Saturday, 21 November 2020

पश्चिम एशिया, ईरान यात्रा, पहली किश्त (In west Asia-Iran Part 1)

'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के बहाने

पश्चिम एशिया में बीते दिन 

 

जयशंकर गुप्त

 

तेहरान हवाई अड्डे पर 
     वर्ष 2012 में 16 मार्च से दो अप्रैल तक ‘ग्लोबल मार्च टु जेरूशलम कहें या येरूशलम’ के सिलसिले में ईरान, तुर्की और लेबनान की हवाई, सड़क और समुद्री यात्रा का अवसर मिला. यह मार्च बेवतन होकर यत्र-तत्र शरणार्थी जीवन जी रहे फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष के समर्थन और इजराइल की एकाधिकारवादी, विस्तारवादी नीतियों के विरोध में दुनिया भर के सिविल सोसाइटी के लोगों के द्वारा आयोजित किया गया. समाजवादी आंदोलन में फिलीस्तीन मुक्ति के समर्थन और इजराइल विरोध की घुट्टी किशोरावस्था से ही पिलाई गई थी. उस जमाने में क्यूबा के क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो और फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा के नेता यासर अराफात हमारे अंतरराष्ट्रीय हीरो हुआ करते थे. लिहाजा भारतीय सेक्युलर फोरम के संयोजक, पुराने समाजवादी और इंडिया-फिलास्तीन सालिडैरिटी फोरम (इंडियन चैप्टर) के अध्यक्ष डा.सुरेश खैरनार और 'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के सह संस्थापक फीरोज मिठीबोरवाला का निमंत्रण मिला तो पश्चिम एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों, खासतौर से तुर्की में एशिया और यूरोप के मिलन स्थल में जाकर वहां की सभ्यता और समाज के साथ ही फिलीस्तीनी समस्या को भी करीब से देखने-समझने का लोभ संवरण नहीं कर सका. 

तेहरान हवाई अड्डे पर स्वागत
    30 मार्च को ‘फिलीस्तीनी लैंड डे’ पर ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ का मकसद था, फिलीस्तीन और येरूशलम समस्या के सम्मानजनक समाधान के लिए शांतिपूर्ण और अहिंसक जन जागरण तथा विश्वव्यापी जन दबाव का निर्माण. मिथकों या कहें मान्यताओं के हिसाब से येरूशलम न सिर्फ यहूदियों बल्कि दुनिया भर के मुसलमानों और ईसाइयों के लिए धार्मिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण आस्था का शहर है. ईसा मसीह का जन्म वहीं हुआ था. उन्हें सूली पर भी वहीं चढ़ाया गया गया था. उनका बेथेलहेम वहीं है जिसे बाद में दुनिया के सबसे पहले चर्च का दर्जा दिया गया. मुसलमानों की विश्व प्रसिद्ध अल अक्सा मस्जिद और कुब्बतुश सखरा येरूशलम में ही है. बताते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद यहीं से मेराज पर गए थे. हजरत मूसा भी यहीं से थे जिन्हें यहूदी अपना पैगंबर मानते हैं. उनका सोलोमन टेंपल यहीं था. उसे दो बार (हजरत मोहम्मद से पहले) तोड़ा गया था-586 बीसी में बेबीलोनिया द्वारा और फिर 70 एडी में रोमन साम्राज्य द्वारा. अब वहां उसकी दीवार भर रह गई है. इजराइली उसे टेंपल आफ माउंट कहते हैं और उससे लिपट-चिपटकर रोते हैं. शायद इसीलिए उसे ‘वीपिंग वाल’ भी कहा जाता है. येरूशलम पर पूरी तरह उनका ही कब्जा है. आरोप हैं कि वे अन्य धर्मस्थलों को किसी न किसी बहाने ध्वस्त कर वहां अपना ‘टेंपल आफ सोलोमन’ बनाना चाहते हैं. वैसे ही, जैसे हमारे यहां संघ परिवार से जुड़े कुछ कटृरपंथी हिन्दुत्ववादी अयोध्या में ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की रट लगाते रहते हैं. आश्चर्यजनक नहीं है कि इजराइल और हमारे इन ‘कथित हिंदुत्ववादियों’ के बीच सोच के स्तर पर काफी निकटता है. 

    'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' की मांग इस पवित्र शहर को सभी धर्मों के लिए खुला रखने की थी. मार्च में सभी धर्मावलंबियों के साथ ही कुछ न्यायप्रिय यहूदी भी थे जो इजराइल के ‘जियोनिज्म’ के विरोध में हैं. लेकिन ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ के कारवां में बहुमत चूंकि मुसलमानों का था, शायद इसलिए भी ‘मस्जिदे अल अक्सा’ की बात कुछ ज्यादा ही तेज स्वर में गूंज रही थी. दुनिया भर के मुसलमान इसे मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र शहर मानते हैं.

पहला पड़ाव ईरान में


तेहरान की पहिचान मिलाद टॉवर (तस्वीर इंटरनेट से)
    बहरहाल, हम 16 मार्च को ‘महान एयर’ में नई दिल्ली से ईरान की राजधानी तेहरान के लिए रवाना हुए. ईरान पर अमेरिका और यूरोप के हाल के प्रतिबंधों के चलते ईरान के शेष दुनिया से कटे होने की बानगी ईरान की विमानन कंपनी ‘महान एयर’ की उड़ान में भी देखने को मिली. विमान में अधिकतर सीटें खाली थीं. जो भरी थीं, उन पर अधिकतर हम लोग यानी ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ में शामिल होने जा रहे लोग ही थे. इससे पहले ‘गलोबल मार्च टु येरूशलम’ के लिए एशियाई कारवां का एक काफिला 9 मार्च को दिल्ली में राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि से चलकर पंजाब में अमृतसर के पास वाघा बार्डर से पाकिस्तान में प्रवेश कर लाहौर, कराची, क्वेटा आदि शहरों से बस यात्रा करते हुए ईरान में जिदान और फिर तेहरान पहुंच चुका था. हम सबको एक साथ ही जाना था लेकिन वीसा आदि को लेकर हो रही दिक्कतों के मद्देनजर हम अलग-अलग काफिलों में ईरान पहुंचे.

    उत्तर में कैस्पियन सागर और फारस की खाड़ी और दक्षिण में ओमान की खाड़ी के बीच में स्थित इस्लामिक गणराज्य ईरान को पहले फारस के नाम से जाना जाता था. इसकी सीमाएं उत्तर पश्चिम में अर्मेनिया और अज़रबैजान, उत्तर में कैस्पियन सागर, उत्तर पूर्व में तुर्कमेनिस्तान, पूरब में अफगानिस्तान, दक्षिण पूर्व में पाकिस्तान, दक्षिण में फारस और ओमान की खाड़ी और पश्चिम में इराक और तुर्की से लगती हैं. इसकी समुद्री सीमाएं कजाकिस्तान और रूस (कैस्पियन सागर में) और बहरीन, कुवैत, ओमान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ भी साझा होती हैं. ईरान की कुल आबादी उस समय (2012 में) 7.5 करोड़ बताई गई जो हमारे बिहार और महाराष्ट्र राज्य की आबादी के बराबर है. लेकिन ईरान का क्षेत्रफल पूरे भारत के क्षेत्रफल के बराबर कहा जा सकता है. 16 लाख 48 हजार 195 वर्ग किमी के क्षेत्रफल के साथ, ईरान का अधिकांश हिस्सा ईरानी पठार पर स्थित है. सबसे बड़ा शहर तेहरान है, जो देश की राजधानी और इस इस्लामी गणराज्य की राजनीतिक और आर्थिक सत्ता का केंद्र भी है. अन्य प्रमुख शहरों में मशहद, इस्फ़हान, करज, तबरिज़, शिराज, अहवाज़ और कोम़ या खोम़ हैं. ईरान में आधिकारिक भाषा फ़ारसी है जबिक कुर्द, अज़ेरी, अरबी, बलूची आदि भाषाएं भी बोली जाती हैं. सर्वाधिक आबादी शिया मुसलमानों की है और आधिकारिक धर्म भी शिया इस्लाम है.

    विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक ईरान या कहें फारस कभी दुनिया के सबसे प्राचीन और बड़े साम्राज्यों में से एक था, जिसमें शाही राजवंशों की एक लंबी श्रृंखला थी. इस साम्राज्य पर भी अक्सर आक्रमण होते रहे. पहले अलेक्जेंडर द ग्रेट ने, फिर पार्थियनों ने और बाद में हेलेनिस्टिक सेल्यूकाइड साम्राज्य ने शासन किया. अठारहवीं शताब्दी (1736-1747) में नादिर शाह अफ्शार या कहें नादिर कुली बेग के शासन में ईरान एक बार फिर से विश्व में एक मजबूत साम्राज्य के रूप में उभरकर सामने आया. फारस की सत्ता संभालने के दो-तीन साल बाद ही नादिर शाह ने पूरब की ओर रुख कर अफगानिस्तान के कंधार पर चढ़ाई कर दी थी. उस पर कब्जा हो जाने के बाद अपने सैनिकों के साथ इस बात का बहाना बना कर कि भारत के तत्कालीन शासक-मुगलों ने अफ़गान भगोड़ों को शरण दे रखी है, उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया. काबुल पर कब्जा़ करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया. करनाल में दिल्ली के तख्त पर काबिज तत्कालीन मुगल बादशाह मोहम्मद शाह और नादिर की सेनाओं के बीच जमकर युद्ध हुआ. नादिर शाह की सेना मुग़लों की सेना के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फ़ारसी सेना जीत गई. उसके मार्च 1739 में दिल्ली पहुंचने पर यह अफ़वाह फैली कि नादिर शाह मारा गया. इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया. इससे कुपित होकर उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया. हजारों लोग मार दिए. इसके अलावा उसने मोहम्मद शाह से विपुल धनराशि भी वसूली. हीरे जवाहरात भी उसे भेंट किया गया जिसमें कोहेनूर (कूह-ए-नूर), दरिया-ए-नूर और ताज-ए-मह भी शामिल थे. लेकिन नादिर शाह दिल्ली में सल्तनत की बागडोर संभालने और अपने साम्राज्य का विस्तार करने के बजाय लूटपाट के बाद अपने मुल्क लौट गया था.

