Showing posts with label COVID19. Show all posts
Showing posts with label COVID19. Show all posts

Monday, 7 September 2020

CORONA'S (COVID19) Growing Havoc in INDIA ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो हुए हम!

भारत में कोरोना का बढ़ता कहर

ब्राजील से आगे निकल विश्व में नंबर दो पर पहुंचे हम

जयशंकर गुप्त

खुशी मनाएं कि गम. गौरवान्वित हों कि हों शर्मसार. वैश्विक महामारी कोरोना (कोविड 19) के संक्रमितों की संख्या के मामले में हमारा भारत विश्व में नंबर दो के मुकाम पर पहुंच गया है. कुल संक्रमितों की संख्या 42 लाख (6 सितंबर 2020 की शाम तक)  को पार कर जाने के कारण भारत अब ब्राजील से आगे निकल गया है. ब्राजील में कल शाम तक कुल कोरोना संक्रमितों की संख्या थी, तकरीबन 41 लाख 23 हजार. कल शाम तक 71 हजार 687 भारतीय कोरोना की चपेट में आकर दम तोड़ चुके हैं. जबकि कोरोना के टेस्ट की रफ्तार अभी भी इस देश में बहुत कम और धीमी है. तकरीबन 138 करोड़ की आबादीवाले इस देश में अभी तक कुल चार करोड़ 88 लाख से कुछ अधिक ही टेस्ट कराए जा चुके हैं. गंभीर चिंता की बात यह है कि पिछले एक सप्ताह में देश में कोरोना से संक्रमित रोगियों की संख्या कम होने के बजाय लगातार रिकार्डतोड़ ढंग से बढ़ते जा रही है. रविवार 6 सितंबर को 91 हजार से अधिक नए मामले दर्ज किए गये. इसके एक दिन पहले, 5 सितंबर को देश में 90 हजार 600 नए मरीज दर्ज हुए थे. 
राहत की बात इतनी भर है कि शनिवार को 73 हजार लोग कोरोना के संक्रमण से मुक्त भी हुए. अभी तक 31 लाख 80 हजार लोग कोरोना संक्रमण से मुक्त हो चुके हैं. लेकिन अभी भी देश के विभिन्न हिस्सों में तकरीबन 9 लाख  कोरोना ग्रस्त मरीज हैं जिनमें से 10 हजार की हालत गंभीर बनी हुई है. चिंता की बात यह भी है कि नये मामले उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से अधिक आ रहे हैं. यह दोनों राज्य इस समय भारी बरसात और बाढ़ का सामना अलग से कर रहे हैं. बिहार में तो नवंबर में विधानसभा के चुनाव भी कराए जा रहे हैं. 
 
आश्चर्य और अफसोस की बात यह है कि कोरोना के कहर के इन डरावने आंकड़ों को लेकर हमारी सरकार, मुख्यधारा का मीडिया और हमारे लोग (आम नागरिक) भी अब उतने चिंतित और सचेत नहीं हैं जितना शुरुआती दौर में नजर आते थे जब कोरोना संक्रमितों और उसकी चपेट में आकर मरनेवाले लोगों की संख्या भी बहुत कम थी. लॉाकडाउन के नाम पर सरकारी सख्ती गजब की थी. सरकार ने और मीडिया ने लोगों के बीच भय और दहशत का ऐसा माहौल बना दिया था कि उस समय तो सबकुछ ठप सा हो गया था. हमारा मुख्यधारा का मीडिया इस समय बालीवुड के अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत कीआत्महत्या-हत्या की गुत्थी सुलझाने में व्यस्त है और हमारे हुक्मरान इस आपदा को अवसर में बदलकर इसके कैसे और क्या क्या राजनीतिक लाभ लिए जा सकते हैं, इसकी जुगत में. मध्य प्रदेश में जनादेश से बनी कांग्रेस की सरकार को पैसे और राजनीतिक प्रलोभन के जरिए अपदस्थ कर वहां अपनी सरकार बनाने में वे सफल हो चुके हैं.राजस्थान में आपदा अवसर में बदलते-बदलते रह गई. कांग्रेस की सरकार को अपदस्थ कर उसके कथित बागियों के सहारे अपनी सरकार बनाने के उनके मंशूबे पूरे नहीं हो सके.  

