Saturday, 29 August 2020

Foreign Visits with President Dr. APJ Abdul Kalam



मास्को और पीटर्सबर्ग

जयशंकर गुप्त

मेरे लिए तो यह किसी बड़े और सुखद आश्चर्य से कम नहीं था. राष्ट्रपति भवन से सूचित किया गया कि राष्ट्रपति डा. ए पी जे अब्दुल कलाम चार देशों (रूस, स्विट्जरलैंड, आईसलैंड और यूक्रेन) की यात्रा पर निकल रहे हैं. उनके साथ जानेवाली मीडिया टीम में हमारा नाम भी शामिल है. कुछ देर बाद राष्ट्रपति भवन से औपचारिक आमंत्रण भी मिल गया. राष्ट्रपति के रूप में डा. कलाम की यह तीसरी विदेश यात्रा थी जबकि डेढ़ साल के अंतराल के बाद हमारे लिए उनके साथ यह दूसरी विदेश यात्रा होनेवाली थी. छात्र-युवा जीवन से ही मन में जिन देशों और शहरों को देखने की सपने जैसी तमन्ना थी, उसमें रूस और खासतौर से उसका राजधानी शहर मास्को भी था. इसकी खास वजह कभी कम्युनिस्टों, खासतौर से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों का ‘मक्का’ कहे जानेवाले रूस और उसके राजधानी शहर मास्को में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक बदलावों को जानने समझने की ललक भी थी. पत्रकार के बतौर पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोश्त के बाद हुए बदलावों, कम्युनिस्ट शासन के पटाक्षेप और रूस में हुए वैश्वीकरण और उदारीकरण के प्रभावों को लेकर मन में तमाम तरह के सवाल और जिज्ञासाएं थीं जो मास्को, पीटर्सबर्ग और यूक्रेन यात्रा के दौरान पूरी हो सकती थीं. यूक्रेन भी कभी कम्युनिस्ट सोवियत संघ का अभिन्न हिस्सा था.

 लेकिन, तकरीबन चौदह दिनों (22 मई 2005 से लेकर 4 जून 2015) की इन चार देशों की यात्राओं के दौरान डा. कलाम की चिंता का विषय भूकम्प और सुनामी जैसी प्राकृतिक आपदाओं के पूर्वानुमान की संभावनाओं एवं उससे बचाव के उपायों पर शोध और विचार करना भी था. गौरतलब है कि 26 दिसंबर 2004 को हिंद महासागर में आए भूकंप-सुनामी से उठी ऊंची लहरों ने कई देशों सहित भारत के समुद्रतटीय इलाकों में जान माल की भारी तबाही मचाई थी. इसके अलावा देश की सुरक्षा जरूरतों के साथ ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थाई सदस्यता के लिए समर्थन जुटाना भी डा. कलाम की इन चार देशों की यात्रा की प्राथमिकताओं में था. सभी जगह छात्रों, प्रोफेसरों और वैज्ञानिकों से मिलना और उनसे सीधा संवाद कायम करना, उनके एजेंडे में वैसे भी प्रमुखता से रहता.

इस यात्रा में शामिल 50 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल में अनिवासी भारतीय मामलों के तत्कालीन राज्यमंत्री जगदीश टाइटलर, सांसद द्वय-मिलिंद देवड़ा एवं एन पी दुर्गा के साथ ही संबद्ध विषयों से जुड़े वैज्ञानिक, सरकार के आलाअफसर, राष्ट्रपति के सचिव पी एम नायर, प्रेस सचिव एस एम खान, सुरक्षा अधिकारी तथा मीडियाकर्मी के रूप में हम, यूएनआई के नीरज वाजपेयी, पीटीआई समीर कौल और छायाकार शिरीष शेट्टी, आईएनएस के शिबी अलेक्स चेंडी, आकाशवाणी की अल्पना पंत शर्मा-नीरज पाठक, डीडी न्यूज की मधु नाग और कैमरामैन बी ए नवीन, दैनिक भास्कर के कुमार राकेश, कन्नड़ दैनिक विजय कर्नाटक के विशेश्वर भट्ट, दि हिंदू के के वी प्रसाद, इंडियन एक्सप्रेस की रितु सरीन, मिड डे-इन्किलाब के खालिद अंसारी, दिनमलार के मालिक संपादक आर कृष्णमूर्ति जी, एएनआई के राजेश सिन्हां और एएनआई के फोटोग्राफर अजय शर्मा भी थे. इस बार भी उनके काफिले में उनका कोई अपना रिश्तेदार-नातेदार शामिल नहीं था.

 एयर इंडिया के विशेष विमान ‘तंजौर’ में उनके पसंदीदा भोजन तैयार करने के लिए खासतौर से दक्षिण भारतीय सब्जियों और करी पत्ते के बंडल जरूर लद रहे थे. टेकऑफ के तुरंत बाद, कलाम मीडिया सेक्शन में चले आए, और बोले, “अपने भोजन और प्रिय पेय पदार्थों का आनंद लें.” यह एक ऐसा वाक्य था जिसे वह दो सप्ताह की लंबी यात्रा के दौरान तकरीबन हर उड़ान में दोहराते थे. वैसे, पिछली यात्रा की तरह ही इस बार भी एयर इंडिया के विशेष विमान ‘तंजौर’ में ‘महाराजा’ का आतिथ्य लाजवाब था. खाने-पीने की हर ख्वाहिश बड़ी विनम्रता के साथ पूरी की जाती थी. खाने-पीने की जो चीज विमान में उपलब्ध नहीं होती थी, उसका इंतजाम अगली उड़ान में अवश्य कर दिया जाता. 

 नई दिल्ली से मास्को तक की उड़ान में डा. कलाम ने मीडिया के लोगों को अपनी यात्रा के मकसद के बारे में समझाते हुए कहा था, “रूसी नेताओं और वैज्ञानिकों से उनकी मुलाकात के केंद्र में सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल ‘ब्रह्मोस’ को तीसरी दुनिया के बाजार में उतारना भी होगा. उन्होंने बताया कि वह भारत और रूस के द्वारा संयुक्त रूप से निर्मित ब्रह्मोस का निर्माण करनेवाले रूसी सैन्य प्रतिष्ठान में भी जाएंगे. इसके अलावा वह विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष रूप से आपसी सहयोग के बारे में बात करेंगे. केवल रूस ही नहीं, स्विट्जरलैंड, आइसलैंड और यूक्रेन से भी वैज्ञानिक सहयोग बढ़ाने पर बल देंगे.

 22 मई, 2005 को हम डा. कलाम के साथ राष्ट्रपति के साथ मास्को में व्नूकोवा हवाई अड्डे पर पहुंचे. रूस के वित्त मंत्री अलेक्सेई कुद्रिन ने पूरे लाव लश्कर के साथ रेड कार्पेट बिछाए हवाई अड्डे पर उनका भव्य स्वागत किया. 

