ईरान यात्रा (दूसरी किश्त)
आर्थिक प्रतिबंधों से ‘बेअसर’ ईरान !
जयशंकर गुप्त
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तेहरान में आजादी स्क्वायर पर |
ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के विरोध में अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के द्वारा इस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का खास असर यहां के जन जीवन पर हमें तो देखने को नहीं मिला. एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद रोजमर्रा का जनजीवन पूर्ववत खुशहाल एवं गतिशील दिख रहा था. ईरान को इन प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह भी नहीं दिखती. इसका एक कारण शायद यह भी है कि खाड़ी के मुस्लिम देशों में ईरान संभवतः अकेला ऐसा देश है जो सिर्फ तेल की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं है. एक देश चलाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा उसके पास मौजूद है.
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दोपहर के भोजन के समय ईरान के फिलीस्तीन मामलों के पूर्व मंत्री सैफुल इस्लाम और कारवां के साथी रागिब के साथ |
डा. लारिजानी ने एक यूरोपीय मंत्री से हुई बातचीत का हवाला देते हुए बताया कि यूरोपीय मंत्री ने उनसे कहा, ‘‘हमें आपके परमाणु कार्यक्रमों से कोई परेशानी नहीं है, भले ही वे परमाणु बम बनाने के लिए ही क्यों न हों. हमारी परेशानी यह है कि आप फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष का समर्थन कुछ ज्यादा ही बढ़ चढ़ कर करते हैं.’’ डा. लारिजानी ने जवाब में कहा कि उन पर गलत बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है. फिलीस्तीनियों को आजाद होने और अपनी जर-जमीन पर काबिज होने का पूरा हक है और हम लोग उन्हें उनके इस हक को दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं. चाहे कितने भी प्रतिबंध लगाए जाएं, ईरान अपना रुख नहीं बदल सकता. उनके अनुसार अमेरिका ने इराक से पहले ईरान पर हमले करवाए लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सका. अब उनके प्रतिबंधों को भी देख लेंगे. (हालांकि बदलते समय के साथ संयुक्त अरब अमीरात तथा खाड़ी के कुछ अन्य फिलीस्तीन समर्थक रहे देश भी अब इस मसले पर इजराइल के बहिष्कार की नीति को त्याग कर इजराइल के साथ संबंध बनाने लगे हैं.) ईरान अभी भी अपने रुख पर कायम है.
तेहरान में अमेरिका-इजराइल का जबरदस्त विरोध
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तेहरान में अमेरिका के पुराने दूतावास में क्षत विक्षत स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी |
बुर्ज ए आजादी पर प्रदर्शन
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बुर्ज ए आज़ादी पर भारतीय कारवां का बैनर |
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तेहरान के तत्कालीन मेयर के साथ डिनर के बाद |
खमैनी के घर और ईरान के अपदस्थ
'शाह' के ग्रीन पैलेस में
तेहरान में हमारे मेजबान हमें उत्तरी तेहरान में ईरान के पूर्व या कहें अंतिम शाह मोहम्मद रजा पहेलवी के 1200 एकड़ इलाके में फैले और 27 एकड़ (11 हेक्टेयर) जमीन पर बने और अभी म्युजियम के रूप में बदल दिए गए ग्रीन (समर) पैलेस (ईरान-तेहरान में मोहम्मद रजा पहेलवी के इस तरह के 17 पैलेस थे) और उनके खिलाफ हुई इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला खमैनी के जमारान स्थित उस मकान पर भी ले गए जहां वह अपने अंतिम दिनों में सांस की तकलीफ बढ़ जाने के बाद रहने आ गए थे. उससे पहले वह ख़ोम में ही रहते थे. दोनों की जीवन शैली में फर्क साफ समझ में आया. खमैनी के कुछ इस्लामी कट्टरपंथी विचारों से हमारी सहमति का सवाल ही नहीं था लेकिन उनका निजी जीवन कतई सादगीपूर्ण था.
