Tuesday, 1 December 2020

ग्लोबल मार्च टु येरूशलम के साथ ईरान में बीते दिन In Iran with Global March to Jerusalem (Part 2)

ईरान यात्रा (दूसरी किश्त)


आर्थिक प्रतिबंधों से ‘बेअसर’ ईरान !


जयशंकर गुप्त


  
तेहरान में आजादी स्क्वायर पर
 
तेहरान प्रवास के दौरान हम ईरान की लोकसभा में गए. एक दिन, दोपहर का भोजन लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी की ओर से ही दिया गया था. राष्ट्रपति निवास में राष्ट्रपति अहमदीनेजाद से मिलने का अवसर भी मिला. बिना किसी सुरक्षा तामझाम के अहमदीनेजाद घंटा भर हम लोगों के साथ रहे, बातें की और साथ खड़े होकर तस्वीरें भी खिंचवाई. उन्होंने अपने भाषण में ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ को फिलीस्तीन की आजादी का कारवां करार दिया. उन्होंने ईरान और भारत के बीच सदियों पुरानी दोस्ती और प्रगाढ़ रिश्तों का जिक्र करते हुए कहा कि अमेरिका और पश्चिमी देशों के आर्थिक प्रतिबंध इन्हें आसानी से नहीं तोड़ सकते.

    ईरान के परमाणु कार्यक्रमों के विरोध में अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के द्वारा इस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का खास असर यहां के जन जीवन पर हमें तो देखने को नहीं मिला. एक महीने से अधिक का समय बीत जाने के बावजूद रोजमर्रा का जनजीवन पूर्ववत खुशहाल एवं गतिशील दिख रहा था. ईरान को इन प्रतिबंधों की रत्ती भर परवाह भी नहीं दिखती. इसका एक कारण शायद यह भी है कि खाड़ी के मुस्लिम देशों में ईरान संभवतः अकेला ऐसा देश है जो सिर्फ तेल की अर्थव्यवस्था के भरोसे नहीं है. एक देश चलाने के लिए जरूरी बुनियादी ढांचा उसके पास मौजूद है.
दोपहर के भोजन के समय ईरान के
 फिलीस्तीन मामलों के पूर्व मंत्री सैफुल इस्लाम
और कारवां के साथी रागिब के साथ

ईरान सरकार में फिलीस्तीन मामलों के मंत्री रहे सैफुल इस्लाम ने एक सवाल के जवाब में कहा कि परमाणु कार्यक्रम ईरान की ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए हैं. ईरान के राजनेता अमेरिकी प्रतिबंधों को उसके परमाणु कार्यक्रमों के बजाए उसके फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष के समर्थन से जोड़कर देखते और पेश करते हैं. इसका उल्लेख करते हुए ईरान के लोकसभाध्यक्ष डा. लारिजानी ने कहा भी कि अमेरिकी और यूरोपीय देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का असली कारण हमारे परमाणु कार्यक्रम नहीं बल्कि फिलीस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए हमारा समाज और सरकार दोनों के स्तर पर खुला और सक्रिय समर्थन है. 

    डा. लारिजानी 
ने एक यूरोपीय मंत्री से हुई बातचीत का हवाला देते हुए बताया कि यूरोपीय मंत्री ने उनसे कहा, ‘‘हमें आपके परमाणु कार्यक्रमों से कोई परेशानी नहीं है, भले ही वे परमाणु बम बनाने के लिए ही क्यों न हों. हमारी परेशानी यह है कि आप फिलीस्तीनी मुक्ति के संघर्ष का समर्थन कुछ ज्यादा ही बढ़ चढ़ कर करते हैं.’’ डा. लारिजानी ने जवाब में कहा कि उन पर गलत बात के लिए दबाव बनाया जा रहा है. फिलीस्तीनियों को आजाद होने और अपनी जर-जमीन पर काबिज होने का पूरा हक है और हम लोग उन्हें उनके इस हक को दिलाने के लिए कटिबद्ध हैं. चाहे कितने भी प्रतिबंध लगाए जाएं, ईरान अपना रुख नहीं बदल सकता. उनके अनुसार अमेरिका ने इराक से पहले ईरान पर हमले करवाए लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सका. अब उनके प्रतिबंधों को भी देख लेंगे. (हालांकि बदलते समय के साथ संयुक्त अरब अमीरात तथा खाड़ी के कुछ अन्य फिलीस्तीन समर्थक रहे देश भी अब इस मसले पर इजराइल के बहिष्कार की नीति को त्याग कर इजराइल के साथ संबंध बनाने लगे हैं.) ईरान अभी भी अपने रुख पर कायम है.

