'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के बहाने
पश्चिम एशिया में बीते दिन
जयशंकर गुप्त
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तेहरान हवाई अड्डे पर |
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तेहरान हवाई अड्डे पर स्वागत |
30 मार्च को ‘फिलीस्तीनी लैंड डे’ पर ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ का मकसद था, फिलीस्तीन और येरूशलम समस्या के सम्मानजनक समाधान के लिए शांतिपूर्ण और अहिंसक जन जागरण तथा विश्वव्यापी जन दबाव का निर्माण. मिथकों या कहें मान्यताओं के हिसाब से येरूशलम न सिर्फ यहूदियों बल्कि दुनिया भर के मुसलमानों और ईसाइयों के लिए धार्मिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण आस्था का शहर है. ईसा मसीह का जन्म वहीं हुआ था. उन्हें सूली पर भी वहीं चढ़ाया गया गया था. उनका बेथेलहेम वहीं है जिसे बाद में दुनिया के सबसे पहले चर्च का दर्जा दिया गया. मुसलमानों की विश्व प्रसिद्ध अल अक्सा मस्जिद और कुब्बतुश सखरा येरूशलम में ही है. बताते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद यहीं से मेराज पर गए थे. हजरत मूसा भी यहीं से थे जिन्हें यहूदी अपना पैगंबर मानते हैं. उनका सोलोमन टेंपल यहीं था. उसे दो बार (हजरत मोहम्मद से पहले) तोड़ा गया था-586 बीसी में बेबीलोनिया द्वारा और फिर 70 एडी में रोमन साम्राज्य द्वारा. अब वहां उसकी दीवार भर रह गई है. इजराइली उसे टेंपल आफ माउंट कहते हैं और उससे लिपट-चिपटकर रोते हैं. शायद इसीलिए उसे ‘वीपिंग वाल’ भी कहा जाता है. येरूशलम पर पूरी तरह उनका ही कब्जा है. आरोप हैं कि वे अन्य धर्मस्थलों को किसी न किसी बहाने ध्वस्त कर वहां अपना ‘टेंपल आफ सोलोमन’ बनाना चाहते हैं. वैसे ही, जैसे हमारे यहां संघ परिवार से जुड़े कुछ कटृरपंथी हिन्दुत्ववादी अयोध्या में ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की रट लगाते रहते हैं. आश्चर्यजनक नहीं है कि इजराइल और हमारे इन ‘कथित हिंदुत्ववादियों’ के बीच सोच के स्तर पर काफी निकटता है.
'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' की मांग इस पवित्र शहर को सभी धर्मों के लिए खुला रखने की थी. मार्च में सभी धर्मावलंबियों के साथ ही कुछ न्यायप्रिय यहूदी भी थे जो इजराइल के ‘जियोनिज्म’ के विरोध में हैं. लेकिन ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ के कारवां में बहुमत चूंकि मुसलमानों का था, शायद इसलिए भी ‘मस्जिदे अल अक्सा’ की बात कुछ ज्यादा ही तेज स्वर में गूंज रही थी. दुनिया भर के मुसलमान इसे मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र शहर मानते हैं.