ईरान के शाह रेजा पेहलवी की
पुरानी तस्वीर (इंटरनेट से)
    ईरान को पूरी दुनिया 1935 तक पर्सिया अथवा फारस के नाम से जानती थी. फारस को ईरान का नाम पेहलवी वंश के तत्कालीन बादशाह रजा शाह पेहलवी का दिया बताते हैं. ईरान का मतलब आर्यों की भूमि से भी जोड़ा जाता है. ईरान के वंशानुगत साम्राज्य के अंतिम बादशाह, मोहम्मद रजा पेहलवी थे. अमेरिका परस्त पश्चिमी सोच और खुले विचारों का होने के बावजूद उनके शासन के अंतिम दशकों में उनके भ्रष्ट और एकाधिकार सत्तावादी, क्रूर शासन के खिलाफ इस्लामी विद्रोह चरम पर पहुंच रहा था. उन पर आरोप था कि उन्होंने ईरान के तेल भंडारों का 40 फीसदी अमेरिका के नाम कर दिया था. ऐसा करके उन्होंने उनपर अमेरिका के एहसान का बदला भर चुकाया था. गौरतलब है कि 1953 में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआइए ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ईरान में तख़्तापलट के जरिए निर्वाचित प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक़ को अपदस्थ कर संपूर्ण सत्ता ईरान के शाह रज़ा पहलवी के हाथ में सौंप दी थी. धर्मनिरपेक्ष नीतियों में यकीन रखने वाले ईरानी प्रधानमंत्री ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे. वह ईरान के शाह की राजनीतिक ताक़त पर लगाम भी कसना चाहते थे. अमेरिका को यह मंजूर नहीं था. 
कुछ लोग 1979 की ईरानी क्रांति के मूल में 1953 में ईरान का तख्तापलट भी मानते हैं. इसलिए भी ईरान के वामपंथी, छात्र-युवा, और इस्लामी नेता शाह के विरुद्ध आंदोलित थे. धार्मिक नेता अयातुल्ला रूहिल्ला ख़ुमैनी के नेतृत्व में शाह के ख़िलाफ़ ईरान में असंतोष की बयार ने क्रांति का रूप ले लिया. देश में महीनों तक धरना-प्रदर्शन-हड़ताल होने लगे. मुझे याद है कि फरवरी 1978 में ईरान के शाह के नई दिल्ली आगमन के समय कुछ ईरानी छात्रों और सत्तारूढ़ जनता पार्टी की युवा शाखा-युवा जनता के कुछ समाजवादी युवजनों ने भी उनके विरोध में प्रदर्शन किया था. गिरफ्तारी के बाद ईरानी छात्रों ने आग्रह किया था कि उन्हें भारत में भले ही मौत की सजा दे दी जाए लेकिन उन्हें क्रूरतम यातना देने के लिए मशहूर और अमेरिकी सीआइए के द्वारा प्रशिक्षित ईरान की खुफिया पुलिस ‘सावाक’ को किसी भी हालत में नहीं सौंपा जाए. 
ईरान की शाह की प्रतिमा को गिराते
इस्लामी क्रंति से जुड़े युवा (तस्वीर इंटरनेट से)

    आख़िरकार ईरान में बढ़ते जनांदोलन और इस्लामी क्रांति को सफल होते देख 16 जनवरी 1979 को शाह मोहम्मद रज़ा पेहलवी को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. इसके दो सप्ताह बाद, 1 फ़रवरी 1979 को फ्रांस में निर्वासित जीवन जी रहे ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता के रूप में अयातुल्ला ख़ुमैनी निर्वासन से लौटे. तेहरान में उनके स्वागत के लिए 50 लाख लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. फिर एक जनमत संग्रह के बाद एक अप्रैल 1979 को ईरान को इस्लामी गणतंत्र घोषित कर दिया गया. तब से, ईरान की सत्ता इस्लामी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा संचालित की जाती है. राज्य सत्ता के प्रमुख सर्वोच्च धार्मिक नेता (अभी अली खमेनेई) होते हैं, जो राज्य पर वैचारिक और राजनीतिक नियंत्रण रखते हैं, सशस्त्र बलों को नियंत्रित करते हैं, और सुरक्षा, रक्षा और महत्वपूर्ण विदेश नीति के मुद्दों पर निर्णय लेते हैं. सरकार का औपचारिक मुखिया और कार्यकारी शाखा का प्रमुख राष्ट्रपति होता है, जो चार साल के लिए लोकप्रिय वोट द्वारा चुना जाता है और लगातार दो कार्यकालों से अधिक समय तक पद पर नहीं रह सकता. चुनी हुई संसद भी है लेकिन राष्ट्रपति और संसद की शक्ति सर्वोच्च धार्मिक नेता के फैसलों, इस्लामी मौलवियों के प्रभाव और ईरान के ज़बरदस्त सुरक्षा तंत्र और न्यायपालिका के प्रभाव से सीमित है.

इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च धार्मिक नेता
अयातुल्ला रूहिल्ला खुमैनी

खोम़ में जमा एशियाई कारवां


    बहरहाल, 16 मार्च को हम लोग ईरान की राजधानी तेहरान में इमाम खमैनी हवाई अड्डे पर पहुंचे. वहां पहले से ही हम लोगों के स्वागत के बाद हमें वाल्वो बस में तकरीबन 150 किमी दूर ईरान के धार्मिक शहर कोम (Qom) या कहें खोम ले जाने के लिए स्थानीय साथी मौजूद थे. इसी बस में हमें ईरान और तुर्की की यात्रा करनी थी. खोम को पूरी दुनिया में इस्लामी शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र कहा जाता है. ईरान में इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला रूहुल्लाह खमैनी यहीं से थे. वाल्वो बस में सवार होकर हम लोग सीधे खोम के लिए रवाना हुए. रास्ते में बंजरनुमा कंकरीली पहाड़ियों के बीच साफ-सुथरी सड़क पर 120-140 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से फर्राटा भरती वाल्वो बस में हम कब खोम पहुंच गए, पता ही नहीं चला. रास्ते में झक सफेद पानी की लंबी-चौड़ी झील मिली, बगल में बैठे कश्मीरी साथी सज्जाद मलिक ने बताया कि वह नमक की झील है, जहां बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन होता है. सज्जाद इससे पहले भी इन इलाकों में आ-जा चुके थे. पूरी यात्रा के दौरान वह हमारे बहुत अच्छे मित्र और गाइड साबित हुए. शाम को इमाम खमैनी यूनिवर्सिटी में ‘फिलीस्तीनी मुक्ति’ और ‘अल्ला हो अकबर’ के समवेत नारों के साथ हमारा जबरदस्त स्वागत हुआ. 

    ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ का एशियाई कारवां विभिन्न देशों और रास्तों से होते हुए खोम़ में जमा हुआ. इसमें भारत, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, मलयेशिया, फिलीपींस आदि देशों के प्रतिनिधि शामिल थे. कारवां में भारत के बाद सबसे बड़ा दल इंडोनेशिया और पाकिस्तान का था. भारतीय दल में कुछ कश्मीरी युवा भी थे. कुछ ही समय के बाद हम सब आपस में काफी घुल-मिल से गए थे. हालांकि पाकिस्तानी काफिले में शामिल कुछ लोगों का व्यवहार भारत और भारतीयों के प्रति आमतौर पर कटु और नकारात्मक ही रहता था. यही बात कुछ हद तक भारतीय काफिले में शामिल कुछ लोगों के बारे में भी लागू होती थी. वे आपस में तने-तने से रहते थे. बार-बार समझाने के बावजूद कि कारवां में सिर्फ फिलीस्तीन की बात होगी और उसकी मुक्ति के समर्थन में ही नारे लगेंगे, किसी देश के समर्थन-विरोध में नारे नहीं लगेंगे, कुछ उत्साही पाकिस्तानी साथी गाहे-बगाहे पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते और कश्मीर की समस्या उठाने लग जाते. मजेदार बात यह कि उन्हें उनके ही स्वर और सुरों में जवाब भी भारतीय मुसलमानों की तरफ से ही मिलते. यह बात और है कि भारत में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि भारतीय मुसलमान भारत के बजाए पाकिस्तान के गुणगान ज्यादा करते हैं. लेकिन हमने कारवां में देखा कि पाकिस्तान के खिलाफ सबसे ज्यादा नकारात्मक वही थे जो धार्मिक तौर पर भी ज्यादा कट्टरपंथी भारतीय मुसलमान थे. हमारी बातचीत पाकिस्तान के ऐसे कई प्रतिनिधियों से होती रहती, जो अपेक्षाकृत सुलझे और समझदार भी थे.

    
खमैनी विश्वविद्यालय में श्रोताओं के बीच
    खमैनी यूनिवर्सिटी में हुए समारोह में ईरान के वरिष्ठ धार्मिक नेता अयातुल्ला काबी भी मौजूद थे. तमाम भाषणों में फिलीस्तीनी मुक्ति की लड़ाई धार्मिक ढंग से लड़ने की बातें की जा रही थीं. ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ यानी मुसलमानों की एकता पर भी जोर था. सिर्फ भारतीय काफिले के नेता फिरोज मिठीबोरवाला और 
इंडिया-फिलास्तीन सालिडैरिटी फोरम (इंडियन चैप्टर) के अध्यक्ष डा. सुरेश खैरनार शुरू से लेकर अंत तक एक ही बात कहते रहे कि फिलीस्तीन की समस्या किसी एक धर्म, जाति अथवा संप्रदाय की नहीं बल्कि इंसानियत की लड़ाई है, इसीलिए ‘ग्लोबल मार्च टु येरुशलम’ में दुनिया भर से सभी धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग शामिल हो रहे हैं. डा. खैरनार ने कहा, “अगर आप लोग फिलीस्तीन के मसले को इस्लामिक मसला बोलते रहे तो एक हजार साल से भी ज्यादा समय हो जाएगा, कभी भी इस मसले का हल नहीं निकलेगा. इसके उलट इजराइल चाहता है कि आप लोग इस समस्या को मुसलमानों तक ही सीमित रखें! लेकिन अगर आप लोग इस मसले को दक्षिण अफ्रीका और वियतनाम की समस्या की तरह मानवीय समस्या के तौर पर पेश करेंगे तो शायद आपको हमारी-अपनी जिंदगी में ही इसका हल मिल सकता है!” डा. खैरनार ने कहा, “अगर आप लोग फिलीस्तीन के मसले को इस्लामिक मसला बोलते रहे तो एक हजार साल से भी ज्यादा समय हो जाएगा, कभी भी इस मसले का हल नहीं निकलेगा. इसके उलट इजराइल चाहता है कि आप लोग इस समस्या को मुसलमानों तक ही सीमित रखें! लेकिन अगर आप लोग इस मसले को दक्षिण अफ्रीका और वियतनाम की समस्या की तरह मानवीय समस्या के तौर पर पेश करेंगे तो शायद आपको हमारी अपनी जिंदगी में ही इसका हल मिल सकता है!”  

    खोम़ में हुए समारोह में कुछ हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी छात्र-युवा भी मिले जो वहां अध्ययनरत थे. पता चला कि दुनिया भर से वहां पढ़ाई कर रहे छात्र-युवाओं में भारत और पाकिस्तान के छात्रों की संख्या भी उल्लेखनीय है. समारोह में गरमागरम तकरीरों के बाद हम तेहरान लौट गए जहां हमारे ठहरने का इंतजाम था. रास्ते में हम अयातुल्ला खमैनी की मजार के पास भी रुके जिसे एक भव्य स्मारक का रूप दे दिया गया है.