तेहरान में अमेरिका-इजराइल का जबरदस्त विरोध


  
तेहरान में अमेरिका के पुराने  दूतावास में क्षत विक्षत
स्टैच्यु ऑफ लिबर्टी
 
ईरान और तेहरान में अमेरिका और इजराइल का विरोध कितना ज्यादा और गहरा है, यह हमें तेहरान के डिप्लोमेटिक इलाके में स्थित अमेरिका के पूर्व दूतावास में भी देखने को मिला. 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद छात्र-युवाओं ने ईरान के अपदस्थ शाह मोहम्मद रजा पहेलवी का साथ देने के कारण अमेरिकी दूतावास पर कब्जा कर अमेरिकी प्रतीकों को क्षत-विक्षत कर दिया. तब से दूतावास परिसर इस्लामी क्रांति के पास ही है. इसमें संग्रहालय बना दिया गया है. उसके प्रवेश द्वार पर लगी ‘स्टैच्यु आफ लिबर्टी’ को क्षत-विक्षत कर दिया गया है. उसके नीचे ‘डिलीट’ लिख दिया गया है. संग्रहालय के पास ही दीवार पर इजराइली नेताओं के पोस्टर लगाकर उन पर जूते फेंके जाते और निशाना लगाए जाते हैं. इस्लामी क्रांति के बाद ही तेहरान में इजराइली दूतावास को बंद कर वहां फिलीस्तीन का दूतावास खोल दिया गया था. 


बुर्ज ए आजादी पर प्रदर्शन


    
बुर्ज ए आज़ादी पर भारतीय कारवां का बैनर
हम तेहरान की पहचान बन चुके आजादी स्क्वायर (बुर्ज ए आजादी) और मिलाद टावर (बुर्ज ए मिलाद) भी गए. तेहरान के पश्चिमी प्रवेश द्वार पर तकरीबन 50 हजार वर्गमीटर क्षेत्रफल में बने आजादी स्क्वायर में एस फहान के इलाके से लाए गए सफेद संगमरमर के आठ हजार पत्थरों से बना 45 मीटर (148 फुट) ऊंचा टावर भी है. इसका निर्माण इस्लामी क्रांति से काफी पहले 1971 में तत्कालीन शाह मोहम्मद रजा पहेलवी के शासनकाल में हुआ था. मोहम्मद शाह रजा पहेलवी ने ईरान में शाह साम्राज्य के 2500 साल पूरा होने की याद में बनवाया था. इसका उद्घाटन 16 अक्टूबर 1971 को हुआ था जबकि इसे 14 जनवरी 1972 से आम लोगों के लिए खोल दिया गया था. पहले इसे शाहयाद या कहें ‘शाह मेमोरियल टावर’ कहा जाता था. पास में ही भूमिगत म्युजियम एवं छोटा थिएटरनुमा सभागार भी है. अगल-बगल में तरह-तरह के फव्वारों से युक्त पार्क हैं. यहां लाइट ऐंड साउंड कार्यक्रम भी होते हैं. दिन में और खासतौर से शाम को यहां लोगबाग बड़ी तादाद में जमा होते हैं. अवकाश के दिनों में तो यहां मेले जैसी चहल-पहल देखते ही बनती है. यहां बड़े राजनीतिक, धार्मिक जलसे भी होते हैं. ग्लोबल मार्च टु येरूशलम का एशियाई कारवां यहां जमा हुआ. सभी देशों के लोगों ने अपने अपने-अपने बैनर-पोस्टर लगाए. सभा भी हुई. नीचे बेसमेंट में पत्रकारों से बातचीत भी हुई.     

