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Tuesday, 21 September 2021

Hal Filhal : Congress Master Stroke In Punjab !


पंजाब में कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक !


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/2DV4tvcoloo

   
     
इस समय राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन का दौर सा चल रहा है. एक सप्ताह पहले ‘पूरे घर के बदल डालूंगा’ वाली राजनीतिक शैली में भाजपा के आलाकमान ने गुजरात में मुख्यमंत्री विजय रूपाणी समेत उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को बर्खास्त कर पहली बार विधायक बने भूपेंद्र पटेल के नेतृत्व में 24 सदस्यों की नई मंत्रि परिषद बनवा दी. उसके सप्ताह भर बाद ही विधायकों के भारी विरोध के मद्देनजर कांग्रेस के आलाकमान ने भी मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह अपेक्षाकृत युवा, दलित सिख नेता चरणजीत सिंह चन्नी के हाथों में पंजाब की कमान देकर ‘राजनीतिक खेला’ कर दिया है.
    
चरणजीत सिंह चन्नी के साथ राहुल गांधी : पंजाब में पहले
 दलित मुख्यमंत्री का 'मास्टर स्ट्रोक'
    पहली बार किसी दलित को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाए जाने को कांग्रेस या कहें राहुल गांधी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ कहा जा रहा है. तीन बार विधायक, एक बार नेता विरोधी दल और हाल तक अमरिंदर सिंह की सरकार में मंत्री रहे चन्नी के नाम और चेहरे को न सिर्फ पंजाब के 32 फीसदी अनुसूचित जाति के मतदाताओं के बीच बल्कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भी भुनाया जा सकता है. उनके साथ जाट सिख नेता सुखजिंदर सिंह उर्फ सुक्खी रंधावा और हिंदू नेता ओमप्रकाश सोनी को उपमुख्यमंत्री का भी शपथ ग्रहण करवा कर पंजाब में सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन बिठाने की कोशिश भी की गई है. एक और जाट सिख नवजोत सिंह सिद्धू को पहले ही पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाया जा चुका है. अब पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के लिए भी एक दलित सिख समुदाय से आने वाले मुख्यमंत्री का विरोध मुश्किल होगा. चन्नी को कांग्रेस आलाकमान का वरदहस्त भी प्राप्त है. उनके शपथग्रहण कार्यक्रम में राहुल गांधी खुद भी शामिल हुए.

   चुनावों के मद्देनजर नेतृत्व परिवर्तन !

    
    
भूपेंद्र पटेल के साथ नरेंद्र मोदी : नए मुख्यमंत्री के साथ नई मंत्रिपरिषद
पंजाब 
के साथ ही उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और गोवा में भी चार-पांच महीने बाद ही विधानसभा के चुनाव होनेवाले हैं. गुजरात के साथ हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा के चुनाव अगले साल ही नवंबर-दिसंबर में कराए जाएंगे. इन नेतृत्व परिवर्तनों को आगामी विधानसभा चुनावों के साथ जोड़कर भी देखा जा रहा है. 2022 के विधानसभा चुनाव ज्यों-ज्यों करीब आ रहे हैं, राजनीतिक दल चुनावी जीत सुनिश्चित करने की गरज से अपने संगठन और सरकार को चुस्त-दुरुस्त करने और आवश्यक होने पर नेतृत्व में फेरबदल की कवायद में भी जुट गए हैं. भाजपा के आलाकमान ने इन चुनावों के मद्देनजर ही पहले उत्तराखंड में दो-दो मुख्यमंत्री बदल दिए. और अभी एक सप्ताह पहले गुजरात में न सिर्फ अपने मुख्यमंत्री विजय रूपाणी बल्कि उनकी पूरी मंत्रिपरिषद को ही नाकारा और नाकाबिल मान कर उनकी जगह भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया. यहीं नहीं उनके लिए 24 सदस्यों की नई मंत्रिपरिषद भी बनवा दी गई जिसमें रूपाणी मंत्रिपरिषद के एक भी सदस्य को शामिल नहीं किया गया. हालांकि इस नेतृत्व परिवर्तन के समय किसी का जाहिरा विरोध सामने नहीं आया था, मीडिया से बातें करते समय रूपाणी सरकार में उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार रहे पाटीदार समाज के कद्दावर नेता नितिन पटेल की आंखों में आंसू छलक आए थे. पार्टी में अंदरूनी विरोध को लेकर ही मंत्रिपरिषद की घोषणा और मंत्रियों के शपथ ग्रहण समारोह को एक दिन के लिए टालना पड़ गया था.
आहत मन नितिन पटेल: इस बार भी सिली मायूशी

    उत्तराखंड, असम और कर्नाटक में नेतृत्व परिवर्तन के बाद भाजपा आलाकमान की इच्छा तो उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन की थी लेकिन मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आलाकमान के सामने झुकने के बजाय तनकर खड़े हो जाने के कारण यह संभव नहीं हो सका. यहां तक कि आलाकमान की इच्छानुसार वह अपनी मंत्रिपरिषद में फेरबदल को भी राजी नहीं हुए. विवश होकर भाजपा आलाकमान को कहना पड़ा कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा का चुनाव योगी जी के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा. भाजपा में अभी हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, त्रिपुरा, मध्य प्रदेश आदि राज्यों में भी नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें लगाई जा रही हैं. देर-सबेर उत्तर प्रदेश में भी नेतृत्व परिवर्तन के अनुमान भी लगाए जा रहे हैं. इसका कारण चाहे चुनावों से पहले पार्टी और सरकार में ‘ओवरहालिंग’ रहा हो या फिर पश्चिम बंगाल में चुनावी हार और वहां लगातार हो रही दुर्गति के कारण प्रधानमंत्री मोदी की चुनाव जितानेवाली साख में आ रही कमी, भाजपा आलाकमान राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन के जरिए संगठन और सरकार पर भी उनकी मजबूत पकड़ के संकेत देना चाहता है. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि पार्टी और संघ परिवार में भी गाहे-बगाहे हिंदुत्व के एक अन्य ‘पोस्टर ब्वॉय’ के रूप में उभर रहे या उभारे जा रहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से भविष्य में उन्हें राजनीतिक चुनौती मिलने के कयास भी लगते रहते हैं. हालांकि केंद्र से लेकर राज्यों में भी सत्तारूढ़, भाजपा के आलाकमान और संघ के नेतृत्व की मजबूती और अंदरूनी अनुशासन के चलते भी भाजपा शासित राज्यों में नेतृत्व परिवर्तन बहुत खामोशी और सुगमता के साथ संपन्न हो गया लेकिन कांग्रेस के साथ ऐसा नहीं हो सका.

कांग्रेस को करनी पड़ी मशक्कत     


    
नवजोत सिंह सिद्धू के साथ चरणजीत सिंह चन्नी:आगे क्या !
    गुजरात में भाजपा का नेतृत्व परिवर्तन जितनी सहजता से संपन्न हो गया, कांग्रेस को पंजाब में इसके लिए भारी मशक्कत करनी पड़ी. पद से हटने या हटाए जाने के बाद से ही खुद को अपमानित महसूस करते हुए कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बागी तेवर अपना लिया. वह सोमवार को चरणजीत सिंह चन्नी, रंधावा और उनके करीबी कहे जानेवाले सोनी के शपथग्रण समारोह में भी नहीं आए. अपने उसी फार्म हाउस में बैठे रहे, जहां से उन पर हाल तक अपनी सरकार चलाते रहने के आरोप लगते रहे. उनके त्यागपत्र के बाद पहले तो उनकी सरकार में असंतुष्ट मंत्री रहे सुखजिंदर सिंह रंधावा को कांग्रेस विधायक दल का नेता चुने जाने और उनके साथ दलित महिला अरुणा चौधरी और हिंदू समाज से भारत भूषण ‘आशु’ को उपमुख्यमंत्री बनाए जाने की बात सामने आई लेकिन रंधावा ने जिस प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के साथ मिलकर कैप्टन अमरिंदर सिंह के खिलाफ खुली बगावत की, आखिरी समय में उन्हीं के विरोध की वजह से वह मुख्यमंत्री नहीं बन सके. उनका नाम सामने आने पर सिद्धू ने मुंह फुला लिया था. सिद्धू खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे लेकिन प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष रहते आलाकमान उन्हें मुख्यमंत्री बनाने को राजी नहीं था और फिर उनके नाम पर अमरिंदर सिंह ने वीटो भी लगा दिया था. सिद्धू को अभी मुख्यमंत्री नहीं बनाया जा सकता, यह स्पष्ट होने के बाद उन्होंने किसी और जाट सिख नेता के बजाय किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाने की बात चलाई जिस पर कांग्रेस आलाकमान भी राजी हो गया. और इस तरह से कांग्रेस विधायक दल में चरणजीत सिंह चन्नी के नाम पर सहमति बनाई गई. इसके साथ ही सुखजिंदर सिंह रंधावा और अमृतसर से लगातार पांचवीं बार विधायक ओमप्रकाश सोनी को उप मुख्यमंत्री बनाए जाने की बात तय हुई.

