Showing posts with label NSO. Show all posts
Showing posts with label NSO. Show all posts

Monday, 13 September 2021

Hal Filhal: Farmer's Protest becoming Mass Movement

जनांदोलन बनता किसान आंदोलन !


जयशंकर गुप्त


https://youtu.be/nETSJwcB76k    


    भारत सरकार के तीन नए कृषि कानूनों के विरोध में पिछले 9-10 महीनों से दिल्ली और देश के अन्य हिस्सों में शांतिपूर्ण और अहिंसक धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों का आंदोलन अब एक जनांदोलन का रूप लेते जा रहा है. अब इसके साथ बेरोजगार युवा और मजदूर भी जुड़ने लगे हैं. संयुक्त किसान मोर्चा के 27 सितंबर को भारत बंद के अह्वान को कई प्रमुख मजदूर संगठनों का समर्थन मिलने की सूचनाएं भी मिल रही हैं.संवेदनहीन मोदी सरकार के पुलिसिया दमन, सत्तामुखी मुख्यधारा की मीडिया की बेरुखी और बेरहम मौसम की मार को झेलते हुए भी ये किसान दिल्ली से लगने वाली उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की सीमाओं पर लंबे समय से डेरा डाले हैं. कड़ी धूप, कड़कड़ाती ठंड और मूसलाधार बारिश भी इन किसानों का मनोबल तोड़ पाने में विफल रही है. तकरीबन छह सौ किसान इस किसान आंदोलन के क्रम में जान गंवा चुके हैं.

    
कृषि कानूनों के वापस होने तक घर वापसी नहीं !
    सरकार के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत कृषि कानूनों को वापस नहीं लेने, यहां तक कि उसमें किसान नेताओं के मनमुआफिक किसी तरह का फेरबदल करने पर भी राजी नहीं होनेवाली सरकार की जिद के कारण बेनतीजा ही रही है. किसान आंदोलन को तोड़ने की कोशिशें, मीडिया के जरिए किसान आंदोलन को बदनाम करने, उन्हें आतंकवादी, खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग से जुड़े होने के आरोपों से लेकर आंदोलन के केवल धनाढ्य किसानों और बिचौलियों का पक्षधर बताने के कुप्रचार भी किसानों के जज्बे और हौसले को डिगा नहीं सके हैं. आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने एक स्वर से घोषित किया है कि किसान अपनी मांगें पूरी होने यानी कृषि कानूनों की वापसी होने तक घर लौटनेवाले नहीं हैं. चाहे इसके लिए उन्हें 2024 तक या उससे आगे भी इस संघर्ष को क्यों न खींचना पड़े. 

    करनाल में झुकी हरियाणा सरकार

    
    
करनाल में पुलिस का बर्बर लाठीचार्ज
हरियाणा
के करनाल में आंदोलनकारी किसानों के दबाव में राज्य सरकार के झुकने और उनकी अधिकतर मांगें मान लेने के बाद किसान नेताओं को मनोबल और बढ़ा है. गौरतलब है कि 28 अगस्त को हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के करनाल आगमन का विरोध कर रहे किसानों पर पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद किसानों ने अपनी मांगें पूरी होने तक करनाल में मिनी सचिवालय के सामने डेरा डाल दिया था. करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के प्रदर्शनकारी किसानों के सिर फोड़ देने के स्पष्ट निर्देश का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने और उस निर्देश पर अमल करते हुए पुलिस के बर्बर लाठीचार्ज के बाद खट्टर सरकार के खिलाफ पहले से ही नाराज चल रहे किसानों का आक्रोश और बढ़ गया था. किसानों के दबाव में आई सरकार किसान नेताओं के बीच हुई बातचीत में बनी सहमति के बाद किसानों ने मिनी सचिवालय से अपना धरना हटा लिया है. सरकार ने 28 अगस्त के पुलिस लाठी चार्ज की न्यायिक जांच हाइकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश से करवाने, एक महीने के भीतर जांच रिपोर्ट पेश करने, लोकतंत्र में भी जलियांवालाबाग हत्याकांड के गुनहगार माइकल ओ डायर की भाषा बोलनेवाले करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हां को एक महीने के लिए छुट्टी पर भेजने के साथ ही पुलिस लाठीचार्ज में घायल किसान, जिनकी अगले दिन मृत्यु हो गई थी, के परिवार के दो लोगों को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की है.
आयुष सिन्हाः लोकतंत्र में माइकेल ओ डायर की भाषा !