 पूर्वी यूरोप और उत्तर एशिया में स्थित रूस की ख्याति विश्व के सबसे बड़े क्षेत्रफल (17075400 वर्ग किमी) वाले देश के रूप में है. आकार की दृष्टि से यह भारत से पांच गुना से भी बड़ा है. इतना विशाल देश होने के बाद भी रूस की जनसंख्या विश्व में सातवें स्थान पर है. रूस की सीमाएं नार्वे, फ़िनलैंड, एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैंड, बेलारूस, यूक्रेन, जॉर्जिया, अज़रबैजान, कजाकिस्तान, चीन, मंगोलिया और उत्तर कोरिया के साथ लगती हैं.

 प्रथम विश्वयुद्ध और बोल्शेविक क्रांति के बाद सोवियत संघ विश्व का सबसे बड़ा साम्यवादी देश बना. द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूरी दुनिया में सोवियत संघ एक प्रमुख सामरिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरा. अमेरिकी ब्लाक (नाटो) के मुकाबले सोवियत ब्लाक (सीटो) का नेतृत्व यूएसएसआर (युनियन ऑफ  सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स) करने लगा. संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ शीत युद्ध, सामरिक, आर्थिक, राजनैतिक और तकनीकी क्षेत्रों में एक-दूसरे से आगे निकलने की वर्षों तक चली होड़ के कारण यह आर्थिक रूप से कमजोर होता चला गया. लोकतंत्र विहीन साम्यवाद और सर्वहारा की तानाशाही के नाम पर कम्युनिस्टों के एकाधिकारवादी शासन और मानवाधिकारों के दमन के विरुद्ध अस्सी के दशक में जनता के बड़े हिस्से में असंतोष व्यापक होने लगा. इसी के क्रम में रूस के तत्कालीन राष्ट्रपति मिख़ाइल गोर्बाच्योव के दिमाग में सोवियत संघ के लोकतांत्रिक और उदारवादी कायापलट की एक से एक योजनाएं कुलबुला रही थीं.

उन्होंने पाया कि अमेरिका के नेतृत्ववाले पश्चिमी गुट के साथ हथियारों की होड़ से सोवियत अर्थव्यवस्था बहुत ख़स्ता हो चली है. उन्होंने अपने सुधारों को पेरेस्त्रोइका (पुनर्गठन) और ग्लासनोस्त (पारदर्शिता) का नाम दिया. उन्होंने सोवियत गुट के वार्सा संधि वाले देशों को यह छूट भी दे दी कि वे अपनी नीतियां अब मॉस्को के हस्तक्षेप के बिना स्वयं तय कर सकते हैं. लोकतंत्र के एकबारगी प्रस्फुटन के इस क्रम में ही 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया और इस तरह से सोवियत संघ के घटक देशों में कम्युनिस्ट शासन के अंत की शुरुआत भी हो गई.


राजधानी शहर मास्को की 'सेवेन सिस्टर्स' 


 इन बदलावों का साक्षी रूस का राजधानी शहर मास्को भी रहा है. ऐतिहासिक वोल्गा नदी की कंट्रीब्यूटरी मोस्कवा नदी के तट पर बसा मास्को रूस की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, वित्तीय एवं शैक्षणिक गतिविधियों का केंद्र माना जाता है. ऐतिहासिक रूप से पुराने सोवियत संघ एवं प्राचीन रूसी साम्राज्य की राजधानी भी रहे मास्को शहर को 1237-38 के आक्रमण के बाद, मंगोलों ने आग के हवाले कर दिया था. बड़े पैमाने पर लोग मारे गये थे. मास्को दुबारा विकसित हुआ और 1327 में व्लादिमीर सुज्दाल रियासत की राजधानी बना. मई, 1703 में बाल्टिक तट पर जार पीटर महान द्वारा सेंट पीटर्सबर्ग के निर्माण के बाद (उससे पहले वह कस्बा-शहर पेट्रोग्राद के नाम से जाना जाता था), 1712 से रूस की राजधानी मास्को से स्थानांतरित होकर सेंट पीटर्सबर्ग चली गई. लेकिन 1917 के रूसी (बोलशेविक) क्रांति के बाद मास्को को सोवियत संघ की राजधानी बनाया गया.
 विश्व प्रसिद्ध स्थापत्य के लिए मशहूर मास्को ‘सेंट बेसिल केथेड्रल’, ‘क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल’ और सेवेन सिस्टर्स जैसी इमारतों के लिए भी प्रसिद्ध है. लंबे समय तक मास्को पर रूढ़िवादी चर्चों का प्रभाव रहा. हालांकि, शहर के समग्र रूप 
में सोवियत काल से भारी परिवर्तन हुए. खासतौर से जोसेफ स्टालिन के शहर के आधुनिकीकरण के बड़े पैमाने पर किये प्रयास के कारण यह परिवर्तन हुआ. स्टालिनवादी अवधि का सबसे प्रसिद्ध योगदान 'सेवेन सिस्टर्स' (सात बहनें) का निर्माण माना जा सकता है. सेवेन सिस्टर्स यानी सात गगनचुम्बी इमारतें हैं, जो क्रेमलिन से समान दूरी पर शहर भर में फैली हुईं हैं. ओस्तान्कियो टॉवर के अलावा ये सात टॉवर मध्य मास्को की सबसे ऊंची इमारतों में से हैं. इन सात टावरों को शहर के सभी ऊंचे स्थानों से देखा जा सकता है. ओस्तान्कियो टॉवर का निर्माण 1967 में पूरा हुआ था, उस समय यह दुनिया की सबसे ऊंची भूमि संरचना थी. आज भी यह बुर्ज खलीफा (दुबई), केंतून टॉवर (ग्वांगझू-चीन) और सी.एन. टॉवर (टोरोंटो) के बाद दुनिया में चौथे स्थान पर है.

 सोवियत संघ के जमाने से ही रूस और भारत के संबंध बहुत प्रगाढ़ और सहयोगी रहे हैं. नेहरू-इंदिरा युग में भारत में हुए औद्योगीकरण में भी सोवियत रूस का योगदान महत्वपूर्ण रहा है. 1971 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध के समय सोवियत रूस चट्टान की तरह भारत के साथ खड़ा रहा. अभी भी तमाम मामलों में रूस की भूमिका भारत के घनिष्ठ सहयोगी देश के रूप में ही नजर आती है. डा. कलाम की रूस यात्रा इन संबंधों को और मजबूती प्रदान करने की गरज से भी महत्वपूर्ण कही जा सकती थी.

सोवियत संघ के विखंडन के बाद रूस की यात्रा पर पहुंचनेवाले डा. कलाम भारत के पहले राष्ट्रपति थे. इससे पहले तत्कालीन राष्ट्रपति आर. वेंकटरमण ने 1988 में तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा की थी. 22 मई को मास्को पहुंचने के साथ ही डा. कलाम को अपने जमाने के मशहूर फिल्म अभिनेता, केंद्रीय मंत्री सुनील दत्त के असामयिक निधन के दुखद समाचार से अवगत होना पड़ा. उसी रात उन्हें केंद्र सरकार के बिहार विधानसभा को भंग करने के अप्रिय और विवादित फैसले पर मुहर भी लगानी पड़ी जिसके लिए बाद में उनकी काफी किरकिरी भी हुई. 