सुखजिंदर सिंह रंधावा: मुख्यमंत्री बनते-बनते
बन गए उप मुख्यमंत्री
    राजस्थान और छत्तीसगढ़ की तरह ही कांग्रेस आलाकमान पर एक अरसे से पंजाब में भी नेतृत्व परिवर्तन के लिए अंदरूनी दबाव बना हुआ था. राजस्थान और छत्तीसगढ़ में तो कांग्रेस का आलाकमान अभी तक कोई निर्णय नहीं कर सका है लेकिन पंजाब आसन्न विधानसभा के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान को फैसला करना ही पड़ा. 80 सदस्यों के कांग्रेस विधायक दल में 50-60 विधायकों के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के विरोध में लामबंद हो जाने और 17 सितंबर को नेतृत्व परिवर्तन के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखने के बाद आलाकमान को भी लगने लगा कि विधायकों का विश्वास खोते जा रहे अमरिंदर सिंह की कप्तानी में कांग्रेस की चुनावी नाव पार नहीं लग सकेगी. हालांकि गांधी परिवार और खासतौर से सोनिया गांधी के साथ उनके पति स्व. राजीव गांधी के जमाने से ही कैप्टन अमरिंदर सिंह के पारिवारिक रिश्ते बहुत करीबी रहे हैं. पंजाब में वह कांग्रेस के सबसे बड़े जनाधारवाले कद्दावर लेकिन बुजुर्ग नेता भी हैं. अन्य राज्यों में भाजपा की मोदी लहर के बावजूद अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही 2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से सत्तारूढ़ हो सकी थी. श्रीमती गांधी के कहने पर उन्होंने मुख्यमंत्री रहते अमृतसर में अरुण जेटली के विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़कर उन्हें धूल भी चटाई थी. 

कैप्टन के विरोध में अपने ही लामबंद 

    
    लेकिन अगले साल मार्च महीने में उम्र के 80 साल पूरा करनेवाले कांग्रेस के इस कैप्टन के खिलाफ पिछले कई महीनों से उनकी अपनी ही पार्टी के नेता-विधायकों का बड़ा तबका लामबंद हो रहा था. पार्टी के नेता, विधायक और मंत्री भी उनके खिलाफ कांग्रेस के चुनावी वादों को पूरा नहीं करने, ड्रग्स रैकेट के साथ ही बेअदबी मामले में विपक्षी अकाली दल के नेतृत्व के प्रति नरमी बरतने, पार्टी के विधायकों की उपेक्षा, नौकरशाही के भरोसे ‘महाराजा स्टाइल’ में अपने फार्म हाउस से सरकार चलाने के गंभीर आरोप खुलेआम लगा रहे थे. भाजपा से कांग्रेस में आए पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू अपने सहयोगी विधायक, भारतीय हाकी टीम के पूर्व कप्तान परगट सिंह के साथ मिलकर असंतुष्ट विधायकों को लामबंद करने के साथ ही उनके असंतोष को लगातार हवा दे रहे थे. हालांकि गांधी परिवार के साथ उनकी करीबी के कारण उनके विरुद्ध अंदरूनी कलह और पार्टी के विधायकों के विरोध के हर दाव विफल साबित हो रहे थे.

कैप्टन अमरिंदर सिंह: अपमानित !
    लेकिन कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आलाकमान से अपनी करीबी का लाभ लेकर समय रहते असंतुष्टों के साथ सुलह-सफाई की कोशिश नहीं की. यहां तक कि कई बार बुलाकर समझाने और अपनी कार्यशैली में सुधार करने के कांग्रेस आलाकमान के निर्देशों की भी वह अनदेखी ही करते रहे. वह पंजाब में दो-तीन नौकरशाहों के भरोसे एक स्वतंत्र, स्वेच्छाचारी क्षत्रप की तरह से अपने फार्म हाउस से सरकार चला रहे थे. किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री को पार्टी चलाने के लिए दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय को फंड देना होता है, लेकिन पंजाब से उन्होंने एक धेला भी नहीं दिया. आम जनता तो दूर पार्टी के विधायक भी उनसे मिल नहीं पाते थे. कांग्रेस के नेता बताते हैं कि उनके सुबह सो कर उठने, तैयार होकर किसी से मिलने का समय दोपहर बारह बजे के बाद शुरू होता है. यह बात भाजपा नेता अरुण जेटली ने भी 2014 में अमृतसर से उनके विरुद्ध लोकसभा का चुनाव लड़ते समय एक प्रेस कान्फ्रेंस में कही थी. कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इसके जवाब में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा था, “जेटली गलत बोल रहा है, मैं दिन में एक बजे के बाद ही किसी से मिलता हूं.” पिछले दिनों केंद्र सरकार ने जलियांवाला बाग को नया रंग रूप दिया तो राहुल गांधी ने यह कहकर उसका विरोध किया था कि शहीदों की निशानियों के साथ खिलवाड़ नहीं होना चाहिए लेकिन कांग्रेसी मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने इस मामले में राहुल गांधी के बयान का समर्थन करने के बजाय केंद्र सरकार के पक्ष में बयान दिया. और भी कई अवसरों पर वह प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार के पक्ष में बोलते रहे. वह जब भी दिल्ली आते, प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह से अवश्य मिलते थे. हाल के महीनों में राहुल गांधी और प्रियंका वैसे भी उन्हें पसंद नहीं करते थे, जलियांवाला बाग प्रकरण में अमरिंदर के सरकार समर्थक बयान को लेकर उनके प्रति आलाकमान की नाराजगी और बढ़ गई.

आलाकमान का भरोसा भी टूटा

    
    
सोनिया गांधी और राहुल: भारी मन से कहना पड़ा 'सारी अमरिंदर'
इस
बीच बड़बोले और वाचाल छवि के नवजोत सिंह सिद्धू लगातार अपनी ही सरकार के मुख्यमंत्री के विरुद्ध विपक्ष के किसी नेता से भी तीखी और आक्रामक भाषा में आरोप लगाते रहे. उन्हें शांत करने की गरज से कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को अध्यक्ष बनाकर प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप दी. लेकिन सिद्धू के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी कैप्टन और क्रिकेटर का झगड़ा सुलझ नहीं सका. कई बार एक मंच पर होने के बावजूद दोनों के बीच के रिश्तों की कड़वाहट खुलकर सामने आते रही. अमरिंदर सरकार के खिलाफ सिद्धू की बयानबाजी जारी रही तो अमरिंदर सिंह भी उनके विरुद्ध अपनी भड़ांस निकालते रहे. इस क्रम में सिद्धू अमरिंदर विरोधी विधायकों को एकजुट करते हुए आलाकमान तक यह बात पहुंचाने में कामयाब रहे कि कैप्टन के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस पंजाब का चुनाव नहीं जीत सकती. कई बार की चेतावनियों के बाद भी जब बात नहीं बनी और 50-60 विधायकों ने अमरिंदर के विरोध में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर अल्टीमेटम सा दे दिया तो सोनिया गांधी ने उन्हें भारी मन से ‘आइ एम सॉरी अमरिंदर’ कहा और चंडीगढ़ में विधायक दल की बैठक बुलाए जाने की बात बताई.आलाकमान के इस फैसले से आहत और अपमानित महसूस करते हुए अमरिंदर सिंह ने कांग्रेस विधायक दल की बैठक का बहिष्कार किया और उससे पहले ही राजभवन जाकर राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को अपना त्यागपत्र थमा दिया. हालांकि विधायक दल की बैठक में कांग्रेस के 80 में से 78 विधायक शामिल हुए. बैठक में अमरिंदर सिंह के कार्यकाल और उनके कामकाज की सराहना का एक प्रस्ताव भी पारित करते हुए भविष्य में भी उनका मार्गदर्शन मिलते रहने की उम्मीद जाहिर की गई.
अमरिंदर सिंह: बागी तेवर !

    लेकिन कैप्टन ने अपने राजनीतिक भविष्य का विकल्प खुला होने और कोई भी फैसला अपने साथियों-सहयोगियों से मंत्रणा के बाद ही करने की बात कही. जब उनके उत्तराधिकारी के चुनाव की बात चल रही थी, उन्होंने साफ कर दिया था कि मुख्यमंत्री के रूप में सिद्धू उन्हें कतई कबूल नहीं. उन्होंने सिद्धू को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा का मित्र भी बताते हुए कहा कि उनकी राय में सीमावर्ती राज्य पंजाब में सिद्धू का मुख्यमंत्री बनना देश हित में नहीं होगा. यह कह कर एक तरह से कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सिद्धू के नाम पर न सिर्फ वीटो सा लगा दिया बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य का संकेत भी दे दिया है. उन्होंने परोक्ष रूप से भाजपा की भाषा बोलते हुए राष्ट्रवाद के मुद्दे पर अपने प्रदेश अध्यक्ष और कांग्रेस को भी घेरने की कोशिश की क्योंकि सिद्धू मुख्यमंत्री तो नहीं बने लेकिन प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष तो हैं ही. भाजपा ने इस बात को लेकर कांग्रेस की आलोचना भी की. लेकिन कांग्रेस नेताओं का एक बड़ा तबका और राजनीतिक प्रेक्षक भी सिद्धू के बारे में अमरिंदर सिंह के द्वारा कही गई बातों को जायज नहीं मानते. सिद्धू के विरोध में तमाम बातें कही जा कती हैं लेकिन उन पर इस तरह का आरोप चस्पा नहीं होता. कुछेक कार्यक्रमों में शिरकत और मुलाकातों के आधार पर किसी को पाकिस्तान, उसके प्रधानमंत्री और सेनाध्यक्ष का मित्र नहीं कहा जा सकता. वैसे भी सिद्धू और इमरान खान क्रिकेटर रह चुके हैं और इस लिहाज से उनकी पहले से ही मेल-मुलाकात स्वाभाविक है. पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी, उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भाजपा पर पलटवार करते हुए कहा कि इमरान खान के साथ सिद्धू की मित्रता तब से है जब वह भाजपा में थे. और करतारपुर साहिब कारिडोर खोले जाते समय अगर पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष बाजवा और सिद्धू गले मिले तो इसमें गलत क्या था. हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी भी तो उनके घर जाकर पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से गले मिले थे. उनके साथ बिरयानी खाई थी. कांग्रेस के एक और नेता याद दिलाते हैं कि कैप्टन पर भी तो उनके राजनीतिक विरोधी पाकिस्तान की एक प्रभावशाली डिफेंस जर्नलिस्ट अरूसा आलम के साथ वर्षों से गहरे और अंतरंग रिश्ते होने के आरोप लगते रहे हैं. इससे उनकी देशभक्ति पर सवाल तो नहीं किए जा सकते.