     इधर उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में 5 सितंबर को हुई किसानों की महापंचायत ने इस आंदोलन की दिशा बदलनी शुरू कर दी है. तीन कृषि कानूनों की वापसी की मांग के साथ शुरू हुआ किसान आंदोलन एक नये तरह के जनांदोलन का रूप लेने लगा है. अब किसान नेता कृषि कानूनों के विरोध के साथ ही मोदी सरकार पर देश के सरकारी संसाधनों, सार्वजनिक उपक्रमों को अपने चहेते पूंजीपतियों को बेचने का आरोप भी लगाने लगे हैं. इसके साथ ही महंगाई, बेरोजगारी के सवाल भी उठाते हुए किसान नेता वोट की चोट से सत्ता परिवर्तन की बात भी करने लगे हैं. यह भी एक कारण है कि अब किसान आंदोलन के साथ मजदूर और बेरोजगार युवा भी जुड़ते जा रहे हैं. तमाम विरोधी दलों का खुला समर्थन इस आंदोलन के पक्ष में दिखने लगा है. और अब तो सत्तारूढ़ दल भाजपा, इसके सहयोगी और इसे संचालित करनेवाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े भारतीय किसान संघ के लोग भी कृषि कानूनों के विरुद्ध आंदोलित किसानों के पक्ष में बोलने लगे हैं.

    किसान महापंचायत ने भाजपा की नींद उड़ाई  


    
 किसान महापंचायत में राकेश टिकैतः सरकार नहीं मानी तो वोट की चोट
लेकिन मोदी सरकार न जाने किन कारणों से इन सब बातों को अभी भी अनसुना कर रही है. हालांकि पिछले 5 सितंबर को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत और उसमें सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ाने के इरादे से दिए गए अल्लाहु अकबर, हर हर महादेव और जो बोले सो निहाल का नारा लगाकर किसान नेताओं ने भाजपा के चुनावी रणनीतिकारों की नींद उड़ा दी है. उन्हें लगता है कि इस तरह के नारों के साथ किसान नेताओं और खासतौर से राकेश टिकैत के गूंगी बहरी और संवेदनहीन सरकार को वोट की चोट देने के आह्वान का न सिर्फ उत्तर प्रदेश और पंजाब बल्कि उत्तराखंड विधानसभा के चुनावों में भाजपा की राजनीतिक सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है. इस तरह के नारों से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के उनके प्रयासों में पलीता लगते दिख रहा है. महा पंचायत में किसान नेताओं ने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि 2013-14 में वे लोग भाजपा और आरएसएस के द्वारा फैलाए गए भ्रमजाल के शिकार हो गए थे. 
    
    गौरतलब है कि 2013 में मुजफ्फरनगर में हुए सांप्रदायिक दंगों ने न सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश और देश के अन्य हिस्सों में भी भाजपा के पक्ष में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर आधारित चुनावी माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. भाजपा को इसका भरपूर राजनीतिक लाभ न सिर्फ 2014 के संसदीय आम चुनाव में बल्कि 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भी मिला था. इस बार किसान आंदोलन ने न सिर्फ किसानों को बल्कि इन इलाकों में दशकों पुराने सामाजिक सद्भाव और भाई चारे को भी लामबंद किया है. इस महा पंचायत में राकेश टिकैत ने साफ तौर पर भाजपा और आरएसएस के लोगों पर सुनियोजित साजिश के तहत सांप्रदायिक दंगे करवाने के आरोप लगाते हुए कहा कि इस बार भी इन लोगों की साजिश 2022 के चुनाव से पहले किसी बड़े हिंदू नेता की हत्या करवाने की हो सकती है. उन्होंने इसके लिए भाजपा के नेताओं के साथ ही आम जनता को भी आगाह किया.

   कितनी जायज हैं किसानों की आशंकाएं !