राजधानी तेहरान में प्रवास


    ईरान की राजधानी तेहरान तकरीबन 80 लाख की आबादी (2012 में) के साथ ईरान और पश्चिमी एशिया में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और मिश्र की राजधानी काहिरा के बाद मध्य पूर्व में दूसरा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है. हालांकि तेहरान से पहले समरकंद और तबरिज समेत कई अन्य शहरों को भी ईरान की राजधानी होने का गौरव हासिल रहा है. तेहरान ईरान की 32वीं राजधानी है. क़ाजार राजवंश के आगा मोहम्मद खान ने सत्ता संभालने के बाद 1786 में तेहरान की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए इसे फारस की राजधानी घोषित किया था. तबसे यही फारस-ईरान की राजधानी है. तेहरान की अधिकांश आबादी फ़ारसी-भाषी लोगों की है. लेकिन तेहरान में रहनेवाले अन्य जातीय-भाषाई समूहों की भी बड़ी आबादी फ़ारसी बोलती और समझती है.

    हम जिस समय तेहरान में थे, गर्मी के दिन होने के बावजूद चारो तरफ से बर्फ से ढकी अल बुर्ज की पहाड़ियों से घिरा ईरान का बेहद खूबसूरत राजधानी शहर बहुत ही आकर्षक लग रहा था. नये साल, नवरोज की तैयारियां जोरों पर चल रही थीं. पुराना पर्शियन साम्राज्य होने के कारण 1979 में इस्लामी क्रांति के बावजूद नवरोज, जब पारसियों का नया साल शुरू होता है, यहां जोर-शोर और बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है. लोग-बाग छुट्टी और उत्सव के मूड में नजर आ रहे थे. सड़कें और बाजार लोगों और उनकी गाड़ियों से अटे पड़े थे. खूब खरीदारी हो रही थी. लोग सपरिवार बाहर जाते और कहीं भी गाड़ी खड़ी कर खाने-पीने (ईरान में खासतौर से मुसलमानों के लिए मदिरा सेवन वर्जित एवं प्रतिबंधित है-हालांकि सिगरेट-तंबाकू का चलन वहां जोरों पर है-इसलिए शीत पेयों पर जोर होता है) और जश्न मनाने में जुट जाते हैं. ईरान में औरतें पर्दा करती हैं. सिर पर हिजाब और बुर्का धारण करती हैं लेकिन यह भी बताया गया कि पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के मामले में वे किसी से पीछे नहीं हैं. उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता. उन्हें घरों में रोटियां बेलनी और पकानी नहीं पड़तीं. रोटियां आमतौर पर छोटी-बड़ी और स्वचालित बेकरीज में बनती हैं, अलग-अलग आकार-प्रकार की. उन्हें बेकरीज से अथवा किराना-जनरल स्टोर से भी खरीदा जा सकता है. लेकिन घर तक आने और निवाला बनने तक रोटियां ठंडी हो जाती हैं. हम जैसे तवे से उतरती गरमागरम चपातियां खाने के आदी लोगों के लिए यह एक नया अनुभव था जो न सिर्फ ईरान बल्कि तुर्की और लेबनान में भी देखने को मिला.

तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदी नेजाद से मुलाकात

आर्थिक प्रतिबंधों से ‘बेअसर’ ईरान !


    
एशियाई कारवां को संबोधित करते ईरान के
तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदी नेजाद

    तेहरान
प्रवास के दौरान हम ईरान की लोकसभा में गए. एक दिन, दोपहर का भोजन लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी की ओर से ही दिया गया था. राष्ट्रपति निवास में तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदीनेजाद से मिलने का अवसर भी मिला. बिना किसी सुरक्षा तामझाम के अहमदीनेजाद घंटा भर हम लोगों के साथ रहे, बातें की और साथ खड़े होकर तस्वीरें भी खिंचवाई. उन्होंने अपने भाषण में ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ को फिलीस्तीन की आजादी का कारवां करार दिया. उन्होंने ईरान और भारत के बीच सदियों पुरानी दोस्ती और प्रगाढ़ रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंध इन्हें आसानी से नहीं तोड़ सकते.

    
एशियाई कारवां के साथ तस्वीरे में अहमदीनेजाद
पीछे दाहिनी ओर खड़े हम
    ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के विरोध में अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के द्वारा इस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का खास असर यहां के जन जीवन पर हमें तो देखने को नहीं मिला. एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद रोजमर्रा का जनजीवन पूर्ववत खुशहाल एवं गतिशील दिख रहा था. ईरान को इन प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह भी नहीं दिखती. इसका एक कारण शायद यह भी है कि खाड़ी के मुस्लिम देशों में ईरान संभवतः अकेला ऐसा देश है जो सिर्फ तेल की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं है. एक देश चलाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा उसके पास मौजूद है. ईरान सरकार में फिलीस्तीन मामलों के मंत्री रहे सैफुल इस्लाम ने एक सवाल के जवाब में कहा कि परमाणु कार्यक्रम ईरान की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं. ईरान के राजनेता अमेरिकी प्रतिबंधों को उसके परमाणु कार्यक्रमों के बजाए उसके फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष के समर्थन से जोड़कर देखते और पेश करते हैं. इसका उल्लेख करते हुए ईरान के लोकसभाध्यक्ष डा. लारिजानी ने कहा भी कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का असली कारण हमारे परमाणु कार्यक्रम नहीं बल्कि फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए हमारा समाज और सरकार दोनों के स्तर पर खुला और सक्रिय समर्थन है. उन्होंने एक यूरोपीय मंत्री से हुई बातचीत का हवाला देते हुए बताया कि यूरोपीय मंत्री ने उनसे कहा, ‘‘हमें आपके परमाणु कार्यक्रमों से कोई परेशानी नहीं है, भले ही वे परमाणु बम बनाने के लिए ही क्यों न हों. हमारी परेशानी यह है कि आप फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष का समर्थन कुछ ज्यादा ही बढ़ चढ़ कर करते हैं.’’ डा. लारिजानी ने जवाब में कहा कि उन पर गलत बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है. फिलीस्तीनियों को आजाद होने और अपनी जर-जमीन पर काबिज होने का पूरा हक है और हम लोग उन्हें उनके इस हक को दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं. चाहे कितने भी प्रतिबंध लगाए जाएं, ईरान अपना रुख नहीं बदल सकता. उनके अनुसार अमेरिका ने इराक से पहले ईरान पर हमले करवाए लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सका. अब उनके प्रतिबंधों को भी देख लेंगे. (हालांकि बदलते समय के साथ संयुक्त अरब अमीरात तथा खाड़ी के कुछ अन्य फिलीस्तीन समर्थक रहे देश भी अब बहिष्कार की नीति त्याग कर इजराइल के साथ संबंध बनाने लगे हैं.) ईरान अभी भी अपने रुख पर कायम है.

Tuesday, 17 November 2020

न्यूयॉर्क-वॉशिंगटन भ्रमण , दूसरी किश्त (In New York and Washington part II)

 मैनहट्टन, टाइम्स स्क्वॉयर की सैर


जयशंकर गुप्त


    
संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय
न्यूयॉर्क और इसके लोवर मैनहट्टन की तो बात ही निराली है. दुनिया के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक के पास बसा न्यूयार्क शहर आबादी के मामले में सबसे बड़ा शहर है. हडसन नदी यहां अटलांटिक महासागर में मिलती है. 1785 से 1790 तक संयुक्त राज्य अमेरिका का राजधानी शहर भी रहे न्यूयॉर्क को हमारी मुंबई की तरह इस देश की व्यावसायिक और सांस्कृतिक राजधानी का भी दर्जा प्राप्त है. गगन चुम्बी अट्टालिकाएं यहां अतिरिक्त आकर्षण का केंद्र हैं. लांग आईलैंड में रेडिसन होटल से मैनहट्टन में हडसन नदी के पास स्थित संयुक्त राष्ट्र और उसी के सामने स्थित होटल ‘मिलेनियम यूएन प्लाजा’ की तकीबन 64 किमी की दूरी तय करने में तकरीबन सवा घंटे का समय लगता है. रास्ते में लांग आई लैंड और न्यूयार्क-मैनहट्टन को जोड़नेवाली ‘ईस्ट रिवर’ को पार करने के लिए तकरीबन दो किमी लंबी सुरंग ‘क्वींस मिडटाउन टनेल’ से होकर गुजरने के लिए टैक्सीवाले को टोल टैक्स चुकाने के लिए रुकना पड़ा था. इस सुरंग से गुजरना भी एक अनुभव था. दो लेन जाने और दो लेन आने के लिए 1940 में बनी इस सुरंग से रोजाना तकरीबन 70 हजार वाहन आ और जा रहे थे.

मैनहट्टन में रिक्शा
    होटल मिलेनियम प्लॉजा पहुंचने से पहले हम लोगों ने न्यूयॉर्क और मैनहट्टन के प्रमुख इलाकों में सैर की. हम लोग टाइम्स स्क्वायर में घूमे. सेवेंथ एवेन्यू और ब्राडवे के जंक्शन पर स्थित भीड़ भरे टाइम्स स्क्वायर की रौनक के बारे में जितना सुना था, उससे ज्यादा देखने को मिल रहा था. 1904 से पहले इस चौराहे को ‘लांग केयर स्क्वायर’ के नाम से जाना जाता था लेकिन 1904 में न्यूयार्क टाइम्स अखबार के मुख्यालय के स्थानांतरित होकर यहां आ जाने के बाद से इसका नाम ‘टाइम्स स्क्वायर’ पड़ गया. बताया जाता है कि टाइम्स स्क्वायर सिर्फ अमेरिका ही नहीं दुनिया के सबसे ज्यादा व्यस्त और मनोरंजन का सबसे बड़ा केंद्र कहा जानेवाला व्यावसायिक चौराहा है. विश्व के सर्वाधिक पसंदीदा पर्यटन केंद्र के रूप में प्रसिद्ध टाइम्स स्क्वायर पर हर दिन तकरीबन तीन लाख लोग गुजरते हैं. सालाना यहां आनेवाले पर्यटकों की संख्या औसतन 5 करोड़ बताई जाती है.
मैनहट्टन में छायाकार मित्र जी एन झा
 (जैकेट पर प्रेस लिखा है) के साथ

