़ा गया था तो 2019 में इंद्रप्रस्थ यानी दिल्ली की सत्ता पर कब्जा जमाने के लिए होनेवाले चुनावी महाभारत का फैसला लोकसभा में अस्सी सीटोंवाले उत्तर प्रदेश में ही होने की संभावना है. प्रधानमंत्री पद के तीन-चार घोषित दावेदारों-नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मायावती, मुलायम सिंह यादव के इसी राज्य से चुनाव लड़ने की संभावना है.

इस लिहाज से भी तमाम दलों और गठबंधनों के बीच समीकरण बनने और बिगड़ने लगे हैं. कांग्रेस को बाहर रखकर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल ने आपस में राजनीतिक गठजोड़ कर लोकसभा की अस्सी सीटों का बंटवारा आपस में कर लिया है. रालोद के लिए तीन-चार सीटें छोड़ने की बात है जबकि रायबरेली और अमेठी की दो सीटें कांग्रेस-सोनिया गांधी या प्रियंका तथा राहुल गांधी के लिए छोड़ी गई हैं. यूपी की राजनीति में हासिए पर धकेल दिए जाने की कोशिशों के एहसास से परेशान कांग्रेस ने भी साफ कर दिया है कि वह तकरीबन 25 करोड़ की आबादी के हिसाब से भी इस सबसे बड़े प्रदेश (अगर उत्तर प्रदेश स्वतंत्र राष्ट्र होता तो दुनिया का सबसे बड़ा पांचवां देश होता) में सभी सीटों पर अपने बूते अकेले चुनाव लड़ेगी.

हालांकि इससे पहले कांग्रेस देश के अन्य हिस्सों की तरह उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन के बारे में बातें करती रही थी. लेकिन इसके लिए उसने कोई ठोस पहल नहीं की. विपक्ष की एकजुटता के नाम पर सम्मेलन, रैलियां और रात्रिभोज तो हुए लेकिन सीटों के तालमेल के लिए कभी आमने सामने बैठकर कोई बात नहीं हुई. इसकी एक वजह तो यह भी रही कि यूपी में पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की बेहद खराब परफार्मेंंस के मद्देनजर सपा-बसपा उसके लिए उसकी मर्जी के मुताबिक अधिक सीटें देने को तैयार नहीं थीं और फिर राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में मिली सफलता के बाद कांग्रेस नेताओं का मनोबल और उत्साह कुछ ज्यादा ही बढ़ गया लगता है. इन तीन प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव में भी सपा और बसपा के प्रति कांग्रेस का रुख उपेक्षा और उदासीनता का ही था. इसके बावजूद राजस्थान और मध्यप्रदेश में जरूरत पड़ने पर सपा-बसपा ने कांग्रेस की सरकारें बनवाने में सहयोग किया लेकिन उनका आभार जताने और सरकार में प्रतिनिधित्व देने के बजाय कांग्रेस के नेताओं ने उनकी राजनीतिक हैसियत पर तंज भी कसा. सपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में सपा के साथ गठबंधन के बाद बुरी तरह मुंह की खाने के बाद वैसे भी अखिलेश यादव के प्रति राहुल गांधी का रवैया उदासीन और उपेक्षा का ही रहा. और फिर राहुल गांधी ने पिछले दिनों कहा भी कि भाजपा और नरेंद्र मोदी को हराने के लिए उनकी पार्टी सहयोगी दलों के साथ उन्हीं राज्यों में गठबंधन करेगी जहां वह कमजोर है. जहां मजबूत है या पहले नंबर पर है, वहां अकेले चुनाव लड़ेगी.

दरअसल, कांग्रेस को मिलनसार, मेहनती और न सिर्फ कांग्रेसजनों बल्कि आम लोगों के साथ भी सीधा संवाद कायम करने में सक्षम हाजिरजवाब प्रियंका के रूप में राजनीतिक संजीवनी सी मिल गई लगती है. कांग्रेस के नेता कार्यकर्ता इससे बेहद उत्साहित हैं. बदले राजनीतिक परिदृश्य और खासतौर से राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव में शानदार वापसी, राहुल गांधी को चहुंओर मिल रहे जनसमर्थन और प्रियंका-ज्योतिरादित्य के भरोसे कांग्रेस को लगता है कि अकेले चुनाव लड़ने पर यूपी में वह 2009 में जीती 21 सीटों के आंकड़े को छू सकती है या फिर उससे तो अधिक सीटें वह जीत ही सकती है जितनी उसे सपा-बसपा गठबंधन देता. उसका फोकस अवध और पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, गैर जाटव दलित और कुर्मी, सहित गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों तथा मुसलमानों पर होगा. 2009 में इन तबकों के समर्थन से ही कांग्रेस राज्य में लोकसभा की 21 सीटें अपने बूते जीत सकी थी.

लेकिन उसके बाद केे चुनावों के आंकड़े कांग्रेस की इस सोच का समर्थन नहीं करते. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को महज 7.5 फीसदी वोट ही मिले थे और केवल सोनिया गांधी और राहुल गांधी ही रायबरेली और अमेठी से चुनाव जीत सके थे. इसके उम्मीदवार केवल छह सीटों-सहारनपुर, कानपुर, गाजियाबाद, कुशीनगर, बाराबंकी और लखनऊ में ही दूसरे नंबर पर थे. इनमें से भी कुशीनगर और सहारनपुर को छोड़ दें तो बाकी चार सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवार दो लाख से लेकर साढ़े पांच लाख से अधिक मतों के अंतर से हारे थे. बाकियों में अधिकतर की जमानतें भी जब्त हो गई थीं. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने के बावजूद केवल 6.2 फीसदी वोट लेकर कांग्रेस के सात उम्मीदवार ही जीत सके थे. हालांकि कांग्रेस के लोग अपनी सोच के समर्थन में कहते हैं कि 2009 में अकेले लड़ने पर वह 11.65 फीसदी वोट पाकर भी 21 सीटों पर जीत गई थी. लेकिन तब सपा और बसपा के अलग अलग लड़ने के कारण मत विभाजन का लाभ कांग्रेस को मिला था.
राहुल गांधी, प्रियंका और ज्योतिरादित्य सिंधिया के नेतृत्व में कांग्रेस के यूपी में अलग चुनाव लड़ने पर एक संभावना तो यह भी बनती है कि उसके उम्मीदवार भाजपा के सवर्ण जनाधार में सेंध लगाकर उसे कमजोर कर सकते हैं लेकिन अगर उसे अन्य पिछड़ी जातियों, गैर जाटव दलितों और मुसलमानों के बड़े तबके का समर्थन भी मिला तो इसका नुकसान सपा-बसपा गठबंधन को और लाभ भाजपा को मिल सकता है. हालांकि भाजपा ने पिछला चुनाव गैर जाटव दलितों और गैर यादव अन्य पिछड़ी जातियों को लामबंद करने की रणनीति के तहत ही लड़कर सफलता पाई थी.