चन्नी के सामने चुनौतियां


    देखने वाली बात यह होगी कि पंजाब में पहले दलित मुख्यमंत्री के रूप में सरकार की कमान संभाल चुके चरणजीत सिंह चन्नी के बारे में कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुख क्या होता है. आज वह उनके शपथग्रहण समारोह में नहीं आ सके. अभी भी कांग्रेस के एक-डेढ़ दर्जन विधायकों के उनके साथ होने की बात कही जा रही है. हालांकि नेतृत्व परिवर्तन के बाद इनमें से कितने उनके साथ रह जाएंगे, कहना मुश्किल है. लेकिन इससे इतर नये मुख्यमंत्री  चन्नी के सामने सबसे बड़ी चुनौती अगले चार-पांच महीनों में ही होनेवाले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत सुनिश्चित करने की होगी. इसके लिए न सिर्फ कैप्टन अमरिंदर सिंह बल्कि कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू और कई खेमों में बंटी कांग्रेस के गुटबाज नेताओं को भी साधना होगा. बड़बोले सिद्धू को नियंत्रित रखना अपनेआप में ही एक बड़ी चुनौती होगी. अभी उन्हें अपनी मंत्रिपरिषद का गठन भी करना होगा. उनके दो उपमुख्यमंत्रियों में से एक सिद्धू के तो दूसरे कैप्टन अमरिंदर सिंह के करीबी बताए जाते हैं. चन्नी खुद भी सिद्धू के साथ मिलकर अमरिंदर सिंह के विरुद्ध झंडा उठाए रहते थे. उन्हें संगठन और सरकार में तालमेल बिठाना पड़ेगा. अमरिंदर सिंह की सरकार के रहते कांग्रेस के तकरीबन डेढ़ दर्जन अधूरे वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी भी चन्नी सरकार पर होगी. इन अधूरे वादों को लेकर विपक्ष से अधिक कांग्रेस के चन्नी सहित तमाम असंतुष्ट नेता, विधायक अमरिंदर सरकार के विरुद्ध हमलावर रहे हैं. इसके अलावा उनका खुद का दामन भी बेदाग नहीं रहा है. अमरिंदर सरकार में मंत्री रहते कई तरह के आरोपों के साथ उनको लेकर विवाद खड़े होते रहे हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद विपक्ष उन्हें मुद्दा बना सकता है. एक महिला आइएएस अधिकारी को उनके द्वारा अतीत में अश्लील मेसेज भेजने का मामला भी तूल पकड़ सकता है. भाजपा की नेता और महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने इस मुद्दे को अभी से उछालना शुरू कर दिया है. 

    
हरीश रावत: बयान को लेकर गलतफहमी!
    इस बीच पंजाब के लिए कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत के एक बयान को लेकर भी विवाद खड़ा हो गया है. रावत ने मीडिया से बातचीत में कहा है कि पंजाब में विधानसभा का अगला चुनाव प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. तो क्या चन्नी केवल चुनाव तक ही मुख्यमंत्री रहेंगे! इसको लेकर प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने आपत्ति की है. नेतृत्व परिवर्तन के समय मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए जाखड़ ने ट्वीट कर कहा कि रावत का यह बयान चौंकाने वाला है. मुख्यमंत्री के अधिकार और उनकी राजनीतिक हैसियत को कमजोर करने की कोशिश है. हालांकि इसके तुरंत बाद ही कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष रणदीप सिंह सुरजेवाला ने आधिकारिक रूप से स्पष्ट किया कि विधानसभा के चुनाव मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के नेतृत्व में लड़े जाएंगे. चुनाव अभियान में पार्टी के अन्य बड़े नेता भी शामिल होंगे. 

कारगर होगा मास्टर स्ट्रोक !

    
    पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का यह ‘मास्टर स्ट्रोक’ कितना कारगर होगा, इसका पता विधानसभा के अगले चुनाव में ही चल सकेगा. नया नेतृत्व कांग्रेस की चुनावी नाव को पार लगा सकेगा या इसका हश्र भी वैसा ही होगा जैसा अप्रैल 1996 में पंजाब में ही चुनाव से 10-11 महीने पहले कांग्रेस के हरचरण सिंह बराड़ की जगह राजेंद्र कौर भट्टल को मुख्यमंत्री बनाने के बाद हुआ था. उस चुनाव में कांग्रेस को बुरी पराजय का सामना करना पड़ा था. हालांकि कांग्रेस आलाकमान और उसके रणनीतिकारों का मानना है कि नेतृत्व परिवर्तन से अमरिंदर सिंह और उनकी सरकार के विरुद्ध ‘ऐंटी इनकंबेंसी फैक्टर’ काफी हद तक निष्प्रभावी हो सकेगा. चन्नी सरकार अमरिंदर सरकार के कुछ महत्वपूर्ण अधूरे कार्यों को पूरा करके पंजाब के लोगों का दिल जीत सकती है. चरणजीत सिंह चन्नी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद अपनी पहली प्रेस कान्फ्रेंस में केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खुला विरोध, किसान हितों के लिए कुरसी क्या जान भी कुरबान करने, बेअदबी और ड्रग रैकेट के गुनहगारों को उनके किए की कड़ी सजा दिलाने, किसानों के बिजली के बकाया बिल माफ करने, कमजोर तबके के लोगों के लिए बिजली पानी मुफ्त करने जैसी घोषणाएं करके सकारात्मक पहल की है. उनके पास समय कम है और काम अधिक लेकिन वह इस तरह की ठोस शुरुआत के जरिए अपनी और अपनी सरकार की प्राथमिकताओं को सामने रखकर पंजाब के मतदाताओं का दिल जीतने की कोशिश कर सकते हैं. पंजाब में पहली बार किसी दलित नेता को मुख्यमंत्री बनाकर कांग्रेस ने न सिर्फ पंजाब में अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी के गठजोड़ की बल्कि किसी दलित को मुख्यमंत्री बनाने के भाजपा के और किसी दलित को उप मुख्यमंत्री बनाने के आम आदमी पार्टी के चुनावी वादे की भी हवा निकाल दी है. कांग्रेस की कोशिश चरणजीत सिंह चन्नी को घुमाकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी अपने परंपरागत जनाधार रहे अनुसूचित जाति के मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने की भी हो सकती है. इसके मद्देनजर उत्तर प्रदेश के भाजपाई मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और बसपा सुप्रीमो मायावती के वक्तव्यों और ट्वीट में अभी से बेचैनी नजर आने लगी है. भाजपा कांग्रेस के दलित प्रेम को चुनावी बता रही है. लेकिन कांग्रेस ते पहले भी कई दलित नेताओं को कई राज्यों में मुख्यमंत्री बना चुकी है, भाजपा ने अभी तक किसी राज्य में किसी दलित को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बनाया ! जाहिर सी बात है कि पंजाब में कांग्रेस के इस दलित कार्ड या कहें मास्टर स्ट्रोक का जवाब भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के पास भी नहीं दिख रहा है.








Monday, 13 September 2021

Hal Filhal: Farmer's Protest becoming Mass Movement

जनांदोलन बनता किसान आंदोलन !


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/nETSJwcB76k    


    भारत सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में पिछले 9-10 महीनों से दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का आंदोलन अब एक जनांदोलन का रूप लेते जा रहा है. अब इसके साथ बेरोजगार युवा और मजदूर भी जुड़ने लगे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के 27 सितंबर को भारत बंद के अह्वान को कई प्रमुख मजदूर संगठनों का समर्थन मिलने की सूचनाएं भी मिल रही हैं.संवेदनहीन मोदी सरकार के पुलिसिया दमन, सत्तामुखी मुख्यधारा की मीडिया की बेरुखी और बेरहम मौसम की मार को झेलते हुए भी ये किसान दिल्ली से लगने वाली उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं पर लंबे समय से डेरा डाले हैं. कड़ी धूप, कड़कड़ाती ठंड और मूसलाधार बारिश भी इन किसानों का मनोबल तोड़ पाने में विफल रही है. तकरीबन छह सौ किसान इस किसान आंदोलन के क्रम में जान गंवा चुके हैं.

