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Monday, 13 September 2021

Hal Filhal: Farmer's Protest becoming Mass Movement

जनांदोलन बनता किसान आंदोलन !


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/nETSJwcB76k    


    भारत सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में पिछले 9-10 महीनों से दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का आंदोलन अब एक जनांदोलन का रूप लेते जा रहा है. अब इसके साथ बेरोजगार युवा और मजदूर भी जुड़ने लगे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के 27 सितंबर को भारत बंद के अह्वान को कई प्रमुख मजदूर संगठनों का समर्थन मिलने की सूचनाएं भी मिल रही हैं.संवेदनहीन मोदी सरकार के पुलिसिया दमन, सत्तामुखी मुख्यधारा की मीडिया की बेरुखी और बेरहम मौसम की मार को झेलते हुए भी ये किसान दिल्ली से लगने वाली उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं पर लंबे समय से डेरा डाले हैं. कड़ी धूप, कड़कड़ाती ठंड और मूसलाधार बारिश भी इन किसानों का मनोबल तोड़ पाने में विफल रही है. तकरीबन छह सौ किसान इस किसान आंदोलन के क्रम में जान गंवा चुके हैं.

    
कृषि कानूनों के वापस होने तक घर वापसी नहीं !
    सरकार के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने, यहां तक कि उसमें किसान नेताओं के मनमुआफिक किसी तरह का फेरबदल करने पर भी राजी नहीं होनेवाली सरकार की जिद के कारण बेनतीजा ही रही है. किसान आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें, मीडिया के जरिए किसान आंदोलन को बदनाम करने, उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग से जुड़े होने के आरोपों से लेकर आंदोलन के केवल धनाढ्य किसानों और बिचौलियों का पक्षधर बताने के कुप्रचार भी किसानों के जज्बे और हौसले को डिगा नहीं सके हैं. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से घोषित किया है कि किसान अपनी मांगें पूरी होने यानी कृषि कानूनों की वापसी होने तक घर लौटनेवाले नहीं हैं. चाहे इसके लिए उन्हें 2024 तक या उससे आगे भी इस संघर्ष को क्यों न खींचना पड़े. 

    करनाल में झुकी हरियाणा सरकार

    
    
करनाल में पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज
हरियाणा
के करनाल में आंदोलनकारी किसानों के दबाव में राज्य सरकार के झुकने और उनकी अधिकतर मांगें मान लेने के बाद किसान नेताओं को मनोबल और बढ़ा है. गौरतलब है कि 28 अगस्त को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के करनाल आगमन का विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद किसानों ने अपनी मांगें पूरी होने तक करनाल में मिनी सचिवालय के सामने डेरा डाल दिया था. करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के प्रदर्शनकारी किसानों के सिर फोड़ देने के स्पष्ट निर्देश का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने और उस निर्देश पर अमल करते हुए पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद खट्टर सरकार के खिलाफ पहले से ही नाराज चल रहे किसानों का आक्रोश और बढ़ गया था. किसानों के दबाव में आई सरकार किसान नेताओं के बीच हुई बातचीत में बनी सहमति के बाद किसानों ने मिनी सचिवालय से अपना धरना हटा लिया है. सरकार ने 28 अगस्त के पुलिस लाठी चार्ज की न्यायिक जांच हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश से करवाने, एक महीने के भीतर जांच रिपोर्ट पेश करने, लोकतंत्र में भी जलियांवालाबाग हत्याकांड के गुनहगार माइकल ओ डायर की भाषा बोलनेवाले करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हां को एक महीने के लिए छुट्टी पर भेजने के साथ ही पुलिस लाठीचार्ज में घायल किसान, जिनकी अगले दिन मृत्यु हो गई थी, के परिवार के दो लोगों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है.
आयुष सिन्हाः लोकतंत्र में माइकेल ओ डायर की भाषा !