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जमारान में अयातुल्ला खमैनी का दो कमरों का घर जहां उन्होंने अपने अंतिम दिन गुजारे |
अलबोर्ज की पहाड़ियों के सामने 1922 से लेकर 1928 के बीच बने खूबसूरत महल, ग्रीन पैलेस का इस्तेमाल शाह रजा पहेलवी अपने समर पैलेस के रूप में करते थे. इसके भीतर बने मिरर हॉल का इस्तेमाल वह अपने औपचारिक कार्यालय के रूप में करते थे. पता चला कि 1979 में इस्लामी क्रांति के समय कैंसर जैसी असाध्य बीमारी से जूझ रहे शाह रजा पहेलवी अपने अंतिम दिनों में इसी नियावरन पैलेस में थे. इस महल में किसी आम आदमी की पहुंच पर पाबंदी थी. यहीं से वह 16 जनवरी 1979 को अपने हेलीकॉप्टर पर सवार होकर विदेश पलायन कर गए थे. 11 फरवरी 1979 को इस्लामी क्रांतिकारियों का इस महल पर कब्जा हो गया था.
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ईरान के अपदस्थ शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस के सामने |
ग्रीन (समर) पैलेस में घूमते हुए इस बात पर आश्चर्य हुआ कि इस्लामी क्रांति का देश होने के बावजूद शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस में पर्शियन साम्राज्य का जीवंत इतिहास तस्वीरों और मूर्तियों के साथ सिलसिलेवार ढंग से संजो कर रखा गया है. इसे पर्यटन स्थल घोषित कर दिया गया है, जहां पर्यटक टिकट लेकर आते हैं. इस संग्रहालय में भारत से मिली संगमरमर के अशोक स्तंभ की प्रतिकृति, 303 की राइफल और कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश देते रथ पर सवार कृष्ण की प्रतिकृति भी रखी गई है. नीचे मिलिट्री म्युजियम भी है जहां शाह के जमाने के और उससे पहले के भी अस्त्र-शस्त्र सहेजकर रखे गए हैं. वहां हमने डा. खैरनार के साथ तस्वीरें भी खिंचवाई.
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ग्रीन (समर) पैलेस में डा. सुरेश खैरनार के साथ |
फंस गए थे शौचालय में !
शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस में भ्रमण के दौरान हम एक शौचालय में फंस गए. जरूरत महसूस होने पर हम अकेले ही शौचालय (वहां शौचालय अथवा वाशरूम की पहचान डब्ल्यू सी से होती है. डब्ल्यू सी पूछने पर शौचालय का पता मिल जाता है.) की तरफ बढ़ गए. अंदर से दरवाजा बंद किया जो बाद में खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था. अंदर कोई सिटकिनी अथवा हैंडिल नहीं था. मैं परेशान सा हो गया. अगल-बगल से कोई आहट भी नहीं सुनाई दे रही थी. और हमारा मोबाइल भी वहां अंतरराष्ट्रीय कनेक्टिविटी के अभाव में काम नहीं कर रहा था. कोई रास्ता नहीं सूझते देख हमने दरवाजे पर जोर की थाप देनी और आवाज लगानी शुरू की. मेरा सौभाग्य ही था कि अचानक किसी राहगीर-पर्यटक का ध्यान उधर गया और हम किसी तरह से शौचालय से मुक्त होकर बाहर आ सके. ईरान में दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले ठंड कुछ ज्यादा ही थी. दो दिन पहले ही ईरान और तुर्की में जमकर बर्फबारी हुई थी. सड़कों पर भी कई जगहों पर बर्फ जमा हो गई थी.
ईरान की पुरानी राजधानी तबरिज़ में
नवरोज के शुभ मुहुर्त पर 21 मार्च को वाल्वो बसों से तेहरान से जिनदान के रास्ते हमारा कारवां, जिसमें ईरान के प्रतिनिधि भी शामिल हो गए थे, ईरान के अजरबैजान राज्य में स्थित तबरिज़ शहर होते हुए बजरगान स्थित तुर्की की सीमा पर पहुंचा. तेहरान से करीब 640 किमी दूर, उत्तर पश्चिम ईरान में बसे तबरिज़ में कभी (तेहरान से पहले) ईरान की राजधानी हुआ करती थी. अभी तबरिज़ पूर्वी अजरबैजान की राजधानी है. तकरीबन 16 लाख की सघन आबादीवाले ऐतिहासिक शहर तबरिज़ में अधिकतर आबादी ईरानी-अजरबैजानी लोगों की है जिनकी भाषा अजेरी टर्किश है. कभी सिल्क रोड मार्केट के रूप में मशहूर तबरिज़ की ख्याति अभी कालीन-कारपेट, मसालों और जेवरात के बड़े और विख्यात बाजार के रूप में बताई जाती है. रास्ते में जिनदान प्रांत के गवर्नर अब्बास राशिद के नेतृत्व में कारवां का स्वागत बैंड बाजे के साथ किया गया. रात का खाना उनकी ही तरफ से था.
