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Tuesday, 1 December 2020

ग्लोबल मार्च टु येरूशलम के साथ ईरान में बीते दिन In Iran with Global March to Jerusalem (Part 2)

ईरान यात्रा (दूसरी किश्त)


आर्थिक प्रतिबंधों से ‘बेअसर’ ईरान !


जयशंकर गुप्त


  
तेहरान में आजादी स्क्वायर पर
 
तेहरान प्रवास के दौरान हम ईरान की लोकसभा में गए. एक दिन, दोपहर का भोजन लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी की ओर से ही दिया गया था. राष्ट्रपति निवास में राष्ट्रपति अहमदीनेजाद से मिलने का अवसर भी मिला. बिना किसी सुरक्षा तामझाम के अहमदीनेजाद घंटा भर हम लोगों के साथ रहे, बातें की और साथ खड़े होकर तस्वीरें भी खिंचवाई. उन्होंने अपने भाषण में ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ को फिलीस्तीन की आजादी का कारवां करार दिया. उन्होंने ईरान और भारत के बीच सदियों पुरानी दोस्ती और प्रगाढ़ रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंध इन्हें आसानी से नहीं तोड़ सकते.

    ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के विरोध में अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के द्वारा इस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का खास असर यहां के जन जीवन पर हमें तो देखने को नहीं मिला. एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद रोजमर्रा का जनजीवन पूर्ववत खुशहाल एवं गतिशील दिख रहा था. ईरान को इन प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह भी नहीं दिखती. इसका एक कारण शायद यह भी है कि खाड़ी के मुस्लिम देशों में ईरान संभवतः अकेला ऐसा देश है जो सिर्फ तेल की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं है. एक देश चलाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा उसके पास मौजूद है.
दोपहर के भोजन के समय ईरान के
 फिलीस्तीन मामलों के पूर्व मंत्री सैफुल इस्लाम
और कारवां के साथी रागिब के साथ

ईरान सरकार में फिलीस्तीन मामलों के मंत्री रहे सैफुल इस्लाम ने एक सवाल के जवाब में कहा कि परमाणु कार्यक्रम ईरान की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं. ईरान के राजनेता अमेरिकी प्रतिबंधों को उसके परमाणु कार्यक्रमों के बजाए उसके फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष के समर्थन से जोड़कर देखते और पेश करते हैं. इसका उल्लेख करते हुए ईरान के लोकसभाध्यक्ष डा. लारिजानी ने कहा भी कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का असली कारण हमारे परमाणु कार्यक्रम नहीं बल्कि फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए हमारा समाज और सरकार दोनों के स्तर पर खुला और सक्रिय समर्थन है. 

    डा. लारिजानी 
ने एक यूरोपीय मंत्री से हुई बातचीत का हवाला देते हुए बताया कि यूरोपीय मंत्री ने उनसे कहा, ‘‘हमें आपके परमाणु कार्यक्रमों से कोई परेशानी नहीं है, भले ही वे परमाणु बम बनाने के लिए ही क्यों न हों. हमारी परेशानी यह है कि आप फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष का समर्थन कुछ ज्यादा ही बढ़ चढ़ कर करते हैं.’’ डा. लारिजानी ने जवाब में कहा कि उन पर गलत बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है. फिलीस्तीनियों को आजाद होने और अपनी जर-जमीन पर काबिज होने का पूरा हक है और हम लोग उन्हें उनके इस हक को दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं. चाहे कितने भी प्रतिबंध लगाए जाएं, ईरान अपना रुख नहीं बदल सकता. उनके अनुसार अमेरिका ने इराक से पहले ईरान पर हमले करवाए लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सका. अब उनके प्रतिबंधों को भी देख लेंगे. (हालांकि बदलते समय के साथ संयुक्त अरब अमीरात तथा खाड़ी के कुछ अन्य फिलीस्तीन समर्थक रहे देश भी अब इस मसले पर इजराइल के बहिष्कार की नीति को त्याग कर इजराइल के साथ संबंध बनाने लगे हैं.) ईरान अभी भी अपने रुख पर कायम है.

तेहरान में अमेरिका-इजराइल का जबरदस्त विरोध


  
तेहरान में अमेरिका के पुराने  दूतावास में क्षत विक्षत
स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी
 
ईरान और तेहरान में अमेरिका और इजराइल का विरोध कितना ज्यादा और गहरा है, यह हमें तेहरान के डिप्लोमेटिक इलाके में स्थित अमेरिका के पूर्व दूतावास में भी देखने को मिला. 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद छात्र-युवाओं ने ईरान के अपदस्थ शाह मोहम्मद रजा पहेलवी का साथ देने के कारण अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर अमेरिकी प्रतीकों को क्षत-विक्षत कर दिया. तब से दूतावास परिसर इस्लामी क्रांति के पास ही है. इसमें संग्रहालय बना दिया गया है. उसके प्रवेश द्वार पर लगी ‘स्टैच्यु आफ लिबर्टी’ को क्षत-विक्षत कर दिया गया है. उसके नीचे ‘डिलीट’ लिख दिया गया है. संग्रहालय के पास ही दीवार पर इजराइली नेताओं के पोस्टर लगाकर उन पर जूते फेंके जाते और निशाना लगाए जाते हैं. इस्लामी क्रांति के बाद ही तेहरान में इजराइली दूतावास को बंद कर वहां फिलीस्तीन का दूतावास खोल दिया गया था. 


बुर्ज ए आजादी पर प्रदर्शन


    
बुर्ज ए आज़ादी पर भारतीय कारवां का बैनर
हम तेहरान की पहचान बन चुके आजादी स्क्वायर (बुर्ज ए आजादी) और मिलाद टावर (बुर्ज ए मिलाद) भी गए. तेहरान के पश्चिमी प्रवेश द्वार पर तकरीबन 50 हजार वर्गमीटर क्षेत्रफल में बने आजादी स्क्वायर में एस फहान के इलाके से लाए गए सफेद संगमरमर के आठ हजार पत्थरों से बना 45 मीटर (148 फुट) ऊंचा टावर भी है. इसका निर्माण इस्लामी क्रांति से काफी पहले 1971 में तत्कालीन शाह मोहम्मद रजा पहेलवी के शासनकाल में हुआ था. मोहम्मद शाह रजा पहेलवी ने ईरान में शाह साम्राज्य के 2500 साल पूरा होने की याद में बनवाया था. इसका उद्घाटन 16 अक्टूबर 1971 को हुआ था जबकि इसे 14 जनवरी 1972 से आम लोगों के लिए खोल दिया गया था. पहले इसे शाहयाद या कहें ‘शाह मेमोरियल टावर’ कहा जाता था. पास में ही भूमिगत म्युजियम एवं छोटा थिएटरनुमा सभागार भी है. अगल-बगल में तरह-तरह के फव्वारों से युक्त पार्क हैं. यहां लाइट ऐंड साउंड कार्यक्रम भी होते हैं. दिन में और खासतौर से शाम को यहां लोगबाग बड़ी तादाद में जमा होते हैं. अवकाश के दिनों में तो यहां मेले जैसी चहल-पहल देखते ही बनती है. यहां बड़े राजनीतिक, धार्मिक जलसे भी होते हैं. ग्लोबल मार्च टु येरूशलम का एशियाई कारवां यहां जमा हुआ. सभी देशों के लोगों ने अपने अपने-अपने बैनर-पोस्टर लगाए. सभा भी हुई. नीचे बेसमेंट में पत्रकारों से बातचीत भी हुई.     