 मास्को में विमान से बाहर निकलने पर अजीब तरह के मौसम से सामना हुआ. नई दिल्ली में हमें बताया गया था कि मास्को में उस समय बहुत ठंड पड़ती है. इस लिहाज से हम सबने गरम कपड़े धारण कर लिए थे. साथ चल रहे एक उत्साही पत्रकार सहयोगी ने तो कुछ ज्यादा ही गरम कपड़े, सूट-बूट के ऊपर ओवरकोट भी पहन लिए थे. लेकिन बाहर का मौसम हमारे दिल्ली के जैसा ही था. तकरीबन पौन घंटे की बस यात्रा के बाद मास्को में ठहरने के लिए निर्धारित जगहहोटल रसियामें पहुंचने तक सभी पत्रकार पसीने से लथपथ थे. मौसम का मिजाज होटल में बने मीडिया रूम में मीडिया को राष्ट्रपति डा. कलाम की रूस यात्रा के कार्यक्रमों, उद्देश्य और उससे जुड़े पहलुओं के बारे में ब्रीफ करते समय मास्को स्थित भारत के राजदूत कंवल सिब्बल के चेहरे पर पसीने की लकीरों के रूप में भी समझा जा सकता था. 

 होटल था कि ‘भूल भुलैया’

 मोस्कवा नदी के तट पर ऐतिहासिक रेड स्क्वायर, क्रेमलिन और सेंट ब्रासिल कैथेड्रल के पास स्थित होटल रसिया भी क्या था-विशालकाय भूल भुलैया. बताया गया कि उस होटल के निर्माण की भी एक ऐतिहासिक कथा है. 1947 में मास्को शहर की स्थापना की आठ सौवीं सालगिरह को यादगार बनाने के लिए शहर के विभिन्न इलाकों में आठ ऐतिहासिक इमारतें बनाने का फैसला हुआ था. सात इमारतें तो 1945-55 तक बनकर तैयार हो गईं लेकिन आठवीं इमारत नहीं बन सकी. कारण, बताया गया कि मोस्कवा नदी के किनारे रेखांकित जमीन पर खड़ी की जानेवाली भव्य अट्टालिका के धंस जाने की आशंका थी. बाद में (1964-67) में उसी जगह विशालकाय होटल रसिया बनाया गया. 1990 में लासबेगास में होटल एक्स कैलिबर के बनने तक यह दुनिया में सबसे बड़ा होटल था, जिसका जिक्र गिनिज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में भी दर्ज किया गया. एक्स कैलिबर के बनने के बाद भी होटल रसिया, 2006 में बंद होने तक, यूरोप का सबसे बड़ा होटल बताया जाता था. 21 मंजिले इस होटल में तीन हजार कमरे, 245 हाफ स्युट्स, पोस्ट आफिस, हेल्थ क्लब, नाइट क्लब, मूवी थिएटर, पुलिस थाना और उसके साथ कुछ बैरकें भी थीं. तकरीबन 2500 लोगों के एक साथ बैठने की क्षमता का स्टेट सेंट्रल कंसर्ट हाल भी था. 25 फरवरी 1977 को इस होटल में लगी भीषण आग में 42 लोगों ने झुलसकर दम तोड़ दिया था जबकि 50 लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए थे.

  इस होटल के एक कमरे से बाहर निकलकर कहीं जाने और फिर उसी कमरे में लौटने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती थी. एक बार तो हम और हमारे मित्र कुमार राकेश को इसके लिए लंबी कवायद करनी पड़ी. होटल के अधिकतर कर्मचारी रूसी भाषा ही जानते, समझते और बोलते थे. हम अपने कमरे का लोकेशन भूल गए. सभी कमरे एक ही समान थे. हम जिधर से भी जाते, घूम फिर कर पुरानी जगह चले आते. कर्मचारियों से पूछने पर केहुनी से दायीं अथवा बायीं तरफ जाने का इशारा मिल जाता. काफी परेशान होने के बाद हमने तय किया कि होटल से बाहर निकलकर जिस दिशा के गेट से प्रवेश हुआ था, वहां पहुंचा जाए. सभी चार दिशाओं में एक गेट था. जिस गेट से हमारा प्रवेश हुआ था, उसी गेट से अंदर जाने पर तीसरी मंजिल पर हमारा मीडिया रूम था, वहां से हमें मदद मिल सकती थी. इस क्रम में तकरीबन डेढ़ किमी. का चक्कर लग गया. तब कहीं दुभाषिया लड़की के सहारे हम अपने कमरे तक पहुंच सके. होटल में डांस बार और बेसेमेंट में नाइट क्लब भी था. एक बार तो लिफ्ट में कुछ बार बालाओं या कहें ‘काल गर्ल्स’ से भी सामना हो गया. उनसे बच निकलना ही मुनासिब लगा. हालांकि एक राजनयिक के सहयोग से हम बेसमेंट में स्थित ‘ब्लू एलीफेंट’ के नाम से ‘नाइट क्लब’ में नग्न नृत्य और अन्य तरह की गतिविधियों के गवाह जरूर बने.

 खूबसूरत दुभाषिया लड़कियों से हमारी बातचीत अंग्रेजी में होती थी लेकिन वे लोग हिंदी भी बखूबी जानती, समझती ही नहीं बल्कि बोलती भी थीं. यह बात हममें से किसी को मालूम न थी. खूबसूरत और गहरी मगर नीले पानीवाली साफ-सुथरी मोस्कवा नदी में नौकायन के समय नाच-गाने के क्रम में खाते-पीते समय हममें से कुछ पत्रकार साथियों ने उन लड़कियों के बारे में कुछ मजाकनुमा या वहां के हिसाब से कहें तो कुछ अमर्यादित टिप्पणियां की, जिनके बाद उनमें से एक ने हमसे पूछा, ‘सर, क्या आप लोग हमारे बारे में इस तरह की बातें भी करते हैं.हम तो अवाक रह गए, उसके मुंह से खालिस हिंदी सुनकर बड़ा अजीब लगा. हमने पूछा कि हिंदी कहां से सीखी, पता चला कि वह कई बार भारत आ चुकी थी और आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान से बाकायदा हिंदी की पढ़ाई भी कर चुकी है. उसके बाद से तो दुभाषिया लड़कियों के साथ बातचीत का हमारा लहजा ही बदल गया. शादी-विवाह के बारे में पूछे जाने पर उनमें से एक ने कहा कि बेरोजगार लड़की से कौन विवाह करेगा. दुभाषिये का काम उन्हें अनुबंध पर मिला था. 