    किसान आंदोलन का नेतृत्व कर रहे संयुक्त किसान मोर्चा ने 27 सितंबर को भारत बंद का आह्वान किया है. उनके इस आह्वान को तमाम मजदूर संगठनों का समर्थन भी मिल रहा है. किसान नेताओं की बदली रणनीति पर काबू पाने की गरज से मोदी सरकार ने मुजफ्फरनगर की किसान महापंचायत के तीन दिन बाद, 8 सितंबर को रबी फसलों-दलहन, तिलहन और मोटे अनाज की खरीद के लिए एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य में लाक्षणिक वृद्धि कर किसानों के सामने राजनीतिक चुग्गा फेंकने की कोशिश की. लेकिन किसान नेता इससे अप्रभावित ही रहे. उनका कहना है कि एमएसपी तो बढ़ती घटती रहती है, उनकी मांग तो कृषि उपज मंडियों की व्यवस्था जारी रखने और एमएसपी पर किसानों की फसल की खरीद की संवैधानिक गारंटी देने की है. 

    इसके साथ ही किसान नेता करनाल में एसडीएम आयुष सिन्हां के बर्बर और किसान विरोधी रवैए को सामने रखकर कह रहे हैं कि इससे भी जाहिर होता है कि कृषि कानून किस हद तक किसान हितों के विरुद्ध है. कृषि कानून के तहत किसानों और व्यापारी-पूंजीपतियों के बीच किसी तरह का विवाद होने पर उसका निपटारा किसी अदालत में नहीं बल्कि एसडीएम के दरबार में होगा. आयुष सिन्हां के रवैए से समझा जा सकता है कि किसानों को किस तरह का न्याय मिलेगा. यही नहीं मंडियों के बने रहने और न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों की फसल खरीद के लिए संवैधानिक गारंटी की मांग कर रहे किसानों का तर्क है कि इस तरह की गारंटी नहीं होने के बाद पूंजीपति वैसा ही करेंगे जैसे हिमाचल प्रदेश में गौतम अडानी की कंपनी ने सेब किसानों के साथ किया है. पहले तो मंडी व्यवस्था को ध्वस्त करने के लिए उन लोगों ने दाम बढ़ाकर किसानों से सेब की खरीद की लेकिन इस बार सेब के दामों में गुणवत्ता के हिसाब से औसतन 15-20 रु. प्रति किलो के हिसाब से कमी कर दी है. इसी तरह से उनका कहना है कि कृषि कानूनों के बनने के बाद से उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब तथा कई अन्य राज्यों में भी कृषि उत्पादन मंडी समितियों में भारी कमी आई है. 

    सरकारी आंकड़ों में किसानों की बदहाली


    किसान नेताओं का मानना है कि कृषि कानूनों के अमल में आने पर किसानों का उनकी जमीन और उपज पर भी हक नहीं रह जाएगा. कार्पोरेट ताकतों को कृषि पर कब्जा करने का हक मिल जाएगा. इस बीच भारत सरकार के सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के अधीन राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसओ) ने बताया है कि देश में खेती-बाड़ी करने वाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ से दबे हैं. इस सर्वेक्षण के अनुसार कर्ज में डूबे प्रत्येक कृषक परिवार पर औसतन 74,121 रुपये का कर्ज था. सर्वे में कहा गया है कि उनके कुल बकाया कर्ज में से तकरीबन 70 प्रतिशत बैंकों, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिए गये थे. जबकि 20.5 प्रतिशत कर्ज पेशेवर सूदखोरों से लिए गये. एनएसओ ने जनवरी-दिसंबर 2019 के दौरान देश के ग्रामीण क्षेत्रों में परिवार की भूमि और पशुधन के अलावा कृषि परिवारों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति का आकलन किया. सर्वे के अनुसार कृषि वर्ष 2018-19 (जुलाई-जून) के दौरान प्रत्येक कृषक परिवार की हर महीने औसत आमदनी महज 10,218 रुपये थी. एक परिवार में औसतन चार-या पांच सदस्य होते हैं. इस हिसाब से प्रति किसान यह आमदनी दो से ढाई हजार रुपए प्रति माह ही बैठती है. एनएसओ की यह रिपोर्ट आंखें खोलनेवाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 के संसदीय चुनाव से पहले और बाद में भी किसानों को उनकी फसल की लागत का डेढ़ गुना दाम दिलाने, उनकी आमदनी दो गुनी करने की बातें करते रहे हैं. एनएसओ के ये आंकड़े उनके इन वादों को जमीनी सच की कसौटी पर परखने में भी मददगार हो सकते हैं.