 बहरहाल, हमने जुलाई महीने में ही आगाह किया था कि अगर अपेक्षित सावधानी और सतर्कता नहीं बरती गई, कोरोना प्रोटोकोल पर पूरी तरह से अमल नहीं हुआ और बड़े पैमाने पर कोरोना टेस्टिंग नहीं हुई तो अगस्त महीने तक देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 20 लाख के आंकड़े को छू लेगी. हम गलत साबित हुए. अगस्त बीतते बीतते तो देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या 35 लाख के पार पहुंच गई. अभी भी ऐसा नहीं लग रहा है कि सरकार इस दिशा में विशेष रूप से सक्रिय है. अगर यही हाल रहा और कोरोना संक्रमितों की संख्या इसी रफ्तार से बढ़ती रही (अभी अमेरिका और ब्राजील के मुकाबले भारत में कोरोना संक्रमितों के बढ़ने की रफ्तार दो गुनी से ज्यादा है.)
तो नवंबर महीने तक इस देश में कोरोना संक्रमितों की संख्या एक करोड़ के पार और इसके कारण दम तोड़नेवालों की संख्या भी डेढ़ लाख से ऊपर पहुंच सकती है. तकलीफदेह बात यह भी है कि कोरोना से मुक्ति दिलाने के नाम पर विभिन्न देशों में कोई टीका (वेक्सिन) अभी तक निर्णायक और प्रामाणिक रूप से सामने नहीं आ सका है. उसके बारे में अभी तक केवल अटकलें ही सुनने-पढ़ने को मिल रही हैं.   
  
  वस्तुस्थिति यही है कि एक तरफ डूबती लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था (जून तिमाही में भारत की जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद में 23.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई जबकि बेरोजगारी के आंकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं. रुपये की कीमत गिर रही है.) को पटरी पर लाने के नाम पर केंद्र और राज्य सरकारों के द्वारा तमाम क्षेत्रों को 'अनलॉक' किया जा रहा है तो दूसरी तरफ भारत में कोरोना का कहर अपने चरम को छूने को आतुर दिख रहा है. अनलॉक प्रक्रिया के तहत होटल-रेस्तरां और बार खोले जा रहे हैं, मेट्रो रेल का परिचालन शुरू होने जा रहा है, रेल गाड़ियां, बसें, टैक्सी और ऑटो रिक्शा दौड़ने लगे हैं (इन सबके परिचालन में कोरोना प्रोटोकोल और अन्य सावधानियों का पालन किस तरह से हो रहा है, इसे सड़क पर दौड़ रहे ऑटो रिक्शा, टैक्सी, बसों, बाजारों में देखा समझा जा सकता है. कई बार तो लगता है कि हमारी लापरवाहियां हमें एक बड़ी त्रासदी की ओर ले जा सकती हैं. 'अन लॉक' भारत में कोरोना का कहर बढ़ते ही जाने के मद्देनजर इस तरह की अटकलें भी लगनी शुरू हो गई हैं कि हालत नहीं सुधरी तो देश को एक बार फिर से 'लॉकडाउन' के हवाले किया जा सकता है! वैसे, 'कोरोना को हराना है' का 'मंत्र वाक्य' देनेवाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अब कहने लगे हैं कि 'अब हमें कोरोना के साथ ही जीना सीखना है!'
 