पहला पड़ाव ईरान में
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तेहरान की पहिचान मिलाद टॉवर (तस्वीर इंटरनेट से) |
उत्तर में कैस्पियन सागर और फारस की खाड़ी और दक्षिण में ओमान की खाड़ी के बीच में स्थित इस्लामिक गणराज्य ईरान को पहले फारस के नाम से जाना जाता था. इसकी सीमाएं उत्तर पश्चिम में अर्मेनिया और अज़रबैजान, उत्तर में कैस्पियन सागर, उत्तर पूर्व में तुर्कमेनिस्तान, पूरब में अफगानिस्तान, दक्षिण पूर्व में पाकिस्तान, दक्षिण में फारस और ओमान की खाड़ी और पश्चिम में इराक और तुर्की से लगती हैं. इसकी समुद्री सीमाएं कजाकिस्तान और रूस (कैस्पियन सागर में) और बहरीन, कुवैत, ओमान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ भी साझा होती हैं. ईरान की कुल आबादी उस समय (2012 में) 7.5 करोड़ बताई गई जो हमारे बिहार और महाराष्ट्र राज्य की आबादी के बराबर है. लेकिन ईरान का क्षेत्रफल पूरे भारत के क्षेत्रफल के बराबर कहा जा सकता है. 16 लाख 48 हजार 195 वर्ग किमी के क्षेत्रफल के साथ, ईरान का अधिकांश हिस्सा ईरानी पठार पर स्थित है. सबसे बड़ा शहर तेहरान है, जो देश की राजधानी और इस इस्लामी गणराज्य की राजनीतिक और आर्थिक सत्ता का केंद्र भी है. अन्य प्रमुख शहरों में मशहद, इस्फ़हान, करज, तबरिज़, शिराज, अहवाज़ और कोम़ या खोम़ हैं. ईरान में आधिकारिक भाषा फ़ारसी है जबिक कुर्द, अज़ेरी, अरबी, बलूची आदि भाषाएं भी बोली जाती हैं. सर्वाधिक आबादी शिया मुसलमानों की है और आधिकारिक धर्म भी शिया इस्लाम है.
विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक ईरान या कहें फारस कभी दुनिया के सबसे प्राचीन और बड़े साम्राज्यों में से एक था, जिसमें शाही राजवंशों की एक लंबी श्रृंखला थी. इस साम्राज्य पर भी अक्सर आक्रमण होते रहे. पहले अलेक्जेंडर द ग्रेट ने, फिर पार्थियनों ने और बाद में हेलेनिस्टिक सेल्यूकाइड साम्राज्य ने शासन किया. अठारहवीं शताब्दी (1736-1747) में नादिर शाह अफ्शार या कहें नादिर कुली बेग के शासन में ईरान एक बार फिर से विश्व में एक मजबूत साम्राज्य के रूप में उभरकर सामने आया. फारस की सत्ता संभालने के दो-तीन साल बाद ही नादिर शाह ने पूरब की ओर रुख कर अफगानिस्तान के कंधार पर चढ़ाई कर दी थी. उस पर कब्जा हो जाने के बाद अपने सैनिकों के साथ इस बात का बहाना बना कर कि भारत के तत्कालीन शासक-मुगलों ने अफ़गान भगोड़ों को शरण दे रखी है, उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया. काबुल पर कब्जा़ करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया. करनाल में दिल्ली के तख्त पर काबिज तत्कालीन मुगल बादशाह मोहम्मद शाह और नादिर की सेनाओं के बीच जमकर युद्ध हुआ. नादिर शाह की सेना मुग़लों की सेना के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फ़ारसी सेना जीत गई. उसके मार्च 1739 में दिल्ली पहुंचने पर यह अफ़वाह फैली कि नादिर शाह मारा गया. इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया. इससे कुपित होकर उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया. हजारों लोग मार दिए. इसके अलावा उसने मोहम्मद शाह से विपुल धनराशि भी वसूली. हीरे जवाहरात भी उसे भेंट किया गया जिसमें कोहेनूर (कूह-ए-नूर), दरिया-ए-नूर और ताज-ए-मह भी शामिल थे. लेकिन नादिर शाह दिल्ली में सल्तनत की बागडोर संभालने और अपने साम्राज्य का विस्तार करने के बजाय लूटपाट के बाद अपने मुल्क लौट गया था.