जगमगाती रोशनी में बड़ी बड़ी कंपनियों के प्रचार करते आंखें चुंधिया देनेवाले बिल बोर्ड्स और विज्ञापन बरबस अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे. बड़े-बड़े माल्स और मेगा सुपर स्टोर्स की सज्जा बाहर से ही देखकर अंदर जाने का साहस नहीं हो रहा था. हालांकि वहां एक बड़े सुपर स्टोर से हम लोगों ने कुछ कुछ खरीदारी भी की. सामान सस्ते तो कतई नहीं थे (न्यूयॉर्क दुनिया के सबसे महंगे शहरों में गिना जाता है)  लेकिन एक तो सामान की शुद्धता की गारंटी और फिर समय के सदुपयोग के लिहाज से भी खरीद हुई. हमने निकॉन का एक स्वचालित पॉकेट कैमरा खरीद लिया. अन्य मित्रों ने भी अपने हिसाब से खरीदारी की. रास्ते में अमेरिका की समृद्धि के साथ सभ्यता के दर्शन भी हो रहे थे. फुटपाथ पर कुत्ते को टहला रहे दंपति के साथ एक स्ट्रॉलर भी था जिसमें प्लास्टिक बैग टंगा था. कुत्ते के पोटी करने पर वे लोग सड़क से उठाकर बैग में रख लेते थे. 
न्यूयॉर्क, मैनहट्टन का एक दृश्य यह भी 
सड़क और फुटपाथ पर भी गंदगी, कचरे के निशान नहीं.अजीब तरह की सायकिल को तीन चार लोगों को एक साथ चलाते दिखे. रिक्शा भी दिखे. हम लोग पास में ही स्थित वॉल स्ट्रीट में भी गए. अमेरिका का वित्तीय प्रबंधन यहीं से होता है. बैंक ऑफ अमेरिका, न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज, नैसडॉक और वॉल स्ट्रीट जर्नल का मुख्यालय भी यहीं है. हम लोगों ने दूर से ही इनका अवलोकन किया. स्टॉक एक्सचेंज के सामने शेयर बाजारों में तेजी के प्रतीक ‘बिग बुल’ की बड़ी प्रतिमा भी देखी. हमारे मुंबई शहर की तरह ही न्यूयार्क के बारे में भी मशहूर है कि यह शहर कभी सोता नहीं है. दिन रात सक्रिय रहता है. वहां हमने बराक ओबामा की लोकप्रियता के प्रतीक के तौर पर जगह-जगह फुटपाथों पर उनके आदमकद कटआउट्स भी देखे. लोग उसके साथ तस्वीरें खिंचवा रहे थे. हमारे साथी सुभाशीष मित्रा और हमारे बाद वहां पहुंचीं गीताश्री ने भी ओबामा के कटआउट के साथ तस्वीर खिंचवाई.


   
    लोवर मैनहट्टन में हम उस जगह भी गए जहां कभी वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्विन टावर्स हुआ करते थे. 11 सितंबर 2001 के आतंकी हमलों में अलकायदा के आत्मघाती आतंकियों ने अपहृत विमान को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के उत्तरी और दक्षिणी टावरों से टकरा दिया था. पल भर में ही अमेरिकी समृद्धि की प्रतीक दोनों गगन चुम्बी इमारतें मलबे का ढेर बन गई थीं. जिस समय हम लोग वहां गए, उस समतल जगह की बैरिकेडिंग की गई थी. वहां स्मारक बनाने की बात थी. 9 सितंबर के आतंकी हमले में तकरीबन तीन हजार लोग मारे गए थे लेकिन उनकी पहिचान, राष्ट्रीयता, धर्म और जाति के बारे में आधिकारिक तौर कुछ भी नहीं बताया गया.

बाएं से आरती कपूर, हम सुभाशीष और आशुतोष
.   मैनहट्टन की सैर करते हुए हम लोग हडसन नदी के मुहाने पर गए. स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी को दूर से देखा. हम लोगों ने उस जगह को भी देखा जहां से शाम को संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय (स्वतंत्रता) दिवस के अवसर पर आतिशबाजी होनेवाली थी. पास में ही संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय भी गए. बाहर से ही अवलोकन के बाद हम लोग शाम होते-होते होटल मिलेनियम यूएन प्लाजा गए जहां सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक अध्यक्ष बिंदेश्वर पाठक अपनी टीम और ‘अलवर की नई राजकुमारियों’ के साथ ठहरे हुए थे. पाठक जी ने खुले दिल से हमारा स्वागत किया. मदन झा तो साथ में थे ही. 


अलवर की नई  'नई राजकुारियों'  के साथ 


    पाठक जी ने साथ आईं अलवर की 37 ‘नई राजकुमारियों’ में से एक उषा चोमर से मिलवाया. उषा को पाठक जी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में ‘सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस’ ऑर्गनाइजेशन की अध्यक्ष का ताज पहनाया गया था. पाठक जी के प्रयासों से चार साल पहले तक 56 अन्य महिला सफाई कर्मियों के साथ अलवर की गलियों में घरों के शौचालय साफ करने से लेकर मैला सिर पर ढोनेवाली उषा के जीवन में ऐसे कई बदलाव आए जिसके बारे में वह कभी सपने में भी नहीं सोच सकती थीं. उनमें से उषा के नेतृत्व में 36 महिलाओं को विमान से सात समंदर पार अमेरिका के न्यूयार्क शहर में आने और संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सामने पांच सितारा मिलेनियम यूएन प्लाजा होटल में रहने-ठहरने का अवसर मिला. किसी भी तरह की औपचारिक शिक्षा से महरूम उषा ने संयुक्त राष्ट्र के कार्यक्रम में तालियों की गड़गड़ाहट के बीच बेझिझक, बेहिचक, अंग्रेजी में लिखा भाषण पढ़ा. उषा के साथ उनकी हमसफर महिलाओं ने स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी पर जाकर सामूहिक रूप से ‘वंदे मातरम’ का गान किया.
स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी के सामने  ‘अलवर की नई राजकुमारियां’
उनके लिए विश्वविख्यात माडेल के साथ उनके फैशन परेड का आयोजन भी हुआ.
     4 जुलाई की शाम को पाठक जी के कमरे से ही हम सबने हडसन नदी में संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रीय दिवस के अवसर पर हो रही शानदार आतिशबाजी देखी. अत्याधुनिक पटाखों की रंग-बिरंगी आतिशबाजी आजीब तरह का समा बांध रही थी. रात का बुफे भोजन हम सबने पाठक जी और उनकी ‘राजकुमारियों’ के साथ ही वहां, मैनहट्टन में एक मशहूर भारतीय रेस्तरां में किया. उसके बाद हम लोग लांग आईलैंड स्थित होटल मैरिअट आ गये.


      वॉशिंगटन डीसी में  

 

   
 कैपिटल भवन (अमेरिकी कांग्रेस मुख्यालय)

अगले
दिन, पांच जुलाई को हम कुछ लोग-आशुतोष, आरती कपूर, सुभाशीष मित्रा, शेख मंजूर आदि वॉशिंगटन चले गए. हमारे लिए तो यह एक अतिरिक्त उपलब्धि थी. वॉशिंगटन भ्रमण हमारे यात्रा कार्यक्रम का हिस्सा नहीं था. लेकिन पासवान जी के सौजन्य से यह भी संभव हो सका. सुबह-सबेरे ही हम लोग वॉशिंगटन के लिए निकल पड़े. सड़क मार्ग से फर्राटा भरती आरामदायक लिमोजिन कार में वॉशिंगटन डीसी का तकरीबन 400 किमी का सफर कब पूरा हो गया, पता ही नहीं चला. तकरीबन साढ़े तीन घंटों में हम वॉशिंगटन डीसी पहुंच गए, वह भी बगैर किसी तरह की थकान के. रास्ते में राजमार्ग के आगे-पीछे फर्राटा भरते वाहनों के अलावा कुछ दिखता ही नहीं था. रास्ते में किसी उपनगर में जाने के लिए साइड लेन बनी हुई थीं, जिससे राजमार्ग से उतर कर जाया जा सकता था. कहीं-कहीं रेस्तरां ओर सुपर स्टोर्स भी थे. उसके लिए भी राजमार्ग से उतरकर जाना पड़ता था. राजमार्ग पर चलते हुए दाएं-बाएं कुछ दिखता नहीं था. सब कुछ ढका सा रहता था. रास्ते में फिलाडेल्फिया शहर भी पड़ा जो कभी, वॉशिंगटन से पहले संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी था. यहीं से अमेरिका ने 4 जुलाई 1776 को ग्रेट ब्रिटेन से अपनी आजादी का घोषणापत्र जारी किया था. फिलाडेल्फिया में रुकने और इसके प्रसिद्ध स्थलों और स्मारकों को देखने का मन तो बहुत था लेकिन हमारे पास समय नहीं था. शाम होते हमें लांग आईलैंड के अपने होटल में लौटना भी था. इस लिहाज से भी हम जल्दी वॉशिंगटन पहुंचना चाहते थे.

    अमेरिका में दो वॉशिंगटन हैं. एक वॉशिंगटन, जहां एक पूर्ण राज्य है जबकि दूसरा वॉशिंगटन डीसी यानी वॉशिंगटन डिस्ट्रिक्ट ऑफ कोलंबिया हमारी दिल्ली की तरह एक तरह से केंद्र शासित क्षेत्र और संयुक्त राज्य अमेरिका की राजधानी भी है. वॉशिंगटन डीसी के नागरिकों को राजधानी का नागरिक होने के बावजूद अमेरिकी संसद में प्रतिनिधित्व का कोई स्पेशल राइट नहीं है. एक नगर प्रमुख के नेतृत्व में 13 सदस्यीय नगर पालिका डीसी का प्रशासन संभालती है, लेकिन केंद्र सरकार इस नगर पालिका के किसी भी निर्णय को पलट सकती है. संयुक्त राज्य अमेरिका की राष्ट्रीय संसद में डीसी से एक नामित सांसद के अतिरिक्त कोई चुना हुआ प्रतिनि‍धि नहीं होता है. 1961 में हुए 23वें संविधान संशोधन से पहले यहां के ना‍गरिकों को राष्ट्रपति चुनाव में मतदान का अधिकार तक नहीं था जबकि भारत की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में इसके उलट अपनी विधानसभा और सरकार है. हालांकि पुलिस, डीडीए, एनडीएमसी दिल्ली नहीं केंद्र सरकार के ही अधीन है.

    पोटोमैक नदी के किनारे विकसित राजधानी शहर वॉशिंगटन देश के बाकी दूसरे शहरों से कतई अलग सुव्यवस्थित तरीके से बसाया गया एक बेहद ही खूबसूरत शहर है. तकरीबन 177 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफलवाले इस शहर का 5वां भाग हरित-उद्यान क्षेत्र है. अमेरिका के दूसरे शहरों की भागमभाग भरी जिंदगी से उलट इस शहर में एक तरीके का ठहराव है, शांति है. आज के शब्दों में कहें तो वॉशिंगटन कूल यानी सुकून से भरा शहर है. यह एक तरह से यूरोपियन स्थापत्य शैली में बसा शहर है. यहां नज़ारों को देखकर एक बारगी भ्रम हो सकता है कि अमेरिका नहीं बल्कि यूरोप के किसी शहर में हैं. यहां इमारतें, सड़कें, आर्किटेक्चर सब कुछ यूरोप का एहसास कराते हैं.