कोरोना पर शुरुआती गंभीरता नहीं  


अगर हम इस देश में कोरोना के प्रवेश, प्रसार और इसके रौद्र रूप धारण कर देशवासियों की अकाल मौत का सबब बनने के कारणों पर गंभीरता से विवेचन करें तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस मामले में क्या हम अपने हुक्मरानों की 'नासमझी' अथवा उनके 'तुगलकी फैसलों' की कीमत तो नहीं चुका रहे! 30 जनवरी को जब देश में पहला कोरोना मरीज केरल में मिला था, हमें अंतरराष्ट्रीय उड़ानों, खासतौर से कोरोना के उद्गम देश, चीन से आनेवाली उड़ानों को बंद अथवा नियंत्रित करना शुरू कर देना चाहिए था. ऐसा करके चीन के पड़ोसी देश ताईवान ने खुद को करोना के कहर से बचा सा लिया था. लेकिन हमारे हुक्मरानों ने तब इसे गंभीरता से नहीं लिया. फरवरी 2020 के पहले सप्ताह में कांग्रेस के नेता, सांसद राहुल गांधी ने इस महामारी के वैश्विक रूप धारण करने और भारत में भी इसके विस्तार की आशंका व्यक्त करते हुए सरकार से एहतियाती सतर्कता बरतने का आग्रह किया था लेकिन तब भी इसे गंभीरता से नहीं लेकर उनका मजाक बनाया गया. कारण शायद कोरोना से प्रभावित अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अगवानी का था. जिस समय ट्रंप अपने लाव-लश्कर के साथ भारत आए, अमेरिका के बड़े हिस्से और आबादी को कोरोना अपनी जद में ले चुका था. लेकिन 24 फरवरी को ट्रंप के साथ या उनके आगे-पीछे कितने अमेरिकी यहां आए, उनमें से कितनों की कोरोना जांच हुई! किसी को पता नहीं! 'नमस्ते ट्रंप' के नाम पर एक लाख से अधिक लोगों की भीड़ जुटाकर अहमदाबाद के मोटेरा क्रिकेट स्टेडियम में उनका सम्मान किया गया!.
12 मार्च 2020 को कर्नाटक के कलबुर्गी में पहले कोरोना संक्रमित की मौत के साथ जब भारत में भी केसेज बढ़ने लगे और फीजिकल डिस्टैंसिंग जरूरी हुआ तो हमारे शासकों ने आपदा को राजनीतिक अवसर के रूप में भुनाने की रणनीति के तहत मध्य प्रदेश में कांग्रेस के विधायकों की 'खरीद-फरोख्त' से 'तख्ता पलट' का इंतजार किया. 12 मार्च को दुनिया भर में कोरोना संक्रमण के विस्तार और तकरीबन पांच हजार मौतों के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे  महामारी घोषित करते हुए किसी भी देश के इसकी जद से बाहर नहीं रह पाने की आशंका जताई थी. लेकिन तब भी हमारे शासक इसे गंभीरता से लेने के बजाए, हंसी में टालते रहे.

आपदा को अवसर (राजनीतिक) में बदलने की कवायद

22 मार्च को जब दुनिया भर में कोरोना से मरनेवालों का आंकड़ा 14647 पहुंच गया, हमारे यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पहली बार एक दिन का 'जनता कर्फ्यू' और दो दिन बाद 'लॉकडाउन' घोषित किया. इसके लिए भी 23 मार्च को मध्यप्रदेश में तख्तापलट का इंतजार किया गया. कायदे से 22 मार्च को जनता कर्फ्यू घोषित करने के साथ ही देशवासियों को एहतियाती इंतजाम करने के लिए सचेत कर बताया जाना चाहिए था कि दो-तीन दिन बाद पूरे देश में लॉकडाउन किया जानेवाला है. इससे अफरातफरी के माहौल से बचा जा सकता था. लोग खाने-पीने और जीने के एहतियाती इंतजाम कर सकते थे. उन दो-तीन दिनों में यत्र-तत्र फंसे लोग अपने गंतव्य को पहुंच जाते क्योंकि उस समय आज के मुकाबले कोरोना का कहर भी अपेक्षाकृत बहुत कम था. लेकिन 24 मार्च की शाम आठ बजे प्रधानमंत्री ने 'आकाशवाणी' कर चार घंटे बाद यानी रात के 12 बजे से देशवासियों को एक झटके में लॉकडाउन और 'सोशल डिस्टैंसिंग' (हालांकि यह गलत शब्द है, सही शब्द है फीजिकल डिस्टैंसिंग) के हवाले कर दिया.