 राजकपूर और ‘गणेश जी’

 मास्को में कभी, सोवियत संघ के जमाने में स्व. राजकपूर का बड़ा जलवा था. लोगमेरा जूता है जापानी’...., ‘आवारा हूंजैसे उनके फिल्मी गानों को गुनगुनाते मिल जाते थे. सोवियत संघ के विघटन के बाद उनके सिर से लाल टोपी तो गायब हो गई लेकिन मोस्कवा नदी में क्रूजर पर घूमते समय रूसी छात्र-युवाओं के द्वारा भारतीय मीडियाकर्मियों के समक्ष पेश किए गए सांस्कृतिक कार्यक्रम में ठेठ रूसी अंदाज में सुनने को मिला, ‘सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी.बताया गया कि रूस में और खासतौर से मास्को में पहले से कम मगर बालीवुड और हिंदी फिल्मों का आकर्षण अभी भी है. लोगों में शाहरुख खान, अमिताभ बच्चन और मिथुन चक्रवर्ती अभी भी खासे लोकप्रिय हैं. बताया गया कि चैनल 2 पर खासतौर से रविवार के दिन रूसी भाषा में रूपांतरित हिंदी फिल्में दिखाई जाती हैं. मास्को शहर में घूमते समय हमें लेनिनिस्की प्रास्पेक्ट हाइवे पर एक बैनर में टंगे अपने प्रिय देवता गणेश जी के दर्शन हो गए. उनकी तस्वीर के साथ रूसी भाषा में कुछ लिखा था. दुभाषिए से पूछने पर पता चला कि गणेश जीबकारा कैसिनोका प्रचार कर रहे हैं. यह बताने की जरूरत नहीं कि वह कैसिना यानी जुए का अड्डा किसी भारतीय का ही था. पता चला कि मास्को में उस समय चार-पांच हजार भारतीय रह रहे थे. 

 मास्को में सोवियत संघ के विघटन के बाद आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण के निशान साफ नजर आ रहे थे. रूसी लिपि में लिखे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भव्य और आकर्षक विज्ञापन आंखें चुंधिया दे रहे थे. मैकडॉनल्ड्स, केएफसी, एलजी, नेसकैफे, पेप्सी और कोका कोला की दुकानों-रेस्तराओं में रूसी छात्र-युवाओं की खासी भीड़ नजर आ रही थी. एक बदलाव और नजर आ रहा था. सोवियत संघ और कम्युनिस्ट सत्ता के दौरान रूस में चर्चों की हालत बहुत खस्ता थी. कई चर्च बंद हो गए थे तो कई के इस्तेमाल बदल गए थे. ऐतिहासिक किले क्रेमलिन के सामने 17वीं सदी में बने ‘क्राइस्ट द सेवियर केथेड्रल चर्च’ को 1960 में स्टालिन ने ध्वस्त कर वहां स्वीमिंग पुल बनवा दिया था. लेकिन पेरेस्त्रोइका के बाद, 1993 में इस चर्च का जीर्णोद्धार कराया गया. इसी तरह से शहर के अन्य प्रमुख चर्च रंग रोगन से चमकने लगे थे जहां न सिर्फ पर्यटक बल्कि श्रद्धालुओं की आमद भी बढ़ रही थी.

इस तरह के तीन बड़े चर्च क्रेमलिन में ही हैं. वैसे, क्रेमलिन में घूमने के लिए पर्यटकों अथवा श्रद्धालुओं से 30 डालर वसूल किए जा रहे थे. वोदका अभी भी मास्को में सबसे प्रिय शराब बताई गई. लेकिन वह अब अनिवार्य नहीं रह गई थी. मनपसंद के ब्रांडवाली सभी तरह की शराब अब वहां आसानी से उपलब्ध थी.

नोटः अगले सप्ताह क्रेमलिन में आधुनिक रूस के निर्माता कहे जानेवाले रूसी परिसंघ के राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के साथ डा. कलाम की द्विपक्षीय बातचीत, पुतिन द्वारा डा. कलाम के सम्मान में दिए गए राजकीय भोज के अवसर पर डा. कलाम का भाषण, रूस और भारत के संयुक्त उपक्रम में बननेवाली सुपरसोनिक मिसाइल 'ब्रह्मोस' की निर्माता कंपनी में डा. कलाम के स्वागत के साथ ही 25 मार्च को उनकी सेंट पीटर्सबर्ग की यात्रा से जुड़े रोचक संस्मरण.
इसके साथ ही बिहार विधानसभा भंग करने के यूपीए सरकार के विवादित फैसले पर डा. कलाम ने मुहर क्यों लगाई थी ! इसकी भी तफसील से चर्चा.

 

Saturday, 22 August 2020

Foreign visits with President Dr. APJ Abdul Kalam-Bulgaria

कलाम के साथ विदेश भ्रमण-3

बुल्गारियाः वामपंथ से दक्षिणपंथ की ओर!
 
जयशंकर गुप्त


  

    राष्ट्रपति के रूप में डा. ए पी जे अब्दुल कलाम साहब की आठ दिनों की इस पहली विदेश यात्रा का अंतिम पड़ाव कई हजार वर्षों के इतिहास और सांस्कृतिक विरासत को सीने में संजोए बुल्गारिया था. 22 अक्टूबर को सूडान की राजधानी खारतूम में दोपहर के भोजन के बाद हम लोग बुलगारिया की राजधानी सोफिया के लिए रवाना हो गये. स्थानीय समय के अनुसार शाम के 7.10 बजे हम सोफिया अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे. सूडान से बुल्गारिया जाने के रास्ते में डा. कलाम ने विमान में कहा, “सुना है कि बुल्गारिया और इसकी राजधानी सोफिया बहुत खूबसूरत है. सोवियत संघ के जमाने में उसके अभिन्न एवं महत्वपूर्ण सहयोगी देश रहे बुल्गारिया के साथ भारत के रिश्ते हमेशा से बहुत करीबी और प्रगाढ़ रहे हैं. नए संदर्भों में हम इन रिश्तों को और प्रगाढ़ बनाने के इच्छुक हैं.” उन्होंने बताया कि सोवियत संघ के विखंडन के बाद वह बुल्गारिया में हुए बदलावों, औद्योगिक प्रगति और सांस्कृतिक माहौल का जायजा लेना और समझना चाहते हैं.

    दक्षिण पूर्व यूरोप में स्थित बुल्गारिया की सीमाएं उत्तर में रोमानिया से, पश्चिम में सर्बिया और मेसेडोनिया से, दक्षिण में यूनान और तुर्की से मिलती हैं. पूर्व में इस देश की सीमाएं काला सागर निर्धारित करता है. कला और तकनीक के अलावा राजनैतिक दृष्टि से भी बुल्गारिया का वजूद पांचवीं सदी से नजर आने लगता है. यूनान और इस्ताम्बुल के उत्तर में बसा बुल्गारिया मानव बसावट की दृष्टि से बहुत पुराना देश है. मोंटाना के पास मिले 6800 साल पुराने एक पट्टिकालेख में चार पंक्तियों में कुछ, 24 चिह्न बने पाए गए हैं-इसको पढ़ पाना अभी तक संभव नहीं हुआ है, लेकिन इससे ये अनुमान लगाए जाते हैं कि यहां उस समय मानव रहते होंगे. 1972 में काला सागर के तट पर स्थित वार्ना में सोने का खजाना मिला था जिसपर राजसी चिह्न बने थे. इससे भी अनुमान लगाया जाता है कि बहुत पुराने समय में भी यहां कोई राज्य या सत्ता रही होगी-हांलांकि इस राज्य के जातीय मूल का पता नहीं चल पाया है.