शायद इसलिए भी सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन इससे ज्यादा परेशान नहीं है. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी और भाजपा की लहर के बावजूद सपा को 22 तथा बसपा को 19.6 फीसदी यानी कुल 41.6 फीसदी वोट मिले थे. हालांकि सपा के केवल पांच उम्मीदवार ही जीत सके थे जबकि बसपा का तो खाता भी नहीं खुल सका था. हालांकि 34 सीटों पर उसके और 31 सीटों पर सपा के उम्मीदवार दूसरे नंबर पर थे. भाजपानीत गठबंधन को 43.30 फीसदी वोट मिले थे जबकि सीटें मिल गई थीं 73. इसी तरह से विधानसभा के चुनाव में भी सपा और बसपा को क्रमशः 21.8 तथा 22.2 फीसदी यानी कुल 44 फीसदी वोट मिले थे लेकिन अलग अलग लड़ने के कारण उन्हें सीटें केवल 47 और 19 ही मिल सकी थीं जबकि भाजपा गठबंधन 39.7 फीसदी मत लेेकर भी 325 सीटों पर कब्जा जमा सका था. लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में रालोद को भी एक-डेढ़ फीसदी वोट मिले थे.
इन नतीजों के विश्लेषण के बाद सपा, बसपा और रालोद को इस बात का एहसास हुआ कि अगर वे साथ चुनाव लड़ें तो न सिर्फ लोकसभा की अधिकतम सीटों पर जीत सकते हैं बल्कि प्रदेश में भी वे अपनी सरकार बना सकते हैं क्योंकि मोदी-योगी और भाजपा लहर होने और अमित शाह के गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों की सोशल इंजीनियरिंग के बावजूद दोनों चुनावों में सपा-बसपा और रालोद को मिले मत प्रतिशत को जोड़कर देखें तो भाजपा गठबंधन पर भारी पड़ते हैं. इसका प्रयोग करके ही उन्होंने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव मौर्य के त्यागपत्र से रिक्त गोरखपुर और फूलपुर के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कैराना में हुए संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा को पटखनी दे दी थी. फूलपुर और गोरखपुर में कांग्रेस ने भी उम्मीदवार खड़े किए थे लेकिन मुकि जमानतें जब्त हो गयीं और उन्हें 20 हजार से भी कम मत मिले थे.

सपा-बसपा और रालोद के बीच गठबंधन की नींव उत्तर प्रदेश के इन तीन संसदीय उपचुनावों के साथ ही राज्यसभा और विधान परिषद के चुनाव के समय ही पड़ गई जब तीनों ने आपसी सहयोग किया. इससे पहले, 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद तथाकथित राम लहर के बावजूद 1993 में हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में सपा और बसपा के बीच चुनावी गठबंधन हुआ था जिसके चलते उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा-बसपा की सरकार बनी थी. उस चुनाव में एक नारा बहुत लोकप्रिय हुआ था, ‘‘मिले मुलायम, कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.’ उस चुनाव में 425 सदस्यों की विधानसभा में सपा को 109 और बसपा को 67 सीटें मिली थीं जबकि भाजपा को 178 सीटें मिली थीं लेकिन कांग्रेस के 28 विधायकों के समर्थन से मुलायम सिंह की सरकार बनी थी. लेकिन सपा-बसपा गठबंधन का यह प्रयोग लंबा नहीं चल सका था. जून 1995 में लखनऊ के बदनाम ‘स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के बाद, जिसमें सपा के लोगों ने मायावती के साथ अभद्रता और धक्का मुक्की की थी, उसके बाद ही कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. और फिर राज्य में भाजपा के सहयोग से मायावती के नेतृत्व में सरकार बनी थी. हालांकि वह गठबंधन भी टिकाऊ नहीं रह सका था. लेकिन ‘लखनऊ गेस्ट हाउस कांड’ के बाद सपा और बसपा के बीच रिश्ते इतने कटु हो गए कि हालिया समझौतों से पहले दोनों दलों के नेता आपस में आंख मिलाने से भी कतराते थे. मायावती को पता था कि समाजवादी पार्टी के साथ ताजा गठबंधन के बाद यह सवाल जरूर उठेगा, शायद इसीलिए इस बार 12 जनवरी को सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा करते समय संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में टंगे बैनर पर कांशीराम और मुलायम सिंह यादव के बजाय बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया की तस्वीरें लगी थीं. मायावती ने इसका जिक्र भी किया कि किस तरह 1956 में डा. अंबेडकर और डा. लोहिया के बीच आपसी तालमेल बढ़ा था लेकिन दोनों दलों-भारतीय रिपब्लिकन पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी के विलय का औपचारिक फैसला होने से पहले ही डा. अंबेडकर का निधन हो गया था. उन्होंने उसी कड़ी में 1993 में हुए सपा-बसपा गठबंधन को भी देखते हुए इस बात का जिक्र भी किया कि कैसे अप्रिय ‘लखनऊ स्टेट गेस्ट हाउस कांड’ के चलते वह गठबंधन टूट गया था. उन्होंने खुद ही साफ किया कि जनहित और देशहित के साथ ही सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में दोबारा आने से रोकने की गरज से ही उन्होंने जून 1995 के अप्रिय प्रकरण को भुलाकर यह गठबंधन किया है. उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का एक कारण यह भी बताया कि यूपी में कांग्रेस का बचा खुचा जनाधार या कहें वोट बसपा के उम्मीदवारों को स्थानांतरित नहीं हो पाता जबकि बसपा के वोट आसानी से उन्हें मिल जाते हैं. उन्होंने 1996 के विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस बसपा गठबंधन का उदाहरण भी दिया. इसके साथ उन्होंने 1993 के सपा -बसपा गठबंधन के हवाले से समझाने की कोशिश की कि सपा और बसपा के वोट एक दूसरे को स्थानांतरित हुए थे.कांग्रेस को अलग रख कर गठबंधन के पीछे त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में मायावती के मन में प्रधानमंत्री बन सकने की उम्मीद भी हो सकती है. हालांकि यह पूछे जाने पर कि क्या सपा मायावती की दावेदारी का समर्थन करेगी? अखिलेश यादव ने गोलमोल जवाब दिया, ‘‘इतना तय है कि अगला प्रधानमंत्री यूपी से ही होगा.’’ 2019 में त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति में सरकार बनाने के लिए किसको किसके समर्थन की जरूरत पड़ सकती है, यह अभी से कह पाना मुश्किल है. शायद इसलिए भी सपा-बसपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस भविष्य के सहयोग की संभावना को ध्यान में रखकर ही एक दूसरे के विरुद्ध ‘हमलावर’ होंगे. उनके निशाने पर भाजपा ही होगी.