मुजफ्फरनगर की किसान पंचायत में सांप्रदायिक सद्भाव की बातें
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की साजिशों का खुलासा !
     कुल मिलाकर देखा जाए तो किसानों का आंदोलन अब केवल तीन कृषि कानूनों को रद्द करने का आंदोलन मात्र नहीं रह गया है. अब इसने एक वृहत्तर जनांदोलन की शक्ल लेनी शुरू कर दी है. मोदी जी और उनकी सरकार में शामिल लोगों को पता होगा कि 1973-74 का गुजरात आंदोलन कुछ कालेजों में होस्टेल की फीस बढने और भोजन की खराब गुणवत्ता के लेकर शुरू हुआ था. उसकी ही तर्ज पर बिहार आंदोलन शुरू हुआ. आगे चलकर लोकनायक जयप्रकाश नारायण के भी उस आंदोलन में शामिल होने के बाद उसे जेपी आंदोलन या कहें संपूर्ण क्रांति आंदोलन भी कहा जाने लगा. आगे चलकर इसमें कुछ और राजनीतिक घटनाक्रम भी जुड़े जिनके चलते तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश को आंतरिक आपातकाल के हवाले कर दिया था. लेकिन 1977 में हुए संसदीय आम चुनाव में उन्हें और उनकी कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा था. पहली बार केंद्र में सत्ता परिवर्तन फलस्वरूप जनता पार्टी की सरकार बनी थी. कहने का मतलब सिर्फ यही है कि समय रहते अगर मोदी सरकार ने अतीत से सबके लेकर कृषि कानूनों पर अपनी जिद छोड़कर कृषि और किसानों के हित में कोई ठोस फैसला नहीं किया तो उसे भी आगे चलकर इसका राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. इसकी बानगी उन्हें अगले साल फरवरी-मार्च महीने में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब सहित पांच राज्य विधानसभाओं और फिर उसी साल, 2022  के अंत में होनेवाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिल सकती है.

नोट ः तस्वीरें इंटरनेट से ली गई हैं

Monday, 26 July 2021

HAL FILHAL: PEGASUS SPYWARE PROJECT and RAID ON MEDIA

जासूसी का जाल और मीडिया पर छापेमारी


जयशंकर गुप्त


    क्या कोई सरकार अपने राजनीतिक विरोधियों, असहमति रखनेवाले पत्रकारों, वकीलों, उद्यमियों और नागरिकों की जासूसी करवा सकती है! और क्या स्वतंत्र और तटस्थ पत्रकारिता कर रहे अखबारों, टीवी चैनलों और पत्रकारों के यहां आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी से उन्हें डराया-धमकाया जा सकता है ! हम बात कर रहे हैं, भारत सहित दुनिया के कई और देशों में भी ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए स्मार्ट फोन हैक कर जासूसी करने के संबंध में मीडिया रिपोर्ट्स की और देश के सबसे बड़े अखबारों में शुमार ‘दैनिक भास्कर’ और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल ‘भारत समाचार’ और इसके संपादक के कार्यालयों, ठिकानों पर पिछले सप्ताह बड़े पैमाने पर हुई आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी की.

  
राज्यसभा में पेगासस जासूसी को लेकर हंगामा (तस्वीरः राज्यसभा टीवी)
    मानसून सत्र का पहला सप्ताह कथित जासूसी प्रकरण और मीडिया संस्थानों छापेमारी पर संसद में चर्चा कराने, इसकी संयुक्त संसदीय समिति अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में विशेष जांच दल (एसआइटी) से जांच करवाने की मांग कर रहे विपक्ष के हंगामे और सरकार के अड़ियल रुख की भेंट चढ़ गया. एक दिन राज्य सभा में विपक्ष के सांसदों के शोरगुल, नारेबाजी और हंगामे के बीच पेगासस जासूसी मामले पर जवाब दे रहे सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव से जवाब की प्रति छीनने के आरोप में तृणमूल कांग्रेस के सांसद शांतनु सेन को पूरे मानसून सत्र के लिए निलंबित किया जा चुका है. लेकिन मामला शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. विपक्ष अपनी मांग पर अड़ा है.इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन भीमराव लोकुर एवं कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के दो सदस्यीय जांच आयोग से इस मामले की न्यायिक जांच कराने की घोषणा की है. सुश्री बनर्जी के अनुसार उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में इस मामले की जांच करवाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