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ईरान के शाह रेजा पेहलवी की पुरानी तस्वीर (इंटरनेट से) |
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ईरान की शाह की प्रतिमा को गिराते इस्लामी क्रंति से जुड़े युवा (तस्वीर इंटरनेट से) |
आख़िरकार ईरान में बढ़ते जनांदोलन और इस्लामी क्रांति को सफल होते देख 16 जनवरी 1979 को शाह मोहम्मद रज़ा पेहलवी को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. इसके दो सप्ताह बाद, 1 फ़रवरी 1979 को फ्रांस में निर्वासित जीवन जी रहे ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता के रूप में अयातुल्ला ख़ुमैनी निर्वासन से लौटे. तेहरान में उनके स्वागत के लिए 50 लाख लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. फिर एक जनमत संग्रह के बाद एक अप्रैल 1979 को ईरान को इस्लामी गणतंत्र घोषित कर दिया गया. तब से, ईरान की सत्ता इस्लामी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा संचालित की जाती है. राज्य सत्ता के प्रमुख सर्वोच्च धार्मिक नेता (अभी अली खमेनेई) होते हैं, जो राज्य पर वैचारिक और राजनीतिक नियंत्रण रखते हैं, सशस्त्र बलों को नियंत्रित करते हैं, और सुरक्षा, रक्षा और महत्वपूर्ण विदेश नीति के मुद्दों पर निर्णय लेते हैं. सरकार का औपचारिक मुखिया और कार्यकारी शाखा का प्रमुख राष्ट्रपति होता है, जो चार साल के लिए लोकप्रिय वोट द्वारा चुना जाता है और लगातार दो कार्यकालों से अधिक समय तक पद पर नहीं रह सकता. चुनी हुई संसद भी है लेकिन राष्ट्रपति और संसद की शक्ति सर्वोच्च धार्मिक नेता के फैसलों, इस्लामी मौलवियों के प्रभाव और ईरान के ज़बरदस्त सुरक्षा तंत्र और न्यायपालिका के प्रभाव से सीमित है.
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इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च धार्मिक नेता अयातुल्ला रूहिल्ला खुमैनी |
खोम़ में जमा एशियाई कारवां
बहरहाल, 16 मार्च को हम लोग ईरान की राजधानी तेहरान में इमाम खमैनी हवाई अड्डे पर पहुंचे. वहां पहले से ही हम लोगों के स्वागत के बाद हमें वाल्वो बस में तकरीबन 150 किमी दूर ईरान के धार्मिक शहर कोम (Qom) या कहें खोम ले जाने के लिए स्थानीय साथी मौजूद थे. इसी बस में हमें ईरान और तुर्की की यात्रा करनी थी. खोम को पूरी दुनिया में इस्लामी शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र कहा जाता है. ईरान में इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला रूहुल्लाह खमैनी यहीं से थे. वाल्वो बस में सवार होकर हम लोग सीधे खोम के लिए रवाना हुए. रास्ते में बंजरनुमा कंकरीली पहाड़ियों के बीच साफ-सुथरी सड़क पर 120-140 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से फर्राटा भरती वाल्वो बस में हम कब खोम पहुंच गए, पता ही नहीं चला. रास्ते में झक सफेद पानी की लंबी-चौड़ी झील मिली, बगल में बैठे कश्मीरी साथी सज्जाद मलिक ने बताया कि वह नमक की झील है, जहां बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन होता है. सज्जाद इससे पहले भी इन इलाकों में आ-जा चुके थे. पूरी यात्रा के दौरान वह हमारे बहुत अच्छे मित्र और गाइड साबित हुए. शाम को इमाम खमैनी यूनिवर्सिटी में ‘फिलीस्तीनी मुक्ति’ और ‘अल्ला हो अकबर’ के समवेत नारों के साथ हमारा जबरदस्त स्वागत हुआ.
‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ का एशियाई कारवां विभिन्न देशों और रास्तों से होते हुए खोम़ में जमा हुआ. इसमें भारत, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, मलयेशिया, फिलीपींस आदि देशों के प्रतिनिधि शामिल थे. कारवां में भारत के बाद सबसे बड़ा दल इंडोनेशिया और पाकिस्तान का था. भारतीय दल में कुछ कश्मीरी युवा भी थे. कुछ ही समय के बाद हम सब आपस में काफी घुल-मिल से गए थे. हालांकि पाकिस्तानी काफिले में शामिल कुछ लोगों का व्यवहार भारत और भारतीयों के प्रति आमतौर पर कटु और नकारात्मक ही रहता था. यही बात कुछ हद तक भारतीय काफिले में शामिल कुछ लोगों के बारे में भी लागू होती थी. वे आपस में तने-तने से रहते थे. बार-बार समझाने के बावजूद कि कारवां में सिर्फ फिलीस्तीन की बात होगी और उसकी मुक्ति के समर्थन में ही नारे लगेंगे, किसी देश के समर्थन-विरोध में नारे नहीं लगेंगे, कुछ उत्साही पाकिस्तानी साथी गाहे-बगाहे पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते और कश्मीर की समस्या उठाने लग जाते. मजेदार बात यह कि उन्हें उनके ही स्वर और सुरों में जवाब भी भारतीय मुसलमानों की तरफ से ही मिलते. यह बात और है कि भारत में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि भारतीय मुसलमान भारत के बजाए पाकिस्तान के गुणगान ज्यादा करते हैं. लेकिन हमने कारवां में देखा कि पाकिस्तान के खिलाफ सबसे ज्यादा नकारात्मक वही थे जो धार्मिक तौर पर भी ज्यादा कट्टरपंथी भारतीय मुसलमान थे. हमारी बातचीत पाकिस्तान के ऐसे कई प्रतिनिधियों से होती रहती, जो अपेक्षाकृत सुलझे और समझदार भी थे.
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खमैनी विश्वविद्यालय में श्रोताओं के बीच |
खोम़ में हुए समारोह में कुछ हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी छात्र-युवा भी मिले जो वहां अध्ययनरत थे. पता चला कि दुनिया भर से वहां पढ़ाई कर रहे छात्र-युवाओं में भारत और पाकिस्तान के छात्रों की संख्या भी उल्लेखनीय है. समारोह में गरमागरम तकरीरों के बाद हम तेहरान लौट गए जहां हमारे ठहरने का इंतजाम था. रास्ते में हम अयातुल्ला खमैनी की मजार के पास भी रुके जिसे एक भव्य स्मारक का रूप दे दिया गया है.
ईरान की राजधानी तेहरान तकरीबन 80 लाख की आबादी (2012 में) के साथ ईरान और पश्चिमी एशिया में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और मिश्र की राजधानी काहिरा के बाद मध्य पूर्व में दूसरा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है. हालांकि तेहरान से पहले समरकंद और तबरिज समेत कई अन्य शहरों को भी ईरान की राजधानी होने का गौरव हासिल रहा है. तेहरान ईरान की 32वीं राजधानी है. क़ाजार राजवंश के आगा मोहम्मद खान ने सत्ता संभालने के बाद 1786 में तेहरान की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए इसे फारस की राजधानी घोषित किया था. तबसे यही फारस-ईरान की राजधानी है. तेहरान की अधिकांश आबादी फ़ारसी-भाषी लोगों की है. लेकिन तेहरान में रहनेवाले अन्य जातीय-भाषाई समूहों की भी बड़ी आबादी फ़ारसी बोलती और समझती है.