     इधर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसानों की महापंचायत ने इस आंदोलन की दिशा बदलनी शुरू कर दी है. तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ शुरू हुआ किसान आंदोलन एक नये तरह के जनांदोलन का रूप लेने लगा है. अब किसान नेता कृषि कानूनों के विरोध के साथ ही मोदी सरकार पर देश के सरकारी संसाधनों, सार्वजनिक उपक्रमों को अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचने का आरोप भी लगाने लगे हैं. इसके साथ ही महंगाई, बेरोजगारी के सवाल भी उठाते हुए किसान नेता वोट की चोट से सत्ता परिवर्तन की बात भी करने लगे हैं. यह भी एक कारण है कि अब किसान आंदोलन के साथ मजदूर और बेरोजगार युवा भी जुड़ते जा रहे हैं. तमाम विरोधी दलों का खुला समर्थन इस आंदोलन के पक्ष में दिखने लगा है. और अब तो सत्तारूढ़ दल भाजपा, इसके सहयोगी और इसे संचालित करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के लोग भी कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलित किसानों के पक्ष में बोलने लगे हैं.

    किसान महापंचायत ने भाजपा की नींद उड़ाई  


    
 किसान महापंचायत में राकेश टिकैतः सरकार नहीं मानी तो वोट की चोट
लेकिन मोदी सरकार न जाने किन कारणों से इन सब बातों को अभी भी अनसुना कर रही है. हालांकि पिछले 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत और उसमें सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने के इरादे से दिए गए अल्लाहु अकबर, हर हर महादेव और जो बोले सो निहाल का नारा लगाकर किसान नेताओं ने भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है. उन्हें लगता है कि इस तरह के नारों के साथ किसान नेताओं और खासतौर से राकेश टिकैत के गूंगी बहरी और संवेदनहीन सरकार को वोट की चोट देने के आह्वान का न सिर्फ उत्तर प्रदेश और पंजाब बल्कि उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भाजपा की राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है. इस तरह के नारों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उनके प्रयासों में पलीता लगते दिख रहा है. महा पंचायत में किसान नेताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि 2013-14 में वे लोग भाजपा और आरएसएस के द्वारा फैलाए गए भ्रमजाल के शिकार हो गए थे. 
    
    गौरतलब है कि 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी भाजपा के पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर आधारित चुनावी माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. भाजपा को इसका भरपूर राजनीतिक लाभ न सिर्फ 2014 के संसदीय आम चुनाव में बल्कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला था. इस बार किसान आंदोलन ने न सिर्फ किसानों को बल्कि इन इलाकों में दशकों पुराने सामाजिक सद्भाव और भाई चारे को भी लामबंद किया है. इस महा पंचायत में राकेश टिकैत ने साफ तौर पर भाजपा और आरएसएस के लोगों पर सुनियोजित साजिश के तहत सांप्रदायिक दंगे करवाने के आरोप लगाते हुए कहा कि इस बार भी इन लोगों की साजिश 2022 के चुनाव से पहले किसी बड़े हिंदू नेता की हत्या करवाने की हो सकती है. उन्होंने इसके लिए भाजपा के नेताओं के साथ ही आम जनता को भी आगाह किया.

   कितनी जायज हैं किसानों की आशंकाएं !


    किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने 27 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है. उनके इस आह्वान को तमाम मजदूर संगठनों का समर्थन भी मिल रहा है. किसान नेताओं की बदली रणनीति पर काबू पाने की गरज से मोदी सरकार ने मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत के तीन दिन बाद, 8 सितंबर को रबी फसलों-दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की खरीद के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में लाक्षणिक वृद्धि कर किसानों के सामने राजनीतिक चुग्गा फेंकने की कोशिश की. लेकिन किसान नेता इससे अप्रभावित ही रहे. उनका कहना है कि एमएसपी तो बढ़ती घटती रहती है, उनकी मांग तो कृषि उपज मंडियों की व्यवस्था जारी रखने और एमएसपी पर किसानों की फसल की खरीद की संवैधानिक गारंटी देने की है. 