 बहरहाल, सपा-बसपा और रालोद के बीच चुनावी गठबंधन और फिर प्रियंका गांधी के सक्रिय होने के कारण सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर बेचैनी और बौखलाहट बढ़ी है. यह बेचैनी प्रधानमंत्री मोदी, पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह, गृहमंत्री राजनाथ ंिसंह और वित मंत्री अरुण जेटली से लेकर मुख्यमंत्री आदित्यनाथ एवं अन्य कई नेताओं के भाषणों और बयानों में भी साफ दिख रही है. मोदी और शाह ने इसे अवसरवादी और भ्रष्ट नेताओं का सत्ता पाने के लिए गठबंधन तथा कांग्रेस की परिवारवादी राजनीति का विस्तार करार दिया. प्रियंका गांधी के सक्रिय राजनीति में आने को भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने तंज करते हुए कहा, ‘‘कांग्रेस ने मान लिया है कि राहुल गांधी फेल हो गए हैं. नेहरू के बाद इंदिरा, उनके बाद राजीव. फिर सोनिया और राहुल और अब प्रियंका. कांग्रेस का इतिहास ही परिवारवाद का रहा है.’’ गठबंधन के बारे में अमित शाह ने कहा, ‘‘कल तक एक दूसरे की शक्ल नहीं देखनेवाले आज हार के डर से एक साथ आ गए हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अकेले मोदी को हरा पाना मुमकिन नहीं है. उन्होंने दावा किया, ‘‘यूपी में 73 से 74 होंगे, 72 नहीं’’

गौरतलब है कि पिछली बार उत्तर प्रदेश से मिली 73 सीटों के बूते ही भाजपा केंद्र में सत्तारूढ़ हुई थी. स्वयं नरेंद्र मोदी पूर्वी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से ही सांसद हैं. इसका लाभ भाजपा और उसके सहयोगी दलों को विधानसभा के चुनाव में 325 सीटें जीतने के रूप में मिला था. लेकिन समय बीतने और केंद्र तथा राज्य में भी भाजपानीत गठबंधन सरकार के विफल होते जाने, चुनाव पूर्व के वायदों के जुमला भर साबित होने, प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के रफाएल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घोटाले में घिरते जाने, नोट बंदी, जीएसटी के कुप्रभावों, एससी एसटी ऐक्ट में संशोधन से सवर्णों, किसानों और बेरोजगार युवाओं की सरकार से नाराजगी आदि के कारण भाजपा का जनाधार इससे दूर छिटकने लगा है. राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा के हाथ से सत्ता खिसक जाने के बाद सहयोगी दल आंखें तरेरते हुए बिहार की तर्ज पर अपनी राजनीतिक सौदेबाजी मजबूत करने में लगे हैं. नतीजतन भाजपा अपने बिदक रहे सहयोगी दलों को साधने और बिखर रहे जनाधार को समेटने में जुट गई है. भाजपा नेतृत्व को लगता है कि आठ लाख रु. से कम आमदनीवाले सामान्य वर्ग-सवर्णों-के लिए दस फीसदी आरक्षण एवं आनेवाले दिनों में कुछ और जन लुभावन घोषणाओं तथा विपक्ष के नेताओं को भ्रष्टाचार के मामलों में बदनाम एवं गिरफ्तार करवाकर अपने छीजते जनाधार को बचाया जा सकता है. उत्तर प्रदेश में वह फिर एक बार गैर यादव पिछड़ी जातियों और गैर जाटव दलितों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर सकती है. हालांकि लगातार घट रही सरकारी नौकरियों के मद्देनजर चुनाव से ठीक पहले दस फीसदी आरक्षण के बेमानी साबित होने और इसके चलते दलितों-आदिवासियों और पिछड़ी जातियों में बढ़नेवाली आशंकित नाराजगी का खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ सकता है. पिछले पिछले विधानसभा चुनाव से सबक लेकर सपा और बसपा भी भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग की काट कर सकते हैं.चुनाव के समय अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए बनाया जा रहा दबाव भी भाजपा को भारी पड़ सकता है. 

Tuesday, 25 December 2018

संसदीय गतिरोध ( Parliamentry Disruptions) और हमारे राजनीतिक दल

संसद के सुचारु संचालन में किसकी रूचि है  

जयशंकर गुप्त 

संसद के देर से शुरू हुए शीतकालीन सत्र के दौरान दोनों सदनों-लोकसभा और राज्यसभा में प्रायः प्रत्येक दिन एक ही तरह के दृश्य नजर आ रहे हैं. एक तरफ विपक्ष और खासतौर से कांग्रेस के सांसद राफेल युद्धक विमानों की खरीद में कथित घपले की जांच जेपीसी यानी संयुक्त संसदीय समिति से करवाने की मांग को लेकर हल्ला-हंगामा कर रहे होते हैं तो वहीं दूसरी तरफ हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्य कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से राफेल खरीद के संबंध में अपने बयान के लिए माफी मांगने के नारे लगाते हैं. आसंदी के पास ही हाथों में प्लेकार्ड लिए सत्तापक्ष के ही सहयोगी अन्ना द्रमुक के सांसद कावेरी जल विवाद में तमिलनाडु के साथ ‘न्याय’ की मांग को लेकर हंगामा करते हैं. बीच बीच में तेलुगु देशम के सदस्य आंध्र प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज की मांग पर हंगामा करते हैं. इस तरह के शोरगुल और हंगामे के बीच लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति या अन्य पीठासीन अधिकारी कुछ जरूरी संसदीय दस्तावेज सदन पटल पर रखवाते हैं, कुछ विधेयक भी विपक्ष की पर्दे के पीछे की ‘रजामंदी’ से बिना किसी चर्चा और बहस के पास कराए जाते हैं और फिर दोनों सदनों की कार्यवाही पहले टुकड़ों में और फिर अगले दिन तक के लिए स्थगित कर दी जाती है. 