     
तेहरान के तत्कालीन मेयर के साथ डिनर के बाद

    मिलाद टावर ईरान में सबसे ऊंचा और दुनिया के छह सबसे ऊंचे टावरों में से एक सेल्फ-सपोर्टिंग टॉवर है, जो 2007 में बनकर तैयार हुआ था. 435 मीटर यानी 1427 फुट ऊंचे इस 12 मंजिले टावर में सबसे ऊपर एक घूमता रेस्तरां भी है. वहां सीढियों और लिफ्ट से जाया जा सकता है. पिछले साल ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ के एशियाई कारवां को तेहरान के मेयर ने इसी रेस्तरां में रात्रिभोज दिया था. इस बार उन्होंने रात्रिभोज तो किसी और बेहतरीन होटल में दिया लेकिन लौटते समय सभी प्रतिनिधियों को मिलाद टावर की प्रतिकृति का मोमेंटो जरूर दिया.
  



खमैनी के घर और ईरान के अपदस्थ 

'शाह'  के ग्रीन पैलेस में


    तेहरान में हमारे मेजबान हमें उत्तरी तेहरान में ईरान के पूर्व या कहें अंतिम शाह मोहम्मद रजा पहेलवी के 1200 एकड़ इलाके में फैले और 27 एकड़ (11 हेक्टेयर) जमीन पर बने और अभी म्युजियम के रूप में बदल दिए गए ग्रीन (समर) पैलेस (ईरान-तेहरान में मोहम्मद रजा पहेलवी के इस तरह के 17 पैलेस थे) और उनके खिलाफ हुई इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला खमैनी के जमारान स्थित उस मकान पर भी ले गए जहां वह अपने अंतिम दिनों में सांस की तकलीफ बढ़ जाने के बाद रहने आ गए थे. उससे पहले वह ख़ोम में ही रहते थे. दोनों की जीवन शैली में फर्क साफ समझ में आया. खमैनी के कुछ इस्लामी कट्टरपंथी विचारों से हमारी सहमति का सवाल ही नहीं था लेकिन उनका निजी जीवन कतई सादगीपूर्ण था. 
जमारान में अयातुल्ला खमैनी का दो कमरों का घर
जहां उन्होंने अपने अंतिम दिन गुजारे 
शाह रजा पहेलवी के भव्य राज प्रासादों की तुलना में इस्लामी क्रांति का यह महानायक और ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता दो कमरों के किराए के मकान में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहते थे. वहीं वह दुनिया भर से आने वाले अति विशिष्ट लोगों से मिलते भी थे. साथ लगा एक बड़ा हाल जमारान हुसैनिया भी है जिसमें एक प्लेटफार्म के सहारे जाकर वह आगंतुकों से मिलते और अपना संदेश देते थे.

अलबोर्ज की पहाड़ियों के सामने 1922 से  लेकर 1928 के बीच बने खूबसूरत महल, ग्रीन पैलेस का इस्तेमाल शाह रजा पहेलवी अपने समर पैलेस के रूप में करते थे. इसके भीतर बने मिरर हॉल का इस्तेमाल वह अपने औपचारिक कार्यालय के रूप में करते थे. पता चला कि 1979 में इस्लामी क्रांति के समय कैंसर जैसी असाध्य  बीमारी से जूझ रहे शाह रजा पहेलवी अपने अंतिम दिनों में इसी नियावरन पैलेस में थे. इस महल में किसी आम आदमी की पहुंच पर पाबंदी थी. यहीं से वह 16 जनवरी 1979 को अपने हेलीकॉप्टर पर सवार होकर विदेश पलायन कर गए थे. 11 फरवरी 1979 को इस्लामी क्रांतिकारियों का इस महल पर कब्जा हो गया था.
ईरान के अपदस्थ शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस के सामने
इसके बाद से इसे ग्रीन पैलेस म्युजियम का रूप दे दिया गया जिसमें एक खास रकम का भुगतान कर कोई भी आम शहरी, पर्यटक आकर शाह रजा पहेलवी की शानो शौकत से जुड़े जीवन और रहन सहन के प्रतीकों को देख सकता है. उनके विशाल गैरेज में उनकी तीन रोल्स रॉयस, पांच मर्सिडीज बेंज, छह महंगी मोटर सायकिलें आदि देखी जा सकती हैं.          

    ग्रीन (समर) पैलेस में घूमते हुए इस बात पर आश्चर्य हुआ कि इस्लामी क्रांति का देश होने के बावजूद शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस में पर्शियन साम्राज्य का जीवंत इतिहास तस्वीरों और मूर्तियों के साथ सिलसिलेवार ढंग से संजो कर रखा गया है. इसे पर्यटन स्थल घोषित कर दिया गया है, जहां पर्यटक टिकट लेकर आते हैं. इस संग्रहालय में भारत से मिली संगमरमर के अशोक स्तंभ की प्रतिकृति, 303 की राइफल और कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश देते रथ पर सवार कृष्ण की प्रतिकृति भी रखी गई है. नीचे मिलिट्री म्युजियम भी है जहां शाह के जमाने के और उससे पहले के भी अस्त्र-शस्त्र सहेजकर रखे गए हैं. वहां हमने डा. खैरनार के साथ तस्वीरें भी खिंचवाई.
ग्रीन (समर) पैलेस में डा. सुरेश खैरनार के साथ


फंस गए थे शौचालय में !


शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस में भ्रमण के दौरान हम एक शौचालय में फंस गए. जरूरत महसूस होने पर हम अकेले ही शौचालय (वहां शौचालय अथवा वाशरूम की पहचान डब्ल्यू सी से होती है. डब्ल्यू सी पूछने पर शौचालय का पता मिल जाता है.) की तरफ बढ़ गए. अंदर से दरवाजा बंद किया जो बाद में खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था. अंदर कोई सिटकिनी अथवा हैंडिल नहीं था. मैं परेशान सा हो गया. अगल-बगल से कोई आहट भी नहीं  सुनाई दे रही थी. और हमारा मोबाइल भी वहां अंतरराष्ट्रीय कनेक्टिविटी के अभाव में काम नहीं कर रहा था. कोई रास्ता नहीं सूझते देख हमने दरवाजे पर जोर की थाप देनी और आवाज लगानी शुरू की. मेरा सौभाग्य ही था कि अचानक किसी राहगीर-पर्यटक का ध्यान उधर गया और हम किसी तरह से  शौचालय से मुक्त होकर बाहर आ सके. ईरान में दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले ठंड कुछ ज्यादा ही थी. दो दिन पहले ही ईरान और तुर्की में जमकर बर्फबारी हुई थी. सड़कों पर भी कई जगहों पर बर्फ जमा हो गई थी.

 
मित्र पत्रकार अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ
समर पैलेस प्रांगड़ में

ईरान की पुरानी राजधानी तबरिज़ में

    
    नवरोज के शुभ मुहुर्त पर 21 मार्च को वाल्वो बसों से तेहरान से जिनदान के रास्ते हमारा कारवां, जिसमें ईरान के प्रतिनिधि भी शामिल हो गए थे, ईरान के अजरबैजान राज्य में स्थित तबरिज़ शहर होते हुए बजरगान स्थित तुर्की की सीमा पर पहुंचा. तेहरान से करीब 640 किमी दूर, उत्तर पश्चिम ईरान में बसे तबरिज़ में कभी (तेहरान से पहले) ईरान की राजधानी हुआ करती थी. अभी तबरिज़ पूर्वी अजरबैजान की राजधानी है. तकरीबन 16 लाख की सघन आबादीवाले ऐतिहासिक शहर तबरिज़ में अधिकतर आबादी ईरानी-अजरबैजानी लोगों की है जिनकी भाषा अजेरी टर्किश है. कभी सिल्क रोड मार्केट के रूप में मशहूर तबरिज़ की ख्याति अभी कालीन-कारपेट, मसालों और जेवरात के बड़े और विख्यात बाजार के रूप में बताई जाती है. रास्ते में जिनदान प्रांत के गवर्नर अब्बास राशिद के नेतृत्व में कारवां का स्वागत बैंड बाजे के साथ किया गया. रात का खाना उनकी ही तरफ से था. 

कंदोवन के ‘स्टोन केव्ज विलेज’ में


  
कंदोवन में पत्थरों की गुफा में बसे घर
     
रास्ते में ईरान के पूर्वी अजरबैजान प्रांत में स्थित कंदोवन में कुछ देर रुकना एक अलग तरह का अनुभव दे गया. कंदोवन इस दुनिया में बचे कुछ बसे हुए गुफा गांवों में से एक है, जहां निष्क्रिय ज्वालामुखी से निर्मित सहंद की चट्टानी गुफाओं में घर बने हैं. कंदोवन एकमात्र ऐसा गुफा गांव है जहां लोग अभी भी गुफाओं को अपने घर के रूप में उपयोग करते हैं. इस गांव की बसावट सात-आठ सौ साल पुरानी बताई जाती है. बताया गया कि तकरीबन 700 साल पहले आक्रमणकारी मंगोल सेना के भय से खोरज़म से भाग रहे शरणार्थियों ने सबसे पहले यहां शरण लेकर बसावट शुरू की थी. वे गुफाओं में छिपे और रुके रहे क्योंकि लाखों साल पुराने निष्क्रिय ज्वालामुखी की चट्टानें सर्दियों में गुफाओं को गर्म और गर्मियों में ठंडा रखती हैं. आस पास के इलाकों में उन्हें जीवनावश्यक सामान भी मिल जाते रहे होंगे. 
कंदोवन में हम और पीछे खड़ी हमारी बस

    कंदोवन नाम संभवतः फारसी शब्द कंदू का पर्याय है जिसका मतलब होता है, मधुमक्खी. कंदोवन में पर्यटन स्थानीय लोगों के लिए आमदनी का एक अच्छा अतिरिक्त स्रोत है. तबरिज़ आनेवाले पर्यटक 2-3 घंटे का समय कंदोवन में बिताने और यहां की अद्वितीय वास्तुकला को देखने और गुफा में बने घरों की सैर करने में बिताते हैं. कुछेक गुफा घरों में कई मंजिलें हैं. चालुस नदी के बगल में कंदोवन का बाजार मोमेंटो-सूखे मेवे, नट्स, अच्छी गुणवत्ता वाली शहद और औषधीय पौधों के लिए प्रसिद्ध है.

    साल में अधिकतर समय कंदोवन के चारों ओर बर्फ से ढकी चोटियों पर अद्भुत दृश्य दिखाई देते हैं. हम लोग जब कंदोवन पहुंचे थे, आसपास का इलाका पूरी तरह से बर्फ से ढक गया था. वहीं बर्फ की चादर पर बैठकर हमारा दोपहर का भोजन हुआ. कंदोवन की प्रसिद्धि गुफा घरों के साथ ही वहां गुफा में ही बने ‘लालेह कांदोवन इंटरनेशनल रॉकी होटल’ के कारण भी है. वहां बड़े पैमाने पर दुनिया भर से पर्यटक आते हैं. हम भी उसे देखने भीतर तक गए. दूर से अथवा बाहर से देखने पर कतई नहीं लगता कि अंदर इतनी अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त होटल होगा. लेकिन ऐसा ही है. हम जिस समय वहां पहुंचे, नवरोज के समय न सिर्फ 55 किमी दूर तबरिज़ से बल्कि पड़ोस में तुर्की से भी आए पर्यटक वहां डेरा जमाए थे. होटल में पहुंचने के लिए काफी ऊंची चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो बीमार और विकलांग लोगों के लिए कष्ट साध्य है. होटल में 25 कमरे हैं जिनमें जकुजी सिस्टम और टीवी आदि का इंतजाम भी है. कहने का मतलब कि वहां ‘स्टोन विलेज’ में 'मंगल' का पूरा इंतजाम है. हनीमून मनाने वाले जोड़े भी वहां अक्सर दिखते हैं. शाम को पूरा इलाका सन्नाटे में बदल जाता है. होटल के रहिवासी कमरों के भीतर सिमट जाते हैं, सिर्फ घूमने आए पर्यटक तबरिज़ अथवा तुर्की लौट जाते हैं और सड़क के किनारे दुकानें लगाने वाले अपने घरों को लौट जाते हैं. 
कंदोवन में बर्फ से जमी नाली पर बनी पुलिया पर

     हमारी रात पश्चिम अजरबैजान में ईरान-तुर्की सीमा पर स्थित बजरगान में गुजरी. पहाड़ियों से घिरा बजरगान जिला मुख्यालय शहर है जिसकी आबादी बमुश्किल दस हजार रही होगी. लेकिन आयात-निर्यात के लिहाज से बजरगान सबसे महत्वपूर्ण ईरानी जमीनी सीमा है जो तुर्की के साथ लगती है. रात का भोजन ‘होटल बजरगान इन’ में था जबकि हमारे ठहरने का इंतजाम चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे एक हायर सेकेंडरी लॉजिंग ऐंड बोर्डिंग स्कूल में किया गया था. ठंड बहुत ज्यादा थी. सुबह तैयार होकर हमें तुर्की में प्रवेश करना था.