    इस बीच देश और दुनिया के कई और देशों में भी इजरायल की कंपनी एनएसओ के जासूसी उपकरण ‘पेगासस स्पाईवेयर’ के जरिए की गई जासूसी के संबंध में नित नए खुलासे हो रहे हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे, सांसद अभिषक बनर्जी, चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर, सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा, पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा, युद्धक विमान राफेल की खरीद से जुड़े उद्योगपति अनिल अंबानी, उनकी कंपनी के कुछ बड़े अधिकारी, राफेल कंपनी के कुछ अधिकारियों से लेकर जम्मू कश्मीर के कुछ बड़े नेताओं और देश के चार दर्जन पत्रकारों के साथ ही केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद पटेल के नाम भी अब तक सामने आ चुके हैं जिनके स्मार्ट मोबाइल फोन नंबरों को हैक कर उनकी जासूसी की बात कही जा रही है. फ्रांस में खोजी पत्रकारिता के लिए मशहूर संस्था ‘मीडियापार’ के फाउंडर एडवी प्लेनेल और उनकी सहयोगी पत्रकार लीनाग ब्रेडॉ के नाम भी उस लिस्ट में हैं, जिनके फोन की पेगासस के जरिए जासूसी कराए जाने की बातें कही जा रही हैं. मीडियापार वही संस्था है, जिसकी शिकायत पर फ्रांस में राफेल विमानों की खरीद में भ्रष्टाचार की जांच नए सिरे से शुरू हुई है.

    
राहुल गांधीः फोन हैक हुआ
    राहुल गांधी ने अपने स्मार्ट फोन को हैक होने की पुष्टि की है. उन्होंने इस जासूसी प्रकरण को ‘राजद्रोह’ करार देते हुए इसके लिए गृह मंत्री अमित शाह को जिम्मेदार ठहराया है और उनके त्यागपत्र की मांग की है. उन्होंने इस मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका की जांच भी सुप्रीम कोर्ट से कराने की मांग की है. लेकिन सरकार ने मीडिया रिपोर्टों के आधार पर विपक्ष की इस मांग को निराधार करार देते हुए कथित जासूसी प्रकरण को संसद के मानसून सत्र के ठीक एक दिन पहले सार्वजनिक करने के पीछे भारत की प्रगति और विकास के रास्ते में अवरोध पैदा करने की गरज से अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र की आशंका जाहिर की है. सूचना प्रौद्योगिकी और संचार मंत्री अश्विनी वैष्णव ने 19 जुलाई को लोकसभा में कहा, "एक वेब पोर्टल पर कल रात एक अति संवेदनशील रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसमें बढ़ा-चढ़ाकर कई आरोप लगाए गए. ये रिपोर्ट संसद के मॉनसून सत्र के एक दिन पहले प्रकाशित हुई. यह संयोग मात्र नहीं हो सकता." इसी तरह की बात करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने भी इसकी क्रोनोलॉजी समझाने की कोशिश की है. सरकार की तरफ से यह भी साफ करने की कोशिश की गई कि सरकार अवैधानिक तरीके से किसी की जासूसी नहीं करवाती है. यानी वैधानिक तरीके से जासूसी कराई जा सकती है. अगर सरकार इस संबंध में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया के रहस्योद्घाटनों को निराधार और अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मानती है तो फिर इस मामले की संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में जांच को तैयार क्यों नहीं हो जाती.  