लॉकडाउन घोषित करने से पहले उन्होंने विपक्षी दलों के नेताओं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों तथा प्रशासकीय प्रमुखों (मुख्य सचिवों एवं पुलिस महानिदेशकों) से सलाह-मशविरा की जरूरत नहीं समझी. यह भी नहीं सोचा कि इस 135-40 करोड़ की आबादी वाले विशाल देश में, जहां 15-20 करोड़ सिर्फ प्रवासी-दिहाड़ी मजदूर, रोज कमाने-खानेवाले लोग हैं, उनका क्या होगा! बिना कोई ठोस योजना बनाये, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया. सभी कल-कारखानों में उत्पादन एवं निर्माण और व्यापार-व्यवसाय ठप हो गया. करोड़ों प्रवासी मजदूर बेरोजगार-बेघरबार हो गए. उनके और वे उनके परिवार के लोगों के सामने दो जून की रोटी के भी लाले पड़ने लगे. नहीं सोचा गया कि रोजी-रोटी का धंधा चौपट या बंद हो जाने के बाद गरीब कर्मचारी, दिहाड़ी मजदूर जीवन यापन कैसे करेंगे. उनके मकान का किराया कैसे अदा होगा. उनके बच्चों के लिए दवा-दूध का इंतजाम कैसे होगा.

लेकिन तब प्रधानमंत्री के लॉकडाउन पर अमल से 21 दिनों के भीतर कोरोना पर विजय हासिल कर लेने के दावे पर लोगों ने तकलीफ बरदाश्त करके भी भरोसा किया.प्रधानमंत्री ने साफ कहा था कि महाभारत का युद्ध 18 दिन में जीता गया था. कोरोना के खिलाफ जंग हम 21 दिनों में जीत लेंगे. आज महीनों बीत गये कोरोना से जगं जीतना तो दूर की बात, अभी भी साफ पता नहीं चल पा रहा है के इस वैश्विक महामारी से मुक्ति कब मिल गाएगी. शुरुआत में सरकारी एजेंसियों और उससे अधिक हमारी मीडिया के एक बड़े वर्ग के सहयोग से भी दिल्ली और देश के कुछ अन्य हिस्सों में भी कोरोना का संक्रमण फैलने के लिए मुसलमानों की धार्मिक संस्था 'तबलीगी जमात' को खलनायक के रूप में पेश कर इस मामले को भी समाज को धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर बांटने और इसका राजनीतिक लाभ लेने के प्रयास हुए. तबलीग के लोगों और इसके प्रमुख मौलाना साद को लेकर तमाम तरह की अफवाहनुमा सूचनाएं-खबरें फैलाई गईं. उनके विरुद्ध नफरत का माहौल बनाया गया. लेकिन आगे चलकर तबलीग का मामला भी ठंडा पड़ते गया (किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई. मौलाना साद को अभी तक गिरफ्तार करने की बात तो दूर उनसे किसी तरह की पूछताछ तक नहीं हुई). बाद में अदालती फैसले में कहा गया कि इस मामले में तबलीगी जमात के लोगों को 'बलि का बकरा' बनाया गया.

दूसरी तरफ, हालत बद से बदतर होती गयी. कोरोना के विषाणु घातक बनकर पहले से भी ज्यादा पांव पसारने लगे. लोगों के सामने खाने-पीने के लाले पड़ने लगे. एक मोटे अनुमान के अनुसार लॉकडाउन के दौरान कम से कम एक करोड़ दिहाड़ी मजदूरों के पेट पर सीधी चोट लगी. हालांकि केंद्र सरकार ने ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ के तहत कोरोना संकट के शुरुआती तीन महीनों तक '80 करोड़' गरीबों के लिए प्रति व्यक्ति पांच किलो गेहूं या चावल और एक किलो दाल प्रति माह दिए जाने की घोषणा की थी. इस योजना का लाभ किन्हें मिला, यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन इससे प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर अपने राज्य, गांव और घर लौटने पर रोका नहीं जा सका.

जांच-इलाज और अस्पतालों की दुर्दशा से हालात बदतर 

दरअसल, मीडिया के सहारे मानसिक तौर पर कोरोना का खौफ इस कदर पैदा कर दिया गया कि छोटे और किराए के कमरों में रह रहे प्रवासी मजदूर डर से गये. एक तो उनके पास कोई काम नहीं था, मकान मालिकों का किराए के बकाए के भुगतान का दबाव अलग से बढ़ रहा था. लेकिन सबसे बड़ी बात यह हुई कि उनके बीच खौफ तारी होने लगा कि अगर वे कोरोना से संक्रमित अथवा किसी और बीमारी से भी पीड़ित हो गये तो इस संवेदनहीन समाज में उनकी देखभाल, तीमारदारी कौन करेगा. उन्हें सामाजिक तौर पर बहिष्कृत होना पड़ेगा और उनके साथ अगर कुछ गलत हो गया, किसी की मौत हो गई तो अपनों के बीच उनकी अंतिम क्रिया भी कैसे संभव हो सकेगी.
  