    इसके साथ ही किसान नेता करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के बर्बर और किसान विरोधी रवैए को सामने रखकर कह रहे हैं कि इससे भी जाहिर होता है कि कृषि कानून किस हद तक किसान हितों के विरुद्ध है. कृषि कानून के तहत किसानों और व्यापारी-पूंजीपतियों के बीच किसी तरह का विवाद होने पर उसका निपटारा किसी अदालत में नहीं बल्कि एसडीएम के दरबार में होगा. आयुष सिन्हां के रवैए से समझा जा सकता है कि किसानों को किस तरह का न्याय मिलेगा. यही नहीं मंडियों के बने रहने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के लिए संवैधानिक गारंटी की मांग कर रहे किसानों का तर्क है कि इस तरह की गारंटी नहीं होने के बाद पूंजीपति वैसा ही करेंगे जैसे हिमाचल प्रदेश में गौतम अडानी की कंपनी ने सेब किसानों के साथ किया है. पहले तो मंडी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए उन लोगों ने दाम बढ़ाकर किसानों से सेब की खरीद की लेकिन इस बार सेब के दामों में गुणवत्ता के हिसाब से औसतन 15-20 रु. प्रति किलो के हिसाब से कमी कर दी है. इसी तरह से उनका कहना है कि कृषि कानूनों के बनने के बाद से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा कई अन्य राज्यों में भी कृषि उत्पादन मंडी समितियों में भारी कमी आई है. 

    सरकारी आंकड़ों में किसानों की बदहाली


    किसान नेताओं का मानना है कि कृषि कानूनों के अमल में आने पर किसानों का उनकी जमीन और उपज पर भी हक नहीं रह जाएगा. कार्पोरेट ताकतों को कृषि पर कब्जा करने का हक मिल जाएगा. इस बीच भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसओ) ने बताया है कि देश में खेती-बाड़ी करने वाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार कर्ज में डूबे प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 74,121 रुपये का कर्ज था. सर्वे में कहा गया है कि उनके कुल बकाया कर्ज में से तकरीबन 70 प्रतिशत बैंकों, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिए गये थे. जबकि 20.5 प्रतिशत कर्ज पेशेवर सूदखोरों से लिए गये. एनएसओ ने जनवरी-दिसंबर 2019 के दौरान देश के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार की भूमि और पशुधन के अलावा कृषि परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन किया. सर्वे के अनुसार कृषि वर्ष 2018-19 (जुलाई-जून) के दौरान प्रत्येक कृषक परिवार की हर महीने औसत आमदनी महज 10,218 रुपये थी. एक परिवार में औसतन चार-या पांच सदस्य होते हैं. इस हिसाब से प्रति किसान यह आमदनी दो से ढाई हजार रुपए प्रति माह ही बैठती है. एनएसओ की यह रिपोर्ट आंखें खोलनेवाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के संसदीय चुनाव से पहले और बाद में भी किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाने, उनकी आमदनी दो गुनी करने की बातें करते रहे हैं. एनएसओ के ये आंकड़े उनके इन वादों को जमीनी सच की कसौटी पर परखने में भी मददगार हो सकते हैं.

मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत में सांप्रदायिक सद्भाव की बातें
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशों का खुलासा !
     कुल मिलाकर देखा जाए तो किसानों का आंदोलन अब केवल तीन कृषि कानूनों को रद्द करने का आंदोलन मात्र नहीं रह गया है. अब इसने एक वृहत्तर जनांदोलन की शक्ल लेनी शुरू कर दी है. मोदी जी और उनकी सरकार में शामिल लोगों को पता होगा कि 1973-74 का गुजरात आंदोलन कुछ कालेजों में होस्टेल की फीस बढने और भोजन की खराब गुणवत्ता के लेकर शुरू हुआ था. उसकी ही तर्ज पर बिहार आंदोलन शुरू हुआ. आगे चलकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी उस आंदोलन में शामिल होने के बाद उसे जेपी आंदोलन या कहें संपूर्ण क्रांति आंदोलन भी कहा जाने लगा. आगे चलकर इसमें कुछ और राजनीतिक घटनाक्रम भी जुड़े जिनके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया था. लेकिन 1977 में हुए संसदीय आम चुनाव में उन्हें और उनकी कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा था. पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी. कहने का मतलब सिर्फ यही है कि समय रहते अगर मोदी सरकार ने अतीत से सबके लेकर कृषि कानूनों पर अपनी जिद छोड़कर कृषि और किसानों के हित में कोई ठोस फैसला नहीं किया तो उसे भी आगे चलकर इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसकी बानगी उन्हें अगले साल फरवरी-मार्च महीने में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब सहित पांच राज्य विधानसभाओं और फिर उसी साल, 2022  के अंत में होनेवाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकती है.

नोट ः तस्वीरें इंटरनेट से ली गई हैं