    
कृषि कानूनों के वापस होने तक घर वापसी नहीं !
    सरकार के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने, यहां तक कि उसमें किसान नेताओं के मनमुआफिक किसी तरह का फेरबदल करने पर भी राजी नहीं होनेवाली सरकार की जिद के कारण बेनतीजा ही रही है. किसान आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें, मीडिया के जरिए किसान आंदोलन को बदनाम करने, उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग से जुड़े होने के आरोपों से लेकर आंदोलन के केवल धनाढ्य किसानों और बिचौलियों का पक्षधर बताने के कुप्रचार भी किसानों के जज्बे और हौसले को डिगा नहीं सके हैं. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से घोषित किया है कि किसान अपनी मांगें पूरी होने यानी कृषि कानूनों की वापसी होने तक घर लौटनेवाले नहीं हैं. चाहे इसके लिए उन्हें 2024 तक या उससे आगे भी इस संघर्ष को क्यों न खींचना पड़े. 

    करनाल में झुकी हरियाणा सरकार

    
    
करनाल में पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज
हरियाणा
के करनाल में आंदोलनकारी किसानों के दबाव में राज्य सरकार के झुकने और उनकी अधिकतर मांगें मान लेने के बाद किसान नेताओं को मनोबल और बढ़ा है. गौरतलब है कि 28 अगस्त को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के करनाल आगमन का विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद किसानों ने अपनी मांगें पूरी होने तक करनाल में मिनी सचिवालय के सामने डेरा डाल दिया था. करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के प्रदर्शनकारी किसानों के सिर फोड़ देने के स्पष्ट निर्देश का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने और उस निर्देश पर अमल करते हुए पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद खट्टर सरकार के खिलाफ पहले से ही नाराज चल रहे किसानों का आक्रोश और बढ़ गया था. किसानों के दबाव में आई सरकार किसान नेताओं के बीच हुई बातचीत में बनी सहमति के बाद किसानों ने मिनी सचिवालय से अपना धरना हटा लिया है. सरकार ने 28 अगस्त के पुलिस लाठी चार्ज की न्यायिक जांच हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश से करवाने, एक महीने के भीतर जांच रिपोर्ट पेश करने, लोकतंत्र में भी जलियांवालाबाग हत्याकांड के गुनहगार माइकल ओ डायर की भाषा बोलनेवाले करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हां को एक महीने के लिए छुट्टी पर भेजने के साथ ही पुलिस लाठीचार्ज में घायल किसान, जिनकी अगले दिन मृत्यु हो गई थी, के परिवार के दो लोगों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है.
आयुष सिन्हाः लोकतंत्र में माइकेल ओ डायर की भाषा !

     इधर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसानों की महापंचायत ने इस आंदोलन की दिशा बदलनी शुरू कर दी है. तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ शुरू हुआ किसान आंदोलन एक नये तरह के जनांदोलन का रूप लेने लगा है. अब किसान नेता कृषि कानूनों के विरोध के साथ ही मोदी सरकार पर देश के सरकारी संसाधनों, सार्वजनिक उपक्रमों को अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचने का आरोप भी लगाने लगे हैं. इसके साथ ही महंगाई, बेरोजगारी के सवाल भी उठाते हुए किसान नेता वोट की चोट से सत्ता परिवर्तन की बात भी करने लगे हैं. यह भी एक कारण है कि अब किसान आंदोलन के साथ मजदूर और बेरोजगार युवा भी जुड़ते जा रहे हैं. तमाम विरोधी दलों का खुला समर्थन इस आंदोलन के पक्ष में दिखने लगा है. और अब तो सत्तारूढ़ दल भाजपा, इसके सहयोगी और इसे संचालित करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के लोग भी कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलित किसानों के पक्ष में बोलने लगे हैं.

    किसान महापंचायत ने भाजपा की नींद उड़ाई  


    
 किसान महापंचायत में राकेश टिकैतः सरकार नहीं मानी तो वोट की चोट
लेकिन मोदी सरकार न जाने किन कारणों से इन सब बातों को अभी भी अनसुना कर रही है. हालांकि पिछले 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत और उसमें सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने के इरादे से दिए गए अल्लाहु अकबर, हर हर महादेव और जो बोले सो निहाल का नारा लगाकर किसान नेताओं ने भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है. उन्हें लगता है कि इस तरह के नारों के साथ किसान नेताओं और खासतौर से राकेश टिकैत के गूंगी बहरी और संवेदनहीन सरकार को वोट की चोट देने के आह्वान का न सिर्फ उत्तर प्रदेश और पंजाब बल्कि उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भाजपा की राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है. इस तरह के नारों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उनके प्रयासों में पलीता लगते दिख रहा है. महा पंचायत में किसान नेताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि 2013-14 में वे लोग भाजपा और आरएसएस के द्वारा फैलाए गए भ्रमजाल के शिकार हो गए थे. 
    
    गौरतलब है कि 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी भाजपा के पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर आधारित चुनावी माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. भाजपा को इसका भरपूर राजनीतिक लाभ न सिर्फ 2014 के संसदीय आम चुनाव में बल्कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला था. इस बार किसान आंदोलन ने न सिर्फ किसानों को बल्कि इन इलाकों में दशकों पुराने सामाजिक सद्भाव और भाई चारे को भी लामबंद किया है. इस महा पंचायत में राकेश टिकैत ने साफ तौर पर भाजपा और आरएसएस के लोगों पर सुनियोजित साजिश के तहत सांप्रदायिक दंगे करवाने के आरोप लगाते हुए कहा कि इस बार भी इन लोगों की साजिश 2022 के चुनाव से पहले किसी बड़े हिंदू नेता की हत्या करवाने की हो सकती है. उन्होंने इसके लिए भाजपा के नेताओं के साथ ही आम जनता को भी आगाह किया.

   कितनी जायज हैं किसानों की आशंकाएं !


    किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने 27 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है. उनके इस आह्वान को तमाम मजदूर संगठनों का समर्थन भी मिल रहा है. किसान नेताओं की बदली रणनीति पर काबू पाने की गरज से मोदी सरकार ने मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत के तीन दिन बाद, 8 सितंबर को रबी फसलों-दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की खरीद के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में लाक्षणिक वृद्धि कर किसानों के सामने राजनीतिक चुग्गा फेंकने की कोशिश की. लेकिन किसान नेता इससे अप्रभावित ही रहे. उनका कहना है कि एमएसपी तो बढ़ती घटती रहती है, उनकी मांग तो कृषि उपज मंडियों की व्यवस्था जारी रखने और एमएसपी पर किसानों की फसल की खरीद की संवैधानिक गारंटी देने की है. 

    इसके साथ ही किसान नेता करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के बर्बर और किसान विरोधी रवैए को सामने रखकर कह रहे हैं कि इससे भी जाहिर होता है कि कृषि कानून किस हद तक किसान हितों के विरुद्ध है. कृषि कानून के तहत किसानों और व्यापारी-पूंजीपतियों के बीच किसी तरह का विवाद होने पर उसका निपटारा किसी अदालत में नहीं बल्कि एसडीएम के दरबार में होगा. आयुष सिन्हां के रवैए से समझा जा सकता है कि किसानों को किस तरह का न्याय मिलेगा. यही नहीं मंडियों के बने रहने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के लिए संवैधानिक गारंटी की मांग कर रहे किसानों का तर्क है कि इस तरह की गारंटी नहीं होने के बाद पूंजीपति वैसा ही करेंगे जैसे हिमाचल प्रदेश में गौतम अडानी की कंपनी ने सेब किसानों के साथ किया है. पहले तो मंडी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए उन लोगों ने दाम बढ़ाकर किसानों से सेब की खरीद की लेकिन इस बार सेब के दामों में गुणवत्ता के हिसाब से औसतन 15-20 रु. प्रति किलो के हिसाब से कमी कर दी है. इसी तरह से उनका कहना है कि कृषि कानूनों के बनने के बाद से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा कई अन्य राज्यों में भी कृषि उत्पादन मंडी समितियों में भारी कमी आई है. 

    सरकारी आंकड़ों में किसानों की बदहाली


    किसान नेताओं का मानना है कि कृषि कानूनों के अमल में आने पर किसानों का उनकी जमीन और उपज पर भी हक नहीं रह जाएगा. कार्पोरेट ताकतों को कृषि पर कब्जा करने का हक मिल जाएगा. इस बीच भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसओ) ने बताया है कि देश में खेती-बाड़ी करने वाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार कर्ज में डूबे प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 74,121 रुपये का कर्ज था. सर्वे में कहा गया है कि उनके कुल बकाया कर्ज में से तकरीबन 70 प्रतिशत बैंकों, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिए गये थे. जबकि 20.5 प्रतिशत कर्ज पेशेवर सूदखोरों से लिए गये. एनएसओ ने जनवरी-दिसंबर 2019 के दौरान देश के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार की भूमि और पशुधन के अलावा कृषि परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन किया. सर्वे के अनुसार कृषि वर्ष 2018-19 (जुलाई-जून) के दौरान प्रत्येक कृषक परिवार की हर महीने औसत आमदनी महज 10,218 रुपये थी. एक परिवार में औसतन चार-या पांच सदस्य होते हैं. इस हिसाब से प्रति किसान यह आमदनी दो से ढाई हजार रुपए प्रति माह ही बैठती है. एनएसओ की यह रिपोर्ट आंखें खोलनेवाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के संसदीय चुनाव से पहले और बाद में भी किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाने, उनकी आमदनी दो गुनी करने की बातें करते रहे हैं. एनएसओ के ये आंकड़े उनके इन वादों को जमीनी सच की कसौटी पर परखने में भी मददगार हो सकते हैं.

मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत में सांप्रदायिक सद्भाव की बातें
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशों का खुलासा !
     कुल मिलाकर देखा जाए तो किसानों का आंदोलन अब केवल तीन कृषि कानूनों को रद्द करने का आंदोलन मात्र नहीं रह गया है. अब इसने एक वृहत्तर जनांदोलन की शक्ल लेनी शुरू कर दी है. मोदी जी और उनकी सरकार में शामिल लोगों को पता होगा कि 1973-74 का गुजरात आंदोलन कुछ कालेजों में होस्टेल की फीस बढने और भोजन की खराब गुणवत्ता के लेकर शुरू हुआ था. उसकी ही तर्ज पर बिहार आंदोलन शुरू हुआ. आगे चलकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी उस आंदोलन में शामिल होने के बाद उसे जेपी आंदोलन या कहें संपूर्ण क्रांति आंदोलन भी कहा जाने लगा. आगे चलकर इसमें कुछ और राजनीतिक घटनाक्रम भी जुड़े जिनके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया था. लेकिन 1977 में हुए संसदीय आम चुनाव में उन्हें और उनकी कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा था. पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी. कहने का मतलब सिर्फ यही है कि समय रहते अगर मोदी सरकार ने अतीत से सबके लेकर कृषि कानूनों पर अपनी जिद छोड़कर कृषि और किसानों के हित में कोई ठोस फैसला नहीं किया तो उसे भी आगे चलकर इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसकी बानगी उन्हें अगले साल फरवरी-मार्च महीने में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब सहित पांच राज्य विधानसभाओं और फिर उसी साल, 2022  के अंत में होनेवाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकती है.

नोट ः तस्वीरें इंटरनेट से ली गई हैं

Tuesday, 17 August 2021

Hal Filhal: Criminalisation of Politics

राजनीति के अपराधीकरण पर सुप्रीम कोर्ट का तमाचा


जयशंकर गुप्त

https://youtu.be/pdxZu1ANxLc
    
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जनीति का तेजी से हो रहा अपराधीकरण पिछले कई दशकों से भारतीय राजनीति और हमारे संसदीय लोकतंत्र को भी डंसे जा रहा है. बार-बार की चेतावनियों और घोषणाओं के बेअसर रहने के बाद अभी एक बार फिर हमारी सर्वोच्च अदालत ने राजनीति के अपराधीकरण या कहें अपराध के राजनीतिकरण पर गहरी चिंता व्यक्त की है. सुप्रीम कोर्ट की राय में “राजनीतिक व्यवस्था की शुद्धता के लिए आपराधिक पृष्ठभूमि के लोगों को कानून निर्माता बनने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.’’

    वाकई, हाल के दशकों में भारतीय राजनीति और हमारी चुनाव प्रणाली में जाति, धर्म, धन बल और बाहुबल का इस्तेमाल बढ़ा है. यह हमारी लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था के लिए अशुभ संकेत है. सबसे अधिक चिंता इस बात की है कि कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो यह किसी भी राजनीतिक दल और आम जनता के लिए भी विशेष चिंता का विषय नहीं रह गया है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र कहे जानेवाले भारत में चुनाव सुधारों की बात तो लंबे समय से होती रही है. लेकिन, आजादी के 74 साल बाद भी यहां 'राजनीति के अपराधीकरण' पर रोक नहीं लग सकी है. भारतीय स्वतंत्रता के 75वें दिवस का जश्न मनाते समय क्या यह हमारी सामूहिक चिंता का विषय नहीं होना चाहिए कि सत्रहवीं लोकसभा के तकरीबन 43 प्रतिशत सदस्यों पर आपराधिक और इन में से 29 प्रतिशत सांसदों पर गंभीर अपराधों के मामले दर्ज हैं.
 
    पिछले लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर गौर करें तो अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती गई है. 2004 के लोकसभा चुनाव में जीतनेवाले अपराधी पृष्ठभूमि के सांसदों की संख्या 128 थी जो वर्ष 2009 में 162, 2014 में 185 और 2019 के लोकसभा में बढ़कर 233 हो गई. नेशनल इलेक्शन वॉच और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2009 में गंभीर आपराधिक मामलों के आरोपी सांसदों की संख्या 76 थी, जो 2019 में बढ़कर 159 हो गई. इस तरह से देखें तो 2009-19 के बीच बलात्कार, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, महिलाओं के विरुद्ध अपराध जैसे गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले सांसदों की संख्या में 109 फीसदी का इजाफा हुआ. कई राज्यों की विधानसभाओं में तो हालत और भी बदतर है. बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे.

मोदी से जगी थी उम्मीद !


     प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में भाजपा की सरकार बनने के बाद उम्मीद बढ़ी थी कि अब राजनीति अपराधियों से मुक्त हो सकेगी. हालांकि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते ऐसा कुछ भी लहीं किया था जिससे अपराधी राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर हो सकें. लेकिन उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ रही भाजपा ने जब 7 अप्रैल 2014 को लोकसभा चुनाव के लिए जारी अपने चुनाव घोषणापत्र या कहें संकल्प पत्र में अपराधियों को राजनीति से बाहर करने के लिए कटिबद्धता जाहिर की, तो आस जगी थी. यही नहीं मोदी जी ने खुद भी राजस्थान में अपने चुनावी भाषणों में कहा था, ‘‘आजकल यह चर्चा जोरों पर है कि अपराधियों को राजनीति में घुसने से कैसे रोका जाए. मेरे पास इसका एक ठोस इलाज है. मैंने भारतीय राजनीति को साफ करने का फैसला कर लिया है. मैं इस बात को लेकर आशान्वित हूं कि हमारे शासन के पांच सालों बाद पूरी राजनीतिक व्यवस्था साफ-सुधरी हो जाएगी और सभी अपराधी जेल में होंगे. इस मामले में कोई भेदभाव नहीं होगा और मैं अपनी पार्टी के दोषियों को भी सजा दिलाने में संकोच नहीं करूंगा.’’

नरेंद्र मोदीः राजनीति के अपराधीकरण का इलाज है, मेरे पास!
    प्रधानमंत्री बनने के बाद 11 जून 2014 को संसद में अपने पहले भाषण में भी मोदी जी ने चुनावी प्रक्रिया से अपराधी छवि के जन प्रतिनिधियों को बाहर करने की प्रतिबद्धता को दोहराते हुए कहा था कि उनकी सरकार ऐसे नेताओं के खिलाफ मुकदमों के तेजी से निपटारे की प्रक्रिया बनाएगी. 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव के समय मोदी जी ने मुजफ्फरपुर की सभा में कहा था कि जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध लंबित आपराधिक मामलों की त्वरित अदालतों में सुनावाई के जरिए वह पहले संसद से और फिर विधानमंडलों से भी अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों को बाहर करेंगे.

    लेकिन प्रधामंत्री मोदी की इन घोषणाओं का हुआ क्या ! इसे भी देखें. 2014 के लोकसभा चुनाव में जीते भाजपा के 282 सांसदों में से 35 फीसदी (98) सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज थे. इनमें से 22 फीसदी सांसदों के खिलाफ तो गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें उम्मीदवार किसने और क्यों बनाया था ! यह भी क्या कोई पूछने की बात है ! यही नहीं, मोदी जी की मंत्रिपरिषद में भी 31 फीसदी सदस्यों के विरुद्ध आपराधिक और इनमें से 18 फीसदी यानी 14 मंत्रियों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज थे. इन्हें ठोक बजाकर मंत्री भी तो मोदी जी ने ही बनाया होगा ! 14 दिसंबर 2017 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल कर बताया था कि उस समय 1581 सांसद व विधायकों पर करीब 13500 आपराधिक मामले लंबित हैं और इन मामलों के निपटारे के लिए 12 विशेष अदालतों का गठन होगा. इसके तीन महीने बाद, 12 मार्च 2018 को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि देश के 1,765 सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं. जाहिर सी बात है कि भाजपा और मोदी जी ने भी राजनीति को अपराध मुक्त बनाने के जो वादे और दावे किए थे, वह भी उनके सत्ता संभालने के सवा सात साल बाद भी पूरा होने के बजाय कोरा जुमला ही साबित हुए. इस दौरान उनकी पार्टी के कई सांसदों, मंत्रियों और विधायकों पर भी कई तरह के अपराध कर्म में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे लेकिन उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की बात तो दूर, उन्होंने सामान्य नैतिकता के आधार पर किसी का इस्तीफ़ा तक नहीं लिया.

    
सुप्रीम कोर्टः राजनीतिक व्यवस्था के अपराधीकरण का खतरा
    सच तो यह है कि राजनीति में तेजी से बढ़ रहे अपराधीकरण को रोकने के लिए कोई भी राजनीतिक दल ठोस कदम उठाने को तैयार नहीं. ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी और आदेशों के जरिए न सिर्फ सरकार और विपक्ष बल्कि हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था पर भी करारा तमाचा जड़ा है. सुप्रीम कोर्ट ने उम्मीदवारों के आपराधिक रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं करने को अदालत के आदेश की अवमानना मानते हुए बिहार में भाजपा और कांग्रेस समेत आठ राजनीतिक दलों पर एक लाख से लेकर पांच लाख रुपए तक का जुर्माना लगाया. बिहार विधानसभा के चुनाव में विभिन्न दलों के तकरीबन 70 प्रतिशत उम्मीदवारों के विरुद्ध आपराधिक मुकदमे चल रहे थे. लेकिन अदालती के आदेश के बावजूद  इन पार्टियों ने अपने अपराधी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों का विवरण सार्वजनिक नहीं किया था. आर्थिक जुर्माना लगाने के साथ ही सख्त निर्देश जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी राजनीतिक दलों को चयन के 48 घंटों के भीतर अपने उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि को अपने वेबसाइट पर सार्वजनिक करना होगा. उम्मीदवार के चयन के 72 घंटे के अंदर इसकी रिपोर्ट चुनाव आयोग को भी सौंपनी होगी. चुनाव आयोग से भी इन सब बातों पर निगरानी रखने के लिए एक अलग प्रकोष्ठ बनाने को कहा गया है. यह प्रकोष्ठ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के पालन पर निगरानी रखेगा.