तुर्की प्रवेश में वीसा की ‘दिक्कत’ 


    
ईरान-तुर्की सीमा पर वीसा की जद्दोजहद से निजात के बाद
    अगली
सुबह हम तुर्की में प्रवेश के लिए सीमा आव्रजन (इमिग्रेशन) कार्यालय पर थे. वीसा को लेकर शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पड़ा. तथाकथित ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के बावजूद पाकिस्तान के जत्थे को तुर्की सरकार ने वीसा नहीं दिया. लिहाजा उन्हें तेहरान से सीरिया की राजधानी दमिश्क होकर लेबनान जाना पड़ा. तेहरान में रह कर पढ़ाई कर रहे पाकिस्तानी छात्र मोहतशिम और उनकी लेबनानी बीवी तो हमारे साथ ईरान-तुर्की की सीमा तक आए भी लेकिन उनके पास चूंकि पाकिस्तानी पासपोर्ट था, उन्हें भी लौटा दिया गया. वीसा की समस्या हमारे और फिल्मकार राजकुमारी अस्थाना के सामने भी आई क्योंकि हमारा नाम मार्च में शामिल होने वालों की सूची में बाद में जुड़ा था. लोग तमाम तरह की अटकलें लगा रहे थे. यह भी लगा कि हमें भी वापस हमारे हिन्दुस्तान भेजा जा सकता है. लेकिन सबके साथ हमें भी उस समय घनघोर आश्चर्य हुआ जब हमें हमारा पासपोर्ट देखते ही तत्काल, बिना किसी हीला-हवाली के, वीसा क्लीयरेंस मिल गया. पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारे पासपोर्ट पर अमेरिका का वीसा लगा हुआ था. माना गया कि जो अमेरिका हो आया है, वह  तुर्की के लिए भी ‘खतरनाक’ नहीं होगा. तुर्की उन मुस्लिम देशों में संभवतः पहला था जिसने सरकार के स्तर पर इजराइल को सबसे पहले मान्यता दी थी. 
ईरान की लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी
के द्वारा दिए लंच में अपना भोजन


नोटः अगली किश्त कहर  ढाती  कड़ाके की ठंड में तुर्की के इद्गिर, इरझुरूम, राजधानी अंकारा, पुरानी राजधानी, एशिया और यूरोप की संगम स्थली कहे जानेवाले इस्ताम्बुल शहर, विश्व प्रसिद्ध सूफी कवि मौलाना रूमी के शहर कोन्या और मर्सिन बंदरगाह पर बिताए यादगार पलों के रोचक और रोमांचक संस्मरणों से भरपूर होगी.      

Saturday, 21 November 2020

पश्चिम एशिया, ईरान यात्रा, पहली किश्त (In west Asia-Iran Part 1)

'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के बहाने

पश्चिम एशिया में बीते दिन 

 

जयशंकर गुप्त

 

तेहरान हवाई अड्डे पर 
     वर्ष 2012 में 16 मार्च से दो अप्रैल तक ‘ग्लोबल मार्च टु जेरूशलम कहें या येरूशलम’ के सिलसिले में ईरान, तुर्की और लेबनान की हवाई, सड़क और समुद्री यात्रा का अवसर मिला. यह मार्च बेवतन होकर यत्र-तत्र शरणार्थी जीवन जी रहे फिलीस्तीनियों के मुक्ति संघर्ष के समर्थन और इजराइल की एकाधिकारवादी, विस्तारवादी नीतियों के विरोध में दुनिया भर के सिविल सोसाइटी के लोगों के द्वारा आयोजित किया गया. समाजवादी आंदोलन में फिलीस्तीन मुक्ति के समर्थन और इजराइल विरोध की घुट्टी किशोरावस्था से ही पिलाई गई थी. उस जमाने में क्यूबा के क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो और फिलीस्तीनी मुक्ति मोर्चा के नेता यासर अराफात हमारे अंतरराष्ट्रीय हीरो हुआ करते थे. लिहाजा भारतीय सेक्युलर फोरम के संयोजक, पुराने समाजवादी और इंडिया-फिलास्तीन सालिडैरिटी फोरम (इंडियन चैप्टर) के अध्यक्ष डा.सुरेश खैरनार और 'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' के सह संस्थापक फीरोज मिठीबोरवाला का निमंत्रण मिला तो पश्चिम एशिया के मुस्लिम राष्ट्रों, खासतौर से तुर्की में एशिया और यूरोप के मिलन स्थल में जाकर वहां की सभ्यता और समाज के साथ ही फिलीस्तीनी समस्या को भी करीब से देखने-समझने का लोभ संवरण नहीं कर सका. 

तेहरान हवाई अड्डे पर स्वागत
    30 मार्च को ‘फिलीस्तीनी लैंड डे’ पर ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ का मकसद था, फिलीस्तीन और येरूशलम समस्या के सम्मानजनक समाधान के लिए शांतिपूर्ण और अहिंसक जन जागरण तथा विश्वव्यापी जन दबाव का निर्माण. मिथकों या कहें मान्यताओं के हिसाब से येरूशलम न सिर्फ यहूदियों बल्कि दुनिया भर के मुसलमानों और ईसाइयों के लिए धार्मिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण आस्था का शहर है. ईसा मसीह का जन्म वहीं हुआ था. उन्हें सूली पर भी वहीं चढ़ाया गया गया था. उनका बेथेलहेम वहीं है जिसे बाद में दुनिया के सबसे पहले चर्च का दर्जा दिया गया. मुसलमानों की विश्व प्रसिद्ध अल अक्सा मस्जिद और कुब्बतुश सखरा येरूशलम में ही है. बताते हैं कि पैगंबर हजरत मोहम्मद यहीं से मेराज पर गए थे. हजरत मूसा भी यहीं से थे जिन्हें यहूदी अपना पैगंबर मानते हैं. उनका सोलोमन टेंपल यहीं था. उसे दो बार (हजरत मोहम्मद से पहले) तोड़ा गया था-586 बीसी में बेबीलोनिया द्वारा और फिर 70 एडी में रोमन साम्राज्य द्वारा. अब वहां उसकी दीवार भर रह गई है. इजराइली उसे टेंपल आफ माउंट कहते हैं और उससे लिपट-चिपटकर रोते हैं. शायद इसीलिए उसे ‘वीपिंग वाल’ भी कहा जाता है. येरूशलम पर पूरी तरह उनका ही कब्जा है. आरोप हैं कि वे अन्य धर्मस्थलों को किसी न किसी बहाने ध्वस्त कर वहां अपना ‘टेंपल आफ सोलोमन’ बनाना चाहते हैं. वैसे ही, जैसे हमारे यहां संघ परिवार से जुड़े कुछ कटृरपंथी हिन्दुत्ववादी अयोध्या में ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ की रट लगाते रहते हैं. आश्चर्यजनक नहीं है कि इजराइल और हमारे इन ‘कथित हिंदुत्ववादियों’ के बीच सोच के स्तर पर काफी निकटता है. 