इस तरह 11 दिसंबर से शुरू हुए संसद के शीतकालीन सत्र के सात दिन सम्मानित सांसदों के शोर गुल, आसंदी के पास आकर किए जानेवाले हल्ला-हंगामे की भेंट चढ़ गये. और जिस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं, अगले साल आठ जनवरी तक के लिए निर्धारित इस सत्र के बाकी दिनों में भी इसी तरह के दृश्य नजर आ सकते हैं. संसद का यह शीतकालीन सत्र राजधानी में ठंड के लगातार बढ़ते जाने के बावजूद सदन के भीतर हल्ला हंगामे और नारेबाजी से पैदा हो रही राजनीतिक गरमी की भेंट चढ़ने के लिए अभिशप्त लग रहा है.
राफेल युद्धक विमानों की खरीद के मामले में मोदी सरकार जिस तरह से घिरते नजर आ रही है, खासतौर से राफेल खरीद के मामले में सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले में सरकार की सर्वोच्च अदालत को गुमराह करने के इरादे से की गई जालसाजी का खुलासा होने के बाद छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत से उत्साहित कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल इस मुद्दे को आसानी से छोड़ने और इसकी जांच जेपीसी से करवाने से कम पर मानने  के मूड में नहीं दिख रहे. लोकसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खरगे कहते भी हैं, ‘‘राफेल पर सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला सरकार के उस कथित दस्तावेज पर आधारित है जिसमें कहा गया है कि राफेल सौदे पर सीएजी की रिपोर्ट में खरीद प्रक्रिया में किसी तरह की गलती नहीं मानी गई और सीएजी रिपोर्ट को संसद और उसकी पीएसी यानी लोक लेखा समिति भी देख चुकी है. लेकिन सच तो यह है कि सीएजी ने अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट संसद अथवा इसकी पीएसी को दी ही नहीं है.’’ इस लिहाज से देखें तो सरकार का सीलबंद लिफाफे में दिए दस्तावेज में ‘स्पेलिंग मिस्टेक’ का तर्क भी बेमानी हो जाता है. वित मंत्री अरुण जेटली खुद कहते हैं, ‘‘राफेल की आडिट जांच सीएजी के पास लंबित है. उसके साथ सभी तथ्य साझा किए गए हैं. जब सीएजी की रिपोर्ट आएगी तो उसे संसद की पीएसी को भेजा जाएगा. इसके बावजूद यदि अदालत के आदेश में किसी तरह की विसंगति है तो कोई भी न्यायालय के समक्ष उसे ठीक करवाने के लिए अपील कर सकता है.’’ सवाल एक ही है कि जब सीएजी ने अपनी रिपोर्ट अभी तक दी ही नही तो सुप्रीम कोर्ट में खरीद प्रक्रिया के बेदाग होने संबंधित दावे किस रिपोर्ट के आधार पर किए गए और किसके आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.  खरगे का मानना है कि इस मामले की जेपीसी जांच से ही दूध का दूध और पानी का पानी संभव है. 