हम जिस समय तेहरान में थे, गर्मी के दिन होने के बावजूद चारो तरफ से बर्फ से ढकी अल बुर्ज की पहाड़ियों से घिरा ईरान का बेहद खूबसूरत राजधानी शहर बहुत ही आकर्षक लग रहा था. नये साल, नवरोज की तैयारियां जोरों पर चल रही थीं. पुराना पर्शियन साम्राज्य होने के कारण 1979 में इस्लामी क्रांति के बावजूद नवरोज, जब पारसियों का नया साल शुरू होता है, यहां जोर-शोर और बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है. लोग-बाग छुट्टी और उत्सव के मूड में नजर आ रहे थे. सड़कें और बाजार लोगों और उनकी गाड़ियों से अटे पड़े थे. खूब खरीदारी हो रही थी. लोग सपरिवार बाहर जाते और कहीं भी गाड़ी खड़ी कर खाने-पीने (ईरान में खासतौर से मुसलमानों के लिए मदिरा सेवन वर्जित एवं प्रतिबंधित है-हालांकि सिगरेट-तंबाकू का चलन वहां जोरों पर है-इसलिए शीत पेयों पर जोर होता है) और जश्न मनाने में जुट जाते हैं. ईरान में औरतें पर्दा करती हैं. सिर पर हिजाब और बुर्का धारण करती हैं लेकिन यह भी बताया गया कि पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के मामले में वे किसी से पीछे नहीं हैं. उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता. उन्हें घरों में रोटियां बेलनी और पकानी नहीं पड़तीं. रोटियां आमतौर पर छोटी-बड़ी और स्वचालित बेकरीज में बनती हैं, अलग-अलग आकार-प्रकार की. उन्हें बेकरीज से अथवा किराना-जनरल स्टोर से भी खरीदा जा सकता है. लेकिन घर तक आने और निवाला बनने तक रोटियां ठंडी हो जाती हैं. हम जैसे तवे से उतरती गरमागरम चपातियां खाने के आदी लोगों के लिए यह एक नया अनुभव था जो न सिर्फ ईरान बल्कि तुर्की और लेबनान में भी देखने को मिला.
तेहरान प्रवास के दौरान हम ईरान की लोकसभा में गए. एक दिन, दोपहर का भोजन लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी की ओर से ही दिया गया था. राष्ट्रपति निवास में तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदीनेजाद से मिलने का अवसर भी मिला. बिना किसी सुरक्षा तामझाम के अहमदीनेजाद घंटा भर हम लोगों के साथ रहे, बातें की और साथ खड़े होकर तस्वीरें भी खिंचवाई. उन्होंने अपने भाषण में ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ को फिलीस्तीन की आजादी का कारवां करार दिया. उन्होंने ईरान और भारत के बीच सदियों पुरानी दोस्ती और प्रगाढ़ रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंध इन्हें आसानी से नहीं तोड़ सकते.
ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के विरोध में अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के द्वारा इस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का खास असर यहां के जन जीवन पर हमें तो देखने को नहीं मिला. एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद रोजमर्रा का जनजीवन पूर्ववत खुशहाल एवं गतिशील दिख रहा था. ईरान को इन प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह भी नहीं दिखती. इसका एक कारण शायद यह भी है कि खाड़ी के मुस्लिम देशों में ईरान संभवतः अकेला ऐसा देश है जो सिर्फ तेल की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं है. एक देश चलाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा उसके पास मौजूद है. ईरान सरकार में फिलीस्तीन मामलों के मंत्री रहे सैफुल इस्लाम ने एक सवाल के जवाब में कहा कि परमाणु कार्यक्रम ईरान की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं. ईरान के राजनेता अमेरिकी प्रतिबंधों को उसके परमाणु कार्यक्रमों के बजाए उसके फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष के समर्थन से जोड़कर देखते और पेश करते हैं. इसका उल्लेख करते हुए ईरान के लोकसभाध्यक्ष डा. लारिजानी ने कहा भी कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का असली कारण हमारे परमाणु कार्यक्रम नहीं बल्कि फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए हमारा समाज और सरकार दोनों के स्तर पर खुला और सक्रिय समर्थन है. उन्होंने एक यूरोपीय मंत्री से हुई बातचीत का हवाला देते हुए बताया कि यूरोपीय मंत्री ने उनसे कहा, ‘‘हमें आपके परमाणु कार्यक्रमों से कोई परेशानी नहीं है, भले ही वे परमाणु बम बनाने के लिए ही क्यों न हों. हमारी परेशानी यह है कि आप फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष का समर्थन कुछ ज्यादा ही बढ़ चढ़ कर करते हैं.’’ डा. लारिजानी ने जवाब में कहा कि उन पर गलत बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है. फिलीस्तीनियों को आजाद होने और अपनी जर-जमीन पर काबिज होने का पूरा हक है और हम लोग उन्हें उनके इस हक को दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं. चाहे कितने भी प्रतिबंध लगाए जाएं, ईरान अपना रुख नहीं बदल सकता. उनके अनुसार अमेरिका ने इराक से पहले ईरान पर हमले करवाए लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सका. अब उनके प्रतिबंधों को भी देख लेंगे. (हालांकि बदलते समय के साथ संयुक्त अरब अमीरात तथा खाड़ी के कुछ अन्य फिलीस्तीन समर्थक रहे देश भी अब बहिष्कार की नीति त्याग कर इजराइल के साथ संबंध बनाने लगे हैं.) ईरान अभी भी अपने रुख पर कायम है.