 सरकारी और निजी अस्पतालों का हाल बुरा था. निजी और बड़े, पांच सितारा अस्पतालों में जहां यकीनन अपेक्षाकृत इलाज और देख रेख की व्यवस्था बेहतर थी, कोरोना के इलाज का 10-15 लाख का पैकेज घोषित था जो गरीब क्या मध्यम वर्ग के लोगों की पहुंच से भी बाहर था. और सरकारी अस्पतालों में उनके लिए टाल मटोल और 'बेड खाली नहीं है' का टका सा जवाब था. उत्तर पूर्वी दिल्ली के मौजपुर में रहनेवाले हमारे रिश्तेदार हरिनारायण राम बरनवाल जून के पहले सप्ताह में कोरोना पाजिटिव होने और हल्के बुखार, खांसी और सांस लेने में दिक्कत बढ़ जाने के बावजूद इलाज के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटकते रहे. आधा दर्जन अस्पतालों में उन्हें बिना किसी तरह की जांच किए 'कोरोना नहीं है' का टका सा जवाब देकर  इस अस्पताल से उस अस्पताल भेजा जाता रहा. उनका दूसरा जवाब होता कि अस्पताल में वेंटिलेटर की सुविधायुक्त बेड खाली नहीं हैं. अंततः किसी तरह की पैरवी सिफारिश से उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती कर लिया गया. अगले ही दिन जांच में वह कोरोना पॉजिटिव निकले. इलाज शुरू हुआ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी. और 16 जून को उनके निधन की सूचना मिली. इस बीच उनके परिवार के शेष आठ सदस्यों की सुध किसी ने भी नहीं ली. उनके घर सभी के मोबाइल फोन में 'आरोग्य सेतु' नाम का एप  डाउनलोडेड होने के बावजूद कहीं से कोई पता-जांच करने नहीं आया और न ही उनके घर, गली को सैनिटाइज अथवा सील करने की आवश्यकता समझी गई. परिवार के सदस्यों ने खुद ही जाकर पास के किसी सरकारी अस्पताल में जांच करवाई तो पता चला कि आठ में से सात सदस्य पॉजिटिव हैं. हमने 16 जून को उनके बारे में भी ट्वीट किया. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से भी परिवार की मदद की गुहार लगाई. लेकिन केंद्र सरकार के मंत्री, राज्य के मुख्यमंत्री, कहीं से कोई सहायता-प्रतिक्रिया नहीं मिली. इधर घर में उनकी बहू, हमारी भतीजी (साले की पुत्री) ललिता को भी खांसी और सांस लेने में तकलीफ होने लगी. 17 जून को उनके दोनों बच्चों-श्रवण और संतोष बरनवाल के अपने पिता की अंत्येष्टि कर लौटे थे. ललिता की तकलीफ बढ़ने पर उसे आम आदमी पार्टी के विधायक सोमनाथ भारती के सहयोग से दिलशाद गार्डेन में स्थित राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में ले जाया गया. हालांकि वह डरी हुई थी और रो रोकर अस्पताल जाने से मना कर रही थी लेकिन परिवार और हमारे दबाव पर वह वहां भर्ती हो गई. अगले दिन, 18 जून को अस्पताल से उसके भी निधन की सूचना मिली. अस्पतालों में कोरोना से संक्रमित रोगियों का क्या और किस तरह का इलाज हो रहा है, यह अभी भी अधिकतर मामलों में रहस्य ही बना हुआ है. यहां तक कि एम्स (अखिल भारतीय आयुर्वज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में एक पत्रकार तरुण सिसोदिया ने पांचवीं मंजिल से नीचे छलांग लगा कर आत्महत्या कर ली. सरकार में बैठे तमाम बड़े लोगों, केंद्रीय और राज्य सरकारों के मंत्रियों ने सरकारी अस्पतालों के बजाय निजी क्षेत्र के पांच सितारा होनलों में भर्ती होकर इलाज करवाने की एक नई परिपाटी शुरू की जिससे आम लोगों के बीच अपने इलाज को लेकर चिंता और परेशानी औ भी बढ़ी. 