    वॉशिंगटन डीसी का नामकरण 1789 में संयुक्त राज्य अमेरिका के पहले राष्ट्रपति बने जॉर्ज वॉशिंगटन के नाम पर किया गया. उनके राष्ट्रपति बनने के बाद ही 1791 में वाशिंगटन डीसी को राष्ट्रीय राजधानी बनाने की घोषणा हुई थी जो सन् 1800 में साकार हो सकी. इस बीच फिलाडेल्फिया से अंतरिम राजधानी का काम होता रहा. वाशिंगटन की अधिकतर प्रमुख इमारतें और स्मारक राजधानी का दर्ज़ा मिलने के बाद ही अस्तित्व में आए. वाशिंगटन का एक हिस्सा जॉर्ज टाउन भी है. पोटोमैक नदी पर बना पुल, ‘की-ब्रिज’ ही वॉशिंगटन डीसी और जार्ज टाउन को जोड़ता है. जॉर्ज टाउन विश्व प्रसिद्ध जॉर्ज टाउन विश्विद्यालय के लिए भी जाना जाता है.

    आज वॉशिंगटन डीसी एक ध्रुवीय बनते जा रहे विश्व की सर्वोच्च सत्ता का केंद्र है. यहां पर ही कैपिटल हिल्स पर स्थित कैपिटल भवन से संसद (अमेरिकी कांग्रेस) का संचालन होता है. इसके साथ ही थोड़ी दूरी पर अमेरिका के प्रथम नागरिक यानी अमेरिकी राष्ट्रपति का विश्व प्रसिद्ध निवास ह्वाइट हाउस भी है जिसे अमेरिकी सत्ता का प्रतीक भी कहा जाता है. इसके अलावा लिंकन मेमोरियल, वॉशिंगटन स्मारक और वियतनाम एवं कोरिया युद्ध स्मारक, एयरो-स्पेस के साथ ही नेचुरल हिस्ट्री म्युजियम भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र हैं, जो अमेरिका के इतिहास और संस्कृति से परिचय कराते हैं. यह सभी टूरिस्ट डेस्टिनेशंस आस-पास होने से हमें बाहर-बाहर से ही यहां अधिकतर जगहों पर घूमने-देखने में ज्यादा वक्त नहीं लगा और कुछ ही घंटों में हमने इनमें से अधिकतर जगहों की सैर कर डाली.


    ह्वाइट हाउस के सामने

ह्वाइट हाउस के सामने पर्यटकों के बीच आरती कपूर और हम

     हमारे बांग्लादेशी मूल के टैक्सी चालक हमारे गाइड की भूमिका में भी थे. वह हमें प्रमुख और प्रसिद्ध स्थानों की बाहरी सैर कराते हुए यह हिदायत देना नहीं भूलते थे कि जल्दी ही निकलना भी है. हम लोग अमेरिका या कहें पूरी दुनिया की सर्वोच्च सत्ता के प्रतीक ‘ह्वाइट हाउस’ भी गये जो अमेरिका के राष्ट्रपति का आधिकारिक निवास और कार्यालय भी है. पेंसिलवेनिया एवेन्यू में तकरीबन 55 हजार वर्ग फुट में सफेद संगमरमर की चट्टानों से बने इस सफेद भवन में सबसे पहले, 1800 में राष्ट्रपति जॉन एडम्स (जॉर्ज वाशिंगटन के बाद राष्ट्रपति चुने गए थे) रहने के लिए आए थे. तब से सभी राष्ट्रपति शपथ ग्रहण के बाद यहीं आकर रहते और कार्यकाल पूरा होने के बाद यहां से विदा हो जाते हैं. यह कुछ-कुछ हमारे नई दिल्ली में रायसीना हिल्स पर स्थित राष्ट्रपति भवन की तरह का ही है. लेकिन हमारे राष्ट्रपति भवन से उलट यहां ह्वाइट हाउस के ठीक सामने बैरिकेडिंग्स तक आम आदमी, पर्यटक और यहां तक कि प्रदर्शनकारी भी आ-जा सकते हैं.

ह्वाइट हाउस के सामने अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति बुश का विरोध

    सुरक्षा प्रावधानों के बीच धरना-प्रदर्शन भी कर सकते हैं. हम लोग जब ह्वाइट हाउस पहुंचे थे, वहां कुछ लोग तत्कालीन राष्ट्र्पति जार्ज डब्ल्यू बुश के खिलाफ हाथों में प्ले कार्ड्स लिए धरना दे रहे थे. हमने भी वहां तस्वीरें खिंचवाईं. रास्ते में ड्राइवर ने हमें यूनाइटेड स्टेट्स कैपिटल बिल्डिंग भी दिखाई. यह वाशिंगटन डीसी में नेशनल मॉल के पूर्व की तरफ पठार पर स्थित है. उन्होंने हमें राह चलते अमेरिका के रक्षा विभाग के मुख्यालय, पेंटागन की झलक भी दिखाई. 9 सितंबर 2001 को अलकायदा के आत्मघाती आतंकियों के निशाने पर पेंटागन भी था, उन्होंने अपहृत विमानों में से एक को पेंटागन मुख्यालय की बिल्डिंग से भी टकराया था. इस हमले में 189 लोग मारे गए थे. मारे गए लोगों की याद में यहां एक स्मारक बना है. रास्ते में लौटते समय हमने वाशिंगटन स्मारक एवं कुछ अन्य स्मारक भी देखे.

डालर से रुपए में बदलकर देखेंगे 
तो कुछ खा पी भी नहीं सकेंगे !
 


    वापस लौटते समय हम लोग न्यू यार्क-लांग आईलैंड के रास्ते में राजमार्ग से हटकर ‘मैकडानल्ड’ में रुके कुछ नाश्ता भी किए जो बहुत महंगा था. बगल के एक सुपर स्टोर्स में भी गए. विंडो शापिंग के क्रम में एक शर्ट पसंद आई जिसका दाम पूछने पर बांग्लादेशी सेल्स गर्ल ने कुछ डालरों में बताई. हमने हमने मोबाइल फोन के जरिए उसकी कीमत भारतीय रुपये में जानने के लिए गुणा-भाग शुरू किया. उसने समझ लिया और तंज की शैली में कहा, “अंकल यहां डालर से रुपये में कनवर्ट कर कीमतें देखेंगे तो कुछ भी खरीद नहीं सकेंगे. कुछ खा-पी भी नहीं सकेंगे.” हमने झेंप मिटाते हुए कहा, बेटा आपकी कमाई डालर में है और हमारी रुपये में. हम तो उसी के अनुरूप सोचेंगे और कीमत का पता करेंगे. आपकी बात अलग है, आप लोग डालर में कमाते हो. क्या पता जो चीज हम यहां खरीद रहे हैं, दिल्ली में इससे सस्ती मिल रही हो ! वह मुस्कराई और बोली, “हां ये तो है. वैसे, भी जो शर्ट आप पसंद कर रहे हैं. वह आपके यहां की ही बनी हुई है. यहां अलग लेबल लगाकर बिक रही है.” मैकडानल्ड में शाकाहारी खोजते-खोजते हमें एक ‘वेज बर्गर’ मिला जिसे हमने अपने ड्राइवर के लिए ले लिया. लौटते समय उसे दिया भी लेकिन उसने उसे खाने के बजाए सीट के पास रख लिया. लांग आईलैंड पहुंचने पर उससे पूछा कि बर्गर खाया क्यों नहीं ! उसने बड़ी हिकारत के साथ कहा, इसमें पोर्क (सुअर का मांस) है जो हमारे लिए हराम है. हमारे बताने पर कि यह तो वेज बर्गर है, उसने कहा कि इसके इन्ग्रेडिएंट्स देखने पर पता चलता है कि इसमें क्या क्या है. इसलिए हम बाहर का कुछ नहीं खाते.

    बहरहाल, हम लोग शाम होते होते लांग आईलैंड होटल मैरिअट पहुंच गये. रात का हम सबका भोजन लांग आईलैंड में ही आफमी के न्यूयार्क चैप्टर के गुजराती मूल के अध्यक्ष डा. फारूख मुखी के निवास पर था. डा. मुखी की लोकप्रियता उनके निवास पर जमा लोगों की भीड़ देखकर भी लगता है. वैसे भी एक डाक्टर और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में उनकी अलग तरह की पहिचान है. उनके निवास पर रात्रिभोज में भारतीय मूल के खासतौर से गुजरात और महाराष्ट्र मूल के बहुत सारे लोगों से मुलाकात हुई. खाना भी बहुत ही लजीज था. अगले दिन दलित अल्पसंख्यक अंतर्राष्ट्रीय फोरम के समापन सत्र के बाद दोपहर का भोजन पासवान जी के साथ हम लोगों ने लांग आईलैंड में ही मशहूर भारतीय रेस्तरां ‘अकबर’ में हुआ.

भोजन पूरी तरह से भारतीय पद्धति और मसालों से तैयार बहुत ही स्वादिष्ट और जायकेदार था. सम्मेलन के समापन सत्र में गुजरात में गोधरा कांड के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों से जुड़े विभिन्न अदृश्य पहलुओं, दंगों में शासन-प्रशासन और खासतौर से पुलिस की भूमिका को उजागर करनेवाली सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता शीतलवाड, पत्रकार तरुण तेजपाल, और गुजरात पुलिस के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक रहे आर बी श्रीकुमार को सम्मानित किया गया. इस अवसर पर एक 12 सूत्री ‘न्यूयार्क घोषणापत्र’ भी जारी हुआ. पूरे सम्मेलन में अधिकतर नेताओं-वक्ताओं के निशाने पर गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, लाल कृष्ण आडवाणी और शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ही थे.