राजधानी तेहरान में प्रवास
ईरान की राजधानी तेहरान तकरीबन 80 लाख की आबादी (2012 में) के साथ ईरान और पश्चिमी एशिया में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और मिश्र की राजधानी काहिरा के बाद मध्य पूर्व में दूसरा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है. हालांकि तेहरान से पहले समरकंद और तबरिज समेत कई अन्य शहरों को भी ईरान की राजधानी होने का गौरव हासिल रहा है. तेहरान ईरान की 32वीं राजधानी है. क़ाजार राजवंश के आगा मोहम्मद खान ने सत्ता संभालने के बाद 1786 में तेहरान की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए इसे फारस की राजधानी घोषित किया था. तबसे यही फारस-ईरान की राजधानी है. तेहरान की अधिकांश आबादी फ़ारसी-भाषी लोगों की है. लेकिन तेहरान में रहनेवाले अन्य जातीय-भाषाई समूहों की भी बड़ी आबादी फ़ारसी बोलती और समझती है.
हम जिस समय तेहरान में थे, गर्मी के दिन होने के बावजूद चारो तरफ से बर्फ से ढकी अल बुर्ज की पहाड़ियों से घिरा ईरान का बेहद खूबसूरत राजधानी शहर बहुत ही आकर्षक लग रहा था. नये साल, नवरोज की तैयारियां जोरों पर चल रही थीं. पुराना पर्शियन साम्राज्य होने के कारण 1979 में इस्लामी क्रांति के बावजूद नवरोज, जब पारसियों का नया साल शुरू होता है, यहां जोर-शोर और बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है. लोग-बाग छुट्टी और उत्सव के मूड में नजर आ रहे थे. सड़कें और बाजार लोगों और उनकी गाड़ियों से अटे पड़े थे. खूब खरीदारी हो रही थी. लोग सपरिवार बाहर जाते और कहीं भी गाड़ी खड़ी कर खाने-पीने (ईरान में खासतौर से मुसलमानों के लिए मदिरा सेवन वर्जित एवं प्रतिबंधित है-हालांकि सिगरेट-तंबाकू का चलन वहां जोरों पर है-इसलिए शीत पेयों पर जोर होता है) और जश्न मनाने में जुट जाते हैं. ईरान में औरतें पर्दा करती हैं. सिर पर हिजाब और बुर्का धारण करती हैं लेकिन यह भी बताया गया कि पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के मामले में वे किसी से पीछे नहीं हैं. उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता. उन्हें घरों में रोटियां बेलनी और पकानी नहीं पड़तीं. रोटियां आमतौर पर छोटी-बड़ी और स्वचालित बेकरीज में बनती हैं, अलग-अलग आकार-प्रकार की. उन्हें बेकरीज से अथवा किराना-जनरल स्टोर से भी खरीदा जा सकता है. लेकिन घर तक आने और निवाला बनने तक रोटियां ठंडी हो जाती हैं. हम जैसे तवे से उतरती गरमागरम चपातियां खाने के आदी लोगों के लिए यह एक नया अनुभव था जो न सिर्फ ईरान बल्कि तुर्की और लेबनान में भी देखने को मिला.
तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदी नेजाद से मुलाकात
आर्थिक प्रतिबंधों से ‘बेअसर’ ईरान !
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एशियाई कारवां को संबोधित करते ईरान के तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदी नेजाद |
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एशियाई कारवां के साथ तस्वीरे में अहमदीनेजाद पीछे दाहिनी ओर खड़े हम |