    सामान्यतया थ्रेसियों को बुल्गारों का पूर्ववर्ती माना गया है. थ्रेस के लोगों ने ट्रॉय की लड़ाई (1200 ईसा पूर्व के आसपास) में हिस्सा लिया था. इसके बाद 500 ईसा पूर्व तक उनका एक साम्राज्य स्थापित हुआ था. सिकंदर ने 332 ईसा पूर्व में इस पर अधिकार कर लिया और 46 ईस्वी में रोमनों ने. इसके बाद एशिया से कई समूहों का यहां आगमन आरंभ हुआ. स्लाव जाति के लोगों ने 581 में बिजेन्टाइन के रोमन साम्राज्य के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर लिया. पहले बुल्गारियन साम्राज्य ने न केवल बाल्कन क्षेत्र बल्कि पूरे पूर्वी यूरोप को अनेक तरह से प्रभावित किया. बिजेन्टाइन आक्रमणों से सन 1018 तक बुल्गार साम्राज्य का अंत हो गया. बुल्गारियन साम्राज्य के पतन के बाद इसे ओटोमन शासन के अधीन कर दिया गया. सन् 1185 से 1360 तक दूसरे बुल्गार साम्राज्य की सत्ता कायम रही. उसके बाद उस्मानी (ओटोमन) तुर्क लोगों ने इस पर अधिकार कर लिया. सन 1877 में रूस ने ओटोमन साम्राज्य पर हमला कर उन्हें हरा दिया. इस तरह से 1878 में तीसरे बुल्गार साम्राज्य का उदय हुआ. 1880 में तुर्कों के खिलाफ चलाए गए अभियान में 30 हजार तुर्क बुल्गारिया छोड़कर तुर्की चले गए. इससे दो दशक पहले ग्रीस में भी ऐसा ही अभियान चला था.

    दूसरे विश्व युद्ध के समय बुल्गारिया साम्यवादी राज्य और इस तरह से सोवियत संघ का अभिन्न सहयोगी देश बन गया था. लेकिन 1989 में बदलाव की बयार यहां भी बहनी शुरू हो गई थी. 1989 की शुरुआत में बुल्गारिया में कट्टरपंथियों की जगह नरमपंथी कम्युनिस्टों का शासन हुआ. और फिर 1989-90 में ही ग्लासनोश्त एवं पेरेस्त्रोइका के बाद यहां भी साम्यवादियों का एकाधिकार समाप्त हो गया. और बुल्गारिया 2004 से नाटो तथा 2007 से यूरोपीय यूनियन का सदस्य बन गया. फिर तो सब कुछ बदलने लगा. 


     अपने सीने में कई हजार वर्षों का इतिहास संजोए बुल्गारिया की राजधानी सोफिया में भी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक बदलाव साफ दिख रहे थे. यहां सोवियत संस्कृति की जगह यूरोपीय और अमेरिकी संस्कृति की छाप साफ नजर आ रही थी. सड़कों और गलियों में भी अमेरिकी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पाद, शो रूम और विज्ञापनों के बड़े बड़े होर्डिंग नजर आ रहे थे. मैकडॉनल्ड और केंचुकी फ्राएड चिकेन जैसे रेस्तरां और पब, नाइट क्लब भी खुल गए थे. वोदका भी उपलब्ध थी लेकिन तमाम तरह की स्कॉच ह्विस्की और अन्य शराब की बोतलों से दुकानें अटी पड़ी थीं. सड़कों पर टोयोटा, बीएम डब्ल्यू, आउडी और मर्सिडीज जैसी महंगी कारें दौड़ने लगी थींबदलाव के प्रतीक के रूप में सोफिया शहर के बीच में ऊंचे स्तंभ पर खड़ी भाग्य की देवी कही जानेवाली सोफिया की कलात्मक मूर्ति भी देखने को मिली जिसके सिर पर सत्ता और शक्ति के प्रतीक के रूप में ताज, एक हाथ में प्रसिद्धि की प्रतीक माला और दूसरे हाथ में ज्ञान का प्रतीक कहे जानेवाले उल्लू की कलाकृति है. तांबे और कांसे की इस मूर्ति को प्रसिद्ध मूर्तिकार ज्योर्जी चपकनोव ने बनाई थी जिसे सन् 2000 में ठीक उस जगह स्थापित किया गया था जहां उससे पहले कम्युनिस्ट नेता लेनिन की आदमकद प्रतिमा लगी थी. 

    भारत-बुल्गेरियाई संबंध पारंपरिक रूप से बहुत घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण रहे हैं. दोनों देशों के बीच राजनयिक संबंध 1954 में स्थापित किए गए थे.  समय-समय पर उच्च स्तरीय यात्राओं के आदान-प्रदान ने इन द्विपक्षीय संबंधों को और मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया है. राष्ट्रपति डॉ. कलाम से पहले भारत से  उपराष्ट्रपति डॉ. एस. राधाकृष्णन (1954), प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1967), राष्ट्रपति वीवी गिरि (1976), राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी (1980), प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (1981), राष्ट्रपति आर. वेंकटरमन (1985), शंकर दयाल शर्मा (1994) और उप राष्ट्रपति कृष्णकांत (2000) ने बुल्गारिया की उच्च स्तरीय यात्राएं की थीं. बुल्गारिया की तरफ से उनके राष्ट्रपति टोडर झिवकोव ने 1976 और 1983 में और पीटर स्टोयोनोव ने 1998 में, प्रधान मंत्री स्टैंको टोडोरोव ने 1974 और 1980 में भारत की यात्राएं की थी.

    बहरहाल, बुल्गारिया के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्योर्जी परवानोव के आमंत्रण पर सोफिया आए डा. कलाम ने 23 अक्तूबर की सुबह राष्ट्रपति के कार्यालय में अपने समवर्ती परवानोव के साथ अकेले में तकरीबन एक घंटे तक बातचीत की. इससे पहले सेंट अलेक्जेंडर नेवेस्की चौक पर श्री परवानोव ने राजकीय परेड के साथ डा. कलाम का भव्य स्वागत किया.


    वहां काफी ठंड थी, हल्की बारिश भी हो रही थी. लेकिन किसी के पास छाता नहीं था. हमें बताया गया कि यहां के राष्ट्रपति पसंद नहीं करते कि राजकीय परेड के समय बारिश हो रही हो तो आप छाते का इस्तेमाल करें. उनके अनुसार जब हमारे सैनिक बगैर छाते के बारिश में खड़े रह सकते हैं तो फिर नागरिक और वीवीआईपी भी क्यों नहीं. हमारे लिए यह कुछ अजीबोगरीब अनुभव था. हम लोग ठंड से सिकुड़ते यही मनाते रहे कि बारिश तेज न हो और कार्यक्रम जल्दी संपन्न हो जाए. शुक्र था कि बूंदा-बांदी ही होकर रह गयी. डा. कलाम को वहां गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया. शहीदों को श्रद्धांजलि दी गयी. डा. कलाम ने वहां अज्ञात सैनिक की समाधि पर श्रद्धा के फूल चढ़ाए.