    'ग्लोबल मार्च टु येरूशलम' की मांग इस पवित्र शहर को सभी धर्मों के लिए खुला रखने की थी. मार्च में सभी धर्मावलंबियों के साथ ही कुछ न्यायप्रिय यहूदी भी थे जो इजराइल के ‘जियोनिज्म’ के विरोध में हैं. लेकिन ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ के कारवां में बहुमत चूंकि मुसलमानों का था, शायद इसलिए भी ‘मस्जिदे अल अक्सा’ की बात कुछ ज्यादा ही तेज स्वर में गूंज रही थी. दुनिया भर के मुसलमान इसे मक्का और मदीना के बाद तीसरा सबसे पवित्र शहर मानते हैं.

पहला पड़ाव ईरान में


तेहरान की पहिचान मिलाद टॉवर (तस्वीर इंटरनेट से)
    बहरहाल, हम 16 मार्च को ‘महान एयर’ में नई दिल्ली से ईरान की राजधानी तेहरान के लिए रवाना हुए. ईरान पर अमेरिका और यूरोप के हाल के प्रतिबंधों के चलते ईरान के शेष दुनिया से कटे होने की बानगी ईरान की विमानन कंपनी ‘महान एयर’ की उड़ान में भी देखने को मिली. विमान में अधिकतर सीटें खाली थीं. जो भरी थीं, उन पर अधिकतर हम लोग यानी ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ में शामिल होने जा रहे लोग ही थे. इससे पहले ‘गलोबल मार्च टु येरूशलम’ के लिए एशियाई कारवां का एक काफिला 9 मार्च को दिल्ली में राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि से चलकर पंजाब में अमृतसर के पास वाघा बार्डर से पाकिस्तान में प्रवेश कर लाहौर, कराची, क्वेटा आदि शहरों से बस यात्रा करते हुए ईरान में जिदान और फिर तेहरान पहुंच चुका था. हम सबको एक साथ ही जाना था लेकिन वीसा आदि को लेकर हो रही दिक्कतों के मद्देनजर हम अलग-अलग काफिलों में ईरान पहुंचे.

    उत्तर में कैस्पियन सागर और फारस की खाड़ी और दक्षिण में ओमान की खाड़ी के बीच में स्थित इस्लामिक गणराज्य ईरान को पहले फारस के नाम से जाना जाता था. इसकी सीमाएं उत्तर पश्चिम में अर्मेनिया और अज़रबैजान, उत्तर में कैस्पियन सागर, उत्तर पूर्व में तुर्कमेनिस्तान, पूरब में अफगानिस्तान, दक्षिण पूर्व में पाकिस्तान, दक्षिण में फारस और ओमान की खाड़ी और पश्चिम में इराक और तुर्की से लगती हैं. इसकी समुद्री सीमाएं कजाकिस्तान और रूस (कैस्पियन सागर में) और बहरीन, कुवैत, ओमान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ भी साझा होती हैं. ईरान की कुल आबादी उस समय (2012 में) 7.5 करोड़ बताई गई जो हमारे बिहार और महाराष्ट्र राज्य की आबादी के बराबर है. लेकिन ईरान का क्षेत्रफल पूरे भारत के क्षेत्रफल के बराबर कहा जा सकता है. 16 लाख 48 हजार 195 वर्ग किमी के क्षेत्रफल के साथ, ईरान का अधिकांश हिस्सा ईरानी पठार पर स्थित है. सबसे बड़ा शहर तेहरान है, जो देश की राजधानी और इस इस्लामी गणराज्य की राजनीतिक और आर्थिक सत्ता का केंद्र भी है. अन्य प्रमुख शहरों में मशहद, इस्फ़हान, करज, तबरिज़, शिराज, अहवाज़ और कोम़ या खोम़ हैं. ईरान में आधिकारिक भाषा फ़ारसी है जबिक कुर्द, अज़ेरी, अरबी, बलूची आदि भाषाएं भी बोली जाती हैं. सर्वाधिक आबादी शिया मुसलमानों की है और आधिकारिक धर्म भी शिया इस्लाम है.

    विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक ईरान या कहें फारस कभी दुनिया के सबसे प्राचीन और बड़े साम्राज्यों में से एक था, जिसमें शाही राजवंशों की एक लंबी श्रृंखला थी. इस साम्राज्य पर भी अक्सर आक्रमण होते रहे. पहले अलेक्जेंडर द ग्रेट ने, फिर पार्थियनों ने और बाद में हेलेनिस्टिक सेल्यूकाइड साम्राज्य ने शासन किया. अठारहवीं शताब्दी (1736-1747) में नादिर शाह अफ्शार या कहें नादिर कुली बेग के शासन में ईरान एक बार फिर से विश्व में एक मजबूत साम्राज्य के रूप में उभरकर सामने आया. फारस की सत्ता संभालने के दो-तीन साल बाद ही नादिर शाह ने पूरब की ओर रुख कर अफगानिस्तान के कंधार पर चढ़ाई कर दी थी. उस पर कब्जा हो जाने के बाद अपने सैनिकों के साथ इस बात का बहाना बना कर कि भारत के तत्कालीन शासक-मुगलों ने अफ़गान भगोड़ों को शरण दे रखी है, उसने मुगल साम्राज्य की ओर कूच किया. काबुल पर कब्जा़ करने के बाद उसने दिल्ली पर आक्रमण किया. करनाल में दिल्ली के तख्त पर काबिज तत्कालीन मुगल बादशाह मोहम्मद शाह और नादिर की सेनाओं के बीच जमकर युद्ध हुआ. नादिर शाह की सेना मुग़लों की सेना के मुकाबले छोटी थी पर अपने बारूदी अस्त्रों के कारण फ़ारसी सेना जीत गई. उसके मार्च 1739 में दिल्ली पहुंचने पर यह अफ़वाह फैली कि नादिर शाह मारा गया. इससे दिल्ली में भगदड़ मच गई और फारसी सेना का कत्ल शुरू हो गया. इससे कुपित होकर उसने इसका बदला लेने के लिए दिल्ली में भयानक खूनखराबा किया. हजारों लोग मार दिए. इसके अलावा उसने मोहम्मद शाह से विपुल धनराशि भी वसूली. हीरे जवाहरात भी उसे भेंट किया गया जिसमें कोहेनूर (कूह-ए-नूर), दरिया-ए-नूर और ताज-ए-मह भी शामिल थे. लेकिन नादिर शाह दिल्ली में सल्तनत की बागडोर संभालने और अपने साम्राज्य का विस्तार करने के बजाय लूटपाट के बाद अपने मुल्क लौट गया था.