    यह मांग केवल विपक्ष के नेता, वकील और पत्रकार ही नहीं कर रहे हैं, भाजपा के वरिष्ठ नेता, सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी कहा है कि “अगर छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो प्रधानमंत्री मोदी को चाहिए कि वह इजराइली प्रधानमंत्री को चिट्‌ठी लिखें और एनएसओ के पेगासस प्रोजेक्ट का पता लगाएं. यह भी पता लगाया जाए कि इसके लिए पैसे किसने खर्च किया.” स्वामी ने ट्विटर पर लिखा कि पेगासस स्पाईवेयर एक व्यावसायिक कंपनी है, जो पैसा लेकर ही काम करती है. इसलिए यह सवाल लाज़मी है कि भारतीय लोगों पर जासूसी के लिए पैसे अगर भारत सरकार ने नहीं दिए, तो आख़िर किसने दिए. मोदी सरकार को इसका जवाब देश की जनता को देना चाहिए. अपने विरोधियों की जासूसी कराने के इस मामले में सरकार पर शक की सुई इसलिए भी उठ रही है क्योंकि एनएसओ ने साफ कहा है कि उसका जासूसी सॉफ्टवेयर अपराध और आतंकवादी गतिविधियों को रोकने और लोगों के जीवन बचाने के एकमात्र उद्देश्य के लिए केवल सरकारों और उनकी खुफिया एजेंसियों को ही बेचा जाता है. इसे किसी निजी व्यक्ति अथवा संस्थान को नहीं बेचा जाता. मजे की बात यह भी है कि अभी तक भारत में जितने भी फोन नंबरों की जासूसी पेगासस के स्पाईवेयर से कराए जाने की बातें सामने आ रही हैं, उनमें से एक भी फोन नंबर किसी आतंकवादी अथवा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अपराधी का नहीं है. 

  
भाजपा नेता स्वामीः छिपाने को कुछ नहीं तो जांच करवा लें
    इस संदर्भ में मीडिया रिपोर्ट्स सार्वजनिक होने से पहले ही भाजपा नेता स्वामी ने ट्वीट कर बताया था कि वॉशिंगटन पोस्ट, गार्डियन तथा कुछ और मीडिया संस्थान एक रिपोर्ट सार्वजनिक करने जा रहे हैं, जिसमें इजराइल की फर्म पेगासस को मोदी कैबिनेट के मंत्री, आरएसएस के नेता, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश और पत्रकारों के फ़ोन टैप करने के लिए हायर किए जाने का भंडाफोड़ होगा. 18 जुलाई को वॉशिंगटन पोस्ट की रिपोर्ट में बताया गया कि शुरुआती रिपोर्ट में दुनिया भर में 189 पत्रकारों, 600 से अधिक राजनेताओं और सरकारी अधिकारियों और 60 से अधिक व्यावसायिक अधिकारियों को एनएसओ के ग्राहकों (क्लाइंट्स) द्वारा लक्षित किया गया था. 18 जुलाई की देर शाम यहां दिल्ली में न्यूज पोर्टल ‘द वायर’ ने अपनी रिपोर्ट में सनसनीखेज खुलासा किया कि भारत सरकार ने 2017 से 2019 के बीच करीब 300 भारतीयों की जासूसी करवाई है. इन 300 लोगों में विपक्ष के नेता पत्रकार, वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और बिजनेसमैन भी शामिल हैं. दि वायर ने दावा किया कि सरकार ने पेगासस स्पाईवेयर के जरिए इन लोगों के फोन हैक किए थे.

क्या है पेगासस जासूसी प्रकरण


    इजराइल की कंपनी एनएसओ का पेगासस स्पाईवेयर एक ऐसा सॉफ्टवेयर है, जो बिना सहमति के आपके स्मार्ट फोन तक पहुंच हासिल करने, व्यक्तिगत और संवेदनशील जानकारी इकट्ठा कर जासूसी करने वाले यूजर यानी ग्राहक को देने के लिए बनाया गया है. यह अगर किसी स्मार्ट फोन में डाल दिया जाए तो कोई हैकर उस आईफोन, एन्ड्राएड फोन के माइक्रोफोन, कैमरा, आडियो और टेक्स्ट मेसेजेज, ईमेल और लोकेशन तक की सभी तरह की जानकारियां हासिल कर सकता है. 