    राष्ट्रपति कार्यालय में श्री परवानोव और डा. कलाम के बीच अकेले में हुई मुलाकात के दौरान ही दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण संधि और कुछ और द्विपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए. बाद में दोनों राष्ट्राध्यक्षों ने संवाददाताओं से बातचीत में दोनों देशों के बीच कृषि, खाद्य प्रसंस्करण के साथ ही सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भी द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने पर बल दिया. दोनों ने सभी तरह के आतंकवाद को मानव जाति का सबसे बड़ा और घातक दुश्मन करार देते हुए इस अंतर्राष्ट्रीय बुराई को समूल नष्ट करने की प्रतिबद्धता और एकजुटता का इजहार किया. हालांकि बुल्गारिया के राष्ट्रपति परानोव का कहना था कि आतंकवाद को जड़ से मिटाने के लिए इसके सामाजिक, आर्थिक कारणों को जानने, उनका विश्लेषण करने और उनका समाधान ढूंढने की भी जरूरत है.  


     राष्ट्रपति के कार्यालय से निकलने के बाद डा. कलाम ने बुल्गारिया की नेशनल एसेंबली में जाकर अध्यक्ष एवं कुछ चुनिंदा सांसदों के साथ बातचीत की. वहां से हम लोग गेस्ट हाउस, बोएना रेसीडेंस में आ गये, जहां बुल्गारिया के प्रधानमंत्री ने हमारे लिए दोपहर के भोज का आयोजन कर रखा थाअपने राजकीय कार्यक्रमों के अलावा डा.कलाम शाम को सोफिया विश्वविद्यालय भी गए. बुल्गारिया के इस प्राचीनतम और सबसे बड़े विश्वविद्यालय में डा. कलाम ने छात्रों के साथ सीधा संवाद भी किया. खचाखच भरे हाल में काफी उत्साह का माहौल था. भारत के 55 छात्र-छात्राएं यहां अध्ययन कर रहे थे. डा. कलाम ने बुल्गारिया के साथ भारत के संबंधों को याद करते हुए कहा कि बुल्गारिया के साथ भारत के संबंध 8वीं सदी में ही शुरू हो गये थे. उन्होंने 1926 में कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर की बुल्गारिया यात्रा का स्मरण भी किया. उल्लेखनीय है कि बुल्गारिया में रवींद्रनाथ ठाकुर की कई रचनाओं का अनुवाद किया जा चुका है. रामायण, महाभारत तथा पंचतंत्र भी यहां काफी लोकप्रिय हैं. सोफिया विश्वविद्यालय में इंडोलॉजी के अध्ययन का एक अलग विभाग भी है जिसकी स्थापना 1983 में की गयी थी. डा. कलाम ने इच्छा व्यक्त की कि इस विश्वविद्यालय के साथ भारत के जो पुराने संबंध रहे हैं, वे और भी पुख्ता और प्रगाढ़ होंगे.

    साथ चल रहीं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद सरला महेश्वरी बताती हैं, “बुल्गारिया प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक और फासीवाद के विरुद्ध अथक योद्धा ज्योर्जी दिमित्रोव की जन्मभूमि और कर्मभूमि रही है. मैं बहुत उत्सुक थी कि उनके बारे में कुछ जानूं-समझूं. खोजबीन के बाद मुझे पता चला कि वहां कभी दिमित्रोव का मुसोलियन (समाधिस्थल) था जिसे अब हटा दिया गया है. मैंने पूछा कि क्या उनके बारे में स्कूलों-कॉलेजों में कुछ पढ़ाया नहीं जाता? जवाब मिला कि पहले पढ़ाया जाता था लेकिन अब नहीं. जवाब देते समय सोफिया विश्वविद्यालय की एक प्राध्यापिका के चेहरे पर दु:ख की रेखाएं स्पष्ट नजर आ रही थी.’’ सोफिया में डा. कलाम राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालय और आर्ट गैलरी भी देखने गये. राष्ट्रीय इतिहास संग्रहालय 533000 वस्तुओं और सबसे बड़े पुरातात्विक और ऐतिहासिक संग्रह के साथ बाल्कन के इतिहास के सबसे बड़े संग्रहालयों में से एक है. 

    23 अक्टूबर की रात को बुल्गारिया के राष्ट्रपति परवानोव ने डा. कलाम के सम्मान में राजकीय भोज (बैंक्वेट डिनर दिया. इस अवसर पर डा. कलाम ने अभिभाषण में कहा, “ऐतिहासिक राजधानी शहर सोफिया में आपके बीच होना मेरे लिए एक सम्मान और खुशी की बात है. प्राचीन देश बुल्गारिया के पास एक लंबा इतिहास और एक शानदार सांस्कृतिक विरासत है. हम इसकी साहित्यिक, दार्शनिक और सांस्कृतिक परंपरा को जानते हैं. इस खूबसूरत शहर के केंद्र में प्रसिद्धि और ज्ञान के प्रतीक को अपने हाथों में थामे भाग्य की देवी सोफिया की मुकुट (सत्ता का प्रतीक) धारण किए हुए मूर्ति सही मायने में सभी मानव जाति की आकांक्षाओं का चित्रण है.”
    उन्होंने भारत और बुल्गारिया के साथ भारत के बहुत पुराने और प्रगाढ़ संबंधों का जिक्र करते हुए कहा कि दोनों देशों में प्राचीन सभ्यताएं हैं और हमारे इतिहास में कई अन्य समाजों के साथ संपर्क शामिल हैं. हम अपनी संस्कृतियों में अन्य सभ्यताओं के विभिन्न पहलुओं को आत्मसात करके इसका लाभ उठाने में सफल रहे हैं. इसने विभिन्न धार्मिक, जातीय और भाषाई समूहों से आत्मसात की गई भारत और बुल्गारिया की बहु-संस्कृति के विकास को सक्षम बनाया है. यह हमारी पिछली पीढ़ियों से हमें मिला उपहार है, जिसे हम भविष्य के लिए संरक्षित कर रहे हैं. भारत और बुल्गारिया का सरकारों और जनता के स्तर पर भी हमेशा से व्यापक संपर्क रहा है. हमारा आपसी सहयोग बहुआयामी है जो राजनीति, व्यापार, अर्थशास्त्र, विज्ञान-प्रौद्योगिकी और संस्कृति के क्षेत्रों तक फैला हुआ है. यह संबंध निरंतरता और आपसी समझ पर आधारित है. 1994 में सोफिया और 1998 में नई दिल्ली में राष्ट्रपति के दौरे के आदान-प्रदान ने हमारे संपर्कों को मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया. मेरी यह यात्रा इसी क्रम में है और मुझे उम्मीद है कि यह हमारे द्विपक्षीय सहयोग को और अधिक बढ़ाने का काम करेगी. समय आ गया है कि बुल्गारिया और भारत  विशिष्ट क्षेत्रों में अपनी मुख्य क्षमताओं की पहचान करें और समयबद्ध तरीके से संयुक्त डिजाइन, विकास, उत्पादन और विपणन के लिए महत्व की परियोजनाओं का चयन करें. मुझे खुशी है कि दोनों देशों ने भारत-बुल्गारियाई विज्ञान और प्रौद्योगिकी सहयोग के तहत कई वैज्ञानिक अनुसंधान परियोजनाओं की पहचान की है. मैं कह सकता हूं कि इंडो-बुल्गारियाई भागीदारी का भविष्य बहुत उज्ज्वल है.
    नई सहस्राब्दी में, पूरी दुनिया स्वतंत्र और लोकतांत्रिक प्रणालियों की दिशा में आगे बढ़ रही है. भारत-और बुल्गारिया इन मूल्यों को साझा करते हैं. पिछले पचास वर्षों और अधिक के अपने स्वयं के अनुभव में, हमने संसदीय लोकतंत्र को अपने लोगों की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए बेहद उपयुक्त पाया है. भारत में, हम अपने आर्थिक सुधारों की दूसरी पीढ़ी के साथ आगे बढ़ रहे हैं. विज्ञान और सूचना प्रौद्योगिकी, अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी, नैनो और जैव प्रौद्योगिकी जैसे क्षेत्रों में उल्लेखनीय सफलताओं के साथ भारत की वैश्विक आर्थिक शक्ति के रूप में तेजी से पहचान बढ़ी है. हमने देखा है कि बुल्गारिया ने उदारीकरण की प्रक्रिया में बड़े कदम उठाए हैं और यह तेजी से एक मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ा है. मुझे यकीन है कि इससे हमारे आर्थिक और वाणिज्यिक संबंधों को आगे बढ़ाने के अवसर खुलेंगे. दोनों देशों में शिक्षा से जुड़े उच्च मूल्य और मजबूत मानव पूंजी आधार जिसे हम बनाने में सफल रहे हैं, निश्चित रूप से पारस्परिक रूप से लाभप्रद सहयोग को मजबूत करेगा. हमारा द्विपक्षीय व्यवसाय वर्तमान में बहुत सीमित है. हमें अपने द्विपक्षीय व्यापार को आगामी कुछ वर्षों में एक अरब डॉलर तक बढ़ाना चाहिए. भारत में, हम मानते हैं कि आर्थिक प्रगति का फल व्यापक रूप से और विशेष रूप से हमारी आबादी के वंचित तबकों को उपलब्ध होना चाहिए. दुनिया में गरीबी, बेरोजगारी और बीमारी उन्मूलन के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. इस साझा जिम्मेदारी को वैश्विक समुदाय को समग्रता में निभानी होगी.