हाईकोर्ट की अनुमति के बिना जन प्रतिनिधियों के मुकदमों की वापसी नहीं  ! 


    
चीफ जस्टिस एन वी रमनः माननीयों पर मुकदमों की
वापसी के लिए हाईकोर्ट की अनुमति जरूरी
    सुप्रीम कोर्ट ने एक और मामले में महत्वपूर्ण आदेश जारी करते हुए कहा है कि राज्य सरकारें अब आपराधिक मामलों का सामना कर रहे जन प्रतिनिधियों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना वापस नहीं ले सकेंगी. अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्याधीश एन वी रमन, जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस विनीत सरन की पीठ ने सितंबर 2020 के बाद सांसदों-विधायकों के विरुद्ध वापस लिए गए मुकदमों को दोबारा खोलने का आदेश भी दिया. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने यह बड़ा कदम एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) अधिवक्ता विजय हंसारिया की रिपोर्ट के मद्देनजर उठाया है. इस रिपोर्ट के मुताबिक उत्तर प्रदेश सरकार मुजफ्फरनगर दंगों के आरोपी बीजेपी विधायकों तथा कुछ अन्य लोगों के खिलाफ 76 तथा कर्नाटक सरकार अपने विधायकों के खिलाफ 62 मामलों को वापस ले चुकी है. उत्तराखंड, महाराष्ट्र और कुछ अन्य राज्य सरकारें भी इसी तरह अपने लोगों पर चल रहे आपराधिक मामले वापस लेने में लगी हैं. इससे पहले भी राज्य सरकारें अपने करीबी नेताओं पर चल रहे आपराधिक मुकदमों को जनिहत के नाम पर वापस लेती रही हैं. सरकारें अपनी पार्टी के नेताओं, सांसदों- विधायकों के खिलाफ अदालतों में लंबित आपराधिक मामले वापस ले लेती हैं, इसलिए भी नेता, जन प्रतिनिधि बेखौफ होकर अपराध करते हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने तो सत्ता संभालते ही मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर चल रहे मुकदमों को वापस लेने के साथ ही भाजपा नेता, पूर्व केंद्रीय गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद पर चल रहे बलात्कार के मामले को वापस ले लिया था. सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस ताजा आदेश से नेताओं, पार्टियों ओर सरकार के कान कस दिए हैं.

    सुप्रीम कोर्ट के इन आदेशों के बाद कहा जा सकता है कि अपराधी छवि वाले नेताओं के लिए चुनाव लड़ने और राजनीतिक दलों को उन्हें उम्मीदवार बनाने में मुश्किलें होंगी. लेकिन क्या इससे राजनीति में अपराधीकरण पर रोक भी लग सकेगी! दरअसल, दशकों पहले से राजनीति के अपराधीकरण की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, उसमें अपराधियों का राजनीतिकरण अब आम बात हो गई है. पांच दशक पहले तक राजनीतिक दल और उनके नेता चुनाव जीतने के लिए अपराधियों, बाहुबलियों और धनबलियों का इस्तेमाल करते थे. बाद में जब इन लोगों को लगा कि वे किसी को चुनाव जिता सकते हैं तो खुद भी तो जीत सकते हैं. इसी सोच के तहत 1980 में हुए बिहार विधानसभा के चुनाव में तकरीबन डेढ़ दर्जन दुर्दांत अपराधी निर्दलीय चुनाव जीत कर आए. बाद में तकरीबन सभी उस समय के सत्तारूढ़ दल, कांग्रेस में शामिल हो गए. बिहार प्रवास के दौरान मुझे उस समय का एक मजेदार किस्सा सुनने को मिला. एक चुनावबाज नेता जी ने अपने सहयोगी रहे एक बड़े अपराधी को पत्र लिखा कि इस बार फिर वह चुनाव लड़ रहे हैं. पिछली बार की तरह इस बार भी चुनाव में उनकी जरूरत पड़ेगी. लिहाजा, हरबा- हथियार और गुर्गे लेकर उनके चुनाव क्षेत्र में पहुंच जाएं. उधर से जवाब आया, भाई जी, इस बार तो हम खुद ही चुनाव लड़ रहे हैं. नतीजा ! अपराधी जीत गया और नेता जी चुनाव हार गए.

    एक समय था जब भ्रष्ट, सांप्रदायिक और अपराधी छवि के लोगों का समाज में हेय या कहें नफरत की निगाह से देखा जाता था. उनके चुनाव लड़ने की बात तो दूर, उनके साथ जुड़ाव भी शर्मिंदगी का कारण बनता था. लेकिन हाल के दशकों में इस तरह के लोगों की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ी है. भ्रष्ट और अपराधी छवि के लोगों-नेताओं को उनकी जाति और धर्म के लोगों का भरपूर साथ मिलने लगा है. अब इसे उनका डर कहें या उनके पैसों और बाहुबल का प्रभाव, ये लोग किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होकर या निर्दलीय चुनाव लड़कर भी आसानी से जीत जाते हैं. इस दौरान इन पर लगे आपराधिक मामलों के बारे में लोग कतई नहीं सोचते हैं. राजनीति में वोटों की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में सियासी दलों के बीच आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को अपने पाले में लाने की होड़ सी लगी रहती है. राजनीतिक दलों में इस बात की प्रतिस्पर्धा रहती है कि किस दल में कितने उम्मीदवार आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, क्योंकि इससे उनके चुनाव जीतने की संभावना बढ़ जाती है. यह भी एक कारण है कि भारत के बड़े हिस्सों में चुनावी राजनीति के मुद्दे शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मूलभूत सुविधाएं न होकर जाति और धर्म होने लगे हैं. इसकी वजह से इन भ्रष्ट और आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं की जीत आसान हो जाती है. चुनाव जीतने के बाद ये लोग अपने समर्थकों और विरोधियों का 'ध्यान' भी रखते हैं.

    इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट राजनीति के अपराधीकरण को रोकने के लिए फैसले और टिप्पणियां करते रहा है. 2002 में सभी तरह के चुनाव में उम्मीदवारों को उनकी आपराधिक, वित्तीय और शैक्षिक पृष्ठभूमि की घोषणा को अनिवार्य बनाया गया. 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने दो साल से ज्यादा कारावास की सजा पाने वाले सांसदों और विधायकों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी थी. 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने दोषी ठहराए गए, सांसदों और विधायकों को उनके पद पर बने रहने की अनुमति के खिलाफ फैसला सुनाया था. इसी साल सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर ईवीएम में नोटा का बटन भी जोड़ा गया था. ताकि मतदाताओं को अगर एक भी उम्मीदवार पसंद नहीं हों तो वे नोटा (यानी कोई नहीं) का बटन दबाकर अपनी नपसंदगी जाहिर कर सकते हैं. लेकिन यह उपाय भी ठोस और कारगर साबित नहीं हो सका क्योंकि इसके जरिए मतदाता अपना आक्रोश और नापंसदगी तो व्यक्त कर सकते हैं लेकिन चुनावी नतीजे को प्रभावित नहीं कर सकते. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों से गंभीर अपराध के आरोपों वाले नेताओं को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं करने की सिफारिश की थी. 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने जन-प्रतिनिधियों के खिलाफ मामलों के तेजी से निपटारे के लिए विशेष अदालतों के गठन का आदेश दिया था. कुछ राज्यों में त्वरित अदालतें गठित भी हुईं लेकिन नतीजा क्इया निकला! 