भाई जान के साथ न्यूयॉर्क और 
लांग आईलैंड की सैर 

    सम्मेलन स्थल पर लखनऊ के आसपास के किसी इलाके के एक सज्जन (नाम याद नहीं रहा, संभवतः श्री खान) मिल गये. हम उन्हें यहां भाई जान के नाम से संबोधित करेंगे. भाई जान वहां काफी सारी चाकलेट्स लेकर आए थे जिसे उन्होंने हम सबके बीच बांटा. बातचीत में कुछ करीबी बढ़ गई. उन्होंने प्रस्ताव किया कि हम कुछ लोग चाहें तो वह हमें अपनी कार में न्यूयार्क और आसपास के कुछ इलाकों में घुमा सकते हैं. हमारे लिए तो यह एक सुअवसर जैसा ही था. हम, आशुतोष, सुभाशीष मित्रा और आरती कपूर उनके साथ खूब घूमे. उनके साथ घूमते समय ही इस बात का एहसास हुआ कि वहां कारें बहुत ज्यादा होने के कारण पार्किंग की समस्या कितनी विकराल है. काफी दूर कार पार्क कर गंतव्य तक पैदल जाना पड़ता है. कई बार तो पार्किंग उपलब्ध नहीं होने के कारण कार में ही चक्कर लगाने पड़ते हैं. लोगों ने अपने घरों के एक एक हिस्से में भी पार्किंग बना रखी थी. पार्किंगस्थलों पर लगे साइनबोर्ड पर पता चल जाता था कि कहां कितनी जगह खाली है.
मेगा स्टोर के बाहर आरती कपूर और 'भाई जान' के साथ
वह हमें एक बड़े मेगा स्टोर में भी ले गये जहां सेल चल रही थी. हमने वहां से बच्चों के लिए जैकेट, कपड़े खरीद लिए. उनके साथ हम लोग एक और दुकान में गए जिसका नाम था, ‘वन डालर शॉपी’ वहां हर सामान एक डालर का था. वहां से भी कुछ जरूरत के सामान खरीदे गए. वहीं पता चला कि एक पका हुआ केला भी एक डालर यानी भारतीय मुद्रा के हिसाब से उस समय 60-70 रुपये का था. इस हिसाब से एक दर्जन केले के भाव समझ सकते हैं. इसी तरह के दाम अन्य वस्तुओं के भी थे. दरअसल, अमेरिका में एक डालर का मतलब हमारे यहां के एक रुपये की तरह ही होता है लेकिन भारत से वहां घूमने गए लोगों के लिए वह काफी भारी पड़ता है. वहां एक बात और दिखी. पीने के पानी का दाम कोका कोला और पेप्सी जैसे पेय पदार्थों से महंगा था. स्ट्रीट फूड्स भी महंगे थे. हम लोग एक दिन लांग आईलैंड में घूमते हुए एक अपेक्षाकृत छोटी दुकान में एक पिज्जा का दाम सुनकर चमत्कृत रह गए. दुकानदार ने हमारी समस्या समझकर बताया कि उसके पास एक बड़ा पिज्जा भी है जिसे आप लोग शेयर कर सकते हैं. हमने वही किया. एक (पापा) पिज्जा तीन-चार लोगों के लिए पर्याप्त और अपेक्षाकृत सस्ता भी था. 

घर वापसी 

    बहरहाल, संयुक्त राज्य अमेरिका की दोनों राजधानियों (न्यूयार्क और वाशिंगटन) के साथ ही लांग आई लैंड में भ्रमण की यादें मन में समेटे आठ जुलाई को हम लोग दिल्ली लौट आए. रास्ते में एक बार फिर हमारा विमान लंदन में रुका. हम लोगों ने एक बार फिर कुछ घंटे लंदन हवाई अड्डे पर गुजारे. हमारे कुछ मित्र अपने-अपने कारणों से अमेरिका में ही रुक गए थे. उनका वहां कुछ अन्य जगहों पर जाने का कार्यक्रम बन गया था. लंदन से दिल्ली की उड़ान में तत्कालीन मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री डी. पुरंदेश्वरी मिल गई. हमारा उनसे पुराना परिचय था. वह आंध्र प्रदेश के संभवतः पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री एन टी रामराव की पुत्री हैं लेकिन उस समय वह कांग्रेस में थीं (2014 में वह भाजपा में शामिल हो गईं). उनसे काफी देर तक एनटीआर कुनबे की राजनीति पर भी चर्चा होती रही.
हवाई अड्डे पर ड्यूटी फ्री शॉप 
     अमेरिका में हुए दलित अल्पसंख्यक अंतर्राष्ट्रीय फोरम के तीन दिनों के सम्मेलन में यकीनीतौर पर राम विलास पासवान देश में दलितों और अल्पसंख्यकों के बड़े नेता-प्रवक्ता के रूप में लौटे थे. दुनिया भर से आए दलितों, अल्पसंख्यकों और समाज के अन्य वंचित, उपेक्षित तबकों के बीच उनके नाम का आकर्षण बढ़ा था. लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने कांग्रेस के बजाय लालू प्रसाद यादव के राजद के साथ तालमेल कर चुनाव लड़ा और उन्हें बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा. बाद में लालू प्रसाद के सहयोग से वह राज्यसभा में आ सके थे. लेकिन इस बीच न्यूयार्क घोषणापत्र में कही गई बातों को वह भूल से गए और एक समय तो ऐसा भी आया जब 2014 के संसदीय चुनाव में अपने पुत्र चिराग पासवान और पूरे कुनबे के साथ उन्हीं नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा करनेवाली भाजपा के साथ उन्होंने चुनावी गठबंधन कर लिया, जिसके विरुद्ध उनका पूरा दलित, अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम का सम्मेलन केंद्रित था. लेकिन वह मोदी सरकार में मृत्यु पर्यंत मंत्री बने रहे. शायद इसलिए भी उनके राजनीतिक विरोधी उन्हें भारतीय राजनीति में सबसे बड़ा ‘मौसम विज्ञानी’ कहते रहे. इस दौरान उन्हें अपने ‘न्यूयार्क घोषणापत्र’ की याद भी शायद नहीं आई. लेकिन उनके सौजन्य से हमें एक ध्रुवीय बनती जा रही दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य महाशक्ति, संयुक्त राज्य अमेरिका की दोनों राजधानियों में भ्रमण का अवसर तो मिला ही. यह संयोग कहें अथवा अपने अस्त-व्यस्त रहन सहन का दोष. इस यात्रा से जुड़ी बहुत सारी बातें और संस्मरण खासतौर से हमारे कैमरे से ली गई तस्वीरें बहुत प्रयास के बावजूद मिल नहीं सकीं. इस कारण भी यात्रा में साथ रहे मित्रों, मदन झा, गीताश्री, आशुतोष, सुभाशीष, प्रदीप, शेख मंजूर, कुरबान अली, संतोष भारतीय आदि मित्रों को गाहे-बगाहे तंग कर हमने तथ्य और तस्वीरें जुटाई. कहीं कुछ गलत लिख गया हो, कुछ छूट गया हो तो मित्र सुधार कर सकते हैं.

Wednesday, 11 November 2020

न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन भ्रमण (In New York and Washington)

 राम विलास पासवान के साथ न्यूयॉर्क में


जयशंकर गुप्त 


  
    बात वर्ष 2008 के जून महीने की है.अमेरिका में किसी पहले अल्पसंख्यक-अश्वेत के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बराक ओबामा का राष्ट्रपति बनना तय सा हो गया था. और इधर हमारे देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के राजनीतिक माहौल में अमेरिका के साथ परमाणु करार को लेकर अजीब तरह की उथल-पुथल का दौर चल रहा था. प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह के नेतृत्ववाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार के द्वारा अमेरिका के साथ किए जा रहे असैन्य परमाणु सहयोग करार के विरोध में सरकार को समर्थन दे रहे वाम दल सरकार से समर्थन वापस लेने की धमकी दे रहे थे. इसी बीच एक दिन संप्रग सरकार में रसायन, उर्वरक और इस्पात मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल रहे समाजवादी पृष्ठभूमि के वरिष्ठ मंत्री, राम विलास पासवान जी के निवास से फोन आया. कहा गया कि पासवान साहब मिलना चाहते हैं.

    शाम को हम 12 जनपथ स्थित उनके निवास पर पहुंच गये. लगा कि पासवान जी सरकार पर मंडरा रहे राजनीतिक संकट के बारे में कुछ खबर देनेवाले हैं. लेकिन संप्रग सरकार के सामने उत्पन्न संकट पर बात करने के बजाय पासवान जी ने कहा कि जुलाई के पहले सप्ताह में अमेरिका चलना है. थोड़ा विस्मय भाव से हमने पूछा, इस समय अमेरिका ! उन्होंने कहा कि हां, वहां न्यूयॉर्क में दलित एवं अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम का पांचवां तीन दिवसीय सम्मेलन हो रहा है. लेकिन सरकार के सामने संकट! उन्होंने कहा कि सम्मेलन की तिथि और स्थान का फैसला दो साल पहले यहां दिल्ली में हुए फोरम के चौथे सम्मेलन में ही हो गया था. सारी तैयारियां हो चुकी हैं. कई और पत्रकार, देश और दुनिया भर से दलित, अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम के प्रतिनिधि भी वहां पहुंच रहे हैं.
बाएं से लोकसभा के पूर्व उपाध्यक्ष चरणजीत
सिंह अटवाल, रामविलास पासवान,
डा. शाकिर मुखी, डा. ए. एस. नाकडार और रामचंद्र पासवान
और फिर सरकार के सामने संकट कोई ज्यादा गंभीर नहीं है. सब ठीक हो जाएगा. हमने प्रधानमंत्री और सोनिया जी को भी बता दिया है कि चार सांसदोंवाली हमारी लोजपा उनके साथ खड़ी रहेगी. वैसे, भी सूचना प्रौद्योगिकी के इस जमाने में हम लगातार उनसे जुड़े रहेंगे. 

    हमारे लिए ना कहने जैसी कोई बात ही नहीं थी, एक तो राम विलास जी और उनकी समाजवादी पृष्ठभूमि की राजनीति के साथ दशकों से जुड़ाव और लगाव था. मुझे उनका एक सूत्र वाक्य बहुत पसंद था, “मैं उस घर में दिया जलाने चला हूं जहां सदियों से अंधेरा है.’’ पत्रकार के बतौर भी उस समय हम हिन्दुस्तान अखबार के लिए उनकी लोक जनशक्ति पार्टी को भी कवर कर रहे थे. दूसरे, पत्रकारिता के क्षेत्र में आने के बाद से या कहें उससे पहले से ही मन में ग्रेट ब्रिटेन, सोवियत रूस, फ्रांस, अमेरिका और चीन जैसी विश्व की महाशक्ति कहे जाने वाले देशों में जाने, घूमने और देखने का सपना संजोए था. अपने तईं तो इन देशों में जा सकने का सामर्थ्य कभी रहा नहीं लेकिन अखबार के जरिए एक-एक कर या कहें उससे अधिक देशों में जाने-घूमने, वहां के समाज और संस्कृति को समझने के सपने साकार हो रहे थे. रूस के राजधानी शहर मास्को और सेंट पीटर्सबर्ग की यात्रा तत्कालीन राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम साहब के सौजन्य से संभव हो गई थी और अब अमेरिका जाने का पासवान जी का आंत्रण सामने था. मैंने पासवान जी से कहा कि मेरी तरफ से तो पूरी हां है लेकिन एक बार अखबार में संपादक जी से अनुमति लेनी पड़ेगी. पासवान जी ने कहा कोई बात नहीं है. आप आज ही बात कर लीजिए. बता दीजिएगा कि विमान यात्रा और वहां रहने-घूमने का खर्च फोरम की तरफ से वहन किया जाएगा. जल्दी बता देंगे तो वीसा की प्रक्रिया भी शुरू करनी होगी. हमने कार्यालय आकर तत्कालीन संपादक मृणाल (पांडेय) जी से बात की. उन्होंने सहर्ष अनुमति दे दी. इस तरह से अमेरिका की यात्रा का टिकट पक्का हो गया. संयोगवश जिस दिन हम लोग संयुक्त राज्य अमेरिका की व्यावसायिक और सांस्कृतिक राजधानी कहे जानेवाले सबसे बड़े शहर न्यूयॉर्क पहुंचने वाले थे, उसके अगले दिन, 4 जुलाई को अमेरिका का राष्ट्रीय (स्वतंत्रता) दिवस भी था.