    इसके साथ ही जैसा कि आप जानते हैं, नई चुनौतियां और खतरे उभरे हैं. वर्तमान में हम जिस गंभीर मुद्दे से जूझ रहे हैं, वह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद है. आतंकवाद अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को खतरे में डालने वाला एक प्रमुख कारक बन गया है. ऐसा लगता है कि कोई देश या आबादी इस खतरे से मुक्त नहीं हैं. इस खतरे से उत्पन्न खतरों पर भारत और बुल्गारिया दोनों की समान धारणा है. अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को ऐसे आतंकवादी कृत्यों के स्रोतों को अलग-थलग और खत्म करने के लिए ठोस कार्रवाई करनी होगी. किसी भी आधार पर किसी भी आतंकवादी कार्य को उचित नहीं ठहराया जा सकता है. मुझे उम्मीद है कि हम संयुक्त रूप से दुनिया से इस बुराई को खत्म करने के लिए नए सिरे से काम करना जारी रखेंगे. महान बुल्गेरियाई क्रांतिकारी जॉर्जी रकोवस्की ने लिखा है कि “दुनिया में सबसे पुरानी सभ्यता भारत की थी और विभिन्न विश्वास और रीति-रिवाज इससे उत्पन्न हुए थे.” गांधी, टैगोर और नेहरू की रचनाओं का बुल्गारियाई भाषा में अनुवाद किया गया है जो यहां काफी लोकप्रिय हैं. बुल्गारियाई कवि ह्रिस्तो बोतेव और ह्रिस्तो स्मिरेंस्की ने भारतीय लेखकों पर प्रभाव डाला है. 19वीं शताब्दी के दौरान, बुल्गेरियाई साहित्य ने राष्ट्रीय चेतना और देशभक्ति की भावनाओं को प्रतिबिंबित किया, यही भूमिका हमारे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के में भी लेखन ने किया था. सांस्कृतिक क्षेत्र में भी आदान प्रदान जारी है. मुझे पता है कि कई बुल्गेरियाई साहित्य, नृत्य, संगीत और दर्शन का अध्ययन करने के लिए भारत आते हैं. मुझे यह जानकर बहुत खुशी हुई कि सोफिया विश्वविद्यालय का एक अलग इंडोलॉजी विभाग है जो भारत की भाषाओं, इतिहास और दर्शन में पाठ्यक्रम प्रदान करता है. 

    अपनी ओर से हम सहयोग के कुछ नए क्षेत्रों का सुझाव दे सकते हैं जिनमें भारत ने अनुभव प्राप्त किया है. इनमें फार्मास्यूटिकल्स, खाद्य प्रसंस्करण, बिजली और निजीकरण के हमारे अनुभव का एक हिस्सा शामिल हो सकता है. मैं आशावादी हूं कि आर्थिक और वैज्ञानिक संबंधों को बढ़ावा देने के लिए अधिक से अधिक भारतीयों और बुल्गारियाई लोगों को एक-दूसरे के देश में ले जाना होगा और हमारी दोस्ती के बंधन को आगे बढ़ाना होगा.”

प्रकृति की सुरम्य गोद में रिला मोनेस्ट्री    


अगले दिन, 24 अक्टूबर को हम लोग सड़क मार्ग से सोफिया से तकरीबन 120 किलोमीटर दूर प्रकृति का अद्भुत नजारा देखते हुए यूनान की सीमा से लगनेवाली रिला की खूबसूरत पहाड़ियों पर ईसाइयों की ऐतिहासिक रिला मोनेस्ट्रीगए. डा. कलाम के साथ ही अरुण शौरी, सुरेश प्रभु एवं सरला महेश्वरी हेलीकॉप्टर से गये. बाकी, हम लोगों का काफिला सड़क मार्ग से कारों में.

     श्रीमती महेश्वरी याद करती हैं, “24 अक्टूबर का दिन बहुत ही यादगार रहा. इस दिन हम लोग प्रसिद्ध रिला मोनेस्ट्री देखने गये. इस मोनेस्ट्री का बहुत गहरा संबंध बुल्गारिया के राष्ट्रीय आंदोलन के साथ रहा हैहेलीकॉप्टर से रिला मोनेस्ट्री का यह रास्ता इतना सुंदर दिखता था कि शब्दों में बयान करना मुश्किल है. रंगों के इतने शेड्स, लाल, भूरी, पीली, हरी, काली, न जाने कितने रंगों की पत्तियों से लदे पेड़ एक अजीब रोमांचक दृश्य पैदाकर रहे थे. मेरी इच्छा हो रही थी कि हमारा हेलीकॉप्टर रुक जाए और हम करीब से जाकर प्रकृति के इस मनोहारी रूप का दर्शन लाभ कर सकें. लेकिन जाहिर है, वहां हेलीकॉप्टर रुक नहीं सकता था.” 