    दरअसल, सुप्रीम कोर्ट की भी अपनी कुछ सीमाएं हैं. वह राज्य की विधायिका के कार्यों पर सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकता है. दागी उम्मीदवारों को उम्मीदवार बनाने या उन्हें टिकट नहीं देने का निर्णय राजनीतिक दलों को और उन्हें जिताने-हराने का काम मतदाताओं को करना होता है. अगर राजनीतिक दल इस मामले में अपनी ओर से कोई पहल नहीं करें तो सुप्रीम कोर्ट क्या कर सकता है ! लिहाजा हमारे राजनीतिक दलों को ही एक राय से गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं को राजनीति से परे रखने के लिए इस दिशा में ठोस पहल करने के साथ ही संसद से कड़ा कानून भी बनाना होगा. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि संसद से कानून बनाकर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेताओं को राजनीति में आने से रोका जाना चाहिए. अभी जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 8 दोषी और दो वर्ष या उससे अधिक की सजा प्राप्त राजनेताओं को चुनाव लड़ने से रोकती है. लेकिन ऐसे नेता जिन पर कई आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, वे चुनाव लड़ने के लिए स्वतंत्र हैं. इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन पर लगे आरोप कितने गंभीर हैं. लेकिन कई बार बहुत सारे राजनीतिक दलों के नेता-कार्यकर्ताओं पर राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन के क्रम में तथा आंदोलन के दौरान यदा-कदा हुई हिंसक घटनाओं को लेकर भी मुकदमे दर्ज होते रहते हैं. उनका क्या होगा. इस पर भी हमारी सर्वोच्च अदालत, संसद और अन्य संबद्ध संस्थाओं को विचार करने की आवश्यकता है. आजादी के 74 साल बाद भी हमारी राजनीतिक व्यवस्था गंभीर प्रवृत्ति के अपराधियों और राजनीतिक आंदोलनों में निरुद्ध होनेवाले लोगों में फर्क नहीं कर सकी है. अंग्रेजों के जमाने से ही राजनीतिक धरना, प्रदर्शन और आंदोलन में शामिल लोगों को भी अपराध की उन्हीं धाराओं में निरुद्ध किया जाता है जिनके तहत गंभीर किस्म के अपराधियों पर मुकदमें दर्ज होते हैं. राजनीतिक विरोध, धरना, प्रदर्शन और आंदोलन से जुड़े मामलों को अपराध की सामान्य परिभाषा से अलग करने पर विचार करना होगा.

    बहरहाल, क्या हमारी सरकार और हमारे राजनीतिक दल सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देशों के अनुरूप इस मामले में कोई ठोस पहल करेंगे ! दरअसल, सभी दल चुनाव सुधारों की बात तो जोर शोर से करते हैं लेकिन मौका मिलते ही अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन सभी बुराइयों का लाभ लेने में जुट जाते हैं जिनका चुनाव सुधारों के क्रम में निषेध आवश्यक है. यह आश्चर्यजनक नहीं है कि डेढ़ साल पहले भाजपा और मोदी जी अपने घोषणापत्र से लेकर भाषणों में भी राजनीति को अपराधमुक्त करने का जो नारा देते थे, 2019 के लोकसभा चुनाव के समय उसे वे भूल ही गए. मोदी जी के चुनावी भाषणों और भाजपा के घोषणापत्र से भी राजनीति के अपराधीकरण पर रोक लगाने की बात गायब हो गई.



Monday, 26 July 2021

HAL FILHAL: PEGASUS SPYWARE PROJECT and RAID ON MEDIA

जासूसी का जाल और मीडिया पर छापेमारी


जयशंकर गुप्त


    क्या कोई सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों, असहमति रखनेवाले पत्रकारों, वकीलों, उद्यमियों और नागरिकों की जासूसी करवा सकती है! और क्या स्वतंत्र और तटस्थ पत्रकारिता कर रहे अखबारों, टीवी चैनलों और पत्रकारों के यहां आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी से उन्हें डराया-धमकाया जा सकता है ! हम बात कर रहे हैं, भारत सहित दुनिया के कई और देशों में भी ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए स्मार्ट फोन हैक कर जासूसी करने के संबंध में मीडिया रिपोर्ट्स की और देश के सबसे बड़े अखबारों में शुमार ‘दैनिक भास्कर’ और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ और इसके संपादक के कार्यालयों, ठिकानों पर पिछले सप्ताह बड़े पैमाने पर हुई आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी की.

  
राज्यसभा में पेगासस जासूसी को लेकर हंगामा (तस्वीरः राज्यसभा टीवी)
    मानसून सत्र का पहला सप्ताह कथित जासूसी प्रकरण और मीडिया संस्थानों छापेमारी पर संसद में चर्चा कराने, इसकी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में विशेष जांच दल (एसआइटी) से जांच करवाने की मांग कर रहे विपक्ष के हंगामे और सरकार के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया. एक दिन राज्य सभा में विपक्ष के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे के बीच पेगासस जासूसी मामले पर जवाब दे रहे सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव से जवाब की प्रति छीनने के आरोप में तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन को पूरे मानसून सत्र के लिए निलंबित किया जा चुका है. लेकिन मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा है.इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन भीमराव लोकुर एवं कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के दो सदस्यीय जांच आयोग से इस मामले की न्यायिक जांच कराने की घोषणा की है. सुश्री बनर्जी के अनुसार उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में इस मामले की जांच करवाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

    इस बीच देश और दुनिया के कई और देशों में भी इजरायल की कंपनी एनएसओ के जासूसी उपकरण ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए की गई जासूसी के संबंध में नित नए खुलासे हो रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, सांसद अभिषक बनर्जी, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, युद्धक विमान राफेल की खरीद से जुड़े उद्योगपति अनिल अंबानी, उनकी कंपनी के कुछ बड़े अधिकारी, राफेल कंपनी के कुछ अधिकारियों से लेकर जम्मू कश्मीर के कुछ बड़े नेताओं और देश के चार दर्जन पत्रकारों के साथ ही केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद पटेल के नाम भी अब तक सामने आ चुके हैं जिनके स्मार्ट मोबाइल फोन नंबरों को हैक कर उनकी जासूसी की बात कही जा रही है. फ्रांस में खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर संस्था ‘मीडियापार’ के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उनकी सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडॉ के नाम भी उस लिस्ट में हैं, जिनके फोन की पेगासस के जरिए जासूसी कराए जाने की बातें कही जा रही हैं. मीडियापार वही संस्था है, जिसकी शिकायत पर फ्रांस में राफेल विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार की जांच नए सिरे से शुरू हुई है.

    
राहुल गांधीः फोन हैक हुआ
    राहुल गांधी ने अपने स्मार्ट फोन को हैक होने की पुष्टि की है. उन्होंने इस जासूसी प्रकरण को ‘राजद्रोह’ करार देते हुए इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है और उनके त्यागपत्र की मांग की है. उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका की जांच भी सुप्रीम कोर्ट से कराने की मांग की है. लेकिन सरकार ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर विपक्ष की इस मांग को निराधार करार देते हुए कथित जासूसी प्रकरण को संसद के मानसून सत्र के ठीक एक दिन पहले सार्वजनिक करने के पीछे भारत की प्रगति और विकास के रास्ते में अवरोध पैदा करने की गरज से अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र की आशंका जाहिर की है. सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 19 जुलाई को लोकसभा में कहा, "एक वेब पोर्टल पर कल रात एक अति संवेदनशील रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर कई आरोप लगाए गए. ये रिपोर्ट संसद के मॉनसून सत्र के एक दिन पहले प्रकाशित हुई. यह संयोग मात्र नहीं हो सकता." इसी तरह की बात करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने भी इसकी क्रोनोलॉजी समझाने की कोशिश की है. सरकार की तरफ से यह भी साफ करने की कोशिश की गई कि सरकार अवैधानिक तरीके से किसी की जासूसी नहीं करवाती है. यानी वैधानिक तरीके से जासूसी कराई जा सकती है. अगर सरकार इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के रहस्योद्घाटनों को निराधार और अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मानती है तो फिर इस मामले की संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच को तैयार क्यों नहीं हो जाती.  

    यह मांग केवल विपक्ष के नेता, वकील और पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं, भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कहा है कि “अगर छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह इजराइली प्रधानमंत्री को चिट्‌ठी लिखें और एनएसओ के पेगासस प्रोजेक्ट का पता लगाएं. यह भी पता लगाया जाए कि इसके लिए पैसे किसने खर्च किया.” स्वामी ने ट्विटर पर लिखा कि पेगासस स्पाईवेयर एक व्यावसायिक कंपनी है, जो पैसा लेकर ही काम करती है. इसलिए यह सवाल लाज़मी है कि भारतीय लोगों पर जासूसी के लिए पैसे अगर भारत सरकार ने नहीं दिए, तो आख़िर किसने दिए. मोदी सरकार को इसका जवाब देश की जनता को देना चाहिए. अपने विरोधियों की जासूसी कराने के इस मामले में सरकार पर शक की सुई इसलिए भी उठ रही है क्योंकि एनएसओ ने साफ कहा है कि उसका जासूसी सॉफ्टवेयर अपराध और आतंकवादी गतिविधियों को रोकने और लोगों के जीवन बचाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए केवल सरकारों और उनकी खुफिया एजेंसियों को ही बेचा जाता है. इसे किसी निजी व्यक्ति अथवा संस्थान को नहीं बेचा जाता. मजे की बात यह भी है कि अभी तक भारत में जितने भी फोन नंबरों की जासूसी पेगासस के स्पाईवेयर से कराए जाने की बातें सामने आ रही हैं, उनमें से एक भी फोन नंबर किसी आतंकवादी अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अपराधी का नहीं है. 

  
भाजपा नेता स्वामीः छिपाने को कुछ नहीं तो जांच करवा लें
    इस संदर्भ में मीडिया रिपोर्ट्स सार्वजनिक होने से पहले ही भाजपा नेता स्वामी ने ट्वीट कर बताया था कि वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन तथा कुछ और मीडिया संस्थान एक रिपोर्ट सार्वजनिक करने जा रहे हैं, जिसमें इजराइल की फर्म पेगासस को मोदी कैबिनेट के मंत्री, आरएसएस के नेता, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और पत्रकारों के फ़ोन टैप करने के लिए हायर किए जाने का भंडाफोड़ होगा. 18 जुलाई को वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में बताया गया कि शुरुआती रिपोर्ट में दुनिया भर में 189 पत्रकारों, 600 से अधिक राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों और 60 से अधिक व्यावसायिक अधिकारियों को एनएसओ के ग्राहकों (क्लाइंट्स) द्वारा लक्षित किया गया था. 18 जुलाई की देर शाम यहां दिल्ली में न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज खुलासा किया कि भारत सरकार ने 2017 से 2019 के बीच करीब 300 भारतीयों की जासूसी करवाई है. इन 300 लोगों में विपक्ष के नेता पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और बिजनेसमैन भी शामिल हैं. दि वायर ने दावा किया कि सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए इन लोगों के फोन हैक किए थे.