प्रवासियों की घर वापसी, अब शहर वापसी


बहरहाल, बेरोजगारी, भोजन-पानी और सिर ढकने के लिए छत के अभाव के साथ अस्पतालों की दुर्दशा और आम आदमी के इलाज की दुरुहता आदि कारण एक साथ जुटते गये और प्रवासी मजदूरों को किसी भी कीमत पर बेगाना साबित हो रहे शहर-महानगर छोड़कर अपने गांव घर लौटना ही श्रेयस्कर लगा. वे लोग भूखे-प्यासे पैदल या जो भी साधन मिले उससे अपने गांव घर की ओर चल पड़े. जब ढील दिए जाने की जरूरत थी तब सख्ती बरती गई. मार्च-अप्रैल महीने तक कोरोना का कहर और प्रसार इस देश में उतना व्यापक और भयावह नहीं था जितना मई महीने के बाद से बढ़ गया है, लेकिन तब प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए एक तरफ तो रेल-बसें चलाने के बजाय उन्हें गांव-घर लौटने के लिए हतोत्साहित किया गया, दूसरी तरफ दिल्ली जैसे शहरों में सीमा पर प्रवासी मजदूरों को उनके गांव पहुंचाने के लिए बसों का इंतजाम करने से संबंधित उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के ट्वीट के बाद प्रवासी मजदूर लॉकडाउन और फीजिकल डिस्टैंसिंग को धता बताकर हजारों की संख्या में आनंद विहार रेलवे-बस स्टेशन के पास जमा हो गये, बिना विचारे कि उनकी भीड़ कोरोना के संक्रमण और प्रसार में सहायक सिद्ध हो सकती है. बाद में उन्हें बसों से दिल्ली के बाहर ले जाया गया. इसके साथ ही पैदल यात्रियों को रास्ते में मारा-पीटा, अपमानित भी किया गया. रास्ते में स्थानीय लोगों और कहीं कहीं पुलिस-प्रशासन की मानवीयता के लाभ भी उन्हें हुए. लोगों ने खाने-पीने की सामग्री से लेकर जगह-जगह उन्हें कुछ पैसे भी दिए.
कितने तरह के कष्ट झेलते हुए वे मजदूर और उनके परिवार सैकड़ों (कुछ मामलों में तो हजार से भी ज्यादा) किमी पैदल चलकर, सायकिल, ठेले, ट्रक, यहां तक कि मिक्सर गाड़ियों में छिपकर भी अपने गांव घरों को गये! उनमें से सौ से अधिक लोगों ने रास्ते में सड़कों पर कुचलकर, रेल पटरी पर मालगाड़ी से कटकर या फिर भूख-प्यास और बीमारी से दम तोड़ कर जान गंवा दी. भोजन के अधिकार के लिए काम करनेवाले संगठन 'राइट टू फूड' के अनुसार 22 मई तक देश में भूख प्यास, दुर्घटना और इस तरह के अन्य कारणों से 667 लोग काल के मुंह में समा चुके थे. बाद के दिनों में इसमें और इजाफा ही हुआ है.