कंदोवन के ‘स्टोन केव्ज विलेज’ में
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कंदोवन में पत्थरों की गुफा में बसे घर |
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कंदोवन में हम और पीछे खड़ी हमारी बस |
कंदोवन नाम संभवतः फारसी शब्द कंदू का पर्याय है जिसका मतलब होता है, मधुमक्खी. कंदोवन में पर्यटन स्थानीय लोगों के लिए आमदनी का एक अच्छा अतिरिक्त स्रोत है. तबरिज़ आनेवाले पर्यटक 2-3 घंटे का समय कंदोवन में बिताने और यहां की अद्वितीय वास्तुकला को देखने और गुफा में बने घरों की सैर करने में बिताते हैं. कुछेक गुफा घरों में कई मंजिलें हैं. चालुस नदी के बगल में कंदोवन का बाजार मोमेंटो-सूखे मेवे, नट्स, अच्छी गुणवत्ता वाली शहद और औषधीय पौधों के लिए प्रसिद्ध है.
साल में अधिकतर समय कंदोवन के चारों ओर बर्फ से ढकी चोटियों पर अद्भुत दृश्य दिखाई देते हैं. हम लोग जब कंदोवन पहुंचे थे, आसपास का इलाका पूरी तरह से बर्फ से ढक गया था. वहीं बर्फ की चादर पर बैठकर हमारा दोपहर का भोजन हुआ. कंदोवन की प्रसिद्धि गुफा घरों के साथ ही वहां गुफा में ही बने ‘लालेह कांदोवन इंटरनेशनल रॉकी होटल’ के कारण भी है. वहां बड़े पैमाने पर दुनिया भर से पर्यटक आते हैं. हम भी उसे देखने भीतर तक गए. दूर से अथवा बाहर से देखने पर कतई नहीं लगता कि अंदर इतनी अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त होटल होगा. लेकिन ऐसा ही है. हम जिस समय वहां पहुंचे, नवरोज के समय न सिर्फ 55 किमी दूर तबरिज़ से बल्कि पड़ोस में तुर्की से भी आए पर्यटक वहां डेरा जमाए थे. होटल में पहुंचने के लिए काफी ऊंची चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो बीमार और विकलांग लोगों के लिए कष्ट साध्य है. होटल में 25 कमरे हैं जिनमें जकुजी सिस्टम और टीवी आदि का इंतजाम भी है. कहने का मतलब कि वहां ‘स्टोन विलेज’ में 'मंगल' का पूरा इंतजाम है. हनीमून मनाने वाले जोड़े भी वहां अक्सर दिखते हैं. शाम को पूरा इलाका सन्नाटे में बदल जाता है. होटल के रहिवासी कमरों के भीतर सिमट जाते हैं, सिर्फ घूमने आए पर्यटक तबरिज़ अथवा तुर्की लौट जाते हैं और सड़क के किनारे दुकानें लगाने वाले अपने घरों को लौट जाते हैं.
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कंदोवन में बर्फ से जमी नाली पर बनी पुलिया पर |
हमारी रात पश्चिम अजरबैजान में ईरान-तुर्की सीमा पर स्थित बजरगान में गुजरी. पहाड़ियों से घिरा बजरगान जिला मुख्यालय शहर है जिसकी आबादी बमुश्किल दस हजार रही होगी. लेकिन आयात-निर्यात के लिहाज से बजरगान सबसे महत्वपूर्ण ईरानी जमीनी सीमा है जो तुर्की के साथ लगती है. रात का भोजन ‘होटल बजरगान इन’ में था जबकि हमारे ठहरने का इंतजाम चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे एक हायर सेकेंडरी लॉजिंग ऐंड बोर्डिंग स्कूल में किया गया था. ठंड बहुत ज्यादा थी. सुबह तैयार होकर हमें तुर्की में प्रवेश करना था.
तुर्की प्रवेश में वीसा की ‘दिक्कत’
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ईरान-तुर्की सीमा पर वीसा की जद्दोजहद से निजात के बाद |
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ईरान की लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी के द्वारा दिए लंच में अपना भोजन |