क्या है पेगासस जासूसी प्रकरण


    इजराइल की कंपनी एनएसओ का पेगासस स्पाईवेयर एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो बिना सहमति के आपके स्मार्ट फोन तक पहुंच हासिल करने, व्यक्तिगत और संवेदनशील जानकारी इकट्ठा कर जासूसी करने वाले यूजर यानी ग्राहक को देने के लिए बनाया गया है. यह अगर किसी स्मार्ट फोन में डाल दिया जाए तो कोई हैकर उस आईफोन, एन्ड्राएड फोन के माइक्रोफोन, कैमरा, आडियो और टेक्स्ट मेसेजेज, ईमेल और लोकेशन तक की सभी तरह की जानकारियां हासिल कर सकता है. 

  दरअसल, फ़्रांसीसी मीडिया संस्थान, फॉरबिडन स्टोरीज और मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े एमनेस्टी इंटरनेशनल को 45 देशों के तकरीबन 50 हजार स्मार्ट फोन नंबर्स की एक लिस्ट मिली थी जिनको पेगासस स्पाईवेयर के जरिए हैक करने की आशंका जताई गई थी. 'फ़ॉरबिडन स्टोरीज़' ने इनमें से 67 फोन नंबरों के उपयोगकर्ताओं से अनुमति लेकर उनके नंबरों की फ़ॉरेंसिक जांच करवाई. इनमें से 37 लोगों के फ़ोन में एमनेस्टी इंटरनेशनल सिक्योरिटी लैब्स को पेगासस स्पाईवेयर द्वारा संभावित रूप से टारगेट बनाये जाने के सबूत मिले. इसके बाद ही इन संस्थाओं ने पूरी सूची को दि गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, फ्रंटलाइन, ली मॉंड, रेडियो फ्रांस, हारेट्ज (इजराइल) जैसे दुनियाभर के 17 बड़े और नामचीन मीडिया संस्थानों के साथ शेयर किया. इन मीडिया संस्थानों में भारत से ‘दि वायर’ भी शामिल था. इन मीडिया संस्थानों और उनके 80 खोजी पत्रकारों की महीनों की मेहनत और गहन जांच के बाद बताया गया कि पेगासस के जरिए अलग-अलग देशों की सरकारें पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, बिजनेसमैन, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और वैज्ञानिकों समेत कई लोगों की जासूसी कर रही हैं. इस सूची में भारत का भी नाम है.

    वैसे, इससे पहले भी तमाम सरकारों पर अपने विरोधियों की जासूसी करने के आरोप लगते रहे हैं. कई सरकारों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है लेकिन आश्चर्यजनक बात यही है कि पेगासस जासूसी प्रकरण को पूरी तरह से निराधार और भारत की प्रगति और विकास को अवरुद्ध करने के अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मान रही मोदी सरकार इसकी संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में किसी तरह की जांच करने को राजी क्यों नहीं हो रही. इतना भी नहीं बता रही कि उसने पेगासस की सेवाएं ली या नहीं.

    भारत और फ्रांस में जिन लोगों की जासूसी कराए जाने के विवरण सामने आ रहे हैं, उनमें से कइयों के नाम किसी न किसी रूप में युद्धक विमान राफेल की खरीद से भी जुड़े हैं. जाहिर सी बात है कि इसके मद्देनजर राफेल युद्धक विमानों की खरीद और उसमें कथित तौर पर ली अथवा दी गई दलाली का मामला भी नए सिरे से तूल पकड़ सकता है. फ्रांस ने तो इस प्रकरण को अपराध मानते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन भारत सरकार अभी भी इसे नकारने के मूड में ही दिख रही है.

मीडिया पर सरकारी शिकंजा !

  
    अब बात करते हैं, मीडिया और खासतौर से हाल के दिनों में सच को सामने लानेवाले मीडिया संस्थानों और उनके पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा कसते जाने के बारे में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर एक अरसे से सरकार से असहमति रखने और किन्हीं मामलों में सरकार की गलत नीतियों के विरोध में लिखने, बोलने और सरकार की गलतियों, नाकामियों को उजागर करनेवाले पत्रकारों-मीडिया संस्थानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे कुछ मीडिया संस्थानों को सरकारी विज्ञापनों की सूची से बाहर रखने, उन्हें न्यूनतम विज्ञापन जारी कर उन्हें आर्थिक रूप से कृपण बनाने से लेकर पत्रकारों को नौकरी से बाहर करवाने, कइयों को रासुका और राजद्रोह जैसे मुकदमों में फंसाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन अभी 22 जुलाई को एक साथ दैनिक भास्कर और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल भारत समाचार के कार्यालयों और अन्य ठिकानों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापा मारा. आमतौर पर सत्तामुखी या कहें सरकार समर्थक ही कहे जाते रहे दैनिक भास्कर ने हाल के महीनों में खासतौर से कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस महामारी से मौत का शिकार हुए लोगों की संख्या पर सरकार के आंकड़ों का सच उजागर करने से लेकर गंगा नदी में बहते और नदी किनारे दफनाए गए शवों, आक्सीजन के अभाव में मरे लोगों पर सरकार की गलत बयानी का सच दिखाने, चित्रकूट में हुई आरएसएस की गोपनीय बैठक से जुड़ी अंदरूनी खबरें सामने लाने, चरम छूती महंगाई और बेरोजगारी के आंकड़ों को प्रमुखता से प्रकाशित करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सिरदर्द बनने लगा था. दैनिक भास्कर का प्रबंधन इस छापेमारी को, जो 24 जुलाई को भी जारी रही, अखबार के सच दिखाने के प्रतिशोध में की गई कार्रवाई करार दिया है. दूसरी तरफ सत्ता पक्ष इससे पल्ला झाड़ते हुए इसे रूटीन कार्यवाही मान रहा है.

    अगर किसी व्यक्ति, संस्था, अखबार और मीडिया संस्थान ने भी आयकर अथवा किसी और मामले में कुछ गलत या अनियमित किया है, मनी लांड्रिंग की है तो उसकी जांच होनी ही चाहिए. उसके खिलाफ कानून और जांच एजेंसियों को अपना काम करना ही चाहिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन सवाल इस छापेमारी की टाइमिंग और अमित शाह जी की भाषा में कहें तो क्रोनोलॉजी को लेकर है. हाल के महीनों में यह बात अक्सर और अधिकतर मामलों में देखी गई है कि हमारे आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों के निशाने पर सरकार के विरोध में बोलने, लिखने, छापने और दिखानेवाले लोग ही ज्यादा होते हैं. अगर दैनिक भास्कर अखबार ने कुछ भी गलत किया है तो उसकी जांच अथवा इसके कार्यालयों पर आयकर के छापे तबभी पड़ सकते थे जब यह सत्तामुखी था. ऐसे समय में ही उस पर छापे क्यों पड़े जब वह सरकार की गलतियों, नाकामियों को सामने ला रहा है.

    
भारत समाचार के संपादक-ऐंकर ब्रजेश मिश्रः सच के साथ
    
सी दिन उत्तर प्रदेश के एक बेबाक टीवी चैनल भारत समाचार और उसके प्रधान संपादक ब्रजेश मिश्रा, तेजतर्रार पत्रकार विरेंद्र सिंह तथा चैनल से जुड़े कुछ अन्य लोगों के कार्यालय और ठिकानों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापेमारी की. दिल्ली पुलिस की एक टीम भारत में पेगासस जासूसी प्रकरण को उजागर करनेवाले न्यूज पोर्टल ‘दि वायर’ के कार्यालय में भी पहुंच गई. पूछने पर बताया गया कि पुलिस वहां 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस समारोह के मद्देनजर रूटीन जांच के लिए गई थी. इससे पहले इसी तरह की छापेमारी एक और न्यूज पोर्टल-यू ट्यूब चैनल ‘न्यूज क्लिक’ के साथ भी हुई थी. भारत समाचार की तरह ही न्यूज क्लिक भी यूपी सरकार से लेकर केंद्र सरकार के गलत कार्यों, कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की लापरवाही और नाकामियों को उजागर करते रहा है. अच्छी बात यह है कि इन पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इस तरह की सरकारी कार्रवाइयों और छापेमारी से डर कर घुटने टेकने के बजाय सच के साथ खड़े रहने का संकल्प जाहिर किया है. हालांकि भारतीय मीडिया का एक वर्ग इन छापों पर या तो तटस्थ है या फिर इनके औचित्य साबित करने में लगा है. सरकार को भी अब जाहिरा तौर पर कह देना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर उसके तमाम नेता चाहे कितना भी मजबूत लोकतंत्र की दुहाई देते रहें, लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व असहमति उन्हें हर्गिज बर्दाश्त नहीं होगी. उसके विरुद्ध कोई कुछ लिखेगा, बोलेगा और छापेगा तो उसके यहां छापे भी पड़ेंगे.