लेकिन जब देश और प्रदेशों की अर्थव्यवस्था भी दम तोड़ने और खस्ताहाल होने लगी, सरकारी खजाना खाली होने लगा, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कहने पर देशवासियों ने ताली-थाली बजा ली, एक घंटे घरों में अंधकार किया, मोम बत्ती और दिए भी जला लिए, देश के बड़े हिस्से में कोरोना का कहर भी रौद्र रूप धारण कर चुका है, हमारे हुक्मरान लॉकडाउन में ढील पर ढील दिए जा रहे हैं. शुरुआत शराब की दुकानें खोलने के साथ हुई. प्रदेशों की सीमाएं खोल दी गईं. रेल, बस, टैक्सी और विमानसेवाएं भी शुरू की जा रही हैं. हालांकि श्रमिक स्पेशल रेल गाड़ियों के कुप्रबंध के कारण इन रेल गाड़ियों के विलंबित गति से नियत स्टेशन के बजाय कहीं और पहुंचने की शिकायतें भी मिलीं. मुंबई से गोरखपुर के लिए निर्धारित स्पेशल ट्रेन ओडिशा के राउरकेला पहुंचा दी गई. इसमें लंबा समय लगा लेकिन रेलवे ने कहा कि ऐसा रूट कंजेशन को देखते हुए जानबूझकर मार्ग बदले जाने के कारण हुआ. लेकिन न तो इसकी पूर्व सूचना यात्रियों को दी गई और ना ही उनके लिए रास्ते में खाने-पीने के उचित प्रबंध ही किए गये. नतीजतन रेल सुरक्षा बल (आरपीएफ) के आंकड़ों के अनुसार ही अस्सी से अधिक लोग रेल गाड़ियों में ही मर गये.

 प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों के साथ कोरोना अब देश के अन्य सुदूरवर्ती और ग्रामीण इलाकों में भी फैलने लगा है.वहां कोरोना की जांच, चिकित्सा और उन्हें क्वैरेंटाइन करने के पर्याप्त संसाधन और केंद्र भी नहीं हैं. फसलों की कटाई समाप्त हो जाने के कारण अब उनके लिए, गांव-घर के पास, जिले अथवा प्रदेशों में भी रोजी-रोटी के पर्याप्त साधन नहीं रह गये हैं. कहीं कहीं धान की रोपनी (बुआई) के काम हैं तो कहीं मनरेगा भी लेकिन यह सब प्रवासी मजदूरों को गांव घर में रोके रखने के लिए नाकाफी साबित हो रहे हैं. अगर रोजगार के उचित और पर्सायाप्त साधन होते ही तो इन्हें गांव-घर छोड़कर दूसरे राज्यों में क्यों जाना पड़ता! इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने दावा किया है कि राज्य में एक करोड़ लोगों के लिए रोजगार की व्यवस्था की जा रही है. 70-80 लाख लोगों को रोजगार दिए भी जा चुके हैं. दरअसल, मनरेगा में पहले से ही लगे मजदूरों को उन्होंने नवश्रृजित रोजगार बताकर वाह वाही लूटने की कोशिश की. सच तो यह है कि अगर अपने ही राज्य में कायदे के रोजगार उपलब्ध हैं तो लोग दूसरे राज्यों के शहरों और महानगरों की ओर क्यों लौट रहे हैं. दावे चाहे कैसे भी किए जा रहे हों, लोगों के पास स्थानीय स्तर पर रोजगार नहीं मिल रहे हैं और लोग महानगरों की ओर लौट रहे हैं. 

   लॉकडाउन से ढील बढ़ने, अधिकतर राज्यों-इलाकों में अनलॉक होते जाने, कल-कारखाने, दुकानें खुलने, टैक्सी, ऑटो रिक्शा, ई-रिक्शा और रिक्शा चलने लगने और निर्माण कार्य शुरू होने के कारण शहरों-महानगरों में श्रमिक-मजदूरों की किल्लत शुरू होने लगी है. पहले से भी ज्यादा मजदूरी देने के वादे किए जाने लगे हैं. जाहिर सी बात है कि बेहतर मजदूरी के साथ रोजगार के अवसर बढ़ने के कारण प्रवासी मजदूरों का बड़ा तबका शहरों-महानगरों की ओर वापसी कर रहा है. आंकड़े बता रहे हैं कि रोजाना शहरों-महानगरों में प्रवासी मजदूरों की आमद हजारों के हिसाब से बढ़ रही है. लेकिन आते समय वह अपने साथ कोरोना के वायरस नहीं लाएंगे, इसकी गारंटी कोई दे सकता है! साफ है कि हमारे शासकों-प्रशासकों में दूर दृष्टि के अभाव और उनके तुगलकी फैसलों के कारण पहले कोरोना का अदृश्य वायरस शहरों से गांवों में गया और अब वह ग्रामीण इलाकों से शहरों में लौट रहा है! शहरों में नए सिरे से कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ने लगी है.