     
तेहरान के तत्कालीन मेयर के साथ डिनर के बाद

    मिलाद टावर ईरान में सबसे ऊंचा और दुनिया के छह सबसे ऊंचे टावरों में से एक सेल्फ-सपोर्टिंग टॉवर है, जो 2007 में बनकर तैयार हुआ था. 435 मीटर यानी 1427 फुट ऊंचे इस 12 मंजिले टावर में सबसे ऊपर एक घूमता रेस्तरां भी है. वहां सीढियों और लिफ्ट से जाया जा सकता है. पिछले साल ‘ग्लोबल मार्च टु येरूशलम’ के एशियाई कारवां को तेहरान के मेयर ने इसी रेस्तरां में रात्रिभोज दिया था. इस बार उन्होंने रात्रिभोज तो किसी और बेहतरीन होटल में दिया लेकिन लौटते समय सभी प्रतिनिधियों को मिलाद टावर की प्रतिकृति का मोमेंटो जरूर दिया.
  



खमैनी के घर और ईरान के अपदस्थ 

'शाह'  के ग्रीन पैलेस में


    तेहरान में हमारे मेजबान हमें उत्तरी तेहरान में ईरान के पूर्व या कहें अंतिम शाह मोहम्मद रजा पहेलवी के 1200 एकड़ इलाके में फैले और 27 एकड़ (11 हेक्टेयर) जमीन पर बने और अभी म्युजियम के रूप में बदल दिए गए ग्रीन (समर) पैलेस (ईरान-तेहरान में मोहम्मद रजा पहेलवी के इस तरह के 17 पैलेस थे) और उनके खिलाफ हुई इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला खमैनी के जमारान स्थित उस मकान पर भी ले गए जहां वह अपने अंतिम दिनों में सांस की तकलीफ बढ़ जाने के बाद रहने आ गए थे. उससे पहले वह ख़ोम में ही रहते थे. दोनों की जीवन शैली में फर्क साफ समझ में आया. खमैनी के कुछ इस्लामी कट्टरपंथी विचारों से हमारी सहमति का सवाल ही नहीं था लेकिन उनका निजी जीवन कतई सादगीपूर्ण था. 
जमारान में अयातुल्ला खमैनी का दो कमरों का घर
जहां उन्होंने अपने अंतिम दिन गुजारे 
शाह रजा पहेलवी के भव्य राज प्रासादों की तुलना में इस्लामी क्रांति का यह महानायक और ईरान के सर्वोच्च धार्मिक नेता दो कमरों के किराए के मकान में अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहते थे. वहीं वह दुनिया भर से आने वाले अति विशिष्ट लोगों से मिलते भी थे. साथ लगा एक बड़ा हाल जमारान हुसैनिया भी है जिसमें एक प्लेटफार्म के सहारे जाकर वह आगंतुकों से मिलते और अपना संदेश देते थे.

अलबोर्ज की पहाड़ियों के सामने 1922 से  लेकर 1928 के बीच बने खूबसूरत महल, ग्रीन पैलेस का इस्तेमाल शाह रजा पहेलवी अपने समर पैलेस के रूप में करते थे. इसके भीतर बने मिरर हॉल का इस्तेमाल वह अपने औपचारिक कार्यालय के रूप में करते थे. पता चला कि 1979 में इस्लामी क्रांति के समय कैंसर जैसी असाध्य  बीमारी से जूझ रहे शाह रजा पहेलवी अपने अंतिम दिनों में इसी नियावरन पैलेस में थे. इस महल में किसी आम आदमी की पहुंच पर पाबंदी थी. यहीं से वह 16 जनवरी 1979 को अपने हेलीकॉप्टर पर सवार होकर विदेश पलायन कर गए थे. 11 फरवरी 1979 को इस्लामी क्रांतिकारियों का इस महल पर कब्जा हो गया था.
ईरान के अपदस्थ शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस के सामने
इसके बाद से इसे ग्रीन पैलेस म्युजियम का रूप दे दिया गया जिसमें एक खास रकम का भुगतान कर कोई भी आम शहरी, पर्यटक आकर शाह रजा पहेलवी की शानो शौकत से जुड़े जीवन और रहन सहन के प्रतीकों को देख सकता है. उनके विशाल गैरेज में उनकी तीन रोल्स रॉयस, पांच मर्सिडीज बेंज, छह महंगी मोटर सायकिलें आदि देखी जा सकती हैं.          