    अमेरिका की खोज क्रिस्टोफर कोलंबस ने 1492 में की थी या आइसलैंड के लोगों के दावे के अनुसार इससे 500 साल पहले ही उनके पूर्वजों-वाइकिंग्स ने या किसी और ने ! सच है कि अमेरिका का इतिहास काफी पुराना है लेकिऩ संयुक्त राज्य अमेरिका के रूप में इसका ताजा इतिहास 18वीं शताब्दी में एक स्वतंत्र और संप्रभु देश के रूप में इसके उदय के साथ ही शुरू होता है. आज दुनिया में आर्थिक और सैन्य मामलों में भी सबसे ताकतवर महाशक्ति कहे जानेवाला अमेरिका भी 13 अन्य पड़ोसी उपनिवेशों के साथ ही कभी (1607 से 1783 तक) इंग्लैंड और ब्रिटश साम्राज्य के अधीन था. अमेरिका के राजनीतिज्ञ और सेनानायक जार्ज वाशिंगटन (जो देश के पहले राष्ट्रपति भी बने) के नेतृत्व में अंग्रेजों के साथ लंबे संघर्ष (अमेरिका के क्रांति संघर्ष) के क्रम में 4 जुलाई 1776 को ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र होने की घोषणा कर दी थी. इसके साथ बाकी उपनिवेशों के भी स्वतंत्र हो जाने और आपस में एकजुट होकर संघीय गणराज्य बनाने पर सहमत होने के बाद ही विश्व के राजनीतिक मानचित्र पर एक नये, स्वतंत्र और संप्रभु देश के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका का उदय हुआ था. आज अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी आर्थिक और सैन्य शक्ति बन चुका है. दुनिया की कुल आबादी की महज 4.3 फीसदी आबादी अमेरिका में रहती है लेकिन दुनिया की कुल संपत्ति का 40 प्रतिशत अमेरिका में ही है. इसकी सीमाएं उत्तर में कनाडा, पूर्व में अटलांटिक महासागर, दक्षिण में मेक्सिको की खाड़ी और मेक्सिको तथा पश्चिम में प्रशांत महासागर के साथ लगती हैं. आज संयुक्त राज्य अमेरिका में 50 राज्य, एक केंद्र शासित जिला, पांच स्वायत्त शासी क्षेत्र हैं. तकरीबन 98 लाख वर्ग किमी. के क्षेत्रफल के साथ दुनिया का चौथा और आबादी के मामले में तकरीबन 28.14 करोड़ की आबादी (सन् 2000 की जनगणना के अनुसार) के साथ अमेरिका दुनिया में चीन और भारत के बाद तीसरा सबसे बड़ा देश है. राजधानी इसकी वाशिंगटन है लेकिन व्यावसायिक, सांस्कृतिक 
राजधानी और सबसे बड़ा शहर न्यूयॉर्क है. एक समय, सन् 1800 में वाशिंगटन के राजधानी बनने से पहले न्यूयॉर्क और फिलाडेल्फिया भी अमेरिका की राजधानी रह चुके हैं. इस लिहाज से भी न्यूयॉर्क जाने और हडसन नदी के किनारे मैनहट्टन, संयुक्त राष्ट्र, 9 सितंबर 2001 को आतंकवादी हमलों का शिकार हुए वर्ल्ड ट्रेड सेंटर (ट्विन टॉवर्स) और स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी (स्वतंत्रता की मूर्ति या स्मारक) को देखने की इच्छा मन में हिलोरें मार रही थी. 


 
कठिन वीसा प्रक्रिया


    लेकिन अमेरिका जाने का टिकट जितनी आसानी से मिल गया, अमेरिकी वीसा प्राप्त करना काफी दुरूह कार्य साबित हुआ. नई दिल्ली के चाणक्यपुरी में स्थित अमेरिकी दूतावास में निर्धारित तिथि पर तय समय से पहले ही जाकर कतारबद्ध होना पड़ा. तमाम तरह के सुऱक्षा प्रबंधों से गुजरते हुए नियत अधिकारी के पास साक्षात्कार के लिए पहुंचने में काफी समय लग गया. साक्षात्कार भी बहुत कड़ा. आप अमेरिका क्यों जा रहे हैं. कब लौटेंगे. वहां कहां रहेंगे. हमारे इतिहास-भूगोल को पूरी तरह से खंगाला गया. कई बार तो गुस्सा भी हुआ और हमने कहा भी कि भाई हम आतंकी नहीं हैं और ना ही हमें तुम्हारे देश में रहने, नौकरी-रोजगार की कोई ख्वाहिश है. हमारा देश हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है. वह तो दलित-अल्पसंख्यक फोरम के सम्मेलन में जाना है, सो जा रहे हैं. उसने मुझसे दलित, अल्पसंख्यक के मायने समझे और सम्मेलन से जुड़े कई सवाल भी किए. बाद में गुस्सैल से दिखनेवाले अमेरिकी अधिकारी से फारिग होकर लौटे तो यह आशंका भी बनी रही कि वीसा मिलेगा भी कि नहीं. लेकिन आश्चर्यजनक ढंग से मुझे जो वीसा मिला, वह पांच साल के लिए था. यह वीसा हमारे लिए एक और (तुर्की) यात्रा में भी बड़ा कारगर साबित हुआ. इसकी चर्चा आगे अपनी पश्चिम एशिया में इरान, तुर्की और लेबनान की यात्रा से जुड़े संस्मरणों में करूंगा.

    बहरहाल, न्यूयॉर्क के लिए लंदन होते हुए नई दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे से हमारी उड़ान 2-3 जुलाई की आधी रात की थी जो तकरीबन चार घंटे लंदन में रुकने, लंदन तक के यात्रियों को उतारने और वहां से न्यूयार्क जानेवाले यात्रियों और उनके सामान को लेने-लादने आदि की प्रक्रिया के बाद तीन जुलाई की सुबह 10 बजे के करीब, भारतीय समय के मुताबिक रात के साढ़े आठ बजे (उस समय भारत और अमेरिका के बीच समय का अंतर तकरीबन 10.30 घंटों का था, अमेरिका का समय भारत के मुकाबले 10.30 घंटे पीछे था) न्यूयॉर्क के जॉन एफ कनेडी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंची. विमान में कई और पत्रकार मित्र भी मिल गए थे जो इसी कार्यक्रम के लिए न्यूयॉर्क जा रहे थे. 
इंडियन एयरलाइंस-एयर इंडिया के विमान में ‘महाराजा’ का आतिथ्य ठीक ही था लेकिन राष्ट्रपति डा. कलाम के साथ यात्राओं के दौरान उनके लिए एयर इंडिया के विशेष विमान में ‘महाराजा’ के आतिथ्य से इसकी तुलना बेमानी है. लंदन में हम चार घंटे रुके जरूर लेकिन हवाई अड्डे से बाहर निकलने की मनाही थी. सारा समय लंदन हवाई अड्डे पर मित्र पत्रकारों-गीताश्री, सुभाशीष मित्रा, आशुतोष, वंदिता मिश्रा, आरती कपूर और शेख मंजूर के साथ गप्पें लड़ाने, कुछ खाने-पीने में गुजारना पड़ा. हमारे लिए यह खुशी की बात थी कि लंदन की उस सरजमीं पर पांव रखने की हमारी ख्वाहिश पूरी हुई जिसके सम्राट-महारानी और उनके ब्रिटिश साम्राज्य ने हमारे देश पर सैकड़ों वर्षों तक राज किया था. 

   न्यूयॉर्क के जेएफके (जॉन एफ कनेडी) अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कड़ी और चिढ़ पैदा करनेवाली सुऱक्षा जांच से गुजरते हुए बाहर निकलने में अपेक्षा के विपरीत ज्यादा समय लगा. यह सब 9 सितंबर 2001 को अमेरिका में हुए भीषणतम आतंकी हमले का प्रतिफल बताया गया, जिसमें अल कायदा के आत्मघाती आतंकवादियों ने चार अमेरिकी विमानों का अपहरण कर विमानों को ही बम की तरह इस्तेमाल करते हुए न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में ट्विन टावर्स और वाशिंगटन में पेंटागन तथा कुछ अन्य महत्वपूर्ण इमारतों से टकरा दिया था. इस आतंकवादी हमले में तकरीबन तीन हजार लोग मारे गये थे जबकि तकरीबन 29 हजार लोग घायल हुए थे. काफी बड़े पैमाने पर, तकरीबन दो लाख करोड़ की संपत्ति भी नष्ट हुई थी. उस हमले के बाद से ही अमेरिकी हवाई अड्डों और अन्य ठिकानों पर सुरक्षा जांच बहुत कड़ी कर दी गई जिससे हर किसी को गुजरना पड़ता था. इस कड़ी जांच प्रक्रिया या कहें नंगाझोरी (पैर के जूते-मोजे तक उतरवा दिए गए थे), एक्सरे मशीन से पूरे शरीर की जांच से कभी हमारे रक्षा मंत्री जार्ज फर्नांडिस और राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम को भी गुजरना पड़ा था.

        
     हवाई अड्डे से आरामदायक बस से तकरीबन पौन घंटे की यात्रा के बाद हम लोग ‘लांग आईलैंड’ में स्थित होटल मैरिअट पहुंचे जहां हमारे ठहरने का इंतजाम किया गया था.लंबी यात्रा की थकन (जेट लेग) से कुछ निजात मिलने के बाद शाम के समय हममें से कुछ लोग पास में ही अटलांटिक महासागर के किनारे खूबसूरत जोंस बीच (समुद्र तट) देखने चले गये थे. सम्मेलन स्थल भी मैरिअट होटल में ही था. अपने परिवार और इस सम्मेलन के आयोजन में लगे कुछ पत्रकारों-बौद्धिकों के साथ राम विलास पासवान 25-26 जून को ही यहां आ गए थे. 

दलित-अल्पसंख्यक हितों की चिंता न्यूयॉर्क में !