ईरान के शाह रेजा पेहलवी की
पुरानी तस्वीर (इंटरनेट से)
    ईरान को पूरी दुनिया 1935 तक पर्सिया अथवा फारस के नाम से जानती थी. फारस को ईरान का नाम पेहलवी वंश के तत्कालीन बादशाह रजा शाह पेहलवी का दिया बताते हैं. ईरान का मतलब आर्यों की भूमि से भी जोड़ा जाता है. ईरान के वंशानुगत साम्राज्य के अंतिम बादशाह, मोहम्मद रजा पेहलवी थे. अमेरिका परस्त पश्चिमी सोच और खुले विचारों का होने के बावजूद उनके शासन के अंतिम दशकों में उनके भ्रष्ट और एकाधिकार सत्तावादी, क्रूर शासन के खिलाफ इस्लामी विद्रोह चरम पर पहुंच रहा था. उन पर आरोप था कि उन्होंने ईरान के तेल भंडारों का 40 फीसदी अमेरिका के नाम कर दिया था. ऐसा करके उन्होंने उनपर अमेरिका के एहसान का बदला भर चुकाया था. गौरतलब है कि 1953 में अमेरिकी ख़ुफ़िया एजेंसी सीआइए ने ब्रिटेन के साथ मिलकर ईरान में तख़्तापलट के जरिए निर्वाचित प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक़ को अपदस्थ कर संपूर्ण सत्ता ईरान के शाह रज़ा पहलवी के हाथ में सौंप दी थी. धर्मनिरपेक्ष नीतियों में यकीन रखने वाले ईरानी प्रधानमंत्री ईरान के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण करना चाहते थे. वह ईरान के शाह की राजनीतिक ताक़त पर लगाम भी कसना चाहते थे. अमेरिका को यह मंजूर नहीं था. 
कुछ लोग 1979 की ईरानी क्रांति के मूल में 1953 में ईरान का तख्तापलट भी मानते हैं. इसलिए भी ईरान के वामपंथी, छात्र-युवा, और इस्लामी नेता शाह के विरुद्ध आंदोलित थे. धार्मिक नेता अयातुल्ला रूहिल्ला ख़ुमैनी के नेतृत्व में शाह के ख़िलाफ़ ईरान में असंतोष की बयार ने क्रांति का रूप ले लिया. देश में महीनों तक धरना-प्रदर्शन-हड़ताल होने लगे. मुझे याद है कि फरवरी 1978 में ईरान के शाह के नई दिल्ली आगमन के समय कुछ ईरानी छात्रों और सत्तारूढ़ जनता पार्टी की युवा शाखा-युवा जनता के कुछ समाजवादी युवजनों ने भी उनके विरोध में प्रदर्शन किया था. गिरफ्तारी के बाद ईरानी छात्रों ने आग्रह किया था कि उन्हें भारत में भले ही मौत की सजा दे दी जाए लेकिन उन्हें क्रूरतम यातना देने के लिए मशहूर और अमेरिकी सीआइए के द्वारा प्रशिक्षित ईरान की खुफिया पुलिस ‘सावाक’ को किसी भी हालत में नहीं सौंपा जाए. 
ईरान की शाह की प्रतिमा को गिराते
इस्लामी क्रंति से जुड़े युवा (तस्वीर इंटरनेट से)

    आख़िरकार ईरान में बढ़ते जनांदोलन और इस्लामी क्रांति को सफल होते देख 16 जनवरी 1979 को शाह मोहम्मद रज़ा पेहलवी को देश छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. इसके दो सप्ताह बाद, 1 फ़रवरी 1979 को फ्रांस में निर्वासित जीवन जी रहे ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता के रूप में अयातुल्ला ख़ुमैनी निर्वासन से लौटे. तेहरान में उनके स्वागत के लिए 50 लाख लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी. फिर एक जनमत संग्रह के बाद एक अप्रैल 1979 को ईरान को इस्लामी गणतंत्र घोषित कर दिया गया. तब से, ईरान की सत्ता इस्लामी लोकतांत्रिक सरकार द्वारा संचालित की जाती है. राज्य सत्ता के प्रमुख सर्वोच्च धार्मिक नेता (अभी अली खमेनेई) होते हैं, जो राज्य पर वैचारिक और राजनीतिक नियंत्रण रखते हैं, सशस्त्र बलों को नियंत्रित करते हैं, और सुरक्षा, रक्षा और महत्वपूर्ण विदेश नीति के मुद्दों पर निर्णय लेते हैं. सरकार का औपचारिक मुखिया और कार्यकारी शाखा का प्रमुख राष्ट्रपति होता है, जो चार साल के लिए लोकप्रिय वोट द्वारा चुना जाता है और लगातार दो कार्यकालों से अधिक समय तक पद पर नहीं रह सकता. चुनी हुई संसद भी है लेकिन राष्ट्रपति और संसद की शक्ति सर्वोच्च धार्मिक नेता के फैसलों, इस्लामी मौलवियों के प्रभाव और ईरान के ज़बरदस्त सुरक्षा तंत्र और न्यायपालिका के प्रभाव से सीमित है.

इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च धार्मिक नेता
अयातुल्ला रूहिल्ला खुमैनी

खोम़ में जमा एशियाई कारवां


    बहरहाल, 16 मार्च को हम लोग ईरान की राजधानी तेहरान में इमाम खमैनी हवाई अड्डे पर पहुंचे. वहां पहले से ही हम लोगों के स्वागत के बाद हमें वाल्वो बस में तकरीबन 150 किमी दूर ईरान के धार्मिक शहर कोम (Qom) या कहें खोम ले जाने के लिए स्थानीय साथी मौजूद थे. इसी बस में हमें ईरान और तुर्की की यात्रा करनी थी. खोम को पूरी दुनिया में इस्लामी शिक्षा का सबसे बड़ा केंद्र कहा जाता है. ईरान में इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला रूहुल्लाह खमैनी यहीं से थे. वाल्वो बस में सवार होकर हम लोग सीधे खोम के लिए रवाना हुए. रास्ते में बंजरनुमा कंकरीली पहाड़ियों के बीच साफ-सुथरी सड़क पर 120-140 किमी प्रति घंटा की रफ्तार से फर्राटा भरती वाल्वो बस में हम कब खोम पहुंच गए, पता ही नहीं चला. रास्ते में झक सफेद पानी की लंबी-चौड़ी झील मिली, बगल में बैठे कश्मीरी साथी सज्जाद मलिक ने बताया कि वह नमक की झील है, जहां बड़े पैमाने पर नमक का उत्पादन होता है. सज्जाद इससे पहले भी इन इलाकों में आ-जा चुके थे. पूरी यात्रा के दौरान वह हमारे बहुत अच्छे मित्र और गाइड साबित हुए. शाम को इमाम खमैनी यूनिवर्सिटी में ‘फिलीस्तीनी मुक्ति’ और ‘अल्ला हो अकबर’ के समवेत नारों के साथ हमारा जबरदस्त स्वागत हुआ. 

    ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ का एशियाई कारवां विभिन्न देशों और रास्तों से होते हुए खोम़ में जमा हुआ. इसमें भारत, पाकिस्तान, इंडोनेशिया, मलयेशिया, फिलीपींस आदि देशों के प्रतिनिधि शामिल थे. कारवां में भारत के बाद सबसे बड़ा दल इंडोनेशिया और पाकिस्तान का था. भारतीय दल में कुछ कश्मीरी युवा भी थे. कुछ ही समय के बाद हम सब आपस में काफी घुल-मिल से गए थे. हालांकि पाकिस्तानी काफिले में शामिल कुछ लोगों का व्यवहार भारत और भारतीयों के प्रति आमतौर पर कटु और नकारात्मक ही रहता था. यही बात कुछ हद तक भारतीय काफिले में शामिल कुछ लोगों के बारे में भी लागू होती थी. वे आपस में तने-तने से रहते थे. बार-बार समझाने के बावजूद कि कारवां में सिर्फ फिलीस्तीन की बात होगी और उसकी मुक्ति के समर्थन में ही नारे लगेंगे, किसी देश के समर्थन-विरोध में नारे नहीं लगेंगे, कुछ उत्साही पाकिस्तानी साथी गाहे-बगाहे पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते और कश्मीर की समस्या उठाने लग जाते. मजेदार बात यह कि उन्हें उनके ही स्वर और सुरों में जवाब भी भारतीय मुसलमानों की तरफ से ही मिलते. यह बात और है कि भारत में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि भारतीय मुसलमान भारत के बजाए पाकिस्तान के गुणगान ज्यादा करते हैं. लेकिन हमने कारवां में देखा कि पाकिस्तान के खिलाफ सबसे ज्यादा नकारात्मक वही थे जो धार्मिक तौर पर भी ज्यादा कट्टरपंथी भारतीय मुसलमान थे. हमारी बातचीत पाकिस्तान के ऐसे कई प्रतिनिधियों से होती रहती, जो अपेक्षाकृत सुलझे और समझदार भी थे.

    
खमैनी विश्वविद्यालय में श्रोताओं के बीच
    खमैनी यूनिवर्सिटी में हुए समारोह में ईरान के वरिष्ठ धार्मिक नेता अयातुल्ला काबी भी मौजूद थे. तमाम भाषणों में फिलीस्तीनी मुक्ति की लड़ाई धार्मिक ढंग से लड़ने की बातें की जा रही थीं. ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ यानी मुसलमानों की एकता पर भी जोर था. सिर्फ भारतीय काफिले के नेता फिरोज मिठीबोरवाला और 
इंडिया-फिलास्तीन सालिडैरिटी फोरम (इंडियन चैप्टर) के अध्यक्ष डा. सुरेश खैरनार शुरू से लेकर अंत तक एक ही बात कहते रहे कि फिलीस्तीन की समस्या किसी एक धर्म, जाति अथवा संप्रदाय की नहीं बल्कि इंसानियत की लड़ाई है, इसीलिए ‘ग्लोबल मार्च टु येरुशलम’ में दुनिया भर से सभी धर्मों, जातियों और संप्रदायों के लोग शामिल हो रहे हैं. डा. खैरनार ने कहा, “अगर आप लोग फिलीस्तीन के मसले को इस्लामिक मसला बोलते रहे तो एक हजार साल से भी ज्यादा समय हो जाएगा, कभी भी इस मसले का हल नहीं निकलेगा. इसके उलट इजराइल चाहता है कि आप लोग इस समस्या को मुसलमानों तक ही सीमित रखें! लेकिन अगर आप लोग इस मसले को दक्षिण अफ्रीका और वियतनाम की समस्या की तरह मानवीय समस्या के तौर पर पेश करेंगे तो शायद आपको हमारी-अपनी जिंदगी में ही इसका हल मिल सकता है!” डा. खैरनार ने कहा, “अगर आप लोग फिलीस्तीन के मसले को इस्लामिक मसला बोलते रहे तो एक हजार साल से भी ज्यादा समय हो जाएगा, कभी भी इस मसले का हल नहीं निकलेगा. इसके उलट इजराइल चाहता है कि आप लोग इस समस्या को मुसलमानों तक ही सीमित रखें! लेकिन अगर आप लोग इस मसले को दक्षिण अफ्रीका और वियतनाम की समस्या की तरह मानवीय समस्या के तौर पर पेश करेंगे तो शायद आपको हमारी अपनी जिंदगी में ही इसका हल मिल सकता है!”  

    खोम़ में हुए समारोह में कुछ हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी छात्र-युवा भी मिले जो वहां अध्ययनरत थे. पता चला कि दुनिया भर से वहां पढ़ाई कर रहे छात्र-युवाओं में भारत और पाकिस्तान के छात्रों की संख्या भी उल्लेखनीय है. समारोह में गरमागरम तकरीरों के बाद हम तेहरान लौट गए जहां हमारे ठहरने का इंतजाम था. रास्ते में हम अयातुल्ला खमैनी की मजार के पास भी रुके जिसे एक भव्य स्मारक का रूप दे दिया गया है.