    ग्रीन (समर) पैलेस में घूमते हुए इस बात पर आश्चर्य हुआ कि इस्लामी क्रांति का देश होने के बावजूद शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस में पर्शियन साम्राज्य का जीवंत इतिहास तस्वीरों और मूर्तियों के साथ सिलसिलेवार ढंग से संजो कर रखा गया है. इसे पर्यटन स्थल घोषित कर दिया गया है, जहां पर्यटक टिकट लेकर आते हैं. इस संग्रहालय में भारत से मिली संगमरमर के अशोक स्तंभ की प्रतिकृति, 303 की राइफल और कुरुक्षेत्र में अर्जुन को गीता का उपदेश देते रथ पर सवार कृष्ण की प्रतिकृति भी रखी गई है. नीचे मिलिट्री म्युजियम भी है जहां शाह के जमाने के और उससे पहले के भी अस्त्र-शस्त्र सहेजकर रखे गए हैं. वहां हमने डा. खैरनार के साथ तस्वीरें भी खिंचवाई.
ग्रीन (समर) पैलेस में डा. सुरेश खैरनार के साथ


फंस गए थे शौचालय में !


शाह रजा पहेलवी के समर पैलेस में भ्रमण के दौरान हम एक शौचालय में फंस गए. जरूरत महसूस होने पर हम अकेले ही शौचालय (वहां शौचालय अथवा वाशरूम की पहचान डब्ल्यू सी से होती है. डब्ल्यू सी पूछने पर शौचालय का पता मिल जाता है.) की तरफ बढ़ गए. अंदर से दरवाजा बंद किया जो बाद में खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था. अंदर कोई सिटकिनी अथवा हैंडिल नहीं था. मैं परेशान सा हो गया. अगल-बगल से कोई आहट भी नहीं  सुनाई दे रही थी. और हमारा मोबाइल भी वहां अंतरराष्ट्रीय कनेक्टिविटी के अभाव में काम नहीं कर रहा था. कोई रास्ता नहीं सूझते देख हमने दरवाजे पर जोर की थाप देनी और आवाज लगानी शुरू की. मेरा सौभाग्य ही था कि अचानक किसी राहगीर-पर्यटक का ध्यान उधर गया और हम किसी तरह से  शौचालय से मुक्त होकर बाहर आ सके. ईरान में दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों के मुकाबले ठंड कुछ ज्यादा ही थी. दो दिन पहले ही ईरान और तुर्की में जमकर बर्फबारी हुई थी. सड़कों पर भी कई जगहों पर बर्फ जमा हो गई थी.

 
मित्र पत्रकार अब्दुल बारी सिद्दीकी के साथ
समर पैलेस प्रांगड़ में

ईरान की पुरानी राजधानी तबरिज़ में

    
    नवरोज के शुभ मुहुर्त पर 21 मार्च को वाल्वो बसों से तेहरान से जिनदान के रास्ते हमारा कारवां, जिसमें ईरान के प्रतिनिधि भी शामिल हो गए थे, ईरान के अजरबैजान राज्य में स्थित तबरिज़ शहर होते हुए बजरगान स्थित तुर्की की सीमा पर पहुंचा. तेहरान से करीब 640 किमी दूर, उत्तर पश्चिम ईरान में बसे तबरिज़ में कभी (तेहरान से पहले) ईरान की राजधानी हुआ करती थी. अभी तबरिज़ पूर्वी अजरबैजान की राजधानी है. तकरीबन 16 लाख की सघन आबादीवाले ऐतिहासिक शहर तबरिज़ में अधिकतर आबादी ईरानी-अजरबैजानी लोगों की है जिनकी भाषा अजेरी टर्किश है. कभी सिल्क रोड मार्केट के रूप में मशहूर तबरिज़ की ख्याति अभी कालीन-कारपेट, मसालों और जेवरात के बड़े और विख्यात बाजार के रूप में बताई जाती है. रास्ते में जिनदान प्रांत के गवर्नर अब्बास राशिद के नेतृत्व में कारवां का स्वागत बैंड बाजे के साथ किया गया. रात का खाना उनकी ही तरफ से था. 