    यह महज संयोग भर भी हो सकता है कि जिस समय अश्वेत और अल्पसंख्यक नेता के रूप में डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता बराक ओबामा संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे थे, अमेरिकन फेडरेशन ऑफ मुस्लिम ऑफ इंडियन ओरिजिन (आफमी) की मेजबानी में आयोजित इस सम्मेलन में पासवान को भारत के दलितों, अल्पसंख्यकों और वंचितों के सबसे बड़े नेता-प्रवक्ता के साथ ही ‘भारतीय ओबामा’ और भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश करने की भूमिका तैयार की जा रही थी. सम्मेलन के लिए प्रकाशित स्मारिका के मुख पृष्ठ पर भारत के संविधान निर्माता बाबा साहब अंबेटकर और स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी के बीच में राम विलास पासवान की बड़ी सी तस्वीर लगी थी. पासवान की छवि निर्माण के साथ ही इस सम्मेलन और इसके आयोजकों (जिनमें अधिकतर गुजरात और महाराष्ट्र के अल्पसंख्यक मुसलमान थे, का एक मकसद 9 सितंबर के आतंकवादी हमलों के बाद अमेरिका में कमजोर और असुरक्षित महसूस करने लगे अल्पसंख्यकों के लिए भारत सरकार के एक वरिष्ठ मंत्री तथा भारत के साथ ही दुनिया के अन्य कई देशों से आए नेताओं, बुद्धिजीवियों की मौजूदगी से दलित-अल्संख्यक एकजुटता का संदेश देना भी लगा. गुजरात में 2002 के सांप्रदायिक दंगों में हुए अल्पसंख्यकों के भीषण नरसंहार के विरोध में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली राजग सरकार के मंत्री पद से त्यागपत्र दे देने के बाद से ही पासवान देश और दुनिया में अल्पसंख्यकों के एक बड़े तबके के बीच बड़े पैमाने पर आकर्षण का केंद्र बन गए थे. जबकि समाजवादी पृष्ठभूमि के कई नेता सरकार में ही बने रहे थे. हालांकि जिस नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री रहते गुजरात में सांप्रदायिक दंगे हुए थे और जिनके विरोध में पासवान वाजपेयी मंत्रिमंडल से अलग हुए थे, बाद में उनके नेतृत्व में ही पासवान और उनकी पार्टी ने 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव लड़ा और उनकी सरकारों में वह मंत्री भी बने. 

दलित-अल्पसंख्यक एकजुटता !


    बहरहाल, चार जुलाई को शुरू हुए दलित अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम के सम्मेलन में भारत, अमेरिका के अलावा, ब्रिटेन, स्वीडेन, जर्मनी, दुबई, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रीका, नेपाल, मलयेशिया, खाड़ी के देशों से तकरीबन 800 प्रतिनिधि जमा हुए थे. सबसे अधिक प्रतिनिधि भारत से ही थे. इनमें लोकसभा के उपाध्यक्ष चरणजीत सिंह अटवाल, सांसद एवं दलित सेना के अध्यक्ष रामचंद्र पासवान, साबिर अली, नंदी येल्लइया, राम दास अठावले, जे डी सेलम, योजना आयोग के सदस्य भालचंद्र मुंगेकर, दलित नेता उदित राज, बिशप ई सारगुनम, गुजरात पुलिस के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक आर बी श्रीकुमार, पत्रकार एवं पूर्व सांसद संतोष भारतीय, तीस्ता शीतलवाड, रूथ मनोरमा, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल, सहारा के अजीज बर्नी, भारत सरकार के पूर्व सचिव पी एस कृष्णन, पंजाब के पूर्व राज्यपाल ओ. पी. मेहरा, पूर्व सांसद सैयद शहाबुद्दीन, बौद्ध भिक्खु भंते धम्मवीरू, दिल्ली विधानसभा के उपाध्यक्ष शोएब इकबाल, मौलाना कल्बे रशीद रिजवी, पूर्व कुलपति रमेश चन्द्र, बिहार सरकार के पूर्व मंत्री पशुपति कुमार पारस, लोजपा के नेता अब्दुल खालिक प्रमुख थे. सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए पासवान ने भारतीय समाज में आजादी के 61 साल बाद भी दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के विकास की मुख्यधारा में पिछड़ते जाने पर गहरी चिंता जाहिर की और कहा कि अब महज आरक्षण जैसी सुविधाओं से काम नहीं चलेगा. दलित, शोषित, दमित, उपेक्षित, वंजित, तिरस्कृत और बहिष्कृत तथा तमाम तरह की निषमताओं-भेदभाव के शिकार हो रहे लोगों को एकजुट होकर सत्ता अपने हाथ में लेनी होगी. उन्होंने दलितों और अल्पसंख्यकों की समस्याओं को तकरीबन एक जैसी करार देते हुए उनके बीच ‘दर्द का रिश्ता’ कायम करने पर बल दिया.
स्मारिका का विमोचन करते बाएं से लोकसभा के तत्कालीन
उपाध्यक्ष चरणजीतसिंह अटवाल, रामविलास पासवान,
सैयद शहाबुद्दीन और बिशप ई सारगुनम 

दलित अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम के सह अध्यक्ष एवं आफमी के अध्यक्ष डा. ए एस नाकाडोर ने कहा कि अगर दलित और अल्पसंख्यक एकजुट होकर अपनी आवाज बुलंद करें तो यकीनन हमारी आवाज दिल्ली, वाशिंगटन और संयुक्त राष्ट्र में भी सुनी जाएगी. सम्मेलन में दलित-अल्पसंख्यकों की सामाजिक समस्याएं, उनके शैक्षिक और आर्थिक सशक्तीकरण, आरक्षण और दलित-अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा पर केंद्रित विषयों पर बंटे सत्रों में संबद्ध विषयों के विशेषज्ञों ने अपने शोध पत्रों के साथ अपनी बातें रखी. सम्मेलन में दलितों और अल्पसंख्यकों से जुड़े विभिन्न मुद्दों और उनके समाधान के तरीकों पर भी विचार हुआ.
 


सुलभवाले पाठक जी से मुलाकात



    सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के बाद, दोपहर के भोजन के समय होटल में हमारे मित्र और सुलभ इंटरनेशनल के जनसंपर्क कार्य से जुड़े मदन झा भी मिल गये. वह इस सम्मेलन में भाग नहीं ले रहे थे लेकिन यह भी एक संयोग ही था कि बिहार की एक और विभूति, सुलभ के संस्थापक अध्यक्ष बिंदेश्वर पाठक भी उस समय अपनी पूरी टीम और ‘अलवर की राजकुमारियों’ के साथ न्यूयार्क के मैनहट्टन इलाके में मौजूद थे.
अलवर में बचपन से ही शौचालय साफ करने और सिर पर मैला ढोनेवाली सफाई कर्मियों को उनके परंपरागत धंधे से मुक्त करवाकर उन्हें समाज की मुख्य धारा में जोड़ने में लगे श्री पाठक ने इन्हें ‘अलवर की राजकुमारियां’ नाम दिया है. पाठक उन्हें यहां लेकर आए थे ताकि संयुक्त राष्ट्र के मंच पर उन्हें सम्मानित किया जा सके. मदन झा ने बताया कि उन लोगों का तो 2-3 जुलाई को ही दिल्ली लौटने का कार्यक्रम था लेकिन 25-26 जून की रात में एक ही विमान में यात्रा कर रहे पासवान जी और पाठक जी की मुलाकात में पासवान जी के आग्रह पर वे लोग इस सम्मेलन में शिरकत के लिए कुछ दिन और रुक गए थे. पाठक जी की टीम में हमारे मित्र और बिहार के स्वनामधन्य छायाकार कृष्ण मुरारी किशन और जीएन झा भी थे जिन्होंने विमान में ही उनका फोटो सेशन भी किया था. पासवान जी के आग्रह पर पाठक जी भी अपनी टीम के साथ सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में शामिल हुए थे.

    मदन जी ने ही बताया कि 4 जुलाई को अमेरिका के राष्ट्रीय स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हडसन नदी में बहुत शानदार आतिशबाजी होती है. यह आतिशबाजी संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के सामने स्थित मिलेनियम यूएन प्लाजा होटल में उनके कमरे से बेहतर दिखेगी. उनका आग्रह था कि कुछ साथी अगर चाहें तो उनके साथ चल रही टैक्सी (लिमोजिन कार) में उनके साथ चल सकते हैं. दलित अल्पसंख्यक अंतरराष्ट्रीय फोरम का मुख्य उद्घाटन सत्र तो हो ही चुका था, हम छह सात लोग-प्रदीप श्रीवास्तव, आशुतोष, सुभाशीष मित्रा, आरती कपूर, वंदिता मिश्रा, शेख मंजूर तैयार हो गये. तैयार तो गीताश्री भी हो गई थीं लेकिन गाड़ी में सिर्फ एक जगह बच रही थी जबकि उनके साथ उनके एक स्थानीय मित्र सुब्रत भी थे. जगह नहीं बनते देख उन्होंने कुछ और कार्यक्रम बना लिया. 
लिमोजिन से लॉंग आईलैंड से मैनहट्टन के रास्ते में
मदन झा,आरती कपूर, हम और जीएन झा
 तस्वीर आशुतोष ने ली थी


    न्यूयॉर्क और इसके लोवर मैनहट्टन की तो बात ही निराली है. दुनिया के सबसे बड़े बंदरगाहों में से एक के पास बसा न्यूयार्क शहर आबादी के मामले में सबसे बड़ा शहर है. हडसन नदी यहां अटलांटिक महासागर में मिलती है. 1785 से 1790 तक संयुक्त राज्य अमेरिका का राजधानी शहर भी रहे न्यूयॉर्क को हमारी मुंबई की तरह इस देश की व्यावसायिक और सांस्कृतिक राजधानी का भी दर्जा प्राप्त है. गगन चुम्बी अट्टालिकाएं यहां अतिरिक्त आकर्षण का केंद्र हैं. लांग आईलैंड में रेडिसन होटल से मैनहट्टन में हडसन नदी के पास स्थित संयुक्त राष्ट्र और उसी के सामने स्थित होटल ‘मिलेनियम यूएन प्लाजा’ की तकीबन 64 किमी की दूरी तय करने में तकरीबन सवा घंटे का समय लगता है. रास्ते में लांग आई लैंड और न्यूयार्क-मैनहट्टन को जोड़नेवाली ‘ईस्ट रिवर’ को पार करने के लिए तकरीबन दो किमी लंबी सुरंग ‘क्वींस मिडटाउन टनेल’ से होकर गुजरने के लिए टैक्सीवाले को टोल टैक्स चुकाने के लिए रुकना पड़ा था. इस सुरंग से गुजरना भी एक अनुभव था. दो लेन जाने और दो लेन आने के लिए 1940 में बनी इस सुरंग से रोजाना तकरीबन 70 हजार वाहन आ-जा रहे थे.

नोट ः अगली कड़ी में न्यूयॉर्क के मैनहट्टन में टाइम्स स्क्वायर, वाल स्ट्रीट पर भ्रमण के साथ ही लांग आई लैंड से वाशिंगटन की यात्रा, अमेरिकी सत्ता के प्रतीक ह्वाइट हाउस तथा अन्य इलाकों में भ्रमण से जुड़े कुछ रोचक संस्मरण.