लेकिन यूपीए शासन के दौरान कथित कोयला घोटाले, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच की मांग को लेकर संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने ( पिछली लोकसभा का 68 प्रतिशत समय भाजपा के नेतृत्व में  हुए हंगामों के कारण बरबाद हुआ था.) और उसके समर्थन में तर्क देनेवाले भाजपा के नेता  अब राफेल खरीद की जेपीसी जांच को गैर जरूरी बताने के तमाम बहाने पेश करने में लगे हैं. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाले यूपीए शासन के दौरान सदन में हल्ला हंगामे को भी विपक्ष का महत्वपूर्ण संसदीय दायित्व परिभाषित करनेवाले जेटली अब जेपीसी की जांच को गैर जरूरी बता रहे हैं, ‘‘बोफोर्स तोप सौदे की जेपीसी जांच का क्या अनुभव रहा. सिर्फ वही एक उदाहरण है जब किसी रक्षा सौदे की जांच जेपीसी ने की थी. जेपीसी के सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे होते हैं.’’ लेकिन इस ज्ञान के बावजूद जेटली, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व में तत्कालीन विपक्ष यूपीए शासन में कथित घोटालों की मांग पर क्यों जिद ठाने और संसद के सत्र दर सत्र बाधित करने में लगा रहा? इस बात का जवाब भाजपा के नेताओं के पास अभी नहीं है. उनके ही तर्क को मान लें कि जेपीसी में सत्ता पक्ष का बहुमत होता है और उसके सदस्य दलीय निष्ठा के आधार पर बंटे रहते हैं तो सरकार राफेल की जेपीसी जांच से भाग क्यों रही है?
लेकिन इस बार तो एक और मजेदार दृश्य सामने आ रहा है जब सत्तारूढ़ दल खुद ही इस बात के लिए इच्छुक नहीं दिख रहा है कि संसद सुचारु ढंग से चले. शायद यह पहली बार है कि संसद चलाने के लिए गंभीर और सकारात्मक प्रयास करने के बजाय सत्तारूढ़ भाजपा अपने सदस्यों के हाथों में ‘राहुल गांधी माफी मांगें’ के प्लेकार्ड थमाकर और कभी अपने सहयोगी, क्षेत्रीय दलों के जरिए सदन में आसंदी के पास हल्ला हंगामा करवाकर दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने में लगी हुई है. एक तरफ संसदीय कार्य मंत्री विजय गोयल कहते हैं कि सरकार राफेल पर भी चर्चा के लिए तैयार है, दूसरी तरफ जब मंगलवार को राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि उन्होंने राफेल विमान सौदे पर सुप्रीम कोर्ट को कथित तौर पर गुमराह किए जाने पर चर्चा के लिए नोटिस दिया है, राज्यसभा के सभापति ने कहा कि यह मुद्दा फिलहाल सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है. बुधवार, १९ दिसंबर को भी गृह मंत्री राजनाथ सिंह और संसदीय कार्य मंत्री नरेंद्रसिंह तोमर ने कहा कि सरकार राफेल पर चर्चा के लिए तैयार है लेकिन विपक्ष का दबाव जेपीसी जांच की घोषणा और उसके कार्यस्थगन प्रस्ताव पर चर्चा कराए जाने के लिए ही है. जाहिर है कि सरकार इसके लिए आसानी से तैयार होनेवाली नहीं है क्योंकि विपक्ष का मानना है कि सरकार खुद संसद के भीतर सार्थक और सकारात्मक चर्चा और विपक्ष के संसदीय अधिकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है. विपक्ष के नेता आरोप लगाते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री रहते अपने गुजरात के विधायी अनुभवों को यहां भी दोहराना चाहते हैं. वहां दो तरह से विधानसभा के सत्र चलते थे. जब उन्हें कोई महत्वपूर्ण विधेयक पास कराने होते थे तो वह किसी न किसी बहाने विपक्ष के विधायकों को एक खास अवधि के लिए निलंबित करवा देते थे या फिर हल्ला हंगामे के बीच अपना विधायी कार्य संपन्न करवाते थे. कमोबेस वही तरीका प्रधानमंत्री बनने के बाद वह यहां संसद में भी अपनाना चाहते हैं. इसकी बानगी 2015 में लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी नियम 374ए के तहत कांग्रेस के 44 में से 25 सदस्यों को सदन से निष्कासित करने के रूप में पेश की थी. लेकिन उनके इस फैसले के खिलाफ सात विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा के बायकाट में कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की तो फैसला वापस लेना पड़ा था. लेकिन उसके बाद उन्होंने दूसरा तरीका अपनाना शुरू कर दिया कि महत्वपूर्ण विधायी कार्य सदन में चल रहे हल्ला हंगामे के बीच ही निपटाए जाएं. ऐसे कई अवसर आए जबकि अध्यक्ष ने अत्यंत महत्वपूर्ण एवं संवेदनशील विधेयक तो बिना चर्चा के ही पारित कराए जबकि कई बार अनेक महत्वपूर्ण विषयों मसलन विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के लिए वह इसलिए तैयार नहीं हुईं क्योंकि सदन व्यवस्थित नहीं था. 
हालांकि भाजपा के वरिष्ठ सांसद, लोकसभा के पीठासीन अधिकारियों में से एक हुकुमदेव नारायण यादव विपक्ष के इस आरोप को गलत बताते हैं कि सरकार और प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते हैं कि संसद सुचारु रूप से चले. वह कहते हैं, ‘‘मोदी जी जितना संसद में मौजूद रहते हैं, यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसका आधा समय भी संसद को नहीं देते थे.’’ लेकिन तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद सौगत राय के अनुसार ताजा प्रकरण में तो साफ है कि सरकार सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलने देना नहीं चाहती. संसदीय गतिरोध के चलते राफेल खरीद के साथ ही किसानों की समस्या-आत्महत्या, बेराजगारी, प्राकृतिक आपदा, संवैधानिक संस्थाओं के ‘ब्रेक डाउन’ आदि जन सरोकार के महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी संसद में चर्चा नहीं हो पा रही. दुर्भाग्यपूर्ण है कि संसद और विधानमंडलों में भी वास्तविक मुद्दों पर चर्चा का समय नहीं मिल पाता. संसद और विधानमंडलों की कार्यअवधि भी लगातार कम होती जा रही है.’’ 

हुकुमदेव नारायण यादव के अनुसार, संसद की नियमावली के तहत सदन में चर्चा के कई प्रावधान हैं. लेकिन विपक्ष का उन प्रावधानों का उपयोग नहीं करना और अपनी मर्जी के मुताबिक बहस के नियम तय करने पर जोर देना सदन की कार्य संचालन नियमावली के विरुद्ध है. इसके लिए वह क्षेत्रीय दलों को भी जिम्मेदार मानते हैं, ‘‘क्षेत्रीय दल अपने क्षेत्रीय हितों के लिए संसद का दुरुपयोग करते हैं. ‘प्लेकार्ड’ के साथ हल्ला हंगामा करके वे अपने क्षेत्र और राज्य के लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि वे संसद के भीतर अपने लोगों के लिए लड़ रहे हैं लेकिन केंद्र सरकार उनकी अनदेखी कर रही है. तकरीबन सभी क्षेत्रीय दलों की यही मानसिकता है, उनकी दृष्टि राष्ट्रीय न होकर क्षेत्रीय होती है. यह समग्रता में राष्ट्र और राजनीति दोनों के लिए दुखद है.’’ 

 बहरहाल, जिम्मेदार चाहे सत्ता पक्ष हो अथवा विपक्ष और क्षेत्रीय दल, सच यही है कि संसद के दोनों सदनों का समय हल्ला हंगामे की भेंट चढ़ रहा है. संसदीय विशेषज्ञों का मानना है कि संसद मुख्य रूप से विपक्ष का फोरम होता है जहां वह विभिन्न नियम प्रावधानों के जरिए सरकार की नाकामियों और गलतियों को सामने लाकर उसे कठघरे में खड़ा करता है. अपनी बात पर जोर देने के लिए यदा कदा वह सदन में हल्ला हंगामे और सदन की कार्यवाही बाधित करने के अपने संसदीय अस्त्र का सहारा भी लेता है. सरकार अपने जवाबों से विपक्ष को संतुष्ट करने और अपनी उपलब्धियों को सामने लाने के प्रयास करती है. उसका संसदीय कौशल उत्तेजित विपक्ष को शांत करने और सहमति के बिंदुओं को सामने लेकर सदन की कार्यवाही सुचारु रूप से संचालित करने के काम आता है. इस काम में सदन में उसका बहुमत भी सहायक भूमिका निभाता है. लेकिन हाल के वर्षों में सरकारें विपक्ष की इस भूमिका को स्वीकार करने के बजाय उसकी आवाज को दबाने की कोशिशें ही करते नजर आती हैं. मजेदार बात यह है कि आज जिस संसदीय गतिरोध के लिए सत्ता पक्ष यानी भाजपा कांग्रेस और विपक्ष को जिम्मेदार ठहरा रहा है, विपक्ष में रहते उसे ही विपक्ष का संसदीय दायित्व और अधिकार मानता था. 