कंदोवन के ‘स्टोन केव्ज विलेज’ में


  
कंदोवन में पत्थरों की गुफा में बसे घर
     
रास्ते में ईरान के पूर्वी अजरबैजान प्रांत में स्थित कंदोवन में कुछ देर रुकना एक अलग तरह का अनुभव दे गया. कंदोवन इस दुनिया में बचे कुछ बसे हुए गुफा गांवों में से एक है, जहां निष्क्रिय ज्वालामुखी से निर्मित सहंद की चट्टानी गुफाओं में घर बने हैं. कंदोवन एकमात्र ऐसा गुफा गांव है जहां लोग अभी भी गुफाओं को अपने घर के रूप में उपयोग करते हैं. इस गांव की बसावट सात-आठ सौ साल पुरानी बताई जाती है. बताया गया कि तकरीबन 700 साल पहले आक्रमणकारी मंगोल सेना के भय से खोरज़म से भाग रहे शरणार्थियों ने सबसे पहले यहां शरण लेकर बसावट शुरू की थी. वे गुफाओं में छिपे और रुके रहे क्योंकि लाखों साल पुराने निष्क्रिय ज्वालामुखी की चट्टानें सर्दियों में गुफाओं को गर्म और गर्मियों में ठंडा रखती हैं. आस पास के इलाकों में उन्हें जीवनावश्यक सामान भी मिल जाते रहे होंगे. 
कंदोवन में हम और पीछे खड़ी हमारी बस

    कंदोवन नाम संभवतः फारसी शब्द कंदू का पर्याय है जिसका मतलब होता है, मधुमक्खी. कंदोवन में पर्यटन स्थानीय लोगों के लिए आमदनी का एक अच्छा अतिरिक्त स्रोत है. तबरिज़ आनेवाले पर्यटक 2-3 घंटे का समय कंदोवन में बिताने और यहां की अद्वितीय वास्तुकला को देखने और गुफा में बने घरों की सैर करने में बिताते हैं. कुछेक गुफा घरों में कई मंजिलें हैं. चालुस नदी के बगल में कंदोवन का बाजार मोमेंटो-सूखे मेवे, नट्स, अच्छी गुणवत्ता वाली शहद और औषधीय पौधों के लिए प्रसिद्ध है.

    साल में अधिकतर समय कंदोवन के चारों ओर बर्फ से ढकी चोटियों पर अद्भुत दृश्य दिखाई देते हैं. हम लोग जब कंदोवन पहुंचे थे, आसपास का इलाका पूरी तरह से बर्फ से ढक गया था. वहीं बर्फ की चादर पर बैठकर हमारा दोपहर का भोजन हुआ. कंदोवन की प्रसिद्धि गुफा घरों के साथ ही वहां गुफा में ही बने ‘लालेह कांदोवन इंटरनेशनल रॉकी होटल’ के कारण भी है. वहां बड़े पैमाने पर दुनिया भर से पर्यटक आते हैं. हम भी उसे देखने भीतर तक गए. दूर से अथवा बाहर से देखने पर कतई नहीं लगता कि अंदर इतनी अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त होटल होगा. लेकिन ऐसा ही है. हम जिस समय वहां पहुंचे, नवरोज के समय न सिर्फ 55 किमी दूर तबरिज़ से बल्कि पड़ोस में तुर्की से भी आए पर्यटक वहां डेरा जमाए थे. होटल में पहुंचने के लिए काफी ऊंची चढ़ाई चढ़नी पड़ती है जो बीमार और विकलांग लोगों के लिए कष्ट साध्य है. होटल में 25 कमरे हैं जिनमें जकुजी सिस्टम और टीवी आदि का इंतजाम भी है. कहने का मतलब कि वहां ‘स्टोन विलेज’ में 'मंगल' का पूरा इंतजाम है. हनीमून मनाने वाले जोड़े भी वहां अक्सर दिखते हैं. शाम को पूरा इलाका सन्नाटे में बदल जाता है. होटल के रहिवासी कमरों के भीतर सिमट जाते हैं, सिर्फ घूमने आए पर्यटक तबरिज़ अथवा तुर्की लौट जाते हैं और सड़क के किनारे दुकानें लगाने वाले अपने घरों को लौट जाते हैं. 
कंदोवन में बर्फ से जमी नाली पर बनी पुलिया पर