  दरअसल, फ़्रांसीसी मीडिया संस्थान, फॉरबिडन स्टोरीज और मानवाधिकारों की रक्षा से जुड़े एमनेस्टी इंटरनेशनल को 45 देशों के तकरीबन 50 हजार स्मार्ट फोन नंबर्स की एक लिस्ट मिली थी जिनको पेगासस स्पाईवेयर के जरिए हैक करने की आशंका जताई गई थी. 'फ़ॉरबिडन स्टोरीज़' ने इनमें से 67 फोन नंबरों के उपयोगकर्ताओं से अनुमति लेकर उनके नंबरों की फ़ॉरेंसिक जांच करवाई. इनमें से 37 लोगों के फ़ोन में एमनेस्टी इंटरनेशनल सिक्योरिटी लैब्स को पेगासस स्पाईवेयर द्वारा संभावित रूप से टारगेट बनाये जाने के सबूत मिले. इसके बाद ही इन संस्थाओं ने पूरी सूची को दि गार्डियन, वाशिंगटन पोस्ट, फ्रंटलाइन, ली मॉंड, रेडियो फ्रांस, हारेट्ज (इजराइल) जैसे दुनियाभर के 17 बड़े और नामचीन मीडिया संस्थानों के साथ शेयर किया. इन मीडिया संस्थानों में भारत से ‘दि वायर’ भी शामिल था. इन मीडिया संस्थानों और उनके 80 खोजी पत्रकारों की महीनों की मेहनत और गहन जांच के बाद बताया गया कि पेगासस के जरिए अलग-अलग देशों की सरकारें पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, बिजनेसमैन, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों और वैज्ञानिकों समेत कई लोगों की जासूसी कर रही हैं. इस सूची में भारत का भी नाम है.

    वैसे, इससे पहले भी तमाम सरकारों पर अपने विरोधियों की जासूसी करने के आरोप लगते रहे हैं. कई सरकारों को इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा है लेकिन आश्चर्यजनक बात यही है कि पेगासस जासूसी प्रकरण को पूरी तरह से निराधार और भारत की प्रगति और विकास को अवरुद्ध करने के अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र का हिस्सा मान रही मोदी सरकार इसकी संयुक्त संसदीय समिति से अथवा सुप्रीम कोर्ट की देख रेख में किसी तरह की जांच करने को राजी क्यों नहीं हो रही. इतना भी नहीं बता रही कि उसने पेगासस की सेवाएं ली या नहीं.

    भारत और फ्रांस में जिन लोगों की जासूसी कराए जाने के विवरण सामने आ रहे हैं, उनमें से कइयों के नाम किसी न किसी रूप में युद्धक विमान राफेल की खरीद से भी जुड़े हैं. जाहिर सी बात है कि इसके मद्देनजर राफेल युद्धक विमानों की खरीद और उसमें कथित तौर पर ली अथवा दी गई दलाली का मामला भी नए सिरे से तूल पकड़ सकता है. फ्रांस ने तो इस प्रकरण को अपराध मानते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं लेकिन भारत सरकार अभी भी इसे नकारने के मूड में ही दिख रही है.

मीडिया पर सरकारी शिकंजा !

  
    अब बात करते हैं, मीडिया और खासतौर से हाल के दिनों में सच को सामने लानेवाले मीडिया संस्थानों और उनके पत्रकारों पर सरकारी शिकंजा कसते जाने के बारे में. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर एक अरसे से सरकार से असहमति रखने और किन्हीं मामलों में सरकार की गलत नीतियों के विरोध में लिखने, बोलने और सरकार की गलतियों, नाकामियों को उजागर करनेवाले पत्रकारों-मीडिया संस्थानों को तरह-तरह से प्रताड़ित करने के आरोप लगते रहे हैं. ऐसे कुछ मीडिया संस्थानों को सरकारी विज्ञापनों की सूची से बाहर रखने, उन्हें न्यूनतम विज्ञापन जारी कर उन्हें आर्थिक रूप से कृपण बनाने से लेकर पत्रकारों को नौकरी से बाहर करवाने, कइयों को रासुका और राजद्रोह जैसे मुकदमों में फंसाने के आरोप लगते रहे हैं. लेकिन अभी 22 जुलाई को एक साथ दैनिक भास्कर और उत्तर प्रदेश के खबरिया टीवी चैनल भारत समाचार के कार्यालयों और अन्य ठिकानों पर आयकर और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापा मारा. आमतौर पर सत्तामुखी या कहें सरकार समर्थक ही कहे जाते रहे दैनिक भास्कर ने हाल के महीनों में खासतौर से कोरोना की दूसरी लहर के दौरान इस महामारी से मौत का शिकार हुए लोगों की संख्या पर सरकार के आंकड़ों का सच उजागर करने से लेकर गंगा नदी में बहते और नदी किनारे दफनाए गए शवों, आक्सीजन के अभाव में मरे लोगों पर सरकार की गलत बयानी का सच दिखाने, चित्रकूट में हुई आरएसएस की गोपनीय बैठक से जुड़ी अंदरूनी खबरें सामने लाने, चरम छूती महंगाई और बेरोजगारी के आंकड़ों को प्रमुखता से प्रकाशित करने के कारण सत्ता प्रतिष्ठान के लिए सिरदर्द बनने लगा था. दैनिक भास्कर का प्रबंधन इस छापेमारी को, जो 24 जुलाई को भी जारी रही, अखबार के सच दिखाने के प्रतिशोध में की गई कार्रवाई करार दिया है. दूसरी तरफ सत्ता पक्ष इससे पल्ला झाड़ते हुए इसे रूटीन कार्यवाही मान रहा है.