पिछले दिनों विधायिकाओं के महत्व समझाते हुए उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडु ने कहा कि सदन के सभापति के मंच के पास जाने वाले विधायकों को तुरंत निलंबित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने भी शुक्रवार, 21 दिसंबर को सदन को बाधित करनेवाले सांसदों को नियंत्रित और अनुशासित करने की गरज से सदन की ‘रूल्स कमेटी’ की बैठक बुलाई. उन्होंने साफ किया कि वह नियम के विपरीत सदन की कार्यवाही नहीं चला सकती हैं. कमिटी ने आसंदी के पास आकर हल्ला हंगामा करनेवालों के स्वतः निलंबन का प्रस्ताव किया है. 

विडंबना इसी बात की है की आज सदन के बीच में प्लेकार्ड के साथ हल्ला हंगामा कर रहे सांसदों को नसीहत देने, उन्हें स्कूली बच्चों से भी बदतर बताने, उन्हें संसदीय अनुशासन का पाठ पढ़ाने के साथ ही ऐसा करनेवाले सांसदों के विरुद्ध कार्रवाई के नियम उपाय तलाशने में लगी लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू स्वयं यूपीए शासन के दौरान हल्ला हंगामा करनेवाले भाजपा सांसदों के साथ खड़े दिखते और संसदीय गतिरोध को जायज ठहराते थे. कोल गेट और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जेपीसी जांच के लिए जबरदस्त हंगामा कर संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही बाधित करने के पक्ष में राज्यसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता अरुण जेटली का बयान काबिले गौर है, ‘‘हम लोगों ने जिस मुद्दे पर इस सत्र में हंगामा शुरू किया है उसे हम जनता के बीच ले जाएंगे, जब तक कि निष्पक्षता और जवाबदेही बहाल नहीं हो जाती. अगर संसद के प्रति जवाबदेही का पालन नहीं किया जाता है और बहस सिर्फ इसे समाप्त करने के लिए रखी जाती है, तब विपक्ष के लिए यह रणनीति वैध हो जाती है कि वह उन सभी संसदीय उपायों से सरकार का भंडाफोड़ करे, जिन्हें इस्तेमाल करना उसके हाथ में है.’’ उस समय वह संसदीय गतिरोध को जायज ठहरा रहे थे. उन्होंने कहा, ‘‘बाधा पहुंचाने का अर्थ यह नहीं है कि काम मत करो. हम तो वास्तव में बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं.’’ यह पूछे जाने पर कि क्या संसद का उपयोग बाधा पहुंचाने के बजाय चर्चा के लिए नहीं किया जाना चाहिए, जेटली का सीधा जवाब था, ‘‘राष्ट्रीय बहस तो जारी है. हर पहलू पर चर्चा हो रही है, भले ही संसद में नहीं हो रही है. यह बहस दूसरी जगह जारी है. हमारी रणनीति यह है कि संसद में इस पर बहस मत होने दो, बस.’’ लोकसभा में विपक्ष की नेता रहीं सुषमा स्वराज से उस समय जब पूछा गया कि क्या वह नहीं जानतीं कि संसद के कामकाज में बाधा पहुंचाने से राष्ट्रीय खजाने को कितना नुकसान होता है, उन्होंने सहमति जताते हुए कहा था, ‘‘संसद सत्र का अगर इस तरह समापन होता है तो आलोचना होती है. हमसे कहा जाता है कि संसद को चलने नहीं दिया गया इसलिए नुकसान हुआ. अगर संसद की कार्यवाही नहीं चलने के कारण 10-20 करोड़ का नुकसान हुआ और हम सरकार पर दबाव बना सके तो यह स्वीकार्य है.’’ यही नहीं उस समय लालकृष्ण आडवाणी ने भी कहा था कि विधायी कार्य में बाधा पहुंचाने से भी ‘नतीजे मिलते हैं’. उस समय विपक्षी भाजपा के एक अन्य बड़े नेता यशवंत सिन्हां ने भी तब इसमें जोड़ा था, ‘‘चूंकि सरकार इस मसले पर चुप है इसलिए हमने इसे उठाने का फैसला किया. मैं पूरी ताकत से मांग करूंगा कि सरकार तुरंत जांच करवाने की घोषणा करे. इसकी घोषणा नहीं होने तक हम सदन को कैसे चलने दे सकते हैं?’’ यही नहीं चार साल पहले विपक्ष में खडे़ भाजपा के नेता वेंकैया नायडु से जब यह पूछा गया था कि सदन में हंगामा कर रहे भाजपा के सांसदों का यह तरीका असंसदीय नहीं है? उन्होंने कहा था, ‘‘हम नए तरीके ईजाद करें ताकि जवाबदेही के सिद्धांत की बलि न चढ़े. हम चुप नहीं रहेंगे. हम लड़ाई को जनता के बीच ले जाएंगे.’’

जाहिर है कि अब भूमिकाएं बदल चुकी हैं. सत्तारूढ़ हो गए भाजपा के नेताओं की भाषा बदली हुई है. लेकिन विपक्ष की भूमिका में आ गई कांग्रेस और इसके सहयोगी दल भी अब अतीत में भाजपा की विपक्षवाली भूमिका का अनुसरण करते हुए भाजपानीत सरकार को घेरने में लगे हैं. राफेल युद्धक विमानों की खरीद मामले में सरकार को संसद के भीतर घेरने से लेकर विपक्ष की रणनीति इसे सड़कों पर ले जाने और 2019 के आम चुनाव में अन्य बातों के साथ ही इसे मुख्य चुनावी मुद्दा बनाने की लगती है. जाहिर सी बात है कि दोनों पक्षों के अपनी जिद पर अड़े रहने के कारण संसद के सुचारु ढंग से चल पाने की सम्भावना बहुत कम ही रह जाती है. 