     हमारी रात पश्चिम अजरबैजान में ईरान-तुर्की सीमा पर स्थित बजरगान में गुजरी. पहाड़ियों से घिरा बजरगान जिला मुख्यालय शहर है जिसकी आबादी बमुश्किल दस हजार रही होगी. लेकिन आयात-निर्यात के लिहाज से बजरगान सबसे महत्वपूर्ण ईरानी जमीनी सीमा है जो तुर्की के साथ लगती है. रात का भोजन ‘होटल बजरगान इन’ में था जबकि हमारे ठहरने का इंतजाम चारों तरफ पहाड़ियों से घिरे एक हायर सेकेंडरी लॉजिंग ऐंड बोर्डिंग स्कूल में किया गया था. ठंड बहुत ज्यादा थी. सुबह तैयार होकर हमें तुर्की में प्रवेश करना था.


तुर्की प्रवेश में वीसा की ‘दिक्कत’ 


    
ईरान-तुर्की सीमा पर वीसा की जद्दोजहद से निजात के बाद
    अगली
सुबह हम तुर्की में प्रवेश के लिए सीमा आव्रजन (इमिग्रेशन) कार्यालय पर थे. वीसा को लेकर शुरू से ही दिक्कतों का सामना करना पड़ा. तथाकथित ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ के बावजूद पाकिस्तान के जत्थे को तुर्की सरकार ने वीसा नहीं दिया. लिहाजा उन्हें तेहरान से सीरिया की राजधानी दमिश्क होकर लेबनान जाना पड़ा. तेहरान में रह कर पढ़ाई कर रहे पाकिस्तानी छात्र मोहतशिम और उनकी लेबनानी बीवी तो हमारे साथ ईरान-तुर्की की सीमा तक आए भी लेकिन उनके पास चूंकि पाकिस्तानी पासपोर्ट था, उन्हें भी लौटा दिया गया. वीसा की समस्या हमारे और फिल्मकार राजकुमारी अस्थाना के सामने भी आई क्योंकि हमारा नाम मार्च में शामिल होने वालों की सूची में बाद में जुड़ा था. लोग तमाम तरह की अटकलें लगा रहे थे. यह भी लगा कि हमें भी वापस हमारे हिन्दुस्तान भेजा जा सकता है. लेकिन सबके साथ हमें भी उस समय घनघोर आश्चर्य हुआ जब हमें हमारा पासपोर्ट देखते ही तत्काल, बिना किसी हीला-हवाली के, वीसा क्लीयरेंस मिल गया. पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारे पासपोर्ट पर अमेरिका का वीसा लगा हुआ था. माना गया कि जो अमेरिका हो आया है, वह  तुर्की के लिए भी ‘खतरनाक’ नहीं होगा. तुर्की उन मुस्लिम देशों में संभवतः पहला था जिसने सरकार के स्तर पर इजराइल को सबसे पहले मान्यता दी थी. 
ईरान की लोकसभा के तत्कालीन अध्यक्ष डा. अली लारिजानी
के द्वारा दिए लंच में अपना भोजन


नोटः अगली किश्त कहर  ढाती  कड़ाके की ठंड में तुर्की के इद्गिर, इरझुरूम, राजधानी अंकारा, पुरानी राजधानी, एशिया और यूरोप की संगम स्थली कहे जानेवाले इस्ताम्बुल शहर, विश्व प्रसिद्ध सूफी कवि मौलाना रूमी के शहर कोन्या और मर्सिन बंदरगाह पर बिताए यादगार पलों के रोचक और रोमांचक संस्मरणों से भरपूर होगी.      

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