    अगर किसी व्यक्ति, संस्था, अखबार और मीडिया संस्थान ने भी आयकर अथवा किसी और मामले में कुछ गलत या अनियमित किया है, मनी लांड्रिंग की है तो उसकी जांच होनी ही चाहिए. उसके खिलाफ कानून और जांच एजेंसियों को अपना काम करना ही चाहिए. इसमें कुछ भी गलत नहीं है लेकिन सवाल इस छापेमारी की टाइमिंग और अमित शाह जी की भाषा में कहें तो क्रोनोलॉजी को लेकर है. हाल के महीनों में यह बात अक्सर और अधिकतर मामलों में देखी गई है कि हमारे आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों के निशाने पर सरकार के विरोध में बोलने, लिखने, छापने और दिखानेवाले लोग ही ज्यादा होते हैं. अगर दैनिक भास्कर अखबार ने कुछ भी गलत किया है तो उसकी जांच अथवा इसके कार्यालयों पर आयकर के छापे तबभी पड़ सकते थे जब यह सत्तामुखी था. ऐसे समय में ही उस पर छापे क्यों पड़े जब वह सरकार की गलतियों, नाकामियों को सामने ला रहा है.

    
भारत समाचार के संपादक-ऐंकर ब्रजेश मिश्रः सच के साथ
    
सी दिन उत्तर प्रदेश के एक बेबाक टीवी चैनल भारत समाचार और उसके प्रधान संपादक ब्रजेश मिश्रा, तेजतर्रार पत्रकार विरेंद्र सिंह तथा चैनल से जुड़े कुछ अन्य लोगों के कार्यालय और ठिकानों पर आयकर विभाग और प्रवर्तन निदेशालय की टीमों ने छापेमारी की. दिल्ली पुलिस की एक टीम भारत में पेगासस जासूसी प्रकरण को उजागर करनेवाले न्यूज पोर्टल ‘दि वायर’ के कार्यालय में भी पहुंच गई. पूछने पर बताया गया कि पुलिस वहां 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस समारोह के मद्देनजर रूटीन जांच के लिए गई थी. इससे पहले इसी तरह की छापेमारी एक और न्यूज पोर्टल-यू ट्यूब चैनल ‘न्यूज क्लिक’ के साथ भी हुई थी. भारत समाचार की तरह ही न्यूज क्लिक भी यूपी सरकार से लेकर केंद्र सरकार के गलत कार्यों, कोरोना महामारी से निबटने में सरकार की लापरवाही और नाकामियों को उजागर करते रहा है. अच्छी बात यह है कि इन पत्रकारों और मीडिया संस्थानों ने इस तरह की सरकारी कार्रवाइयों और छापेमारी से डर कर घुटने टेकने के बजाय सच के साथ खड़े रहने का संकल्प जाहिर किया है. हालांकि भारतीय मीडिया का एक वर्ग इन छापों पर या तो तटस्थ है या फिर इनके औचित्य साबित करने में लगा है. सरकार को भी अब जाहिरा तौर पर कह देना चाहिए कि प्रधानमंत्री से लेकर उसके तमाम नेता चाहे कितना भी मजबूत लोकतंत्र की दुहाई देते रहें, लोकतंत्र का अनिवार्य तत्व असहमति उन्हें हर्गिज बर्दाश्त नहीं होगी. उसके विरुद्ध कोई कुछ लिखेगा, बोलेगा और छापेगा तो उसके यहां छापे भी पड़ेंगे.