राजधानी तेहरान में प्रवास


    ईरान की राजधानी तेहरान तकरीबन 80 लाख की आबादी (2012 में) के साथ ईरान और पश्चिमी एशिया में सबसे अधिक आबादी वाला शहर है, और मिश्र की राजधानी काहिरा के बाद मध्य पूर्व में दूसरा सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है. हालांकि तेहरान से पहले समरकंद और तबरिज समेत कई अन्य शहरों को भी ईरान की राजधानी होने का गौरव हासिल रहा है. तेहरान ईरान की 32वीं राजधानी है. क़ाजार राजवंश के आगा मोहम्मद खान ने सत्ता संभालने के बाद 1786 में तेहरान की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए इसे फारस की राजधानी घोषित किया था. तबसे यही फारस-ईरान की राजधानी है. तेहरान की अधिकांश आबादी फ़ारसी-भाषी लोगों की है. लेकिन तेहरान में रहनेवाले अन्य जातीय-भाषाई समूहों की भी बड़ी आबादी फ़ारसी बोलती और समझती है.

    हम जिस समय तेहरान में थे, गर्मी के दिन होने के बावजूद चारो तरफ से बर्फ से ढकी अल बुर्ज की पहाड़ियों से घिरा ईरान का बेहद खूबसूरत राजधानी शहर बहुत ही आकर्षक लग रहा था. नये साल, नवरोज की तैयारियां जोरों पर चल रही थीं. पुराना पर्शियन साम्राज्य होने के कारण 1979 में इस्लामी क्रांति के बावजूद नवरोज, जब पारसियों का नया साल शुरू होता है, यहां जोर-शोर और बड़े ही धूम-धाम से मनाया जाता है. लोग-बाग छुट्टी और उत्सव के मूड में नजर आ रहे थे. सड़कें और बाजार लोगों और उनकी गाड़ियों से अटे पड़े थे. खूब खरीदारी हो रही थी. लोग सपरिवार बाहर जाते और कहीं भी गाड़ी खड़ी कर खाने-पीने (ईरान में खासतौर से मुसलमानों के लिए मदिरा सेवन वर्जित एवं प्रतिबंधित है-हालांकि सिगरेट-तंबाकू का चलन वहां जोरों पर है-इसलिए शीत पेयों पर जोर होता है) और जश्न मनाने में जुट जाते हैं. ईरान में औरतें पर्दा करती हैं. सिर पर हिजाब और बुर्का धारण करती हैं लेकिन यह भी बताया गया कि पढ़ाई-लिखाई और रोजगार के मामले में वे किसी से पीछे नहीं हैं. उनके साथ किसी तरह का भेदभाव नहीं किया जाता. उन्हें घरों में रोटियां बेलनी और पकानी नहीं पड़तीं. रोटियां आमतौर पर छोटी-बड़ी और स्वचालित बेकरीज में बनती हैं, अलग-अलग आकार-प्रकार की. उन्हें बेकरीज से अथवा किराना-जनरल स्टोर से भी खरीदा जा सकता है. लेकिन घर तक आने और निवाला बनने तक रोटियां ठंडी हो जाती हैं. हम जैसे तवे से उतरती गरमागरम चपातियां खाने के आदी लोगों के लिए यह एक नया अनुभव था जो न सिर्फ ईरान बल्कि तुर्की और लेबनान में भी देखने को मिला.

तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदी नेजाद से मुलाकात

आर्थिक प्रतिबंधों से ‘बेअसर’ ईरान !


    
एशियाई कारवां को संबोधित करते ईरान के
तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदी नेजाद

    तेहरान
प्रवास के दौरान हम ईरान की लोकसभा में गए. एक दिन, दोपहर का भोजन लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी की ओर से ही दिया गया था. राष्ट्रपति निवास में तत्कालीन राष्ट्रपति अहमदीनेजाद से मिलने का अवसर भी मिला. बिना किसी सुरक्षा तामझाम के अहमदीनेजाद घंटा भर हम लोगों के साथ रहे, बातें की और साथ खड़े होकर तस्वीरें भी खिंचवाई. उन्होंने अपने भाषण में ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ को फिलीस्तीन की आजादी का कारवां करार दिया. उन्होंने ईरान और भारत के बीच सदियों पुरानी दोस्ती और प्रगाढ़ रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंध इन्हें आसानी से नहीं तोड़ सकते.

    
एशियाई कारवां के साथ तस्वीरे में अहमदीनेजाद
पीछे दाहिनी ओर खड़े हम
    ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के विरोध में अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के द्वारा इस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का खास असर यहां के जन जीवन पर हमें तो देखने को नहीं मिला. एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद रोजमर्रा का जनजीवन पूर्ववत खुशहाल एवं गतिशील दिख रहा था. ईरान को इन प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह भी नहीं दिखती. इसका एक कारण शायद यह भी है कि खाड़ी के मुस्लिम देशों में ईरान संभवतः अकेला ऐसा देश है जो सिर्फ तेल की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं है. एक देश चलाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा उसके पास मौजूद है. ईरान सरकार में फिलीस्तीन मामलों के मंत्री रहे सैफुल इस्लाम ने एक सवाल के जवाब में कहा कि परमाणु कार्यक्रम ईरान की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं. ईरान के राजनेता अमेरिकी प्रतिबंधों को उसके परमाणु कार्यक्रमों के बजाए उसके फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष के समर्थन से जोड़कर देखते और पेश करते हैं. इसका उल्लेख करते हुए ईरान के लोकसभाध्यक्ष डा. लारिजानी ने कहा भी कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का असली कारण हमारे परमाणु कार्यक्रम नहीं बल्कि फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए हमारा समाज और सरकार दोनों के स्तर पर खुला और सक्रिय समर्थन है. उन्होंने एक यूरोपीय मंत्री से हुई बातचीत का हवाला देते हुए बताया कि यूरोपीय मंत्री ने उनसे कहा, ‘‘हमें आपके परमाणु कार्यक्रमों से कोई परेशानी नहीं है, भले ही वे परमाणु बम बनाने के लिए ही क्यों न हों. हमारी परेशानी यह है कि आप फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष का समर्थन कुछ ज्यादा ही बढ़ चढ़ कर करते हैं.’’ डा. लारिजानी ने जवाब में कहा कि उन पर गलत बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है. फिलीस्तीनियों को आजाद होने और अपनी जर-जमीन पर काबिज होने का पूरा हक है और हम लोग उन्हें उनके इस हक को दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं. चाहे कितने भी प्रतिबंध लगाए जाएं, ईरान अपना रुख नहीं बदल सकता. उनके अनुसार अमेरिका ने इराक से पहले ईरान पर हमले करवाए लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सका. अब उनके प्रतिबंधों को भी देख लेंगे. (हालांकि बदलते समय के साथ संयुक्त अरब अमीरात तथा खाड़ी के कुछ अन्य फिलीस्तीन समर्थक रहे देश भी अब बहिष्कार की नीति त्याग कर इजराइल के साथ संबंध बनाने लगे हैं.) ईरान अभी भी अपने रुख पर कायम है.