Thursday, 1 November 2018

शीर्षासन या संघ का वैचारिक कायापलट!

भाजपा की पितृ कहें या मातृ संस्था, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने संगठन, विचारधारा और कार्यशैली को लेकर भारी कश्मकश के दौर से गुजर रहा है. खासतौर से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के आरएसएस की तुलना मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे आतंकी संगठनों के साथ करने, गोहत्या और लव जिहाद के विरोध में माॅब लिंचिंग जैसी घटनाओं में उसके सांप्रदायिक, मनुवादी और फासिस्ट सोच और चरित्र का विद्रूप सामने आने के बाद से परेशान संघ का नेतृत्व अपनी छवि सुधारने और चमकाने और बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर खुद को ढालने या कहें कि अपनी एक सकारात्मक छवि पेश करने की कोशिशों में लगा है. आमतौर पर पर्दे के पीछे गोपनीय गतिविधियों में लिप्त रहने वाले संघ ने पिछले दिनों खुलकर सामने आने की कोशिश की. संघ के पुराने तकरीबन सभी सर संघचालक सार्वजनिक तौर पर बहुत कम बोलते रहे हैं लेकिन 2009 में संघ की कमान संभालने के बाद से ही पेशे से मवेशी डाक्टर रहे मोहन भागवत अपने पूर्ववर्तियों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही बोल रहे हैं. कई बार उनके बोल विवादों का कारण भी बनते रहे हैं.
लेकिन हाल के वर्षों में संघ के संगठन और संसाधनों के मामले में भी चतुर्दिक विकास होने के बावजूद देश विदेश के बौद्धिक वर्ग के बीच उसकी सर्व सवीकार्यता नहीं बन सकी है. देश के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के बजाय अंग्रेजों का साथ देने की उसकी भूमिका, हिटलर की नस्ली तानाशाही और मुसोलिनी के फासीवाद के साथ ही देश में मनुस्मृति का समर्थक होने के कारण वह लगातार सवालों के घेरे में आलोचना का पात्र रहा है. संघ के आलोचक इस मामले में इसके दूसरे सर संघचालक माधव सादाशिव गोलवलकर उर्फ गुरु जी की पुस्तक ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ और 'बंच आफ थाट्स’ के उनके विचारों तथा विभिन्न अवसरों पर दिए गए भाषणों को  उद्धृत करते रहे हैं. हालांकि बाद के वर्षों में ‘बंच आफ थाट्स’ के कई नए संस्करण आए जिनमें से उनके द्वारा कही गई कुछ विवादित बातों को गायब किया गया लेकिन आप मूल रूप से उनके विचारों को तो नहीं बदल सकते. और फिर संघ की शाखाओं में प्रचारकों के पास राणा प्रताप बनाम अकबर और शिवाजी बनाम औरंगजेब के अलावा स्वयंसेवकों को गुरु गोलवलकर की बातों की घुट्टी ही तो पिलाई जाती रही है. यह घुट्टी संघ के स्वयंसेवकों के मन मस्तिष्क में इस कदर जम गई है कि इसके आगे कुछ सोचने विचारने और बोलने की उनमें क्षमता ही नहीं विकसित हो सकी. जब कभी आर्थिक, सामाजिक, वैदेशिक, वैज्ञानिक मामलों पर बहस होती है, वे लोग लड़खड़ा से जाते हैं. 
और हाल के वर्षों में खासतौर से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में और तकरीबन डेढ़ दर्जन राज्यों में भी भाजपानीत साझा सरकारों के आने के बाद जिस तरह से संघ परिवार से जुड़े लोगों का गो हत्या, लव जिहाद आदि के विरोध के नाम पर ‘माब लिंचिंग’ के जरिए जो विद्रूप चेहरा सामने आया है, और उस पर जिस तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं, वह संघ की शिक्षाओं और उसके द्वारा पिलाई गई मुस्लिम, दलित और महिला विद्वेष की घुट्टी की ही देन है लेकिन उसको लेकर संघ और उसके द्वारा संचालित भाजपानीत सरकारों की छीछालेदर के बाद संघ के नेतृत्व को लगने लगा है कि दिखावे के तौर पर ही सही संघ को अपनी पुरानी खोल से बाहर आना ही होगा. इसके लिए एक सुविचारित योजना और तैयारी के साथ मोहन भागवत ने पिछले दिनों चार दिनों के दिल्ली प्रवास के दौरान बदलती परिस्थितियों के मद्देनजर ‘बदलते संघ’ की छवि पेश करने की कोशिश की.  
उन्होंने संघ की नजर में ‘भविष्य का भारत’ विषय पर सरकारी विज्ञान भवन में दो दिनों तक एकालाप किया और तीसरे दिन तकरीबन अपने लोगों के द्वारा ही संघ से जुड़े विवादित मुद्दों, जिनको लेकर उसकी आलोचना होती रही है, ऐसे तमाम विषयों पर पूछे गए सवालों के जवाब दिए. उन्होंने गुरु गोलवलकर के बहुत सारे विचारों, खासतौर से देश के लिए आंतरिक दुश्मनों के रूप में कम्युनिस्टों, मुसलमानों और ईसाइयों को परिभाषित करने को उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल कह कर खारिज करने की कोशिश की. उन्होंने कहा कि संघ अब अपने संस्थापक डा. केशव बलिराम हगडेवार और गुरु गोलवलकर के समय से काफी आगे आ चुका है. लेकिन अगर गोलवलकर के विचारों को निकाल बाहर कर दें तो संघ के पास वैचारिक पूंजी के बतौर बचता क्या है. उनके उन्हीं विचारों को लेकर तो संघ के स्वयंसेवक और नए जमाने के भक्त कम्युनिस्टों को देशद्रोही करार देते हैं और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध जहरीली बातें करते हैं. गौरतलब है कि इन आंतरिक दुश्मनों की पहचान भी गोलवलकर ने अंग्रजों के मुकाबले की थी. स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल नहीं होने और अंग्रेजों का साथ देने को तार्किक आधार देते हुए उन्होंने कहा था कि 'हमें अंग्रेजों से नहीं बल्कि अपने इन तीन आंतरिक दुश्मनों से लड़ने की जरूरत है.' 