    जब हेलीकॉप्टर से इस तरह का मनोहारी दृश्य दिख रहा था तो समझा जा सकता है कि हम लोगों ने सड़क मार्ग से क्या अनुभव किया होगा. रास्ते में सड़क के दोनों तरफ जंगली पेड़-पौधे और फूल अपने रंगों से इस तरह की छटा बिखेर रहे थे, मानो समूचे पहाड़ पर किसी ने रंगों के मिश्रण से बेहतरीन पेंटिंग्स की हों. लौटते समय जगह-जगह काफिले को रुकवाकर हम सबने तस्वीरें उतरवाईं

 

    हरमिट संत इवान रिल्स की स्मृति में नौवीं-दसवीं शताब्दी में बनी इस मोनेस्ट्री में मुख्य पादरी बिशप जॉन के आतिथ्य में डा. कलाम वहां तकरीबन एक घंटे तक रहे और मोनेस्ट्री के इतिहास, भूगोल और इसके स्थापत्य आदि के बारे में जानकारी लेते रहे. शहर से दूर इतनी सुनसान और अलग-थलग जगह में इतनी बड़ी, सुंदर और कलात्मक मोनास्ट्री‍! बिशप जॉन ने हम सबको पूरी मोनेस्ट्री में घुमाया. वहां स्कूलों से आए बच्चे-बच्चियां भी घूम देख रहे थे.

     मोनेस्ट्री के नीचे दोनों तरफ रिल्सका और ड्रुसियावित्सा नदियों की कल-कल बहती धारा बरबस ही ध्यान आकर्षित कर रही थी. पता चला कि बुल्गारिया के दक्षिण पश्चिम में स्थित यह मोनेस्ट्री कभी, 14वीं-15वीं सदी में ओटोमन तुर्क शासकों के जमाने में जल कर राख हो गई थी लेकिन बाद में इसका भव्य जीर्णोद्धार किया गया था. कलाम साहब के थोड़ा परे हटते ही मोनास्ट्री के लोग हम, मीडिया के लोगों को बिशप जॉन के कार्यालय में ले गए. 80-90 साल के इस बिशप से मिलना भी एक सुखद संयोग ही कहा जा सकता है. उनके साथ बैठकर हम लोगों को मठ के प्रसाद के बतौर पेश की गई शराब नीटही गटकनी पड़ी थी.

    डा. कलाम ने बिशप जॉन की अनुमति से मोनेस्ट्री में प्रार्थना की कि दुनिया में सभी धर्मों को एक साथ आकर अच्छाई, दया और परोपकार को बढ़ावा देना चाहिए. उन्होंने संत फ्रांसिस की दो पंक्तियों का उच्चारण कर वहां मौजूद सभी लोगों से उसे दोहराने को कहा. डा. कलाम ने कहा, “हे ईश्वर, मुझे अपना शांतिदूत बनाओ ताकि जहां नफरत हो, वहां मैं प्यार और दया के बीज बो सकूं.’’ इससे प्रभावित बुजुर्ग बिशप जॉन ने डा. कलाम से कहा, “आप विश्व शांति के लिए काम करें.” इससे पहले डा. कलाम ने वहां कहा कि धर्म नहीं बल्कि धर्मांधता और धार्मिक कठमुल्लापन के चलते दुनिया के विभिन्न हिस्सों में तमाम तरह के संघर्ष और विवाद हो रहे हैं. धर्मांधता और कट्टरपंथ के चलते ही दुनिया भर में हिंदू धर्म, इस्लाम, ईसाइयत, और जुडाइज्म के समर्थकों के बीच युद्ध और हिंसा की घटनाएं बढ़ रही हैं. उन्होंने कहा कि धर्म को अध्यात्म की ओर बढ़ना चाहिए ताकि दुनिया में शांति कायम हो सके. प्रगति, विकास और संपन्नता के लिए शांति आवश्यक शर्त है. यह सब मिलकर ही दुनिया को खूबसूरत और खुशहाल बना सकते हैं

    सरला महेश्वरी याद करती हैं, “इसी दिन रात को वहां हिलटन होटल में भारत के राजदूत द्वारा हमारे सम्मान में रात्रिभोज था. भोजन के बाद हमें आज ही लौटना था, दिल्ली के लिए. भोजन के दौरान ही राष्ट्रपति जी ने मुझे कहा कि देखो हमारी यात्रा के बारे में आप मुझे आज ही एक नोट बनाकर दे दो क्योंकि सुबह मैं प्रधानमंत्री जी से इस बाबत मिलना चाहता हूं ताकि इस यात्रा के बारे में कुछ ठोस सुझाव हम उनके सामने रख सकें. मैंने पूछा कि क्या आपको आज ही चाहिए. उन्होंने कहा कि आप आज ही, सोने से पहले मुझे विमान में दे दें. मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया. रास्ते में एक छोटा-सा नोट तैयार करके विमान में थमा दिया, काफी खुश हुए. मैंने उनसे कहा कि सर आपकी टीम बहुत अच्छी थी. उन्होंने कहा कि नहीं, आपका साथ भी अच्छा था. इस यात्रा के दौरान वास्तव में भारत के राष्ट्रपति का एक बिल्कुल नया परिचय हुआ. एक जमीन से उठा हुआ व्यक्ति जो इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर भी अपनी जड़ों से विलग नहीं हुआ. और एक लक्ष्य को लेकर किस तरह समर्पित भाव से बिना थके उस ओर तेजी से बढ़ने के लिये बेचैन है.”

    अपनी सात-आठ दिनों की इस यात्रा में डा. कलाम जहां-जहां गए, वहां रह रहे भारतीयों, बच्चों और छात्रों से अवश्य मिले. बच्चों और छात्रों के बीच सभी तरह की औपचारिकताओं को छोड़कर वह एक स्कूल टीचर अथवा प्रोफेसर के रूप में ही मिलते, अपनी बातें सुनाते और फिर बच्चों-छात्रों को प्रश्न पूछने के लिए आमंत्रित करते. वह प्रायः सभी सवालों के जवाब भी देते. अगर समय समाप्त हो रहा हो और प्रश्न बाकी रह रहे हों तो वह बाकायदा अपने राष्ट्रपति भवन के वेबसाइट और ईमेल का पता देकर कहते कि आप अपने सवाल मेल कर दो, जवाब वह अवश्य भेजेंगे

    एक देश से दूसरे देश जाने के क्रम में विमान यात्राओं के दौरान वह दिन में एक बार जरूर आकर मीडिया के लोगों से मुखातिब होते, उनका कुशल क्षेम जानते और बातें भी करते. एक बार तो वह जब विमान में हम लोगों के बीच आए तो हम सब प्रायः खा-पीकर सोने की तैयारी में थे. आकर उन्होंने पूछा सब ठीक है न! हक्के-बक्के हम लोगों ने उन्हें बिठाया और कुछ बातें भी की