अब दिखावे के तौर पर ही सही क्या संघ अपना हुलिया बदल सकेगा! संघ मामलों के एक जानकार कहते हैं कि मोहन भागवत का दिमाग खुद बहुत सारे मामलों में साफ नहीं है. वह एक बार तो संघ को संविधान के प्रति निष्ठावान बताते हैं और मनुस्मृति को खारिज नहीं करते और फिर संविधान से  धारा 370 और 35 ए को हटाने की बात भी करते हैं. बिहार विधानसभा के चुनाव के समय वह अपने मुखपत्रों-पांचजन्य और आर्गनाइजर को दिए साक्षात्कार में आरक्षण पर पुनर्विचार करने की बात कहते हैं और फिर राजस्थान, म.प्र., छत्तीसगढ़ और तेलंगाना विधानसभाओं के चुनाव के समय आरक्षण की वकालत करते हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार आरक्षण पर अपने पहले बयान के कारण उन्होंने बिहार में दलितों और पिछड़ों को भाजपा विमुख करने में योगदान किया था और अब वह आरक्षण विरोधी सवर्णों को भाजपा से दूर करने के लिए आग में घी डालने का काम कर रहे हैं. एससी, एसटी ऐक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के आदेश को उलटने के लिए मोदी सरकार के स्टैंड से जले भुने सवर्णों के घावों पर भागवत के बयान ने नमक छिड़कने का काम ही किया है. इसी तरह संविधान के प्रति निष्ठां जतानेवाले भागवत सबरीमाला और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का खुला विरोध करते हैं.   
कुछ साल पहले उन्होंने कहा था कि जिस तरह से अमेरिका में रहनेवाले  सभी लोग अमेरिकन होते हैं उसी तरह भारत में रहनेवाले सभी लोग हिंदू हैं. यानी आप संघ के हिंदू राष्ट्र में मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन या अपनी अलग धर्म और पहिचान के साथ समान हैसियत में नहीं रह सकते. लेकिन विज्ञान भवन में उन्होंने कहा कि मुसलमानों के बिना हिंदुत्व की अवधारणा बेमतलब और अधूरी है. 2013-14 से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के अन्य बड़े नेता 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देते आ रहे हैं. पिछले साढ़े चार वर्षों तक इस पर चुप्पी साढ़े रहे  भागवत ने  पिछले दिनों (17 से 19 सितम्बर 2018) नई दिल्ली के विज्ञान भवन के अपने उद्बोधन में इससे असहमति जताते हुए 'कांग्रेस युक्त भारत' की बात कही.   
उन्होंने महिलाओं के सशक्तीकरण पर जोर दिया और कहा कि महिलाओं के प्रति विचार और व्यवहार में जमीन आसमान के अंतर को मिटाना होगा. हर मामले में महिलाओं को बराबरी की हिस्सेदारी दी जानी चाहिए. लेकिन इन्हीं मोहन भागवत ने कुछ साल पहले छह जनवरी 2013 को इंदौर में कहा था, ‘‘ पति की देखभाल के लिए महिला उसके साथ एक करार से बंधी होती है. पति और पत्नी के बीच एक करार होता है, जिसके तहत पति का यह कहना होता है कि तुम्हें मेरे सुख और घर की देखभाल करनी होगी और बदले में मैं तुम्हारी सभी जरूरतों का ध्यान रखूंगा. जब तक पत्नी करार का पालन करती है, पति उसके साथ रहता है. यदि पत्नी करार का उल्लंघन करती है, तो वह उसे त्याग सकता है.’’ इतना ही नहीं इससे कुछ पहले उन्होंने यह कहा था कि बलात्कार जैसी घटनाएं ग्रामीण भारत में नहीं, बल्कि शहरी भारत में होती हैं.
मोहन भागवत ने अपने नए अवतार में स्वतंत्रता संग्राम में कांग्रेस के योगदान को सराहा. हालांकि इसके अलावा वह और कह क्या सकते थे. संघ को जनतांत्रिक संगठन बताने की कोशिश की लेकिन यह नहीं बता सके कि सर संघचालक से लेकर नीचे तक के पदों के लिए संघ के इतिहास में कोई चुनाव हुए भी हैं क्या. उन्होंने अपने प्रवचनों और प्रायोजित सवालों के जवाब में संघ को दलितों, आदिवासियों, महिलाओं और अन्य पिछड़ी जातियों का हिमायती बताया लेकिन यह नहीं बताया कि उनके सभी सर्वोच्च पदों पर केवल द्विज और वह भी ब्राह्मण-इनमें से भी अधिकतर महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मण ही क्यों हैं. संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारियों और समूची राष्ट्रीय कार्यकारिणी में एक भी दलित, आदिवासी और महिला का नाम क्यों नहीं है. संघ में सूचना के बाद सोचना बंद क्यों हो जाता है, इसके जवाब में उन्होंने समझाने की कोशिश की कि सूचना लंबे विचार विमर्श के बाद दी जाती है इसलिए उसके बाद उस पर सोचने की जरूरत नहीं रह जाती. लेकिन यह तो फासिस्ट समाजों में होता है लोकतांत्रिक समाज में कतई नहीं. 
उन्होंने समलैंगिकता को समर्थन देकर मध्यप्रदेश में अपने भाजपा सरकार में वित मंत्री रहे राघव जी जैसे लोगों का मनोबल जरूर बढ़ाया. 
कुल मिलाकर संघ का जो मूल चरित्र है, उसमें फिलहाल तो बदलाव की कोई संभावना नजर नहीं आती. परिस्थितियों के दबाव में इसके नरम या उदार चेहरा को पेश करने की जितनी भी कोशिशें की जाएं, इसका मूल चरित्र नहीं बदल सकता. कुछ लोग मोहन भागवत के इन विचारों को सोवियत संघ में कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन महासचिव गोर्वाच्योव के ग्लासनोश्त से करने लगे हैं लेकिन ग्लासनोश्त के बाद पेरेस्त्रोइका भी हुआ था और उसके साथ ही सोवियत संघ का पतन कहें या विखंडन भी. क्या संघ इसके लिए तैयार है !